Rajasthan Patrika 11 Sep |
भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी एक और रथयात्रा शुरू करने का ऐलान कर चुके हैं। वे बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के प्रयासों से बने भ्रष्टाचार विरोधी माहौल को भुनाने की फिराक में हैं। उधर दिल्ली की राजनीति के गलियारों में इंका के भविष्य को लेकर अटकलें लगाई जा रही हैं। श्रीमती सोनिया गाँधी का अस्वस्थ होना, पार्टी को भारी पड़ा है। इन लोगों का मानना है कि अन्ना के अनशन से उपजी स्थिति का सही इस्तेमाल करने में राहुल गाँधी असफल रहे हैं। राहुल गाँधी का मंत्री मण्डल में शामिल न होने के भी दो अलग मायने लगाये जा रहे हैं। कुछ मानते हैं कि राहुल उत्तर प्रदेश में सफल हुए बिना सत्ता का हिस्सा नहीं बनना चाहते। वे बनेंगे तो सीधे प्रधानमंत्री या फिर संगठन के लिए काम करते रहेंगे। दूसरा पक्ष मानता है कि राहुल में आत्मविश्वास की कमी है। शायद उन्हें लगता है कि मंत्री बनकर वे ऐसी कोई छाप नहीं छोड़ पायेंगे, जिससे उनका जनाधार बढ़े और प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी मजबूत हो। इंका से बाहर के दलों में और राजनैतिक विश्लेषकों में यह बात काफी समय से चल रही है कि राहुल गाँधी का व्यक्तित्व, जमीन की समझ और आम लोगों के बारे में अनुभव इस स्तर का नहीं कि वे देश को नेतृत्व दे सकें। अभी उन्हें बहुत सीखना है, खासकर राजनीति के मामलों में। ऐसे में प्रधानमंत्री पद पर उनकी दावेदारी प्रचारित करके इंका को बहुत लाभ नहीं मिलने वाला है।
Punjab Kesari 12 Sep |
इन परिस्थितियों में इंका के बड़े नेता भी यह मानते हैं कि प्रियंका गाँधी का व्यक्तित्व, समझ और लोगों पर प्रभाव राहुल गाँधी से कहीं ज्यादा अच्छा पड़ता है। पर खुलकर कहने की हिम्मत किसी में नहीं है। दबी जुबान से ही काफी नेता यही चर्चा करते हैं। जहाँ तक प्रियंका का सवाल है, उन्होंने अपनी सीमित प्रेस मुलाकातों में बार-बार यही दोहराया है कि वे सक्रिय राजनीति में नहीं आना चाहतीं। अपने भाई व माँ की मदद भर करना चाहती हैं। पर इंका के रणनीतिकार, जो आज कई खेमों में बंटे हैं, दावा करते हैं कि अगले चुनाव से पहले प्रियंका गाँधी को सामने लाना पार्टी की मजबूरी होगा। क्योंकि सरकार के विरूद्ध आज बने माहौल में प्रियंका का ही व्यक्तित्व ऐसा है जो आम जनता को आकर्षित कर सकता है।
उधर प्रियंका गाँधी को निजी तौर पर जानने वालों का दावा है कि वे अपने परिवार और छोटे बच्चों के साथ ही समय बिताना चाहती है। राजनीति के पचड़े में नहीं पड़ना चाहतीं। अगर यह सच है तो भी प्रियंका के राजनीति में पदार्पण की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता। उल्लेखनीय है कि जब राजीव गाँधी हवाई जहाज उड़ाते थे और 7 रेसकोर्स पर अपनी मम्मी के सरकारी आवास में सपरिवार रहते थे, तब यह चर्चा देश में बार-बार उठी कि राजीव गाँधी राजनीति में नहीं आना चाहते। इसलिए संजय गाँधी को सामने आना पड़ा। पर अन्त में अपने भाई की आकस्मिक मृत्यु व माँ की हत्या के बाद उन्हें बे-मन से ही सही, राज-काज संभालना पड़ा। ठीक इसी तरह प्रियंका गाँधी कितना भी ना-नुकुर कर लें, अगर इंका के कार्यकर्ताओं ने और चुनाव के समय की देश की परिस्थिति ने उन्हें ऐसा मौका दिया तो वे शायद पीछे नहीं हटेंगी।
Hind Samachar 12 Sep 11 |
इसमें एक ही अड़चन है। गत् गई महीनों से भाजपा और संघ से जुड़े लोगों ने देशभर में करोड़ो एस.एम.एस. भेज-भेजकर इंका और उसके नेतृत्व के खिलाफ एक आक्रामक अभियान चला रखा है। जिसमें नेहरू परिवार के प्रति काफी विष-वमन किया जा रहा है। तमाम तरह के आरोपों के एस.एम.एस. ये लोग दिनभर भेजते रहते हैं। यहाँ तक कि सोनिया गाँधी की बीमारी पर भी इनके एस.एम.एस. ये सन्देश दे रहे थे कि वे इलाज कराने नहीं, अपनी अकूत दौलत को ठिकाने लगाने गईं हैं। इसी क्रम में इन एस.एम.एस. के माध्यम से प्रियंका गाँधी के पति रॉबर्ट वढेरा पर अनेक घोटालों में लिप्त होने के भी आरोप लगातार लगाये जा रहे हैं। इन सब आरोपों का आधार है या नहीं, यह तो भविष्य बताएगा, पर इतना स्पष्ट है कि इनका मकसद प्रियंका गाँधी के राजनैतिक भविष्य को ग्रहण लगाना है। सच्चाई क्या है, प्रियंका गाँधी बेहतर जानती होंगी। अगर वे मन के किसी कोने में भी दबी हुई राजनैतिक महत्वकांक्षा पाले हुए हैं, तो वे इस सम्भावित परिस्थिति के प्रति सचेत होंगी।
राहुल गाँधी हों या प्रियंका गाँधी, इंका सत्ता में हो या विपक्ष में, पर मूलभूत सवाल यह है कि इन दोनों की समझ देश की बुनियादी समस्याओं के बारे में कितनी गहरी है? जिस तरह की अपेक्षा और आक्रोश देश की आम जनता में अब पैदा हो चुका है, उनकी मांगे ढेर सारी होंगी और वे किसी भी छलावे में आने को तैयार नहीं होंगे। 122 करोड़ लोगों की महत्वकांक्षा को पश्चिमी विकास मॉडल से पूरा नहीं किया जा सकता। उनकी उपभोक्तावादी संस्कृति ने दुनिया का औपनिवेशिक शोषण कर, अपने देशों को बनाया। नव उपनिवेशवाद के दौर में बिना गुलाम बनाए भी दुनिया के देशों का जमकर आर्थिक दोहन किया। जिससे उनके देशों की प्रजा भोग-विलास का जीवन जी सकें। जबकि भारत के अधीन ऐसा कोई उपननिवेश नहीं है जो भारत की बढ़ती मांगों की तेजी से पूर्ति कर सके। ऐसे में अमीर गरीब की खाई बढ़ती जा रही है। बढ़ रहा है आक्रोश और हिंसा और लोगों की अधीरता। जिसे पूरा करने के लिए विकास का देशी गाँधीवादी मॉडल ही फिर से अपनाना होगा। कागजों पर नहीं, जमीन पर। क्या प्रियंका गाँधी ने इस बारे में कोई अध्ययन, कोई यात्रा या कोई अन्य प्रयास किया है? जिससे उनकी समझ इन मुद्दों पर विकसित हो सके। अगर किया है तो उन्हें जनता के बीच विकास का नया मॉडल लेकर जाने में कोई संकोच नहीं होगा। तब जनता उनसे जुड़ा हुआ अनुभव करेगी। अगर ऐसा नहीं है तो उन्हें और समाज को दिक्कत आएगी। पर यह स्पष्ट है कि प्रियंका गाँधी अपने भाई के खिलाफ बगावत का झण्डा बुलन्द करके सत्ता पर काबिज नहीं होना चाहेंगी। जो कुछ नेहरू-गाँधी परिवार करेगा, सामूहिक सोच और समन्वय के साथ करेगा।