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Monday, May 22, 2023

प्रश्न सनातन धर्म का ?


2024 का चुनाव सामने है। आरएसएस व भाजपा हिंदुत्व के एजेंडा पर ज़ोर-शोर से काम कर रही है। पहले ‘तशकान्त फ़ाइल्स’ फिर ‘कश्मीर फ़ाइल्स’ और अब ‘द केरल स्टोरी’ जैसी फ़िल्में योजना बद्ध तरीक़े से जारी की जा रही हैं और प्रधान मंत्री से लेकर मुख्य मंत्रियों तक ने इन फ़िल्मों को प्रचारित करने का जिम्मा ले लिया है। इन फ़िल्मों पर मनोरंजन कर से मुक्ति व प्रायोजित शो करवाकर दर्शकों को ये फ़िल्में दिखलाई जा रही है। जिसका एकमात्र लक्ष्य वोटों का ध्रुवीकरण करना है। आम भावुक दर्शक इन फ़िल्मों की पटकथा से निश्चित रूप से प्रभावित हो रहे हैं। ऐसी अभी कई फ़िल्में 2024 तक और जारी होंगी। इसके साथ ही नया संसद भवन और अयोध्या में श्री राम मंदिर बन कर तैयार होगा, जिसे बहुत आक्रामक मार्केटिंग नीति के तहत पूरी तरह भुनाया जाएगा।
 


बहुत से लोग देश-विदेश से संदेश भेज कर मुझ से मेरी राय पूछ रहे हैं। मैंने सोशल मीडिया पर उत्तर दिया कि, इसमें जो दिखाया है वो सत्य है। पर 32,000 लड़कियाँ बता कर प्रचार खूब किया। जब प्रमाण माँगे गये तो केवल 3 केस सामने आए। उसमें भी हिंदू लड़की केवल एक ही निकली। 



महिलाओं के साथ ऐसे अत्याचार सदियों से हर देश में  हर धर्म के लोग करते आये हैं। बीजेपी के मंत्री या नेताओं के भी किए व्यभिचार, बलात्कार और हत्याओं के मामले प्रायः सामने आते रहते हैं। उन पर कोई द रेप स्टोरी  क्यों नहीं बनती? उन खबरों को क्यों दबवा दिया जाता है? इसी तरह हर राजनीतिक दल के आपराधिक छवि वाले नेता, इस तरह के अपराधों में लिप्त रहते हैं। 


पर जो फ़िल्में आजकल बनवाई जा रही हैं वे एकतरफ़ा हैं, भड़काऊ हैं और अपने वोटों का ध्रुवीकरण करने के लिये राजनैतिक उद्देश्य से बनवायी गयी हैं। इनमें विषय संबंधी सभी तथ्यों को नहीं दिखाया जाता। जैसे कश्मीर फ़ाइल्स में ये नहीं दिखाया गया कि कश्मीर के आतंकवादियों ने आजतक कितने मुसलमानों की भी उसी तरह हत्याएँ कीं हैं और आज भी कर रहे हैं।


मेरी उपरोक्त टिप्पणी पर अधिकतर प्रतिक्रिया समर्थन में आईं। पर कुछ मशहूर लोगों ने, जो आजकल भाजपा के साथ खड़े हैं, ने मुझे याद दिलाया कि महिलाओं के प्रति अत्याचार के मामलों को कट्टरपंथी अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी संगठनों द्वारा किए जा रहे सुनियोजित अभियान से तुलना नहीं की जा सकती। उनका यह भी कहना है कि ग़ैर भाजपाई सरकारों में मुसलमानों की आक्रामकता बढ़ जाती है और हिन्दुओं पर अत्याचार भी बढ़ जाते हैं। भाजपा की आई टी सेल 13 तारीख़ से हिंदुओं को कांग्रेस सरकार से डराने में जुट गयी है। ऐसी पोस्ट आ रही हैं, कर्नाटक में कांग्रेस के जीतने पर हिंदुओं के उपर हमले भी शुरू हो गए। क्योंकि जिहादियों को पता है अब इनकी सरकार है इसलिए अब इन पर कोई कार्रवाई नहीं होगी । 



फ्री के चक्कर में हिन्दुओं ने जिहादियों की सरकार को जिता दिया। अब आने वाले पूरे 5 वर्षों तक हिन्दूओं के साथ यही सब होने वाला है; पलायन, लव जिहाद, भू जिहाद, धर्मान्तरण, जैसी गंभीर समस्याओं से हिन्दुओं को सामना करना पड़ेगा। कांग्रेस को जिता कर हिन्दुओं ने अपनी आज़ादी, शांति के अवसर खो दिया। अब भुगतो हिंदुओ। भाजपा की आईटी सेल का ये एजेंडा बहुत ज़्यादा बढ़ा-चढ़ा कर प्रचारित किया जा रहा है। पर ऐसा नहीं है कि इन आरोपों में तथ्य नहीं हैं। चुनाव जीतने के लिए सांप्रदायिक या जातिगत तुष्टिकरण करने में कोई राजनैतिक दल पीछे नहीं रहता। भाजपा भी नहीं, और उसी का परिणाम है कि चुनाव जीतने के बाद सत्तारूढ़ दल को अनेक विवादास्पद मामलों में यात ओ अपने आँख और कान बंद करने पड़ते हैं या समझौते करने पड़ते हैं।  जिसका भरपूर प्रचार करके विरोधी दल फ़ायदा उठाते हैं। 



जो लोग अंतर्राष्ट्रीय इस्लामिक आतंकवाद से लड़ने और भारत की सनातन हिन्दू संस्कृति को बचाने के लिए केवल भाजपा और आरएसएस को ही सक्षम विकल्प मानते हैं उनसे मेरा कोई बहुत मतभेद नहीं रहा है। पर विगत वर्षों के अनुभव ने, अनेक घटनाओं व कारणों से भाजपा व संघ की क्षमता के बारे में संदेह पैदा कर दिये हैं। ये दोनों संगठन आजतक इस बात को परिभाषित नहीं कर पाए कि हिंदू राष्ट्र से इनका आश्रय क्या है? ये कैसा हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं? जिस सनातन संस्कृति का हम सब हिंदू दंभ भरते हैं उसके किसी भी सिद्धांत, शास्त्र, परंपराओं व आस्थाओं से संघ और भाजपा का दूर-दूर तक नाता नहीं है। वैदिक शास्त्रों की उपेक्षा, प्राण प्रतिष्ठित  देव विग्रहों व देवालयों पर बुलडोज़र चलाना, गौ मांस के व्यापार को प्रोत्साहित करना, सनातन धर्म के मूलाधार - चारों शंक्राचार्यों की उपेक्षा करना, वेतन दे कर संन्यासी बनाना, करोड़ों रुपये के चढ़ावे वाले मंदिरों पर अपने ट्रस्ट बना कर क़ब्ज़े करना और पारंपरिक सेवायतों को बेदख़ल करना, सनातन धर्म और तीर्थों की निष्ठा से सेवा करने वालों को अपमानित और हतोत्साहित करना क्या उचित है? इन सब धर्म-विरोधी कृत्यों को करने वाले क्या तालिबानियों से भिन्न आचरण कर रहे हैं? फिर हम जैसे आम सनातन धर्मियों से ये अपेक्षा क्यों की जाती है कि हम किसी दल या संगठन की राजनैतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए अपने आँख-कान बंद करके भेड़ों की तरह पीछे-पीछे चलें? 


चालीस बरस पहले जब मैंने पत्रकारिता शुरू की थी तब भाजपा के दो ही बड़े नेता होते थे; अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी। तब आरएसएस को एक त्यागी, समाजसेवी व तपस्वियों का संगठन माना जाता था। बाद में श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन से जब भाजपा कि पकड़ हिंदू मतदाताओं पर बढ़ी तो नारा दिया गया, ‘पार्टी विद् ए डिफरेंस’ यानी मेरी क़मीज़ बाक़ी दलों की क़मीज़ से ज़्यादा साफ़ है। पिछले दशक में हर वो राजनेता जिसके ख़िलाफ़ भाजपा ने भ्रष्टाचार के तमाम आरोप लगाए, वो सब आज उसके साथ मिल कर सरकार चला रहे हैं या भाजपा में शामिल हो गये हैं। इसलिए महंगाई, ग़रीबी, बेरोज़गारी, शासन में व्याप्त भ्रष्टाचार, अपराधियों को राजनैतिक संरक्षण, अपनी कार्यप्रणालियों में पारदर्शिता का अभाव और जनता के प्रति जवाबदेही से बच कर शासन चलाने के कारण सत्तारूढ़ दल को विपक्ष की जो आलोचना झेलनी पड़ती है, उन विषयों को अगर हम न छुएँ तो भी सनातन धर्म को लेकर जो प्रश्न यहाँ उठाए हैं उनका तो उत्तर मिलना चाहिए।     

Monday, April 10, 2023

क्या बाइबिल में ईसा मसीह की शिक्षाएँ नहीं हैं?


ये सुन कर दुनिया भर के ईसाई भड़क जाएँगे कि बाइबिल में ईसा मसीह की शिक्षाएँ नहीं हैं। पर गहन शोध के बाद ये दावा किया है इतिहासकार हर्ष महान कैरे ने अपनी पुस्तक, ‘डिस्कवरिंग जीसस’ में। रूपा प्रकाशन से प्रकाशित 387 पेज की ये अंग्रेज़ी पुस्तक ईसाइयों और ग़ैर ईसाइयों के बीच कौतूहल का विषय बन गई है। लेखक का दावा है कि बाइबिल में जो शिक्षाएँ लिखी गई हैं वो पॉल के विचार हैं जो कभी ईसा मसीह से मिला ही नहीं था। पर उसका दावा है कि ईसा मसीह ने यह ज्ञान उसे अवचेतन अवस्था में दिया। जिसे उसने लिपिबद्ध कर दिया। हालाँकि पॉल ईसा मसीह के बारह प्रथम व मूल शिष्यों में से एक नहीं था फिर भी वो स्वयं को अपोस्टेल (प्रचारक) होने का दावा करता है। जबकि ऐतिहासिक प्रमाण इसके विरुद्ध हैं। 

यीशु के बारह प्रधान शिष्य थे जिन्हें अपोस्टेल (प्रचारक) कहा जाता है। इनमें से एक का नाम जूड्स इस्कारियट था जिसने यीशु को धोखा दे कर गिरफ़्तार करवाया और सूली पर चढ़वाया। कहते हैं कि बाद में उसने प्रायश्चित में आत्महत्या कर ली। जिसके बाद शेष ग्यारह प्रचारकों ने आपसी सहमति से एक और प्रचारक को अपने साथ ले लिया पर वो पॉल नहीं था। परंतु आज का ईसाई धर्म पॉल की लिखी शिक्षाओं पर ही आधारित है। 


‘डिस्कवरिंग जीसस’ पुस्तक ईसाई धर्म शास्त्रियों के लेखों पर किए गये शोध पर आधारित है। वे धर्म शास्त्री जिन्होंने यीशु के बाद की शताब्दियों में लेखन कार्य किया इस शोध से ये सिद्ध होता है कि यीशु के असली प्रचारक और पॉल न तो कभी एक साथ रहे और न ही उनके द्वारा दी गई शिक्षाओं में कोई समानता है। इस बात के भी प्रमाण हैं कि पॉल जीवन भर इन प्रचारकों से लड़ता रहा, पर उन्होंने कभी भी उसे स्वीकारा नहीं। 

पॉल द्वारा स्थापित मान्यता है कि संसार का अंत होगा और न्याय की घड़ी होगी। वो लिखता है कि इस दिन मृतक अपनी क़ब्रों से नये शरीरों के साथ उठ खड़े होंगे और जो जीवित होंगे उन्हें भी नये शरीर मिलेंगे। इन सब का फ़ैसला इनके कर्मों के आधार पर होगा। सदकर्म वाले स्वर्ग में सुख भोगेंगे और दुष्कर्म वाले नरक में अनंत काल तक दुख भोगेंगे। पॉल आगे कहते हैं कि ये फ़ैसला यीशु ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में करेंगे। पॉल की सबसे महत्वपूर्ण घोषणा यह थी कि जो मानते हैं यीशु ईश्वर के पुत्र हैं और मर कर ज़िंदा हुए हैं वो सब स्वर्ग जाएँगे। 

जबकि लेखक का शोध इस ग्रंथ में यह सिद्ध करता है कि यीशु और उनके बारह प्रमुख प्रचारकों का यह मत क़तई नहीं था। वे तो पुनर्जन्म के सिद्धांत में विश्वास करते थे जो कि व्यक्ति के पूर्वजन्म के कर्मों पर आधारित होता है। जन्म-मृत्यु के इस निरंतर चक्र से आत्मा तभी मुक्त हो सकती है जब उसे आध्यात्मिक साधना के द्वारा आत्म साक्षात्कार हो जाए। ईसा मसीह की ये शिक्षाएँ आज के प्रचलित ईसाई धर्म (पॉल द्वारा प्रतिपादित) के बिलकुल विपरीत हैं और वैदिक धर्म के समान हैं। ये बात दूसरी है कि इसी लेखक ने अपने दूसरे एक ग्रंथ ‘ऐन आर्यन जर्नी’ में यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि आर्य बाहर से भारत आए थे और इसलिए वैदिक ज्ञान भी बाहर से ही भारत आया। 

‘डिस्कवरिंग जीसस’ पुस्तक में लेखक ने बाइबिल से ही प्रमाण लेकर पॉल और मूल प्रमुख प्रचारकों के बीच मतभेद को दर्शाया है। इसी तरह बाइबिल से लिये गये अन्य उदाहरणों की सहायता से ईसाई धर्म की तमाम मौजूदा मान्यताओं को सिरे से ख़ारिज किया है, क्योंकि ये मान्यताएँ पॉल द्वारा प्रतिपादित हैं, यीशु के प्रमुख शिष्यों द्वारा नहीं। इसके अलावा भी ईसाई पादरियों के द्वारा प्रारंभिक सदियों में लिखे गये लेखों के आधार पर इस पुस्तक के लेखक ने यह सिद्ध किया है कि वे पॉल को यीशु का प्रमुख शिष्य नहीं मानते थे और उसकी शिक्षाओं से सहमत नहीं थे। मसलन यीशु के भाई जेम्स जो यीशु की मृत्यु के बाद जेरुसलम के बिशप बने और प्रमुख प्रचारकों के चर्च के मुखिया बने, दुर्भाग्य से उन लोगों के लेख आज उपलब्ध नहीं हैं। केवल वही साहित्य उपलब्ध हैं जो बहुत सावधानी से पैक करके मिस्र मिस्र में गाढ़ दिया गया था जिसे अब ‘नाग हमादी’ पुस्तकालय के नाम से जाना जाता है। जितनी सावधानी से पैक किया गया है वही इस बात का प्रमाण है कि उन्हें इस मूल साहित्य को नष्ट किए जाने का डर था। इसके अलावा पॉल के अनुयायियों ने मूल प्रचारकों पर हमले की भावना से या उनका मज़ाक़ उड़ाने के लिए जो कुछ आगे की सदियों में लिखा उससे भी अपोस्टेल (प्रचारक) के विचारों का पता चलता है। 

पुस्तक में आगे इस बात का वर्णन है कि कैसे पॉल और पौलाइन चर्च ने ‘न्यू टेस्टामेंट’ के साथ छेड़छाड़ की। इससे पता चलता है कि केवल ‘गोस्पेल ऑफ़ मैथ्यू’ के ही लेख ही शुद्ध हैं जिन्हें प्रचारकों के शिष्यों ने स्वीकार किया था  क्योंकि ये हिब्रू भाषा में लिखे गये थे जिनका बाद में ‘गोस्पेल ऑफ़ मार्क’ ने यूनानी भाषा में अनुवाद किया था। हालाँकि इसमें भी एक दो बातें ऐसी हैं जो पॉल के सिद्धांतों का समर्थन करती हैं। उदाहरण के तौर पर यीशु को आध्यात्मिक दर्जा देने के लिए उनके जन्म को कुँवारी माँ के गर्भ से हुआ बताना, उनके चमत्कारों को महिमामंडित करना या उनका मर कर पुनर्जीवित होना। ये अंतिम बात पॉल ने इसीलिए जोड़ी ताकि वह अपने ‘अंतिम न्याय’ के सिद्धान्त को स्थापित कर सके।

इस तरह बाइबिल के ही उदाहरणों से लेखक ने बार-बार पॉल के सिद्धांतों और मान्यताओं को ग़लत सिद्ध करने का प्रयास किया है। लेखक ईसाई धर्म गुरुओं को इस विषय में उससे शास्त्रार्थ करने की खुली चुनौती भी देता है। आश्चर्य की बात है कि 2022 में प्रकाशित इस ग्रंथ में उठाए गए विषयों पर ईसाई जगत से चुनौती देने अभी तक कोई सामने नहीं आया है। अगर ऐसा हो तो बहुत सारी गुत्थियां सुलझ सकती हैं और भ्रांतियाँ भी दूर हो सकती हैं। क्योंकि एक संत, योगी या तत्ववेत्ता किसी भी धर्म का मानने वाला क्यों न हो जब वो साधना की चरम सीमा पर पहुँचता है तो उसे जो आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त होता है वो सार्वभौमिक होता है। तब धर्मों के बीच कोई मतभेद रह ही नहीं जाता। जो मतभेद आज दिखाई देता है वह आध्यात्मिकता या रूहानियत का आवरण मात्र है।  

Monday, February 20, 2023

स्वरा भास्कर की शादी पर इतना शोर क्यों?


अपने क्रान्तिकारी विचारों के लिये हमेशा चर्चा में रहने वाली सिने तारिका स्वरा भास्कर ने फहाद से शादी करके भक्तों और अभक्तों को बयानबाजी के लिये नया मसाला दे दिया है। जहाँ भक्त अपनी भड़ास निकालने के लिये सोशल मीडिया पर निहायत नीचे दर्जे की फब्तियां कस रहे है वहीं अभक्त स्वरा को इस साहसी कदम के लिये बधाई दे रहे है। पहले भक्तों की बात कर लें। हिन्दू, मुसलमान के बीच शादी कोई नयी या अनहोनी बात नहीं है। 

लव जिहाद का तूफान मचाने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व भाजपा के नेताओं के परिवारों में भी ऐसी बहुत शादियां हुई हैं। भाजपा के महासचिव रामलाल की भतीजी श्रिया गुप्ता की शादी हाल ही में लखनऊ में कांग्रेस नेता के बेटे फेजान करीम से हुई तो देश और प्रदेश के भाजपा व संघ के बड़े-बड़े नेता बधाई देने पहुँचे। प्रखर हिन्दूवादी नेता व भाजपा के सांसद डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी की बेटी सुहासिनी ने विदेश सचिव के बेटे नदीम हेदर से निकाह किया और वे सुखी जीवन जी रहे हैं। 1957 में जन्में भाजपा के केन्द्रीय मंत्री व उपाध्यक्ष रहे मुख्तार अब्बास नकवी ने हिन्दू महिला सीमा से शादी की और आजतक सुखी जीवन जी रहे है। इसी तरह भाजपा के ही नेता सैयद शाहनवाज हुसैन ने हिन्दू महिला रेनू से शादी की और आजतक सुखी वैवाहिक जीवन जी रहे है। वर्तमान में केन्द्रिय मंत्री स्मृति मल्हरोत्रा अपनी सखी के पारसी पति से शादी करके स्मृति ईरानी बन गईं। बिहार के पूर्व उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी की पत्नी जेसिस जॉर्ज ईसाई हैं। अटल जी की केबिनेट में मंत्री रहे सिकन्दर बख्त की पत्नी राज शर्मा थीं। 


ये कुछ उदाहरण काफी है ये बताने के लिये कि शादी दो इंसानों के बीच का मामला होता है। जो एक धर्म के भी हो सकते है और अलग-अलग धर्म के भी। इसलिए जो भक्त समुदाय स्वरा भास्कर को दहेज में फ्रिज ले जाने की सलाह देकर व्यंग कर रहा है उसे अपनी बुद्वि शुद्व कर लेनी चाहिये। अपनी पार्टनर श्रद्धा की हत्या करके उसके टुकड़े फ्रिज में रखने वाले अपराधी आफताब पूनावाला के इस जघन्य कृत्य पर देश में पिछले बरस मीडिया में खुब बवाल मचा। इसे मुसलमानों की लवजिहाद बताकर हिन्दू लड़कियों को मुसलमान लड़कों से दूर रहने की खूब सलाह दी गई। भक्तों का मानना है कि हर मुसलमान शौहर अपनी हिन्दू बीवी से ऐसा ही सलूक करता है। जबकि श्रद्धा की हत्या के बाद से भी दर्जनों मामले ऐसे सामने आ चुके है जब हिन्दू लड़के ने हिन्दू पत्नी की जघन्य हत्यायें की हैं। आश्चर्य है कि इसे न तो लव जिहाद कहा गया और न ही इस पर मीडिया उछला। पिछले हफ्ते ही साहिल गहलोत ने अपनी प्रेमिका निक्की यादव को काटकर फ्रिज में छुपा दिया। इसे भी कोई लव जिहाद नहीं कह रहा। साफ जाहिर है कि भक्तों के दिमाग में ही कचरा भरा है जो किसी अपराध को अपराध की तरह नही बल्कि लव जिहाद की तरह ही देखते है।


यह सही है कि भारतीय समाज अपनी परम्पराओं और धार्मिक अस्थाओं से बहुत गहरा जुड़ा है। इसलिए दो धर्मों के बीच के विवाह को समाज द्वारा जल्दी आम स्वीकृति नहीं मिलती। दूसरी तरफ ऐसा विवाह करने वाले युगल उगलियों पर गिने जा सकते है। स्वतंत्र और प्रगतिशील विचारों वाले ही ऐसा जोखिम उठाते है। रोचक बात ये है कि भाजपा व सघं के सबसे बड़े नेता सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत कहते है कि हिन्दूओं और मुसलमानों का डी.एन.ए. एक ही है तो फिर स्वरा और फहाद की शादी पर संघ परिवार में इतनी बेचेनी क्यों? डॉ. भागवत तो यहां तक कहते है कि ‘‘मुसलमानों के बिना नहीं बचेगा हिन्दुत्व।’’ जब सरसंघचालक के ये विचार है तो स्वरा भास्कर ने क्या गलत कर दिया जो कि संघ परिवार इतना उत्तेजित हो रहा है।

अभक्त स्वरा और फहाद की शादी से इसलिये खुश है कि इस समाचार ने भक्तों का दिल जला दिया है। बात ये भी नहीं है। स्वरा ने भक्तों का दिल जलाने के लिये फहाद से शादी नहीं की। बल्कि उसे फहाद का व्यक्तित्व आकर्षक लगा पर उसने ये कदम उठा लिया। महत्पूर्ण बात ये है कि इस शादी के लिये स्वरा ने अपना धर्म परिवर्तन नही किया। दोनों ने मजिस्ट्रेट के सामने शादी का पंजीकरण अपने परिवारों की उपस्थिति में करवाया। इसलिये मुल्ला इस शादी को शरियत के कानून से वैध नहीं माना है। उनका कहना है कि जब तक शादी करने वाले अल्लाह को समर्पित नहीं होते तब तक ये शादी उन्हें कबूल नही। पर स्वरा और फहाद इस नियम को नहीं मानते। इसलिये उन्होंने भारत के कानून के अर्न्तगत वैध विवाह किया है। आशा की जानी चाहिये कि समविचारों वाले ये दोनों युवा सुखी वैवाहिक जीवन जीयेंगे और अपने विचारों के अनुसार समाज की भलाई के लिये काम करेंगे। 

भारतीय समाज और संविधान की यही विशेषता है कि वो हर बालिग नागरिक को उसकी इच्छा के अनुसार जीवन जीने की छूट देता है। स्वरा और फहाद ने इसी छूट का लाभ उठाकर अपने वैवाहिक जीवन का फैसला लिया है तो इस पर इतना विवाद क्यों? अगर ये शादी इतनी ही गलत है तो संघ और भाजपा के बड़े नेताओं की अन्तरधर्मीय शादियों पर संघ ने ऐसा बवाल क्यों नही मचाया था? जाहिर है कि पिछले आठ वर्षों से संघ और भाजपा हर मुद्दे पर इसी तरह दो मुखोटे लगाये नजर आते हैं। इसीलिये आज देश में गम्भीर मुद्दों को छोड़कर सारी ऊर्जा ऐसे ही निरर्थक विषयों को उछालने पर बर्वाद हो रही है। जिससे समाज में वैमन्स्य पैदा हो रहा है। जिसे स्वरा और फहाद ने कम करने की दिशा में ये कदम उठाया है। जिस के लिये हम उन्हें शुभकामनायें देते है। 

Monday, January 30, 2023

मिस्र की प्राचीन संस्कृति और कट्टरपंथी हमले के नुक़सान


हम भारतीय अपनी प्राचीन संस्कृति पर बहुत गर्व करते हैं। बात-बात पर हम ये बताने कि कोशिश करते हैं कि जितनी महान हमारी संस्कृति है, उतनी महान दुनिया में कोई संस्कृति नहीं है। निःसंदेह भारत का जो दार्शनिक पक्ष है, जो वैदिक ज्ञान है वो हर दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ है। लेकिन अगर ऐतिहासिक प्रमाणों की दृष्टि से देखा जाए तो हम पायेंगे कि भारत से कहीं ज़्यादा उन्नत संस्कृति दुनिया के कुछ दूसरे देशों में पायी जाती है।
 

पिछले तीन दशकों में दुनिया के तमाम देशों में घूमने का मौक़ा मिला है। आजकल मैं मिस्र में हूँ। इससे पहले यूनान, इटली व अब मिस्र की प्राचीन धरोहरों को देखकर बहुत अचम्भा हुआ। जब हम जंगलों और गुफ़ाओं में रह रहे थे या हमारा जीवन प्रकृति पर आधारित था। उस वक्त इन देशों की सभ्यता हमसे बहुत ज्यादा विकसित थी। हम सबने बचपन में मिस्र के पिरामिडों के बारे में पढ़ा है।पहाड़ के गर्भ में छिपी तूतनख़ामन की मज़ार के बारे में सबने पढ़ा था। यहाँ के देवी-देवता और मंदिरों के बारे में भी पढ़ा। पर पढ़ना एक बात होती है और मौक़े पर जा कर उस जगह को समझना और गहराई से देखना दूसरी बात होती है।


अभी तक मिस्र में मैंने जो देखा है वो आँखें खोल देने वाला है। क्या आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि आज से 5,500 साल पहले, क़ुतुब मीनार से भी ऊँची इमारतें, वो भी पत्थर पर बारीक नक्काशी करके, मिस्र के रेगिस्तान में बनाई गयीं। उनमें देवी-देवताओं की विशाल मूर्तियाँ स्थापित की गईं। हमारे यहाँ मंदिरों में भगवान की मूर्ति का आकर अधिक से अधिक 4 से 10 फीट तक ऊँचा रहता है। लेकिन इनके मंदिरों में मूर्ति 30-40 फीट से भी ऊँची हैं। वो भी एक ही पत्थर से बनाई गयीं हैं। दीवारों पर तमाम तरह के ज्ञान-विज्ञान की जानकारी उकेरी गई है। फिर वो चाहे आयुर्वेद की बात हो, महिला का प्रसव कैसे करवाया जाए, शल्य चिकित्सा कैसे हो, भोग के लिये तमाम व्यंजन कैसे बनाए जाएँ, फूलों से इत्र कैसे बनें, खेती कैसे की जाए, शिकार कैसे खेला जाए। हर चीज़ की जानकारी यहाँ दीवारों पर अंकित है ताकि आने वाली पीढ़ियाँ इसे सीख सकें। इतना वैभवशाली इतिहास हैं मिस्र का कि इसे देख पूरी दुनिया आज भी अचंभित होती है। 


फ़्रांस, स्वीडन, अमरीका और इंग्लैंड के पुरातत्ववैत्ताओं व इतिहासकारों ने यहाँ आकर पहाड़ों में खुदाई करके ऐसी तमाम बेशुमार चीज़ों को इकट्ठा किया है।सोने के बने हुए कलात्मक फर्नीचर, सुंदर बर्तन, बढ़िया कपड़े, पेंटिंग और एक से एक नक्काशीदार भवन। अगर उस वक्त की तुलना भारत से की जाए तो भारत में हमारे पास अभी तक जो प्राप्त हुआ है वो सिर्फ़ हड़प्पा व मोहनजोदड़ो की संस्कृति के अवशेष है। हड़प्पा व मोहनजोदड़ो की संस्कृति में जो हमें मिला है वो केवल मिट्टी के कुछ बर्तन, कुछ सिक्के, कुछ मनके और ईंट से बनी कुछ नींवें, जो भवनों के होने का प्रमाण देती हैं। लेकिन वो तो केवल साधारण ईंट के बने भवन हैं। यहाँ तो विशालकाय पत्थरों पर नक़्क़ाशी करके और उन पर आजतक न मिटने वाली रंगीन चित्रकारी करके सजाया गया है। इनको यहाँ तक ढोकर कैसे लाया गया होगा, जबकि ऐसा पत्थर यहाँ पर नहीं होता था? कैसे उनको जोड़ा गया होगा? कैसे उनको इतना ऊँचा खड़ा किया गया होगा जबकि उस समय कोई क्रेन नहीं होती थी? ये बहुत ही अचंभित करने वाली बात है।

किंतु इस इतिहास का एक नकारात्मक पक्ष भी है। हर देश काल में सत्ताएँ आती-जाती रहती हैं और हर नई आने वाली सत्ता, पुरानी सत्ता के चिन्हों को मिटाना चाहती है। क्योंकि नई सत्ता अपना आधिपत्य जमा सके। यहाँ मिस्र में भी यही हुआ। जब मिस्र पर यूनान का हमला हुआ, रोम का हमला हुआ या जब अरब के मुसलमानों का हमला हुआ तो सभी ने यहाँ आ कर यहाँ के इन भव्य सांस्कृतिक अवशेषों का विध्वंस किया। उसके बावजूद भी इतनी बड़ी मात्रा में अवशेष बचे रह गए या दबे-छिपे रह गये, जो अब निकल रहे हैं। यही अवशेष मिस्र में आज विश्व पर्यटन का आकर्षण बने हुए हैं। दुनिया भर से पर्यटक बारह महीनों यहाँ इन्हें ही देखने आते हैं। इन्हें देख कर दांतों तले उँगली दबा लेते हैं। इसी का नतीजा है कि आज मिस्र की अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा आधार पर्यटन उद्योग ही है। 

परंतु जो धर्मांध या अतिवादी होते हैं, वो अक्सर अपनी मूर्खता के कारण अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार लेते हैं। आपको याद होगा कि 2001 में अफ़ग़ानिस्तान के बामियान क्षेत्र में गौतम बुद्ध की 120 फीट ऊँची मूर्ति को तालिबानियों ने तोप-गोले लगाकर ध्वस्त किया था। विश्व इतिहास में ये बहुत ही दुखद दिन था। आज अफ़ग़ानिस्तान भुखमरी से गुज़र रहा है। वहाँ रोज़गार नहीं है। खाने को आटा तक नहीं है। अगर वो उस मूर्ति को ध्वस्त न करते। उसके आस-पास पर्यटन की सुविधाएँ विकसित करते, तो जापान जैसे कितने ही बौद्ध मान्यताओं वाले देशों के व दूसरे करोड़ों पर्यटक वहाँ साल भर जाते और वहाँ की अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा योगदान करते। 

जब अरब मिस्र में आए तो उन्होंने सभी मूर्तियों के चेहरों ध्वस्त करना चाहा। क्योंकि इस्लामिक देशों में बुतपरस्ती को बुरा माना जाता है। जहाँ-जहां वे ऐसा कर सकते थे उन्होंने छैनी हथौड़े से ऐसा किया। लेकिन आज उसी इस्लाम को मानने वाले मिस्र के मुसलमान नागरिक उन्हीं मूर्तियों को, उनके इतिहास को, उनके भगवानों को, उनकी पूजा पद्धति को दिखा-बता कर अपनी रोज़ी-रोटी कमा रहे हैं। फिर वो चाहे लक्सर हो, आसवान हो, अलेक्ज़ेंडेरिया हो या क़ाहिरा हो, सबसे बड़ा उद्योग पर्यटन ही है। आज मिस्र के लोग उन्हीं पेंटिंग और मूर्तियों के हस्तशिल्प में नमूने बनाकर, किताबें छाप कर, उन्हीं चित्रों की अनुकृति वाले कपड़े बनाकर, उन्हीं की कहानी सुना-सुनाकर उससे कमाई कर  रहे हैं। 

अब मथुरा का ही उदाहरण ले लीजिए। मथुरा में काम कर रही संस्था द ब्रज फ़ाउंडेशन ने पिछले बीस वर्षों में पौराणिक व धार्मिक महत्व वाली दर्जनों श्रीकृष्ण लीला स्थलियों का जीर्णोद्धार और संरक्षण किया है। परंतु योगी सरकार ने आते ही द्वेष वश फाउंडेशन द्वारा सजाई गई दो लीलास्थलियों का तालिबानी विनाश करना शुरू कर दिया। ताज़ा उदाहरण तो मथुरा के जैंत ग्राम स्थित पौराणिक कालियामर्दन मंदिर, अजय वन व जय कुंड का है, जहां भाजपा के एक स्थानीय नेता ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से ग्राम सभा के फ़र्ज़ी प्रस्ताव पर एक सार्वजनिक कूड़ेदान का निर्माण करा रहा है। ग्राम सभा के 15 सदस्यों में से 14 निर्वाचित सदस्य मथुरा के ज़िलाधिकारी को व मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लिखित शिकायत दे चुके हैं कि कूड़ेदान के लिए कोई उनकी सभा में कोई प्रस्ताव पास नहीं हुआ। जिस प्रस्ताव के आधार पर ये निर्माण हो रहा है वो फ़र्ज़ी है। इससे पवित्र तीर्थ पर गंदगी का अंबार लग जाएगा। सारा गाँव इसका घोर विरोध कर रहा है। पर अभी तक प्रशासन की तरफ़ से इसे रोकने की कोई कारवाई नहीं हुई। एक ओर तो योगी सरकार हिंदुत्व को बढ़ाने का दावा करती है। दूसरी तरफ़ उसी के राज में मथुरा में तीर्थ स्थलों का विनाश इसलिए किया जा रहा है क्योंकि वो राजनैतिक रूप से उन्हें असुविधाजनक लगते हैं। शायद भाजपा और आरएसएस की मानसिकता यह है कि हिन्दू धर्म का जो भी काम होगा वो यही दो संगठन करेंगे। यदि कोई दूसरा करेगा तो उसका कोई महत्व नहीं और उसे नष्ट करने में किसी तरह की धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं होगा। यह बहुत ही दुखद है।

इस लेख के माध्यम से मैं उन सभी लोगों तक ये संदेश भेजना चाहता हूँ कि धरोहर चाहे किसी भी देश, धर्म या समुदाय की हो, वो सबकी साझी धरोहर होती है। वो पूरे विश्व कि धरोहर होती है। सभ्यता का इतिहास इन धरोहरों को संरक्षित रख कर ही अलंकृत होता है। जो आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देता है। चाहे किसी भी धर्म में हमारी आस्था हो हमें कभी भी किसी दूसरे धर्म की धरोहर का विनाश नहीं करना चाहिए। आज नहीं तो कल हम ये समझेंगे कि इन धरोहरों को बनाना और सँभालना कितना मुश्किल होता है और उनका विनाश करना कितना आसान। इसलिए ऐसे आत्मघाती कदमों से बचें और अपने इलाक़े, प्रांत और प्रदेश की सभी धरोहरों कि रक्षा करें। इसी में पूरे मानव समाज की भलाई है।    

Monday, January 9, 2023

राहुल की यात्रा पर संघ का रवैया


जिस दिन से राहुल गांधी ने, कन्याकुमारी से, ‘भारत जोड़ो पद यात्रा’ शुरू की है उस दिन से भाजपा के प्रवक्ता, उसकी आईटी सेल और उसके नेता राहुल गांधी का मज़ाक़ उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। और इनका साथ दे रहा है इनका ‘गोदी मीडिया’। बावजूद इसके राहुल कि यात्रा हर दिन सफलता के नये सोपान तय कर रही है। भाजपा का आँकलन था कि केरल के बाहर निकलते ही ये यात्रा फुस्स हो जाएगी। पर उनकी आशा के विपरीत दक्षिण भारत के राज्यों में राहुल गांधी को जानता का जो भारी प्यार और समर्थन मिला है उसने भाजपा नेतृत्व को कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया है। 

पिछले आठ साल से राहुल गांधी को ‘पप्पू’ बताने वाली भाजपा हिंदी प्रदेशों में राहुल की यात्रा को मिल रहे भारी समर्थन से विचलित हो गई है। यहाँ यह उल्लेख करना ज़रूरी है, कि इस यात्रा की सफलता इस बात की गारंटी नहीं देती कि इस लोकप्रियता को राहुल गांधी वोटों में बदल पाएँगे। अगर वे ऐसा कर पाए तो निश्चित रूप से ये उनकी ऐतिहासिक विजय होगी। अगर नहीं भी कर पाए तो भी लोगों के बीच लगातार पैदल चल कर और हर वर्ग के लोगों से आत्मीयता से मिल कर, राहुल गांधी ने वो हासिल कर लिया है जिसे आजतक देश के गिने-चुने नेता ही हासिल कर पाए थे। उस दृष्टि से राहुल का क़द बहुत बढ़ गया है। 


भाजपा की चिंता का एक बड़ा कारण यह भी है कि जो जनता राहुल को सर आँखों पर बिठा रही है वो वही जनता है जिसने 2014 व 2019 में नरेंद्र मोदी को सर आँखों पर बिठाया था। पर गत आठ वर्षों में देश में फैली भारी बेरोज़गारी, सुरसा सी बढ़ती महंगाई और माध्यम वर्गीय व्यापारियों व कारखानेदारों की तबाही ने उसी जनता को निराश और हताश कर दिया है। अब उसे भाजपा शासन में राहत मिलने की कोई उम्मीद नज़र नहीं आ रही। जनता की इसी नब्ज को पहचान कर मौक़े देख कर पाला पलटने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व ने अब अचानक राहुल गांधी की यात्रा की प्रशंसा करना शुरू कर दिया है।      

अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर के मुख्य पुजारी महंत आचार्य सत्येंद्र दास ने राहुल गांधी को उनकी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के लिए पत्र लिखकर शुभकामनाएँ भेजी हैं। इस पत्र से राजनीतिक गलियारों में एक नई चर्चा शुरू हो गई है। हालांकि ऐसा करने वाले वे अकेले नहीं हैं। श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के कोषाध्यक्ष स्वामी गोविंद देव गिरि और श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के महासचिव व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ सदस्य चंपत राय ने भी शुभकामनाएँ दी हैं। सवाल ये उठ रहा है कि ऐसी शुभकामनाओं के पीछे क्या संदेश छुपा हो सकता है?

महंत आचार्य सत्येंद्र दास ने अपने पत्र में कहा, आपकी भारत जोड़ो यात्रा मंगलमय हो। आपका जो देश जोड़ने का ख्वाब है, वो पूर्ण हो, जिस लक्ष्य को लेकर आप चल रहे हैं, उसमें आपको सफलता मिले। आप स्वस्थ रहें, दीर्घायु रहें। देश के हित में जो भी कार्य कर रहे हैं, वह सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय है। इसी मंगलकामना के साथ शुभ आशीर्वाद। प्रभु रामलला का आशीर्वाद आप पर बना रहे। उधर चंपत राय ने तो राहुल गांधी की इस यात्रा को प्रशंसनीय तक कह डाला। इतना ही नहीं उन्होंने सभी को यात्रा कर भारत का अध्ययन करने को कहा।


उल्लेखनीय है कि जब 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या की गई थी तो संघ के बड़े नेता नानाजी देशमुख ने कांग्रेस के प्रति सहानुभूति जताई थी। यह तक की 1984 के लोक सभा चुनाव में राजीव गांधी को मिली आशातित सफलता के पीछे संघ के स्वयंसेवकों की बड़ी भूमिका रही थी। इसी तरह जब विश्वनाथ प्रताप सिंह बोफ़ोर्स मामले को लेकर हल्ला मचा रहे थे तब भी संघ ने उनका समर्थन किया था। अन्ना हज़ारे के आंदोलन में भी संघ समर्थन में था। जब भी कोई दल भले ही वो संघ की विचारधारा से मेल न रखता हो, यदि राष्ट्रीय पटल पर ताक़त के साथ उभरने लगता है तो संघ फ़ौरन उसका समर्थन कर देता है। सवाल है कि ऐसे में इन बयानों से क्या संघ केंद्र की भाजपा सरकार को आईना दिखा रहा है?

बढ़ती हुई महंगाई और बेरोज़गारी को लेकर संघ और भाजपा की बीच जो वैचारिक दूरी आई है वह भी किसी से नहीं छुपी है। इसलिए ऐसे बयानों को मात्र व्यंग की दृष्टि से देखा जाना ठीक नहीं होगा और इसीलिए इन संदेशों को मात्र शुभकामना संदेश भी नहीं समझा जाना चाहिए। गौर इस बात पर भी किया जा सकता है कि भाजपा नेता राहुल की यात्रा को ‘भारत तोड़ो यात्रा’ बता रहे हैं। वहीं चंपत राय के बयान को लें तो उन्होंने इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने यात्रा की आलोचना नहीं की है। लेकिन भाजपा नेता लगातार राहुल की यात्रा को विफल बता रहे हैं। अगला सवाल ये है कि भाजपा नेता संघ से अलग बातें क्यों कर रहे हैं? इसका तर्क यह दिया जा सकता है कि केंद्र में भाजपा सरकार चला रही है और सरकार का पक्ष लेना भाजपा  नेताओं की मजबूरी है।


यदि राहुल गांधी या किसी भी दल का कोई भी नेता भारत को ‘जोड़ने’ के लक्ष्य से कन्याकुमारी से कश्मीर तक पैदल यात्रा करता है, तो इसके विरोध में केवल वही दल आएगा जो कि भारत को ‘जोड़ने’ के ख़िलाफ़ हो। दिन-रात एक ही दल और उसके नेता की चारण भाटों की तरह प्रशंसा और गुणगान करने वाला मीडिया आज राहुल गांधी की इतनी सफल ‘भारत जोड़ो यात्रा’ पर कोई विस्तृत रिपोर्टिंग नहीं कर रहा। पर जैसे ही ये बयान आए तो राहुल की यात्रा को मीडिया में जगह मिलने लगी है।

कांग्रेस के विरोधी दल पिछले कई वर्षों से राहुल गांधी को ‘पप्पू’ सिद्ध करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ रहे थे। भाजपा समेत सभी विरोधी दल इस बात का कोई जवाब नहीं दे रहे कि जिसे वे अब तक पप्पू कह कर प्रचारित करते रहे वह हर दिन, हर मोड़ पर बड़ी बेबाक़ी से मीडिया का सामना करता आ रहा है। ऐसी हिम्मत पिछले बरसों में इस देश के कई बड़े नेता एक बार भी नहीं दिखा पाए। अगर उन नेताओं में सच्चाई और नैतिक बल है तो वे प्रेस से इतना डरते क्यों हैं? कुल मिलाकर राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा ने भाजपा के सामने कई सवाल खड़े कर दिये हैं। शायद इसीलिए संघ एक बीच का रास्ता अपनाने पर मजबूर हुआ है।  

Monday, October 3, 2022

अंग्रेजों के अत्याचारों पर ये खामोशी क्यों ?



पिछले कुछ वर्षों से मुसलमानों को लेकर दुनिया के तमाम देशों में चिंता काफ़ी बढ़ गई है। हर देश अपने तरीक़े से मुसलमानों की धर्मांधता से निपटने के तरीक़े अपना रहा है। खबरों के मुताबिक़ चीन इस मामले में बहुत आगे बढ़ गया है। वैसे भी साम्यवादी देश होने के कारण चीन की सरकार धर्म को हेय दृष्टि से देखती है। पर मुसलमानों के प्रति उसका रवैया कुछ ज़्यादा ही कड़ा और आक्रामक है। इसी तरह यूरोप के देश जैसे फ़्रांस, जर्मनी, हॉलैंड और इटली भी मुसलमानों के कट्टरपंथी रवैए के विरुद्ध कड़ा रुख़ अपना रहे हैं। इधर भारत में मुसलमानों को लेकर कुछ ज़्यादा ही आक्रामक तेवर अपनाए जा रहे हैं। इस विषय पर मैंने पहले भी कई बार लिखा है। मैं अपने सनातन धर्म के प्रति आस्थावान हूँ। पर यह भी मानता हूँ कि धर्मांधता और कट्टरपंथी रवैया, चाहे किसी भी धर्म का हो, पूरे समाज के लिए घातक होता है। 


जहां तक भारत में हिंदू - मुसलमानों के आपसी रिश्तों की बात है, तो ये जानना बेहद ज़रूरी है कि हिंदू धर्म का और हमारे देश की अर्थ व्यवस्था का जितना नुक़सान 190 वर्षों के शासन काल में अंग्रेजों ने किया उसका पासंग भी 800 साल के शासन में मुसलमान शासकों ने नहीं किया। मुसलमान शासकों ने जो भी जुल्म ढाए हों, हमारे सनातनी संस्कारों को समाप्त नहीं कर पाए। जबकि अंग्रेजों ने मैकाले की शिक्षा प्रणाली थोप कर हर भारतीय के मन में सनातनी संस्कारों के प्रति इतनी हीन भावना भर दी कि हम आजतक उससे उबर नहीं पाए। मैं गत तीस वर्षों से देश-विदेश में धोती, कुर्ता, अंगवस्त्रम पहनता हूँ और वैष्णव तिलक भी धारण करता हूँ, तो अपने को हिन्दुवादी बताने वाले भी मुझे पौंगापंथी समझते हैं। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि मुग़ल काल में गौ वध पर फाँसी तक की सज़ा थी, लेकिन अंग्रेजों ने भारत में गौ मांस के कारोबार को खूब बढ़ावा दिया और ग़ैर सवर्ण जातियों में सुअर के मांस को प्रोत्साहित किया। इससे अंग्रेज हुक्मरानों के उन दिनों मांस खाने के शौक़ को तो पूरा किया ही, बड़ी चालाकी से उन्होंने हिंदू-मुसलमानों के बीच एक गहरी खाई भी पैदा कर दी।  



जहां तक मुसलमान शासकों के हिंदू और सिक्खों के प्रति हिंसक अत्याचारों का प्रश्न है तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी और रानी लक्ष्मीबाई जैसे हिंदू राजाओं के सेनापति मुसलमान ही थे, जो उनकी तरफ़ से मुग़लों और अंग्रेजों की फ़ौजों से लड़े। उधर अकबर, जहांगीर और औरंगज़ेब व दक्षिण में टीपू सुल्तान जैसे मुसलमान शासकों के सेनापति हिंदू थे, जो हिंदू राजाओं से लड़े। यानी मध्य युग के उस दौर में हिंदू-मुसलमानो के बीच पारस्परिक विश्वास का रिश्ता था। अगर आप यूट्यूब पर आजकल दिखाई जा रही 1947 के विभाजन की आप बीती कहानियाँ सुने तो आपको आश्चर्य होगा की भारत और पाकिस्तान के विभाजन पूर्व पंजाब में रहने वाले हिंदू और मुसलमानों के पारस्परिक रिश्ते कितने मधुर थे। ये खाई और घृणा अंग्रेजों ने अपनी ‘बाँटो और राज करो’ नीति के तहत जानबूझकर बड़ी कुटिलता से पैदा की। जिसकी परिणिति अंततः भारत के विभाजन से हुई। जिसका दंश दोनो देशों के लोग आजतक भोग रहे हैं। 


आरएसएस के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत जी लाख हिंदू-मुसलमानों का डीएनए एक ही बताएँ, पर आरएसएस व भाजपा के कार्यकर्ता और इनकी आईटी सेल आजकल रात दिन हिंदुओं पर हुए मुसलमानों के अत्याचार गिनाते हैं। आश्चर्य है कि अंग्रेजों के हम भारतीयों पर दो सौ वर्षों तक लगातार हुए राक्षसी अत्याचारों और भारत की अकूत दौलत की जो लूट अंग्रेजों ने करके भारत को कंगाल कर दिया, उसका ये लोग कभी ज़िक्र तक नहीं करते, क्या आपने कभी सोचा ऐसा क्यों है?



आज हर उस व्यक्ति को जो स्वयं को देशभक्त मानता है इतिहासकार श्री सुन्दरलाल की शोधपूर्ण पुस्तक ‘भारत में अंग्रेज़ी राज’ अवश्य पढ़नी चाहिये, जिसे 1928 मार्च में प्रकाशित होने के चार दिन बाद ही अंग्रेज हुकूमत ने प्रतिबंधित कर दिया था और इसकी चार दिन में बिक चुकी 1700 प्रतियों को लोगों के घरों पर छापे डाल-डाल कर उनसे छीन लिया था। क्योंकि इस पुस्तक में अंग्रेजों के अत्याचारों की रोंगटे खड़े करने वाली हक़ीक़त बयान की गयी थी। जिसे पढ़कर हर हिंदुस्तानी का खून खौल जाता था। अंग्रेज सरकार ने पुस्तक के प्रकाशक, विक्रेताओं, ग्राहकों और डाकखानों पर ज़बरदस्त छापामारी कर इन पुस्तकों को छीनना शुरू कर दिया। देश के बड़े नेताओं ने इसके विरुद्ध आवाज़ उठाई और लोगों से किसी भी क़ीमत पर ये किताब अंग्रेजों को न देने की अपील की। इस तरह अंग्रेज पूरी वसूली नहीं कर पाए। इस हिला देने वाली किताब की काफ़ी प्रतियाँ पाठकों के गुप्त पुस्तकालयों में सुरक्षित रख ली गईं। 



चूँकि मेरे नाना संयुक्त प्रांत (आज का उत्तर प्रदेश) की विधान परिषद के उच्च अधिकारी थे, इसलिए उन्हें भी अपने अंग्रेज हुक्मरानों का डर था। उन्होंने यह किताब लखनऊ की अपनी कोठी के तहखाने में छिपा कर रखी थी। मेरी माँ और उनके भाई-बहन बारी-बारी से तहखाने में जाकर इसे पढ़ते थे। जितना पढ़ते उतनी उनके मन में अंग्रेजों के प्रति घृणा और आक्रोश बढ़ता जाता था। ये बात बीसवीं सदी के चौथे दशक की है जब देश में कई जगह कांग्रेस ने सरकार चलाना स्वीकार कर लिया था। क्योंकि तब इस पुस्तक पर से प्रतिबंध हटा लिया गया था और इसे दोबारा प्रकाशित किया गया था। आज़ादी के बाद भारत सरकार के ‘नैशनल बुक ट्रस्ट’ ने इसे दो खंडों में पुनः प्रकाशित किया। तब से यह पुस्तक ‘भारत में अंग्रेज़ी राज’ बेहद लोकप्रिय है और इसकी हज़ारों प्रतियाँ बिक चुकी हैं। पुस्तक ऑनलाइन भी उपलब्ध है। इस पुस्तक को हर देश भक्त भारतीय को अवश्य पढ़ना चाहिए तभी सच्चाई का पता चलेगा वरना हम निहित स्वार्थों के प्रचार तंत्र के शिकार बन कर अपना विनाश स्वयं कर बैठेंगे। 


जहां तक बात मुसलमानों के कट्टरपंथी होने की है तो मेरा और मेरे जैसे लाखों भारतीयों का यह मानना है कि जिस तरह मुसलमानों में कुछ फ़ीसदी कट्टरपंथी हैं वैसे ही हिंदुओं में भी हैं। जिनका सनातन धर्मों के मूल्यों, वैदिक साहित्य और हिंदू जीवन पद्धति में कोई आस्था नहीं है। कई बार तो ये लोग धर्म की ध्वजा उठा कर सनातन धर्म का भारी नुक़सान भी कर देते हैं। जिसके अनेक उदाहरण हैं। इनसे हमें बचना होगा। दूसरी तरफ़ मुसलमानों को भी इंडोनेशिया जैसे देश के मुसलमानों से सीखना होगा कि भारत में कैसे रहा जाए? इंडोनेशिया के मुसलमान इस्लाम को मानते हुए भी अपने हिंदू इतिहास के प्रति उतना ही सम्मान रखते हैं। 

Monday, August 22, 2022

बिहारी जी मंदिर में मौत क्यों ?



श्री कृष्ण जन्माष्टमी के अगले दिन वृंदावन के सुप्रसिद्ध श्री बाँके बिहारी मंदिर में मंगला आरती के समय हुई भगदड़ में दो लोगों की जान गई और कई घायल हुए। इस दुखद हादसे पर देश भर के कृष्ण भक्त सदमे में हैं और जम कर निंदा भी कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर ऐसे तमाम विडीयो भी देखे जा सकते हैं जहां श्रद्धालुओं की भीड़ किस कदर धक्का-मुक्की का शिकार हो रही है। श्री कृष्ण जन्माष्टमी के पर्व पर भक्तों को अव्यवस्था के चलते जिन दिक्कतों का सामना करना पड़ता है उनसे शायद मथुरा प्रशासन को भविष्य के लिए सबक सीखने की आवश्यकता है।   

 

मंदिरों की अव्यवस्था के चलते हुई मौतों की सूची छोटी नहीं है। 2008 में हिमाचल प्रदेश के नैना देवी मंदिर में भगदड़ में डेढ़ सौ से अधिक जाने गईं थी। महाराष्ट्र के पंडरपुर में भी ऐसा ही हादसा हुआ था। बिहार के देवघर में शिवजी को जल चढाने गयी भीड़ की भगदड़ में मची चीतकार हृदय विदारक थी। कुंभ के मेलों में भी अक्सर ऐसे हादसे होते रहते हैं। जब से टेलीविजन चैनलों का प्रचार प्रसार बढ़ा है तब से भारत में तीर्थस्थलों और धार्मिक पर्वो के प्रति भी उत्साह बढ़ा है। आज देश के मशहूर मंदिरों में पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा भीड़ जाती है। जितनी भीड़ उतनी अव्यवस्था। उतना ही दुर्घटना का खतरा। पर स्थानीय प्रशासन प्रायः कुछ ठोस नहीं करता या वीआईपी की व्यवस्था में लगा रहता है या साधनों की कमी की दुहाई देता है। हमेशा हादसों के बाद राहत की अफरा-तफरी मचती है।



मथुरा हो या काशी उत्तर प्रदेश और केंद्र सरकार ने इन तीर्थों के विकास के लिए पैसे की कोई कमी नहीं होने दी। वृंदावन के जिस बाँके बिहारी मंदिर में यह दुखद हादसा हुआ उस मंदिर की गली के विकास के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो कुबेर का ख़ज़ाना खोल दिया। विश्व बैंक से 27 करोड़ की मोटी रक़म स्वीकृत करवाकर दी थी। परंतु वहाँ सुविधा के नाम पर भक्तों को क्या मिला ये सबके सामने है। वहाँ के निवासी और दुकानदार बताते हैं कि उत्तर प्रदेश ब्रज तीर्थ विकास परिषद ने योगी जी द्वारा दिए गए इस धन को हज़म कर लिया या बर्बाद कर दिया। इतने पैसे से तो बिहारी जी के मंदिर और उसके आस-पास के इलाक़े में भक्तों की सुविधा के लिए काफ़ी कुछ किया जा सकता था। परंतु ऐसा नहीं हुआ। 


ऐसा नहीं है कि वृंदावन में ऐसे हादसे पहले नहीं हुए। ऐसा भी नहीं है कि इससे पहले बिना हादसों के बड़े-बड़े त्योहार शांतिपूर्वक सम्पन्न नहीं हुए। मुझे याद है जब 2003 में मुझे माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्देश पर इसी बाँके बिहारी मंदिर का रिसीवर नियुक्त किया गया था। तो मेरे रिसीवर बनते ही कुछ ही सप्ताह बाद हरियाली तीज का त्योहार आ रहा था। उस दिन बिहारी जी के दर्शनों के लिए लाखों की भीड़ आती है। मेरे लिए यह पहला मौक़ा था और काफ़ी चुनती पूर्ण था। 


मैंने अपने सम्पर्कों से पता लगाया कि एसपीजी के कुछ सेवानिवृत जवान एक संस्था चलाकर भीड़ नियंत्रण करने का काम करते हैं। उनसे संपर्क कर उन्हें इस पर्व पर भीड़ नियंत्रण के लिए वृंदावन बुलाया। दिल्ली के एक बड़े मंदिर में जूतों की निशुल्क सेवा करने वाले व्यापारी वर्ग के लोगों को भी बुलाया। इसके साथ ही युवा ब्रजवासियों के अपने संगठन ब्रज रक्षक दल के क़रीब 400 युवाओं को इनकी सहायता के लिए बुलाया। मथुरा पुलिस से भी 400 सिपाही लिये। इन सब को तीन दिनों तक वृंदावन के मोदी भवन में भीड़ नियंत्रण की ट्रेनिंग दी की गई। खुद मैं रात दिन जुटा रहा।


लाखों लोगों ने दर्शन किये पर नतीजा यह हुआ कि बिहारी जी मंदिर के इतिहास में पहली बार न तो किसी की जेब कटी। न किसी को कोई चोट आई और न ही किसी की चप्पल चोरी हुई। बिहारी जी की कृपा से पूरा पर्व शांतिपूर्ण ढंग से सम्पन्न हुआ। ऐसा केवल इसलिए हुआ क्योंकि समस्या का हल खोजने में सभी का योगदान था।              


गुरूद्वारों की प्रबंध समितियों ने और अनुशासित सिख समाज ने गुरूद्वारों की व्यवस्था स्वयं ही लगातार सुधारी है। दक्षिण भारत में मैसूर के दशहरा का प्रबंधन देखने काबिल होता है। तिरुपति बाला जी तो है ही नायाब अपनी व्यवस्था के लिये। मस्जिदों और चर्चो में भी क्रमबद्ध बैठकर इबादत करने की व्यवस्था है इसलिए भगदड़ नहीं मचती। पर हिंदू मंदिरों में देव दर्शन अलग-अलग समय पर खुलते हैं। इसलिए दर्शनार्थियों की भीड़, अधीरता और जल्दी दर्शन पाने की लालसा बढ़ती जाती है। दर्शनों के खुलते ही भीड़ टूट पड़ती है। नतीजतन अक्सर हृदय विदारक हादसे हो जाते हैं। आन्ध्र प्रदेश में तिरूपतिबाला जी, महाराष्ट्र में सिद्धि विनायक, दिल्ली में कात्यानी मंदिर, जांलधर में दुग्र्याना मंदिर और कश्मीर में वैष्णो देवी मंदिर ऐसे हैं जहां प्रबंधकों ने दूरदर्शिता का परिचय देकर दर्शनार्थियों के लिए बहुत सुन्दर व्यवस्थाएं खड़ी की हैं। इसलिए इन मंदिरों में सब कुछ कायदे से होता है।


जब भारत के ही विभिन्न प्रांतों के इन मंदिरों में इतनी सुन्दर व्यवस्था बन सकी और सफलता से चल रही है तो शेष लाखों मंदिरों में ऐसा क्यों नहीं हो सकता ? जरूरत इस बात की है कि भारत सरकार में धार्मिक मामलों के लिए एक अलग मंत्रालय बने। जिसमें कैबिनेट स्तर का मंत्री हो। इस मंत्रालय का काम सारे देश के सभी धर्मों के उपासना स्थलों और तीर्थस्थानों की व्यवस्था सुधारना हो। केंद्र और राज्य सरकारें राजनीतिक वैमनस्य छोड़कर पारस्परिक सहयोग से नीतियां बनाएं और उन्हें लागू करें। ऐसा कानून बनाया जाए कि धर्म के नाम पर धन एकत्रित करने वाले सभी मठों, मस्जिदों, गुरूद्वारों आदि को अपनी कुल आमदनी का कम से कम तीस फीसदी उस स्थान या उस नगर की सुविधाओं के विस्तार के लिए देना अनिवार्य होगा।जो वे स्वयं खर्च करें। 


धार्मिक स्थल को भी यह आदेश दिए जाए कि अपने स्थल के इर्द-गिर्द तीर्थयात्रियों द्वारा फेंका गया कूड़ा उठवाने की जिम्मेदारी उसी मठ की होगी। यदि ऐसे नियम बना दिए जाए तो धर्मस्थलों की दशा तेजी से सुधर सकती है। इसी तरह धार्मिक संपत्तियों के अधिग्रहण की भी स्पष्ट नीति होनी चाहिए। अक्सर देखने में आता है कि धर्मस्थान बनवाता कोई और है पर उसके कुछ सेवायत उसे निजी संपत्ति की तरह बेच खाते हैं। धर्मनीति में यह स्पष्ट होना चाहिए कि यदि किसी धार्मिक संपत्ति को बनाने वाले नहीं रहते हैं तो उस संपत्ति का सरकार अधिग्रहरण करके एक सार्वजनिक ट्रस्ट बना देगी। इस ट्रस्ट में उस धर्मस्थान के प्रति आस्था रखने वाले लोगों को सरकार ट्रस्टी मनोनीत कर सकती है। 


इस तरह एक नीति के तहत देश के सभी तीर्थस्थलों का संरक्षण और संवर्धन हो सकेगा। इस तरह हर धर्म के तीर्थस्थल पर सरकार अपनी पहल से और उस स्थान के भक्तों की मदद से इतना धन अर्जित कर लेगी कि उसे उस स्थल के रख-रखाव पर कौड़ी नहीं खर्च करनी पड़ेगी। तिरूपति और वैष्णों देवी का उदाहरण सामने है। जहां व्यवस्था अच्छी होने के कारण अपार धन बरसता है।


देश में अनेक धर्मों के अनेकों पर्व सालभर होते रहते हैं। इन पर्वों पर उमड़ने वाली लाखों करोड़ों लोगों की भीड़ को अनुशासित रखने के लिए एक तीर्थ रक्षक बल की आवश्यकता होगी। इसमें ऊर्जावान युवाओं को तीर्थ की देखभाल के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित किया जाए। ताकि वे जनता से व्यवहार करते समय संवेदनशीलता का परिचय दें। यह रक्षा बल आवश्यकतानुसार देश के विभिन्न तीर्थस्थलों पर बड़े पर्वों के दौरान तैनात किया जा सकता है। रोज-रोज एक ही तरह की स्थिति का सामना करने के कारण यह बल काफी अनुभवी हो जाएगा। तीर्थयात्रियों की मानसिकता और व्यवहार को सुगमता से समझ लेगा।


ये धर्मस्थल हमारी आस्था के प्रतीक है और हमारी सांस्कृतिक पहचान हैं। इनके बेहतर रख-रखाव से देश में पर्यटन भी बढ़ेगा और दर्शनार्थियों को भी सुख मिलेगा।

Monday, June 20, 2022

बुलडोज़र बनाम क़ानून

प्रयागराज में मोहम्मद जावेद की पत्नी की मिल्कियत वाला मकान प्रशासन ने बुलडोज़र से ध्वस्त कर दिया। जावेद पर प्रयागराज में पत्थरबाज़ी करवाने व दंगे भड़काने का आरोप है। आरोप सिद्ध होने तक वो फ़िलहाल हिरासत में है। प्रशासन की इस कार्यवाही से कई क़ानूनी सवाल पैदा हो गए हैं। इस विषय में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस गोविंद माथुर ने एक अख़बार से हुई बातचीत में बताया कि, 'ये पूरी तरह से गैरकानूनी है। भले ही आप एक पल के लिए भी मान लें कि निर्माण अवैध था, लेकिन करोड़ों भारतीय भी ऐसे ही रहते हैं, यह अनुमति नहीं है कि आप रविवार को एक घर को ध्वस्त कर दें जब उस घर का निवासी हिरासत में हों। यह कोई तकनीकी मुद्दा नहीं है बल्कि कानून के शासन का सवाल है।' 


जस्टिस माथुर ने समझाया कि प्रशासन द्वारा बुलडोज़र से केवल किसी संपत्ति का अवैध रूप से निर्मित हिस्सा या तो गिराया जा सकता है या उस पर जुर्माना लगा कर उसे कंपाउंड कर दिया जाता है। अगर मकान का कोई हिस्सा या अधिकतर भाग वैध रूप से निर्मित है तो उसे कभी भी ध्वस्त नहीं किया जा सकता। दंगे भड़काने के आरोपी को सज़ा देने के कई प्रावधान भारतीय दंड संहिता में हैं। लेकिन उसकी निज संपत्ति गिराने का कोई प्रावधान क़ानून में नहीं है। किसी भी आरोपी के मकान या संपत्ति को केवल कुर्क किया जा सकता है, वो भी तब जब वो फ़रार हो और भगोड़ा घोषित हो। जो आरोपी हिरासत में है उसकी संपत्ति इस तरह नहीं गिराई जा सकती। इसलिए इस विषय पर देश के न्यायविदों में बहस छिड़ गई है। सरकार के विरोधी उस पर प्रशासन, पुलिस व न्यायपालिका तीनों की भूमिका एक साथ निभाने का आरोप लगा रहे हैं। उनका आरोप है कि इस तरह हमारे लोकतंत्र में स्थापित चारों खंबों का संतुलन बिगड़ जाएगा जिससे फिर क़ानून का नहीं केवल डंडे का शासन चलेगा। जिससे लोकतंत्र ख़तरे में पड़ जाएगा। 


दूसरी तरफ़ उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ के चाहने वाले उनके इस अवतार से बेहद खुश और प्रभावित हैं। पिछले कुछ महीनों से योगी जी एक नया नाम ‘बुलडोज़र बाबा’ भी दे दिया गया है। जो शायद उन्हें भी सुहाता है तभी पिछले चुनावों में इस नाम का भरपूर प्रचार किया गया। दरअसल पुलिस और क़ानून की जटिल व बेहद लम्बी प्रक्रिया से आम आदमी त्रस्त है। इसलिए वो तुरंत समाधान को क़ानून की प्रक्रिया से बेहतर मानने को विवश है। भारत जैसे सामंतवादी देश में राजा का कड़ा या अधिनायकवादी होना उसके प्रशंसकों को अच्छा लगता है। पर इसके बहुत सारे ख़तरे भी हैं। 



जिस तरह तेलंगाना में पुलिस ने चार बलात्कारियों को अपनी हिरासत में फ़र्ज़ी एनकाउंटर में मार गिराया और आम जनता की वाह-वाही लूटी थी, उससे भी यह संदेश गया कि इस तरह सीधी सज़ा देना जनता को ज़्यादा पसंद है। पर बाद में जब यह सिद्ध हो गया कि इन आरोपियों को पुलिसवालों ने अवैध तरीक़े से मारा तो अब वे पुलिस वाले ही हत्या के आरोप का मुक़दमा झेल रहे हैं। क़ानून की प्रक्रिया लम्बी व जटिल ज़रूर है पर इसके पीछे एक पवित्र लक्ष्य है कि भले ही सौ अपराधी क्यों न छूट जाएं पर किसी बेगुनाह को सज़ा नहीं मिलनी चाहिए। दूसरी तरफ़ पंजाब के आतंकवाद का उदाहरण है जो किसी भी तरह क़ाबू में नहीं आ रहा था तो वहाँ के तत्कालीन पुलिस महानिदेशक केपीएस गिल ने भी यही रास्ता अपनाया। आरोप है कि उन्होंने कुछ ही हफ़्तों में सैंकड़ों आतंकवादियों फ़र्ज़ी एनकाउंटर में मार गिराया। जिसका प्रभाव यह हुआ कि आतंकवाद क़ाबू में आ गया। अब यह दुधारी तलवार है। मनवाधिकारों का संज्ञान लेकर अगर क़ानूनी प्रक्रिया से चला जाए तो दुर्दांत अपराधी को भी दशकों तक सज़ा नहीं होती। अगर फ़र्ज़ी एनकाउंटर वाला रास्ता अपनाया जाता है तो समस्या का तात्कालिक समाधान मिल जाता है, भले ही वो समस्या फिर से सिर उठा ले। 


अवैध निर्माण गिराने के मामले में तो एक और पेच है, वो ये कि अवैध निर्माण इकतरफ़ा नहीं होते। उत्तर प्रदेश ही नहीं पूरे देश में जिस व्यापक स्तर पर अवैध निर्माण हो चुके हैं वो विकास प्राधिकरणों, पुलिस व प्रशासन की मिलीभगत से ही हुए हैं। जिसके लिए बहुत मोटा पैसा रिश्वत में अफ़सरों को मिलता है। वरना अवैध निर्माण कोई चींटी का घर तो नहीं जो रातों रात हो जाए। महीनों लगते हैं। तब ये अफ़सर क्या भांग पीकर सोए रहते हैं? पर संपत्ति ध्वस्त होती है केवल बनाने वाले की। तो इन अफ़सरों को क्या सज़ा मिलती है? कुछ नहीं। इसलिए अवैध निर्माण बेरोकटोक सालों साल चलते रहते हैं। सरकार चाहे किसी की भी हो। क्योंकि ऐसे अफ़सरों को अपने राजनैतिक आकाओं का संरक्षण प्राप्त होता है। जिनकी इस लूट में हिस्सेदारी होती है। इसलिए अवैध निर्माण की समस्या घटने के बजाए बढ़ती जा रही है। बुलडोज़र बाबा को चाहिए कि एक सार्वजनिक अपील जारी करें जिसमें अवैध भवनों  के निर्माताओं को प्रोत्साहित किया जाए ये बताने के लिए की उन्होंने ये अवैध निर्माण किन-किन अफ़सरों के कार्यकाल में, किस को कितना रुपया देकर किए थे। ऐसे नामों के सामने आने पर उनकी संपत्ति आदि की जाँच की जाए और उन्हें कठोरतम सज़ा दी जाए। वरना मतदाता तो हर हाल में बर्बाद होगा ही पर भ्रष्टाचारी अफ़सरों और नेताओं को कोई सबक नहीं मिलेगा। 


अगर जनता ये बताने में डरती है या संकोच करती है तो भी इन अफ़सरों को कड़ी सजा सिर्फ़ इस आधार पर भी दी जा सकती है कि इस अवैध निर्माण के दौरान वे उस शहर में संबंधित पदों पर तैनात थे और इन्होंने जानबूझ कर ऐसे अवैध निर्माणों के होते हुए उन पर से आँखें फेर ली। अगर बुलडोज़र बाबा पूरे प्रदेश में से 100-200 भ्रष्ट अफ़सरों को ऐसी सज़ा दे पाते हैं तो उनका डंका बजेगा। अगर नहीं कर पाते तो उनके बुलडोज़र बाबा होने पर प्रश्न चिन्ह लग जाएगा। आशा की जानी चाहिए कि अपनी दबंग छवि के अनुरूप योगी जी का बुलडोज़र उन सैंकड़ों भ्रष्ट अधिकारियों की संपत्ति पर भी उसी तीव्रता से चलेगा जिस तीव्रता से वे अपराधियों की संपत्ति को ध्वस्त करते आए हैं।

Monday, June 13, 2022

देश में आग किसने लगाई ?


जिस दिन से भाजपा की राष्ट्रीय प्रवक्ता रहीं नूपुर शर्मा के बयान पर विवाद खड़ा हुआ है उस दिन से देश में आग लग गई है। इसके लिए कौन जिम्मेदार है? यकीनन टीवी चैनल ही इस अराजकता फैलाने के गुनहगार है। जो अपनी टीआरपी बढ़ाने के लालच में आये दिन इसी तरह के विवाद पैदा करते रहते है। जानबूझ कर ऐसे विषयों को लेते है जो विवादास्पद हों और ऐसे ही वक्ताओं को बुलाते है जो उत्तेजक बयानबाजी करते हों। टीवी ऐन्कर खुद सर्कस के जोकरों की तरह पर्दे पर उछल कूद करते है। जिस किसी ने बीबीसी के टीवी समाचार सुने होगें उन्हें इस बात का खूब अनुभव होगा कि चाहें विषय कितना भी विवादास्पद क्यों न हो, कितना ही गम्भीर क्यों न हो, बीबीसी के ऐन्कर संतुलन नहीं खोते। हर विषय पर गहरा शोध करके आते है और ऐसे प्रवक्ताओं को बुलाते है जो विषय के जानकार होते है। हर बहस शालीनता से होती है। जिन्हें देखकर दर्शकों को उत्तेजना नहीं होती बल्कि विषय को समझने का संतोष मिलता है।



भारत के कुछ टीवी, न्यूज चैनलों के ऐन्कर तो विषय के अनुसार परिधान भी बदल देते है। अगर चन्द्रयान चांद पर उतरने वाला था तो ये कार्टून एस्ट्रोनेट की ड्रेस पहनकर चांद की सतह के ब्लोअप फोटो के सामने ऐसी कलाकारी दिखाते हैं, मानो कुछ ही क्षणों में ये खुद चांद पर उतरने वाले है। जब चन्द्रयान उतरने में नाकाम रहता है तो ये मर्सिया गाने लगते है। जैसे मुर्दनी छा गई हो। जबकि पत्रकार को संत कबीर दास जी की ये वाणी याद रखनी चाहिये, ‘‘दास कबीर जतन से ओढी, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।’’ बिना राग-द्वेष के हर विषय को निष्पक्षता से प्रस्तुत करना, पैनल पर बैठे मेहमानों को अपनी बात कहने देना, नाहक विवाद को उठने से पहले रोक देना और कार्यक्रम का समापन, यदि सम्भव हो तो, समाधान के साथ करना। पर दुख की बात है कि आज भारत के अधिकतर टीवी चैनल इस आचार संहिता का पालन नहीं कर रहे। जिसके लिए काफी हदतक मौजूदा केन्द्र सरकार भी जिम्मेदार है। जो अपनी कमियां या आलोचना बर्दाश्त नहीं करती। नतीजन टीवी चैनलों के पास दो ही रास्ते बचते हैंः या तो सरकार का झूठा यशगान करें या इस तरह की उत्तेजक, बिना सिर पैर की बहस करवा कर टीआरपी बढ़ाएँ।


जब भारत में कोई प्राईवेट टीवी चैनल नहीं था तब 1989 में देश की पहली हिन्दी विडियो समाचार कैसेट ‘कालचक्र’ जारी करके मैंने टीवी पत्रकारिता के कुछ मानदंड स्थापित किये थे। बिना किसी औद्योगिक घराने या राजनैतिक दल की आर्थिक मदद के भी कालचक्र ने देश भर में तहलका मचा दिया था। हमने कालचक्र में जनहित के मुद्दों को गम्भीरता से उठाया और उन पर देश के मशहूर लोगों से बेबाक बहस करवाई। जिनकी चर्चा लगातार देश के हर अखबार में हुई। इसी तरह आज के साधन सम्पन्न टीवी चैनल अगर चाहें तो जनहित में अनेक गम्भीर मुद्दों पर बहस करवा सकते है। जैसे नौकरशाही या लालफीताशाही पर, शिक्षा व्यवस्था पर, न्याय व्यवस्था पर, पुलिस व्यवस्था पर, अर्थ व्यवस्था पर, पर्यावरण पर व स्वास्थ्य व्यवस्था जैसे अनेक अन्य विषयों पर गम्भीर बहसें करवाई जा सकती हैं। जिनके करने से देश के जनमानस में मंथन होगा और उससे विचारों का जो नवनीत निकलेगा उससे समाज और राष्ट्र को लाभ होगा। आज की तरह देश में अराजकता, हिंसा और कुंठा नहीं फैलेगी। 


रही बात धर्म चर्चा की तो इस बात का श्रेय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को दिया जाना चाहिये कि उन्होंने हजारों साल पुराने वैदिक सनातन धर्म को देश की मुख्य धारा के बीच चर्चा में लाकर खड़ा कर दिया है। जबकि पिछली सरकारें ऐसा करने से बचती रही। जिसका परिणाम ये हुआ कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर  बहुसंख्यक हिन्दु समाज अपने को उपेक्षित महसूस करता रहा। इसलिए आज वो अवसर मिलने पर इतना मुखर हो गया है कि धर्म के हर प्रश्न पर आक्रमकता के साथ सक्रिय हो जाता है। 


हम इस विवाद में नहीं पड़ेंगे कि नूपुर शर्मा ने जो कहा वो सही था या गलत। हम इस विवाद में भी नहीं पड़ेंगे  कि भारत के विभिन्न धर्मावलम्बी अपने-अपने धर्म को लेकर क्या गलत और क्या सही कहते है। पर ये तो साफ है कि धर्म के सवाल पर टीवी चैनलों में और आम जनता के बीच भी जिस स्तरहीनता की बहस आजकल हो रही है उससे न तो सनातन धर्म का लाभ हो रहा है और न ही भारत हिन्दु राष्ट्र बनने की तरफ बढ़ रहा है। इन बहसों से हिन्दु समाज का ही नही हर धर्म के मानने वालों का अहित हो रहा है। जो एक डरावने भविष्य की ओर संकेत कर रहा है। दुनिया के अनेक विशेषज्ञों ने तो भारत में भविष्य में गृहयुद्व की सम्भावनाओं की भविष्यवाणी करनी शुरू कर दी है। यह हम जैसे सभी गम्भीर नागरिकों और सनातन धर्मियों के लिए बहुत चिन्ता का विषय है। इसलिए सभी राजनैतिक दलों व संगठनों की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वे टीवी चैनलों पर विषयों के जानकार और गम्भीर प्रवक्ताओं को ही भेजे। स्तरहीन डिबेट में अपने प्रतिनिधी भेजे ही नहीं, जो असंसदीय भाषा का प्रयोग करें। टीवी चैनलों को भी धर्म चर्चा में पोंगे पण्डितों, फर्जी धर्माचार्यों और कठमुल्लों को न बुलाएं।


धर्म के विषय पर अगर ये टीवी चैनल गम्भीरता से बहस करवाये तो समाज का बहुत लाभ हो सकता है। सदियों की उलझी हुई गुत्थियां सुलझ सकती है। भारत अपनी पारम्परिक सांस्कृतिक विरासत की पुनः स्थापना कर सकता है। बशर्ते इन बहसों में धर्म के धुरंधर और विद्वान शामिल हो। उन्हें अपनी बात कहने दी जाये। ऐन्कर भी पढ़े लिखे हो, मूर्ख नहीं हो, आत्ममुग्ध नहीं हो और विषय पर शोध करके आयें। इस तरह की बहसों से सरकार को भी कोई अपत्ति नहीं होगी। टीआरपी भी धीरे-धीरे बढ़ेगी और स्वास्थ्य समाज व राष्ट्र का निर्माण होगा। राष्ट्र निर्माण का दावा करने वाले संगठनों की सत्ता में भी अगर धर्म के विषयों पर ऐसी गम्भीर बहसें नहीं होंगी, तो फिर कब होंगी ? इसलिए इन संगठनों को भी सोचना होगा कि क्या वे वाकई राष्ट्र का निर्माण करना चाहते है या आम लोगों की धार्मिक भावनाओं का दोहन करके, केवल अपना राजनैतिक हित साधना चाहते है?

Monday, June 6, 2022

संघ को सोचना पड़ेगा



राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डा॰ मोहन भागवत जी के ताज़ा बयान का देश के धर्मनिरपेक्षवादियों, वामपंथियों, समाजवादियों व कांग्रेसियों द्वारा भरपूर स्वागत किया जा रहा है। उन्हें ख़ुशी है कि भागवत जी के इस बयान से देश में अमन चैन पैदा होगा। हिंसा रुकेगी और हिंदू मुसलमानों के बीच सौहार्द बढ़ेगा। इन विचारधाराओं के वो लोग जो कल तक सोशल मीडिया पर संघ और भाजपा के कट्टर हिंदुवाद को कोसने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे, आज अचानक भागवत जी के बयान की खुलकर प्रशंसा कर रहे हैं। भागवत जी ने कहा कि अब संघ किसी मंदिर की मुक्ति के लिए आंदोलन नहीं करेगा। उन्होंने कहा कि मस्जिदों के नीचे शिवलिंगों को खोजना बंद करें। हालांकि ज्ञानवापी मस्जिद व श्री कृष्ण जन्मस्थान मथुरा के विषय में उनके विचार भिन्न थे।



किंतु भागवत जी के इस बयान ने हिंदू जनमानस को विचलित कर दिया है। उनके इस बयान पर सोशल मीडिया में हिंदुओं की तीखी प्रतिक्रियाएँ भी आनी शुरू हो गई हैं। ‘सेव टेम्पल कैम्पेन’ नाम का संगठन, जो 40 हज़ार मस्जिदों से हिंदू मंदिरों को मुक्त कराने की सूची लेकर बैठा है और लगातार उनके विषय में जानकारियाँ प्रकाशित करता रहता है, उसने तो इस बयान को हिंदुओं के साथ धोखा और अंतरराष्ट्रीय मुस्लिम संगठनों के साथ करार बताया है। देश के हिंदू संत भी इस वक्तव्य से बहुत आहत हैं और इस विषय पर माननीय भागवत जी से गंभीर वार्ता करने की तैयारी कर रहे हैं। वृंदावन के सोहम आश्रम के विरक्त संत त्यागी बाबा का कहना है, भागवत जी के इस बयान से तो यह तय हो गया कि अब हिंदू राष्ट्र का हमारा स्वप्न अधूरा रह जाएगा और अब भारत कभी हिंदू राष्ट्र नहीं बन पाएगा। 


यहाँ यह प्रश्न उठना स्वभाविक है कि भागवत जी को अचानक संघ और भाजपा की धारा के विरुद्ध ये बयान क्यों देना पड़ा? पिछले 32 वर्षों से भाजपा, संघ और उसके अनुसांगिक संगठनों जैसे विहिप आदि ने देश भर में हिंदू राष्ट्र बनाने का एक सघन अभियान चलाया हुआ है। 1990 की विहिप की दिल्ली के बोट क्लब पर हुई उस विशाल रैली को याद करें जिसमें लगभग 10 लाख हिंदू दिन भर मंच से भाजपा व संघ के नेताओं का आह्वहन  सुनते रहे थे, हिंदू राष्ट्र बनाना हमको हिंदुस्तान हमारा। मशहूर सिने संगीतकार रविंद्र जैन का ये गाना, राम जी की सेना चली तो इतना प्रभावी हो गया कि लाखों हाथ अति उत्साह में त्रिशूल और भाले लेकर हवा में लहराने लगे। इसके बाद तो देश के हर गली मोहल्ले में संघ परिवार ने घर-घर जा कर हिंदू राष्ट्र बनाने की अलख जगानी शुरू कर दी। उनके ही इस प्रयास का ये परिणाम है कि आज भारत के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति व प्रधान मंत्री तीनों संघ परिवार से हैं। आज हिंदुओं का बहुसंख्यक हिस्सा ये तय कर चुका है कि अब भारत हिंदू राष्ट्र बन कर रहेगा। 


पिछले 8 वर्षों में देश में हिंदू राष्ट्र के निर्माण के लिए जो सक्रियता संघ और भाजपा ने दिखाई उसका भारी असर पड़ा है। फिर वो चाहे गोरक्षा का मामला हो, मॉब लिंचिंग का मामला हो, मस्जिदों पर भगवा झंडे फहराने की कोशिशों का मामला हो, बॉलीवुड के मुसलमान सितारों की फ़िल्मों के बहिष्कार का मामला हो, तबलीकी जमात को भारत में कोरोना फैलने के लिए ज़िम्मेदार ठहराने का मामला हो, सदगुरु जग्गी वासुदेव का ‘सेव टेम्पल कैम्पेन’ के समर्थन में लगातार बयान देना हो, आर्यन खान को अंतरराष्ट्रीय ड्रग माफिया का सदस्य बता कर जेल में डालने का मामला हो, ‘द कश्मीर फ़ाइल्ज़’ जैसी फ़िल्म को संघ व भाजपा सरकार द्वारा प्रोत्साहित कर जनता के बीच लोकप्रिय बनाने में सक्रिय भूमिका निभाने का मामला हो या ज्ञानवापी मस्जिद व श्री कृष्ण जन्मभूमि के साथ ही देश भर की मस्जिदों व क़ुतुब मीनार जैसी इमारतों से हिंदू मंदिरों को मुक्त कराने का मामला हो, इन सब मुद्दों ने हिंदू जनमानस को गहराई तक प्रभावित किया है। 


सबसे ज़्यादा असर तो हिंदुओं की युवा पीढ़ी पर पड़ा है। जिसके ज्ञान का स्रोत कुछ चुनिंदा टीवी चैनल और सोशल मीडिया है। रोज़गार के अभाव में ख़ाली बैठे ये युवा अब इतने उत्तेजित हो चुके है कि बात-बात पर हिंसक हो जाते हैं। कानपुर और बरेली के दंगे और पिछले वर्षों में इसी तरह के विषयों पर हुई हिंसक वारदातें इसका परिणाम हैं। देश के ग़द्दारों को, गोली मारो सालों को जैसे नारों ने आग में घी का काम किया है। सांप्रदायिक हिंसा के लिए पहले से बदनाम रहे मुसलमानों की भी युवा पीढ़ी इस माहौल में और ज़्यादा उत्तेजित और आक्रामक हुई है। आनेवाले समय में इस सब से देश की क़ानून व्यवस्था को बनाए रखना बहुत बड़ी चुनौती होगी। ऐसे में सरकार चलाना भी मुश्किल हो जाएगा। जिसका भरपूर लाभ विपक्षी दल आने वाले चुनावों में उठाएँगे। इसी ख़तरे को भाँप कर माननीय भागवत जी ने ये बयान दिया है। जिससे भाजपा की सरकारों को बचाया जा सके। 


पहले संघ और भाजपा के बीच सम्मानजनक दूरी रहती थी। संघ की घोषित नीति थी कि उसका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है। वो केवल सामाजिक संगठन है। पर पिछले कुछ वर्षों में यह अंतर समाप्त हो गया है। अब भाजपा का संघ में विलय हो गया है। भाजपा वही करती है जो संघ चाहता है। इसलिए इस पूरे संघ व भाजपा परिवार के मुखिया होने के नाते माननीय भागवत जी को ये बयान देना पड़ा है। जिससे हालात बेक़ाबू होने से पहले संभल जाएं। पर भाजपा और संघ के शुभचिंतकों, हिंदू संतों और हिंदुओं के बहुसंख्यक हिस्से को इस बयान से भाजपा और संघ के अस्तित्व पर ख़तरा नज़र आ रहा है। इस वर्ग का मानना है कि जिस विचारधारा को लेकर संघ पिछले 100 वर्षों से चला, उसे ही इस तरह शिखर पर पहुँचने के बाद, नकार देने से संघ और भाजपा की सार्थकता क्या रह जाएगी? पिछले कुछ वर्षों में विकास के मुद्दों और सामाजिक सुरक्षा के सवालों को उठने से पहले ही संघ की इस विचारधारा ने हमेशा पीछे धकेला। हिंदू गर्व से कहता है कि हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए वो महंगाई और बेरोज़गारी जैसी समस्याओं को भी भूलने को तैयार है। ऐसे में भागवत जी का ये बयान तपते तवे  पर ठंडे पानी की बौछार जैसा है। यहाँ ये याद रखना असंगत न होगा कि पिछले दशकों में भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन चलाने वाले प्रांतीय और राष्ट्रीय नेता जब सत्ता पाने के बाद भ्रष्टाचार को नहीं रोक पाए और उसमें स्वयं भी लिप्त हो गए तो भ्रष्टाचार का मुद्दा ही समाप्त हो गया। इसी तरह इन परिस्थितियों में अब इस बात में कोई संदेह नहीं कि हिंदू राष्ट्र बनाने का मुद्दा भी समाप्त हो जाएगा। इस पर देश में हिंदुओं की क्या प्रतिक्रिया होती है और संघ परिवार उससे कैसे निपटता है, ये तो वक्त ही बताएगा।