Monday, June 1, 2015

सरस्वती नदी थी और आज भी है

वैदिक काल में उत्तर भारत की प्रमुख नदियों में से एक सरस्वती नदी विद्वानों के लिए यह हमेशा उत्सुकता का विषय बनी रही है। हाल के दिनों में हरियाणा में कुछ वैज्ञानिकों के प्रयास से सरस्वती नदी के विषय में पुनः उत्सुकता पैदा हो गई है जहां कई प्रमाण भी मिल रहे हैं। फिर भी बहुत से लोग मानते हैं कि सरस्वती केवल एक काल्पनिक नदी थी। इतिहासकार हर्ष महान कैरे अपने शोध के आधार पर बताते हैं कि वेदों में सरस्वती नदी के विषय में बहुत से संदर्भ आए हैं। जो इस तथ्य को स्थापित करते हैं कि सरस्वती भारत की एक प्रमुख नदी थी। इन संदर्भों में उसकी भौगोलिक स्थिति के विषय में भी स्पष्ट संकेत मिलते हैं। ऋगवेद के दूसरे मंडल के 41वें सूक्त की 16वीं ऋचा में कहा गया है कि सरस्वती माताओं में सर्वोत्तम है, नदियों में सर्वोत्तम है और देवियों में सर्वोत्तम है। इससे स्पष्ट होता है कि सरस्वती देवी के अतिरिक्त एक नदी भी थी।
 
छठें मंडल के छठे सूक्त की 14वीं ऋचा में कहा गया है कि उत्तर भारत में सात बहिनों के रूप में सात नदियां हैं। उन सभी नदियों में सबसे ज्यादा विस्तार से सरस्वती नदी का ही वर्णन आता है, जो ‘सप्त सिंधु’ की एक प्रमुख अंग थी। सातवें मंडल के 36वें सूक्त की छठी ऋचा में कहा गया है कि सरस्वती सातवीं नदी है और वो अन्य सारी नदियों की माता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि इन सात नदियों के एक छोर पर सरस्वती नदी मौजूद थी, जो इस परिस्थति में पूर्व की ओर आखिरी नदी रही होगी। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि ये अन्य नदियों से बड़ी थी, तभी तो इसे माता माना गया। सातवें मंडल के 95वें सूक्त की दूसरी ऋचा में लिखा हुआ है कि सरस्वती मुक्त एवं पवित्र नदी है, जो पहाड़ से सागर तक बहती है।
 
इन कुछ उद्धरणों से पता चलता है कि सरस्वती सप्त सिंधु का एक हिस्सा थी, जो सिंधु घाटी की सभ्यता का क्षेत्र है और भारत के पश्चिमी हिस्से तक सीमित था। गंगा-यमुना का दोआब इस ‘सप्त सिंधु’ का हिस्सा नहीं था, क्योंकि यह उस समय आर्यवर्त कहलाता था। इन उद्धरणों में यह भी कहा गया है कि सरस्वती सात बहिनों में से एक बहिन थी। जिसका अर्थ हुआ कि यह अन्य छह नदियों की तरह उसी दिशा में बहकर अरब सागर में गिरती थी जैसे व्यास, सतलज, झेलम, रावी, चिनाब आदि नदियां गिरती हैं। वह पर्वत से सागर तक अलग बहती थी, जिससे स्पष्ट होता है कि वो सिंधु नदी से नहीं मिलती थी। अगर इस इलाके के भूगोल को देखा जाए, तो यह स्पष्ट होगा कि इन मैदानी इलाकों के पूर्व में अरावली पर्वत श्रृंखला है। इसके हिसाब से सरस्वती नदी को अरावली के पश्चिम में और अन्य छह नदियों के पूर्व में होना पड़ेगा। इससे एक ही रास्ता सरस्वती नदी के लिए बचता है कि ये शिवालिक पर्वत श्रृंखला से निकलकर ‘रन आॅफ कच्छ’ में जाकर समुद्र से मिले।
 
सरस्वती नदी के लुप्त होने का रहस्य इन्हीं तथ्यों से समझना पड़ेगा। वेदों में संकेत है कि इस नदी का पानी धीरे-धीरे कम हुआ और उसके बाद ये नदी लुप्त हो गई। इतनी बड़ी नदी सूखती नहीं है। वह केवल अपना मार्ग बदलती है। यदि इस नदी का शिवालिक से मैदान में उतरने का स्थान खोजा जाए, तो इस विषय पर काफी प्रकाश पड़ेगा। उत्तर भारत के मैदानी इलाके को यदि एक सरसरी नजर से देखा जाय, तो पश्चिम से पूर्व तक यह एक-सा भौगोलिक समतल क्षेत्र लगता है, किंतु पानी के बहाव की दृष्टि से यह दो भागों में बंटा हुआ है। चंडीगढ़ से पूर्व में एक रेखा उत्तर से दक्षिण में शिवालिक तक जाती है, जो इसेे दो भागों में बांट देती है। इसके पश्चिम में जो पानी गिरेगा, वो दक्षिण-पश्चिम की ओर बहता हुआ अरब सागर में गिरेगा और जो उसके पूर्व में गिरेगा, वो पूर्व की ओर बहता हुआ बंगाल की खाड़ी में गिरेगा।
 
जिस स्थान पर सरस्वती पहाड़ों से उतरकर मैदानी क्षेत्रों में आती थी, वह इस बिंदु के बहुत करीब है। थोड़ा सा पश्चिम में बहने पर वह अरब सागर की ओर बहेगी और थोड़ा-सा पूर्व में बहने पर वह बंगाल की खाड़ी की ओर बहेगी। ऐसा प्रतीत होता है कि घघ्घर नदी के सूखे हुए मार्ग पर किसी समय सरस्वती दक्षिण पश्चिम की ओर बहती हुई ‘रन आॅफ कच्छ’ में गिरती थी। भौगोलिक इतिहास के किसी काल में शिवालिक के इन पर्वतों पर कोई बड़ी हलचल हुई होगी या किसी बड़े भूकंप के कारण या फिर भारी बाढ़ के कारण सरस्वती नदी की मुख्य धारा टूटकर एक दूसरे मार्ग पर बहने लगी होगी। ये जब मैदानी क्षेत्र में उतरी तो पूर्व की ओर बहने वाले मैदानी क्षेत्र में थी और ये धारा पूर्व की ओर बहने लगी। धीरे-धीरे यही नई धारा मुख्यधारा बन गई और सरस्वती नदी के मुख्य मार्ग पर कुछ समय तक तो  थोड़ा पानी जाता रहा और अंत में एक स्थिति ऐसी आ गई कि पश्चिम की तरफ जाने वाला सारा पानी रूक गया और सरस्वती नदी पूर्णतः पूर्व की ओर बहने लगी।
 
यह नई नदी यमुना के अतिरिक्त कोई दूसरी नदी नहीं हो सकती। क्योंकि ये मैदानी क्षेत्रों में उस स्थान के बहुत समीप है, जहां पर घघ्घर नदी उतरती थी। पुराणों में जो उल्लेख मिलता है, उससे यह संकेत मिलते हैं कि यमुना एक नई नदी है। पुराणों में कहा गया है कि यमुना आरंभ में बहुत चंचल (वाइब्रेंट) थी और बाद में उसके भाई यमराज ने अपने हल से उसके लिए एक मार्ग बनाया, जिसके बाद वह एक निर्धारित मार्ग पर चलने लगी। आज भी प्रयागराज (इलाहबाद) में यही मान्यता है कि वहां दो नदियों का नहीं, बल्कि तीन नदियों का संगम है और यह तीसरी नदी सरस्वती भी वहीं आकर मिल रही है। इससे स्पष्ट संकेत मिलता है कि यमुना केवल अपना ही जल नहीं ला रही है, बल्कि सरस्वती का जल भी उसमें समाहित है।

Monday, May 11, 2015

‘प्रो पूअर टूरिज्म’ के मायने

अखबारों में बड़ा शोर है कि विश्व बैंक उत्तर प्रदेश में गरीबों के हक में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए हजार करोड़ रूपये देने जा रहा है। जिसमें 400 करोड़ रूपया केवल ब्रज (मथुरा) के लिए है। प्रश्न उठता है कि ‘प्रो पूअर’ यानि गरीब के हक में पर्यटन का क्या मतलब है ? क्या ये पर्यटन विकास ब्रज में रहने वाले गरीबों के लिए होगा या ब्रज आने वाले गरीब तीर्थयात्रियों के लिए ? विश्व बैंक को अब जो प्रस्ताव भेजे जाने की बात चल रही है, उनमें ऐसा कुछ भी नजर नहीं आता। मसलन, वृंदावन के वन चेतना केंद्र को आधुनिक वन बनाने के लिए 100 करोड़ रूपये खर्च करने का प्रस्ताव तैयार किया जा रहा है। सोचने वाली बात यह है कि वृंदावन में तो पहले से ही सारी दुनिया से अपार धन आ रहा है और तमाम विकास कार्य हो रहे हैं और वृंदावन में ऐसे कोई निर्धन लोग नहीं रहते, जिन्हें वन चेतना केंद्र पर 100 करोड़ रूपया खर्च करके लाभान्वित किया जा सके।
वृंदावन पर अगर खर्च करना ही है, तो सबसे महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट होता कि वृंदावन आने वाले हजारों निम्नवर्गीय तीर्थयात्रियों के लिए बुनियादी सुविधाओं का व्यापक इंतजाम। इस परियोजना को मैं पिछले 10 वर्षों से संबंधित अधिकारियों से आगे बढ़ाने को कहता रहा हूं। आज जहां रूक्मिणी बिहार जैसी अट्टालिकाओं वाली कालोनी बन गईं, जिनके 90 फीसदी मकान खाली पड़े हैं और वृंदावन की प्राकृतिक शोभा भी नष्ट हो गई, उनकी जगह यहां विशाल क्षेत्र में सैकड़ों बसों के खड़े होने का, गरीब यात्रियों के भेजन पकाने, शौच जाने का और चबूतरों पर टीन के बरामडों में सोने का इंतजाम किया जाना चाहिए था। आज ये गरीब तीर्थयात्री सड़कों के किनारे खाना पकाने, शौच जाने और सोने को मजबूर हैं, क्योंकि किसी तरह जीवनभर की कमाई में से इतना पैसा तो बचा लिया कि अपने बूढ़े मां-बाप को बंगाल, बिहार, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश जैसे सुदूर राज्यों से बसों में बैठाकर ब्रज घुमाने ले आएं। पर इतना धन इनके पास नहीं होता कि यह होटल में ठहरें या खायें। पर अब तक की बातचीत में कहीं इस विचार को प्रोत्साहन नहीं दिया गया। अभी हाल ही में एक समाचार पढ़ा कि इस विचार पर अब एक छोटा-सा प्रोजेक्ट मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण शुरू करेगा। वृंदावन की लोकप्रियता और यहां आने वालों की निरंतर बढ़ती तादाद को देखकर इस छोटे से प्रोजेक्ट से किसी का भला होने वाला नहीं है। दूरदृष्टि और गहरी समझ की जरूरत है।
इसी तरह ब्रज हाट का एक प्रोजेक्ट ब्रज फाउण्डेशन ने कई वर्ष पहले बनाकर जिलाधिकारी की मार्फत लखनऊ भेजा था, उसका तो पता नहीं क्या हुआ। पर विकास प्रािधकरण ने ब्रज हाट का जो माॅडल बनाया, उसे देखकर किसी भी संवदेनशील व्यक्ति का सिर चकरा जाय। यह नक्शा नीले कांच लगी बहुमंजिलीय इमारत का था। जिसे देखकर दिल्ली के किसी माॅल की याद आती है। गनीमत है कि हमारे शोर मचाने पर यह विचार ठंडे बस्ते में डाल दिया गया और अब ब्रज के कारीगरों के लिए ब्रज हाट बनाने की बात की जा रही है। दरअसल, हाट की परंपरा हजारों वर्ष पुरानी है। जहां न कोई दुकान होती है, न कोई पक्का ढांचा।  बहुत सारे छोटे-छोटे चबूतरे बनाए जाते हैं और हर चबूतरे से सटा छायाकार वृक्ष होता है। यह दृश्य भारत के किसी भी गांव में देखने को मिल जाएगा। यहां कारीगर कपड़े की चादर फैलाकर अपने हस्तशिल्प का सामान विक्रय के लिए सुबह आकर सजाते हैं और शाम को समेट कर ले जाते हैं। न किसी की कोई दुकान पक्की होती हैं और न किसी मिल्कीयत। इसी विचार को बरसाना, नंदगांव, गोकुल, गोवर्धन, वृंदावन, मथुरा की परिधि में शहर और गांव के जोड़ पर स्थापित करने की जरूरत है। जिसकी लागत बहुत ही कम आएगी। हां उसमें कलात्मकता का ध्यान अवश्य दिया जाना चाहिए, जिससे ब्रज की संस्कृति पर वो भौड़े निर्माण हावी न हों।

इसी तरह ब्रज के गरीबों को अगर लाभ पहुंचाना है, तो ब्रज के ऐतिहासिक छह सौ से अधिक गांव में से सौ गांवों को प्राथमिकता पर चुनकर उनके वन, चारागाह, कुंड और वहां स्थित धरोहर का सुधार किया जाना चाहिए। जिससे वृंदावन व गोवर्धन में टूट पड़ने वाली भीड़ ब्रज के बाकी गांव में तीर्थाटन के लिए जाए, जहां भगवान की सभी बाललीलाएं हुई थीं। इन गांव में तीर्थयात्रियों के जाने से होगा गरीबों का आर्थिक लाभ।

पर आश्चर्य की बात है कि विश्व बैंक को भेजे जा रहे प्रस्ताव में एक प्रस्ताव श्रीबांकेबिहारी मंदिर की गलियों के सुधार का है। यह आश्चर्यजनक बात है कि बिहारीजी का मंदिर, जिसकी जमापूंजी 70-80 करोड़ रूपये से कम नहीं होगी और जिसके दर्शनार्थियों के पास अकूत धन है। उस बिहारीजी के मंदिर की गलियों के लिए विश्व बैंक का पैसा खर्च करने की क्या तुक है ? इससे किस गरीब को लाभ होगा। यह कैसा ‘प्रो पुअर टूरिज्म’ है। बिहारीजी मंदिर तो अपने ही संसाधनों से यह सब करवा सकता है।

गनीमत है कि अभी कोई प्रस्ताव अंतिम रूप से तय नहीं हुआ। पर चिंता की बात यह है कि विश्व बैंक की टीम ने और उत्तर प्रदेश सरकार के पर्यटन विभाग ने अब तक जिन महंगे सलाहकारों की सलाह से ब्रज के विकास की योजनाएं सोची हैं, उनका ब्रज से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं। इन सलाहकारों को ब्रज की वास्तविकता का अंश भी पता नहीं है। विश्व बैंक के अधिकारियों को कुछ वर्ष पहले ये सलाहकार मुझसे मिलाने मेरे दिल्ली कार्यालय लाए थे। उद्देश्य था कि मैं उन्हें ब्रज में पैसा लगाने के लिए प्रेरित करूं। अपनी संस्था के शोध एवं गहरी समझ के आधार पर मैंने यह कार्य सफलतापूर्वक कर दिया। उसके बाद किसी सरकारी विभाग में या विश्व बैंक ने इसकी जरूरत नहीं समझी कि हमसे आगे सलाह लेते। जब हमें अखबारों से ऐसी वाहियात योजनाओं का पता चला, तो हमने विश्व बैंक के सर्वोच्च अधिकारियों व उत्तर प्रदेश शासन के मुख्य सचिव, पर्यटन सचिव व अन्य अधिकारियों से कई बैठकें करके अपना विरोध प्रकट किया। उन्हें यह बताने की कोशिश की कि विश्व बैंक उत्तर प्रदेश की जनता को कर्ज दे रहा हैं, अनुदान नहीं। फिर ऐसी वाहियात योजनाओं में पैसा क्यों बर्बाद किया जाए, जिससे न तो ब्रज में रहने वाले गरीबों का भला होगा और न ही ब्रज में आने वाले गरीबों का।

Monday, May 4, 2015

भारत क्यों चीन के मायाजाल में फंस रहा है?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चीन जा रहे हैं। हो सकता है कुछ बड़े समझौते हों। जिनका जश्न मनाया जायगा। पर हर जो चीज चमकती है उसको सोना नहीं कहते। रक्षा, आंतरिक सुरक्षा, विदेश नीति और सामरिक विषयों के जानकारों का कहना है कि भारत धीरे-धीरे चीन के मायाजाल में फंसता जा रहा है। आज से 15 वर्ष पहले वांशिगटन के एक विचारक ने दक्षिण एशिया के भविष्य को लेकर तीन संभावनाएँ व्यक्त की थीं। पहली अपने गृह युद्धों के कारण पाकिस्तान का विघटन हो जाएगा और उसके पड़ोसी देश उसे बांट लेंगे। दूसरी भारत अपनी व्यवस्थाओं को इतना मजबूत कर लेगा कि चीन और भारत बराबर की ताकत बन कर अपने-अपने प्रभाव के क्षेत्र बांट लेंगे। तीसरी चीन धीरे-धीरे चारों तरफ से भारत को घेर कर उसकी आंतरिक व्यवस्थाओं पर अपनी पकड़ मजबूत कर लेगा और धीरे-धीरे भारत की अर्थव्यवस्था को सोख लेगा। 

आज यह तीसरी संभावना साकार होती दिख रही है। चीन का नेतृत्व एकजुट, केन्द्रीयकृत, विपक्षविहीन व दूर दृष्टि वाला है। उसने भारत को जकड़ने की दूरगामी योजना बना रखी है। अरूणाचल की जमीन पर 1962 से कब्जा जमाये रखने के बावजूद चीन को किसी भी मौके पर इस इलाके को भारत को वापिस करने में गुरेज नहीं होगा। उसने इसके लिए भारत में एक लाॅबी पाल रखी है। जो इस मुद्दे को गर्माए रहती है। ऐसा करके वह भारत के प्रधानमंत्री को खुश करने का एक बड़ा मौका देगा लेकिन उसके बदले में हमसे बहुत कुछ ले लेगा। ऐसा इसलिए कि उसे सामरिक दृष्टि से इस क्षेत्र में कोई रूचि नहीं है। यह कब्जा तो उसने सौदेबाजी के लिए कर रखा है। उसका असली खेल तो तिब्बत, पाक अधिकृत कश्मीर और पाकिस्तान में है। जहाँ उसने रेल और हाइवे बनाकर अपनी सामरिक स्थिति भारत के विरूद्ध काफी मजबूत कर ली है। उसके लड़ाकू विमान हमारी सीमा से मात्र 50 किमी दूर तैनात है। युद्ध की स्थिति में सड़क और रेल से रसद पहुंचाना उसके लिए बांये हाथ का खेल होगा। जबकि ऐसी किसी भी व्यवस्था के अभाव में हम उसके सामने हल्के पड़ेंगे। 

पिछले 10 वर्षों में ऊर्जा, संचार और पैट्रोलियम जैसे संवेदनशील और अत्यन्त महत्वपूर्ण क्षेत्र में चीन ने भारत में लगभग सारे अंतर्राष्ट्रीय ठेके जीते हैं। इससे हमारी धमनियों पर अब उसका शिकंजा कस चुका है। चीन से बने बनाएं टेलीफोन एंक्सचेन्ज भारत में लगाएं गये हैं। जिसकी देखभाल भी चीन रिमोट कन्ट्रोल से करता है। क्योंकि ठेके की यही शर्त थी। अब वो हमारी सारी बातचीत पर निगाह रख सकता है। यहां तक कि हमारी खुफिया जानकारी भी अब उससे बची नहीं है। वो जब चाहे हमारी संचार व्यवस्था ठप्प कर सकता है। जिस समय चीन ये ठेके लगातार जीत रहा था उस समय हमारे गृह और रक्षा मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों ने लिखकर चिंता व्यक्त की थी। पर सरकार ने अनदेखी कर दी। 

सब जानते हैं कि उद्योगपतियों के लिए मुनाफा देशभक्ति से बड़ा होता है। चीन ने अपने यहाँ आधारभूत सुविधाओं का लुभावना तंत्र खड़ा करके भारत के उद्योगपतियों को विनियोग के लिए खीचना शुरू कर दिया है। उत्पादन के क्षेत्र में तो वह पहले ही भारत के लघु उद्योगों को खा चुका है। उधर भारत का हर बाजार चीन के माल से पटा पड़ा है। जाहिरन इससे देश में भारी बेरोजगारी फैल रही है। जो भविष्य में भयावह रूप ले सकती है। प्रधानमंत्री का ‘मेक इन इंडिया‘ अभियान बहुत सामयिक और सार्थक है। उसके लिए प्रधानमंत्री दुनियाभर जा-जाकर मशक्कत भी खूब कर रहें हैं। पर जब तब देश की आंतरिक व्यवस्थाएँ, कार्य संस्कृति और आधारभूत ढ़ाचा नहीं सुधरता, तब तक ‘मेक इन इंडिया‘ अभियान सफल नहीं होगा। इन क्षेत्रों में अभी सुधार के कोई लक्षण दिखाई नहीं दे रहे हैं। जिनपर प्रधानमंत्री को गंभीरता से ध्यान देना होगा। 


चीन भारत को चारों तरफ से घेर चुका है। नेपाल, वर्मा, दक्षिण पूर्व एशियाई देश, श्रीलंका और पाकिस्तान पर तो उसकी पकड़ पहले ही मजबूत हो चुकी थी। अब उसने मालदीव में भारत के जी.एम.आर. ग्रुप से हवाई अड्डा छीन लिया। इस तरह भारत पर चारों तरफ से हमला करने की उसने पूरी तैयारी कर ली है। इसका अर्थ यह नहीं कि वह हमला करेगा, बल्कि इस तरह दबाव बना कर वो अपने फायदे के लिए भारत सरकार को ब्लैकमेल तो कर ही सकता है। 

इस पूरे परिदृश्य में केवल दो ही संभावनाएँ बची है। एक यह कि भारत आंतरिक दशा मजबूत करें और चीन के बढ़ते प्रभाव को रोके। दूसरा यह कि चीन में आंतरिक विस्फोट हो, जैसा कभी रूस में हुआ था और चीन की केन्द्रीयकृत सत्ता कमजोर पड़ जाएँ। ऐसे में फिर चीन भारत पर हावी नहीं हो पाएगा। जिसकी निकट भविष्य में कोई संभावना नहीं दिखती। ऐसे में चीन से किसी भी सहयोग या लाभ लेने की अपेक्षा रखना हमारे लिए बहुत बुद्धिमानी का कार्य नहीं होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दूर दृष्टि वाले व्यक्ति हैं इसलिए आशा कि जानी चाहिए कि चीन से संबंध बनाने कि प्रक्रिया में वे इन गंभीर मुद्दों को अनदेखा नहीं करेंगे।

Monday, April 13, 2015

मंदिरों की सम्पत्ति का धर्म व समाज के लिए हो सदुपयोग

मंदिरों की विशाल सम्पत्ति को लेकर प्रधानमंत्री की योजना सफल होती दिख रही है। इस योजना में मंदिरों से अपना सोना ब्याज पर बैकों में जमा कराने को आह्वान किया गया था। जिससे सोने का आयात कम करना पड़े और लोगों की सोने की मांग भी पूरी हो सके। केेरल के पद्मनाभ स्वामी मंदिर में दो लाख करोड़ से भी ज्यादा की सम्पत्ति है। ऐसा ही तमाम दूसरे मंदिर के साथ है। पर इस धन का सदुपयोग न तो धर्म के विस्तार के लिए होता है और न ही समाज के लिए। उदाहरण के तौर पर ओलावृष्टि से मथुरा जिले के किसानों की फसल बुरी तरह बर्बाद हो गई। कितने ही किसान आत्महत्या कर बैठे।

उल्लेखनीय है कि ब्रज में, विशेषकर वृन्दावन में एक से एक बड़े मंदिर और मठ हैं। जिनके पास अरबों रूपये की सम्पत्ति हैं। क्या इस सम्पत्ति का एक हिस्सा इन बृजवासी किसानों को नहीं बांटा जा सकता ? भगवान श्रीकृष्ण की कोई लीला किसी मंदिर या आश्रम में नहीं हुई थी। वो तो ब्रज के कुण्डों, वनों, पर्वतों व यमुना तट पर हुई थी। ये मंदिर और आश्रम तो विगत 500 वर्षों में बने, और इतने लोकप्रिय हो गए कि भक्त और तीर्थयात्री भगवान की असली लीला स्थलियों को भूल गए। मंदिरों में तो करोड़ो रूपये का चढ़ावा आता है पर भगवान की लीला स्थलियों के जीर्णोंद्धार के लिए कोई मंदिर या आश्रम सामने नहीं आता।

जबकि इनमें से कितने ही मंदिर तो ऐसे लोगों ने बनाए हैं जिनका ब्रज से कोई पुराना नाता नहीं था। पर आज ये सब ब्रज के नाम पर वैभव का आनंद ले रहे हैं। जबकि ब्रज के किसान हजारों साल से ब्रजभूमि पर अपना खून-पसीना बहाकर अन्न उपजाते है। हजारों साधु-सन्तों को मधुकरी देते हैं। अपने गांव से गुजरने वाली ब्रज चैरासी कोस यात्राओं को छाछ, रोटी और तमाम व्यंजन देते हैं। यहीं तो है असली ब्रजवासी जिन्होंने कान्हा के साथ गाय चराई थी, वन बिहार किया था, उन्हें अपने छाछ और रोटी पर नचाया था। इन्हीं के घर कान्हा माखन की चोरी किया करते थे। आज जब ये किसान कुदरत की मार झेल रहे हैं, तो क्या वृन्दावन के धनाढ्य मंदिरों और मठों का यह दायित्व नहीं कि वे अपनी जमा सम्पत्ति का कम से कम आधा भाग इन ब्रजवासियों में वितरित करें।

यहीं हाल देश के बाकी हिस्सों के मंदिरों का भी है। जो न तो भक्तों की सुविधा की चिन्ता करते है और न ही स्थानीय लोगों की। अपवाद बहुत कम हैं। ऊपर से तुर्रा यह कि ये मंदिर हमारी निज सम्पत्ति हैं। जबकि यह सरासर गलत है। हिमाचल उच्च न्यायालय से लेकर कितने ही फैसले है जो यह स्थापित करते हैं कि जिस मंदिर को एक बार जनता के दर्शनार्थ खोेल दिया जाय, वहां जनता भेंट पूजा करने लगे, तो वह निजी सम्पत्ति नहीं मानी जा सकती। वह सार्वजनिक सम्पत्ति बन जाती हैं। चाहे उसकी मिल्कियत निजी भी रही हो। ऐसे सभी मंदिरों की व्यवस्था में दर्शनार्थियों का पूरा दखल होना चाहिए। क्योंकि उनके ही पैसे से ये मंदिर चलते है। प्रधानमंत्री को चाहिए कि इस बारे में एक स्पष्ट नीति तैयार करवाएं जो देश भर के मंदिरों पर ही नहीं बल्कि हर धर्म के स्थानों पर लागू हो। इस नीति के अनुसार उस धर्म स्थान की आय का निश्चित फीसदी बंटवारा जमापूंजी, रखरखाव, दर्शनार्थी सुविधा, क्षेत्रीय विकास व समाजसेवा के कार्यों में हो। आज की तरह नहीं कि इन सार्वजनिक धर्म स्थलों से होने वाली अरबों रूपये की आय चंद हाथों में सिमट कर रह जाती है। जिसका धर्म और समाज को कोई लाभ नहीं मिलता।

इस मामले में तिरूपति बालाजी का मंदिर एक आदर्श स्थापित करता है। हालांकि वहां भी जितनी आय है उतना समाज पर खर्च नहीं किया जाता। फिर भी भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल जैसी अनेक सेवाओं से एक बड़े क्षेत्र को लाभान्वित किया जा रहा है। धर्म को संवेदनशील मुद्दा बताकर यूपीए की सरकार तो हाथ खड़े कर सकती थी पर एनडीए की सरकार तो धर्म में खुलेआम आस्था रखने वालों की सरकार हैं, इसलिए सरकार को बेहिचक धर्म स्थलों के प्रबन्धन और आय-व्यय के पारदर्शी नियम बनाने चाहिए और उन्हें कड़ाई से लागू करना चाहिए वरना आशाराम बापू और रामलाल जैसे गुरू पनप कर समाज को गुमराह करते रहेंगे। और धर्म का पैसा अधर्म के कामों में बर्बाद होता रहेगा।

Monday, April 6, 2015

किसान और फसलों की तबाही

बेमौसम बारिश ने देश के बड़े भू-भाग में खड़ी फसल तबाह कर दी। आमतौर पर संकट में रहने वाले किसानों की गरीबी में आटा गीला हो गया। फसल बीमा का चलन अपने यहां अभी हो नहीं पाया है। अब तक इन किसानों के लिए मुआवजे या राहत का इंतजाम होता रहा है। लेकिन इस बार का संकट इतना गहरा है कि हालात उनकी अपनी-अपनी राज्य सरकारों के बूते के बाहर बताए जा रहे हैं।

कुछ राज्य सरकारों ने फौरी तौर पर दो-चार सौ करोड़ के मुआवजे का ऐलान तो किया है, लेकिन जहां ओलों और बेमौसम बारिश से चैतरफा तबाही हुई हो, उससे कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि दसियों हजार करोड़ रूपये भी कम पड़ेंगे। किसान किस कदर रो रहे हैं, इस बात का अंदाजा बुदेंलखंड और मथुरा में किसानों की आत्महत्याओं से लगाया जा सकता है। पिछले दो हफ्तों से हर रोज 8-10 परेशान किसानों की मौत की खबरें आ रही हैं। वहां कर्ज में डूबे किसानों ने जब अपनी फसलों का दो तिहाई से ज्यादा हिस्सा तबाह पाया तो कई किसानों तो सदमे से मर गए।

हैरत की बात तो यह है कि इस बार किसानों के हुए नुकसान का आंकलन करने का काम भी ठीक से नहीं हो पाया। आंकलन नहीं हो पाने के तरह-तरह के कारण भले ही बताए जाते हैं, पर यह कोई भी समझ सकता है कि प्रशासन वास्तविक स्थिति को बताकर खुद ही मुश्किल में क्यों पड़ना चाहेगा ? जहां चारों तरफ तबाही का मंजर हो, वहां जिला प्रशासन के हाथ-पैर तो वैसे ही फूल जाते हैं। तबाही वाले इलाकों में परगना अधिकारी दिन-रात किसानों के ज्ञापन लेते-लेते परेशान हैं। फसल की तबाही के आकलन में दूसरी बड़ी मुश्किल यह है कि चैतरफा तबाही का आंकलन नमूने लेकर नहीं किया जा सकता। लाखों हैक्टेयर फसल की तबाही के आंकलन के लिए प्रशासन का जितना बड़ा अमला चाहिए, वह किसी भी जगह मौजूद नहीं हैं। उधर सामाजिक संगठन हों या किसान नेता हों वे ऐसे तकनीकि काम में सक्षम नहीं हैं कि वास्तविक स्थिति का विश्वसनीय आंकलन कर सकें। उनके पास सिर्फ किसानों की आत्महत्याओं के बढ़ते आंकड़ों के अलावा बोलने को ज्यादा कुछ नहीं है।

सन् 2015 की इस आसमानी आफत का दूरगामी असर भी हमें सोच लेना चाहिए। वैसे तात्कालिक समस्या के तौर पर देखा जाए तो अनाज की इस तबाही से फिलहाल कोई बड़ा संकट पैदा होता नहीं दिखता। क्योंकि पिछले दशकों में अनाज का भारी भरकम स्टाक रखने में हम सक्षम हो गए हैं। पिछले दशकों में अनाज के मामले में अतिरिक्त उत्पादन का लक्ष्य हम हासिल कर चुके हैं। यह उपलब्धि प्राकृतिक विपदा के कारण अनाज के दाम बढ़ने को भी रोकती है। यानि किसान अपनी आमदनी कम होने की भरपाई दाम बढ़ाकर भी नहीं कर सकता। कुल मिलाकर किसान के पास बाजार के प्रचलित उपायों से भी दाम बढ़ाने का विकल्प उपलब्ध नहीं हैं। उसके पास एक ही विकल्प बचता है कि अपने घाटे का या इस जोखिम का कोई विकल्प ढूढ़े। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक से एक बड़े औद्योगिक और विकसित देश खाद्यान उत्पादन में हमेशा सचेत रहते हैं। अपनी औद्योगिक प्रकृति और व्यापारिक विकास में वे इतनी गुंजाइश निकालकर रखते हैं कि खेती से किसान का मोहभंग न होने पाए। इस बात को हमें अपने सामने रखने की आज ज्यादा जरूरत है। खासतौर पर यह तब तो और भी ज्यादा जरूरी है, जब अपने लोकतांत्रिक देश की दो तिहाई आबादी आज भी खेती पर निर्भर है - भले ही वह मजबूरी में खेती पर निर्भर हो। लेकिन यह एक दार्शनिक तथ्य भी है कि मजबूरी की भी एक सीमा होती है। बेमौसम बारिश से हुई किसानी की भारी तबाही उस सीमा को छूती लग रही है।

ऐसा नहीं है कि बेमौसम बारिश या मौसम में बारिश नहीं होने की विपत्ति सिर्फ प्राकृतिक आपदा ही है। वैज्ञानिकों का एक तबका जलवायु परिवर्तन को लेकर पिछले दो दशकों से बड़ी शिद्दत से आगाह कर रहा है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में पर्यावरणीय शोध अध्ययन हमें ऐसी आपदाओं के प्रति आगाह करते आए हैं। पिछले एक दशक में इन्हीं वैज्ञानिकों ने हमें बेकाबू औद्योगिक विकास में लगे रहने से रोका है। लगता है कि इस साल के मौसम विज्ञान संबंधी तथ्यों पर हमें और भी ज्यादा गंभीरता से गौर करना पड़ेगा। सरकारी तौर पर जो विमर्श होता है, वह तो है ही अब सामाजिक स्तर पर यानि स्वयंसेवी संगठनों के स्तर पर वैज्ञानिक सोच-विचार की जरूरत भी बढ़ गई है।

अपने विकास या समस्याओं के समाधान के लिए सरकारी विमर्श आमतौर पर एकांगी होते हैं। उनकी अपनी सीमाएं हैं। इस कारण से उनमें एक-दूसरे पर जिम्मेदारी डालने की प्रवृत्ति पनप ही जाती है। इसी कारण सामाजिक स्तर पर होने वाले विमर्शों से हम ज्यादा उम्मीद कर सकते हैं। लेकिन पर्यावरण के मुद्दों पर और प्राकृतिक विपदाओं के बहुआयामी पहलुओं पर विमर्श के लिए ज्ञान की विभिन्न शाखाओं के सामाजिक कार्यकर्ताओं को एक साथ बैठने की जरूरत है। तभी हम ऐसे किसी निष्कर्ष पर पहुंच पाएंगे कि किसानों को आश्वस्त कैसे रखा जाए ? प्राकृतिक विपदाओं के पूर्व की तैयारियां कैसे की जाएं ? अनाज और अनाज से इतर दूसरी वस्तुओं के उत्पादन में संतुलन कैसे बैठाया जाए ? लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसानों को सक्षम बनाने के लिए उद्योग व्यापार के क्षेत्र से कितनी गुंजाइश निकाली जाए ?

Monday, March 23, 2015

कैसे आए नदियों में साफ जल

    पूरा ब्रज क्षेत्र यमुना में यमुना की अविरल धारा की मांग लेकर आंदोलित है। सभी संप्रदाय, साधु-संत, किसान और आम नागरिक चाहते हैं कि ब्रज में बहने वाली यमुना देश की राजधानी दिल्ली का सीवर न ढोए, बल्कि उसमें यमुनोत्री से निकला शुद्ध यमुना जल प्रवाहित हो। क्योंकि यही जल देवालयों में अभिषेक के लिए प्रयोग किया जाता है। भक्तों की यमुना के प्रति गहरी आस्था है। इस आंदोलन को चलते हुए आज कई वर्ष हो गए। कई बार पदयात्राएं दिल्ली के जंतर-मंतर तक पहुंची और मायूस होकर खाली हाथ लौट आयीं। भावुक भक्त यह समझ नहीं पाते कि उनकी इतनी सहज-सी मांग को पूरा करने में किसी भी सरकार को क्या दिक्कत हो सकती है। विशेषकर हिंदू मानसिकता वाली भाजपा सरकार को। पर यह काम जितना सरल दिखता है, उतना है नहीं।

    यह प्रश्न केवल यमुना का नहीं है। देश के ज्यादातर शहरीकृत भू-भाग पर बहने वाली नदियों का है। पिछले दिनों वाराणसी के ऐतिहासिक घाटों के जीर्णोद्धार की रूपरेखा तैयार करने मैं अपनी तकनीकि टीम के साथ कई बार वाराणसी गया। आप जानते ही होंगे कि वाराणसी का नामकरण उन दो नदियों के नाम पर हुआ है, जो सदियों से अपना जल गंगा में अर्पित करती थीं। इनके नाम हैं वरूणा और असी। पर शहरीकरण की मार में इन नदियों को सुखा दिया। अब यहां केवल गंदा नाला बहता है। इसी तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश की रामगंगा नदी लगभग सूख चुकी है। इसमें गिरने वाली गागन और काली नदी जैसी सभी सहायक नदियां आज शहरों का दूषित जल, कारखानों की गंदगी और सीवर लाइन का मैला ढो रही हैं। पुणे शहर की मूला और मूथा नदियों का भी यही हाल है। मेरे बचपन का एक चित्र है, जब में लगभग 3 वर्ष का पुणे की मूला नदी के तट पर अपनी मां के साथ बैठा हूं। पीछे से नदी का प्रवाह, उसके प्रपात और बड़े-बड़े पत्थरों से टकराती उसकी लहरें ऐसा दृश्य उत्पन्न कर रही थीं, मानो यह किसी पहाड़ की वेगवती नदी हो। पर अभी पिछले दिनों मैं दोबारा जब पुणे गया, तो देखकर धक्क रह गया कि ये नदियां अब शहर का एक गंदा नाला भर रह गई हैं।

    यही हाल जीवनदायिनी मां स्वरूप गंगा का भी है। जिसके प्रदूषण को दूर करने के लिए अरबों रूपया सरकारें खर्च कर चुकी हैं। पर कानपुर हो या वाराणसी या फिर आगे के शहर गंगा के प्रदूषण को लेकर वर्षों से आंदोलित हैं। पर कोई समाधान नहीं निकल रहा है। कारण सबके वही हैं - अंधाधुंध वनों की कटाई, शहरीकरण का विकराल रूप, अनियंत्रित उद्योगों का विस्तार, प्रदूषण कानूनों की खुलेआम उड़ती धज्जियां और हमारी जीवनशैली में आया भारी बदलाव। इस सबने देश की नदियों की कमरतोड़ दी है।

शुद्ध जल का प्रवाह तो दूर अब ये नदियां कहलाने लायक भी नहीं बची। सबकी सब नाला बन चुकी हैं। अब यमुना को लेकर जो मांग आंदोलनकारी कर रहे हैं, अगर उसका हल प्रधानमंत्री केे पास होता तो धर्मपारायण प्रधानमंत्री उसे अपनाने में देर नहीं लगाते। पर हकीकत ये है कि सर्वोच्च न्यायालय, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एवं ग्रीन ट्यूबनल, सबके सब चाहें जितने आदेश पारित करते रहें, उन्हें व्यवहारिक धरातल पर उतारने में तमाम झंझट हैं। जब पहले ही दिल्ली अपनी आवश्यकता से 70 फीसदी कम जल से काम चला रही हो, जब हरियाणा के किसान सिंचाई के लिए यमुना की एक-एक बूंद खींच लेना चाहते हों, तो कहां से बहेगी अविरल यमुना धारा ? हथिनीकुंड के फाटक खोलने की मांग भावुक ज्यादा है, व्यवहारिक कम। ये शब्द आंदोलनकारियों को कड़वे लगेंगे। पर हम इसी काॅलम में यमुना को लेकर बार-बार बुनियादी तथ्यों की ओर ध्यान दिलाते रहे हैं। पर ऐसा लगता है कि आंदोलन का पिछला नेतृत्व करने वाला नेता तो फर्जी संत बनने के चक्कर में और ब्रजवासियों को टोपी पहनाने के चक्कर में लगा रहा मगर अब उसका असली रूप सामने आ गया। उसे ब्रजवासियों ने नकार दिया। अब दोबारा जब आन्दोलन फिर खड़ा हुआ है तो ज्यादातर लोग तो क्षेत्र में अपनी नेतागिरि चमकाने के चक्कर में लगे हुए हैं। करोड़ों रूपया बर्बाद कर चुके हैं। भक्तों और साधारण ब्रजवासियों को बार-बार निराश कर चुके हैं और झूठे सपने दिखाकर लोगों को गुमराह करते रहे हैं। पर कुछ लोग ऐसे है जो रात दिन अग्नि में तप कर इस आंदोलन को चला रहे हैं।

सरकार के मौजूदा रवैये से अब एक बार फिर उनकी गाड़ी एक ऐसे मोड़ पर फंस गई है, जहां आगे कुंआ और पीछे खाई है। आगे बढ़ते हैं, तो कुछ मिलने की संभावना नहीं दिखती। विफल होकर लौटते हैं, तो जनता सवाल करेगी, करें तो क्या करें। मौजूदा हालातों में तो कोई हल नजर आता नहीं। पर भौतिक जगत के सिद्धांत आध्यात्मिक जगत पर लागू नहीं होते। इसलिए हमें अब भी विश्वास है कि अगर कभी यमुना में जल आएगा तो केवल रमेश बाबा जैसे विरक्त संतों की संकल्पशक्ति से आएगा, किसी की नेतागिरी चमकाने से नहीं। संत तो असंभव को भी संभव कर सकते हैंै, इसी उम्मीद में हम भी बैठे हैं कि काश एक दिन वृंदावन के घाटों पर यमुना के शुद्ध जल में स्नान कर सकें।

Monday, March 16, 2015

विरासत बचाने की नई पहल

जब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के ऐतिहासिक नगरों की विरासत बचाने के लिए विशेष पहल की है, तब से ऐसे शहरों में नए-नए प्रोजेक्ट बनाने के लिए नौकरशाही अति उत्साहित हो गई है। जबकि हकीकत यह है कि इन ऐतिहासिक नगरों के पतन का कारण प्रशासनिक लापरवाही और नासमझी रही है। पूरे देश में यही देखने में आता है कि जो भी अधिकारी ऐसे शहरों में तैनात किया जाता है, वह बिना किसी सलाह के अपनी सीमित बुद्धि से विकास या सौंदर्यीकरण के कारण शुरू करा देता है। अक्सर देखने में आया है कि ये सब कार्य काफी निम्नस्तर के होते हैं। इनमें कलात्मकता का नितांत अभाव होता है। इनका अपने परिवेश से कोई सामंजस्य नहीं होता। अजीब किस्म का विद्रूप विकास देखने में आता है। चाहे फिर वह भवन निर्माण हो, बगीचों की बाउंड्रीवाॅल हो, बिजली के खंभे हों या साइनेंज हो, किसी में भी स्थानीय संस्कृति की झलक दिखाई नहीं देती। इससे कलाप्रेमियों को भारी चोट लगती है। उन्हें लगता है कि विकास के नाम पर गौरवशाली परंपराओं का विनाश किया जा रहा है। 

मुश्किल यह है कि कुर्सी पर बैठा आदमी अपनी बुद्धि को सर्वश्रेष्ठ मानता है। ऐसे सलाहकार नियुक्त कर लेता है कि जिन्हें पीडब्लूडी के क्वाटर और विरासत के भवनों के बीच कोई अंतर ही नजर नहीं आता। न तो उनमें कलात्मकता का बोध होता है और न दुनिया में ऐसी विरासतों को देखने का अनुभव। लिहाजा, जो भी परियोजना वह बनाकर देते हैं, उससे विरासत का संरक्षण होने की बजाए विनाश हो जाता है। 

प्रधानमंत्री ने हृदय योजना की घोषणा की, तो प्रधानमंत्री की सोच यह है कि दकियानूसी दायरों से निकलकर नए तरीके से सोचा जाए और प्रमाणिक लोगों से योजनाएं बनवाई जाएं और काम करवाए जाएं। पर हो क्या रहा है कि वही नौकरशाही और वही सलाहकार देशभर में सक्रिय हो गए हैं, जो आज तक विरासत के विनाश के लिए जिम्मेदार रहे हैं। शहरी विकास मंत्रालय को सचेत रहकर इस प्रवृत्ति को रोकना होगा, जिससे यह नई नीति पल्लवित हो सके। इसकी असमय मृत्यु न हो जाए। 

किसी भी विरासत को बचाने के लिए सबसे पहले जरूरत इस बात की होती है कि उस विरासत का सांस्कृतिक इतिहास जाना जाए। उसकी वास्तुकला को समझा जाए। उसमें से अवैध कब्जे हटाए जाएं। उस पर हो रहे भौड़े नवनिर्माण खत्म किए जाएं। उसकी परिधि को साफ करके हरा-भरा बनाया जाए और ऐसे योग्य लोगों की सलाह ली जाए, जो उस विरासत को उसके मूलरूप में लाने की क्षमता रखते हों। इसके लिए गैरपारंपरिक रवैया अपनाना होगा। पुरानी टेंडर की प्रक्रिया और सरकारी शर्तों का मकड़जाल कभी भी गुणवत्ता वाला कार्य नहीं होने देगा। 

इसके साथ ही जरूरत इस बात की है कि देश में जितने भी आर्किटेक्चर के काॅलेज हैं, उनके शिक्षक और छात्र अपने परिवेश में बिखरी पड़ी सांस्कृतिक विरासतों को सूचीबद्ध करें और उनके विकास की योजनाएं बनाएं। इससे दो लाभ होंगे-एक तो भूमाािफयाओं की लालची निगाहों से विरासत को बचाया जा सकेगा, दूसरा जब उस विरासत पर गहन अध्ययन के बाद पूरी परियोजना तैयार होगी, तो जैसे ही साधन उपलब्ध हों, उसका संरक्षण करना आसान होगा। इसलिए बगैर इस बात का इंतजार किए कि संरक्षण का बजट कब मिलेगा, अध्ययन का काम तुरंत चालू हो जाना चाहिए। 

कोई कितना भी जीर्णोद्धार या संरक्षण कर ले, तब तक विरासत नहीं बच सकती, जब तक स्थानीय युवा और नागरिक यह तय न कर लें कि उन्हें अपनी विरासत सजानी है, संवारनी है। अगर वो विरासत को बचाने के लिए राजी हो जाते हैं, तो उनमें बचपन से ही विरासत के प्रति सम्मान पैदा होगा। तभी हम आने वाली पीढ़ियों को एक विशाल विरासत सौंप पाएंगे। वरना सबकुछ धीरे-धीरे काल के गाल में समाता जा रहा है। 

अक्सर लोग कहते हैं कि सरकार के साथ काम करना मुश्किल होता है। पर ब्रज में जीर्णोद्धार के जो कार्य पिछले 10 वर्षों में हमने किए हैं, उसमें अनेक उत्साही युवा जिलाधिकारियों का हमें भरपूर सहयोग मिला है और इससे हमारी यह धारणा दृढ़ हुई है कि प्रशासन और निजी क्षेत्र यदि एक-सी दृष्टि अपना लें और एक-दूसरे के विरोधी न होकर पूरक बन जाएं, तो इलाके की दिशा परिवर्तन तेजी से हो सकती है। विरासत बचाना मात्र इसलिए जरूरी नहीं कि उसमें हमारा इतिहास छिपा है, बल्कि इसलिए भी जरूरी है कि विरासत को देखकर नई पीढ़ी बहुत सा ज्ञान अर्जित करती है। इसके साथ ही विरासत बचने से पर्यटन बढ़ता है और उसके साथ रोजगार बढ़ता है। इसलिए ये केवल कलाप्रेमियों का विषय नहीं, बल्कि आमजनता के लाभ का विषय है।