Monday, December 10, 2018

सनातन परंपराओं से छेड़छाड़ ठीक नहीं

सबरी मलाई मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से हम सभी हिंदू उद्वेलित हैं। इसी हफ्ते एक व्याख्यान में सर्वोच्च न्यायालय की पूर्व न्यायाधीश श्रीमती ज्ञान सुधा मिश्रा का कहना था कि जहां संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का पंरपराओं से टकराव होगा, वहां अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ेगा। उन्होंने सती प्रथा का उदाहरण देकर अपनी बात का समर्थन किया। किंतु पूजा पद्धति और उससे जुड़े कर्मकांड को बदलने का अधिकार अदालत का नहीं होना चाहिए। जैसे- जन जातीय समाजों में जो कानून की व्यवस्था है, उसमें भारत सरकार हस्तक्षेप नहीं करती। अंग्रेज हुकुमत ने भी नहीं किया। अण्डमान के पास सेंटीनल द्वीप में वनवासियों द्वारा तीर-कमान से मारे गऐ, ‘अमरीकी मिशनरी युवा’ के मामले में सरकार कोई कानूनी कार्यवाही नहीं कर रही। क्योंकि गत 60 हजार सालों से यह प्रजाति शेष दुनिया से अलग-थलग रहकर जीवन यापन कर रही है। उसके अपने कानून हैं और भारत सरकार ने उनकी स्वतंत्रता को सम्मान दिया है। ईसाईयत का प्रचार करने के उद्देश्य से इस युवा ने कानून का उल्लंघ्न कर सेंटीनल द्वीप में प्रवेश किया और मारा गया।

ईसाई मिशनरी, अन्य धर्मी लोग या फिर अदालतें अगर हमारी धार्मिक मान्यताओं में हस्तक्षेप करे, तो उसका कारण समझा जा सकता है। क्योंकि उनकी आस्था हमारी परंपराओं में नहीं है। उनकी सोच भारतीय संस्कृति से हटकर अंतर्राष्ट्रीय संस्कृति से प्रभावित है। पर अगर हिंदू संस्कृति की रक्षा करने का दावा करने वाले संत, संगठन या राजनैतिक दल ऐसा करते हैं, तो ये चिंता की बात है। इलाहाबाद का नाम ‘प्रयागराज’ करना, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी महाराज का प्रशंसनीय कदम है। पर अर्द्ध कुंभ को कुंभ कहना सनातन परंपराओं से खिलवाड़ है। कुंभ की परंपरा हिंदू मान्यताओं के अनुसार हजारों वर्ष पुरानी है। हर 12 वर्ष में कुंभ, हर 6 वर्ष में अर्द्ध कुंभ और हर 144 वर्ष में महाकुंभ होते आऐ हैं। इसके पीछे वैज्ञानिक और शास्त्रीय दोनों आधार हैं। हमारे धार्मिक  ग्रंथों में इन पर्वों का विस्तृत वर्णन आता है। कुंभ पर उठे वाद-विवादों और धर्म ससंदों का भी उल्लेख आता है। पर ऐसा उल्लेख कहीं नहीं मिलता कि अर्द्ध कुंभ को पूर्णं कुंभ कह दिया जाऐ। योगी महाराज ने अपने अज्ञानी अधिकारियों की चाटुकारिता भरी सलाह से जो यह निर्णंय लिया है, वह संत समाज के गले नहीं उतर रहा। कुछ खुल कर कह रहे हैं और अधिकतर चुपचाप सह रहे हैं। अगर इसी तरह नाम बदले गऐ, तो भविष्य में कोई ऐसी सरकार भी आ सकती है, जो यह कह दे कि 12 वर्ष में ही कुंभ क्यों होगा? हम तो हर मकर संक्राति को कुंभ करेंगे, तब उसे कौन रोक लेगा?

बात यहीं तक नहीं है। पिछले डेढ़ वर्ष में ब्रजभूमि को लेकर योगी महाराज की सरकार ने जो भी कार्यक्रम और योजनाऐं घोषित की हैं, वे सब ब्रज संस्कृति और मान्यताओं के विपरीत हैं। श्रीमदभागवतम् के दशम स्कंध के 24वें अध्याय के 24वें श्लोक में बालकृष्ण नंद बाबा से कहते हैं कि, ‘ये नगर और गांव हमारे घर नहीं। हमारे घर तो वन और पर्वत हैं।’ आज  ‘ब्रजतीर्थ विकास परिषद्’ अपने ही बनाये कानूनों को तोड़कर हजारों करोड़ रूपयों की वाहियात योजनाऐं ब्रज विकास के नाम पर लागू करवा रही है, जो भगवान श्रीकृष्ण के इस कथन की भावना के सर्वथा विपरीत हैं।  इनसे ब्रज की सेवा नहीं, विनाश होगा। ये बात हम जैसे लोग लगातार कह रहे हैं। पर अपने मद में चूर और बड़े कमीशन पर निगाह रखने वाले इन अधिकारियों को समझ में नहीं आ रहा।

इसी तरह मथुरा और वृंदावन के बीच भावनात्मक दूरी है। अक्रूर जी जब कृष्ण-बलराम को मथुरा ले गऐ और कंस वध करने के बाद भगवान लौटे नहीं, तो वे मथुरा के राजमहल में वृंदावन की याद करके अपने मित्र उद्धव से कहते है, ‘उधौ मोहे ब्रज बिसरत नाहि’। वृंदावनवासी ग्वारिये कृष्ण के प्रति साख्य भाव रखते हैं। जबकि मथुरावासी कृष्ण को द्वारिकाधीश अर्थात् राजा के रूप में पूजते हैं। पर योगी महाराज की सरकार ने वृंदावनवासियों के घोर विरोध की उपेक्षा करके मथुरा-वृंदावन नगर निगम बना दिया। जोकि ब्रज की सनातन परंपरा के पूरी तरह विपरीत है। पूरा ब्रज भक्ति भावना प्रधान है। नंदग्राम वालों के लिए अगर ग्वारिया कृष्ण अधिक महत्वपूर्णं हैं, तो बरसानावासी राधारानी के प्रति स्वयं का सखी भाव रखते हैं। हर गांव का अपना पौराणिक इतिहास है। इसी तरह गोवर्धन, जो प्रकृति पूजा का सर्वोत्तम उदाहरण है। उसके चारों ओर विकास का जो मॉडल ‘ब्रजतीर्थ विकास परिषद्’ लेकर आई है। वह गोवर्धन की भावना का सर्वथा प्रतिकूल है। इससे गोवर्धन ‘न्यूयॉर्क’ शहर की तरह हो जाऐगा। जो इसकी अपूर्णंनीय क्षति होगी।

हमारी सनातन परंपराओं से अगर कांग्रेस, समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी ने ऐसी छेड़छाड़ की होती, तो निश्चय ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उससे जुड़े संगठन तूफान मचा देते। जो सही भी होता। लेकिन जब हिंदू धर्म की सेवा करने का दावा करने वाले दल भाजपा की सरकार में सनातन परंपराओं से खिलवाड़ हो, तो किसका विरोध किया जाऐ? यह हम सब सनातनधर्मियों की बिडंबना है और पीड़ा भी।

योगी महाराज के मुख्यमंत्री बनने पर हम सबसे ज्यादा उत्साहित थे । मैंने टीवी चैनलों पर ऐसा कई बार  कहा भी था। आशा थी कि योगी जी हम सनातनधर्मियों की भावना का सम्मान करते हुए, हमारी सांस्कृति विरासतों की रक्षा में उदारता से सहयोग करेंगे। उनकी मंशा और धर्म के प्रति समर्पण में आज भी कोई संदेह नहीं है। वे सनातन संस्कृति की रक्षा के लिए भरपूर थैली खोले बैठे हैं। पर बिडंबना यह है कि उनके चारों ओर वे लोग हैं, जो उनसे तमाम महत्वाकांक्षी योजनाओं को निज लाभ के लिए पारित करवा कर सनातन धर्म की परंपराओं और भावनाओं पर कुठाराघात कर रहे हैं। योगी जी को इस मकड़जाल से निकलकर मुक्त हृदय से दूसरे पक्ष की बात को भी गंभीरता से सुनने की सामर्थ्य दिखानी चाहिए। तभी धर्म की सच्ची सेवा होगी अन्यथा धर्म का विनाश होगा और केवल कुछ जेबें भारी जाएंगी। आगे हरि इच्छा।

Monday, December 3, 2018

प्रकृति से खिलवाड़ कब रूकेगा?


दिल्ली का दम घुट रहा है। दिल्ली के कारखानों और गाड़ियों का धुंआ पहले ही कम न था, अब हरियाणा से पराली जालाने का धुंआ भी उड़कर दिल्ली आ जाता है। एक वैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार इस प्रदुषण के कारण दिल्लीवासियों की औसतन आयु 5 वर्ष घट गई है। हल्ला तो बहुत मचता है, पर ठोस कुछ नहीं किया जाता। देश के तमाम दूसरे शहरों में भी प्रदुषण का यही हाल है। रोजमर्रा की जिंदगी में कृत्रिम पदार्थ, तमाम तरह के रासायनिक, वातानुकुलन, खेतों में फर्टीलाइजर और पेप्सीसाइट, धरती और आकाश पर गाड़ियां और हवाईजहाज और कलकारखाने ये सब मिलकर दिनभर प्रकृति में जहर घोल रहे हैं। प्रदुषण के लिए कोई अकेला भारत जिम्मेदार नहीं है। दुनिया के हर देश में प्रकृति से खिलवाड़ हो रहा है। जबकि प्रकृति का संतुलन बना रहना बहुत आवश्यक है। स्वार्थ के लिए पेड़-पेड़ों की अँधा-धुंध कटाई से ‘ग्लोबल वार्मिंग’ की समस्या बढ़ती जा रही है।

पर्यावरण के विनाश से सबसे ज्यादा असर जल की आपूर्ति पर पड़ रहा है। इससे पेयजल का संकट गहराता जा रहा है। पिछली सरकारों ने यह लक्ष्य निर्धारित किया था कि हर घर को पेयजल मिलेगा। लेकिन यह लक्ष्य पूरा न हो सका। इतना ही नहीं, जिन गाँवों को पहले पेयजल की आपूर्ति के मामले में आत्मनिर्भर माना गया था, उनमें से भी काफी बड़ी तादाद में गाँवों फिसलकर ‘पेयजल संकट’ वाली श्रेणी में आते जा रहे हैं। सरकार द्वारा पेयजल आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए ‘राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना’ शुरू गई है। जो कई राज्यों में केवल कागजों में सीमित है। इस योजना के तहत राज्यों के जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग का दायित्व है कि वे हर गाँवों में जल आपूर्ति की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय लोगों को प्रेरित करें। उनकी समिति गठित करें और उन्हें आत्मनिर्भर बनायें। यह आसान काम नहीं है।

एक जिले के अधिकारी के अधीन औसतन 500 से अधिक गाँव रहते हैं। जिनमें विभिन्न जातियों के समूह अपने-अपने खेमों में बंटे हैं। इन विषम परिस्थिति में एक अधिकारी कितने गाँवों को प्रेरित कर सकता है? मुठ्ठीभर भी नहीं। इसलिए सरकार की योजना विफल हो रही है। आज से सैंतीस बरस पहले सरकार ने हैडपम्प लगाने का लक्ष्य रखा था। फिर चैकडैम की योजना शुरू की गयी और पानी की टंकियाँ बनायी गयीं। पर तेजी से गिरते भूजल स्तर ने इन योजनाओं को विफल कर दिया। आज हालत यह है कि अनेक राज्यों के अनेक गाँवों में कुंए सूख गये हैं। कई सौ फुट गहरा बोर करने के बावजूद पानी नहीं मिलता। पोखर और तालाब तो पहले ही उपेक्षा का शिकार हो चुके हैं। उनके कैचमेंट ऐरिया पर अंधाधुन्ध निर्माण हो गया और उनमें गाँव की गन्दी नालियाँ और कूड़ा डालने का काम खुलेआम किया जाने लगा। अब ‘महात्मा गाँधी राष्ट्रीय रोजगार योजना’ के तहत कुण्डों और पोखरों के दोबारा जीर्णोद्धार की योजना लागू की गयी है। पर अब तक इसमें राज्य सरकारें विफल रही हैं। बहुत कम क्षेत्र है जहाँ नरेगा के अन्र्तगत कुण्डों का जीर्णोद्धार हुआ है और उनमें जल संचय हुआ है। वह भी पीने के योग्य नहीं।

दूसरी तरफ पेयजल की योजना हो या कुण्डों के जीर्णोद्धार की, दोनों ही क्षेत्रों में देश के अनेक हिस्सों में अनेक स्वंयसेवी संस्थाओं ने प्रभावशाली सफलता प्राप्त की है। कारण स्पष्ट है। जहाँ सेवा और त्याग की भावना है, वहाँ सफलता मिलती ही है, चाहे समय भले ही लग जाए। पर्यावरण के विषय में देश में चर्चा और उत्सुकता तो बड़ी है। पर उसका असर हमारे आचरण में दिखायी नहीं देता। शायद अभी हम इसकी भयावहता को समझे नहीं। शायद हमें लगता है कि पर्यावरण के प्रति हमारे दुराचरण से इतने बड़े देश में क्या असर पड़ेगा? इसलिए हम कुंए, कुण्डों और नदियों को जहरीला बनाते हैं। वायु में जहरीला धुंआ छोड़ते हैं। वृक्षों को बेदर्दी से काट डालते हैं। अपने मकान, भवन, सड़कें और प्रतिष्ठान बनाने के लिए पर्वतों को डायनामाईट से तोड़ डालते हैं और अपराधबोध तक पैदा नहीं होता। जब प्रकृति अपना रौद्ररूप दिखाती है, तब हम कुछ समय के लिए विचलित हो जाते हैं। संकट टल जाने के बाद हम फिर वही विनाश शुरू कर देते हैं। हमारे पर्यावरण की रक्षा करने कोई पड़ोसी देश कभी नहीं आयेगा। यह पहल तो हमें ही करनी होगी। हम जहाँ भी, जिस रूप में भी कर सकें, हमें प्रकृति के पंचतत्वों का शोधन करना चाहिए। पर्यावरण को फिर आस्था से जोड़ना चाहिए। तब कहीं यह विनाश रूक पायेगा।

देश की आर्थिक प्रगति के हम कितने ही दावे क्यों न करें, पर्यावरण मंत्रालय पर्यावरण की रक्षा के लिए सतर्क रहने का कितना ही दावा क्यों न करे, पर सच्चाई तो यह है कि जमीन, हवा, वनस्पति जैसे तत्वों की रक्षा तो बाद की बात है, पानी जैसे मूलभूत आवश्यक तत्व को भी हम बचा नहीं पा रहे हैं। दुख की बात तो यह है कि देश में पानी की आपूर्ति की कोई कमी नहीं है, वर्षाकाल में जितना जल इन्द्र देव इस धरती को देते हैं, वह भारत के 125 करोड़ लोगों और अरबों पशु-पक्षियों व वनस्पतियों को तृप्त करने के लिए काफी है। पर अरबों रूपया बड़े बांधों व नहरों पर खर्च करने के बावजूद हम वर्षा के जल का संचयन तक नहीं कर पाते हैं। नतीजतन बाढ़ की त्रासदी तो भोगते ही हैं, वर्षा का मीठा जल नदी-नालों के रास्ते बहकर समुद्र में मिल जाता है। हम घर आयी सौगात को संभालकर भी नहीं रख पाते।

पर्वतों पर खनन, वृक्षों का भारी मात्रा में कटान, औद्योगिक प्रतिष्ठानों से होने वाला जहरीला उत्सर्जन और अविवेकपूर्ण तरीके से जल के प्रयोग की हमारी आदत ने हमारे सामने पेयजल यानि ‘जीवनदायिनी शक्ति’ की उपलब्धता का संकट खड़ा कर दिया है।

आजादी के बाद से आज तक हम पेयजल और सेनिटेशन के मद पर एक लाख करोड़ रूपया खर्च कर चुके हैं। बावजूद इसके हम पेयजल की आपूर्ति नहीं कर पा रहे। खेतों में अंधाधुंध रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग भूजल में फ्लोराइड और आर्सेनिक की मात्रा खतरनाक स्तर तक बढ़ा चुका है। जिसका मानवीय स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। सबको सबकुछ मालूम है। पर कोई कुछ ठोस नहीं करता। जिस देश में नदियों, पर्वतों, वृक्षों, पशु-पक्षियों, पृथ्वी, वायु, जल, आकाश, सूर्य व चंद्रमा की हजारों साल से पूजा होती आयी हो, वहाँ पर्यावरण का इतना विनाश समझ में न आने वाली बात है। पर्यावरण बचाने के लिए एक देशव्यापी क्रांति की आवश्यकता है। वरना हम अंधे होकर आत्मघाती सुरंग में फिसलते जा रहे हैं। जब जागेंगे, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी और जापान के सुनामी की तरह हम भी कभी प्रकृति के रौद्र रूप का शिकार हो सकते हैं।

Monday, November 26, 2018

ब्रजवासियों के साथ धोखा क्यों?

जब से ‘ब्रजतीर्थ विकास परिषद्’ का गठन हुआ है, ये एक भी काम ब्रज में नहीं कर पाई है। जिन दो अधिकारियों को योगी आदित्यनाथ जी ने इतने महत्वूपर्णं ब्रजमंडल को सजाने की जिम्मेदारी सौंपी हैं, उन्हें इस काम का कोई अनुभव नहीं है। इससे पहले उनमें से एक की भूमिका मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष के नाते तमाम अवैध निर्माण करवाकर ब्रज का विनाश करने में रही है। दूसरा सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी है, जिसने आजतक ऐतिहासिक धरोहरों के संरक्षण पर कोई काम नहीं किया। इन दोनों को ही इस महत्वपूर्णं, कलात्मक और ऐतिहासिक काम की कोई समझ नहीं है। इसलिए इन्होंने अपने इर्द-गिर्द फर्जी आर्किटैक्टों, भ्रष्ट जूनियर अधिकारियों और सड़कछाप ठेकेदारों का जमावाड़ा कर लिया है। सब मिलकर नाकारा, निरर्थक और धन बिगाड़़ू योजनाऐं बना रहे हैं। जिससे न तो ब्रज का सौंदर्य सुधरेगा, न ब्रजवासियों को लाभ होगा और न ही संतों और तीर्थयात्रियों को। केवल कमीशन खोरों की जेबें भरी जाऐंगी।
इनकी मूर्खता का ताजा उदाहरण है भगवान श्रीकृष्ण की 40 करोड़ रूपये की विशाल मूर्ती, जिसे ये दिल्ली-आगरा के बीच सुश्री मायावती द्वारा बनावाऐं गये यमुना एक्सप्रेस वे के उस बिंदु पर लगवाने जा रहे हैं, जहां से गाड़ियां वृंदावन के लिए मुड़ती है। 40 करोड़ की मूर्ती में कितना कमीशन खाया जाऐगा, इसका अंदाजा इसी बात से लगा लीजिए, कि ब्रज के 9 कुंडों के जीर्णोंद्धार का ठेका, ये सरकारी लोग 77 करोड़ में पिछले वर्ष दे चुके थे। जिसे ‘द ब्रज फाउंडेशन’ के शोर मचाने और बेहतर कार्य योजना देने के बाद अब मात्र 27 करोड़ रूपये में करवाया जायेगा। इस तरह 50 करोड़ रूपये की बर्बादी रोकी गई है। क्योंकि द ब्रज फाउंडेशन गत 15 वर्षों से अपने तन-मन-धन से भगवान श्रीराधाकृष्ण की लीलास्थलियां सजा रही है। इसलिए उससे कोई चोरी छिप नहीं सकती। 77 करोड़ रूपये में 50 करोड़ रूपये का घोटाला, यानि 66 फीसदी कमीशन। इस अनुपात से 40 करोड़ रूपये की मूर्ती में 27 करोड़ रूपया कमीशन में जाएगा।
मूर्ति लगवाने के पीछे इनका तर्क है कि वाहन चालकों को दूर से ही पता चल जाएगा कि वृंदावन आ गया। कितनी हास्यास्पद बात है, बिना मूर्ती लगे ही जब हजारों गाड़ियां रोज वृंदावन आ रही है, तो उन्हें  रास्ता कौन बता रहा है? जिसे वृंदावन आना है, उसे सब रास्ते पता हैं। वैसे जो तीर्थयात्री रोज आ रहे हैं, उनसे ही वृंदावन की सारी व्यवस्था चरमरा जाती है। गत दो वर्षों में ब्रज तीर्थ विकास इस स्थिति को सुधारने के लिए कुछ नही कर पाया। तो अब विशाल मूर्ती लगवाकर और मजमा क्यों जोड़ना चाहता है?
उधर ब्रज में 85 फीसदी भू जल खारा है। प्राचीन कुंडों के जीर्णोंद्धार जल संचयन भी होता है और खारापन भी क्रमशः कम होता है। सर्वोच्च न्यायालय के 2001 के ‘हिंचलाल तिवारी आदेश’ के तहत शासन को ब्रज के उपेक्षित पड़े 800 से भी अधिक कुंडों का जीर्णोंद्धार कराना चाहिए था। जबकि उसने आजतक लगभग 40 करोड़ रूपया खर्च करके 40 कुंडों का जीर्णोंद्धार करवाया है, जिनकी दशा पहले से भी ज्यादा दयनीय हो गई हैं। उनके नऐ बने घाट टूट रहे हैं, कूड़े और मलबे के ढेर जमा हो गऐ हैं और उनमें कुत्ते और सूअर डोलते हैं।
इस मूर्ती को लगवाने से बेहतर होता कि ब्रजतीर्थ विकास परिषद् ब्रज के कुछ कुंडों का जीर्णोंद्धार करवा देता, तो ब्रज में जल की समस्या के समाधान की दिशा में कुछ कदम आगे बढ़ते। साथ ही इससे ब्रज के गांवों में रहने वाले गोधन, ब्रजवासियों और संतों को प्रसन्नता होती। पर वहां भी इनकी गर्दन फंसी है। क्योंकि द ब्रज फाउंडेशन ने बेहद कम लागत पर वृंदावन के ब्रह्म कुंड, गोवर्धन के ऋणमोचन कुंड, रूद्र कुंड व संकर्षण कुंड, जैंत का जयकुंड, चौमुहा  का ब्रह्म सरोवर आदि दर्जनों पौराणिक कुंडों का मनोहारी जीर्णोंद्धार कर मथुरा जिले की जलधारण क्षमता को 5 लाख क्यूबिक मीटर बढ़ा दिया है। अब अगर ब्रज तीर्थ विकास परिषद् कुंडों का जीर्णोंद्धार करेगी, तो उसे भी द ब्रज फाउंडेशन की लागत के बराबर कीमत पर काम करना पड़ेगा। तिगुने दाम की योजना बनाने वाली ब्रजतीर्थ विकास परिषद् फिर कमीशन कैसे खा पाऐगीा? इसलिए विशाल मूर्ती लगवाने जैसी फालतू परियोजनाऐं बनाई जा रही है, जिससे कोई हिसाब भी न मांग सके और ढ़िढोरा भी पीट दिया जाऐ कि 40 करोड़ रूपये की मूर्ती लगवा दी गई।
योगी जी से उद्घाटन करवाने की जल्दी में ब्रजतीर्थ विकास परिषद् ने सड़कछाप आर्किटैक्टों को पकड़कर बड़े बजट की परियोजनाऐं बनवा ली हैं, जिससे मोटा कमीशन खाया जा सके। इस तरह हर ओर ब्रज का विनाश किया जा रहा है। भाजपा योगी महाराज को हिंदू धर्म का पुरोधा बनाकर चुनावों में घुमा रही है। पर योगी महाराज की सरकार के भ्रष्ट और निकम्मे अधिकारी ब्रज जैसे कृष्ण भक्ति के पौराणिक धाम की महत्ता और संवेदनशीलता को समझे बिना शहरी लोगों के मनोरंजन के लिए बड़ी-बड़ी खर्चीली योजनाऐं बनवा रहे हैं। जिनसे ब्रज का विकास होना तो दूर, विनाश की गति तेजी से बढ़ गई है। चुनाव में वोट मांगे जाऐंगे आम ब्रजवासी से, जो गांवों में रहता है। जिसने कान्हा से संग गाय चराई। जिनके घरों से कान्हा ने माखन चुराया। उन सब ब्रजवासियों की उपेक्षा कर बाहर से आने वाले सैलानियों के मनोरंजन की योजनाऐं बनाकर ब्रजतीर्थ विकास परिषद् क्यों योगी महाराज की छवि खराब करने में जुटी है? ये ब्रजवासियों के साथ सरासर धोखा है।

Monday, November 12, 2018

खेमों में न बँटें बुद्धिजीवी और समाज के पहरूआ

जब भी देश में लोकतांत्रिक मूल्यों के पतन की बात होती है, तो एक से बढ़कर एक विद्वान, विचारक, समाज सुधारक और पत्रकार ये कहते नहीं थकते कि हमारी राजनैतिक व्यवस्था पर अपराधी हावी हो गऐ हैं। चुनाव ईमानदारी के पैसे से नहीं जीता जा सकता। चुनाव जीतने के लिए धनबल, बाहुबल और छलबल की आवश्यक्ता होती है। राजनेताओं में वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं है। वे बेपैंदी के लोटे हो गऐ हैं। मोटे पैसे लेकर दल बदलना आम बात हो गई है। भ्रष्टाचार के मामलों पर कोई भी दल या सरकार ठोस कदम नहीं उठाना चाहती। भ्रष्टाचार के बड़े घोटालों में तो पक्ष और विपक्ष की साझेदारी रहती है। सत्तारूढ़ दल मोटा कमीशन खाता है और विपक्षी दल पहले शोर मचाते हैं, फिर अपनी कीमत वसूल कर चुप हो जाते हैं। इसलिए भ्रष्टाचार सुरसा की जीभ की तरह बढ़ता जा रहा है और कोई राजनैतिक दल इसे रोकना नहीं चाहता। हर चुनाव के पहले सभी विपक्षी दल सत्तारूढ़ दल पर भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े आरोप लगाते हैं, पर खुद सत्ता में आते ही वही सब करने लगते हैं, जिसे खत्म करने का वायदा करके वो चुनाव जीतते हैं। कोई भी राजनैतिक दल इसका अपवाद नहीं है।


देश के विश्वविद्यालयों में और पढ़े-लिखे लोगों की बैठकों में अक्सर देश की दुर्गति पर चिंता व्यक्त की जाती है। बड़ी उत्तेजक बहसें होती हैं। कभी-कभी तनातनी भी हो जाती है। पर इन्हीं लोगों को जब विपरीत परिस्थिति का सामना पड़ता है, तो उनके नैतिक मूल्य धरे रह जाते हैं। वे वही करते हैं, जिसकी वे आम जीवन में निंदा करते नहीं थकते। किसी एक विचारधारा पर समर्पित बुद्धिजीवी, अपनी विचारधारा को मानने वाले नेताओं में दोष नहीं देखना चाहते और हर बात का ठीकरा विपक्षी दलों के माथे पर थोंप देते हैं।

अक्सर सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय देश की गिरती स्थिति पर कठोर और बेबाक टिप्पणियां  करते हैं और केंद्रीय व प्रांतीय सरकारों को लताड़ते हैं। जबकि न्यायपालिका में नीचे से ऊपर तक व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए वे कोई सख्त कदम नहीं उठाते। अगर न्यायपालिका ही पूरी तरह ईमानदार और निष्पक्ष हो जाए, तो देश की आधी समस्याऐ तो बिना प्रयास के हल हो सकती है। प्रश्न है कि जब इन न्यायधीशों को सारी सुविधाऐं और सुरक्षा सहज उपलब्ध हैं, तो फिर ये कड़े निर्णंय लेने से क्यों डरते हैं? क्यों नहीं यही ठोस पहल करके समाज के लिए आर्दश स्थापित करते हैं? आखिर इस देश की सवा सौ करोड़ जनता उन्हें न्यायमूर्ति नहीं बल्कि न्याय देने वाला भगवान मानती है। फिर भगवान ही अगर राज्यपाल या सांसद बनने के मोह में न्यायमूर्ति पद की गरिमा का ध्यान न रखे, तो समाज के पतन के लिए कौन दोषी है?

समाज के हर वर्ग की गतिविधियों पर नजर रखने वाले और प्रशासकों को हमेशा सवालों के घेेरे में लपेटने वाले मीडियाकर्मी क्या किसी से कम हैं? आज देश में कितने मीडियाकर्मी हैं, जो दावे से यह सिद्ध कर सकें कि उन्होंने कभी किसी नेता या अफसर की दी हुई मंहगी शराब नहीं पी? उनकी दावतें नहीं उड़ाई? उनसे किसी खास विषय पर रिर्पोट लिखने की एडवांस रकम नहीं मांगी? सत्ता पक्ष के साथ मिलकर कोई दलाली नहीं की? किसी की ब्लैकमेलिंग नहीं की? और एक व्यक्ति को लाभ पंहुचाने के लिए उसके विरोधी का चरित्र हनन करने की फीस लेकर इकतरफा रिपोर्टिंग नहीं की?

कितने व्यापारी और उद्योगपति हैं, जो ये दावे से कह सकते हैं कि उनकी आर्थिक प्रगति के पीछे उनकी कड़ी मेहनत और वर्षों बहाया गया खून-पसीना है? कितने व्यापारी और उद्योगपति यह दावे से कह सकते हैं कि उन्होंने अपने कारोबार को आगे बढ़ाने के लिए नाजायज तरीकों को इस्तेमाल नहीं किया?

कितने प्रशासनिक व पुलिस अधिकारी हैं, जो ये दावा कर सकते हैं कि उन्होंने ताकतवर पद पाने के लिए अपने राजनैतिक आकांओं की चप्पल नहीं उठाई? कितने दावे से कह सकते हैं कि उन्होंने अपने राजनैतिक आकांओं के हित के लिए सरकारी संसाधनों का दुरूपयोग नहीं किया? कितनों ने अपने कर्मचारियों का शोषण नहीं किया?

कितने शिक्षक ऐसे हैं, जिन्होंने तन और मन से अपने विद्वार्थियों को ज्ञान देने और उनका चरित्र निर्माण करने के लिए जीवन में बलिदान किऐ हैं ? कितने शिक्षक ऐसे हैं, जो ये दावा कर सकते हैं कि उन्होंने अपने विद्यार्थियों के साथ शिक्षा का व्यवसाय नहीं किया?

अगर हर ओर उत्तर हताशा करने वाले हैं, तो समाज और देश कैसे सुधरेगा? कोई डोनाल्ड ट्रंप या इमरान खान तो हमारी दशा, अर्थव्यवस्था, राजनीतिक, प्रशासनिक, शिक्षा व स्वास्थ्य व्यवस्था सुधारने आयेगा नहीं। यह काम हमें ही करना होगा। जैसे हम अपने घर का कूड़ा साफ करने में हिचकते नहीं, वैसे ही अपने देश को अपना परिवार मानकर, यदि हम अपने क्षेत्र को सुधारने का संकल्प ले लें, तो हमें आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। अन्यथा ये सारी चिंता घड़ियाली आँसू से ज्यादा कुछ नहीं है। हमें अपने मन में झांककर यह सोचना होगा कि हमारे लिए जीवन में क्या बड़ा है, स्वार्थ या परमार्थ?

Monday, November 5, 2018

पटाखों बिना कैसे मनाऐं दीपावली?


सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पटाखों पर प्रतिबंध लगा दिया गया है और सिर्फ दो घंटे का समय दिया गया है, जिसमें पटाखें चलाऐ जा सकते हैं। इस आदेश को लेकर पटाखा व्यवसाय से जुड़े हुए सभी व्यापारी परेशान हैं कि अब उनका व्यापार कैसे चलेगा? कुछ हिंदुओं ने भी यह हल्ला मचाया है कि हिंदू धर्म के पर्वों में ही क्यों पाबंदी लगाई जाती है? मुसलमानों की ‘शब-ए-बारात’, ईसाईयों की ‘क्रिसमस’, या ‘न्यू इयर्स डे’ आदि में पटाखे छुड़ाने पर पाबंदी क्यों नहीं लगाई जाती? जबकि आवश्यक्ता इस बात की है कि भारत में पटाखों पर पूरी तरह से प्रतिबंध लग जाना चाहिए। क्योंकि देश में पहले से पर्यावरण प्रदूषण की वजह से बुरा हाल हो रहा है और पटाखों से निकलने वाली प्रदूषित गैस पर्यावरण को और अधिक नुकसान पहुंचाएगी।

आतिशबाजी’ सनातन धर्म के शब्दकोश में कोई शब्द नहीं है। यह पश्चिम ऐशिया से आयातित है, क्योंकि गोला-बारूद भी भारत में वहीं से ‘मध्ययुग’ में आया था। इसलिए दीपावली पर पटाखों को प्रतिबंधित करके, सर्वोच्च न्यायालय ने उचित निर्णंय लिया। हम सभी जानते हैं कि पर्यावरण, स्वास्थ, सुरक्षा व सामाजिक कारणों से पटाखे हमारी जिंदगी में जहर घोलते हैं। इनका निर्माण व प्रयोग सदा के लिए बंद होना चाहिए। यह बात पिछले 30 वर्षों से बार-बार उठती रही है।

हमारी सांस्कृतिक परंपरा में हर उत्सव व त्यौहार, आनंद और पर्यावरण की शुद्धि करने वाला होता है। दीपावली पर तेल या घी के दीपक जलाना, यज्ञ करके उसमें आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियां डालकर वातावरण को शुद्ध करना, द्वार पर आम के पत्तों के तोरण बांधना, केले के स्तंभ लगाना, रंगोली बनाना, घर पर शुद्ध पकवान बनाना, मिल बैठकर मंगल गीत गाना, धर्म चर्चा करना, बालकों द्वारा भगवान की लीलाओं का मंचन करना, घर के बहीखातों में परिवार के सभी सदस्यों के हस्ताक्षर लेकर, समसामयिक अर्थव्यवस्था का रिकार्ड दर्ज करना जैसी गतिविधियों में दशहरा-दीपावली के उत्सव आनंद से संपन्न होते आऐ हैं। जिनसे परिवार और समाज में नई ऊर्जा का संचार होता है।

गनीमत है कि भारत के ग्रामों में अभी बाजारू संस्कृति का वैसा व्यापक दुष्प्रभाव नहीं पड़ा, जैसा शहरों पर पड़ा है। अन्यथा सब चैपट हो जाता। ग्रामीण अंचलों में आज भी त्यौहारों को मनाने में भारत की माटी का सोंधापन दीखता है। यह स्थिति बदल रही है। जिसे ग्रामीण युवाओं को रोकना है।

बाजार के प्रभाव में आज हमने अपने सभी पर्वों को विद्रूप और आक्रामक बना दिया है। अब उनको मनाना, अपनी आर्थिक सत्ता का प्रदर्शन करना और आसपास के वातावरण में हलचल पैदा करने जैसा होता है। इसमें से सामूहिकता, प्रेम-सौहार्द और उत्सव के उत्साह जैसी भावना का लोप हो गया है। रही सही कसर चीनी सामान ने पूरी कर दी। त्यौहार कोई भी हो, उसमें खपने वाली सामग्री साम्यवादी चीन से बनकर आ रही है। उससे हमारे देश के रोजगार पर भारी विपरीत प्रभाव पड़ रहा है।

मिट्टी के बने दीऐ, मिट्टी के खिलौने, मिट्टी की बनी गूजरी व हटरी आदि आज भी हमारे घरों में दीवाली की पूजा का अभिन्न अंग होते हैं, पर शहरीकरण की मार से बड़े शहरों में इनका उपयोग समाप्त होता जा रहा है। अगर हम अपनी इस रीति को जीवित रखें, तो हमारे कुम्हार भाईयों की पेट पर लात नहीं पड़ेगी।

हम अपने बच्चों का जन्मदिन (हैपी बर्थ डे) केक काटकर मनाते हैं। जिसका हमारी मान्यताओं और संस्कृति से कोई नाता नहीं है। जबकि हमें उनका तिलक कर, आरती उतार कर या आर्शीवाद या मंगलाचरण गायन कर उनका जन्मदिन मनाना चाहिए। अगर हम चाहते हैं कि हमारी आने वाली पीढ़ियां अपनी भारतीय संस्कृति पर गर्व करे, परिवार में प्रेम को बढ़ाने वाली गतिविधियां हों, बच्चे बड़ों का सम्मान करें, तो हमें अपने समाज में पुनः पारंपरिक मूल्यों की स्थापना करनी होगी। वो जीवन मूल्य, जिन्होंने हमारी संस्कृति को हजारों साल तक बचाकर रखा, चाहे कितने ही तूफान आये। पश्चिमी देशों में जाकर बस गए, भारतीय परिवारों से पूछिऐ-जिन्होंने वहां की संस्कृति को अपनाया, उनके परिवारों का क्या हाल है और जिन्होंने वहां रहकर भी भारतीय सामाजिक मूल्यों को अपने परिवार और बच्चों पर लागू किया। वे कितने सधे हुए, सुखी और संगठित है। तनाव, बिखराव तलाक, टूटन ये आधुनिक जीवन पद्धति के ‘प्रसाद’ है। इनसे बचना और अपनी जड़ों से जुड़ना, यह भारत के सनातनधर्मियों का मूलमंत्र होना चाहिए।

पिछले कुछ वर्षों से टेलीविजन चैनलों पर साम्प्रदायिक मुद्दों को लेकर आऐ दिन तीखी झरपें होती रहती है। जिनका कोई अर्थ नहीं होता। उनसे किसी भी सम्प्रदाय को कोई भी लाभ नहीं मिलता, केवल उत्तेजना बढ़ती है। जबकि हर धर्म और संस्कृति में कुछ ऐसे जीवन मूल्य होते हैं, जिनका यदि अनुपालन किया जाए, तो समाज में सुख, शांति और समरसता का विस्तार होगा। अगर हमारे टीवी एंकर और उनकी शोध टीम ऐसे मुद्दों को चुनकर उन पर गंभीर और सार्थक बहस करवाऐं, तो समाज को दिशा मिलेगी। हर धर्म के मानने वालों को यह स्वीकारना होगा कि दूसरों के धर्म में सब कुछ बुरा नहीं है और उनके धर्म में सब कुछ श्रेष्ठ नहीं है। चूंकि हम हिंदू बहुसंख्यक हैं और सदियों से इस बात से पीड़ित रहे हैं कि सत्ताओं ने कभी हमारे बुनियादी सिद्धांतों को समझने की कोशिश नहीं की। या तो उन्हें दबाया गया या उनका उपहास किया गया या उन्हें अनिच्छा से सह लिया गया। नये माहौल में इन सवालों पर खुलकर बहस होनी चाहिए थी। जो नहीं हो रही। निरर्थक विषयों को उठाकर समाज में विष घोला जा रहा है। इसलिए इस दीपावली सब मिल बैठकर सोचें, कौन थे हम, क्या हो गये और होंगे क्या अभी।

Monday, October 29, 2018

सीबीआई में घमासान क्यों?

पिछले एक हफ्ते से सभी टीवी चैनलों, अखबारों, सर्वोच्च आदालत और चर्चाओं में सीबीआई के निदेशक और विशेष निदेशक के बीच चल रहे घमासान की चर्चा है। लोग इसकी वजह जानने को बैचेन हैं। सरकार ने आधी रात को सीबीआई भवन को सीलबंद कर इन दोनों को छुट्टी पर भेज दिया। तब से हल्ला मच रहा है कि सरकार को सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा को छुट्टी पर भेजने का कोई हक नहीं है। क्योंकि 1997 में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ में सीबीआई निदेशक और प्रवर्तन निदेशालय निदेशक के कार्यकाल को दो वर्ष की सीमा में निर्धारित कर दिया गया था, चाहे उनकी सेवा निवृत्ति की तारीख निकल चुकी हो। ऐसा करने के पीछे मंशा यह थी कि महत्वपूर्णं मामलों में सरकार दखलअंदाजी करके अचानक किसी निदेशक का तबादला न कर दे। 
पर इस बार मामला फर्क है। यह दोनों सर्वोच्च अधिकारी आपस में लड़ रहे थे। दोनों एक दूसरे पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे थे और दोनों पर अपने-अपने आंकाओं के इशारों पर काम करने का आरोप लग रहा था। स्थिति इतनी भयावह हो गई थी कि अगर सख्त कदम न उठाऐ जाते, तो सीबीआई की और भी दुर्गति हो जाती। हालांकि इसके लिए सरकार का ढीलापन भी कम जिम्मेदार नहीं।

एक अंग्रेजी टीवी चैनल पर बोलते हुए सरकारी फैसले से कई दिन पहले मैंने ही यह सुझाव दिया था कि इन दोनों को फौरन छुट्टी पर भेजकर, इनके खिलाफ जांच करवानी चाहिए। तब उसी पैनल में प्रशांत भूषण मेरी बात से सहमत नहीं थे। इसलिए जब ये फैसला आया, तो प्रशांत भूषण और आलोक वर्मा दोनों ने इसे चुनौती देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की शरण ली। भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश और उनके सहयोगी जजों ने जो फैसला दिया, वो सर्वोत्तम है। दोनों के खिलाफ दो हफ्तों में जांच होगी और नागेश्वर राव, जिन्हें सरकार ने अंतरिम निदेशक नियुक्त किया है, वो कोई नीतिगत निर्णंय नहीं लेंगे। अब अगली सुनवाई 12 नवंबर को होगी।

दरअसल 1993 में जब ‘जैन हवाला कांड’ की जांच की मांग लेकर मैं सर्वोच्च न्यायालय गया था, तो मेरी शिकायत थी कि राष्ट्रीय सुरक्षा के इस आंतकवाद से जुड़े घोटाले को राजनैतिक दबाब में सीबीआई 1991 से दबाये बैठी है। पर 1997 में जब हवाला केस प्रगति कर रहा था, तब प्रशांत भूषण और इनके साथियों ने, अपने चहेते कुछ नेताओं को बचाने के लिए, अदालत को गुमराह कर दिया। मूल केस की जांच तो ठंडी कर दी गई और सीबीआई को स्वायतता सौंप दी गई और सीवीसी का विस्तार कर दिया। इस उम्मीद में कि इस व्यवस्था से सरकार का हस्तक्षेप खत्म हो जाऐगा।

आज उस निर्णय को आए इक्कीस बरस हो गए। क्या हम दावे से कह सकते हैं कि केंद्र में सत्तारूढ़ दल अपने राजनैतिक लाभ के लिए सीबीआई का दुरूपयोग नहीं करते? क्या सीबीआई के कई निदेशकों पर भारी भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे? क्या सीबीआई में ‘विनीत नारायण फैसले’ या ‘सीवीसी अधिनियम’ की अवहेलना करके पिछले दरवाजे से बडे़ पदों अधिकारियों की नियुक्ति नहीं की? अगर इन प्रश्नों के उत्तर हाँ में हैं, तो यह स्पष्ट है कि जो अपेक्षा थी, वैसी पारदर्शिता और ईमानदारी सीबीआई का नेतृत्व नहीं दिखा पाया। इसलिए मेरा मानना है कि इस पूरे फैसले को पिछले 21 वर्षों के अनुभव के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पुनः परखा जाना चाहिए और जो विसंगतियां आ गईं हैं, उन्हें दूर करने के लिए एक संवैधानिक बैंच का गठन कर ‘विनीत नारायण फैसले’ पर पुर्नविचार करना चाहिए । ऐसे नये निर्देश देने चाहिए, जिनसे ये विसंगतियां दूर हो सके।

मैं स्वयं इस मामले में पहल कर रहा हूं और एक जनहित याचिका लेकर जल्दी ही सर्वोच्च अदालत में जाऊंगा। पर उससे पहले मैंने भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा व भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारियों, जागरूक वकीलों और चिंतकों को संदेश भेजा है कि सीबीआई और प्रर्वतन निदेशालय के सुधार के लिए वे मुझे mail@vineetnarain.net पर अपने सुझावों को ईमेल से भेजें। जिन्हें इस याचिका में शामिल किया जा सके। मुझे उम्मीद है कि माननीय न्यायालय राष्ट्रहित में और सीबीआई की साख को बचाने के उद्देश्य से इस याचिका पर ध्यान देगा।

वैसे भारत के इतिहास को जानने वाले अपराध शास्त्र के विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसा कोई समय नहीं हुआ, जब पूरा प्रशासन और शासन पूरी तरह भ्रष्टाचार मुक्त हो गया हो। भगवत् गीता के अनुसार भी समाज में सतोगुण, रजोगुण व तमोगुण का हिस्सा विद्यमान रहता है। जो गुण विद्यमान रहता है, उसी हिसाब से समाज आचरण करता है। प्रयास यह होना चाहिए कि प्रशासन में ही नहीं, बल्कि न्यायपालिका, मीडिया, धर्मसंस्थानों, शिक्षा संस्थानों व निजी उद्यमों में ज्यादा से ज्यादा सतोगुण बढ़े और तमोगुण कम से कम होता जाऐ। इसलिए केवल कानून बना देने से काम नहीं चलता, ये सोच तो शुरू से विकसित करनी होगी। सीबीआई भी समाज का एक अंग है और उसके अधिकारी इसी समाज से आते हैं। तो उनसे साधु-संतों से जैसे व्यवहार की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?
पर लोकतंत्र की रक्षा के लिए और आम नागरिक का सरकार में विश्वास कायम रखने के लिए सीबीआई जैसी संस्थाओं को ज्यादा से ज्यादा पारदर्शी होना पड़ेगा। अन्यथा इनसे सबका विश्वास उठ जाऐगा।

Monday, October 22, 2018

सुरक्षा पुलिसकर्मियों को चपरासी न समझें!

पिछले हफ्ते एक जज की पत्नी और बेटे को हरियाणा पुलिस सुरक्षाकर्मी ने दिन दहाड़़े बाजार में गोली मार दी। जज की पत्नी ने मौके पर ही दम तोड़़ दिया। लड़के को गंभीर हालत में अस्पताल दौड़ाया गया। तमाशबीन बड़ी तादाद में तमाशा देखते रहे, पर किसी की हिम्मत उसे रोकने की नहीं हुई। हत्या करने के बाद सिपाही ने जज को और अपने घर फोन करके घरवालों और मित्रों को कहा कि उसने यह कांड कर दिया है। बाद में गिरफ्तार हाने पर उसने पुलिस को बताया कि उसने जज की पत्नी और बेटे के दुव्र्यवहार से तंग आकर यह जघन्य कांड किया।
उल्लेखनीय है कि उस पुलिस वाले की ड्यूटी जज महोदय की सुरक्षा के लिए लगाई गई थी। जबकि घटना के समय जज साहब ने उसे अपनी निजी गाड़़ी का ड्राइवर बनाकर, अपनी पत्नी और बेटे को शॉपिंग करा लाने को कहा था । जोकि उसकी वैधानिक ड्यूटी कतई नहीं थीं। अगर इस बीच कोई घर में घुसकर जज की हत्या कर देता, तो इस पुलिस वाले की नौकरी चली जाती। इस पर ड्यूटी में लापरवाही करने का आरोप लगता। जबकि वो इसका अपराध नहीं होता।
यह पहली घटना नहीं है। देशभर में राजनेता, विशिष्ट व्यक्तियों, अधिकारियों और न्यायाधीशों की सुरक्षा में सरकार की ओर से समय- समय पुलिस सुरक्षा दी जाती है। इन सुरक्षाकमिर्यों का काम ‘पीपी’
(प्रोटेक्टेड पर्सन) की सुरक्षा करना होता है, नकि उसका बैग उठाना या उसके मेहमानों को चाय पिलाना या उसकी गाड़ी चलाना या दूसरे घरेलू नौकरों की तरह काम करना। पर देखने में यह आया है कि बहुत कम ‘पीपी’ ऐसे होते हैं, जो सरकार द्वारा प्रदत्त सुरक्षाकर्मियों को उनकी ड्यूटी पूरी करने देते हैं। प्रायः सभी ‘पीपी’ और उनके परिवार इन सुरक्षा पुलिसकर्मियों से बेगार करवाते हैं।
इसके कई पहलू हैं। सुरक्षा ड्यूटी पर तैनात पुलिसकर्मी चाहे तो ऐसी बेगार करने को मना कर सकता है। उन्हें कोई ‘पीपी’ इसके लिए बाध्य नहीं कर सकता। पर ताली एक हाथ से नहीं बजती। होता ये है कि पहले तो ‘पीपी’ इन सुरक्षाकर्मियों का अनुचित लाभ उठाते हैं और फिर ये सुरक्षाकर्मी अपने वरिष्ठ अधिकारियों की जानकारी के बिना ‘पीपी’ की सहमति से अपनी ड्यूटी में फेर बदल करते रहते हैं। उनसे सिफारिश करवाकर कभी अपने निजी काम भी करवा लेते हैं। जब कभी ‘पीपी’ कोई बहुत अधिक साधन संपन्न या भ्रष्ट नेता होता है, तो उसकी ओर से इन सुरक्षाकर्मियों की खूब खिलाई-पिलाई होती है। यानि इनके बढिया खाने-पीने, आराम से रहने और खर्चे के लिए भी अतिरिक्त धन उस ‘पीपी’ द्वारा मुहैया कराया जाता है। ऐसे ‘पीपी’ के संग प्रायः सुरक्षाकर्मी बहुत खुश रहते हैं। क्योंकि उनके भत्ते खर्च नहीं होते, उल्टा उनकी आमदनी बढ़ जाती है। पर सब पुलिस सुरक्षाकर्मी ऐसे नहीं होते। वे अपनी ड्यूटी मुस्तैी से करना चाहते हैं और इस तरह की बेगारी को अपने मन के विरूद्ध मजबूरी में करते हैं।
जैन हवाला कांड’ उजागर करने के दौरान मुझ पर 1993-96 के बीच कई बार प्राण घातक हमले हुए। उसके बाद कहीं जाकर भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने मुझे ‘वाई’ श्रेणी की सुरक्षा प्रदान की। जिसमें एक प्लस चार की गार्ड मेरे घर की रखवाली करती थी या जिस शहर में मैं जाता था, मेरे शयन कक्ष की रखवाली करती थी। पिस्टल और बंदूक लेकर दो सुरक्षाकर्मी मेरे साथ रहते थे । एक जीप में कुछ पुलिसकर्मी मेरी गाड़ी के आगे एस्कॉर्ट करके चलते थे। उन दिनों लगभग रोजाना देशभर में मेरे व्याख्यान और जनसभाऐं हुआ करती थीं। इसलिए राज्य सरकारें भी इसी तरह सुरक्षा की व्यवस्था करती थी। ये व्यवस्था मेरे साथ कई वर्ष तक रही। पर मुझे याद नहीं कि मैंने कभी इतने सारे सुरक्षाकर्मियों के साथ दुव्र्यवहार किया हो या उनसे बेगार करवाई हो। इसलिए उन सबसे आज तक स्नेह संबंध बना हुआ है।
ये उल्लेख करना इसलिए जरूरी है कि वह सुरक्षा व्यवस्था मेरी जान की रक्षा के लिए तैनात की गई थी। जिस पर लाखों रूपया महीना देश का खर्च होता था। ये सब सुरक्षाकर्मी मेरे निजी कर्मचारी नहीं थे और न ही मेरे परिवार के लिए बेगार करने को तैनात किये गये थे। चलिए हम तो पत्रकार हैं, इसलिए संवेदनशीलता के साथ उनसे व्यवहार किया । पर सत्ता, पद और पैसे के मद में रहने वाले ‘पीपी’ और उनके परिवार इन सुरक्षाकर्मियों को अपना निजी स्टाफ समझते हैं, जो एक घातक प्रवृत्ति है।
जिस तरह गुड़गांव के पुलिसकर्मी ने एक खतरनाक कदम उठाया और ‘पीपी’ के परिवार को ही खत्म कर डाला, उसी तरह कब किस सुरक्षाकर्मी को ‘पीपी’ के परिवार के ऐसे गलत व्यवहार की बात बुरी लग जाऐ और वो ऐसा घातक कदम उठा ले, इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
इसलिए गुड़गांव की इस घटना से सभी को सबक लेना चाहिए और जिन की सुरक्षा में पुलिसकर्मी तैनात हैं, उन्हें इनको अपनी ड्यूटी मुस्तैदी से करने देना चाहिए। इनसे बेगार लेकर इनका दोहन और अपमान नहीं करना चाहिए।