Showing posts with label Politics. Show all posts
Showing posts with label Politics. Show all posts

Monday, September 5, 2022

तेलंगाना : प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या?


कहावत है कि क्रिकेट और राजनीति अनिश्चिताओं का खेल होते है। क्रिकेट में पारी की आख़री बॉल टीम को जीता भी सकती है और हरा भी सकती है। क्या किसी ने कभी सोचा था कि चरण सिंह, वी पी सिंह, चंद्रशेखर, आई के गुजराल और एच डी देवेगोड़ा भारत के प्रधान मंत्री बनेंगे। जबकि किसी के पास प्रधान मंत्री बनने लायक सांसद तो क्या उसका पाँचवाँ हिस्सा भी सांसद नहीं थे। आई के गुजराल तो ऐसे प्रधान मंत्री थे जो अपने बूते एक लोक सभा की सीट भी नहीं जीत सकते थे। फिर भी ये सब प्रधान मंत्री बने। वो अलग बात है कि इनका प्रधान मंत्री बनना किसी अखिल भारतीय आंदोलन की परिणिति नहीं था बल्कि उस समय की राजनैतिक परिस्थितियों ने इन्हें ये मौक़ा दिया। 


एक बार फिर देश के हालत ऐसे हो रहे हैं कि देश की बहुसंख्यक आबादी शायद सत्ता परिवर्तन देखना चाहती है। एक तरफ़ वो लोग हैं जो मानते हैं कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता घटी नहीं है और भाजपा के समान ताक़त, पैसा और संगठन किसी दल के पास नहीं है। इसलिए 2024 का चुनाव एक बार फिर मोदी के पक्ष में ही जाएगा। 



पर दूसरी तरफ़ वो राजनैतिक विश्लेषक हैं जो यह बताते हैं की देश की कुल 4139 विधान सभा सीटों में से भाजपा के पास केवल 1516 सीटें ही हैं। जिनमें से 950 सीटें 6 राज्यों में ही हैं। आज भी देश की 66 फ़ीसद सीटों पर भाजपा को हार का मुँह  देखना पड़ा है। इसलिए उनका कहना है कि देश में भाजपा की कोई लहर नहीं है। इसलिये मुख्य धारा की मीडिया के द्वारा भाजपा का रात-दिन जो प्रचार किया जाता है वह ज़मीनी हक़ीक़त से कोसों दूर है। इनका यह भी कहना है कि मतदाता का भाजपा से अब तेज़ी से मोह भंग हो रहा है। पहले पाँच साल तो आश्वासनों और उम्मीद में कट गए, लेकिन एनडीए 2 के दौर में किसानों की दुर्दशा, महंगाई व बेरोज़गारी जैसी बड़ी समस्याओं का कोई हाल अभी तक नज़र नहीं आ रहा। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आँकड़ों के अनुसार भारत में  पिछले वर्ष दिहाड़ी मज़दूरों की आत्महत्याएँ तेज़ी से बढ़ी हैं। हर आत्महत्या करने वालों में चौथा व्यक्ति दिहाड़ी मज़दूर है, जो देश के ग़रीबों की दयनीय दशा का प्रमाण है। 


सरकार द्वारा करोड़ों लोगों को मुफ़्त का राशन दिया जाना यह सिद्ध करता है कि देश में इतनी ग़रीबी है कि एक परिवार दो वक्त पेट भर कर भोजन भी नहीं कर सकता। स्वास्थ्य और शिक्षा की बात तो भूल जाइए। इस दुर्दशा के लिए आज़ादी के बाद से आई हर सरकार ज़िम्मेदार है। ‘ग़रीबी हटाओ’ का बरसों नारा देने वाली कांग्रेस पार्टी ग़रीबी नहीं हटा पाई। इसलिए उसे ‘मनरेगा' जैसी योजनाएँ लाकर ग़रीबों को राहत देनी पड़ी। ये वही योजना है जिसका भाजपा की सरकार ने शुरू में कांग्रेस पर कटाक्ष करते हुए खूब मज़ाक़ उड़ाया था। पर इस योजना को बंद करने का साहस भाजपा भी नहीं दिखा सकी। कोविड काल में तो ‘मनरेगा’ से ही सरकार की इज़्ज़त बच पाई। मतलब ये कि ‘सबका साथ सबका विकास’ का भाजपा का नारा भी ‘ग़रीबी हटाओ’ के नारे की तरह हवा-हवाई ही रहा? 



हमें इस बात पर गर्व होना चाहिए कि पिछले आठ बरसों में हमारे देश के एक उद्योगपति गौतम आडानी दुनिया के तीसरे सबसे धनी व्यक्ति बन गये। जबकि आठ बरस पहले दुनिया के धनी लोगों की सूची में उनका नाम दूर-दूर तक कहीं नहीं था। अगर इतनी अधिक न सही पर इसके आस-पास की भी आर्थिक प्रगति भारत के अन्य औद्योगिक घरानों ने की होती या औसत हिंदुस्तानी की आय थोड़ी भी बढ़ी होती तो आँसूँ पौंछने लायक स्थिति हो जाती। तब यह माना जा सकता था कि वर्तमान सरकार की नीति ‘सबका साथ और सबका विकास’ करने की है। 


इन हालातों में दक्षिण भारत का छोटा से राज्य तेलंगाना के आर्थिक विकास का उदाहरण धीरे-धीरे देश में चर्चा का विषय बनता जा रहा है। देश का सबसे युवा प्रदेश तेलंगाना आठ बरस पहले जब अलग राज्य बना तो इसकी आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय थी। कृषि, उद्योग, रोज़गार, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे हर मामले में ये एक पिछड़ा राज्य था। पर लम्बा संघर्ष कर तेलंगाना राज्य को बनवाने वाले के चंद्रशेखर राव (केसीआर) नये राज्य के मुख्य मंत्री बन कर ही चुप नहीं बैठे। उन्होंने किसानी के अपने अनुभव और दूरदृष्टि से सीईओ की तरह दिन-रात एक करके, हर मोर्चे पर ऐसी अद्भुत कामयाबी हासिल की है कि इतने कम समय में तेलंगाना भारत का सबसे तेज़ी से विकसित होने वाला प्रदेश बन गया है। 


पिछले हफ़्ते पटना में बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार और उप मुख्य मंत्री तेजस्वी यादव ने भी सार्वजनिक रूप से तेलंगाना की प्रगति की प्रशंसा की। उससे एक हफ़्ता पहले देश के 26 राज्यों के किसान संगठनों के 100 से अधिक किसान नेता तेलंगाना पहुँचे, ये देखने कि केसीआर के शासन में तेलंगाना का किसान कितना खुशहाल हो गया है। ये सब किसान नेता उसके बाद इस संकल्प के साथ अपने-अपने प्रदेशों को लौटे हैं कि अपने राज्यों की सरकारों पर दबाव डालेंगे कि वे भी किसानों के हित में तेलंगाना के मॉडल को अपनाएँ। 


मैंने खुद तेलंगाना के विभिन्न अंचलों में जा कर तेलंगाना के कृषि, सिंचाई, कुटीर व बड़े उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य और समाज कल्याण के क्षेत्र में जो प्रगति देखी वो आश्चर्यचकित करने वाली है। दिल्ली में चार दशक से पत्रकारिता करने के बावजूद न तो मुझे इस उपलब्धि का कोई अंदाज़ा था और न ही केसीआर के बारे में सामान्य से ज़्यादा कुछ भी पता था। लेकिन अब लगता है कि विपक्षी एकता का प्रयास या 2024 का लोक सभा चुनाव तो एक सीढ़ी मात्र है, केसीआर की योजना तो पूरे भारत में तेलंगाना जैसी प्रगति करके दिखाने की है। चुनाव में कौन जीतता है, कौन प्रधान मंत्री बनता है, ये तो मतदाता के मत और उस व्यक्ति के भाग्य पर निर्भर करेगा। पर एक बार शेष भारत के हर पत्रकार का इस प्रगति को देखने के लिए तेलंगाना जाना तो ज़रूर बनता है। क्योंकि कहावत है कि ‘प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता’ नहीं होती। प्रांतीय सरकारों को ही नहीं भाजपा की केंद्र सरकार को भी केसीआर से दुश्मनी मानने के बजाय उनके काम का निष्पक्ष मूल्यांकन करके उनसे कुछ सीखना चाहिए।  

Monday, October 4, 2021

देश में पारदर्शी सर्वेक्षण की ज़रूरत क्यों?


पिछले सात साल का आर्थिक लेखा-जोखा विवादों में है। जहां एक तरफ़ केंद्र और राज्यों की भाजपा सरकारें अभूतपूर्व आर्थिक प्रगति के दावे कर रहीं हैं और सैंकड़ों करोड़ रुपए के बड़े-बड़े विज्ञापन अख़बारों में छपवा रहीं हैं। वहीं विपक्षी दलों का लगातार यह आरोप है कि पिछले सात वर्षों में भारत की आर्थिक प्रगति होने के बजाए आर्थिक अवनति हुई है। वे भारत की ऋणात्मक वृद्धि दर का तर्क देकर अपनी बात कहते हैं। 



दूसरी तरफ़ भारत के लोग, जिनमें उच्च वर्ग के कुछ घरानों को छोड़ दें, तो शेष घराने, मध्यम वर्गीय परिवार, निम्न वर्गीय परिवार व ग़रीबी की रेखा के नीचे रहने वाले परिवार क्या कहते हैं, ये जानना भी ज़रूरी है। इसका सबसे साधारण तरीक़ा यह है कि हर ज़िले के माध्यमिक व उच्च शिक्षा के संस्थानों में पढ़ने और पढ़ाने वाले अपने-अपने स्तर पर एक व्यापक सर्वेक्षण करें। जैसे ग्राम स्तर पर, ब्लॉक स्तर पर, क़स्बा स्तर पर और नगर के स्तर पर सभी जागरूक शिक्षक व गम्भीर छात्र सार्वजनिक सर्वेक्षण समितियाँ बना लें। इन समितियों में किसी भी राजनैतिक दल के प्रति समर्पित लोग न रखे जाएं, न शिक्षक और न छात्र। तभी निष्पक्ष सर्वेक्षण हो पाएगा। 


ये समितियाँ अपनी-अपनी भाषा में सर्वेक्षण के लिए प्रश्न सूची तैयार कर लें। इन सर्वेक्षण सूचियों में हर वर्ग के, हर नागरिकों से प्रश्न पूछे जाएं। जैसे, किसान से पूछें कि पिछले सात सालों में उनकी आमदनी कितनी बढ़ी या कितनी घटी? युवाओं से पूछें कि इन सात वर्षों में कितने युवाओं को रोज़गार मिला और कितने युवाओं के रोज़गार छूट गए? और वे फिर से बेरोज़गार हो गए? इसी तरह फुटपाथ पर सामान बेचने वालों से पूछें कि इन सात सालों में उनकी आमदनी कितनी बढ़ी या घटी? इस वर्ग के सभी लोगों से यह भी पूछा जाए कि इन सात वर्षों में उन्हें मुफ़्त स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाएँ मिली हैं या नहीं?

  

मंझले व्यापारियों और कारखानेदारों से भी पूछें कि उनकी 'बैलेन्स शीट’ यानी आय-व्यय का लेखा-जोखा देख कर बताएँ कि उसमें इन सात सालों में कितने फ़ीसद वृद्धि हुई? इसी वर्ग से यह भी पूछें कि उन्होंने इन सात वर्षों में कितने मूल्य की नई अचल सम्पत्ति ख़रीदी या बेची? उच्च वर्गीय लोगों से भी सवाल किए जाने चाहिए। अडानी और अम्बानी जैसे कुछ केंद्र सरकार के चहेते, जिनकी आमदनी इन सात वर्षों में 30-35 फ़ीसदी से ज़्यादा बढ़ी है, उन्हें छोड़ दें, पर बाक़ी औद्योगिक घरानों की आर्थिक प्रगति कितने फ़ीसदी हुई या नहीं हुई है या कितने फ़ीसदी गिर गई है? 


ये सब इतनी सरल जानकारी है जो बिना ज़्यादा मेहनत के जुटाई जा सकती है। एक शिक्षा संस्थान उपरोक्त श्रेणियों में से हर श्रेणी के हर इलाक़े में, 100-100 लोगों का चयन कर ले और इस चयन के बाद उस वर्ग के लोगों से वैसे ही सवाल पूछे जो उस वर्ग से पूछने के लिए यहाँ दिए गए हैं। अगर कोई सर्वेक्षणकर्ता समूह अति-उत्साही हैं तो वह इस प्रश्नावली में अपनी बुद्धि और समझ के अनुसार और भी सार्थक प्रश्न जोड़ सकते हैं। हो सकता है कि कुछ लोग अपनी आर्थिक अवनति के लिए पिछले दो साल में फैले कोविड को ज़िम्मेदार ठहराएँ, इसीलिए गत सात वर्षों का सही आँकड़ा जानना ज़रूरी होगा। 


जब इस तरह का ग़ैर-सरकारी, निष्पक्ष और पारदर्शी सर्वेक्षण हो जाता है तो धरातल की सही तस्वीर अपने आप सामने आ जाएगी। क्योंकि सरकार किसी भी दल की क्यों न हो वोट पाने के लिए हमेशा इन आँकड़ों में भारी हेरा-फेरी करती है ताकि अपनी प्रगति के झूठे दावों को आधार दे सके। जबकि धरातलीय सच्चाई उन आँकड़ों के बिलकुल विपरीत होती है। हर वर्ग के 100-100 प्रतिनिधियों का सर्वेक्षण करने से उस गाँव, क़स्बे, नगर व ज़िले की आर्थिक स्थिति का बड़ी सरलता से पता लगाया जा सकता है। जिसका लाभ लेकर सत्ताएँ अपनी नीतियाँ और आचरण बदल सकते हैं। बशर्ते उनमें जनहित में काम करने की भावना और इच्छा हो। झूठे विज्ञापनों से सस्ता प्रचार तो हासिल किया जा सकता है पर इसके परिणाम समाज के लिए बहुत घातक होते हैं। जैसे आम आदमी इस बात पर विश्वास कर ले कि ‘हवाई चप्पल पहनने वाला भी हवाई जहाज़ में उड़ सकेगा।’ इसी उम्मीद में वो अपना मत ऐसा वायदा करने वाले नेता के पक्ष में डाल दे। परंतु जीतने के बाद उसे पता चले कि हवाई जहाज तो दूर वो भर पेट चैन से दो वक्त रोटी भी नहीं खा सकता क्योंकि जो उसका रोज़गार था वो नई नीतियों के कारण, बेरोज़गारी में बदल चुका है। ऐसे में हताशा उसे घेर लेगी और वो आत्महत्या तक कर सकता है, जैसा अक्सर होता भी है या फिर ऐसा व्यक्ति अपराध और हिंसा करने में भी कोई संकोच न करेगा।


सरकारें तो आती-जाती रहती हैं, लोकतंत्र की यही खूबी है। पर हर नया आने वाला पिछली सरकार को भ्रष्ट बताता है और फिर मौक़ा मिलते ही खुद बड़े भ्रष्टाचार में डूब जाता है। इसलिए दलों के बदलने का इंतेज़ार न करें, बल्कि जहां जिसकी सत्ता हो उससे प्रश्न करें और पूछें कि उसकी आमदनी और रोज़गार कब और कैसे बढ़ेगा? उत्तर में आपको केवल कोरे आश्वासन मिलेंगे। अगर आप बेरोज़गारी, ग़रीबी, महंगाई, पुलिस बर्बरता और अन्याय के विरुद्ध ज़्यादा ज़ोर से सवाल पूछेंगे तो हो सकता है कि आपको देशद्रोही बता कर प्रताड़ित किया जाए। क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से कुछ राज्यों में ये ख़तरनाक प्रवृत्ति तेज़ी से पनप रही है। इसलिए सावधानी से सर्वेक्षण करें और बिना राग-द्वेष के ज़मीनी हक़ीक़त को देश के सामने प्रस्तुत करें। जिससे समाज और राष्ट्र दोनों का भला हो सके।    

Monday, September 13, 2021

जब चिड़िया चुग गई खेत


आजकल एक प्रदेश के ताकतवर बताए जा रहे मुख्य मंत्री के मुख्य सलाहकार और वरिष्ठतम अधिकारियों पर हुए स्टिंग ऑपरेशन की भारी चर्चा है। मीडिया ही नहीं, प्रदेश के नौकरशाह और राजनेता चटखारे लेकर इन क़िस्सों को एक दूसरों को सुना रहे हैं। यूँ तो स्टिंग ऑपरेशन देश में लगातार होते रहते हैं। पहले ये काम मीडिया अपने जुनून में करता था। बाद में ये ब्लैकमेलिंग का हथियार बन गया। पिछले दो दशकों से राजनैतिक दल एक दूसरे के विरुद्ध और एक ही दल के बड़ी राजनेता, एक दूसरे के विरुद्ध करवाने लगे। जिसका मक़सद अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदी की छवि ख़राब करके उसे रास्ते से हटाना होता है। जिसके ख़िलाफ़ सफल स्टिंग ऑपरेशन हो जाता है वो किसी भी क़ीमत पर उसे दबाने की जीतोड़ कोशिश करता है।
 



सुना है कि जिस स्टिंग ऑपरेशन की आजकल चर्चा है उसमें फँसा प्रदेश का वरिष्ठ अधिकारी, उसे दबाने के लिए, 20 करोड़ रुपए देने को राज़ी हो गया है। अब अगर ये डील हो जाती है तो ज़ाहिर है कि स्टिंग ऑपरेशन की खबर आम जनता तक नहीं पहुँच पाएगी। ये बात दूसरी है कि डील करने वाला पहले ही अपने हाथ काट चुका हो और सबूतों को अपनी टीम के किसी साथी के साथ साझा कर चुका हो। ऐसे में डील होने के बाद भी मामला प्रकाशित होने से नहीं रुकेगा। खबर यह भी है कि उक्त स्टिंग ऑपरेशन में कई आला अफ़सर बेनक़ाब हुए हैं। जिनमें चरित्र से लेकर भारी भ्रष्टाचार के प्रमाण जुटाए जा चुके हैं। जिसका जाहिरन उनके आका मुख्य मंत्री की छवि पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। विशेषकर उन राज्यों में जहां आने वाले समय में चुनाव होने वाले हैं। 

ऐसी स्थित ही क्यों आती है जब पानी सिर से गुजर जाता है। ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’। ऐसा तो नहीं है कि प्रदेश का शासन चलाने वाला कोई मुख्य मंत्री इतना अयोग्य हो कि उसे पता ही न चले कि उसकी इर्दगिर्द साये की तरह मंडराने वाले उसके खासमख़ास वरिष्ठतम अधिकारी दुकान खोल कर बैठे हैं और हर वर्ष सैंकड़ों करोड़ रुपया कमा रहे हैं। जब ये घोटाले सामने आएँगे तो ऐसे मुख्य मंत्री का दामन कैसे साफ़ रहेगा? हर तरफ़ यही शोर होगा की ये सब उस मुख्य मंत्री की मिलीभगत से हो रहा था। फिर अपनी क़मीज़ दूसरों की क़मीज़ से साफ़ बताने वाला दावा भी तो फुर्र से उड़ जाएगा।  


प्रश्न है कि उस मुख्य मंत्री ने समय रहते सही कड़े कदम क्यों नहीं उठाए? हम सभी पत्रकारों का चार दशकों से ये अनुभव रहा है कि, चुनाव जीतते ही, मुख्य मंत्री हो या प्रधान मंत्री, अपने चाटुकारों व चहेते अफ़सरों से ऐसे घिर जाते हैं, कि उन्हें सब ओर हरा ही हरा दिखाई देता है। क्योंकि वही उन्हें दिखाया जाता है। ऐसा नहीं है कि समय समय पर जागरूक नागरिक या पत्रकार उनको सचेत न करते हों। पर सत्ता का अहंकार उनके सिर चढ़ कर बोलता है। वे सही सलाह भी सुनना नहीं चाहते। इस तरह वे ज़मीन से भी कट जाते हैं और अपने मतदाताओं से भी। पर जो मुख्य मंत्री वास्तव में ईमानदार होते हैं और प्रदेश की जनता का भला करना चाहते हैं, वे सुरक्षा के घेरे तोड़ कर और अपने पुराने विश्वासपात्र मित्रों की मदद से अपनी छवि का जनता में मूल्यांकन करवाते रहते हैं। जिस इलाक़े में उनकी या उनकी सरकार की छवि गिरने का संकेत मिलता है, वहाँ जाहिरन लोगों की बहुत सारी शिकायतें होती हैं। जिन्हें दूर करना एक अनुभवी मुख्य मंत्री की प्राथमिकता होती है। पर जहां सार्थक व उचित प्रश्न करने वालों का मुँह बंद कर दिया जाए, उन पर झूठे आरोप लगा कर अवैध तरीक़ों से पुलिस कार्यवाही की जाए या उनके प्रतिष्ठानों पर आयकर के छापे डलवाए जाएं, वहाँ भीतर ही भीतर हालात इतने बगड़ जाते हैं कि बहुमत का दावा करने वाले नेता अपनी सत्ता छोड़, इज़्ज़त तक नहीं बचा पाते। 


पिछले तीस वर्षों में सत्ताधीशों को एक उदाहरण मैं अपने इसी कॉलम में कई बार पहले दे चुका हूँ। एक बार फिर दोहरा रहा हूँ, इस उम्मीद में कि शायद किसी को तो बुद्धि शुद्ध हो और वो अपने तौर-तरीक़े बदलने को राज़ी हों। ये उदाहरण वो है जो ईसा से तीन सदी पूर्व मगध सम्राट देवानाम पियदस्सी अशोक ने खोजा था। वे जादूगरों और बाजीगरों के वेश में अपने विश्वासपात्र लोगों को पूरे साम्राज्य में भेजकर जमीनी हकीकत का पता लगवाते थे और उसके आधार पर अपने प्रशासनिक निर्णय लेते थे। जमीनी सच्चाई जानने के लिए मुख्य मंत्रियों को गैर पारंपरिक साधनों का प्रयोग करना पड़ेगा। ऐसे में मौजूदा सरकारी खुफिया एजेंसियां या सूचना तंत्र उनकी सीमित मदद कर पाएँगे। प्रशासनिक ढांचे का अंग होने के कारण इनकी अपनी सीमाऐं होती हैं। इसलिए भी इन्हें गैर पारंपरिक ‘फीड बैक मैकेनिज्म’ या ‘सोशल ऑडिट’ का सहारा लेना पड़ेगा। अगर वे ऐसा कुछ करते हैं, तो उन्हें बहुत बड़ा लाभ होगा। पहला तो ये कि अगले चुनाव तक उन्हें उपलब्धियों के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर आंकड़ें प्रस्तुत करने वाली अफसरशाही और खुफिया तंत्र गुमराह नहीं कर पाऐगा। क्योंकि उनके पास समानान्तर स्रोत से सूचना पहले से ही उपलब्ध होगी। 


‘सोशल ऑडिट’ करने का यह तरीका किसी भी लोकतंत्र के लिए बहुत ही फायदे का सौदा होता है। इसलिए जो प्रधान मंत्री या मुख्य मंत्री ईमानदार होगा, पारदर्शिता में जिसका विश्वास होगा और जो वास्तव में अपने लोगों की भलाई और तरक्की देखना चाहेगा, वो सरकारी तंत्र के दायरे के बाहर इस तरह का ‘सोशल ऑडिट’ करवाना अपनी प्राथमिकता में रखेगा। चूंकि आजकल ज़्यादातर नेता ‘जवाबदेही’ व ‘पारदर्शिता’ पर जोर देते हैं, इसलिए उन्हें यह सुझाव अवश्य ही पसंद आना चाहिए।

Monday, August 23, 2021

जन सहयोग से ही रोक सकती है पुलिस अपराध


पुलिस-जनता के संबंधों में सुधार लाने में सामुदायिक पुलिसिंग एक अहम किरदार निभा सकती है। ऐसा माना जाता है कि जनता और पुलिस के बीच अगर अच्छे सम्बंध हों तो पूरे पुलिस फ़ोर्स को बिना वर्दी के ऐसे हज़ारों सिपाही मिल जाएँगे जो न सिर्फ़ अपराध को रोक पाएँगे बल्कि पुलिस की ख़राब छवि को भी सुधार सकेंगे। ऐसा नहीं है कि पुलिस अपनी छवि जान बूझ कर ख़राब करती है। असल में पुलिस की वर्दी के नीचे होता तो एक इंसान ही है। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना होता है कि वो हर हाल में अपने देश और समाज की रक्षा करने के कटिबद्ध होता है। फिर वो चाहे कोई त्योहार हो या किसी भी तरह का मौसम हो, अगर ड्यूटी निभानी है तो निभानी है। 


हाल ही में नियुक्त हुए दिल्ली पुलिस के कमिश्नर राकेश अस्थाना ने दिल्ली के श्यामलाल कॉलेज में ‘उम्मीद’ कार्यक्रम में कहा कि जहां एक ओर पुलिस को हर तरह की क़ानून व्यवस्था और उनसे जुड़े मुद्दों से निपटने की ट्रेनिंग मिलती है वहीं बिना समाज के समर्थन के इसे प्रभावशाली नहीं बनाया जा सकता। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि आज हम प्रौद्योगिकी के युग में रहते हैं और आर्थिक प्रगति केवल शांतिपूर्ण वातावरण में ही प्राप्त की जा सकती है। पुलिस और जनता को मिल जुलकर ही रहने का प्रयास करना चाहिए। 


आज के दौर में ज़्यादातर लोगों के हाथ में एक स्मार्टफ़ोन तो होता ही है, यदि इसका उपयोग सही तरह से किया जाए तो क़ानून व्यवस्था बनाने में नागरिक पुलिस की काफ़ी सहायता कर सकते हैं। देखा जाए तो हर जगह, हर समय पुलिस की तैनाती संभव तो नहीं हो सकती है, इसलिए बेहतर क़ानून व्यवस्था और सौहार्द की दृष्टि से यदि पुलिस को समाज का सहयोग मिल जाए तो फ़ायदा समाज का ही होगा।


उदाहरण के तौर पर जून 2010 में जब दिल्ली ट्रैफ़िक पुलिस ने जब फ़ेसबुक पर अपना पेज बनाया तो मात्र 2 महीनों में ही 17 हज़ार लोग इससे जुड़ गए और 5 हज़ार से ज़्यादा फ़ोटो और विडीओ इस पेज पर डाले गए। इन फ़ोटो और विडीओ में ट्रैफ़िक नियमों के उलंघन की तस्वीरें, उलंघन की तारीख़ व समय और जगह का विवरण होता था। नतीजतन जहां एक ओर नियम उलंघन करने वालों के घर चालान जाने लगे वहीं दूसरी ओर वहाँ चालक और ज़्यादा चौकन्ने होने लग गए। इस छोटी सी पहल से पुलिस को बिना वर्दी ऐसे लाखों सिपाही मिल गए। इस प्रयास से जहां एक ओर समाज का भला हुआ वहीं दिल्ली की सड़कें भी सुरक्षित होने लग गई। 


असल में करोड़ों की आबादी वाले इस देश में यदि पुलिस और जनता के बीच कुछ प्रतिशत के सम्बंध किसी कारण से बिगाड़ जाते हैं तो उसका असर पूरे देश पर पड़ता है। पुलिसकर्मी किस तरह की तनावपूर्ण माहौल में काम करते हैं उसका अंदाज़ा केवल पुलिसकर्मी ही लगा सकते हैं, आम जनता नहीं। स्वार्थी तत्व इस सब का नाजायज़ उठा कर पुलिस को बदनाम करने का काम करते आए हैं। 


आमतौर पर यह देखा जाता है कि यदि कोई अपराधी पुलिस द्वारा पकड़ा जाए और फिर बाद में अदालत द्वारा छोड़ दिया जाए तो दोषी पुलिस ही ठहराई जाती है। जबकि असल में भारत की दंड संहिता और न्यायिक प्रणाली में ऐसे कई रास्ते होते हैं जिसका सहारा लेकर अपराधी का वकील उसे छुड़ा लेता है। यदि असल में अपराधी दोषी है और पुलिस ने सही कार्यवाही कर उसे हवालात में डाला है तो समाज का भी यह दायित्व होता है की यदि किसी नागरिक ने अपराध होते हुए देखा है तो उसे अदालत में जा कर साक्ष्य देना चाहिए। ऐसा करने से पुलिस और समाज का एक दूसरे पर विश्वास बढ़ेगा ही। 


जहां राजनीतिज्ञ लोग पुलिस प्रशासन को अपना हथियार समझ कर उन पर दबाव डालते हैं वहीं पुलिसकर्मी अपने तनाव और दबाव के बारे में किसी से भी नहीं कहते हैं और आम जनता के सामने बुरे बनते हैं। पुलिस कर्मियों पे अगर कुछ नाजायज़ करने का दबाव आता है तो पुलिस अफ़सर को मीडिया या आजकल के दौर में सोशल मीडिया की मदद से अपने पर पड़ने वाले दबाव का खुलासा कर देना चाहिए। इससे जनता के बीच एक सही संदेश जाएगा और पुलिस को अपना हथियार बनाकर राजनैतिक रोटियाँ सेकने वाले नेताओं का भांडाफोड़ भी होगा। 


ग़ौरतलब है कि अंग्रेजों द्वारा बनाए गए 1861 के एक्ट के अधीन कार्य करने वाली भारतीय पुलिस में सामुदायिक पुलिसिंग का कहीं भी वर्णन नहीं था। यह तो सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप का असर है कि हर राज्य के पास एक राज्य पुलिस एक्ट है। हर राज्य पुलिस एक्ट में सामुदायिक पुलिसिंग का कहीं न कहीं ज़िक्र ज़रूर है परंतु इसे कोई विशेष तवज्जो नहीं दिया जाता। यदि सामुदायिक पुलिसिंग का सही ढंग से उपयोग हो तो पुलिस अपना कार्य तनाव मुक्त हो कर काफ़ी कुशलता से करेगी। 20वीं शताब्दी में भारत के उत्तरी राज्यों में ‘ठीकरी पहरा’ नामक योजना प्रचलन में थी जिसके अंतर्गत गांव के सभी युवा रात्रि के समय पहरा देते थे तथा डाकू व लुटेरों को पकड़ने में पुलिस की मदद करते थे। पंजाब ने ‘सांझ’, चंडीगढ़ में ‘युवाशक्ति प्रयास’ तथा तमिलनाडु में ‘मोहल्ला कमेटी आंदोलन’ के नाम से ऐसी योजनाएं चलाई जा रही हैं तथा हर राज्य में अच्छे परिणाम देखने को मिल रहे हैं।

  

शुरू में इन योजनाओं के माध्यम से राज्यों की पुलिस ने जहां बड़े-बड़े अपराधी गिरोहों को पकड़ा था वहीं ऐसे पुलिस वालों की भी पहचान हुई थी जो अपराध में खुद संलिप्त थे। लेकिन समय गुज़ारते इन योजनाओं की तरफ अब शायद कोई ज्यादा ध्यान नहीं दे रहा। आज के दौर में जहां देश के चप्पे-चप्पे पर सीसीटीवी कैमरों की नज़र है वहीं अगर सामुदायिक पुलिसिंग पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाए तो अपराध घटेंगे और जनता और पुलिस के बीच सम्बन्धों में भी सुधार होगा। नागरिक पुलिस को अपने परिवार का ही एक हिस्सा मानेंगे।   

Monday, July 5, 2021

न्यायपालिका को नियंत्रित नहीं किया जा सकता : सीजेआई


भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एन वी रमना ने ज़ूम के माध्यम से सारे देश को संबोधित करते हुए अत्यंत महत्वपूर्ण बात कही कि,
न्यायपालिका को पूर्णतः स्वतंत्र होना चाहिए। इसे विधायिका या कार्यपालिका के ज़रिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। ऐसा किया गया तो ‘क़ानून का शासन’ छलावा बन कर रह जाएगा। उनके ये विचार सूखी ज़मीन पर वर्षा की फुहार जैसे हैं।


न्यायमूर्ति रमना का ये प्रहार सीधे-सीधे देश की कार्यपालिका और विधायिका पर है, जिसके आचरण ने हाल के वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा को जितना धूमिल किया है उतना पहले कभी नहीं हुआ था। सेवानिवृत हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश श्री सथाशिवम को केरल का राज्यपाल बनाया जाना और इसी तरह भारत के मुख्य न्यायाधीश रहे श्री गोगोई को राज्य सभा का सदस्य बनाना सर्वोच्च न्यायालय के इतिहास में एक बदनुमा दाग की तरह याद किया जाएगा। 



पहले की सरकारों ने भी न्यायाधीशों को अपने पक्ष में करने के लिए परोक्ष रूप से और कभी-कभी प्रगट रूप से भी प्रलोभन दिए हैं। पर वे इतनी निर्लजता से नहीं दिए गए कि आम जनता के मन में देश के सबसे बड़े न्यायधीशों के आचरण के प्रति ही संदेह पैदा हो जाए। आज़ाद भारत के इतिहास में ऐसा एक अनैतिक कार्य और हुआ था जब कांग्रेस पार्टी ने भारत के मुख्य न्यायधीश रहे श्री रंगनाथ मिश्रा को अपनी पार्टी की टिकट पर चुन कर राज्य सभा का सदस्य बनाया था। हालाँकि तब कांग्रेस पार्टी सत्ता में नहीं थी। इसलिए मिश्रा का चुनाव सथाशिवम और गोगोई की तरह सत्तारूढ़ दल की तरफ़ से उनकी ‘सरकार के प्रति सेवाओं का पुरस्कार’ नहीं कहा जा सकता। लेकिन इसकी पृष्ठभूमि में जो कारण था जो वैसा ही था जिसके कारण अब प्रधान मंत्री मोदी ने इन दो पूर्व मुख्य न्यायधीशों को पुरस्कृत किया है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में दिल्ली में हुए दंगों की जाँच के लिए प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने एक सदस्यीय ‘रंगनाथ मिश्रा आयोग’ बनाया था। जिसने उन दंगों में सरकार की भूमिका को ‘क्लीन चिट’ दे दी थी। उसका ही पुरस्कार उन्हें 1998 में मिला। 


तो 75 साल के इतिहास में सर्वोच्च न्यायालय के 220 रहे न्यायधीशों में ये कुल तीन अपवाद हुए हैं। इससे संदेश क्या जाता है, कि इन तीन न्यायधीशों ने कुछ ऐसे निर्णय दिए होंगे जो न्याय की कसौटी पर खरे नहीं रहे होंगे। उन निर्णयों को देने का मात्र उद्देश्य उस समय के प्रधान मंत्री को खुश करना रहा होगा। इसीलिए इन्हें यह इनाम मिला। इससे इन तीनों पूर्व न्यायधीशों की व्यक्तिगत छवि भी धूमिल हुई और सर्वोच्च न्यायालय की निष्पक्षता पर भी संदेह पैदा होना स्वाभाविक है। 


तो क्या यह माना जाए कि न्यायमूर्ति रमना का यह सम्बोधन देश की कार्यपालिका और विधायिका को एक चेतावनी है, जो क्रमशः न्यायपालिका पर भी अपना शिकंजा कसने की जुगत में रही है। लोकतंत्र की मज़बूती के लिए उसके चारों स्तम्भों का सशक्त होना, स्वतंत्र होना और बाक़ी तीन स्तम्भों के प्रति जवाबदेह होना आवश्यक होता है। प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की भरपूर वकालत तो करते हैं पर उनके कार्यकाल में इस स्वतंत्रता का जितना हनन हुआ है उतना मैंने गत 35 वर्षों के अपने पत्रकारिता जीवन में, 18 महीने के आपातकाल को छोड़ कर, कभी नहीं देखा। यह बहुत ख़तरनाक रवैया है, क्योंकि इससे लोकतंत्र लगातार कमजोर हो रहा है और राज्यों तक में अधिनायकवादी प्रवृत्तियाँ तेज़ी से बढ़ रही हैं। सवाल आप पूछने नहीं देंगे, प्रेसवार्ता आप करेंगे नहीं, केवल बार-बार देश को इकतरफ़ा संबोधन करते जाएँगे, तो स्वाभाविक है कि लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। जो लोकतंत्र और जनता के लिए बहुत घातक स्थिति होगी।  


न्यायपालिका की स्वतंत्रता को अक्षुण रखने से सरकार देश की करोड़ों जनता का विश्वास अर्जित करती हैं। इससे आम आदमी को न्याय मिलने की आशा बनी रहती है। इससे सरकार में भी न्यायपालिका का परोक्ष डर बना रहता है। यही स्वस्थ लोकतंत्र का लक्षण है। जब सरकार ऐसे काम करती है जिसमें देश के संसाधनों का या राष्ट्रहित का स्वार्थवश या अन्य अनैतिक कारणों से बलिदान होता है, तभी सरकारें अपनी कमजोरी या भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए न्यायपालिका का सहारा लेती है। 


दूसरी तरफ़ यह भी महत्वपूर्ण है कि न्यायधीशों को अपनी गरिमा की खुद चिंता करनी चाहिए। जिस तरह समाज के अन्य क्षेत्रों में नैतिक पतन हुआ है उससे न्यायपालिका भी अछूती नहीं रही है। यह बात अनेक उदाहरणों से सिद्ध की जा सकती है। आम भारतीय जिसका न्याय व्यवस्था से कभी भी पाला पड़ा है उसने इस पीड़ा को अनुभव किया होगा। हाँ अपवाद हर जगह होते हैं। 1997 और 2000 में मैंने भारत के दो पदासीन मुख्य न्यायधीशों व अन्य के अनैतिक और भ्रष्ट आचरण को सप्रमाण उजागर किया था तो हफ़्तों देश की संसद, मीडिया और अधिवक्ताओं के बीच एक तूफ़ान खड़ा हो गया था। सबको हैरानी हुई कि अगर इतने ऊँचे संवैधानिक पद पर बैठ कर भी अगर कोई ऐसा आचरण करता है तो उससे न्याय मिलने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? 


इस दिशा में भी न्यायपालिका में गम्भीर चिंतन और ठोस प्रयास होने चाहिए। सन 2000 में भारत के मुख्य न्यायधीश एस पी भारूचा ने केरल के एक सेमिनार में बोलते हुए कहा था कि ‘सर्वोच्च न्यायपालिका में भी भ्रष्टाचार है, लेकिन मौजूदा क़ानून उससे निपटने के लिए नाकाफ़ी हैं। भ्रष्ट न्यायधीशों को सेवा में रहने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए।’ उनकी इस बात को आज 21 साल हो गए, लेकिन इस दिशा में कोई सार्थक प्रयास नहीं किया गया। क्या उम्मीद की जाए, कि न्यायमूर्ति रमना व उनके सहयोगी जज इस विषय में भी ठोस कदम उठाएँगे? 


भारत की बहुसंख्यक जनता आज भारी कष्ट और अभावों में जी रही है। उसका आर्थिक स्तर तेज़ी से गिर रहा है। जबकि मुट्ठी भर औद्योगिक घरानों की सम्पत्ति दिन दूनी और रात चौगुनी रफ़्तार से बढ़ रही है। इससे समाज में बहुत बड़ी खाई पैदा हो गई है जिसका परिणाम भयावह हो सकता है। इन हालातों में अगर गरीब को न्याय भी न मिले और वो हताशा में क़ानून अपने हाथ में ले, तो दोष किसका होगा? न्यायपालिका में सुधार के लिए राष्ट्रीय न्यायिक आयोग, बड़े-बड़े न्यायविद और क़ानून पढ़ाने वाले समय-समय पर अपने सुझाव देते रहे हैं, पर उनका क्रियान्वयन नहीं हो पाया है। सरकारें न्यायपालिका को मज़बूत नहीं होने देना चाहती और दुर्भाग्य से न्यायपालिका भी अपने आचरण में बुनियादी बदलाव लाने को इच्छुक नहीं रही है। क्या माना जाए कि आज़ादी के 75वे साल में न्यायमूर्ति रमना इस दिशा में कुछ पहल करेंगे?  

Monday, June 28, 2021

आईपीएस अपना कर्तव्य समझें


मार्च 2010 में भोपाल में मध्य प्रदेश शासन की ‘आर.सी.वी.पी. नरोन्हा प्रशासन एवं प्रबंधकीय अकादमी’ ने आईपीएस अधिकारियों के बड़े समूह को संबोधित करने के लिए मुझे आमंत्रित किया। वहाँ शायद पाँच दर्जन आईपीएस अधिकारी देश के विभिन्न राज्यों से आकर कोर्स कर रहे थे। मुझे याद पड़ता है कि वे सन 2000 से 2008 के बैच के अधिकारी थे। मैं एक घंटा बोला और फिर तीन घंटे तक उनके अनेक जिज्ञासु प्रश्नों के उत्तर देता रहा। बाद में मुझे अकादमी के निदेशक व आईएएस अधिकारी संदीप खन्ना ने फ़ोन पर बताया कि इन युवा आईपीएस अधिकारियों ने अपनी कोर्स बुक में जो टिप्पणी दर्ज की वो इस प्रकार थी,
इस कोर्स के दौरान हमने विशेषज्ञों के जितने भी व्याख्यान सुने उनमें श्री विनीत नारायण का व्याख्यान सर्वश्रेष्ठ था।



आप सोचें कि ऐसा मैंने क्या अनूठा बोला होगा, जो उन्हें इतना अच्छा लगा? दरअसल, मैं शुरू से आजतक अपने को ज़मीन से जुड़ा जागरूक पत्रकार मानता हूँ। इसलिए चाहे मैं आईपीएस या आईएएस अधिकारियों के समूहों को सम्बोधित करूँ या वकीलों व न्यायाधीशों के समूहों को या फिर आईआईटी, आईआईएम या नैशनल लॉ यूनिवर्सिटी के छात्रों को, जो भी बोलता हूँ, अपने व्यावहारिक अनुभव और दिल से बोलता हूँ। कभी-कभी वो इतना तीखा भी होता है कि श्रोताओं को डर लगने लगता है कि कोई इस निडरता से संवैधानिक पदों पर बैठे देश के बड़े-बड़े लोगों के बारे में इतना स्पष्ट और बेख़ौफ़ कैसे बोल सकता है। कारण है कि मैं किताबी ज्ञान नहीं बाँटता, जो प्रायः ऐसे विशेष समूहों को विशेषज्ञों व उच्च पदासीन व्यक्तियों द्वारा दिया जाता है। चूँकि मैंने गत चालीस वर्षों में कार्यपालिका, विधायिका व न्यायपालिका के सर्वोच्च पदों पर बैठे लोगों के अनैतिक आचरणों को, युवा अवस्था से ही, निडर होकर उजागर करने की हिम्मत दिखाई है, इसलिए मैंने जो देखा और भोगा है वही माँ सरस्वती की कृपा से वाणी में झलकता है। हर वक्ता को यह पता होता है कि जो बात ईमानदारी और मन से बोली जाती है, वह श्रोताओं के दिल में उतर जाती है। वही शायद उन युवा आईपीएस अधिकारियों के साथ भी हुआ होगा। 


उनके लिए उस दिन मैंने एक असमान्य विषय चुना था: ‘अगर आपके राजनैतिक आका आपसे जनता के प्रति अन्याय करने को कहें, तो आप कैसे न्याय करेंगे?’ उदाहरण के तौर पर राजनैतिक द्वेष के कारण या अपने अनैतिक व भ्रष्ट कृत्यों पर पर्दा डालने के लिए, किसी राज्य का मुख्य मंत्री किसी आईपीएस अधिकारी पर इस बात के लिए दबाव डाले कि वह किसी व्यक्ति पर क़ानून की तमाम वो कठोर धाराएँ लगा दे, जिस से उस व्यक्ति को दर्जनों मुक़दमों में फँसा कर डराया या प्रताड़ित किया जा सके। ऐसा प्रायः सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं व राजनैतिक विरोधियों के ख़िलाफ़ करवाया जाता है। पिछले कुछ वर्षों से देश के प्रतिष्ठित पत्रकारों पर भी इस तरह के आपराधिक मुक़दमें क़ायम करने की कुछ प्रांतों में अचानक बाढ़ सी आ गई है। हालाँकि हाल ही में भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने देश के मशहूर पत्रकार विनोद दुआ पर हिमाचल प्रदेश में की गई ऐसी ही एक ग़ैर ज़िम्मेदाराना एफ़आईआर को रद्द करते हुए 117 पन्नों का जो निर्णय दिया है, उसमें आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेजों के विरुद्ध मुखर रहे मराठी अख़बार ‘केसरी’ के संपादक लोकमान्य तिलक से लेकर आजतक दिए गए विभिन्न अदालतों के निर्णयों का हवाला देते हुए पत्रकारों की स्वतंत्रता की हिमायत की है और कहा है कि यह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अत्यंत आवश्यक है। 


सवाल है कि जब मुख्य मंत्री कार्यालय से ही ग़लत काम करने को दबाव आए तो एक आईपीएस अधिकारी क्या करे? जिसमें ईमानदारी और नैतिक बल होगा, वह अधिकारी ऐसे दबाव को मानने से निडरता से मना कर देगा। चार दशकों से मेरी मित्र, पुलिस महानिदेशक रही, महाराष्ट्र की दबंग पुलिस अधिकारी, मीरा बोरवांकर, मुंबई के 150 साल के इतिहास में पहले महिला थी, जिसे मुंबई की क्राइम ब्रांच का संयुक्त पुलिस आयुक्त बनाया गया। फ़िल्मों में देख कर आपको पता ही होगा कि मुंबई अंडरवर्ल्ड के अपराधों के कारण कुविख्यात है। ऐसे में एक महिला को ये ज़िम्मेदारी दिया जाना मीरा के लिए गौरव की बात थी। अपने कैरीयर के किसी मोड़ पर जब उसे महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री के निजी सचिव का फ़ोन आया, जिसमें उससे इसी तरह का अनैतिक काम करने का निर्देश दिया गया तो उसने साफ़ मना कर दिया, यह कह कर, कि मैं ऐसे आदेश मौखिक रूप से नहीं लेती। मुख्य मंत्री जी मुझे लिख कर आदेश दें तो मैं कर दूँगी। मीरा के इस एक स्पष्ट और मज़बूत कदम ने उसका शेष कार्यकाल सुविधाजनक कर दिया। कैरियर के अंत तक फिर कभी किसी मुख्य मंत्री या गृह मंत्री ने उससे ग़लत काम करने को नहीं कहा। 


कोई आईपीएस अधिकारी जानते हुए भी अगर ऐसे अनैतिक आदेश मानता है, तो स्पष्ट है कि उसकी आत्मा मर चुकी है। उसे या तो डर है या लालच। डर तबादला किए जाने का और लालच अपने राजनैतिक आका से नौकरी में पदोन्नति मिलने का या फिर अवैध धन कमाने का। पर जो एक बार फिसला फिर वो रुकता नहीं। फिसलता ही जाता है। अपनी ही नज़रों में गिर जाता है। हो सकता है इस पतन के कारण उसके परिवार में सुख शांति न रहे, अचानक कोई व्याधि आ जाए या उसके बच्चे संस्कारहीन हो जाएं। ये भी हो सकता है कि वो इस तरह कमाई अवैध दौलत को भोग ही न पाए। सीबीआई के एक अति भ्रष्ट माने जाने वाले चर्चित निदेशक की हाल ही में कोरोना से मृत्यु हो गई। जबकि उन्हें सेवानिवृत हुए कुछ ही समय हुआ था। उस अकूत दौलत का उन्हें क्या सुख मिला? दूसरी तरफ़ उत्तर प्रदेश के 1972 बैच के आईपीएस अधिकारी राजीव माथुर, जो आईपीएस के सर्वोच्च पद, निदेशक आईबी और भारत के मुख्य सूचना आयुक्त रहे, वे सेवानिवृत हो कर आज डीडीए के साधारण फ़्लैट में रहते हैं। देश में आईबी के किसी भी अधिकारी से आप श्री माथुर के बारे में पूछेंगे तो वह बड़े आदर से उनका नाम लेते हैं। एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी ने तो उन्हें भगवान तक की उपाधि दी। 


आम जनता के कर के पैसे से वेतन और सुविधाएँ लेने वाले आईपीएस अधिकारी, अगर उस जनता के प्रति ही अन्याय करेंगे और केवल अपना घर भरने पर दृष्टि रखेंगे, तो वे न तो इस लोक में सम्मान के अधिकारी होंगे और न ही परलोक में। दुविधा के समय ये निर्णय हर अधिकारी को अपने जीवन में स्वयं ही लेना पड़ता है। भोपाल में जो व्यावहारिक नुस्ख़े उन आईपीएस अधिकारियों को मैंने बताए थे, वो तो यहाँ सार्वजनिक नहीं करूँगा, क्योंकि वो उनके लिए ही थे। पर जिन्होंने उन्हें अपनाया होगा उनका आचरण आप अपने ज़िले अनुभव कर रहे होंगे।

Monday, March 1, 2021

भ्रष्टाचार क्या सिर्फ भाषण का विषय है?


पश्चिम बंगाल के चुनाव सिर पर हैं। राजनैतिक गतिविधियाँ ज़ोर पकड़ने लग चुकी हैं। राजनैतिक पार्टियाँ एक दूसरे पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा कर जनता के बीच एक दूसरी की छवि ख़राब करने पर जुटे हुए हैं। राजनीति में छवि का महत्त्व बहुत ज्यादा होता है। एक बार जो छवि बन जाये उसे बदलना सरल नहीं होता। चुनाव किसी भी राज्य में हों या फिर लोक सभा के चुनाव हों हर दल अपने विरोधियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हैं और खूब शोर मचाते हैं। पर इससे निकलता कुछ भी नहीं है। न तो भ्रष्ट राजनैतिक व्यवस्था सुधरती और न ही देश की जनता को राहत मिलती है। 


दरअसल राजनीति से जुड़ा कोई भी व्यक्ति नहीं चाहता कि किसी भी घोटाले की ईमानदारी से जांच हो और दोषियों को सजा मिलें। क्योंकि वो जानते हैं कि आज जो आरोप उनके विरोधी पर लग रहा है कल वो उन पर भी लग सकता है। हर दल की यही मंशा होती है कि वे अपने विरोधी दल के भ्रष्टाचार के काण्ड को जनता के बीच उछाल कर ज्यादा से ज्यादा वोटों को बटोर लें। इस प्रक्रिया में मूर्ख जनता ही बनती है। आज नैतिकता पर शोर मचाने वाले हर दल से पूछना चाहिए कि जिस काण्ड में सबूत न के बराबर हैं उसपर तो आप इतने उत्तेजित हैं पर जिस जैन  हवाला काण्ड में हजारों सबूत मौजूद थे उसकी जांच की मांग के नाम पर हर दल क्यों चुप रहा ? आपको भ्रष्टाचार पर शोर मचाने की हकीकत खुद ब खुद पता चल जाएगी।



कोई भी पार्टी हो या कोई भी सरकार, सभी भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने का दावा समय-समय पर करते रहते हैं। देश के कई प्रधानमंत्रियों ने भी घोषणा की हैं कि उनकी सरकार भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए कटिबद्ध है। भ्रष्टाचार के मामले में कुछ रोचक तथ्यों को ध्यान में रखना जरूरी है। सभी घोटाले प्रायः चुनाव के पहले ही उछाले जाते हैं। चुनाव के दौरान जनसभाओं में उत्तेजक भाषण देकर अपने प्रतिद्वंद्वियों पर करारे हमले किए जाते हैं। दोषियों को गिरफ्तार करने और सजा देने की मांग की जाती है। ये सारा तूफान चुनाव समाप्त होते ही ठंडा पड़ जाता है। फिर कोई उन घोटालों पर ध्यान नहीं देता। अगले चुनाव तक उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। इसका सबसे बढ़िया उदाहरण बोफोर्स कांड है। पिछले कई सालों से हर लोकसभा चुनाव के पहले इस कांड को उछाला जाता है और फिर भूल जाया जाता है। आज तक इसमें एक चूहा भी नहीं पकड़ा गया। दूसरी तरफ जैन हवाला कांड था जिसे किसी भी चुनाव में कोई मुद्दा नहीं बनाया गया  क्योंकि इस कांड में हर बड़े दल के प्रमुख नेता फंसे धा तो शोर कौन मचाए?


अगर किसी नेता ने रिश्वत लेता है तो इसमें कोई नई बात नहीं। देश में रिश्वत लेना इतना आम हो चुका है कि ऐसी खबरों पर किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। लोग तो मान ही चुके हैं कि राजनीतिक भ्रष्टाचार का पर्याय है। यहां तक कि भारत के प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए श्री इंद्र कुमार गुजराल ने कहा था कि वे भ्रष्टाचार को रोकने में असहाय हैं। उधर भारत के मुख्य न्यायाधीश पद पर रहते हुए न्यायमूर्ति एस.पी.भरूचा ने भी स्वीकारा था कि उच्च न्यायपालिका में 20 फीसदी भ्रष्टाचार है। विधायिका और न्यायपालिका के शिखर पुरुष अगर ऐसी बात कहते हैं तो कार्यपालिका के बारे में तो किसी को कोई संदेह ही नही कि वहां ऊपर से नीचे तक भारी भ्रष्टाचार व्याप्त है। 


लोकतंत्र के तीन खम्भे इस बुरी तरह भ्रष्टाचार के कैंसर से ग्रस्त हैं कि किसी को कोई रास्ता नहीं सूझता। ऐसे माहौल में जब कभी कोई घोटाला उछलता है तो दो-चार दिन के लिए चर्चा में रहता है और फिर लोग उसे भूल जाते हैं।


अगर केंद्र सरकार वाकई भ्रष्टाचार को दूर करना चाहती है तो क्या वह यह बताएगी कि जिन आला अफसरों के खिलाफ सीबीआई ने मामले दर्ज कर रखे हैं उसके खिलाफ सीबीआई को कार्यवाही करने की अनुमति आज तक क्यों नहीं दी गई? सरकार के प्रमुख नेता क्या ये बताएंगे कि आतंकवाद से जुड़े मामलों में सीबीआई के जिन अफसरों ने अपराधियों की मदद की, उन्हें सजा के बदले पदोन्नति या विदेशों में तैनाती देकर पुरस्कृत क्यों किया गया? क्या वे बताएंगे कि उनके दल के सभी नेता पद संभालते समय अपनी अपनी संपत्ति का पूरा ब्यौरा जनता को क्यों नहीं देते? क्या वे बताएंगे कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद केन्द्रीय सतर्कता आयोग को यह अधिकार क्यों नहीं दिया गया कि आयोग उच्च पदासीन अफसरों और नेताओं के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामले में जांच करने के लिए स्वतंत्र हों? क्या वे बताएंगे कि उन्होंने अपने कार्यकाल में भ्रष्टाचार के आरोपित व्यक्तियों को महत्वपूर्ण पदों पर तैनात क्यों किया? क्या देश में उसी अनुभव और योग्यता के ईमानदार अफसरों की कमी हो गई है? क्या सरकार बताएगी कि सीबीआई के पास भ्रष्टाचार के जो बड़े मामले ठंडे बस्ते में पड़े हैं, उनकी जांच में तेजी लाने के लिए उन्होंने क्या प्रयास किए? अगर नहीं तो क्यांें नहीं?

 

दरअसल कोई राजनेता देश को भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं करना चाहता। केवल इसे दूर करने का ढिंढोरा पीटकर जनता को मूर्ख बनाना चाहता हैं और उसके वोट बटोरना चाहता है। यही वजह है कि चुनाव के ठीक पहले बड़े-बड़े घोटाले उछलते हैं। जब भारत के मुख्य न्यायाधीश ही मान चुके कि उच्च न्यायपालिका में बीस फीसदी लोग भ्रष्ट हैं, तो कैसे माना जाए कि सैकड़ों करोड़ों रुपये के घोटाले करने वाले राजनेताओं को सजा मिलेगी। दिवंगत हास्य कवि काका हाथरसी कहा करते थे -क्यों डरता है बेटा रिश्वत लेकर, छूट जाएगा तू भी रिश्वत देकर।


चुनाव में धन चाहिए। धन बड़े धनाढ्य ही दे सकते हैं। बड़ा धनाढ्य बैंकों के बड़े कर्जे मारकर और भारी मात्रा में कर चोरी करके ही बना जाता है। ऐसे सभी बड़े धनाढ्य चाहते हैं कि सरकार में वो लोग महत्वपूर्ण पदों पर रहें जो उनके हित साधने वाले हों। ऐसे लोग वही होंगे जो भ्रष्ट होंगे। यह एक विषमचक्र है, जिसमें हर राजनेता फँसा है। भ्रष्टाचार से निपटने के लिए व्यक्तिगत रूप से व्यक्ति को परमत्यागी होना पड़ेगा। आज के राजनेता भोग के मामले में राज परिवारों को पीछे छोड़ चुके हैं। न तो वे त्याग करने को तैयार हैं और न ही अपने सुख पर कोई आंच आने देना चाहते हैं इसलिए उनमें जोखिम उठाने की क्षमता भी नहीं हैं। बिना जोखिम उठाए ये लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। इसलिए भ्रष्टाचार का प्रत्येक मामला पानी के बुलबुले की तरह उठता है और फूट जाता है। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।

Monday, December 7, 2020

किसान आन्दोलन साम दाम दंड भेद की कसौटी पर?


आज देश भर में किसान आंदोलन को लेकर बहुत चर्चा हो रही है। लेकिन आज हम सरकार और किसानों के बीच हो रहे इस आंदोलन के हल निकालने के लिए अपनाए जा रहे तरीक़ों पर चर्चा करेंगे। और इसी से अंदाज़ा लगेगा कि यह आंदोलन किस ओर जा रहा है। दरअसल यह विश्लेषण हमारे मित्र, चिंतक और समाज वैज्ञानिक सुधीर जैन ने किया है। 

श्री जैन का कहना है कि पारम्परिक ज्ञान है कि, किसी भी समस्या या परेशानी से निपटने के लिए कौटिल्य द्वारा बताए गए साम, दाम, दंड व भेद का रास्ता ही सबसे उचित है। अगर हम इनको एक-एक करके देखें तो हो सकता है कि हमें कुछ अंदाज़ा लगे कि इस आंदोलन में आगे क्या हो सकता है। साम, दाम, दंड व भेद में एक महत्वपूर्ण बात यह होती है कि ये सब एक क्रम में हैं। 

सबसे पहले साम यानी समझौते या संवाद को अपनाया जाता है। लेकिन इस समस्या में साम कि बात करें तो ये देखा जाएगा कि साम के बजाए बाक़ी तीनों विकल्पों को पहले अपनाया जा रहा है। इस बात से आप सभी भी सहमत होंगे कि जो भी स्थितियाँ पिछले दिनों में बनीं उनमें दंड और भेद ज़्यादा  दिखाई दिए। लेकिन इस बात का विरोध करने वाले यह कहेंगे कि साम यानी संवाद वाले औज़ार का प्रयोग हो तो रहा है। लेकिन पिछले दिनों की गतिविधियों को देखें तो साम का इस्तेमाल कोई ज़्यादा दिखाई नहीं दे रहा। न तो किसानों की ओर से और न ही सरकार की ओर से। अलबत्ता बाक़ी तीन चीजों का इस्तेमाल ज़्यादा दिखाई देता है।


दाम की स्थित यह है कि वर्षों से स्थापित किसान नेताओं को इस आंदोलन में कोई ज़्यादा छूट नहीं दी गई है। जिस तरह से देश भर के किसानों के प्रतिनिधियों को इस आंदोलन में देखा जा रहा है, 35 संगठन कम नहीं होते। इन 35 संगठनों को घटा कर एक संगठन या मंडल में सीमित करना कोई आसान काम नहीं है। किसान इस बात पर राज़ी नहीं हैं। इसका मतलब यह है कि यह आंदोलन राजनैतिक आंदोलन कम और सामूहिक या सामाजिक आंदोलन ज़्यादा नज़र आता है। सरकार को इसमें दाम के औज़ार को इस्तेमाल करने में काफ़ी कठिनाई आ सकती है। अगर सारे आंदोलन का एकमुश्त नेतृत्व चंद लोगों के हाथ में होता तो सरकार उनसे डील कर सकती थी। जैसा अक्सर होता है। पर यहाँ सभी बराबर के दमदार समूह हैं। इसलिए उसकी संभावना कम नज़र आती है। 

दंड की बात करें तो इसमें थोड़ी कोशिश ज़रूर की गई है। इस आंदोलन में जिस तरह अड़चन डाली गई या किसानों को भयभीत किया गया कि किसी तरह इस आंदोलन को शुरू न होने दिया जाए। लेकिन दंड का औज़ार इस आंदोलन में ज़्यादा असरदार नहीं दिखा। आज देश की स्थितियाँ काफ़ी संवेदनशील हैं और इन स्थितियों ऐसी दबिश या ज़बरदस्ती करना सम्भव नहीं दिखता। लेकिन इस आंदोलन में अगर दंड के रूप में थोड़ा आगे देखें तो अदालत एक ऐसा रास्ता दिखाई देता है जिसे सरकार आने वाले समय में अपना सकती है। ऐसा पहले हुआ भी है जब किसी आंदोलन में कोई समझौता, दबिश या दंड का रास्ता नहीं काम आया तो अदालत का दरवाज़ा खटखटाया जाता है। कोविड के नाम पर अदालत से किसानों को हटाने के आदेश माँगे जा सकते हैं। पर तब सवाल खड़ा होगा कि बिहार और हैदराबाद  सहित जिस तरह लाखों लोगों की भीड़ कंधे से कंधा सटाकर जनसभाओं में हफ़्तों जमा होती रही उनपर कोविड का महामारी के रूप में क्या कोई असर हुआ? अगर नहीं तो अदालत में किसानों के वकील ये सवाल खड़ा कर सकते हैं।  


साम, दाम, दंड के बाद अब अगर भेद की बात करें तो उसमें दो तीन बातें आती हैं जैसे कि भेद लेना, तो किसानों से भेद लेना कोई आसान सी बात नहीं दिखती। सब कुछ टिकैत के आंदोलन की तरह एकदम स्पष्ट है। इतने सारे किसान नेता हैं, प्रवक्ता हैं, इनमें भेद करना या फूट डालना मुश्किल होगा। फिर भी वो कोशिश ज़रूर होगी। इस दिशा में जितनी भी कोशिश हों रही हैं अगर उनको आप ध्यान से देखेंगे या उससे सम्बंधित खबरों को देखेंगे तो अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि भेद डालने के क्या-क्या उपक्रम हुए हैं। ये काम भी हर सरकार हर जनआंदोलन के दौरान करती आई है। इसलिए इस हथकंडे को मौजूदा सरकार भी अपनाने की कोशिश करेगी। 

लेकिन इन सब से हट कर एक गुंजाइश और बचती है और वो है वक्त। ऐसे आंदोलनों से निपटने के लिए जो भी सरकार या नौकरशाही या कारपोरेट घराने हों वो इस इंतज़ार में रहते हैं कि किसी तरह आंदोलन को लम्बा खिंचवाया जाए तो वो धीरे-धीरे ठंडा पड़ जाता है। ये विकल्प अभी बाक़ी है कि किस तरह से इस आंदोलन को अपनी जगह पर ही रहने दें और इंतज़ार किया जाए। यानी मुद्दे को वक्त के साथ मरने दिया जाए। अलबत्ता किसानों ने आते ही इस बात का ऐलान भी कर दिया था कि वो तैयारी के साथ आए हैं। वो 4-5 महीनों का राशन भी साथ लेकर आए हैं। इनके उत्साह को देखते हुए यह पता लग रहा है कि किसान एक लम्बी लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हैं। इसलिए इस औज़ार का इस्तेमाल करने में भी मुश्किल आएगी। अगर आर्थिक मंदी की मार झेल रहे देश के करोड़ों बेरोज़गार नौजवान भी इस आंदोलन से जुड़ गए तो ये विकराल रूप धारण कर सकता है। ये तो वक्त ही बताएगा की ऊंट किस करवट बैठेगा।

जहां तक आंदोलन के खलिस्तान समर्थक होने का आरोप है तो यह चिंता की बात है। ऐसे कोई भी प्रमाण अगर सरकार के पास हैं तो उन्हें अविलंब सार्वजनिक किया जाना चाहिए। सुशांत सिंह राजपूत की तथाकथित ‘हत्या’ की तर्ज़ पर कुछ टीवी चैनलों का ये आरोप लगाना बचकाना और ग़ैर ज़िम्मेदाराना लगता है। जब तक कि वे इसके ठोस प्रमाण सामने प्रस्तुत न करें। यूँ तो हर जन आंदोलन में कुछ विघटनकारी तत्व हमेशा घुसने की कोशिश करते हैं। अब ये किसान आंदोलन के नेतृत्व पर निर्भर करता है कि वो ऐसे तत्वों को हावी न होने दें और अपना ध्यान मुख्य मुद्दों पर ही केंद्रित रखें। सरकार भी खुले मन से किसानों की बात सुने और वही करे जो उनके और देश के हित में हो।           

Monday, June 22, 2020

सुशांत सिंह राजपूत जैसे और भी हैं

आत्महत्या के बाद से सुशांत सिंह राजपूत के जीवन और व्यक्तित्व के बारे में जितनी जानकारियाँ सामने आई हैं उनसे यह स्पष्ट है कि ये नौजवान कई मायनों में अनूठा था। उसकी सोच, उसका ज्ञान, उसकी लगन, उसका स्वभाव और उसका जुनून ऐसा था जैसा बॉलीवुड में बहुत कम देखने को मिलता है। कहा जा सकता है कि सुशांत सिंह राजपूत अपने आप में एक ऐसी शख़्सियत था जो अगर ज़िंदा रहता तो एक संजीदा सुपर स्टार बन जाता। 


जितनी बातें सोशल मीडिया में सुशांत के बारे में सामने आ रहीं हैं उनसे तो यही लगता है कि बॉलीवुड माफिया ने उसे तिल-तिल कर मारा। पर ये कोई नई बात नहीं है।  बॉलीवुड में गॉडफादर या मशहूर ख़ानदान या अंडरवर्ल्ड कनेक्शन के सहारे चमकने वाले तमाम सितारे ऐसे हैं जिनका व्यक्तित्व सुशांत के सामने आज भी कोई हैसियत नहीं रखता। पर आज तक कोई भी इस अनैतिक गठबंधन को तोड़ नहीं पाया। इसलिए वे बेख़ौफ़ अपनी कूटनीतियों को अंजाम देते रहते हैं। 


पर इस त्रासदी का शिकार सुशांत अकेला नहीं था। हर पेशे में कमोवेश ऐसी ही हालत है। आज़ादी के बाद से अगर आँकड़ा जोड़ा जाए तो देश भर में सैंकड़ों ऐसे युवा वैज्ञानिकों के नाम सामने आएँगे जिन्होंने इन्हीं हालातों में आत्महत्या की। ये सब युवा वैज्ञानिक बहुत मेधावी थे और मौलिक शोध कर रहे थे। पर इनसे ईर्ष्या करने वाले इनके सुपर बॉस वैज्ञानिकों ने इनकी मौलिक शोध सामग्री को अपने नाम से प्रकाशित किया। इन्हें लगातार हतोत्साहित किया और इनका कई तरह से शोषण किया। मजबूरन इन्होंने आत्महत्या कर ली। 


यही हाल कारपोरेट सेक्टर में भी देखा जाता रहा है। जहां योग्य व्यक्तियों को उनके अयोग्य साथी अपमानित करते हैं और हतोत्साहित करते हैं। मालिक की चाटुकारिता करके उच्च पदों पर क़ायम हो जाते हैं। हालाँकि सूचना क्रांति के बाद से अब योग्यता को भी तरजीह मिलने लगी है। क्योंकि अब योग्यता छिपी नहीं रहती। पर पहले वही हाल था। 


यही हाल राजनीति का भी है। जहां गणेश प्रदक्षिणा करने वाले तो तरक़्क़ी पा जाते हैं और सच्चे, मेहनती, समाजसेवी कार्यकर्ता सारे जीवन दरी बिछाते रह जाते हैं। पिछले 30 वर्षों से तो हर राजनैतिक दल पर परिवारवाद इस कदर हावी हो गया है कि कार्यकर्ताओं का काम केवल प्रचार करना और गुज़ारे के लिये दलाली करना रह गया है। 


संगीत, कला, नृत्य का क्षेत्र हो या खेल-कूद का, कम ही होता है जब बिना किसी गॉडफादर के कोई अपने बूते पर अपनी जगह बना ले। भाई-भतीजावाद, शारीरिक और मानसिक शोषण और भ्रष्टाचार इन क्षेत्रों में भी खूब हावी है। 


आश्चर्य की बात तो यह है कि दुनिया की पोल खोलने वाले पत्रकार भी इन षड्यंत्रों से अछूते नहीं रहते। किसको क्या असाइनमेंट मिले, कौनसी बीट मिले, कितनी बार वीआइपी के साथ विदेश जाने का मौक़ा मिले, ये इस पर निर्भर करता है कि उस पत्रकार के अपने सम्पादक के साथ कैसे सम्बंध हैं। कोई मेधावी पत्रकार अगर समाचार सम्पादक या सम्पादक की चाटुकारिता न कर पाए तो उसकी सारी योग्यता धरी रह जाती है। इसी तरह अवार्ड पाने का भी एक पूरा विकसित तंत्र है जो योग्यता के बजाए दूसरे कारणों से अवार्ड देता है। फिर वो चाहे बॉलीवुड के अवार्ड हों या खेल जगत के या पद्मश्री या पद्मभूषण जैसे राजकीय सम्मान हों। सब के सब योग्यता के बजाए किन्हीं अन्य कारणों से मिलते हैं। इन्हीं सब कारणों से युवा या अन्य योग्य लोग  अवसाद में चले जाते हैं और आत्महत्या जैसे ग़लत कदम उठा बैठते हैं। इन सब परिस्थियाँ से लड़ने में आध्यात्म भी एक अच्छा साधन सिद्ध हो सकता है और ये पीड़ित को शोषण के ख़िलाफ़ लड़ने में मदद कर सकता है।


चूँकि यह समस्या सर्वव्यापी है इसलिए इसे एकदम रातों रात में ख़त्म नहीं किया जा सकता। पर इसके समाधान ज़रूर खोजे जा सकते हैं। मसलन सरकारी विभागों में बने शिकायत केंद्रों की तरह ही हर राज्य और केंद्र के स्तर पर ‘शोषण निवारण आयोग’ बनाए जाएँ। जिनमें समाज के वरिष्ठ नागरिक, निशुल्क सेवाएं दें। वकालत, मनोविज्ञान, प्रशासनिक तंत्र, कला व खेल और पुलिस विभाग के योग्य, अनुभवी और सेवा निवृत लोग इन आयोगों के सदस्य मनोनीत किए जाएं। इन आयोगों के पते, ईमेल और फ़ोन इत्यादि, हर प्रांतीय भाषा में खूब प्रचारित किए जाएं । जिससे ऐसे शोषण को झेल रहे युवा अपने अपने प्रांत के आयोग को समय रहते लिखित सूचना भेज सकें। आयोग की ज़िम्मेदारी हो कि ऐसी शिकायतों पर तुरंत ध्यान दें और जहां तक सम्भव हो, उस पीड़ित को नैतिक बल प्रदान करें। जैसा महिला आयोग, महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों पर करते हैं। इन आयोगों का स्वरूप सरकारी न होकर स्वायत्त होगा तो इनकी विश्वसनीयता और प्रभाव धीरे धीरे स्थापित होता जाएगा। 


अनेक समाजशास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों ने समाज का अध्यन कर के कुछ ऐसे सिद्धांत प्रतिपादित किए हैं जिनसे ऐसी शोषक व्यवस्था का चरित्र उजागर होता है। जैसे ‘सरवाइवल औफ़ द फ़िटेस्ट’, ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’, ‘शोषक और शोषित’। ये सब सिद्धांत समाज की उस प्रवृत्ति की ओर इशारा करते हैं जो ताकतवर व्यक्ति के सौ खून भी माफ़ करने को तैयार रहता है किंतु मेधावी व्यक्ति की सही शिकायत पर भी ध्यान नहीं देता। पर जिस तरह अमरीका में हाल ही में एक अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की मृत्यु पुलिसवाले के अमानवीय व्यवहार से हो गई और उस पर पूरा अमरीकी समाज उठ खड़ा हुआ और उन गोरे सिपाहियों को कड़ी सजा मिली। या जिस तरह विश्वविद्यालय प्रशासन की तानाशाही का देशभर में छात्र एकजुट हो कर विरोध करते हैं। उसी तरह हर व्यवसाय के लोग, ख़ासकर युवा जब ऐसे मामलों पर सामूहिक आवाज़ उठाने लगेंगे तो ये प्रवृतियाँ धीरे धीरे कमजोर पड़ती जाएँगीं। इसलिए शोषण और अत्याचार का जवाब आत्महत्या नहीं बल्कि हमलावर हो कर मुक़ाबला करना है।                  

Monday, May 20, 2019

इस चुनाव से सबक

सारी दुनिया की निगाह 23 मई पर है। भारतीय लोकसभा के चुनावों के नतीजे कैसे आते हैं, इस पर आगे का माहौल बनेगा। अगर एनडीए की सरकार बनती है या अगर गठबंधन की सरकार बनती है तो भी भारत की जनता शांति और विकास चाहेगी। इस बार का चुनाव जितना गंदा हुआ, उतना भारत के लोकतंत्र के इतिहास में कभी नहीं हुआ। देश के बड़े-बड़े राजनेता बहुत छिछली भाषा पर उतर आऐ। जिसे जनता ने पसंद नहीं किया। जनता अपने नेता को शालीन, परिपक्व, दूरदर्शी और सभ्य देखना चाहती है।

इस चुनाव का पहला सबक ही होगा कि सभी दलों के बड़े नेता यह चिंतन करें कि उनके चुनाव प्रचार में कहीं कोई अभद्रता या छिंछोरापन तो नही दिखाई दिया। अगर उन्हें लगता है कि ऐसा हुआ, तो उन्हें इस पर गंभीरता से विचार करना होगा कि वे भविष्य में ऐसा न करें।

भारत के चुनाव आयोग ने भी कोई प्रशंसनीय भूमिका नहीं निभाई। उसके निर्णंयों पर बार-बार विवाद खड़े हुए। इतना ही नहीं खुद आयोग के तीन में से एक सदस्य ही अपने बाकी दो साथियों के निर्णयों से सहमत नहीं रहे और उन्होंने अपने विरोध का सार्वजनिक प्रदर्शन किया।

इस चुनाव में सबसे ज्यादा विवाद ईवीएम की विश्वसनीयता पर खड़े हुए। जहां एक तरफ भारत का चुनाव आयोग ईवीएम मशीनों की पूरी गांरटी लेता रहा, वहीं विपक्ष लगातार ईवीएम में धांधली के आरोप लगाता रहा। आरटीआई के माध्यम से मुबंई के जागरूक नागरिक ने यह पता लगाया कि चुनाव आयोग के स्टॉक में से 22 लाख ईवीएम मशीनें गायब हैं। जबकि इनको बनाने वाले सार्वजनिक प्रतिष्ठानों ने इस दावे की पुष्टि की कि उन्होंने ये मशीने चुनाव आयोग को सप्लाई की थी। जाहिर है कि इस घोटाले ने पूरे देश को झकझोर दिया। विपक्षी दलों को भी चिंता होने लगी कि कहीं लापता ईवीएम मशीनों का दुरूप्योग करके फिर से भाजपा या एनडीए सत्ता में न आ जाऐ।

इसी आशंका के चलते सभी विपक्षी दलों ने सर्वोच्च अदालत का दरवाजा खटखटाया। पर अदालत ने विपक्षी दलों की बात नहीं मानी। अब तो 23 मई को ही पता चलेगा कि चुनाव निष्पक्ष हुए या धांधली से।

इस हफ्ते एक और खबर ने विपक्षी दलों की नींद उड़ा दी। हुआ यूं कि दिल्ली के एक मशहूर हिंदी पत्रकार ने यह लेख छापा कि हर हालत में 23 मई की रात को नरेन्द्र मोदी प्रधानमत्री पद की शपथ ले लेंगे, चाहे उनकी सीट कितनी ही कम क्यों न आऐं। इस खबर में यह भी बताया गया कि भाजपा के अध्यक्ष ने राष्ट्रपति भवन के वरिष्ठ अधिकारियों की मिलीभगत से 23 तारीख के हिसाब से लिखित खाना पूर्ति अभी से पूरी करके रख ली है। जिससे परिणाम घोषित होते ही नरेन्द्र मोदी को पुनः प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई जा सके और फिर विश्वास मत प्राप्त करने के लिए राष्ट्रपति महोदय से लंबा समय मांग लिया जाऐ।

अगर ये खबर सच है, तो विपक्षी नेताओं का चिंतित होना लाज्मी है और शायद इसीलिए सब भागदौड़ करके एक बड़ा संगठन बनाने में जुट गऐ हैं। लेकिन अलग-अलग महत्वाकांक्षाऐं इन्हें बहुत दिनों तक एकसाथ नहीं रहने देंगी और तब हो सकता है कि देश को मध्यावधि चुनाव का सामना करना पडे़। ऐसे में आम नागरिक बहुत असुरक्षित महसूस कर रहा है। उसे डर है कि अगर यही नाटक चलता रहा, तो रोजगार, महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य इन पर कब ध्यान दिया जाऐगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि राजनीति का ये सरकस चुनावों के बाद भी चलता रहेगा और जनता बदहवास ही रह जाए। अगर ऐसा हुआ, तो देश में हताशा फैलेगी और हिंसा और आतंक की घटनाऐं भी बढ़ सकती है।

राजनेताओं के भी हित में है कि वे जनता को भयमुक्त करे। उसे आश्वासन दें कि अब अगले चुनाव तक राजनीति नहीं, विकास की बात होगी। तब जाकर देश में अमन चैन कायम होगा।

भारत की महान सांस्कृति परंपरा राजा से ऋषि होने की अपेक्षा करती है। जो बड़ी सोच रखता हो और अपने विरोधियों को भी सम्मान देना जानता हो। जो बिना बदले की भावना के शासन चलाए। इसलिए प्रधानमंत्री कोई भी बने उन्हें ये सुनिश्चित करना होगा कि उनका या उनके सहयोगियों का कोई भी आचरण समाज में डर या वैमनस्य पैदा न करे। चुनाव की कटुता को अब भूल जाना होगा और खुले दिल से सबको साथ लेकर विकास के बारे में गंभीर चिंतन करना होगा।

आज देश के सामने बहुत चुनौतियां है। करोड़ों नौजवान बेरोजगारी के कारण भटक रहे हैं। अर्थव्यवस्था धीमी पड़ी है। कारोबारी परेशान हैं। विकास की दर काफी नीचे आ चुकी है। ऐसे में नई सरकार को राजनैतिक हिसाब-किताब भूलकर समाज की दशा और दिशा सुधारनी होगी।

Monday, October 22, 2018

सुरक्षा पुलिसकर्मियों को चपरासी न समझें!

पिछले हफ्ते एक जज की पत्नी और बेटे को हरियाणा पुलिस सुरक्षाकर्मी ने दिन दहाड़़े बाजार में गोली मार दी। जज की पत्नी ने मौके पर ही दम तोड़़ दिया। लड़के को गंभीर हालत में अस्पताल दौड़ाया गया। तमाशबीन बड़ी तादाद में तमाशा देखते रहे, पर किसी की हिम्मत उसे रोकने की नहीं हुई। हत्या करने के बाद सिपाही ने जज को और अपने घर फोन करके घरवालों और मित्रों को कहा कि उसने यह कांड कर दिया है। बाद में गिरफ्तार हाने पर उसने पुलिस को बताया कि उसने जज की पत्नी और बेटे के दुव्र्यवहार से तंग आकर यह जघन्य कांड किया।
उल्लेखनीय है कि उस पुलिस वाले की ड्यूटी जज महोदय की सुरक्षा के लिए लगाई गई थी। जबकि घटना के समय जज साहब ने उसे अपनी निजी गाड़़ी का ड्राइवर बनाकर, अपनी पत्नी और बेटे को शॉपिंग करा लाने को कहा था । जोकि उसकी वैधानिक ड्यूटी कतई नहीं थीं। अगर इस बीच कोई घर में घुसकर जज की हत्या कर देता, तो इस पुलिस वाले की नौकरी चली जाती। इस पर ड्यूटी में लापरवाही करने का आरोप लगता। जबकि वो इसका अपराध नहीं होता।
यह पहली घटना नहीं है। देशभर में राजनेता, विशिष्ट व्यक्तियों, अधिकारियों और न्यायाधीशों की सुरक्षा में सरकार की ओर से समय- समय पुलिस सुरक्षा दी जाती है। इन सुरक्षाकमिर्यों का काम ‘पीपी’
(प्रोटेक्टेड पर्सन) की सुरक्षा करना होता है, नकि उसका बैग उठाना या उसके मेहमानों को चाय पिलाना या उसकी गाड़ी चलाना या दूसरे घरेलू नौकरों की तरह काम करना। पर देखने में यह आया है कि बहुत कम ‘पीपी’ ऐसे होते हैं, जो सरकार द्वारा प्रदत्त सुरक्षाकर्मियों को उनकी ड्यूटी पूरी करने देते हैं। प्रायः सभी ‘पीपी’ और उनके परिवार इन सुरक्षा पुलिसकर्मियों से बेगार करवाते हैं।
इसके कई पहलू हैं। सुरक्षा ड्यूटी पर तैनात पुलिसकर्मी चाहे तो ऐसी बेगार करने को मना कर सकता है। उन्हें कोई ‘पीपी’ इसके लिए बाध्य नहीं कर सकता। पर ताली एक हाथ से नहीं बजती। होता ये है कि पहले तो ‘पीपी’ इन सुरक्षाकर्मियों का अनुचित लाभ उठाते हैं और फिर ये सुरक्षाकर्मी अपने वरिष्ठ अधिकारियों की जानकारी के बिना ‘पीपी’ की सहमति से अपनी ड्यूटी में फेर बदल करते रहते हैं। उनसे सिफारिश करवाकर कभी अपने निजी काम भी करवा लेते हैं। जब कभी ‘पीपी’ कोई बहुत अधिक साधन संपन्न या भ्रष्ट नेता होता है, तो उसकी ओर से इन सुरक्षाकर्मियों की खूब खिलाई-पिलाई होती है। यानि इनके बढिया खाने-पीने, आराम से रहने और खर्चे के लिए भी अतिरिक्त धन उस ‘पीपी’ द्वारा मुहैया कराया जाता है। ऐसे ‘पीपी’ के संग प्रायः सुरक्षाकर्मी बहुत खुश रहते हैं। क्योंकि उनके भत्ते खर्च नहीं होते, उल्टा उनकी आमदनी बढ़ जाती है। पर सब पुलिस सुरक्षाकर्मी ऐसे नहीं होते। वे अपनी ड्यूटी मुस्तैी से करना चाहते हैं और इस तरह की बेगारी को अपने मन के विरूद्ध मजबूरी में करते हैं।
जैन हवाला कांड’ उजागर करने के दौरान मुझ पर 1993-96 के बीच कई बार प्राण घातक हमले हुए। उसके बाद कहीं जाकर भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने मुझे ‘वाई’ श्रेणी की सुरक्षा प्रदान की। जिसमें एक प्लस चार की गार्ड मेरे घर की रखवाली करती थी या जिस शहर में मैं जाता था, मेरे शयन कक्ष की रखवाली करती थी। पिस्टल और बंदूक लेकर दो सुरक्षाकर्मी मेरे साथ रहते थे । एक जीप में कुछ पुलिसकर्मी मेरी गाड़ी के आगे एस्कॉर्ट करके चलते थे। उन दिनों लगभग रोजाना देशभर में मेरे व्याख्यान और जनसभाऐं हुआ करती थीं। इसलिए राज्य सरकारें भी इसी तरह सुरक्षा की व्यवस्था करती थी। ये व्यवस्था मेरे साथ कई वर्ष तक रही। पर मुझे याद नहीं कि मैंने कभी इतने सारे सुरक्षाकर्मियों के साथ दुव्र्यवहार किया हो या उनसे बेगार करवाई हो। इसलिए उन सबसे आज तक स्नेह संबंध बना हुआ है।
ये उल्लेख करना इसलिए जरूरी है कि वह सुरक्षा व्यवस्था मेरी जान की रक्षा के लिए तैनात की गई थी। जिस पर लाखों रूपया महीना देश का खर्च होता था। ये सब सुरक्षाकर्मी मेरे निजी कर्मचारी नहीं थे और न ही मेरे परिवार के लिए बेगार करने को तैनात किये गये थे। चलिए हम तो पत्रकार हैं, इसलिए संवेदनशीलता के साथ उनसे व्यवहार किया । पर सत्ता, पद और पैसे के मद में रहने वाले ‘पीपी’ और उनके परिवार इन सुरक्षाकर्मियों को अपना निजी स्टाफ समझते हैं, जो एक घातक प्रवृत्ति है।
जिस तरह गुड़गांव के पुलिसकर्मी ने एक खतरनाक कदम उठाया और ‘पीपी’ के परिवार को ही खत्म कर डाला, उसी तरह कब किस सुरक्षाकर्मी को ‘पीपी’ के परिवार के ऐसे गलत व्यवहार की बात बुरी लग जाऐ और वो ऐसा घातक कदम उठा ले, इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
इसलिए गुड़गांव की इस घटना से सभी को सबक लेना चाहिए और जिन की सुरक्षा में पुलिसकर्मी तैनात हैं, उन्हें इनको अपनी ड्यूटी मुस्तैदी से करने देना चाहिए। इनसे बेगार लेकर इनका दोहन और अपमान नहीं करना चाहिए।