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Monday, July 22, 2024

आम आदमी की बजट से उम्मीद !


जहां एक तरफ़ केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण देश की आर्थिक प्रगति को लेकर लगातार अपनी पीठ थपथापती रही हैं, वहीं देश के बड़े अर्थशास्त्री, उद्योगपति और मध्यम वर्गीय व्यापारी वित्त मंत्री के बनाए पिछले बजटों से संतुष्ट नहीं हैं। अब नया बजट आने को है। पर जिन हालातों में एनडीए की सरकार आज काम कर रही है उनमें उससे किसी क्रांतिकारी बजट की आशा नहीं की जा सकती। नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू की लंबी चौड़ी वित्तीय माँगे, सत्तारूढ़ दल द्वारा आम जनता को आर्थिक सौग़ातें देने के वायदे और देश के विकास की ज़रूरत के बीच तालमेल बिठाना आसान नहीं होगा। वह भी तब जब भारत सरकार ने विदेशों से ऋण लेने की सारी सीमाएँ लांघ दी हैं। आज भारत पर 205 लाख करोड़ रुपए का विदेशी क़र्ज़ हैं। ऐसे में और कितना क़र्ज़ लिया जा सकता है? क्योंकि क़र्ज़ को चुकाने के लिए जनता पर अतिरिक्त करों का भार डालना पड़ता है। जिससे महंगाई बढ़ती है। जिसकी मार आम जनता पहले ही झेल रही है। 


दक्षिण भारत के मशहूर उद्योगपति, प्रधान मंत्री श्री मोदी के प्रशंसक और आर्थिक मामलों के जानकार डॉ मोहनदास पाइ ने देश की मौजूदा आर्थिक हालत पर तीखी टिप्पणी की है। देश की मध्यम वर्गीय आबादी में बढ़ते हुए रोष का हवाला देते हुए वे कहते हैं कि, पूरे देश में मध्यम वर्ग बहुत दुखी है क्योंकि वे अधिकांश करों का भुगतान कर रहे हैं। उन्हें कोई कर कटौती नहीं मिल रही है। मुद्रास्फीति अधिक है, लागत अधिक है, छात्रों की फीस बढ़ गई है व रहने की लागत बढ़ गई है। हालात में सुधार होने के बावजूद यातायात के कारण शहरों में जीवन की गुणवत्ता खराब बनी हुई है।वे करों की दर में कमी देखना चाहते हैं श्री पाइ उस टैक्स स्लैब नीति के पक्ष में नहीं हैं जो सरकार ने पिछले दो बजट में पेश की है। उनके अनुसार, आयकर संग्रह 20 से 22 प्रतिशत बढ़ रहा है, इसलिए देश के मध्यम वर्ग के लिए आयकर के कई नए स्लैब और केवल आवास निर्माण के लिए कारों में छूट देने की बजाय करों में कटौती करने की आवश्यकता है। 



मोहनदास पाइ का तर्क केवल देश के मध्यम वर्ग तक ही सीमित नहीं है, उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि हमारी आबादी के निचले 50 प्रतिशत हिस्से की क्रय शक्ति बढ़ाने की आवश्यकता के साथ-साथ बुनियादी ढांचे के विकास जैसी चुनौतियों पर प्राथमिक ध्यान दिया जाए। इतना ही नहीं, वे मानते हैं कि रोज़गार क्षेत्र की वृद्धि को सुनिश्चित किया जाय।इसके लिये वे वर्तमान चुनौतियों पर काबू पाने पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता पर ज़ोर देते है। 80 प्रतिशत नौकरियों में 20,000 रुपये  से कम वेतन मिलता है, और यह एक समस्या है। वे आगे कहते हैं कि हमें कर आतंकवाद को रोकना होगा, पाइ ने प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) पर मामलों को पूरा करने और उन्हें निर्धारित समय सीमा में जवाबदेह ठहराने के लिए चार्ट शीट दाखिल करने पर ध्यान केंद्रित करने पर भी ज़ोर दिया। उनके अनुसार टैक्स आतंकवाद भारत के लिए बड़ा खतरा है।


आगामी बजट से देश को काफ़ी उम्मीदें हैं। हर कोई चाहता है कि बढ़ती हुई महंगाई के चलते उन पर अतिरिक्त  करों का भार न पड़े। 


उधर प्रसिद्ध अर्थसास्त्री प्रो अरुण कुमार ने सरकार के समानांतर किए गए देश के आर्थिक सर्वेक्षण के आधार पर देश की मौजूदा आर्थिक स्थिति को लेकर जो विश्लेषण किया है वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। वे कहते हैं कि, सरकार का राजनीतिक निर्णय लोगों की आर्थिक जरूरतों से भिन्न है। बजट दस्तावेजों का एक जटिल समूह है जिसे अधिकांश नागरिक समझने में असमर्थ हैं। बजट में ढेर सारे आंकड़ों और लोकलुभावन घोषणाओं के पीछे असली राजनीतिक मंशा छिपी हुई है। तमाम समस्याओं के बावजूद नागरिकों की समस्याएँ साल-दर-साल बनी रहती हैं।


सरकार बजट का उपयोग यह दिखाने के लिए करती है कि कठिनाइयों के बावजूद अर्थव्यवस्था अच्छा प्रदर्शन कर रही है और नागरिकों की समस्याओं का ध्यान रखा जाएगा। इसके लिए डेटा को चुनिंदा तौर पर पेश किया जाता है. चूंकि पूरी तस्वीर सामने नहीं आई है, इसलिए विश्लेषकों को अर्थव्यवस्था की वास्तविक स्थिति बताने के लिए पेश किए गए आंकड़ों के पीछे जाना होगा। इसलिए, जहां स्थापित अर्थशास्त्री बजट की प्रशंसा करते हैं, वहीं आलोचक यथार्थवादी स्थिति प्रस्तुत करते हैं और इसमें वैकल्पिक व्याख्या का महत्व निहित है। 


यह समस्या, महत्वपूर्ण डेटा की अनुपलब्धता और इसके हेरफेर से और बढ़ गई है। उदाहरण के लिए, जनगणना 2021 का इंतजार है। 2022 की शुरुआत के बाद महामारी समाप्त हो गई और अधिकांश देशों ने अपनी जनगणना कर ली है, लेकिन भारत में यह प्रक्रिया शुरू नहीं हुई है। जनगणना डेटा का उपयोग डेटा संग्रह के लिए उपयोग किए जाने वाले अधिकांश अन्य सर्वेक्षणों के लिए नमूना तैयार करने के लिए किया जाता है। फ़िलहाल, 2011 की जनगणना का उपयोग किया जाता है, लेकिन उसके बाद से हुए बड़े बदलावों को इसमें शामिल नहीं किया जाता है। इसीलिए, परिणाम 2024 की स्थिति का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।


प्रो कुमार के अनुसार, सरकार द्वारा प्रतिकूल समाचारों का खंडन भी एक अहम कारण है। क्योंकि यह आलोचना के उस बिंदु को भूल जाता है जो परिभाषा के अनुसार बड़ी तस्वीर और उसकी कमियों पर केंद्रित है। यह सच है कि जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था बढ़ती है, बहुत सी चीजें घटित होती हैं या बदलती हैं। वहाँ अधिक सड़कें, उच्च साक्षरता, अधिक अस्पताल, अधिक ऑटोमोबाइल आदि हैं। लेकिन, इनके साथ गरीबी, खराब गुणवत्ता वाली शिक्षा और स्वास्थ्य आदि भी हो सकते हैं। ये कमियाँ समाज के लिए चिंता का कारण हैं और आलोचक इसे उजागर करते हैं। महामारी ने उन्हें तीव्र फोकस में ला दिया। महामारी से उबरने के बाद स्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं आया है क्योंकि यह असमान है। संगठित क्षेत्र असंगठित क्षेत्र की कीमत पर बढ़ रहा है जिससे गिरावट आ रही है और विशाल बहुमत की समस्याएं बढ़ रही हैं। कई अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग सापेक्ष हैं और पूर्ण नहीं हैं लेकिन भारत की रैंकिंग में कम रैंक या गिरावट यह दर्शाती है कि या तो स्थिति अन्य देशों की तुलना में खराब हो रही है या वास्तव में समय के साथ गिरावट आ रही है।


प्रो कुमार के अनुसार, आधिकारिक डेटा आंशिक है और प्रतिकूल परिस्थितियों को छुपाने के लिए इसमें हेरफेर किया गया है। इसीलिए एक वैकल्पिक तस्वीर तैयार करने की ज़रूरत है जो देश में बढ़ती आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक अस्थिरता और बढ़ते संघर्ष की वास्तविकता को दर्शाती हो। यह हाशिए पर मौजूद वर्गों की समस्याओं के समाधान के लिए नीतियों में व्यापक बदलाव की आवश्यकता को उजागर करता है। यह शून्य-राशि वाला खेल नहीं होगा बल्कि देश के लिए एक सकारात्मक-राशि वाला खेल होगा।


इन हालातों में आगामी आम बजट में देशवासियों को क्या राहत मिलती है ये तो बजट प्रकाशित होने के बाद ही पता चलेगा। लेकिन जाने-माने आर्थिक विशेषज्ञों के इस विश्लेषण को मोदी सरकार को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है। 

Monday, July 17, 2023

ईडी: कार्यपालिका पर न्यायपालिका की नज़र


प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के मौजूदा निदेशक संजय कुमार मिश्रा के कार्यकाल विस्तार को सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध ठहराया है। क्योंकि उनको तीन बार जो सेवा विस्तार दिया गया वो सर्वोच्च न्यायालय के 1997 के आदेश, ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार, सीवीसी एक्ट, दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट एक्ट व कॉमन कॉज़’ के फ़ैसले के विरुद्ध था। इन सब फ़ैसलों के अनुसार ईडी निदेशक का कार्यकाल केवल दो वर्ष का ही होना चाहिए। इस तरह लगातार सेवा विस्तार देने का उद्देश्य क्या था? इस सवाल के जवाब में भारत सरकार का पक्ष यह था कि श्री मिश्रा ‘वित्तीय कार्रवाई कार्य बल’ (एफ़एटीएफ़) में भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं इसलिए इनको सेवा विस्तार दिया जा रहा है। जबकि एफ़एटीएफ़ की वेबसाइट पर ईडी निदेशक का कोई कोई उल्लेख नहीं है। इस पर न्यायाधीशों की टिप्पणी थी कि क्या भारत में कोई दूसरा व्यक्ति इतना योग्य नहीं है जो ये काम कर सके? 



संजय कुमार मिश्रा की कार्य प्रणाली पर लगातार उँगलियाँ उठती रहीं हैं। उन्होंने जितने नोटिस भेजे, छापे डाले, गिरफ़्तारियाँ की या संपत्तियाँ ज़ब्त कीं वो सब विपक्ष के नेताओं के ख़िलाफ़ थीं। जबकि सत्तापक्ष के किसी नेता, विधायक, सांसद व मंत्री के ख़िलाफ़ कोई करवाई नहीं की। इससे भी ज़्यादा विवाद का विषय यह था कि विपक्ष के जिन नेताओं ने ईडी की ऐसी करवाई से डर कर भाजपा का दामन थाम लिया, उनके विरुद्ध आगे की करवाई फ़ौरन रोक दी गई। ये निहायत अनैतिक कृत्य था। जिसका विपक्षी नेताओं ने तो विरोध किया ही, देश-विदेश में भी ग़लत संदेश गया। सोशल मीडिया पर भाजपा को ‘वाशिंग पाउडर’ कह कर मज़ाक़ बनाया गया। अगर श्री मिश्रा निष्पक्ष व्यवहार करते तो भी उनके कार्यकाल का विस्तार अवैध ही था, पर फिर इतनी उँगलियाँ नहीं उठतीं। इन्हीं सब कारणों से सुप्रीम कोर्ट ने उनके सेवा विस्तार को अवैध करार दिया और भारत सरकार को निर्देश दिया कि वो 31 जुलाई 2023 तक ईडी के नये निदेशक को नियुक्त कर दें। इसे देश-विदेश में एक बड़ा फ़ैसला माना गया है। हालाँकि सेवा विस्तार के सरकारी अध्यादेश को निर्धारित प्रक्रिया के तहत पालन करने की छूट भी भारत सरकार को दी गई। मनमाने ढंग से अब सरकार ये सेवा विस्तार नहीं दे सकती। 



सर्वोच्च न्यायालय के इस फ़ैसले का देश की नौकरशाही ने बहुत स्वागत किया है। उनकी इस भावना का वैध कारण भी है। कोई भी व्यक्ति जब आईएएस, आईपीएस या आईआरएस की नौकरी शुरू करता है तो उसे इस बात उम्मीद होती है कि अपने सेवा काल के अंत में, वरिष्ठता के क्रम से, अगर संभव हुआ तो वो सर्वोच्च पद तक पहुँचेगा। परंतु जब एक ही व्यक्ति को इस तरह बार-बार सेवा विस्तार दिया जाता है तो उसके बाद के बैच के अधिकारी ऐसे पदों पर पहुँचने से वंचित रह जाते हैं। जिससे पूरी नौकरशाही में हताशा फैलती है। यह सही है कि ऐसे महत्वपूर्ण पदों पर किस व्यक्ति को तैनात करना है, ये फ़ैसला प्रधान मंत्री की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय नियुक्ति समिति करती है। पर इसके लिए भी कुछ नियम और प्रक्रिया निर्धारित हैं। जैसे इस समिति को विचारार्थ संभावित उम्मीदवारों की जो सूची भेजी जाती है उसे केंद्रीय सतर्कता आयोग छान-बीन करके तैयार करता है। लेकिन हर सरकार अपने प्रति वफादार अफ़सरों को तैनात करने की लालसा में कभी-कभी इन नियमों की अवहेलना करने का प्रयास करती है। इसी तरह के संभावित हस्तक्षेप को रोकने के लिए दिसंबर 1997 में जैन हवाला कांड के मशहूर फ़ैसले में विस्तृत निर्देश दिये गये थे। 



इन निर्देशों की अवहेलना, जैसे अब मोदी सरकार ने की है वैसे ही 2014 में मनमोहन सिंह सरकार ने भी की थी। जब उसने तमिलनाडु की पुलिस महानिदेशक अर्चना रामासुंदरम को पिछले दरवाज़े से ला कर सीबीआई का विशेष निदेशक नियुक्त कर दिया था। इस बार की ही तरह 2014 में भी मैंने इस अवैध नियुक्ति को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। मेरी उस याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने अर्चना रामासुंदरम की नियुक्ति को ख़ारिज कर दिया था। 


उधर गृह मंत्री अमित शाह ने ईडी वाले मामले में फ़ैसला आते ही ट्विटर पर बयान दिया कि विपक्षी दल ख़ुशी न मनाएँ क्योंकि भ्रष्टाचार के विरुद्ध ईडी की मुहिम जारी रहेगी। उनका ये बयान स्वागत योग्य है यदि ईडी की ये मुहिम बिना भेद-भाव के सत्तापक्ष और विपक्ष के संदेहास्पद लोगों के ख़िलाफ़ जारी रहती है। जहां तक मेरा प्रश्न है मेरा कभी कोई राजनैतिक उद्देश्य नहीं रहता। चूँकि सीबीआई, सीवीसी, ईडी आदि को अधिकतम स्वायत्तता दिलवाने में मेरी भी अहम भूमिका रही थी। इसलिए जब भी कोई सरकार ऐसे मामलों में क़ानून के विरुद्ध कुछ करती है तो मैं उसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देना अपना कर्तव्य समझता हूँ।



सर्वोच्च न्यायालय के इस फ़ैसले से उत्साहित हो कर देश के मीडिया में एक बहस चल पड़ी है कि अगर सर्वोच्च न्यायालय ने संजय कुमार मिश्रा के कार्यकाल के विस्तार को अवैध माना है तो श्री मिश्रा द्वारा इस दौरान लिये गये सभी निर्णय भी अवैध क्यों न माने जाएँ? इस तरह के सुझाव मुझे भी देश भर से मिल रहे हैं कि मैं इस मामले में फिर से सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाऊँ। फ़िलहाल मुझे इसकी ज़रूरत महसूस नहीं हो रही। कारण, सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ फ़ैसले में पहले से ही इस बात का सुझाव है कि ईडी व सीबीआई के कार्यकलापों की एक नोडल एजेंसी द्वारा हर महीने समीक्षा की जाएगी। इस समिति की अध्यक्षता, भारत के गृह सचिव करेंगे। जिनके अलावा इसमें सीबीडीटी के सदस्य (इन्वेस्टीगेशन), महानिदेशक राजस्व इंटेलिजेंस, ईडी व सीबीआई के निदेशक रहेंगे, विशेषकर जिन मामलों में नेताओं और अफ़सरों के आपराधिक गठजोड़ के आरोप हों। ये नोडल एजेंसी हर महीने ऐसे मामलों का मूल्यांकन करेगी। अगर सर्वोच्च न्यायालय के इस सुझाव को सरकार अहमियत देती है तो ऐसे विवाद खड़े ही नहीं होंगे। ईडी और सीबीआई दो सबसे महत्वपूर्ण जाँच एजेंसियाँ हैं जिनकी साख धूमिल नहीं होनी चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हर सरकार इन एजेंसियों का दुरुपयोग करने की कोशिश करती हैं। पर इससे सरकार और ये एजेंसियाँ नाहक विवादों में घिरते रहते हैं और हर अगली सरकार फिर पिछली सरकार के विरुद्ध बदले की भावना से काम करती है, जो नहीं होना चाहिए।