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Monday, September 13, 2021

जब चिड़िया चुग गई खेत


आजकल एक प्रदेश के ताकतवर बताए जा रहे मुख्य मंत्री के मुख्य सलाहकार और वरिष्ठतम अधिकारियों पर हुए स्टिंग ऑपरेशन की भारी चर्चा है। मीडिया ही नहीं, प्रदेश के नौकरशाह और राजनेता चटखारे लेकर इन क़िस्सों को एक दूसरों को सुना रहे हैं। यूँ तो स्टिंग ऑपरेशन देश में लगातार होते रहते हैं। पहले ये काम मीडिया अपने जुनून में करता था। बाद में ये ब्लैकमेलिंग का हथियार बन गया। पिछले दो दशकों से राजनैतिक दल एक दूसरे के विरुद्ध और एक ही दल के बड़ी राजनेता, एक दूसरे के विरुद्ध करवाने लगे। जिसका मक़सद अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदी की छवि ख़राब करके उसे रास्ते से हटाना होता है। जिसके ख़िलाफ़ सफल स्टिंग ऑपरेशन हो जाता है वो किसी भी क़ीमत पर उसे दबाने की जीतोड़ कोशिश करता है।
 



सुना है कि जिस स्टिंग ऑपरेशन की आजकल चर्चा है उसमें फँसा प्रदेश का वरिष्ठ अधिकारी, उसे दबाने के लिए, 20 करोड़ रुपए देने को राज़ी हो गया है। अब अगर ये डील हो जाती है तो ज़ाहिर है कि स्टिंग ऑपरेशन की खबर आम जनता तक नहीं पहुँच पाएगी। ये बात दूसरी है कि डील करने वाला पहले ही अपने हाथ काट चुका हो और सबूतों को अपनी टीम के किसी साथी के साथ साझा कर चुका हो। ऐसे में डील होने के बाद भी मामला प्रकाशित होने से नहीं रुकेगा। खबर यह भी है कि उक्त स्टिंग ऑपरेशन में कई आला अफ़सर बेनक़ाब हुए हैं। जिनमें चरित्र से लेकर भारी भ्रष्टाचार के प्रमाण जुटाए जा चुके हैं। जिसका जाहिरन उनके आका मुख्य मंत्री की छवि पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। विशेषकर उन राज्यों में जहां आने वाले समय में चुनाव होने वाले हैं। 

ऐसी स्थित ही क्यों आती है जब पानी सिर से गुजर जाता है। ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’। ऐसा तो नहीं है कि प्रदेश का शासन चलाने वाला कोई मुख्य मंत्री इतना अयोग्य हो कि उसे पता ही न चले कि उसकी इर्दगिर्द साये की तरह मंडराने वाले उसके खासमख़ास वरिष्ठतम अधिकारी दुकान खोल कर बैठे हैं और हर वर्ष सैंकड़ों करोड़ रुपया कमा रहे हैं। जब ये घोटाले सामने आएँगे तो ऐसे मुख्य मंत्री का दामन कैसे साफ़ रहेगा? हर तरफ़ यही शोर होगा की ये सब उस मुख्य मंत्री की मिलीभगत से हो रहा था। फिर अपनी क़मीज़ दूसरों की क़मीज़ से साफ़ बताने वाला दावा भी तो फुर्र से उड़ जाएगा।  


प्रश्न है कि उस मुख्य मंत्री ने समय रहते सही कड़े कदम क्यों नहीं उठाए? हम सभी पत्रकारों का चार दशकों से ये अनुभव रहा है कि, चुनाव जीतते ही, मुख्य मंत्री हो या प्रधान मंत्री, अपने चाटुकारों व चहेते अफ़सरों से ऐसे घिर जाते हैं, कि उन्हें सब ओर हरा ही हरा दिखाई देता है। क्योंकि वही उन्हें दिखाया जाता है। ऐसा नहीं है कि समय समय पर जागरूक नागरिक या पत्रकार उनको सचेत न करते हों। पर सत्ता का अहंकार उनके सिर चढ़ कर बोलता है। वे सही सलाह भी सुनना नहीं चाहते। इस तरह वे ज़मीन से भी कट जाते हैं और अपने मतदाताओं से भी। पर जो मुख्य मंत्री वास्तव में ईमानदार होते हैं और प्रदेश की जनता का भला करना चाहते हैं, वे सुरक्षा के घेरे तोड़ कर और अपने पुराने विश्वासपात्र मित्रों की मदद से अपनी छवि का जनता में मूल्यांकन करवाते रहते हैं। जिस इलाक़े में उनकी या उनकी सरकार की छवि गिरने का संकेत मिलता है, वहाँ जाहिरन लोगों की बहुत सारी शिकायतें होती हैं। जिन्हें दूर करना एक अनुभवी मुख्य मंत्री की प्राथमिकता होती है। पर जहां सार्थक व उचित प्रश्न करने वालों का मुँह बंद कर दिया जाए, उन पर झूठे आरोप लगा कर अवैध तरीक़ों से पुलिस कार्यवाही की जाए या उनके प्रतिष्ठानों पर आयकर के छापे डलवाए जाएं, वहाँ भीतर ही भीतर हालात इतने बगड़ जाते हैं कि बहुमत का दावा करने वाले नेता अपनी सत्ता छोड़, इज़्ज़त तक नहीं बचा पाते। 


पिछले तीस वर्षों में सत्ताधीशों को एक उदाहरण मैं अपने इसी कॉलम में कई बार पहले दे चुका हूँ। एक बार फिर दोहरा रहा हूँ, इस उम्मीद में कि शायद किसी को तो बुद्धि शुद्ध हो और वो अपने तौर-तरीक़े बदलने को राज़ी हों। ये उदाहरण वो है जो ईसा से तीन सदी पूर्व मगध सम्राट देवानाम पियदस्सी अशोक ने खोजा था। वे जादूगरों और बाजीगरों के वेश में अपने विश्वासपात्र लोगों को पूरे साम्राज्य में भेजकर जमीनी हकीकत का पता लगवाते थे और उसके आधार पर अपने प्रशासनिक निर्णय लेते थे। जमीनी सच्चाई जानने के लिए मुख्य मंत्रियों को गैर पारंपरिक साधनों का प्रयोग करना पड़ेगा। ऐसे में मौजूदा सरकारी खुफिया एजेंसियां या सूचना तंत्र उनकी सीमित मदद कर पाएँगे। प्रशासनिक ढांचे का अंग होने के कारण इनकी अपनी सीमाऐं होती हैं। इसलिए भी इन्हें गैर पारंपरिक ‘फीड बैक मैकेनिज्म’ या ‘सोशल ऑडिट’ का सहारा लेना पड़ेगा। अगर वे ऐसा कुछ करते हैं, तो उन्हें बहुत बड़ा लाभ होगा। पहला तो ये कि अगले चुनाव तक उन्हें उपलब्धियों के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर आंकड़ें प्रस्तुत करने वाली अफसरशाही और खुफिया तंत्र गुमराह नहीं कर पाऐगा। क्योंकि उनके पास समानान्तर स्रोत से सूचना पहले से ही उपलब्ध होगी। 


‘सोशल ऑडिट’ करने का यह तरीका किसी भी लोकतंत्र के लिए बहुत ही फायदे का सौदा होता है। इसलिए जो प्रधान मंत्री या मुख्य मंत्री ईमानदार होगा, पारदर्शिता में जिसका विश्वास होगा और जो वास्तव में अपने लोगों की भलाई और तरक्की देखना चाहेगा, वो सरकारी तंत्र के दायरे के बाहर इस तरह का ‘सोशल ऑडिट’ करवाना अपनी प्राथमिकता में रखेगा। चूंकि आजकल ज़्यादातर नेता ‘जवाबदेही’ व ‘पारदर्शिता’ पर जोर देते हैं, इसलिए उन्हें यह सुझाव अवश्य ही पसंद आना चाहिए।

Monday, January 18, 2016

अमित जोगी, छत्तीसगढ़ और स्टिंग ऑपरेशन

    हाल ही के दिनों में छत्तीसगढ़ में वरिष्ठ कांग्रेसी नेता अजीत जोगी के सुपुत्र अमित जोगी के एक राजनैतिक स्टिंग ऑपरेशन में शामिल होने से बवाल मचा हुआ है। देश की राजनीति में स्टिंग ऑपरेशन राजनैतिक लड़ाई में एक शस्त्र बनता जा रहा है। जबकि इसकी खोज खोजी पत्रकारिता के एक औजार के रूप में हुई थी। जब देश में निजी टीवी चैनल नहीं थे, मात्र दूरदर्शन था, जो सरकारी प्रचारतंत्र का हिस्सा था। उस समय टीवी पर स्टिंग ऑपरेशन जैसी विधा का कोई नाम तक नहीं जानता था। उस समय 1989 में हमने भारत में पहली बार स्वतंत्र हिंदी टीवी पत्रकारिता की नींव डाली। कालचक्र वीडियो मैग्जीन में हर महीने खोजी रिपोर्ट तैयार कर हम देशभर की वीडियो लाइब्रेरियों के माध्यम से दर्शकों तक पहुंचा देते थे। जिन्हें उस वक्त की याद है, उन्हें खूब याद होगा कि कालचक्र ने टीवी पत्रकारिता के क्षेत्र में क्रांति कर दी थी। इसी समय हमने भारत में पहली बार स्टिंग ऑपरेशन की भी शुरूआत की। जिस पर तीखी प्रतिक्रियाएं आयीं। बड़े-बड़े अखबारों में हमारे पक्ष या विपक्ष में संपादकीय लिखे गए। देश में कई जगह इस पर गोष्ठियां हुईं और सेंसर बोर्ड से हमारा गला घोंटने की कोशिशें की गईं।

उस समय दिल्ली के पत्रकारों की भी आधी जमात हमारे खिलाफ थी, जिन्हें लगता था कि हमारी इस विधा से उनके आका राजनेता कभी भी बेनकाब हो सकते हैं। ऐसे सभी हमलों का जवाब देने के लिए 1990 के शुरू में दिल्ली के प्रेस क्लब में मैंने एक संवाददाता सम्मेलन बुलाया। जिसमें लगभग 250 पत्रकारों ने शिरकत की और हम पर सवालों की छड़ी लगा दी। पर हम टस से मस नहीं हुए। हमारा ध्येय स्पष्ट था। हम स्टिंग ऑपरेशन के माध्यम से समाज की बुराइयों को उजागर करना चाहते थे। हमने ऐसा किया भी। पूरे देश ने देखा और माना। लेकिन बाद के दौर में जब निजी टीवी चैनलों की भरमार हो गई। टीआरपी के लिए जद्दोजहद होने लगी। चैनल चलाना आर्थिक रूप से भारी घाटे का काम हो गया, तो वही स्टिंग ऑपरेशन, जिसका लक्ष्य स्वस्थ पत्रकारिता करना और समाज की मदद करना था, ब्लैकमेलिंग का माध्यम बन गया।

    मैं किसी खास पत्रकार या किसी टीवी चैनल पर आक्षेप नहीं कर रहा। पर जो मैं कहने जा रहा हूं, उससे आप सभी पाठक सहमत होंगे। वह यह कि जितने स्टिंग ऑपरेशन आज आपको टीवी चैनलों पर दिखाई देते हैं, उनमें से बहुत थोड़े ऐसे होते हैं, जिनका उद्देश्य वास्तव में जनहित होता है। दरअसल, बहुत सारे स्टिंग ऑपरेशन तो कभी सामने दिखाए ही नहीं जाते। क्योंकि जिनके विरूद्ध यह आॅपरेशन किए जाते हैं, उनसे मोटी रकम लेकर इन्हें दबा दिया जाता है। जाहिरन इनका उद्देश्य पत्रकारिता करना नहीं, बल्कि पत्रकारिता के नाम पर ब्लैकमेलिंग करना होता है।

    जो स्टिंग ऑपरेशन दिखाए भी जाते हैं, वे हमेशा निष्पक्ष नहीं होते। उनके पीछे किसी राजनैतिक दल या व्यक्ति का निहित स्वार्थ छिपा होता है। जो उस पत्रकार या टीवी चैनल को अच्छी खासी रकम देकर अपने हित में खड़ा कर देता है। ताकि उसकी लड़ाई को जनहित की लड़ाई का आवरण पहनाया जा सके। ऐसा स्टिंग ऑपरेशन करने वाले जिस मुद्दे पर किसी खास राजनैतिक दल को अपना शिकार बनाते हैं। पर जब उनके राजनैतिक आकाओं के ऐसे ही कारनामे सामने आते हैं, तो वही पत्रकार स्टिंग ऑपरेशन करना तो दूर, उसकी चर्चा तक करने से बचते हैं। यह कोई पत्रकारिता नहीं हुई, ये तो सीधी-सीधी कुछ लोगों के हितों की लड़ाई हुई, जो पत्रकारिता के नाम पर की जाती है।

    कई बार यह बहस होती है कि आज जब स्टिंग ऑपरेशन एक सामान्य सी बात हो गया है, तो इसे कानूनी जामा पहनाया जाना चाहिए। मतलब ये कि स्टिंग ऑपरेशन करने के कुछ नियम और निर्देश बनाए जाने चाहिए। जिसके तहत स्टिंग ऑपरेशन किया जाय। इसको करने से पहले कुछ निष्पक्ष लोगों की समिति हो, जो उस रिपोर्ट के मसौदे को देखकर स्टिंग ऑपरेशन करने की छूट दे या न दे। इस तरह का आत्मानुशासन हर टीवी चैनल को अपनाना चाहिए, अन्यथा एक वक्त ऐसा आएगा कि जबकि अदालत ही स्टिंग ऑपरेशन पर प्रतिबंध लगा देगी।

    पहली बात तो ये कि स्टिंग ऑपरेशन केवल जनहित में किया जाए, किसी राजनैतिक दल या व्यक्ति के हित में नहीं। दूसरा जिसके खिलाफ स्टिंग ऑपरेशन किया जाता है, उसे बाद में बिना छिपे कैमरे के सामने लाना भी लाजमी होता है। उससे उन्हीं सवालों को दोबारा कैमरे के सामने पूछना चाहिए, जिन्हें छिपे कैमरे से रिकॉर्ड किया गया था। ताकि उसकी यह शिकायत न रहे कि मुझे सफाई देने का मौका नहीं दिया गया। अगर पत्रकारिता की सीमा में रहकर व्यापक जनहित में स्टिंग ऑपरेशन किया जाए, तो इसे गलत नहीं मानना चाहिए। पर जैसा कि हमने पहले कहा कि ब्लैकमेलिंग या निहित स्वार्थों के आपसी झगडेा निपटाने के लिए इसे हथियार की तरह इस्तेमाल करना सही नहीं है। इससे पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लग जाते हैं।