Monday, May 27, 2024

आईआईटी की डिग्री भी नाकाम रही


इस हफ़्ते अखबारों में जिस खबर ने सबको चौंकाया वह थी कि इस साल आईआईटी से पास हुए 38 फ़ीसदी युवाओं को रोज़गार नहीं मिला। ये अनहोनी घटना है। वरना होता ये था कि आईआईटी में प्रवेश मिला तो बढ़िया रोज़गार की गारंटी होती थी। फ़र्क़ इतना ही होता था कि किसी को 60 लाख रुपए साल का पैकेज मिलता था तो किसी को 3 करोड़ रुपये साल का भी। पर इस साल तो आईआईटी की प्रतिष्ठित डिग्री के बावजूद 50 हज़ार महीने की भी नौकरी नहीं मिल रही। इससे युवाओं में भारी हताशा फैली है। आगे स्थिति सुधरने के कोई आसार नज़र नहीं आते। क्योंकि पूरी दुनिया में मंदी का असर फैलता जा रहा है। अब पता नहीं इन युवाओं को कितने बरस घर बैठना पड़ेगा या मामूली नौकरी से ही संतोष करना पड़ेगा।
 

सोचने वाली बात यह है कि आईआईटी में दाख़िला और उसकी पढ़ाई कोई आसान काम नहीं होता। माँ बाप और उनके होनहार बच्चे लाखों रुपया और बरसों की तपस्या झोंक कर आईआईटी में दाख़िले की तैयारी करते हैं। दिल्ली का मुखर्जी नगर हो या राजस्थान का कोटा शहर आईआईटी के अभ्यर्थियों को यहाँ लाखों की तादाद में संघर्ष करते हुए देखा जा सकता है। जिसके बाद दाख़िला मिल जाए इसकी कोई गारंटी नहीं होती। सोचिए कि एक मध्यम वर्गीय परिवार पर क्या बीत रही होगी जब उन्हें अपने बेरोज़गार बच्चों के लटकते चेहरे रोज़ देखने पड़ रहे हैं। जबकि इसमें न तो युवाओं का दोष है और न ही उनके परिवार का। ये संकट आर्थिक नीतियों की कमियों के कारण उत्पन्न हुआ है।    

  


कुछ वर्ष पहले मद्रास आईआईटी के प्रोफ़ेसर एम सुरेश बाबू और साईं चंदन कोट्टू ने देश की बेरोज़गारी पर एक तथ्यात्मक शोध पत्र प्रस्तुत किया था। उनका कहना है कि 50 हज़ार करोड़ के ‘गरीब कल्याण रोज़गार अभियान’ से फ़ौरी राहत भले ही मिल जाए पर शहरों में इससे सम्माननीय रोज़गार नहीं मिल सकता। देश के आर्थिक और सामाजिक ढाँचे को देखते हुए शहरों में अनौपचारिक रोज़गार की मात्रा को क्रमशः घटा कर औपचारिक रोज़गार के अवसर को बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए। देश की सिकुड़ती हुई अर्थव्यवस्था के कारण बेरोज़गारी ख़तरनाक स्तर पर पहुँच चुकी है। भवन निर्माण क्षेत्र में 50%, व्यापार, होटेल व अन्य सेवाओं में 47%, औद्योगिक उत्पादन क्षेत्र में 39% और खनन क्षेत्र में 23% बेरोज़गारी फैल चुकी है। 


चिंता की बात यह है कि ये वो क्षेत्र हैं जो देश को सबसे ज़्यादा रोज़गार देते हैं। इसलिए उपरोक्त आँकड़ों का प्रभाव भयावह है। जिस तीव्र गति से ये क्षेत्र सिकुड़ रहे हैं उससे तो और भी तेज़ी से बेरोज़गारी बढ़ने की स्थितियाँ पैदा हो रही हैं। दो वक्त की रोटी का भी जुगाड़ न कर पाने की हालत में लाखों मज़दूर व अन्य लोग जिस तरह लॉकडाउन शुरू होते ही पैदल ही अपने गाँवों की ओर चल पड़े उससे इस स्थिति की भयावहता का पता चलता है। 



उल्लेखनीय है कि दक्षिण एशिया के देशों में अनौपचारिक रोज़गार के मामले में भारत सबसे ऊपर है। जिसका मतलब हुआ कि हमारे देश में करोड़ों मज़दूर कम मज़दूरी पर, बेहद मुश्किल हालातों में काम करने पर मजबूर हैं, जहां इन्हें अपने बुनियादी हक़ भी प्राप्त नहीं हैं। इन्हें नौकरी देने वाले जब चाहे रखें, जब चाहें निकाल दें। क्योंकि इनका ट्रेड यूनीयनों में भी कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार भारत में 53.5 करोड़ मज़दूरों में से 39.8 करोड़ मज़दूर अत्यंत दयनीय अवस्था में काम करते हैं। जिनकी दैनिक आमदनी 200 रुपय से भी कम होती है। इसलिए नई सरकार के सामने दो बड़ी चुनौतियाँ होंगी। पहली; शहरों में रोज़गार के अवसर कैसे बढ़ाए जाएं? क्योंकि पिछले 10 वर्षों में बेरोज़गारी का फ़ीसदी लगातार बढ़ता गया है। आज भारत में 45 वर्षों में सबसे ज़्यादा बेरोज़गारी है। दूसरा; शहरी मज़दूरों की आमदनी कैसे बढ़ाएँ, जिससे उन्हें अमानवीय स्थित से बाहर निकाला जा सके।



4 जून को लोकसभा के चुनाव परिणाम आ जाएँगे। सरकार जिस दल की भी बने उसे तीन काम करने होंगे। भारत में शहरीकरण का विस्तार देखते हुए, शहरी रोज़गार बढ़ाने के लिए स्थानीय सरकारों के साथ समन्वय करके नीतियाँ बनानी होंगी। इससे यह लाभ भी होगा कि शहरीकरण से जो बेतरतीब विकास और गंदी बस्तियों का सृजन होता है उसको रोका जा सकेगा। इसके लिए स्थानीय शासन को अधिक संसाधन देने होंगे। दूसरा; स्थानीय स्तर पर रोज़गार सृजन वाली विकासात्मक नीतियाँ लागू करनी होंगी। तीसरा; शहरी मूलभूत ढाँचे पर ध्यान देना होगा जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था भी सुधरे। चौथा; देखा यह गया है, कि विकास के लिए आवंटित धन का लाभ शहरी मज़दूरों तक कभी नहीं पहुँच पाता और ऊपर के लोगों में अटक कर रह जाता है। इसलिए नगर पालिकाओं में विकास के नाम पर ख़रीदी जा रही भारी मशीनों की जगह अगर मानव श्रम आधारित शहरीकरण को प्रोत्साहित किया जाएगा तो शहरों में रोज़गार बढ़ेगा। पाँचवाँ; शहरी रोज़गार योजनाओं को स्वास्थ्य और सफ़ाई जैसे क्षेत्र में तेज़ी से विकास करके बढ़ाया जा सकता है। क्योंकि हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आज यह हालत नहीं है कि वो प्रवासी मज़दूरों को रोज़गार दे सके। अगर होती तो वे गाँव छोड़ कर शहर नहीं गए होते। 


मौजूदा हालात में यह सोचना कि मनरेगा से या ऐसी किसी अन्य योजना से आम लोगों को रोज़गार मिल जाएगा, नासमझी होगी। ये ज़रूरी है कि मनरेगा के तहत आवंटित धन और न्यूनतम कार्य दिवस, दोनों को बढ़ाया जाए। पर साथ ही यह मान बैठना कि जो मज़दूर लौट कर गाँव गए हैं उन्हें मनरेगा से या ऐसी किसी अन्य योजना से सम्भाला जा सकता है, अज्ञानता होगी। ये वो मज़दूर हैं जिन्हें मनरेगा के अंतर्गत मज़दूरी करने में रुचि नहीं रही होगी तभी तो वे गाँव छोड़ कर शहर की ओर गए। फिर भी मनरेगा को तो बढ़ाना और मज़बूत करना होगा ही। पर इससे करोड़ों बेरोज़गारों का एक छोटा सा अंश ही संभल पाएगा। जबकि बेरोज़गारों में ज़्यादा तादाद उनकी है जिनकी शहरों में रोज़गार करने में रुचि है। इसलिए शहर में सम्माननीय रोज़गार पैदा करना समय की माँग है और नई सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगा। क्योंकि ये तो सिर्फ़ शहरी मज़दूरों की बात हुई जबकि दूसरी तरफ़ करोड़ों नौजवान आज देश में बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ लेकर भी बेरोज़गार हैं। इनके लिए फ़ौरन कुछ करना होगा वरना देश के युवाओं में बढ़ते आक्रोश को सम्भालना बहुत मुश्किल हो जाएगा।

Monday, May 20, 2024

‘लापता लेडीज़’ से महिलाओं को सबक़


बचपन से पढ़ते आए हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। पिछले सौ वर्षों से फ़िल्मों को भी इस श्रेणी में रखा जा सकता है। ख़ासकर उन फ़िल्मों को जिनके कथानक में सामाजिक सरोकार के मुद्दे उठाए जाते हैं। इसी क्रम में एक नई फ़िल्म आई है ‘लापता लेडीज़’ जो काफ़ी चर्चा में है। मध्य प्रदेश की ग्रामीण पृष्ठभूमि में बनाई गई ये फ़िल्म महिलाओं के लिए बहुत उपयोगी है। विशेषकर ग्रामीण महिलाओं के लिए।


फ़िल्म की शुरुआत एक रोचक परिदृश्य से होती है जिसमें दो नवविवाहित दुल्हनें लंबे घूँघट के कारण रेल गाड़ी के डिब्बे में एक दूसरे के पति के साथ चली जाती हैं। उसके बाद की कहानी इन दो महिलाओं के संघर्ष की कहानी है जो अंत में अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेती हैं। इस कहानी का सबसे बड़ा सबक़ तो यह है कि नवविवाहिताओं को इतना लंबा घूँघट निकालने के लिए मजबूर न किया जाए। उनका सिर ज़रूर ढका हो पर चेहरा खुला हो। दूसरा सबक़ यह है कि ग्रामीण परिवेश में पाली-बढ़ी, अनपढ़ या कम पढ़ी लिखी लड़कियों को विदा करते समय उनके घर वालों को उस लड़की के ससुराल और मायके का पूरा नाम पता और फोन नंबर लिख कर देना चाहिए। जैसा प्रायः मेलों और पर्यटन स्थलों में जाते समय शहरी माता-पिता अपने बच्चों की जेब में नाम पता लिख कर पर्ची रख देते हैं। अगर भीड़ में बच्चा खो भी जाए तो यह पर्ची उसकी मददगार होती है। 



इस फ़िल्म का तीसरा संदेश यह है कि शहरी लड़कियों की तरह अब ग्रामीण लड़कियाँ भी पढ़ना और आगे बढ़ना चाहती हैं। जबकि उनके माँ-बाप इस मामले में उनको प्रोत्साहित नहीं करते और कम उम्र में ही अपनी लड़कियों का ब्याह कर देना चाहते हैं। ऐसा करने से उस लड़की की आकांक्षाओं पर कुठाराघात हो जाता है और उसका शेष जीवन हताशा में गुज़रता है। आज के इंटरनेट और सोशल मीडिया के युग में शायद ही कोई गाँव होगा जो इनके प्रभाव से अछूता हो। हर क़िस्म की जानकारी, युवक-युवतियों को स्मार्ट फ़ोन पर घर बैठे ही मिल रही है। ज़रूरी नहीं कि सारी जानकारी सही ही हो, इसलिए उसकी विश्वसनीयता जाँचना, परखना ज़रूरी होता है। अगर जानकारी सही है और ग्रामीण परिवेश में पाल रही कोई युवती उसके आधार पर आगे पढ़ना और अपना करियर बनाना चाहती है तो उसे प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इस फ़िल्म में दिखाया है कि कैसे एक युवती को उसके घरवालों ने उसकी मर्ज़ी के विरुद्ध उसकी शादी एक बिगड़ैल आदमी से कर दी और जैविक खेती को पढ़ने, सीखने की उसकी अभिलाषा कुचल दी गई। पर परिस्थितियों ने ऐसा पलटा खाया कि ये जुझारू युवती विपरीत परिस्थितियों से जूझते हुए अपने गंतव्य तक पहुँच गई। पर ऐसा जीवट और क़िस्मत हर किसी की नहीं होती। 



बचपन में सरकार प्रचार करवाती थी कि ‘लड़कियाँ हो या लड़के, बच्चे दो ही अच्छे’ पिछले 75 सालों में केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा तमाम योजनाएँ चलाई गईं, जिनमें लड़कियों को पढ़ाने, आगे बढ़ाने और आत्मनिर्भर बनाने के अनेकों कार्यक्रम चलाए गए और इसका असर भी हुआ। आज कोई भी कार्य क्षेत्र ऐसा नहीं है जहां महिलाएँ सक्रिय नहीं हैं। पिछले दिनों संघ लोक सेवा आयोग के परिणामों में ऐसे कई सुखद समाचार मिले जब निर्धन, अशिक्षित और मज़दूरी पेशा परिवारों की लड़कियाँ प्रतियोगी परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो कर पुलिस या प्रशासनिक अधिकारी बन गईं। बावजूद इसके देश में महिलाओं की स्थिति अच्छी नहीं है। हाल ही में कर्नाटक की हसन लोकसभा से उम्मीदवार प्रज्वल रेवन्ना के तथाकथित लगभग 3000 वीडियो सोशल मीडिया पर जारी हुए जिसमें आरोपी पर हर उम्र की सैकड़ों महिलाओं के साथ जबरन यौनाचार करने के दिल दहलाने वाले दृश्य हैं। आरोपी अब देश छोड़ कर भाग चुका है। कर्नाटक सरकार की ‘एस आई टी’ जाँच में जुटी है। पर क्या ऐसे प्रभावशाली लोगों का क़ानून कुछ बिगाड़ पाता है? 



पिछले वर्ष मणिपुर में युवतियों को निर्वस्त्र करके जिस तरह भीड़ ने उन्हें अपमानित किया उसने दुनिया भर के लोगों की आत्मा को झकझोर दिया। पश्चिमी एशिया में तालिबानियों और आतंकवादियों के हाथों प्रताड़ित की जा रही नाबालिग बच्चियों और महिलाओं के रोंगटे खड़े कर देने वाले दृश्य अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में छाए रहते हैं। भारत में दलित महिलाओं को सार्वजनिक रूप से निर्वस्त्र करने, प्रताड़ित करने, उनसे बलात्कार करने और उनकी हत्या कर देने के मामले आय दिन हर राज्य से सामने आते रहते हैं। पुलिस और क़ानून बहुत कम मामलों में प्रभावी हो पाता है और वो काफ़ी देर से। 


महिलाओं पर पुरुषों के अत्याचार का इतिहास सदियों पुराना है। क़बीलाई समाज से लेकर सामंती समाज और सामंती समाज से लेकर के आधुनिक समाज तक के सैंकड़ों वर्षों के सफ़र में हमेशा महिलाएँ ही पुरुषों की हैवानियत का शिकार हुई हैं। कैसी विडंबना है कि माँ दुर्गा, माँ सरस्वती और माँ लक्ष्मी की उपासना करने वाले भारतीय समाज में भी महिलाओं को वो सम्मान और सुरक्षा नहीं मिल पाई है जिसकी वो हक़दार हैं। ऐसे में ‘लापता लेडीज़’ जैसी दर्जनों फ़िल्मों की ज़रूरत है जो पूरे समाज को जागरूक कर सके। महिलाओं के प्रति संवेदनशील बना सकें और उनके लिए आगे बढ़ने के लिए अवसर भी प्रदान कर सकें। 


एक महिला जब सक्षम हो जाती है तो वो तीन पीढ़ियों को सम्भालती है। अपने सास-ससुर की पीढ़ी, अपनी पीढ़ी और अपने बच्चों की पीढ़ी। पर यह बात बार-बार सुनकर भी पुरुष प्रधान समाज अपना रवैया बदलने को तैयार नहीं है। इस दिशा में समाज सुधारकों, धर्म गुरुओं और सरकार को और भी ज़्यादा गंभीर प्रयास करने चाहिए। बेटियों को मिलने वाली चुनौतियों से घबराकर कुछ विकृत मानसिकता के परिवार कन्या भ्रूण हत्या जैसे अमानवीय कृत्य करने लग जाते हैं। इस दिशा में कुछ वर्ष पहले एक विज्ञापन जारी हुआ था जिसमें हरियाणा के गाँव में एक नौजवान अपने घर की छत पर थाली पीट रहा था। प्रायः पुत्र जन्म की ख़ुशी में वहाँ ऐसा करने का रिवाज है। पर इस नौजवान की थाली की आवाज़ सुन कर वहाँ जमा हुए पचासों ग्रामवासियों को जब यह पता चला कि ये नौजवान अपने घर जन्मीं बेटी की ख़ुशी में इतना उत्साहित है तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। काश हम ऐसा समाज बना सकें।  

Monday, May 6, 2024

रेगिस्तान में बाढ़


एक ही महीने में दूसरी बार दुबई में बादल फटने से बाढ़ के हालात पैदा हो गये। रेगिस्तान की तपती रेत  में पानी का मिलना सदियों से एक आकस्मिक और चमत्कारिक घटना माना जाता है। तपती रेत पर हवा गर्म हो कर कई बार पानी होने का भ्रम देती है और प्यासा उसकी तलाश में भटकता रहता है। इसे ही मृग तृष्णा कहते हैं। गर्म रेत के अंधड़ों से बचने के लिए ही खाड़ी के देशों के लोग ‘जलेबिया’ यानी सफ़ेद लंबा चोग़ा पहनते हैं और सिर पर कपड़े को गोल छल्लों से कस कर बांधते हैं, जिससे आँधी में वो उड़ न जाए। इन रेगिस्तानी देशों में ऊँट की लोकप्रियता का कारण भी यही है कि वो कई दिन तक प्यासा रह कर भी सेवाएँ देता रहता है और रेत में तेज़ी से दौड़ लेता है। इसीलिए उसे रेगिस्तान का जहाज़ भी कहते हैं। 



जब से खाड़ी के देशों में पैट्रो-डॉलर आना शुरू हुआ है तब से तो इनकी रंगत ही बदल गई। दुनिया के सारे ऐशो आराम और चमक - दमक इनके शहरों में छाह गई। अकूत दौलत के दम पर इन्होंने दुबई के रेगिस्तान को एक हरे-भरे शहर में बदल दिया। जहां घर-घर स्विमिंग पूल और फ़व्वारे देख कर कोई सोच भी नहीं सकता कि ये सब रेगिस्तान में हो रहा है। पर जैसे ही आप दुबई शहर से बाहर निकलते हैं आपको चारों ओर रेत के बड़े - बड़े टीले ही नज़र आते हैं। न हरियाली और न पानी। इन हालातों में ये स्वाभाविक ही था कि दुबई का विकास इस तरह किया गया कि उसमें बरसाती पानी को सहेजने की कोई भी व्यवस्था नहीं है। इसलिए जब 75 साल बाद वहाँ बादल फटा तो बाढ़ के हालात पैदा हो गये। कारें और घर डूब गये। हवाई अड्डे में इतना पानी भर गया कि दर्जनों उड़ाने रद्द करनी पड़ी। एक तरफ़ इस चुनौती से दुबई वासियों को जूझना था  और दूसरी तरफ़ वे इतना सारा पानी और इतनी भारी बरसात देख कर हर्ष में डूब गये। 



पर ऐसा हुआ कैसे? क्या ये वैश्विक पर्यावरण में आये बदलाव का परिणाम था या कोई मानव निर्मित घटना? खाड़ी देशों में आई इस बाढ़ की वजह को कुछ विशेषज्ञों ने ‘क्लाउड सीडिंग’ यानी कृत्रिम बारिश को बताया है। जब एक निश्चित क्षेत्र में अचानक अपेक्षा से कहीं गुना ज़्यादा बारिश हो जाती है, तो उसे हम बादल फटना कहते हैं। कुछ वर्ष पहले इसी तरह की घटना भारत में केदारनाथ, मुंबई और चेन्नई में भी हुई थी। तब से आम लोगों को ये जानने की जिज्ञासा रही है कि ऐसा कैसे और क्यों हुआ? दरअसल आधुनिक वैज्ञानिकों ने अब इतनी तरक़्क़ी कर ली है कि वे बादलों में बारिश का बीजारोपण करके कहीं भी और कभी बारिश करवा सकते हैं। वे करते ये हैं कि जहां पर ज़्यादा भाप से भरे बादल इकट्ठा होते हैं उसमें ‘क्लाउड सीडिंग’ कर देते हैं।  



हालांकि, हाल ही में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार अमेरिकी मौसम वैज्ञानिक रयान माउ इस बात को मानने से इनकार करते हैं कि दुबई में बाढ़ की वजह ‘क्लाउड सीडिंग’ है। उनके मुताबिक खाड़ी देशों पर बादल की पतली लेयर होती है। वहां ‘क्लाउड सीडिंग’ के बावजूद इतनी बारिश नहीं हो सकती है कि बाढ़ आ जाए। ‘क्लाउड सीडिंग’ से एक बार में बारिश हो सकती है। इससे कई दिनों तक रुक-रुक कर बारिश नहीं होती जैसा की वहां हो रहा है। माउ के मुताबिक अमीरात और ओमान जैसे देशों में तेज बारिश की वजह ‘क्लाइमेट चेंज’ है। जो ‘क्लाउड सीडिंग’ पर इल्जाम लगा रहे हैं वो ज्यादातर उस मानसिकता के हैं जो ये मानते ही नहीं कि ‘क्लाइमेट चेंज’ जैसी कोई चीज़ होती है।



‘क्लाउड सीडिंग’ तकनीक हमेशा से बहस का विषय बनी रही है। दशकों के शोध से स्थैतिक और गतिशील बीजारोपण तकनीकें सामने आई हैं। ये तकनीकें 1990 के दशक के अंत तक प्रभावशीलता के संकेत दिखाती हैं। परंतु कुछ संशयवादी लोग सार्वजनिक सुरक्षा और पर्यावरण के लिए संभावित खतरों पर जोर देते हुए ‘क्लाउड सीडिंग’ के ख़तरों पर ज़ोर देते हुए इसके ख़िलाफ़ शोर मचाते रहे हैं। चूंकि सरकारें और निजी कंपनियां जोखिमों के बदले लाभ को ज़्यादा महत्व देती हैं, इसलिए ‘क्लाउड सीडिंग’ एक विवाद का विषय बना हुआ है। जबकि कुछ देशों में इसे कृषि और पर्यावरणीय उद्देश्यों के लिए अपनाया जाता है। इतना ही नहीं अन्य संभावित परिणामों से अवगत होकर ऐसे देश इस पर सावधानी से आगे बढ़ते हैं।


यदि इतिहास की बात करें तो ‘क्लाउड सीडिंग’ का आयाम वियतनाम युद्ध के दौरान ‘ऑपरेशन पोपेय’ जैसी घटनाओं से मेल खाता है। उस समय मौसम में संशोधन एक सैन्य उपकरण था। विस्तारित मानसून के मौसम और परिणामी बाढ़ के कारण 1977 में एक अंतरराष्ट्रीय संधि हुई जिसमें मौसम संशोधन के सैन्य उपयोग पर रोक लगा दी गई। रूसी संघ और थाईलैंड जैसे देश हीटवेव और जंगल की आग को दबाने के लिए इसका सफलतापूर्वक उपयोग कर रहे हैं, जबकि अमेरिका, चीन और ऑस्ट्रेलिया सूखे को कम करने के लिए वर्षा के दौरान पानी के अधिकतम उपयोग के लिए इसकी क्षमता का उपयोग कर रहे हैं। संयुक्त अरब अमीरात में इस तकनीक का उपयोग अपनी कृषि क्षमताओं का विस्तार करने और अत्यधिक गर्मी से लड़ने के लिए सक्रिय रूप से किया जाता है।


एक शोध के अनुसार यह पता चला है कि कुछ विदेशी कंपनियाँ इसे सक्रिय रूप से नियोजित करती हैं, विशेषकर ओला-प्रवण क्षेत्रों में जहाँ बीमा कंपनियाँ संपत्ति के नुकसान को कम करने के लिए परियोजनाओं को वित्तपोषित करती हैं। ‘क्लाउड सीडिंग’ के प्रयोग विभिन्न आयामों में फैले हुए हैं। सूखे को कम करने के लिए वर्षा पैदा करना। कृषि क्षेत्र में ओलावृष्टि के प्रबंधन करना। स्की रिसॉर्ट क्षेत्र में भारी बर्फबारी करवा कर इसका लाभ उठाना। जलविद्युत कंपनियों द्वारा इसका उपयोग कर वसंत अपवाह को बढ़ावा देना। ऐसा करने से कोहरे को साफ करने में भी मदद मिलती है, जिससे हवाई अड्डों पर विसिबिलिटी भी बढ़ती है। 


आर्थिक लाभ के लिए सरकारें और उद्योगपति कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। यही बात ‘क्लाउड सीडिंग’ के मामले में भी लागू होती है। जबकि ‘क्लाउड सीडिंग’ लंबे समय तक बने रहने वाले स्वास्थ्य जोखिमों पर भी गंभीरता से ध्यान दिये जाने की ज़रूरत है। आधुनिकता के नाम पर जैसे-जैसे हम ‘क्लाउड सीडिंग’ के क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं, विशेषज्ञों द्वारा इसके सभी आयामों पर शोध करना एक नैतिक अनिवार्यता है। ऐसे शोध न केवल संपूर्ण हों, बल्कि ‘क्लाउड सीडिंग’ के स्वास्थ्य जोखिमों के खिलाफ संभावित लाभों का आकलन भी करता हो। वरना दुबई जैसी तबाही के दृश्य अन्य देशों में भी देखने को मिलते रहेंगे। 

Monday, April 29, 2024

बाबा रामदेव क्यों फँसे?

1989 में जब मैंने देश की पहली हिन्दी वीडियो समाचार कैसेट ‘कालचक्र’ जारी की तो उसमें तमाम खोजी रिपोर्ट्स के अलावा एक स्लॉट भ्रामक विज्ञापनों को भी कटघरे में खड़े करने वाला था। ये वो दौर था जब प्रभावशाली विज्ञापन सिनेमा हॉल के पर्दों पर दिखाए जाते थे या दूरदर्शन के कार्यक्रमों के बीच में। उस दौर में इन कमर्शियल विज्ञापनों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाने का प्रचलन नहीं था। इस दिशा में देश के कुछ जागरूक नागरिकों को बड़ी कामयाबी तब मिली जब उन्होंने सिगरेट बनाने वाली कंपनियों को मजबूर कर दिया कि वो सिगरेट की डिब्बी पर ये छापें ‘सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है’। 

चूँकि ज़्यादातर विज्ञापन प्रिंट मीडिया में छपते थे और मीडिया कोई भी हो बिना विज्ञापनों की मदद के चल ही नहीं पता। इसलिए मीडिया में भ्रामक विज्ञापनों के विरुद्ध प्रश्न खड़े करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। उस पीढ़ी के जागरूक देशवासी जानते हैं कि हमारी कालचक्र वीडियो मैगज़ीन ने अपनी दमदार व खोजी टीवी रिपोर्ट्स के कारण पहला अंक जारी होते ही देश भर में तहलका मचा दिया था। जो काम देश के बड़े-बड़े स्थापित मीडिया घराने करने की हिम्मत नहीं दिखा पाए वो हिम्मत कालचक्र की हमारी छोटी सी जुझारू टीम ने कर दिखाया। उत्साह जनक बात यह थी कि देश भर के हर भाषा के मीडिया ने कालचक्र के हर अंक को अपने प्रकाशनों की सुर्ख़ियाँ बनाया। 


उस दौर में जिन विज्ञापनों पर हमने सीधा लेकिन तथ्यात्मक हमला किया उसकी कुछ रिपोर्ट्स थीं, ‘नमक में आयोडीन का धंधा’, ‘नूडल्स  खाने के ख़तरे’, ‘झागदार डिटर्जेंट का कमाल’, ‘प्यारी मारुति - बेचारी मारुति’ आदि। ज़ाहिर है कि हमारी इन रिपोर्ट्स से मुंबई के विज्ञापन जगत में हड़कंप मच गया और हमें बड़ी विज्ञापन कंपनियों से प्रलोभन दिए जाने लगे, जिसे हमने अस्वीकार कर दिया। क्योंकि हमारी नीति थी कि हम जनहित में ऐसे विज्ञापन बना कर प्रसारित करें जिनमें किसी कंपनी के ब्रांड का प्रमोशन न हो बल्कि ऐसी वस्तुओं का प्रचार हो जो आम जनता के लिए उपयोगी हैं। उदाहरण के तौर पर हमने एक विज्ञापन की स्क्रिप्ट लिखी, ‘भुना चना खाइए - सेहत बनाइए। हर गली मोहल्ले में मिलता है, भुना चना - टनटना’। पर हमारी यह नीति ज़्यादा चल नहीं पाई। देश के ताकतवर लोगों ने फ़िल्म सेंसर बोर्ड के माध्यम से हमें परेशान करना शुरू कर दिया। 

निजी टेलिविज़न मीडिया की अनुपस्थिति में, उस दौर में सरकार की स्पष्ट नीति न होने के कारण हमारी समाचार वीडियो पत्रिका को फिक्शन यानी काल्पनिक कथा के समान मान कर हमें प्री-सेन्सरशिप से होकर गुज़रना पड़ता था। 

इस पूरे ऐतिहासिक घटनाक्रम का बाबा रामदेव के संदर्भ में यहाँ उल्लेख करना इसलिए ज़रूरी था ताकि यह तथ्य रेखांकित किया जा सके कि देश में झूठे दावों पर आधारित भ्रामक विज्ञापनों की शुरू से भरमार रही है। जिन्हें न तो मीडिया ने कभी चुनौती दी और न ही कार्यपालिका, न्यायपालिका या विधायिका ने। लोकतंत्र के ये चारों स्तंभ आम जनता को भ्रमित करने वाले ढेरों विज्ञापनों को देख कर भी आँखें मींचे रहे और आज भी यही स्थिति है। बाबा रामदेव के समर्थन में सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने ऐसे विज्ञापनों की सूची प्रसारित की है जिनके दावे भ्रामक हैं। जैसे त्वचा का रंग साफ़ करने वाली क्रीम या फलों के रसों के नाम पर बिकने वाले रासायनिक पेय या सॉफ्ट ड्रिंक पी कर बलशाली बनने का दावा या बच्चों के स्वास्थ्य को पोषित करने वाले बाल आहार, आदि। 

मेरे इस लेख का उद्देश्य न तो बाबा रामदेव और आचार्य बालाकृष्ण के उन दावों का समर्थन करना है जो आजकल सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन हैं। न ही ऐसे भ्रामक दावों के लिए बाबा रामदेव और आचार्य बालकृष्ण को कटघरे में खड़ा करना है। इसलिए नहीं कि ये दोनों ही से मेरे निःस्वार्थ गहरे आत्मीय संबंध हैं बल्कि इसलिए कि ऐसी गलती देश की तमाम बड़ी-बड़ी कंपनियाँ अपने उत्पादनों को लेकर दशकों से करती आई हैं। तो फिर पतंजलि को ही कटघरे में खड़ा क्यों किया जाए? एक ही जैसे अपराध को नापने के दो अलग मापदंड कैसे हो सकते हैं?

‘निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय’ की भावना से बाबा रामदेव के सार्वजनिक जीवन के उन पक्षों को रेखांकित करना चाहता हूँ जिनके कारण, मेरी नज़र में आज बाबा रामदेव विवादों में घिरे हैं। इस क्रम में सबसे पहला विवाद का कारण है, उनका संन्यासी भेष में हो कर व्यापार करना। अलबत्ता आज यह कार्य सदगुरु, श्री श्री रवि शंकर, इस्कॉन व स्वामी नारायण जैसे अनेकों धार्मिक संगठन भी कर रहे हैं, जो धर्म की आड़ में व्यापारिक गतिविधियाँ भी चला रहे हैं। चूँकि बाबा रामदेव ने योग और भारतीय संस्कृति के बैनर तले अपनी सार्वजनिक यात्रा शुरू की थी और आज उनका पतंजलि, साबुन, शैम्पू, बिस्कुट, कॉर्नफ्लेक्स जैसे तमाम आधुनिक उत्पाद बना कर बेच रहा है, जिनका योग और वैदिक संस्कृति से लेना देना नहीं है। अगर बाबा रामदेव की व्यापारिक गतिविधियों बहुत छोटे स्तर पर सीमित रहतीं तो वे किसी की आँख में न खटकते। पर उनका आर्थिक साम्राज्य दिन दुगुनी और रात चौगुनी गति से बढ़ा है। इसलिए वे ज़्यादा निगाह में आ गये हैं। 

साधु सन्यासियों को राजनीति से दूर इसलिए रहना चाहिए क्योंकि राजनीति वो काल कोठरी है जिसमें, ‘कैसो ही सयानों जाए - काजल का दाग भाई लागे रे लागे’। बाबा रामदेव ने अपने आंदोलन की शुरुआत तो भ्रष्टाचार और काले धन के विरुद्ध की थी पर एक ही राजनैतिक दल से जुड़ कर वे अपनी निष्पक्षता खो बैठे। इसीलिए वे आलोचना के शिकार बने। 

आंदोलन की शुरुआत में बाबा ने अपने साथ देश के तमाम क्रांतिकारियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी जोड़ा था। इससे उनकी विश्वसनीयता भी बढ़ी और जनता का उन पर विश्वास भी बढ़ा। पर केंद्र में अपने चहेते दल के सत्ता में आने के बाद बाबा उन सारे मुद्दों और क्रांतिकारिता को भी भूल गए। शुद्ध व्यापार में जुट गये। इससे उनका व्यापक वैचारिक आधार भी समाप्त हो गया। अगर वे ऐसा न करते और धन कमाने के साथ जनहित के लिए चलाए जा रहे आंदोलनों और प्रकल्पों को उनकी आवश्यकता अनुसार थोड़ी-थोड़ी  आर्थिक मदद भी करते रहते तो उनका जनाधार भी बना रहता और योग्य व जुझारू समर्थकों की फ़ौज भी उनके साथ खड़ी रहती। जहां तक बाबा की आर्थिक गतिविधियों से संबंधित विवाद हैं या उनके उत्पादों की गुणवत्ता से संबंधित सवाल हैं उन पर मैं यहाँ टिप्पणी नहीं कर रहा हूँ। मुझे लगता है कि आयु, क्षमता और ऊर्जा को देखते हुए बाबा रामदेव में इस देश का भला करने की आज भी असीम संभावनाएँ हैं अगर वे अपने तौर-तरीक़ों में वांछित बदलाव कर सकें।  

Monday, April 22, 2024

लोकतंत्र अभी और परिपक्व हो


अभी आम चुनाव का प्रथम चरण ही पूरा हुआ है पर ऐसा नहीं लगता कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव जैसी कोई महत्वपूर्ण घटना घट रही है। चारों ओर एक अजीब सन्नाटा है। न तो गाँव, कस्बों और शहरों में राजनैतिक दलों के होर्डिंग और पोस्टर दिखाई दे रहे हैं और न ही लाऊडस्पीकर पर वोट माँगने वालों का शोर सुनाई दे रहा है, चाय के ढाबों और पान की दुकानों पर अक्सर जमा होने वाली भीड़ भी खामोश है। जबकि पहले चुनावों में ये शहर के वो स्थान होते थे जहाँ से मतदाताओं की नब्ज पकड़ना आसान होता था। आज मतदाता खामोश है। इसका क्या कारण हो सकता है। या तो मतदाता तय कर चुके हैं कि उन्हें किसे वोट देना है पर अपने मन की बात को ज़ुबान पर नहीं लाना चाहते। क्योंकि उन्हें इसके सम्भावित दुष्परिणामों का खतरा नजर आता है। ये हमारे लोकतंत्र के स्वस्थ के लिए अच्छा लक्षण नहीं है। जनसंवाद के कई लाभ होते हैं। एक तो जनता की बात नेता तक पहुँचती है दूसरा ऐसे संवादों से जनता जागरूक होती है। अलबत्ता शासन में जो दल बैठा होता है वो कभी नहीं चाहता कि उसकी नीतियों पर खुली चर्चा हो। इससे माहौल बिगड़ने का खतरा रहता है। हर शासक यही चाहता है कि उसकी उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर मतदाता के सामने पेश किया जाए। इंदिरा गाँधी से नरेन्द्र मोदी तक कोई भी इस मानसिकता का अपवाद नहीं रहा है। 



आमतौर पर यह माना जाता था कि मीडिया सचेतक की भूमिका निभाएगा। पर मीडिया को भी खरीदने और नियंत्रित करने पर हर राजनैतिक दल अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च करता है। जिससे उसका प्रचार होता रहे। पत्रकारिता में इस मानसिकता के जो अपवाद होते हैं वे यथा संभव निष्पक्ष रहने का प्रयास करते हैं। ताकि परिस्थितियों और समस्याओं का सही मूल्यांकन हो सके। पर इनकी पहुँच बहुत सीमित होती है, जैसा आज हो रहा है। ऐसे में मतदाता तक सही सूचनाएँ नहीं पहुँच पातीं। अधूरी जानकारी से जो निर्णय लिए जाते हैं वो मतदाता, समाज और देश के हित में नहीं होते। जिससे लोकतंत्र कमजोर होता है।   


सब मानते हैं कि किसी भी देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था ही सबसे अच्छी होती है क्योंकि इसमें समाज के हर वर्ग को अपनी सरकार चुनने का मौका मिलता है। इस शासन प्रणाली के अन्तर्गत आम आदमी को अपनी इच्छा से चुनाव में खड़े हुए किसी भी प्रत्याशी को वोट देकर अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार होता है। इस तरह चुने गए प्रतिनिधियों से विधायिका बनती है। एक अच्छा लोकतन्त्र वह है जिसमें  राजनीतिक और सामाजिक न्याय के साथ-साथ आर्थिक न्याय की व्यवस्था भी है। देश में यह शासन प्रणाली लोगों को सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान करती हैं।


आज भारत में जो परिस्थिति है उसमें जनता भ्रमित है। उसे अपनी बुनियादी समस्याओं की चिंता है पर उसके एक हिस्से के दिमाग में भाजपा और संघ के कार्यकर्ताओं ने ये बैठा दिया है कि नरेन्द्र मोदी अब तक के सबसे श्रेष्ठ और ईमानदार प्रधान मंत्री हैं इसलिए वे तीसरी बार फिर जीतकर आएंगे। जबकि ज़मीनी हकीकत अभी अस्पष्ट है। क्षेत्रीय दलों के नेता काफी तेज़ी से अपने इलाके के मतदाताओं पर पकड़ बना रहे हैं। और उन सवालों को उठा रहे हैं जिनसे देश का किसान, मजदूर और नौजवान चिंतित है। इसलिए उनके प्रति आम जनता की अपेक्षाएं बढ़ी हैं इसलिए ‘इंडिया’ गठबंधन के नेताओं की रैलियों में भरी भीड़ आ रही है। जबकि भाजपा की रैलियों का रंग फीका है। हालाँकि चुनाव की हवा मतदान के 24 घंटे पहले भी पलट जाती है इसलिए कुछ कहा नहीं जा सकता। 


70 के दशक में हुए जयप्रकाश आन्दोलन के बाद से किसी भी राजनैतिक दल ने आम मतदाताओं को लोकतंत्र के इस महापर्व के लिए प्रशिक्षित नहीं किया है। जबकि अगर ऐसा किया होता तो इन दलों को चुनाव के पहले मतदाताओं को खैरात बाँटने और उनके सामने लम्बे चौड़े झूठे वायदे करने की नौबत नहीं आती। हर दल का अपना एक समर्पित काडर होता। जबकि आज काडर के नाम पर पैसा देकर कार्यकर्ता जुटाए जाते हैं या वे लोग सक्रिय होते हैं जिन्हें सत्ता मिलने के बाद सत्ता की दलाली करने के अवसरों की तलाश होती है। ऐसे किराये के कार्यकर्ताओं और विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता का अभाव ही दल बदल का मुख्य कारण है। इससे राजनेताओं की और उनके दलों की साख तेज़ी से गिरी है। एक दृष्टि से इसे लोकतंत्र के पतन का प्रमाण माना जा सकता है। हालाँकि दूसरी ओर ये मानने वालों की भी कमी नहीं है कि इन सब आंधियों को झेलने के बावजूद भारत का लोकतंत्र मजबूत हुआ है। उसके करोड़ों आम मतदाताओं ने बार-बार राजनैतिक परिपक्वता का परिचय दिया है। जब उसने बिना शोर मचाये अपने मत के जोर पर कई बार सत्ता परिवर्तन किये हैं। मतदाता की राजनैतिक परिपक्वता का एक और प्रमाण ये है की अब निर्दलीय उम्मीदवारों का प्रभाव लगभग समाप्त हो चला है। 1951 के आम चुनावों में 6% निर्दलीय उम्मीदवार जीते थे जबकि 2019 के चुनाव में इनकी संख्या घटकर मात्र 0.11% रह गई। स्पष्ट है कि मतदाता ऐसे उम्मीदवारों के हाथ मजबूत नहीं करना चाहता जो अल्पमत की सरकारों से मोटी रकम ऐंठकर समर्थन देते हैं। मतदाताओं की अपेक्षा और विश्वास संगठित दलों और नेताओं के प्रति है यदि वे अपने कर्तव्य का सही पालन करें तो। इसलिए हमें निराश नहीं होना है। हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हमारे परिवार और समाज में राजनीति के प्रति समझ बढ़े और हर मतदाता अपने मत का प्रयोग सोच समझकर करे। कोई नेता या दल मतदाता को भेड़-बकरी समझकर हाँकने की जुर्रत न करे। 

Monday, April 15, 2024

इस चुनाव में मुद्दे और माहौल क्या हैं?


इस बार का चुनाव बिलकुल फीका है। एक तरफ नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा हिंदू, मुसलमान, कांग्रेस की नाकामियों को ही चुनावी मुद्दा बनाए हुए हैं। वहीं चार दशक में बढ़ी सबसे ज़्यादा बेरोज़गारी, किसान को फसल के उचित दाम न मिलना, बेइंतहा महंगाई और तमाम उन वायदों को पूरा न करना जो मोदी जी 2014 व 2019 में किए थे - ऐसे मुद्दे हैं जिन पर भाजपा का नेतृत्व चुनावी सभाओं में कोई बात ही नहीं कर रहा। ‘सबका साथ सबका विकास’ नारे के बावजूद समाज में जो खाई पैदा हुई है, वो चिंताजनक है। रोचक बात यह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव को मोदी जी ने गुजरात मॉडल, भ्रष्टाचार मुक्त शासन और विकास के मुद्दे पर लड़ा था। पता नहीं 2019 में और इस बार क्यों वे इनमें से किसी भी मुद्दों पर बात नहीं कर रहे हैं? इसलिए देश के किसान, मजदूर, करोड़ों बेरोजगार युवाओं, छोटे व्यापारियों यहां तक कि उद्योगपतियों को भी मोदी जी के भाषणों में रूचि खत्म हो गई है। उन्हें लगता है कि मोदी जी ने उन्हें वायदे के अनुसार कुछ भी नहीं दिया। बल्कि बहुत से मामलों में तो जो कुछ उनके पास था, वो भी छीन लिया गया। इसलिए यह विशाल मतदाता वर्ग भाजपा सरकार के विरोध में है। हालांकि वह अपना विरोध खुलकर प्रकट नहीं कर रहा। पर यहाँ ये उल्लेख करना भी ज़रूरी है कि प्रतिव्यक्ति हर महीने 5 किलो अनाज मुफ़्त बाँटने का मोदी जी का फार्मूला कारगर रहा है। जिन्हें ये अनाज मिल रहा है वे कहते हैं कि इससे पहले कभी किसी सरकार ने उन्हें ऐसा कुछ नहीं दिया। इसलिए वे मोदी जी के समर्थन में हैं।
 



पर इस मुद्दे पर बुद्धिजीवियों और अर्थशास्त्रियों की राय भिन्न है। वे कहते हैं कि अगर मोदी जी ने अपने वायदे के अनुसार हर साल 2 करोड़ युवाओं को रोज़गार दिया होता तो अब तक 20 करोड़ युवाओं को रोज़गार मिल जाता। तब हर युवा अपने परिवार के कम से कम पाँच सदस्यों का भरण पोषण कर लेता। इस तरह भारत के 100 करोड़ लोग सम्मान की ज़िंदगी जी रहे होते। जबकि आज 80 करोड़ लोग 5 किलो राशन के लिए भीख का कटोरा लेकर जी रहे हैं।  


दूसरी तरफ वे लोग हैं, जो मोदी जी के अन्धभक्त हैं। जो हर हाल में मोदी सरकार फिर से लाना चाहते हैं। वे मोदी जी के 400 पार के नारे से आत्ममुग्ध हैं। मोदी सरकार की सब नाकामियों को वे कांग्रेस शासन के मत्थे मढ़कर पिंड छुड़ा लेते हैं। क्योंकि इन प्रश्नों का कोई उत्तर उनके पास नहीं है। अभी यह बताना असंभव है कि इस कांटे की टक्कर में ऊंट किस करवट बैठेगा। क्या विपक्षी गठबंधन की सरकार बनेगी या मोदी जी की? सरकार जिसकी भी बने, चुनौतियां दोनों के सामने बड़ी होंगी। मान लें कि भाजपा की सरकार बनती है, तो क्या हिंदुत्व के ऐजेंडे को इसी आक्रामकता से, बिना सनातन मूल्यों की परवाह किये, बिना सांस्कृतिक परंपराओं का निर्वहन किये सब पर थोपा जाऐगा, जैसा पिछले 10 वर्षों में थोपने का प्रयास किया गया। इसका मोदी जी को सीमित मात्रा में राजनैतिक लाभ भले ही मिल जाऐ, हिंदू धर्म और संस्कृति को स्थाई लाभ नहीं मिलेगा।



भाजपा व संघ दोनों ही हिंदू धर्म के लिए समर्पित होने का दावा करते हैं, पर सनातन हिंदू धर्म की मूल सिद्धांतों से परहेज करते हैं। सैंकड़ों वर्षों से हिंदू धर्म के स्तंभ रहे शंकराचार्य ये मानते हैं कि जिस तरह का हिंदूत्व मोदी और योगी राज में पिछले कुछ वर्षों में प्रचारित और प्रसारित किया गया, उससे हिंदू धर्म का मजाक ही उड़ा है। केवल नारों और जुमलों में ही हिंदू धर्म का हल्ला मचाया गया। हाँ उज्जैन, काशी, अयोध्या, केदारनाथ आदि धर्मस्थलों पर भगवान के विशाल मंदिरों के निर्माण से हिंदू समाज में अपनी पहचान के लिए जागरूकता बढ़ी है। पर इसके अलावा जमीन पर ठोस ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जिससे ये सनातन परंपरा पल्लवित-पुष्पित होती। इस बात का हम जैसे सनातनधर्मियों को अधिक दुख है। क्योंकि हम साम्यवादी विचारों में विश्वास नहीं रखते। हमें लगता है कि भारत की आत्मा सनातन धर्म में बसती है और वो सनातन धर्म विशाल हृदय वाला है। जिसमें नानक, कबीर, रैदास, महावीर, बुद्ध, तुकाराम, नामदेव सबके लिए गुंजाइश है। वो संघ और भाजपा की तरह संकुचित हृदय नहीं है, इसलिए हजारों साल से पृथ्वी पर जमा हुआ है। जबकि दूसरे धर्म और संस्कृतियां अपनी अहंकारी नीतियों के कारण कुछ सदियों के बाद धरती के पर्दे पर से गायब हो गए।


संघ और भाजपा के राजनैतिक हिंदू ऐजेंडा से उन सब लोगों का दिल टूटता है, जो हिंदू धर्म और संस्कृति के लिए समर्पित हैं, ज्ञानी हैं, साधन-संपन्न हैं पर उदारमना भी है। क्योंकि ऐसे लोग धर्म और संस्कृति की सेवा डंडे के डर से नहीं, बल्कि श्रद्धा और प्रेम से करते हैं। जिस तरह की मानसिक अराजकता पिछले 5 वर्षों में भारत में देखने में आई है, उसने भविष्य के लिए बड़ा संकट खड़ा दिया है। अगर ये ऐसे ही चला, तो भारत में दंगे, खून-खराबे और बढ़ेगे। जिसके परिणामस्वरूप भारत का विघटन भी हो सकता है। इसलिए संघ और भाजपा को इस विषय में अपना नजरिया क्रांतिकारी रूप में बदलना होगा। तभी आगे चलकर भारत अपने धर्म और संस्कृति की ठीक रक्षा कर पायेगा, अन्यथा नहीं। अलबत्ता हिंदू धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए अगर संघ का संगठन सक्रिय रहता है तो सनातनधर्मियों को अच्छा लगेगा।


जहां तक ‘इंडिया’ गठबंधन की बात है, ये आश्चर्यजनक तथ्य है कि समय और अवसर दोनों प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हुए भी इस गठबंधन का सामूहिक नेतृत्व वो एकजुटता और आक्रामकता नहीं दिखा पा रहा जो उसे बड़ी सफलता की ओर ले जा सकती थी। फिर भी ‘इंडिया’ के समर्थकों का विश्वास है कि इस बार का चुनाव ‘विपक्ष बनाम भाजपा’ नहीं बल्कि आम ‘जनता बनाम भाजपा’ की तर्ज़ पर लड़ा जाएगा, जैसा आपातकाल के बाद 1977 में लड़ा गया था। वैसे अगर राज्यवार आँकलन किया जाए तो गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और कुछ हद तक राजस्थान को छोड़ कर कोई भी प्रांत ऐसा नहीं है जहां भाजपा विपक्षी दलों के सामने कमज़ोर नहीं है। ऐसे में कुछ भी हो सकता है। 


लोकतंत्र की खूबसूरती इस बात में है कि मतभेदों का सम्मान किया जाए, समाज के हर वर्ग को अपनी बात कहने की आजादी हो, चुनाव जीतने के बाद, जो दल सरकार बनाए, वो विपक्ष के दलों को लगातार कोसकर या चोर बताकर, अपमानित न करें, बल्कि उसके सहयोग से सरकार चलाए। क्योंकि राजनीति के हमाम में सभी नंगे हैं। चुनावी बाँड के तथ्य उजागर होने के बाद यह स्पष्ट है कि मोदी जी की सरकार भी इसकी अपवाद नहीं रही। इसलिए और भी सावधानी बरतनी चाहिए।

Monday, April 8, 2024

जल संकट के बढ़ते ख़तरे


बेंगलुरु में भीषण पेयजल संकट पिछले कुछ दिनों से अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां बन रहा है। हाल ही में कर्नाटक के मुख्य मंत्री सिद्धारमैया ने कहा कि बेंगलुरु को हर दिन 500 मिलियन लीटर पानी की कमी का सामना करना पड़ रहा है, जो शहर की दैनिक कुल मांग का लगभग पांचवां हिस्सा है। सीएम ने कहा कि बेंगलुरु के लिए अतिरिक्त आपूर्ति की व्यवस्था की जा रही है।


हालाँकि, पानी की कमी केवल बेंगलुरु तक ही सीमित नहीं है, और न ही यह केवल पीने के पानी की समस्या है। संपूर्ण कर्नाटक राज्य, साथ ही तेलंगाना और महाराष्ट्र के निकटवर्ती क्षेत्र भी पानी की कमी का सामना कर रहे हैं। इसका अधिकांश संबंध पिछले एक वर्ष में इस क्षेत्र में सामान्य से कम वर्षा और इस क्षेत्र में भूमिगत जलभृतों की प्रकृति से है।

 


अरबों-खरबों रूपया जल संसाधन के संरक्षण एवं प्रबंधन पर आजादी के बाद खर्च किया जा चुका है। उसके बावजूद हालत ये है कि भारत के सर्वाधिक वर्षा वाले क्षेत्र चेरापूंजी (मेघालय) तक में पीने के पानी का संकट है। कभी श्रीनगर (कश्मीर) बाढ़ से तबाह होता है, कभी मुंबई और गुजरात के शहर और बिहार-बंगाल का तो कहना ही क्या। हर मानसून में वहां बरसात का पानी भारी तबाही मचाता है।

 

दरअसल, ये सारा संकट पानी के प्रबंधन की आयातित तकनीकि अपनाने के कारण हुआ है। वरना भारत का पारंपरिक ज्ञान जल संग्रह के बारे में इतना वैज्ञानिक था कि यहां पानी का कोई संकट ही नहीं था। पारंपरिक ज्ञान के चलते अपने जल से हम स्वस्थ रहते थे। हमारी फसल और पशु सब स्वस्थ थे। पौराणिक ग्रंथ ‘हरित संहिता’ में 36 तरह के जल का वर्णन आता है। जिसमें वर्षा के जल को पीने के लिए सर्वोत्तम बताया गया है और जमीन के भीतर के जल को सबसे निकृष्ट यानि 36 के अंक में इसका स्थान 35वां आता है। 36वें स्थान पर दरिया का जल बताया गया है। दुर्भाग्य देखिए कि आज लगभग पूरा भारत जमीन के अंदर से खींचकर ही पानी पी रहा है। जिसके अनेकों नुकसान सामने आ रहे हैं। पहला तो इस पानी में फ्लोराइड की मात्रा तय सीमा से कहीं ज्यादा होती है, जो अनेक रोगों का कारण बनती है। इससे खेतों की उर्वरता घटती जा रही है और खेत की जमीन क्षारीय होती जा रही है। लाखों हेक्टेयर जमीन हर वर्ष भूजल के अविवेकपूर्ण दोहन के कारण क्षारीय बनकर खेती के लिए अनुपयुक्त हो चुकी है। दूसरी तरफ इस बेदर्दी से पानी खींचने के कारण भूजल स्तर तेज़ी से नीचे घटता जा रहा है। हमारे बचपन में हैंडपंप को बिना बोरिंग किए कहीं भी गाढ़ दो, तो 10 फीट नीचे से पानी निकल आता था। आज सैकड़ों-हजारों फीट नीचे पानी चला गया। भविष्य में वो दिन भी आएगा, जब एक गिलास पानी 1000 रूपए का बिकेगा। क्योंकि रोका न गया, तो इस तरह तो भूजल स्तर हर वर्ष तेज़ी से गिरता चला जाएगा।

 


आधुनिक वैज्ञानिक और नागरीय सुविधाओं के विशेषज्ञ ये दावा करते हैं कि केंद्रीयकृत टंकियों से पाइपों के जरिये भेजा गया पानी ही सबसे सुरक्षित होता है। पर यह दावा अपने आपमें जनता के साथ बहुत बड़ा धोखा है। इसके कई प्रमाण मौजूद हैं। जबकि वर्षा का जल जब कुंडों, कुंओं, पोखरों, दरियाओं और नदियों में आता था, तो वह सबसे ज्यादा शुद्ध होता था। साथ ही इन सबके भर जाने से भूजल स्तर ऊंचा बना रहता था। जमीन में नमी रहती थी। उससे प्राकृतिक रूप में फल, फूल, सब्जी और अनाज भरपूर मात्रा में और उच्चकोटि के पैदा होते थे। पर बोरवेल लगाकर भूजल के इस पाश्विक दोहन ने यह सारी व्यवस्थाएं नष्ट कर दी। पोखर और कुंड सूख गए, क्योंकि उनके जल संग्रह क्षेत्रों पर भवन निर्माण कर लिए गए है। वृक्ष काट दिए गए। जिससे बादलों का बनना कम हो गया। नदियों और दरियाओं में औद्योगिक व रासायनिक कचरा व सीवर लाइन का गंदा पानी बिना रोकटोक हर शहर में खुलेआम डाला जा रहा है। जिससे ये नदियां मृत हो चुकी हैं। इसलिए देश में लगातार जलसंकट बढ़ता जा रहा है। जल का यह संकट आधुनिक विकास के कारण पूरी पृथ्वी पर फैल चुका है। वैसे तो हमारी पृथ्वी का 70 फीसदी हिस्सा जल से भरा है। पर इसका 97.3 फीसदी जल खारा है। मीठा जल कुल 2.7 फीसदी है। जिसमें से केवल 22.5 फीसदी जमीन पर है, शेष धु्रवीय क्षेत्रों में। इस उपलब्ध जल का 60 फीसदी खेत और कारखानों में खप जाता है, शेष हमारे उपयोग में आता है यानि दुनिया में उपलब्ध 2.7 फीसदी मीठे जल का भी केवल एक फीसदी हमारे लिए उपलब्ध है और उसका भी संचय और प्रबंधन अक्ल से न करके हम उसका भारी दोहन, दुरूपयोग कर रहे हैं और उसे प्रदूषित कर रहे हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि हम अपने लिए कितनी बड़ी खाई खोद रहे हैं। जल संचय और संरक्षण को लेकर आधुनिक विकास मॉडल के विपरीत जाकर वैदिक संस्कृति के अनुरूप नीति बनानी पड़ेगी। तभी हमारा जल, जंगल, जमीन बच पाएगा। वरना तो ऐसी भयावह स्थिति आने वाली है, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।


जो ठोकर खा कर संभल जाए उसे अक्लमंद मानना चाहिए। पर जो ठोकर खाकर भी न संभले और बार-बार मुंह के बल गिरता रहे, उसे महामूर्ख या नशेड़ी समझना चाहिए। हिंदुस्तान के शहरों में रहने वाले हम लोग दूसरी श्रेणी में आते हैं। हम देख रहे हैं कि हर दिन पानी की किल्लत बढ़ती जा रही है। हम यह भी देख रहे हैं कि जमीन के अंदर पानी का स्तर घटता जा रहा है। हम अपने शहर और कस्बों में तालाबों को सूखते हुए भी देख रहे हैं। अपने अड़ौस-पड़ौस के हरे-भरे पेड़ों को भी गायब होता हुआ देख रहे हैं। पर ये सब देखकर भी मौन हैं। जब नल में पानी नहीं आता तब घर की सारी व्यवस्था चरमरा जाती है। बच्चे स्कूल जाने को खड़े हैं और नहाने को पानी नहीं है। नहाना और कपड़े धोना तो दूर पीने के पानी तक का संकट बढ़ता जा रहा है। जो पानी मिल भी रहा है उसमें तमाम तरह के जानलेवा रासायनिक मिले हैं। ये रासायनिक कीटनाशक दवाइयों और खाद के रिसकर जमीन में जाने के कारण पानी के स्रोतों में घुल गए हैं। अगर यूं कहा जाए कि चारों तरफ से आफत के पास आते खतरे को देखकर भी हम बेखबर हैं तो अतिश्योक्ति न होगी। पानी के संकट इतना बड़ा हो गया है कि कई टीवी समाचार चैनलों ने अब पानी की किल्लत पर देश के किसी न किसी कोने का समाचार नियमित देना शुरू कर दिया है। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर हमने का ढर्रा नहीं बदला, तो आने वाले वर्षों में पानी के संकट से जूझते लोगों के बीच हिंसा बढ़ना आम बात होगी।