Monday, October 6, 2014

सफाई की समस्या का व्यावहारिक समाधान ढूंढना होगा

देश में नई सरकार की प्राथमिकताएं दिखनी शुरू हो गयी हैं | पिछले हफ्ते स्वच्छता की बात उठी | जितनी तीव्रता से इस विचार को सामने लाया गया उससे नई सरकार के योजनाकार भी भोचक हैं | खास तौर पर इस बात पर कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सफाई के काम को छोटा सा काम बताया | जबकि अबतक का अनुभव बताता है की सफाई का काम उन बड़े बड़े कामों से कम खर्चीला नहीं है जिनके लिए हम हमेशा पैसा कि कमी का रोना रोते रहे हैं|

देश के 50 बड़े शहरों में साफ़ सफाई के लिए क्या कुछ करने कोशिश नहीं की गई ? 600 से ज्यादा जिला मुख्यालयों में जिला प्रशासन और स्थानीय प्रशासन अगर वाकई किसी मुद्दे पर आँखे चुराते हुए दिखता है तो वह साफ सफाई ही है | और उधर 7 लाख गावों को इस अभियान से जुड़ने के लिए हम न जाने कितने साल से लगे हैं | यानी कोई कहे कि इतने छोटे से काम पर पहले किसी का ध्यान नहीं गया तो यह बात ठीक नहीं होगी | महत्वपूर्ण बात यह होगी कि इस सर्वभौमिक समस्या के समाधान के लिए व्यवहारिक उपाय ढूंढने के काम पर लगा जाय |

गांधी जयन्ती पर नई सरकार के तमाम मंत्री किस तरह खुद झाड़ू लेकर सड़कों पर सफाई करते दिखे उससे लगता है कि इस समस्या को कर्तव्यबोध बता कर निपटाने की बात सोची गयी है | यानी हम मान रहे हैं कि नागरिक जबतक अपने आसपास का खुद ख़याल नहीं रखेंगे तबतक कुछ नहीं होगा | इस खुद ख्याल रखने की बात पर गौर ज़रूरी है |

शोधपरख तथ्य तो उपलब्ध नहीं है लेकिन सर्वभौमिक अनुभव है कि देश के मोहल्लों / गलियों में इस बात पर झगड़े होते हैं कि ‘मेरे घर के पास कूडा क्यों फेंका’ यानी समस्या यह है कि घर का कूड़ा कचरा इकठा करके कहाँ ‘फेंका’ जाय ?

निर्मला कल्याण समिति जैसी कुछ स्वयमसेवी संस्थाओं के पर्यीवेक्षण है कि उपनगरीय इलाकों में घर का कूड़ा फेकने के लिए लोगों को आधा किलोमीटर दूर तक जाना पड़ रहा है | ज़ाहिर है कि देश के 300 कस्बों में लोगों की तलाश बसावट के बाहर कूड़ा फेंकने की है | खास तौर पर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश का अनुभव यह है कि हमारे बेशकीमती जलसंसाधन मसलन तालाब, कुण्ड और कुँए – कूड़ा कचरा फेंकने के खड्ड बन गए हैं | इन नए घूरों और खड्डों की भी अपनी सीमा थी पर अब हर जगह ये घूरे और कूड़े से पट गए हैं| आने वाले समय में नई चुनौती यह खड़ी होने वाली है कि शहरों और कस्बों से निकले कूड़े-कचरे के पहाड़ हम कहाँ-कहाँ बनाए ? उसके लिए ज़मीने कहाँ ढूंढें ?

गाँव भले ही अपनी कमज़ोर माली हालत के कारण कूड़े कचरे की मात्रा से परेशान न हों लेकिन जनसँख्या के बढते दबाव के चलते वहां बसावट का धनत्व बढ़ गया है | गावों में तरल कचरा पहले कच्ची नालियों के ज़रिये भूमिगत जल में मिल जाता था | अब यह समस्या है कि गावों से निकली नालियों का पानी कहाँ जाए | इसके लिए भी गावों की सबसे बड़ी धरोहर पुराने तालाब या कुण्ड गन्दी नालियों के कचरे से पट चले हैं |

यह कहने की तो ज़रूरत है ही नहीं कि बड़े शहरों और कस्बों के गंदे नाले यमुना जैसी देश की प्रमुख नदियों में गिराए जा रहे हैं | चाहे विभिन्न प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड हों और चाहे पर्यावरण पर काम करने वाली स्वयमसेवी संस्थाएँ – और चाहे कितनी भी चिंतित सरकारें – ये सब गंभीर मुद्रा में ‘चिंता’ करते हुए तो दिखते हैं लेकिन सफाई जैसी बहुत छोटी ? या बहुत बड़ी ? समस्या पर ‘चिंताशील’ कोई नहीं दिखता | अगर ऐसा होता तो ठोस कचरा प्रबंधन, औद्योगिक कचरे के प्रबंधन, नदियों के प्रदूषण स्वच्छता और स्वास्थ के सम्बन्ध जैसे विषयों पर भी हमें बड़े अकादमिक आयोजन ज़रूर दिखाई देते हैं | विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय दिवसों और राष्ट्रीय दिवसों पर सरकारी पैसे से कुछ सेमीनार और शोध सम्मलेन होते ज़रूर हैं लेकिन उनमें समस्याओं के विभिन्न पक्षों की गिनती से ज्यादा कुछ नहीं हो पाता | ऐसे आयोजनों में आमंत्रित करने के लिए विशेषज्ञों का चयन करते समय लालच यह रहता है कि सम्बंधित विशेषज्ञ संसाधनों का प्रबंध करने में भी थोड़ा बहुत सक्षम हो | और होता यह है कि ऐसे समर्थ विशेषज्ञ पहले से चलती हुई यानी चालु योजना या परियोजना के आगे सोच ही नहीं पाते | जबकि जटिल समस्याओं के लिए हमें नवोन्मेषी मिज़ाज के लोगों की ज़रूरत पड़ती है | विज्ञान और प्रोद्योगिकी संस्थानों, प्रबंधन प्रोद्योगिकी संस्थानों और चिंताशील स्वयंसेवी संस्थाओं के समन्वित प्रयासों से, अपने अपने प्रभुत्व के आग्रह को छोड़ कर, एक दुसरे से मदद लेकर ही स्वच्छता जैसी बड़ी समस्या का समाधान खोजा जा पायेगा |

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