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Monday, February 18, 2019

आतंकवाद के खिलाफ कड़ी कार्रवाई हो

जम्मू कश्मीर के पुलवामा में हुए आत्मघाती हमले से पूरा भारत आज दुखी है और आक्रोश में है। इस त्रासदी के समय हम सब प्रधानमंत्री प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के साथ हैं। देशवासी चाहते हैं कि आतंकी वारदात पर कड़़ी कार्यवाही हो। पर सर्जिकल स्ट्राइक जैसी कड़ी कार्यवाही तो पहले भी होती रही है। प्रश्न है कि जब सुरक्षाबलों का काफिला चलता है, तो उस मार्ग को पहले सुरक्षित कर दिया जाता है। जब ढाई्र हजार जवानों का आधा किलोमीटर लंबा काफिला एक जगह से दूसरी जगह सड़क मार्ग से जा रहा था, तो क्या उस पर ड्रोन से नजर, हेलिकॉप्टर से निगरानी रखते हुए, सुरक्षा कवच नहीं होना चाहिए था? ताकि अगल-बगल से कोई अनाधिकृत गाड़ी या बारूद से भरी कार, बस द्वारा किसी तरह की संदिग्ध गतिविधि न हो। आश्चर्य है कि इतनी भारी मात्रा विस्फोटक का प्रयोग कैसे कर लिया गया? कैसे इन विस्फोटक अतिसंवेनशील क्षेत्र में आतंकवादी तक पहुंचा? हमारी रक्षा और गृह मंत्रालय की खुफिया ऐजेंसी क्या कर रही थी?
अब सवाल उठता है कि देश में आतंकवाद पर कैसे काबू पाया जाए। हमारा देश ही नहीं दुनिया के तमाम देशों का आतंकवाद के विरुद्ध इकतरफा साझा जनमत है। ऐसे में सरकार अगर कोई ठोस कदम उठाती है, तो देश उसके साथ खड़ा होगा। उधर तो हम सीमा पर लड़ने और जीतने की तैयारी में जुटे रहें और देश के भीतर आईएसआई के एजेंट आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देते रहें तो यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती। मैं कई वर्षों से लिखता रहा हूं कि देश की खुफिया एजेंसियों को इस बात की पुख्ता जानकारी है कि देश के 350 से ज्यादा शहरों और कस्बों की सघन बस्तियों में आरडीएक्स, मादक द्रव्यों और अवैध हथियारों का जखीरा जमा हुआ है जो आतंकवादियों के लिए रसद पहुँचाने का काम करता है। प्रधानमंत्री को चाहिए कि इसके खिलाफ एक ‘आपरेशन क्लीन स्टार’ या ‘अपराधमुक्त भारत अभियान’ की शुरुआत करें और पुलिस व अर्धसैनिक बलों को इस बात की खुली छूट दें जिससे वे इन बस्तियों में जाकर व्यापक तलाशी अभियान चलाएं और ऐसे सारे जखीरों को बाहर निकालें।
आतंकवाद को रसद पहुंचाने का दूसरा जरिया है हवाला कारोबार। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के तालिबानी हमले के बाद से अमरीका ने इस तथ्य को समझा और हवाला कारोबार पर कड़ा नियन्त्रण कर लिया। नतीजतन तब से आज तक वहां आतंकवाद की कोई घटना नहीं हुइ। जबकि भारत में पिछले 23 वर्षों से हम जैसे कुछ लोग लगातार हवाला कारोबार पर रोक लगाने की मांग करते आये हैं। पर ये भारत में बेरोकटोक जारी है। इस पर नियन्त्रण किये बिना आतंकवाद की श्वासनली को काटा नहीं जा सकता। तीसरा कदम संसद को उठाना है द्य ऐसे कानून बनाकर जिनके तहत आतंकवाद के आरोपित मुजरिमों पर विशेष अदालतों में मुकदमे चला कर 6 महीनों में सजा सुनाई जा सके। जिस दिन मोदी सरकार ये 3 कदम उठा लेगी उस दिन से भारत में आतंकवाद का बहुत हद तक सफाया हो जाएगा।
अगर आतंकवाद पर राजनीतिकों की दबिश की समीक्षा करें तो यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि सरकारें अब तक आतंकवाद के खिलाफ कोई कारगर उपाय कर नहीं पायी है। राजनीतिक तबका आतंकवाद को व्यवस्था के खिलाफ एक अलोकतांत्रिक यंत्र ही मानता रहा है और बेगुनाह नागरिकों की हत्याओं के बाद येही कहता रहा है कि आतंकवाद को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। होते होते कई दशक बीत जाने के बाद भी विश्व में आतंकवाद के कम होने या थमने का कोई लक्षण हमें देखने को नहीं मिलता।
नए हालात में जरूरी हो गया है कि आतंकवाद के बदलते स्वरुप पर नए सिरे से समझना शुरू किया जाए। हो सकता है कि आतंकवाद से निपटने के लिए बल प्रयोग ही अकेला उपाए न हो। क्या उपाय हो सकते हैं उनके लिए हमें शोधपरख अध्ययनों की जरूरत पड़ेगी। अगर सिर्फ 70 के दशक से अब तक यानी पिछले 40 साल के अपने सोच विचारदृष्टि अपनी कार्यपद्धति पर नजर डालें तो हमें हमेशा तदर्थ उपायों से ही काम चलाना पड़ा ह। इसका उदाहरण कंधार विमान अपहरण के समय का है जब विशेषज्ञों ने हाथ खड़े कर दिए थे कि आतंकवाद से निपटने के लिए हमारे पास कोई सुनियोजित व्यवस्था ही नहीं है।
यदि विश्वभर के शीर्ष नेतृत्त्व एकजुट होकर कुछ ठोस कदम उठाऐं, तो उम्मीद है कि हम आतंकवाद के साथ भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, शोषण और बेरोजगारी जैसी समस्याओं का भी समाधान पा लें।
देश इस समय गंभीर हालत से गुजर रहा है। मातम की इस घड़ी में रोने के बजाए सीमा सुरक्षा पर गिद्धदृष्टि और दोषियों को कड़ा जबाब देने की कार्यवाही की जानी चाहिए। पर ये भी याद रहे कि हम जो भी करें, वो दिलों में आग और दिमाग में बर्फ रखकर करें।

Monday, October 3, 2016

आतंकवाद से निपटने के लिए और क्या करें



छप्पन इंच का सीना रखने वाले भारत के लोकप्रिय प्रधान मंत्री नरेंद्र भाई मोदी ने वो कर दिखाया जिसका मुझे 23 बरस से इंतज़ार था | उन्होंने पाकिस्तान को  ही चुनौती नही दी बल्कि आतंकवाद से लड़ने की दृढ इच्छा शक्ति दिखाई है | जिसके लिए वे और उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलहाकार अजीत डोभाल दोनों बधाई के पात्र हैं | यहाँ याद दिलाना चाहूँगा कि 1993 में जब मैंने कश्मीर के आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन को दुबई और लन्दन से आ रही अवैध आर्थिक मदद के खिलाफ हवाला काण्ड को उजागर कर सर्वोच्च न्यायलय में जनहित याचिका दायर की थी, तब किसी ने इस खतरनाक और लम्बी लड़ाई में साथ नहीं दिया | तब न तो आतंकवाद इतना बढ़ा था और न ही तब इसने अपने पैर दुनिया भर में पसारे थे | तब अगर देश के हुक्मरानों, सांसदों, जांच एजेंसियों और मीडिया ने आतंकवाद के खिलाफ इस लड़ाई में साथ दिया होता तो भारत को हजारों बेगुनाह और जांबाज़ सिपाहियों और अफसरों की क़ुरबानी नहीं देनी पड़ती | आज टीवी चैनलों पर जो एंकर परसन और विशेषज्ञ उत्साह में भर कर आतंकवाद के खिलाफ लम्बे चौड़े बयान दे रहे हैं वे 1993 से 1998 के दौर में अपने लेखों और वक्तव्यों को याद करें तो पायेंगे कि उन्होंने उस वक्त अपनी ज़िम्मेदारी का ईमानदारी से निर्वाह नहीं किया |

हवाला काण्ड उजागर करने के बाद से आज तक देश विदेश के सैंकड़ों मंचों पर, टीवी चैनलों पर और अखबारों में मैं इन सवालों को लगातार उठाता रहा हूँ | मुम्बई पर हुए आतंकी हमले के बाद देश के दो दर्जन बड़े उद्योगपतियों ने मुझे मुम्बई बुलाया था वे सब बुरी तरह भयभीत थे | जिस तरह आतंकवादियों ने ताज होटल से लेकर छत्रपति शिवाजी स्टेशन तक भारी नरसंहार किया उससे उनका विश्वास देश की पुलिस और सुरक्षा व्यवस्था पर से हिला हुआ था | वे मुझसे जानना चाहते थे कि देश में आतंकवाद पर कैसे काबू पाया जाय| जो बात तब मैंने उनके सामने रखी वही आज एक बार फिर दोहराने की जरूरत है | अंतर इतना है कि आज देश के भीतर और देश के बाहर श्री नरेंद्र मोदी को आतंकवाद से लड़ने में एक मजबूत नेतृत्व के रूप में देखा जा रहा है | साथ ही देशवासियों और दुनिया के तमाम देशों का आतंकवाद के विरुद्ध इकतरफा साझा जनमत है | ऐसे में प्रधान मंत्री अगर कोई ठोस कदम उठाते हैं तो उसका विरोध करने वालों को देशद्रोही समझा जायेगा और जनता ऐसे लोगों को सडकों पर उतर कर सबक सिखा देगी | हम सीमा पर लड़ने और जीतने की तय्यारी में जुटे रहें और देश के भीतर आईएसआई के एजेंट आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देते रहें तो यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती | देश की ख़ुफ़िया एजेंसियों को इस बात की पुख्ता जानकारी है कि देश के 350 से ज्यादा शहरों और कस्बों की सघन बस्तियों में आरडीएक्स, मादक द्रव्यों और अवैध हथियारों का जखीरा जमा हुआ है जो आतंकवादियों के लिए रसद पहुँचाने का काम करता है | प्रधान मंत्री को चाहिए कि इसके खिलाफ एक ‘आपरेशन क्लीन स्टार’ या ‘अपराधमुक्त भारत अभियान’ की शुरुआत करें और पुलिस व अर्धसैनिक बलों को इस बात की खुली छूट दें जिससे वे इन बस्तियों में जाकर व्यापक तलाशी अभियान चलाएं और ऐसे सारे जखीरों को बाहर निकालें|

आतंकवाद को रसद पहुंचाने का दूसरा जरिया है हवाला कारोबार | वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के तालिबानी हमले के बाद से अमरीका ने इस तथ्य को समझा और हवाला कारोबार पर कड़ा नियन्त्रण कर लिया | नतीजतन तब से आज तक वहां आतंकवाद की कोई घटना नहीं हुई | जबकि भारत में पिछले 23 वर्षों से हम जैसे कुछ लोग लगातार हवाला कारोबार पर रोक लगाने की मांग करते आये हैं | पर ये भारत में बेरोकटोक जारी है | इस पर नियन्त्रण किये बिना आतंकवाद की श्वासनली को काटा नहीं जा सकता | तीसरा कदम संसद को उठाना है | ऐसे कानून बनाकर जिनके तहत आतंकवाद के आरोपित मुजरिमों पर विशेष अदालतों में मुकदमे चला कर 6 महीनों में सज़ा सुनाई जा सके | जिस दिन मोदी सरकार ये 3 कदम उठा लेगी उस दिन से भारत में आतंकवाद का बहुत हद तक सफाया हो जाएगा |

आज के माहौल में ऐसे कड़े कदम उठाना मोदी सरकार के लिए मुश्किल काम नहीं है | क्योंकि जनमत उसके पक्ष में है | आतंकवाद से पूरी दुनिया त्रस्त है | भारत में ही नहीं पाकिस्तान तक में आम जनता का जीवन आतंकवादियों ने खतरे में डाल दिया है | कौन जाने कब, कहाँ और कैसे आतंकवादी हमला हो जाय और बेकसूर लोगों की जानें चली जाएं | इसलिए हर समझदार नागरिक, चाहे किसी भी देश या धर्म का हो, आतंकवाद को समाप्त करना चाहता है | उसकी निगाहें अपने हुक्मरानों पर टिकी हैं | मोदी इस मामले में अपने गुणों के कारण सबसे आगे खड़े हैं | आतंकवाद से निपटने के लिए वे सीमा के पार या सीमा के भीतर जो भी करेंगे सब में जनता उनका साथ देगी |
जामवंत कहि सुन हनुमाना | का चुप साध रह्यो बलवाना ||

Monday, August 15, 2016

कश्मीर की घाटी में तूफान: मीडिया की विफलता

कश्मीर की घाटी में जो बवाल हो रहा है, उसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार केंद्र सरकार की नाकारा मीडिया पाॅलिसी है। आज हालत ये है कि कश्मीर की घाटी में उपद्रव का संचालन पूरे तरीके से पाकिस्तान की आईएसआई के हाथ में है। जो सीमापार से गत 20 वर्षों में कश्मीरी युवाओं की ब्रेन वाॅशिंग करने में सफल रही है। आज यहां 10 साल के बच्चे के सिर पर जाली वाली टाॅपी और हाथ में पत्थर है। निशाने पर भारत की फौज। वही फौज, जिसने श्रीनगर की बाढ़ में सबसे ज्यादा राहत पहुंचाने का काम किया। तब न तो आईएसआई काम आयी और न ही पाकिस्तान की फौज। आज कश्मीर में भारत विरोधी माहौल बनाने का काम वहां का बुद्धिजीवी वर्ग, मीडिया, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता और राजनेता कर रहे हैं। इन सबका एक ही नारा है - आज़ादी।

कोई इनसे यह नहीं पूछता कि किससे आज़ादी और कैसी आज़ादी ? जबकि हकीकत यह है कि कश्मीर के लोगों को भारतवासियों और पाकिस्तानियों से भी ज़्यादा आज़ादी मिली हुई है। भारत के किसी भी नागरिक को कश्मीर में संपत्ति खरीदने का अधिकार नहीं है। जबकि कश्मीर का कोई भी व्यक्ति हिंदुस्तान के किसी भी कोने में संपत्ति खरीद सकता है। नौकरी और व्यापार कर सकता है। यही कारण है कि चाहें गोवा के समुद्री तट हों या हिंदू और ईसाइयों के समुद्र तट पर बसे दर्जनों पारंपरिक नगर हों, हर ओर आपको कश्मीरी नौजवानों के एम्पोरियम नज़र आएंगे। देश की राजधानी दिल्ली से लेकर पूरे भारत में कश्मीरी खूब आर्थिक तरक्की कर रहे हैं। इज़्ज़त से जी रहे हैं। सरकारी नौकरियों एवं उच्च पदों पर तैनाती पा रहे हैं। इसके बावजूद खुलेआम भारत को गाली देते हैं।

जबकि दूसरी ओर पाकिस्तान में तबाही मची है। आपस में मारकाट हो रही है। सरकार विफल है। आर्थिक प्रगति का नाम नहीं है। पाकिस्तानी टीवी चैनलों पर वहां के अनेक बुद्धिजीवी यह कहते नहीं थकते कि पाकिस्तान किस मुंह से कश्मीर की बात करता है। जबकि वह खुद पूर्वी बंगाल को संभाल कर नहीं रख पाया। उसकी जगह बांग्लादेश बन गया। आज बलूचिस्तान बगावत का झंडा ऊंचा किए है और पाकिस्तान से आजादी चाहता है। हिंदुस्तान से गए हर मुसलमान को आज भी पाकिस्तान में मुजाहिर कह कर हिकारत से देखा जाता है। दुनिया का ऐसा कौन-सा मुल्क होगा, जो आपको तमाम रियायतें और सस्ती रसद दे और फिर भी आपसे गाली खाए।

पर ये बात कश्मीरियों को बताने वाला कोई नहीं। वहां का मीडिया बढ़ा-चढ़ाकर असंतोष की खबरें देता है। देश के टीवी चैनल भी कश्मीर की सड़कों पर बंद दुकानें और पसरा सन्नाटा दिखाते हैं। वहां खड़ी फौज के ट्रक और जवान दिखाते हैं। जबकि हकीकत यह है कि ये बंद का नाटक दोपहर तक ही चलता है। शाम होते ही घाटी के सारे लोग मस्ती करने डल झील, पार्कों और सैरगाहों पर निकल जाते हैं। खूब मौज-मस्ती करते हैं। सारे बाजार शाम को खुल जाते हैं। पर इसकी खबर कोई टीवी चैनल या अखबार नहीं दिखाता। न कोई ऐसी खबरें छापता और दिखाता है, जिससे कश्मीरियों को पाक अधिकृत कश्मीर या पाकिस्तान में हो रही बर्बादी की जानकारी मिले।

भारत सरकार ने फौज के स्तर पर तो कश्मीर में मोर्चा संभाला हुआ है, लेकिन मनोवैज्ञानिक युद्ध में सरकार बुरी तरह विफल हो रही है। भारत सरकार से अगर पूछो कि कश्मीर में आपकी प्रचार नीति क्या है, तो बोलेगी कि हमने दूरदर्शन को 500 करोड़ रूपए का स्पेशल कश्मीर पैकेज दे दिया है। ये कोई नहीं पूछता कि उस दूरदर्शन को देखता कौन है ?

मनोवैज्ञानिक लड़ाई जीतने के तमाम दूसरे तरीके हो सकते थे, जिन पर दिल्ली में कोई बात नहीं होती। सबसे तकलीफ की बात यह है कि कंेद्र सरकार का कोई भी कार्यालय कश्मीर में सक्रिय नहीं है। वेतन और भत्ते सब ले रहे हैं, पर अपनी ड्यूटी को अंजाम नहीं दे रहे। इससे उन लोगों को भारी क्षोभ है, जो इन विपरीत परिस्थितियों में वहां तैनात हैं और अपना मनोबल बनाए हुए हैं।

    आए दिन सत्तारूढ़ दल भाजपा और अन्य दलों के माध्यम से तमाम मुल्ला, मुसलमान नौजवान, बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता प्रेस विज्ञप्तियां जारी करते हैं और अपने फोटो छपवाते हैं, जिनमें भारत के साथ एकजुटता दिखाई जाती है। ये लोग पाकिस्तान की बदहाली का जिक्र करना भी नहीं भूलते। यहां तक कि आग उगलने वाला मुस्लिम नेता और सांसद डा.असुद्दीन औवेसी तक पाकिस्तान में जाकर खुलेआम यह कहते हैं कि पाकिस्तान भारत के मुसलमानों के मामले में दखलंदाजी करना बंद कर दे और अपने मुल्क के हालात संभाले। क्यों नहीं ऐसे सारे मुसलमानों को भारत सरकार बड़ी तादाद में कश्मीर की घाटी में भेजती है ? जिससे ये वहां जाकर आवाम को अपनी खुशहाली और पाकिस्तान के मुसलमानों की बदहाली पर खुलकर जानकारी दें। जिससे कश्मीरियों को यकीन आए कि ये प्रचार भारत सरकार या हिंदू नेता नहीं कर रहे, बल्कि खुद उनके ही धर्मावलंबी उन्हें हकीकत बताने आए हैं।

    हाल ही के दिनों में प्रधानमंत्री मोदी ने एक बढ़िया काम किया है। उन्होंने जोरदार बयान दिया है कि कश्मीर की घाटी की बात नहीं, भारत तो अब आजाद पाक अधिकृत कश्मीर की आजादी की बात करेगा। आज तक किसी प्रधानमंत्री ने इस बात को इतनी जोरदारी से नहीं उठाया था। जबकि कानूनी स्थिति यह है कि कश्मीर का क्या हो, वो तो भविष्य की बात है। पर कश्मीर के एक बड़े भाग पर पाकिस्तान नाजायज कब्जा किए बैठा है। वहां का आवाम रात-दिन पाकिस्तान से आजादी के नारे लगा रहा है। ऐसे में भारत को हर मंच पर एक ही मांग उठानी चाहिए कि पाकिस्तान को कश्मीर से बाहर खदेड़ा जाए। चुनौती मुश्किल है। पिछली सरकारों ने कश्मीर की नीति में देश को लुटवाया ज्यादा है, पर अब भी देर नहीं हुई। सही समझ और कड़े इरादे से इस समस्या से निपटा जा सकता है।

Monday, July 18, 2016

कश्मीर नीति बदलनी होगी

कश्मीर के हालात जिस तरह बिगड़ रहे हैं, उससे ये नहीं लगता कि केन्द्र सरकार की कश्मीर नीति अपने ठीक रास्ते पर है। इसमें शक नहीं है कि कश्मीर की आम जनता तरक्की और रोजगार चाहती है और अमन चैन से जीना चाहती है। पर आतंकवादियों, पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. और अलगाववाद का समर्थन करने वाले घाटी के नेता हर वक्त माहौल बिगाड़ने में जुटे रहते है। यही लोग है जो आतंकवादियों के मारे जाने पर उन्हें शहादत का दर्जा दे देते हैं और फिर अवाम को भड़काकर सड़कों पर उतार देते है। घाटी का अमन चैन और कारोबार सब गड्ढे में चले जाते है। आवाम की जिन्दगी मंे मुश्किलें बढ़ जाती है। पर इन सबका ऐसे हालातों में कारोबार खूब जोर से चलता है। इन्हें विदेशों से हर तरह की आर्थिक मदद मिलती है। इनकी जेबें गहरी होती जाती है और इसलिए यह कभी नहीं चाहते है कि कश्मीर की घाटी में अमन चैन कायम हो। और आवाम तरक्की रहे। 

मुश्किल यह है कि इन मुट्ठी भर लोगों ने ऐसा हऊआ खड़ा कर रखा है कि आम जनता इन्हें रोक नहीं पाती। सब डरते है कि अगर हमने मुंह खोला तो अगला निशाना हम पर ही होगा। इसलिए सब चुपचाप इनकी हैवानियत और जुल्मों को बर्दाश्त करते रहते है। जरूरत इस बात की है कि केन्द्र सरकार कश्मीर के मामले में अब ढिलाई छोड़ दें और अपनी नीति में बदलाव करें। सीधे और कड़े कदम उठायें। मसलन घाटी के आवाम को 3 हिस्सों में बांट दिया जाय। जो आतंकवादी हैं उनको उनकी ही भाषा में जवाब दिया जाय। घाटी के जो नेता  आतंकवाद और अलगाववाद का समर्थन करते हैं जैसे हुर्रियत के नेता उनके साथ कोई हमदर्दी न दिखाई जायें। क्योंकि भारत सरकार इनका इलाज करवाती है, इन्हें इज्जत देती हैं और ये दिल्ली आकर दिल्ली आकर पाकिस्तान के राजदूत से मिलते है और आई.एस.आई. से मोटी रकम हासिल करके हिन्दुस्तान के खिलाफ जहर उगलते है, घाटी में जाकर आग लगाते है। सरकार क्यों ऐसे नेताओं की मिजाजकुर्सी करती है। क्यूं इन्हें सरकारी दामाद की तरह रखा जाता है ? ऐसे लोगों से केन्द्रीय सरकार को वही बर्ताव करना पड़ेगा जो किसी जमाने में पं. जवाहरलाल नेहरू ने शेख अब्दुल्ला के साथ किया था। इन्हें पकड़कर नजरबंद कर देना चाहिए और इनकी बात आवाम तक किसी सूरत में नहीं पहुंचनी चाहिए। तीसरी श्रेणी आम जनता यानि आवाम की है। जिसके लिए रोजी-रोटी कमाना भी मुश्किल होता है। ऐसे लोगों के साथ सरकार को मुरव्वत करनी चाहिए। उनकी आर्थिक मदद करनी चाहिए। अगर ऐसे लोग किसी देश विरोधी आंदोलन में उतरते हैं, तो उसके पीछे आर्थिक कारण ज्यादा होता है वैचारिक कम। उन्हें पैसा देकर आतंकवाद बढ़ाने के लिए उकसाया जाता है। अगर सरकार इस पर काबू पा ले और आई.एस.आई. का पैसा आम जनता तक न पहुंचने पाये तो काफी हद तक कश्मीर के हालात सुधर सकते है। 

अब तक केन्द्र सरकार की नीति कश्मीर घाटी को लेकर काफी ढुलमुल रही है। लेकिन नरेन्द्र मोदी से लोगों को उम्मीद थी कि वे आकर पुरानी नीति बदलेंगे और सख्त नीति अपनाकर कश्मीर के हालात सुधार देंगे। पर मोदी सरकार की कश्मीर नीति कांग्रेस सरकार की नीति से कुछ ज्यादा फर्क नहीं रही है। इसीलिए अब मोदी को अपनी कश्मीर नीति में बदलाव लाने की जरूरत है। 

अगर नरेन्द्र मोदी यह नहीं कर पायें तो यह उनकी बहुत बड़ी विफलता होगी। क्योंकि चुनाव से पहले कश्मीर नीति को लेकर उनके जो तेवर थे उनसे जनता को लगता था कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बाद वे मजबूत और क्रान्तिकारी कदम उठायेंगे। मगर ऐसा नहीं हुआ है। इससे कश्मीर में शान्ति की उम्मीद रखने वालों को भारी निराशा हो रही है। उधर पाकिस्तान भी गिरगिट की तरह रंग बदलता है। वही नवाज शरीफ जो मोदी से भाई-भाई का रिश्ता बढ़ाने उनके शपथ-ग्रहण समारोह में आये थे। वे आज मोदी को गोधरा कांड के लिए फिर से दोष दे रहे है। मतलब हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और। ऐसे में बिना लाग-लपेट के, पुरानी नीति को त्यागकर, कश्मीर के प्रति सही और सख्त नीति अपनानी चाहिए। इसके साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को यह बताने से चूंकना नहीं चाहिए कि पाकिस्तान कश्मीर में आतंकवाद फैला रहा है। जिससे उसे अलग-थलग किया जा सकें। अमरीका और यूरोप को भी यह बताना होगा कि अगर तुम वाकई आतंकवाद से त्रस्त हो और इससे निजात पाना चाहते हो, तो तुम्हें पाकिस्तान का साथ छोड़कर भारत का साथ देना चाहिए। जिससे सब मिलकर आतंकवाद का सफाया कर सकें।

Monday, January 12, 2015

चार्ली हेब्दो के पत्रकारों की हत्या

आज से लगभग 15 वर्ष पहले अमेरिका की मशहूर साप्ताहिक पत्रिका ‘टाइम’ ने दुनियाभर के व्यवसायों का सर्वेक्षण करके यह रिपोर्ट छापी थी कि दुनिया में सबसे तनावपूर्ण पेशा पत्रकारिता का है। फौजी या सिपाही जब लड़ता है, तो उसके पास हथियार होते हैं, नौकरी की गारंटी होती है और शहीद हो जाने पर उसके परिवार की परवरिश की भी जिम्मेदारी सरकारें लेती हैं। पर, एक पत्रकार जब सामाजिक कुरीतियों या समाज के दुश्मनों या खूंखार अपराधियों या भ्रष्ट शासनतंत्र के विरूद्ध अपनी कलम उठाता है, तो उसके सिर पर कफन बंध जाता है।

यह सही है कि अन्य पेशों की तरह पत्रकारिता के स्तर में भी गिरावट आयी है और निष्ठा और निष्पक्षता से पत्रकारिता करने वालों की संख्या घटी है, जो लोग ब्लैकमेलिंग की पत्रकारिता करते हैं, उनके साथ अगर कोई हादसा हो, तो यह कहकर पल्ला झाड़ा जा सकता है ‘जैसी करनी वैसी भरनी’। पर कोई निष्ठा के साथ ईमानदारी से अगर अपना पत्रकारिता धर्म निभाता है और उस पर कोई आंच आती है, तो जाहिर सी बात है कि न केवल पत्रकारिता जगत को, बल्कि पूरे समाज को ऐसे पत्रकार के संरक्षण के लिए उठ खड़े होना चाहिए।

फ्रांस की मैंगजीन चार्ली हेब्दो के पत्रकारों की हत्या ने पूरे दुनिया के पत्रकारिता जगत को हिला दिया है। फिर भी जैसा विरोध होना चाहिए था, वैसा अभी नहीं हुआ है। सवाल उठता है कि इस तरह किसी पत्रिका के कार्यालय में घुसकर पत्रकारों की हत्या करके आतंकवादी क्या पत्रकारिता का मुंह बंद कर सकते हैं ? वो भी तब जब कि आज सूचना क्रांति ने सूचनाओं को दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंचाने में इतनी महारथ हासिल कर ली है और इतने विकल्प खड़े कर दिए हैं कि कोई पत्रिका न भी छपे, तो भी ई-मेल, एसएमएस, सोशल-मीडिया जैसे अनेक माध्यमों से सारी सूचनाएं मिनटों में दुनियाभर में पहुंचायी जा सकती हैं।

शायद, ये आतंकवादी दुनिया को यह बताना चाहते हैं कि जो भी कोई इस्लाम के खिलाफ या उसके बारे में आलोचनात्मक टिप्पणी करेगा, उसे इसी तरह मौत के घाट उतार दिया जाएगा। आतंकवादियों का तर्क हो सकता है कि उनका धर्म सर्वश्रेष्ठ है और उसमें कोई कमी नहीं। उनका यह भी तर्क हो सकता है कि दूसरे धर्म के अनुयायियों को, चाहें वे पत्रकार ही क्यों न हों, उनके धर्म के बारे में टिप्पणी करने का कोई हक नहीं है। पर सच्चाई यह है कि दुनिया का कोई धर्म और उसको मानने वाले इतने ठोस नहीं हैं कि उनमें कोई कमी ही न निकाली जा सके। हर धर्म में अनेक अच्छाइयां हैं, जो समाज को नैतिक मूल्यों के साथ जीवनयापन का संदेश देती हैं। दूसरी तरफ यह भी सही है कि हर धर्म में अनेकों बुराइयां हैं। ऐसे विचार स्थापित कर दिए गए हैं कि जिनका आध्यात्म से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसे ही विचारों को मानने वाले लोग ज्यादा कट्टरपंथी होते हैं, चाहे वे किसी भी धर्म के मानने वाले क्यों न हों। इसलिए उस धर्म के अनुयायियों को इस बात का पूरा हक है कि वे अपने धर्मगुरूओं से सवाल करें और जहां संदेह हो, उसका निवारण करवा लें। उद्देश्य यह होना चाहिए कि उस धर्म के मानने वाले समाज से कुरीतियां दूर हों। ऐसी आलोचना को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। पर कोई धर्म ऐसा नहीं है कि जिसके ताकतवर धर्मगुरू अपनी कार्यप्रणाली के आचरण पर कोई टिप्पणी सुनना बर्दाश्त करते हों। जो भी ऐसी कोशिश करता है, उसे चुप कर दिया जाता है और फिर भी नहीं मानता, तो उसे आतंकित किया जाता है और जब वह फिर भी नहीं मानता, तो उसकी हत्या तक करवा दी जाती है। कोई धर्म इसका अपवाद नहीं है।

दूसरी तरफ यह भी सच है कि जिन धर्मों में मान्यताओं और विचारों के निरंतर मूल्यांकन की छूट होती है, वे धर्म बिना किसी प्रचारकों की मदद के लंबे समय तक पल्लवित होते रहते हैं और समयानुकूल परिवर्तन भी करते रहते हैं। सनातन धर्म इसका सबसे ठोस उदाहरण है। जिसमें मूर्ति पूजा से लेकर निरीश्वरवाद व चार्वाक तक के सिद्धांतों का समायोजन है। इसलिए यह धर्म हजारों साल से बिना तलवार और प्रचारकों के जोर पर जीवित रहा है और पल्लवित हुआ है। जबकि प्रचारकों और तलवार के सहारे जो धर्म दुनिया में फैले, उसमें बार-बार बगावत और हिंसा की घटनाओं के तमाम हादसों से इतिहास भरा पड़ा है।
 
रही बात फ्रांस के पत्रकारों की, तो देखने में यह आया है कि यूरोप और अमेरिका के पत्रकार आमतौर पर सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक पक्षों पर टिप्पणी करने में कोई कंजूसी नहीं बरतते। उन्हें जो ठीक लगता है, वह खुलकर हिम्मत से कहते हैं। ऐसे में यह मानने का कोई कारण नहीं कि फ्रांस के पत्रकारों ने सांप्रदायिक द्वेष की भावना से पत्रकारिता की है, क्योंकि यही पत्रकार अपने ही धर्म के सबसे बड़े धर्मगुरू पोप तक का मखौल उड़ाने में नहीं चूके थे। इसलिए इनकी हत्या की भत्र्सना की जानी चाहिए और पूरी दुनिया के पत्रकारिता जगत को और निष्पक्ष सोच रखने वाले समाज को ऐसी घटनाओं के विरूद्ध एकजुट होकर खड़े होना चाहिए।

Monday, December 22, 2014

यूं नहीं खत्म होगा आतंकवाद


पेशावर में आर्मी स्कूल के बच्चों की हत्या ने बर्बरता की सारी हदें पार कर दी | आतंकवादियों ने इसे सेना के खिलाफ बदले की कार्रवाई बाते है | पूरी दुनिया इस हमले से स्तब्ध है | अब तक आतंक का जो रूप देखा जाता था उससे यह हमला बहुत अलग है | अब तक बेकसूरों और मासूमों और साधारण नागरिकों की हत्याओं से ही भय और सनसनी फैलाई जाती थी | और आतंकवादियों की वैसी हरकतों पर राजनितिक व्यवस्था का जवाब या प्रतिक्रिया यही रहती थी यह आतंकवादियों की कायराना हरकत है | हालांकि आतंकवाद के खिलाफ सरकारी युद्ध में सेना और सुरक्षा बलों के सिपाहियों की हत्याएं भी कम नहीं होती हैं | लेकिन उन्हें हम सैनिकों की शहादत कहते हैं और आतंकवाद के खिलाफ निरंतर युद्ध का माहौल बनाये रखते आये हैं | लेकिन इस हमले में सबसे ज्यादा सुविचारित काम यह हुआ है कि सेना कर्मियों के बच्चों को निशाना बनाया गया है |

पूरी दुनिया के मीडिया ने इस हमले को वीभत्स और बर्बर कहते हुए इसे अब तक की सबसे सनसनीखेज हरकत बतया है | और खास तौर पर ज्यादा अमानवीय इस कारण बताया है क्योंकि हत्याएं बच्चों की की गई | उधर हमले पर प्रतिक्रिया के बाद आतंकवादियों का रुख और भी ज्यादा कडा और सनसनीखेज़ है | उनकी धमकी है कि अब वे नेताओं के बच्चों को निशाना बनाएंगे | शनिवार को जिस तरह से मीडिया में आतंकवादियों के धमकी वाले वीडियो टेप जारी किये गए और उन्हें बार बार दिखाया गया उससे यह भी साफ़ ज़ाहिर है कि आतंकवाद और राजनितिक व्यवस्थाओं के बीच यह लड़ाई केद्रिकृत हो चली है |

अगर आतंकवाद पर राजनीतिकों की दबिश की समीक्षा करें तो यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि सरकारें अब तक आतंकवाद के खिलाफ कोई कारगर उपाय कर नहीं पायी है | राजनितिक तबका आतंकवाद को व्यवस्था के खिलाफ एक अलोकतांत्रिक यंत्र ही मानता रहा है | और बेगुनाह नागरिकों की हत्याओं के बाद येही कहता रहा है कि आतंकवाद को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा | होते होते कई दशक बीत जाने के बाद भी विश्व में आतंकवाद के कम होने या थमने का कोई लक्षण हमें देखने को नहीं मिलता |

बहरहाल आतंकवाद के नए रूप को देखें तो संकेत मिलता है कि नेताओं के बच्चों को निशाना बनाने की धमकी के बाद नेताओं के बच्चों की सुरक्षा का नया इन्तेजाम करना होगा | कुलमिलाकर सेना, पुलिस, सुरक्षाकर्मियों और राजनीतिकों के बच्चों व परिवारों की सुरक्षा को किस परिमाण में सुनिश्चित किया जा पाएगा यह हमारे सामने नई चुनौती है |

आज की तारीख तक आतंकवाद के कुछ और महत्वपूर्ण पहलुओं की समीक्षा करें तो यह भी कहा जा सकता है कि आतंकवाद अब और उग्र रूप में हमारे सामने है | यानी उसकी तीव्रता और बढ़ गयी | इतनी ज्यादा बढ़ गयी है कि वह बेख़ौफ़ हो कर खुलेआम राजनेताओं को चुनौती देने लगा है |

नए हालात में ज़रूरी हो गया है कि आतंकवाद के बदलते स्वरुप पर नए सिरे से समझना शुरू किया जाए | हो सकता है कि आतंकवाद से निपटने के लिए बल प्रयोग ही अकेला उपाए न हो | क्या उपाय हो सकते हैं उनके लिए हमें शोधपरख अध्ययनों की ज़रूरत पड़ेगी | अगर सिर्फ 70 के दशक से अब तक यानी पिछले 40 साल के अपने सोच विचार – अपनी कार्यपद्धति पर नज़र डालें तो हमें हमेशा तदर्थ उपायों से ही काम चलाना पड़ा है | इसका उदाहरण कंधार विमान अपहरण के समय का है जब विशेषज्ञों ने हाथ खड़े कर दिए थे कि आतंकवाद से निपटने के लिए हमारे पास कोई सुनियोजित व्यवस्था ही नहीं है |

सिर्फ भारतवर्ष ही नहीं बल्कि दूसरे देशों को भी देखें तो राजनितिक व्यवस्थाओं में जिस तरह बाहुबल और धनबल का दबदबा बढा है उससे येही लगता है कि हिंसा और शोषण को हम उतनी तीव्रता के साथ निंदनीय नहीं मानते | यदि वाकई ऐसा ही है तो राजनितिक व्यवस्था को चुनौती देने के लिए आतंकवाद सिर क्यों नहीं उठा लेगा | धर्म, जाति, धनबल और बाहुबल अगर राजनीति के प्रभावी यंत्र मने जाते हैं तो आतंकवाद के खिलाफ उपाय ढूँढने में हम कितने कारगर हो सकते हैं |

खैर जब तक हमें कुछ सूझता नहीं तब तक आतंकवाद के खिलाफ बल प्रयोग का उपाय करने के इलावा हमारे पास कोई चारा भी नहीं है | लेकिन इसी बीच साथ-साथ अप्राध्शास्त्रियों, मनोविज्ञानियों, समाजशास्त्रियों और दर्शनशास्त्रियों को इस काम के लिए सक्रीय किया जा सकता है | बहुत संभव है कि ऐसा करते हुए हम आतंकवाद के साथ भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, शोषण और बेरोज़गारी जैसी समस्याओं का भी समाधान पा लें | इसके लिए विश्वभर के शीर्ष नेतृत्त्व को एकजुट हो कर कुछ ठोस कदम उठाने होंगे तभी कुछ होने की उम्मीद है |

Monday, April 29, 2013

अमेरिकी हवाई अडडों पर भारतीयों का अपमान क्यों

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और वरिष्ठ मंत्री आाजम खां के साथ उनके सहयोगी अमेरिका से नाराज होकर लौट आये हैं। उन्हें वहां हार्वर्ड विश्वविद्यालय मे कुंभ मेले के इंतजामात पर व्याख्यान देना था, जो उन्होंने नहीं दिया। क्योंकि बोस्टन के हवाई अड्डे पर अमेरिका के सुरक्षा अधिकारियों ने आजम खां से दुव्यवहार किया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ। एनडीए सरकार के रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाडीज, युवा राहुल गांधी, फिल्मी सितारे शाहरूख खान जैसे कई मशहुर लोग है, जिन्हें अमेरिका के सुरक्षा अधिकारी हवाई अड्डों पर परेशान कर चुके हैं, इसलिए अखिलेश यादव और आजम खां का यह फैसला सराहनीय रहा। इससे हार्वर्ड विश्वविद्यालय के छात्रों की मार्फत पूरे अमेरिकी समाज को यह संदेश गया कि
भारत के गणमान्य नागरिकों के साथ उनकी सरकार का व्यवहार सम्मानजनक नहीं रहा।
 
जब न्यूयॉर्क के हवाई अड्डे पर सुरक्षा जांच के लिए रोके गए भारतीय फिल्मी सितारे शाहरूख खान को अपनी ‘ये बेइज्जती’ बर्दाश्त नहीं हुई, तो उन्होंने फिल्म बनवा डाली। जिसमें बार-बार यह बात दोहराई गयी है कि,‘माई नेम इज़ खान एण्ड आई एम नॉट ए टैरेरिस्ट’ मैं खान हूं पर आतंकवादी नहीं। 9/11 के बाद से अमरीका में रह रहे मुसलमानों को स्थानीय आबादी की घृणा का शिकार होना पड़ा है। इसलिए तब से अब तक इस मुद्दे पर दर्जनों फिल्में भारत और अमरीका में भारतीय मूल के निर्माता बना चुके हैं। जिनमें इस्लाम के मानने वालों की मानवीय संवेदनाओं को दिखाने की कोशिश की गयी है।
 
पर यहां एक फर्क यह है कि जिस तरह भारत में हर ‘एैरा गैरा नत्थू खैरा‘ अपने को वीआईपी बताकर कानून तोड़ता रहता है, वैसा पश्चिमी देशों में नहीं होता। राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री जैसे पद पर बैठे व्यक्तियों के अतिरिक्त अन्य लोग तो सामान्य नागरिकों की तरह रहते हैं। दरसल वहां वीआईपी लिखा बोर्ड कहीं दिखाई ही नही देता। जबकि हमारे यहां वीआईपी होने के तमाम फायदे है, जिनमें से एक फायदा यह भी है कि कोई सामान्य पुलिसकर्मी आपसे वाजिब सवाल भी नहीं कर सकता। क्योंकि ऐसा करना वीआईपी की शान में गुस्ताखी माना जाता है। इसलिए कई बार हमारे देश के वी आईपी जब विदेशों में जाते हैं तो उन्हें शायद इस बात की आदत नहीं होती कि सुरक्षा कर्मी उन्हें रोकें या टोकें । ऐसा होने पर वह भिड़ जाते हैं। पर यह भी सही है कि अमेरिका के सुरक्षाकर्मी जान बूझकर ऐसा व्यवहार करते हैं कि आप अपमानित महसूस करते हैं । मैं स्वयं इसका भुगतभोगी हूँ साउथकैरोलीना के शार्लेट हवाई अड्डे पर सुबह के 5 बजे थोडे़ से मुसाफिर थे पर अमेरिकी सुरक्षाकर्मी ने मेरी सुरक्षा जाँच में नाहक इतनी देर लगा दी कि मेरा हवाई जहाज छूट गया। जबकि बार-बार एयरलाइंस की तरफ से मेरे नाम की उद्घोषणा हो रही थी। मेरी आगे की यात्रा का सारा कार्यक्रम बिगड गया। ऐसा भी नही कि मेरे पास बहुत सारा सामान था, जिसे जाँचने मे देर लगती। एक छोटा सा बैग था, जिसकी तलाशी 5 मिनट में ली जा सकती थी। जाहिरन उनका यह व्यवहार मुझको अपमानित करने के लिए था। यद्यपि ऐसा मेरी अनेकों अमेरिकी यात्राओं में एक ही बार हुआ। इसलिए इसे मानने में कोई संकोच नहीं कि मोहम्मद आजम खां के साथ अमेरिका में दुव्र्यवहार हुआ होगा। जबकि इसके विपरीत अमेरिकी मेहमानों का भारत में अतिविशिष्ट व्यक्ति के रूप मे सम्मान होता है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि हमारे देश का विदेश मंत्रालय अमेरिका स्थित भारतीय दूतावास के माध्यम से यह सुनिश्चित करे कि देश के विशिष्ट व्यक्तियों को अमेरिकी हवाई अड्डों पर इस तरह नाहक अपमानित न किया जाये।
 
आतंकवाद को लेकर अमेरिकी सरकार की चिंता समझी जा सकती है। इसलिए उन्होंने सुरक्षा जांच के इंतजामों को चाकचैबंद किया हुआ है और इसका उन्हें लाभ भी मिला है। 9/11 के बाद पिछले हफ्ते तक अमेरिका में आतंकवाद की कोई घटना नहीं हुई थी। इस बात की तारीफ की जानी चाहिये कि उनके सुरक्षाकर्मी किसी दूसरे देश की आधिकारिक सूचनाओं पर भी यकीन नहीं करते, अपनी जांच खुद करते हैं। क्योंकि कुछ देशों की सरकारें भी आतंकवाद को छिपा सहारा देती हैं। हमें भी अपनी सुरक्षा व्यवस्था ऐसी ही चुस्त बनानी चाहिए। जिससे आतंकवादियों को बचने का मौका न मिले। पर इसका मतलब यह नहीं कि नाहक विदेशी मेहमानों को अपमानित किया जाये, कहीं न कहीं अमेरिकी सरकार से चूक हो रही है। जिसके खिलाफ विरोध का स्वर प्रखर होना चाहिए। अखिलेश यादव और आजम खां ने अपना विरोध इस प्रखरता के साथ दर्ज करा दिया है।

Monday, February 11, 2013

अफजल गुरू को फांसी और मीडिया की भूमिका

आखिरकार भारतीय संसद के ऊपर हमले के आरोपी अफजल गुरू को तिहाड़ जेल में फांसी दे दी गयी। इस घटना की जैसी सनसनी फैलनी चाहिए थी, वह नहीं फैली। हांलाकि टी0वी0 चैनलों ने इसकी पुरजोर कोशिश की। कारण यह कि मौहम्मद कसाब को मिली फांसी के बाद इस तरह की फांसी को लेकर लम्बे समय से चली आ रही उत्सुकता पहले ही खत्म हो चुकी थी। एक ही घटना पर बार-बार एक सी सनसनी नहीं पैदा की जा सकती। इसलिए जिन्होंने सोचा होगा कि इस तरह की फांसियों से अल्पसंख्यक समुदाय का एक वर्ग उत्तेजित होगा और बहुसंख्यक समुदाय का एक वर्ग इसका राजनैतिक लाभ उठायेगा, वे अपने मंसूबे में नाकामयाब रहे। क्योंकि दोनों ही वर्गों ने इसे एक अपराधी को मिलने वाली सामान्य सजा के रूप में लिया। कुछ राजनेताओं ने इसे देर से लिया गया सही निर्णय बताया। सही तो उन्हें इसलिए कहना पड़ा चूंकि वे इसकी मांग लम्बे समय से कर रहे थे। देर से लिया बताकर वे शायद सरकार की कमजोरी सिद्ध करना चाहते हैं। पर यह उनकी समझ की कमी है। अपराध का इतिहास बताता है कि फांसी से ज्यादा फांसी का डर आदमी को मार डालता है। मौहम्मद कसाब हो या अफजल गुरू, जब वे आतंकवादियों के षडयंत्र का हिस्सा बने, तो उनका दिमाग इस बात के लिए तैयार था कि घटना को अंजाम देते ही वे गोलियों का शिकार बन जाऐंगे। यानि वे मरने को तैयार थे। ऐसे में फौरन फांसी देकर कोई लाभ नहीं होता। उन्हें इतने समय तक जिंदा रखकर जो मानसिक यातना मिली होगी, उसने उन्हें हर पल मारा होगा। मरने के बाद तो आदमी को दुख और दर्द का कुछ पता ही नहीं चलता। पर मरने से पहले उसके दिल और दिमाग में अनेकों उतार-चढ़ाव आते हैं, जो उसे बुरी तरह हिला देते हैं। इसके साथ ही उन्हें लम्बे समय तक गिरफ्तार रखकर आतंकवादियों को यह संदेश दिया गया कि उनकी ऐसी गिरफ्तारी संभव है। इससे आतंकवाद का यह विषय लम्बे समय तक चर्चाओं में बना रहा। जिससे एक खास संदेश आतंकवादियों के बीच गया।
पर सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जब कभी कोई आतंकवादी या अण्डरवल्र्ड डान या कुख्यात अपराधी या डकैत मारा जाता है, तो मीडिया उसके मानवीय पक्षों को दिखाकर उसे नाहक शहादत देता है। इससे समाज का भारी अहित होता है। आतंकवादी घटनाऐं हों या माफिया आॅपरेशंस, इनका मकसद यही होता है कि सनसनी पैदा की जाये और उसकी चर्चा समाज में हो। ताकि लोगों में एक खौफ पैदा हो। इसलिए इस तरह के अपराधों से जुड़े लोग मीडिया के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं। जिससे उन्हें यश मिले, चाहें वह अपयश ही क्यों न हो। फिर तो लोग उनके नाम से भी डरने लगते हैं। जब बन्दूक चलाये बिना फिरौती मिल जाये या रंगदारी मिल जाये तो बन्दूक चलाने की क्या जरूरत है। इसलिए मीडिया को इस विषय में आत्मचिंतन करना चाहिए। अफजल गुरू की फांसी के बाद जिस तरह के पुराने साक्षात्कार टी0वी0 चैनलों पर दिखाये गये, उससे नाहक अफजल गुरू के प्रति समाज के एक तबके का दिल जीतने की नाकाम कोशिश की गयी। इससे बचा जाये तो अच्छा है।
इस पूरे मामले में केन्द्रीय सरकार से एक भयंकर भूल हुई। जब उसके पास मौहम्मद कसाब जैसा अल्हड़, युवा, बेपढ़ालिखा, पाकिस्तानी आतंकवादी था और दूसरी तरफ अफजल गुरू जैसा पढ़ा-लिखा समझदार आतंकवादी था तो उसे इन दोनों के ऊपर अपराध शास्त्र विशेषज्ञों व मनोवैज्ञानिकों से गहन शोध करवाना चाहिए था। इससे आतंकवाद की मानसिकता को गहराई से समझने में सफलता मिलती। यह किसी से छुपा नहीं है कि आतंकवाद को लेकर अपराधशास्त्र के विशेषज्ञों से अभी तक कोई ठोस व उल्लेखनीय शोध नहीं करवाया गया है।
अफजल गुरू की फांसी का राजनैतिक लाभ किसी को मिलेगा या नहीं, यह हमारी चिंता का विषय नहीं है। पर इस बात की समझ जरूर विकसित होनी चाहिए कि आतंकवाद के सही कारण क्या हैं और क्या उनके निदान उपलब्ध हैं? अगर निदान उपलब्ध हैं तो उन्हें अपनाया क्यों नहीं जाता? ऐसे गंभीर विषयों पर समाज, संसद व मीडिया में लम्बी बहस की जरूरत है, जिससे हम इस समस्या से निजात पा सकें। पर देखने में यह आया है कि इन तीनों ही तबकों में इस तरह की कोई बात कभी नहीं होती। जहां होती है, वहां इकतरफा होती है। माक्र्सवादी विचारधारा के लोग आतंकवाद को आर्थिक व राजनैतिक व्यवस्था की विफलता का परिणाम बताते हैं। धर्मांन्धता के चश्मे से समाज को देखने की आदत रखने वाले इसे जिहाद बताते हैं और स्वंय को राष्ट्रवादी बताने वाले इसे तुष्टीकरण का परिणाम बताते हैं और ऐसे सुझाव देते हैं जो व्यवहारिक धरातल पर खरे नहीं उतरते। उनसे केवल भावनाऐं भड़कायी जा सकती हैं। हिंसा पैदा की जा सकती है। प्रतिशोध की ज्वाला भड़कायी जा सकती है। पर आतंकवाद का हल नहीं ढूंढा जा सकता। इसलिए निष्पक्ष और गहन अध्ययन व लंबी बहस की बेहद जरूरत है।

Monday, February 20, 2012

राष्ट्रीय सुरक्षा पर भी राजनीति

राष्ट्रीय आतंकवाद प्रतिरोधक केन्द्र को लेकर राजनीतिक हलचल शुरू हो गयी है। इस विशेष केन्द्र के जरिये राष्ट्रीय सुरक्षा से सम्बन्धित विभिन्न एजेंसियों के बीच सूचनाओं के आदान-प्रदान की व्यवस्था की गयी है। इन सूचनाओं के जरिये आतंकवाद सम्बन्धी जोखिम के विश्लेषण का काम शुरू होना है। और सबसे बड़ी बात यह है कि यह काम हर हफ्ते के सातों दिन, चैबीसों घण्टे, पल-पल होता रहेगा।

मसला यह है कि आतंकवाद से संबन्धित गतिविधियों पर पल-पल की जानकारियां जमा करने की व्यवस्था के खिलाफ देश के कई प्रदेशों के मुख्यमंत्री एकजुट होना शुरू हो गये हैं। इस विरोध में भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों और गैर-काँग्रेसी मुख्यमंत्रियों के साथ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी शामिल हो गयी हैं।

राष्ट्रीय आतंकवाद प्रतिरोधी केन्द्र के विरोध का तर्क इन मुख्यमंत्रियों ने यह कहकर दिया है कि आतंकवाद प्रतिरोधी इस केन्द्र के काम-काज से राज्यों के अधिकारों को हड़प लिया जायेगा। उधर केन्द्र सरकार ने ऐसे विरोध को खारिज करते हुए आतंकवादी प्रतिरोधी केन्द्र की स्थापना के लिये प्रतिबद्धता जता दी है। गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने शनिवार को एक कार्यक्रम में कहा है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये केन्द्र और राज्यों की साझा जिम्मेदारी है।

बहरहाल यहाँ यह जानना भी अति आवश्यक है कि एनसीटीसी नाम से इस केन्द्र को बनाने का यह फैसला नया नहीं है। इंटेलीजेंस रिफॉर्म एण्ड टैररिज्म प्रिवेन्शन एक्ट के तहत इसकी स्थापना के लिये प्रेजीडेन्शियल एक्जीक्यूशन ऑर्डर संख्या 13354, अगस्त 2004 में ही जारी हो गया था। इस एक्ट में यह तय किया गया था कि आतंकवाद के खिलाफ साझा योजनायें बनाने व खुफिया जानकारियाँ साझा करने के लिये यह केन्द्र बनेगा और इस केन्द्र के स्टाफ में विभिन्न एजेंसियों के अधिकारी एवं कर्मचारी रखे जायेंगे। पिछले 8 साल से लगातार इस पर काम हो रहा था और अब 500 लोगों के टीम के साथ आगामी 1 मार्च से यह केन्द्र औपचारिक तौर पर अपना काम-काज शुरू करने जा रहा है।

फिर भी मीडिया के लिये यह मामला नया-नया सा दिख रहा है। नया इस लिहाज से, कि पिछले 4-6 दिनों से गैर काँग्रेसी मुख्यमंत्रियों के विरोध के कारण यह मीडिया की सुर्खियों में आया है। अलबत्ता शुद्ध रूप से अपराध शास़्त्रीय विशेषज्ञता का विषय होने के कारण मीडिया के पास इस बारे में तथ्यों का टोटा पड़ा हुआ है। यानि मीडिया के पास गैर-काँग्रसी मुख्यमंत्रियों के एकजुट होने की हलचल के कारण ही यह मुद्दा खबरों में है।

रही बात केन्द्र के स्थापना की उपादेयता की, तो यह तय ही है कि किसी भी समस्या से निपटने (समस्या बनने से पहले और समस्या खड़ी होने के बाद) के लिये तथ्यों/सूचनाओं को जमा करने की और समस्या के उत्तरदायी तथ्यों का अध्ययन करने की जरूरत पड़ती है। समाधान के लिये कारगर योजनायें तब ही बन पाती हैं। यह केन्द्र भी ऐसे ही अपने सीमित उद्देश्यों के साथ बना है। इसका काम आतंकवाद के जोखिम का विश्लेषण करना है और आतंकवाद संबन्धी जानकारियों का देश की विभिन्न सुरक्षा/खुफिया एजेंसियों के बीच आदान-प्रदान हो सके, इसका प्रबन्ध करना है। यानि उपादेयता के लिहाज से ऐसा केन्द्र सुरक्षा तन्त्र में व्यावसायिक कौशल तो बढ़ायेगा ही। मगर फिलहाल यहाँ सवाल इस मुद्दे का तो है ही नहीं है। मुद्दा सिर्फ यह बना हुआ है कि केन्द्र-राज्य सम्बन्धों या राज्यों के अधिकार के अतिक्रमण के तर्क के आधार पर 8 गैर-काँग्रेसी मुख्यमंत्री एक साथ आते दिख रहे हैं।

यानि एनसीटीसी को लेकर बहस विशुद्ध रूप से अपराध शास़्त्रीय विशेषज्ञता के मुद्दे और राजनीतिक मुद्दे के बीच सीमित हो जायेगी। इससे भी ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि अपराध शास्त्रीय विशेषज्ञता के पहलू पर बोलने वालों ने केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम के अलावा कोई बोलता नहीं दिखता। यानि यह बहस केन्द्र सरकार बनाम कुछ राज्य सरकारों के बीच सिमट जायेगी। खास तौर पर जब 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव हो रहे हों, तब ऐसे मुद्दे सिर्फ राजनीति के ही मुद्दे क्यूँ नहीं बनेंगे ?

अब जो लोग ऐसे विषयों की गंभीरता को समझते हों, उनके दखल की भी दरकार है। लेकिन अफसोस यह है कि किसी भी समस्या से संबन्धित विशेषज्ञों का भी टोटा पड़ा हुआ है। हद यहाँ तक है कि शनिवार को केन्द्रीय गृह सचिव को ही बोलते सुना गया। उनके बयान में भी यही बात थी कि आतंकवाद प्रतिरोधी व्यवस्था के लिये देश की विभिन्न एजेंसियों के बीच तालमेल की जरूरत है और इसीलिये ऐसे केन्द्र का गठन हुआ है। उनके बयान में यह कहीं नहीं आया कि ऐसे केन्द्र के काम-काज को सुचारू रूप से करने के लिये राज्य सरकारों के प्रशासन की क्या भूमिका होनी चाहिये। खैर अभी तो बात शुरू हुई है। होते-होते यह बात भी शुरू होने ही लगेगी कि आतंकवाद की घटनायें होती कहाँ हैं ? कहाँ का मतलब भौगोलिक तौर पर कहाँ होती हैं। बड़ा आसान सा जवाब है कि देश में ऐसा कोई भी भूखण्ड नहीं है जो किसी न किसी राज्य के भूभाग में न हो। यानि घटना किसी न किसी राज्य में ही होती है और उसके तथ्य या सूचना का प्रस्थान बिन्दु वही होता है। जाहिर है कि प्रशासनिक तौर पर राज्यों की भागीदारी के बगैर यह काम हो नहीं सकता।

Sunday, May 2, 2010

बुलेटप्रूफ जैकेट या सिपाहियों की जिंदगी से खिलवाड़


भारत सरकार के गृहमंत्रालय के दो वरिष्ठ अधिकारी रिश्वत लेते गिरफ्तार हो गये। आपदा प्रबंधन के संयुक्त सचिव ओ. रवि को 25 लाख रूपये की रिश्वत लेते पकड़ा गया। जबकि निदेशक राधे श्याम शर्मा को बुलेटप्रूफ जैकेट खरीद में रिश्वत लेने के आरोप में। साथ ही रिश्वत देने के आरोप में युवा इंजीनियर आर. के. गुप्ता व उनकी पत्नी लवीना गुप्ता को भी गिरफ्तार किया गया। इस केस के कुछ ऐसे महत्वपूर्ण और रोचक तथ्य हैं जिन पर देश को विचार करना चाहिए। उल्लेखनीय है कि आंतकवाद और नक्सलवाद के बढ़ते खतरों के बीच गृहमंत्रालय को बुलेटप्रूफ जैकेटों की भारी आवश्यकता पड़ने लगी है। दंतेवाड़ा में नक्सली हमले में मारी गयी सीआरपीएफ की पूरी कंपनी के बाद तो सिपाहियों की सुरक्षा को लेकर और भी सवाल उठने लगे हैं। पर चिंता की बात यह है कि गृहमंत्रालय बुलेटप्रूफ जैकेटों की खरीद के मामले में जो प्रक्रिया अपनाता रहा है वह पारदर्शी नहीं है। यह खरीद भी पूर्व गृहमंत्री शिवराज पाटिल के जमाने से विवादों में रही है। चयन प्रक्रिया में खुले आम धांधली होती है और चहेतों को आर्डर देने के लिए हर हथकंडा अपनाया जाता है। जरूरी नहीं कि जिस निर्माता की बनाई बुलेटप्रूफ जैकेटें खरीदी जांए उसका उत्पाद सर्वश्रेष्ठ हो। क्योंकि गुणवत्ता से ज्यादा कमीशन की रकम पर खरीदार मंडली का ध्यान रहता है। फिर चाहे जाबांज सिपाहियों की जिंदगी से ही समझौता क्यों न करना पड़े।
26 नवम्बर, 2008 को मुंबई पर हुए आतंकी हमले की रात ए.टी.एस चीफ हेमंत करकरे की बुलेटप्रूफ जैकेट गायब हो गयी थी। यह समाचार सभी टीवी चैनलों पर बार-बार आता रहा। फिर अचानक चार दिन बाद यह बुलेटप्रूफ जैकेट मिल गयी। इतने संवेदनशील मामले में इससे बड़ा मजाक कोई हो नहीं सकता। जानकारों का कहना है कि जब श्री करकरे पर आतंकी गोली चली तो उनकी बुलेटप्रूफ जैकेट उसे झेल नहीं पायी। क्योंकि वह नकली थी और देश ने एक कर्तव्यनिष्ठ जाबांज अधिकारी को खो दिया। जानकारों का कहना है कि चार दिन बाद मिली बुलेटप्रूफ जैकेट वह नहीं थी जिसे करकरे ने हमले के समय पहना हुआ था। बल्कि यह बाद में उसी कोण से गोली चलाकर तैयार की गयी दूसरी जैकेट थी। चाहे इंदिरा गांधी के हत्यारों को पकड़े जाने के बाद भी मारने का हादसा हो या राजीव हत्याकांड के महत्वपूर्ण गवाह की पुलिस हिरासत में आत्महत्या का मामला हो या फिर करकरे की बुलेटप्रूफ जैकेट का, कभी सच सामने आ ही नही ंपाता। वर्षों जांच का नाटक चलता रहता है।

गृहमंत्रालय के ताजा हादसे के संदर्भ मंें यह बात महत्वपूर्ण है कि जिस आर. के. गुप्ता और उसकी पत्नी लवीना को गिरफ्तार किया गया है वे दोनों काफी अर्से से बुलेटप्रूफ जैकेटों का यह आर्डर लेने के लिए लगे हुए थे। उनका दावा था कि उनका माल सर्वश्रेष्ठ होने के बावजूद इसलिए परीक्षण में फेल कर दिया गया क्योंकि खरीदार मंडली किसी और को ठेका देना चाहती थी। इसलिए आर. के. गुप्ता ने गृहमंत्रालय के कुछ महत्पूर्ण अधिकारियों के खिलाफ उनके अनैतिक आचरण के कई प्रमाण और रिकार्डिंग इकठा कर ली थी। वे इसे लेकर दिल्ली के मीडिया सर्किल में घूम रहे थे। इसी बीच गृहमंत्रालय के अधिकारियों को भनक लग गयी और वे डर गये। पर उन्होंने होशियारी से आर. के. गुप्ता से डील करने का प्रस्ताव रखा। व्यापारी बुद्धि का व्यक्ति कोई योद्धा तो होता नहंीं जो एक बार जंग छेड़कर मैदान मेें टिका रहे। उसे तो पैसा कमाना होता है। लगता है इसी लालच में आर. के. गुप्ता फिसल गया और इन अधिकारियों के जाल में फंस गया। जहां तक उसके रिश्वत देने का मामला है तो यह अपराध करते हुए वह रंगे हाथ पकड़ा गया है। अगर अभियोग पक्ष अपना आरोप अदालत में सिद्ध कर पाता है तो उसे कानूनन सजा मिलेगी। पर साथ ही क्या यह भी जरूरी नहीं कि गृहमंत्रालय के अधिकारियों के विरूद्ध जो सबूत आर. के. गुप्ता लेकर घूम रहा था उसकी भी पूरी ईमानदारी से जांच की जाए। यह भी जांच की जाए कि बुलेटप्रूफ जैकेटों की खरीद के परीक्षण में जो प्रक्रिया अपनाई गयी वह पूरी तरह पारदर्शी थी या नहीं। अगर यह पता चलता है कि बेईमानी से, कम गुणवत्ता वाले निर्माता को यह ठेका दिया जा रहा था तो सांसदों, मीडिया और जागरूक नागरिकों को सवाल खड़े करने चाहिए। एक तरफ तो हम आतंकवाद और नक्सलवाद से निपटने के लंबे चौड़े दावे रोज टीवी पर सुनते हैं और दूसरी तरफ अपनी जान खतरे में डालने वाले गरीब माताओं के नौनिहाल सिपाहियों की जिंदगी के साथ घटिया माल लेकर इस तरह खिलवाड़ किया जाता है।

वैसे सरकारी ठेकों में बिना कमीशन तय किये केवल गुणवत्ता के आधार पर ठेका मिल जाता हो ऐसा अनुभव शायद ही किसी प्रांत या केन्द्र सरकार से व्यापारिक संबंध रखने वाले किसी व्यापारी का होगा। कमीशन के बिना सरकार में पत्ता भी नहंी हिलता। अभी पिछले ही दिनों हमने भारतीय पर्यटन विकास निगम लि0 की टैंडर प्रक्रिया में ऐसा ही एक घोटाला पकड़ा और उसे केंन्द्रीय सतर्कता आयोग को थमा दिया। आयोग के अधिकारियों ने जांच के बाद हमारे आरोप सही पाये और अब इस घोटाले में शामिल उच्च अधिकारियों के खिलाफ मेजर पैनल्टी यानी बड़ी सजा दिये जाने का प्रस्ताव किया गया है। सांप छछूदर वाली स्थिति है। आप कमीशन न दो तो ठेका नहीं मिलेगा। कमीशन दो तो भी गारंटी नहीं कि आपको ही मिलेगा। क्यांेकि कमीशन के अलावा भी अन्य कई बातें होती हैं जिनका ध्यान खरीदार मंडली के जहन में रहता है। इसलिए आपका उत्पादन सर्वश्रेष्ठ हो, कीमत भी मुनासिब हो तो भी गारंटी नहीं कि ठेका आपको मिलेगा।

आर. के. गुप्ता जैसे निर्माता तो अपनी बेवकूफी से कभी-कभी पकड़े जाते हैं पर सच्चाई यह है कि अगर सरकार से व्यापार करना है तो आप पारदर्शिता और गुणवत्ता की अपेक्षा नहीं कर सकते। ऐसे में जो पकड़ा जाए वो चोर और बच जाए वह शाह। सोचने वाली बात है कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध तमाम संस्थायें और भाषणबाजी होने के बावजूद भ्रष्टाचार और तेजी से बढ़ रहा है। फिर जिसे व्यापार करना है वो क्या करे। महाराजा हरीशचन्द्र बनकर बनारस के मंणिकर्णिका घाट पर शवदाह का कर वसूले या हाकिमों को मोटे कमीशन देकर ठेके हासिल करे। जब तक इस मकड़जाल को खत्म नहीं किया जायेगा ऐसे हादसे होते रहेंगे। देशवासी तो रोजमर्रा की मंहगाई को लेकर ही रोते रहेंगे और घोटाले करने वाले करोड़ों-अरबों डकारते रहेंगे।