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Monday, April 29, 2024

बाबा रामदेव क्यों फँसे?

1989 में जब मैंने देश की पहली हिन्दी वीडियो समाचार कैसेट ‘कालचक्र’ जारी की तो उसमें तमाम खोजी रिपोर्ट्स के अलावा एक स्लॉट भ्रामक विज्ञापनों को भी कटघरे में खड़े करने वाला था। ये वो दौर था जब प्रभावशाली विज्ञापन सिनेमा हॉल के पर्दों पर दिखाए जाते थे या दूरदर्शन के कार्यक्रमों के बीच में। उस दौर में इन कमर्शियल विज्ञापनों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाने का प्रचलन नहीं था। इस दिशा में देश के कुछ जागरूक नागरिकों को बड़ी कामयाबी तब मिली जब उन्होंने सिगरेट बनाने वाली कंपनियों को मजबूर कर दिया कि वो सिगरेट की डिब्बी पर ये छापें ‘सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है’। 

चूँकि ज़्यादातर विज्ञापन प्रिंट मीडिया में छपते थे और मीडिया कोई भी हो बिना विज्ञापनों की मदद के चल ही नहीं पता। इसलिए मीडिया में भ्रामक विज्ञापनों के विरुद्ध प्रश्न खड़े करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। उस पीढ़ी के जागरूक देशवासी जानते हैं कि हमारी कालचक्र वीडियो मैगज़ीन ने अपनी दमदार व खोजी टीवी रिपोर्ट्स के कारण पहला अंक जारी होते ही देश भर में तहलका मचा दिया था। जो काम देश के बड़े-बड़े स्थापित मीडिया घराने करने की हिम्मत नहीं दिखा पाए वो हिम्मत कालचक्र की हमारी छोटी सी जुझारू टीम ने कर दिखाया। उत्साह जनक बात यह थी कि देश भर के हर भाषा के मीडिया ने कालचक्र के हर अंक को अपने प्रकाशनों की सुर्ख़ियाँ बनाया। 


उस दौर में जिन विज्ञापनों पर हमने सीधा लेकिन तथ्यात्मक हमला किया उसकी कुछ रिपोर्ट्स थीं, ‘नमक में आयोडीन का धंधा’, ‘नूडल्स  खाने के ख़तरे’, ‘झागदार डिटर्जेंट का कमाल’, ‘प्यारी मारुति - बेचारी मारुति’ आदि। ज़ाहिर है कि हमारी इन रिपोर्ट्स से मुंबई के विज्ञापन जगत में हड़कंप मच गया और हमें बड़ी विज्ञापन कंपनियों से प्रलोभन दिए जाने लगे, जिसे हमने अस्वीकार कर दिया। क्योंकि हमारी नीति थी कि हम जनहित में ऐसे विज्ञापन बना कर प्रसारित करें जिनमें किसी कंपनी के ब्रांड का प्रमोशन न हो बल्कि ऐसी वस्तुओं का प्रचार हो जो आम जनता के लिए उपयोगी हैं। उदाहरण के तौर पर हमने एक विज्ञापन की स्क्रिप्ट लिखी, ‘भुना चना खाइए - सेहत बनाइए। हर गली मोहल्ले में मिलता है, भुना चना - टनटना’। पर हमारी यह नीति ज़्यादा चल नहीं पाई। देश के ताकतवर लोगों ने फ़िल्म सेंसर बोर्ड के माध्यम से हमें परेशान करना शुरू कर दिया। 

निजी टेलिविज़न मीडिया की अनुपस्थिति में, उस दौर में सरकार की स्पष्ट नीति न होने के कारण हमारी समाचार वीडियो पत्रिका को फिक्शन यानी काल्पनिक कथा के समान मान कर हमें प्री-सेन्सरशिप से होकर गुज़रना पड़ता था। 

इस पूरे ऐतिहासिक घटनाक्रम का बाबा रामदेव के संदर्भ में यहाँ उल्लेख करना इसलिए ज़रूरी था ताकि यह तथ्य रेखांकित किया जा सके कि देश में झूठे दावों पर आधारित भ्रामक विज्ञापनों की शुरू से भरमार रही है। जिन्हें न तो मीडिया ने कभी चुनौती दी और न ही कार्यपालिका, न्यायपालिका या विधायिका ने। लोकतंत्र के ये चारों स्तंभ आम जनता को भ्रमित करने वाले ढेरों विज्ञापनों को देख कर भी आँखें मींचे रहे और आज भी यही स्थिति है। बाबा रामदेव के समर्थन में सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने ऐसे विज्ञापनों की सूची प्रसारित की है जिनके दावे भ्रामक हैं। जैसे त्वचा का रंग साफ़ करने वाली क्रीम या फलों के रसों के नाम पर बिकने वाले रासायनिक पेय या सॉफ्ट ड्रिंक पी कर बलशाली बनने का दावा या बच्चों के स्वास्थ्य को पोषित करने वाले बाल आहार, आदि। 

मेरे इस लेख का उद्देश्य न तो बाबा रामदेव और आचार्य बालाकृष्ण के उन दावों का समर्थन करना है जो आजकल सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन हैं। न ही ऐसे भ्रामक दावों के लिए बाबा रामदेव और आचार्य बालकृष्ण को कटघरे में खड़ा करना है। इसलिए नहीं कि ये दोनों ही से मेरे निःस्वार्थ गहरे आत्मीय संबंध हैं बल्कि इसलिए कि ऐसी गलती देश की तमाम बड़ी-बड़ी कंपनियाँ अपने उत्पादनों को लेकर दशकों से करती आई हैं। तो फिर पतंजलि को ही कटघरे में खड़ा क्यों किया जाए? एक ही जैसे अपराध को नापने के दो अलग मापदंड कैसे हो सकते हैं?

‘निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय’ की भावना से बाबा रामदेव के सार्वजनिक जीवन के उन पक्षों को रेखांकित करना चाहता हूँ जिनके कारण, मेरी नज़र में आज बाबा रामदेव विवादों में घिरे हैं। इस क्रम में सबसे पहला विवाद का कारण है, उनका संन्यासी भेष में हो कर व्यापार करना। अलबत्ता आज यह कार्य सदगुरु, श्री श्री रवि शंकर, इस्कॉन व स्वामी नारायण जैसे अनेकों धार्मिक संगठन भी कर रहे हैं, जो धर्म की आड़ में व्यापारिक गतिविधियाँ भी चला रहे हैं। चूँकि बाबा रामदेव ने योग और भारतीय संस्कृति के बैनर तले अपनी सार्वजनिक यात्रा शुरू की थी और आज उनका पतंजलि, साबुन, शैम्पू, बिस्कुट, कॉर्नफ्लेक्स जैसे तमाम आधुनिक उत्पाद बना कर बेच रहा है, जिनका योग और वैदिक संस्कृति से लेना देना नहीं है। अगर बाबा रामदेव की व्यापारिक गतिविधियों बहुत छोटे स्तर पर सीमित रहतीं तो वे किसी की आँख में न खटकते। पर उनका आर्थिक साम्राज्य दिन दुगुनी और रात चौगुनी गति से बढ़ा है। इसलिए वे ज़्यादा निगाह में आ गये हैं। 

साधु सन्यासियों को राजनीति से दूर इसलिए रहना चाहिए क्योंकि राजनीति वो काल कोठरी है जिसमें, ‘कैसो ही सयानों जाए - काजल का दाग भाई लागे रे लागे’। बाबा रामदेव ने अपने आंदोलन की शुरुआत तो भ्रष्टाचार और काले धन के विरुद्ध की थी पर एक ही राजनैतिक दल से जुड़ कर वे अपनी निष्पक्षता खो बैठे। इसीलिए वे आलोचना के शिकार बने। 

आंदोलन की शुरुआत में बाबा ने अपने साथ देश के तमाम क्रांतिकारियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी जोड़ा था। इससे उनकी विश्वसनीयता भी बढ़ी और जनता का उन पर विश्वास भी बढ़ा। पर केंद्र में अपने चहेते दल के सत्ता में आने के बाद बाबा उन सारे मुद्दों और क्रांतिकारिता को भी भूल गए। शुद्ध व्यापार में जुट गये। इससे उनका व्यापक वैचारिक आधार भी समाप्त हो गया। अगर वे ऐसा न करते और धन कमाने के साथ जनहित के लिए चलाए जा रहे आंदोलनों और प्रकल्पों को उनकी आवश्यकता अनुसार थोड़ी-थोड़ी  आर्थिक मदद भी करते रहते तो उनका जनाधार भी बना रहता और योग्य व जुझारू समर्थकों की फ़ौज भी उनके साथ खड़ी रहती। जहां तक बाबा की आर्थिक गतिविधियों से संबंधित विवाद हैं या उनके उत्पादों की गुणवत्ता से संबंधित सवाल हैं उन पर मैं यहाँ टिप्पणी नहीं कर रहा हूँ। मुझे लगता है कि आयु, क्षमता और ऊर्जा को देखते हुए बाबा रामदेव में इस देश का भला करने की आज भी असीम संभावनाएँ हैं अगर वे अपने तौर-तरीक़ों में वांछित बदलाव कर सकें।