मथुरा में किसानों के हिंसक आंदोलन की तीव्रता पर सोच विचार करना ही पड़ेगा, वैसे जल प्रबंधन की परियोजनाओं के साथ जुड़ी विस्थापन की समस्या कोई नई बात नहीं है। इस लिहाज से यह घटना या कांड भी कोई बड़ी हैरत की बात नहीं है। चाहे बड़े बांध या बैराज से होने वाले विस्थापन हो या औद्योगिक विकास से होने वाले विस्थापन हों, देश ने पिछले 30 साल से इस समस्या के कई रूप देखें हैं।
आजादी के बाद से अब तक हम विकास के निरापद माॅडल की तलाश में ही लगे हैं। मथुरा के गोकुल बैराज का मामला भी कोई ऐसा अनोखा मामला नहीं है, जिसकी तीव्रता या उसके साथ जुड़ी समस्याओं के बारे में पहले से पता न हो यानी इस मामले में समस्या के रूप या उसके समाधान के लिए बहुत ज्यादा सोच विचार की जरूरत नहीं दिखती। क्या हुआ ? क्यों हुआ ? कौन जिम्मेदार है ? इसकी जांच पड़ताल के मलए सरकारी, गैर सरकारी, मीडिया और विशेषज्ञों के स्तर पर कवायद होती रहेगी। और हर समस्या के समाधान की तरह इसका भी समाधान निकलेगा ही। लेकिन इस कांड के बहाने हम जल प्रबंधन से संबंधित परियोजनाओं की निरापद व्यवहार्यता की बात कर सकते हैं। कुछ तथ्य हैं। खासतौर पर मथुरा-वृंदावन से जुड़ी समस्या से जुड़े वे तथ्य जो हमें अपनी जल नीति पर पुनर्विचार के लिए बाध्य करते हैं।
अगर हम गोकुल बैराज से जुड़ी समस्या के इस पहल को देखें कि ऐसे बैराज हमारे लिए कितने अपरिहार्य हैं, तो लगे हाथ हमें हथिनीकुंड बैराज की याद आती है। इस बैराज से यमुना को मुक्त कराने का आंदोलन भी पनप रहा है। समाज के एक तबके की नदी के निरंतरता की मांग है। जब इस मांग का आगा पीछा सोचा जाएगा, तो बड़े हैरतअंगेज तथ्य सामने आएंगे।
दूसरा ऐतिहासिक तथ्य तुगलक सल्तनत में बने दिल्ली के सतपुला बैराज का है। कोई छह सौ साल पहले मुहम्मद तुगलक का बनाया यह बैराज आज भी भव्य दर्शनीय स्थल है, लेकिन उसकी उस समय की उपयोगिता और आज उसके पूरे जलग्रहण क्षेत्र में बनी कालोनियां बनने के बाद की स्थिति चैकाने वाले तथ्य मुहैया करवा रही है। पिछले दिनों पारंपरिक जल प्रबंधन प्रणाली के अध्ययन में लगी संस्थाओं और उनके विशेषज्ञों ने शुरुआती तौर पर यह समझा है कि मुहम्मद तुगलक की दूरदर्शिता के इस नमूने ने कम से कम पांच सौ साल तक अपनी उपयोगिता को बनाए रखा होगा। लेकिन यहां इसका जिक्र इसलिए और भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि राजधानी के बीच में एक बड़े नाले पर इतना विशाल निर्माण करवाने में उसके सामने कितनी चुनौतियां आई होंगी। हालांकि वह सल्तनत का समय था। शासक या प्रशासक की इच्छा या आदेश का कोई विकल्प नहीं हो सकता था। लेकिन कई इतिहासकार बता रहे हैं कि अपने समय में प्रजा का असंतोष झेलते रहे शासक के प्रति धारणाएं बदलनी पड़ रही है।
चैथा तथ्य यह है कि विज्ञान के पथ पर तेजी से जा रहे देश में बारिश के पानी को रोककर रखने की जगह नहीं बची। चालीस करोड़ हैक्टेयर मीटर बारिश के पानी में से सिर्फ दस फीसद पानी को रोकने की क्षमता ही हम हासिल कर पाए हैं और तमाम जल संचयन संरचनाएं मिट्टी/गाद से पटती जा रही हैं और उनको पुनर्जीवित करने के लिए भारी भरकम खर्च का इंतजाम हम नहीं कर पा रहे हैं। विकल्प सिर्फ यही सुझाया जाता है कि हमें नए बांध या बैराज या तालाब या झीलें चाहिए। इसके लिए जगह यानी जमीन मुहैया नहीं है। अब तक का और बिल्कुल आज तक का अनुभव यह है कि नदियों के चैडे़-चैड़े पाट दिखते हैं। जिन्हें जगह-जगह दीवार खड़ी करते हुए पानी रोक लें, इन्हें वियर कहते हैं और जब इस दीवार में खुलने बंद होने वाले दरवाजे लगा लेते हैं, उसे बैराज कहते हैं।
जल विज्ञान के विशेषज्ञ इसी उधेड़बुन में लगे हैं कि नदियों में ही जगह-जगह बैराज बनाकर हम बारिश का कितना पानी रोक सकते हैं ? लेकिन मथुरा में गोकुल बैराज और उसके कारण विस्थापन या प्रभावित जमीन की समस्या विशेषज्ञों और जल प्रबंधकों को डरा रही है। यानी जलनीति के निर्धारकों को अब नए सिरे से नवोन्वेषी विचार विमर्श में लगना पड़ेगा कि पानी की अपनी जरूरत पूरी करने के लिए कौन-सा उपाय निरापद हो सकता है।
आजादी के बाद से अब तक हम विकास के निरापद माॅडल की तलाश में ही लगे हैं। मथुरा के गोकुल बैराज का मामला भी कोई ऐसा अनोखा मामला नहीं है, जिसकी तीव्रता या उसके साथ जुड़ी समस्याओं के बारे में पहले से पता न हो यानी इस मामले में समस्या के रूप या उसके समाधान के लिए बहुत ज्यादा सोच विचार की जरूरत नहीं दिखती। क्या हुआ ? क्यों हुआ ? कौन जिम्मेदार है ? इसकी जांच पड़ताल के मलए सरकारी, गैर सरकारी, मीडिया और विशेषज्ञों के स्तर पर कवायद होती रहेगी। और हर समस्या के समाधान की तरह इसका भी समाधान निकलेगा ही। लेकिन इस कांड के बहाने हम जल प्रबंधन से संबंधित परियोजनाओं की निरापद व्यवहार्यता की बात कर सकते हैं। कुछ तथ्य हैं। खासतौर पर मथुरा-वृंदावन से जुड़ी समस्या से जुड़े वे तथ्य जो हमें अपनी जल नीति पर पुनर्विचार के लिए बाध्य करते हैं।
अगर हम गोकुल बैराज से जुड़ी समस्या के इस पहल को देखें कि ऐसे बैराज हमारे लिए कितने अपरिहार्य हैं, तो लगे हाथ हमें हथिनीकुंड बैराज की याद आती है। इस बैराज से यमुना को मुक्त कराने का आंदोलन भी पनप रहा है। समाज के एक तबके की नदी के निरंतरता की मांग है। जब इस मांग का आगा पीछा सोचा जाएगा, तो बड़े हैरतअंगेज तथ्य सामने आएंगे।
दूसरा ऐतिहासिक तथ्य तुगलक सल्तनत में बने दिल्ली के सतपुला बैराज का है। कोई छह सौ साल पहले मुहम्मद तुगलक का बनाया यह बैराज आज भी भव्य दर्शनीय स्थल है, लेकिन उसकी उस समय की उपयोगिता और आज उसके पूरे जलग्रहण क्षेत्र में बनी कालोनियां बनने के बाद की स्थिति चैकाने वाले तथ्य मुहैया करवा रही है। पिछले दिनों पारंपरिक जल प्रबंधन प्रणाली के अध्ययन में लगी संस्थाओं और उनके विशेषज्ञों ने शुरुआती तौर पर यह समझा है कि मुहम्मद तुगलक की दूरदर्शिता के इस नमूने ने कम से कम पांच सौ साल तक अपनी उपयोगिता को बनाए रखा होगा। लेकिन यहां इसका जिक्र इसलिए और भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि राजधानी के बीच में एक बड़े नाले पर इतना विशाल निर्माण करवाने में उसके सामने कितनी चुनौतियां आई होंगी। हालांकि वह सल्तनत का समय था। शासक या प्रशासक की इच्छा या आदेश का कोई विकल्प नहीं हो सकता था। लेकिन कई इतिहासकार बता रहे हैं कि अपने समय में प्रजा का असंतोष झेलते रहे शासक के प्रति धारणाएं बदलनी पड़ रही है।
चैथा तथ्य यह है कि विज्ञान के पथ पर तेजी से जा रहे देश में बारिश के पानी को रोककर रखने की जगह नहीं बची। चालीस करोड़ हैक्टेयर मीटर बारिश के पानी में से सिर्फ दस फीसद पानी को रोकने की क्षमता ही हम हासिल कर पाए हैं और तमाम जल संचयन संरचनाएं मिट्टी/गाद से पटती जा रही हैं और उनको पुनर्जीवित करने के लिए भारी भरकम खर्च का इंतजाम हम नहीं कर पा रहे हैं। विकल्प सिर्फ यही सुझाया जाता है कि हमें नए बांध या बैराज या तालाब या झीलें चाहिए। इसके लिए जगह यानी जमीन मुहैया नहीं है। अब तक का और बिल्कुल आज तक का अनुभव यह है कि नदियों के चैडे़-चैड़े पाट दिखते हैं। जिन्हें जगह-जगह दीवार खड़ी करते हुए पानी रोक लें, इन्हें वियर कहते हैं और जब इस दीवार में खुलने बंद होने वाले दरवाजे लगा लेते हैं, उसे बैराज कहते हैं।
जल विज्ञान के विशेषज्ञ इसी उधेड़बुन में लगे हैं कि नदियों में ही जगह-जगह बैराज बनाकर हम बारिश का कितना पानी रोक सकते हैं ? लेकिन मथुरा में गोकुल बैराज और उसके कारण विस्थापन या प्रभावित जमीन की समस्या विशेषज्ञों और जल प्रबंधकों को डरा रही है। यानी जलनीति के निर्धारकों को अब नए सिरे से नवोन्वेषी विचार विमर्श में लगना पड़ेगा कि पानी की अपनी जरूरत पूरी करने के लिए कौन-सा उपाय निरापद हो सकता है।