उ.प्र. चुनाव के पहले आरक्षण की बात उठाए जाने का मतलब क्या है| वैसे अब इस पर ज्यादा दिमाग
लगाने की जरूरत नहीं है क्योंकि इसमें कोई शक नहीं कि इस मुददे को अभी भी
संवेदनशील समझा जा रहा है। कौन नहीं जानता कि आरक्षण जैसा मुददा बार-बार उठा कर
सामान्य श्रेणी के लोगों को लुभाने की कोशिश हमेशा से होती रही है। लेकिन यह भी एक
तथ्य है कि ऐसे मुददों के बार-बार इस्तेमाल होने से उनकी धार कुंद पड़ जाती है।
शायद इसीलिए तमाम कोशिशों के बावजूद इस बार आरक्षण की बात ने उतना तूल नहीं पकड़ा
जितना यह मुद्दा तुल पक़ता था फिर भी जब बात उठी ही है तो आज के परिप्रेक्ष्य में
इसे एक बार फिर देख लेने में हर्ज नहीं है।
बिहार चुनाव के पहले भी ऐसी ही बातें उठी थीं। लेकिन इस मुद्दे का इस्तेमाल
करने वालों के हाथ कुछ नहीं आया था। बल्कि यह विश्लेषण किया गया था कि बिहार में
भारतीय जनता पार्टी को इससे नुकसान हुआ। हालांकि राजनीति में यह हिसाब लगाना बड़ा
मुश्किल होता है कि किस बात से कितना नुकसान हुआ या कितना फायदा हुआ। लिहाजा अब
उ.प्र. चुनाव के पहले इसके नफे नुकसान का अनुमान लगाया जाने लगा है।
भले ही कुछ वर्षों से आरक्षण को लेकर खुलेआम राजनीति होने लगी हो लेकिन इस
बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि यह मुददा राजनीति की बजाए सामाजिक ही ज्यादा है।
यानी इसपर सोचविचार भी सामाजिक व्यवस्था के गुणदोष लिहाज से होना चाहिए। लेकिन
यहां दुर्भाग्य यह है कि सामाजिक मुददों पर विचार विमर्श होना बंद हो चला है।
इसीलिए ऐसे मुददों पर बात तभी उठती है जब राजनीतिक जरूरत पड़ती है। सो पहले बिहार
और अब उ.प्र. के चुनाव के पहले की बात उठी है। चालिए राजनीति के बहाने ही सही अगर
इस पर सोचने का मौका पैदा हुआ है तो इस मौके का फायदा उठाया जाना चाहिए।
नौकरियों में और शिक्षा में आरक्षण अगर एक संवैधानिक व्यवस्था है तो हमें यह
क्यों नहीं मान लेना चाहिए कि इस पर खूब सोचविचार के बाद ही इसे स्वीकार किया गया
होगा। हर बार इकन्ना एक से गिनती गिनना हमारी नीयत पर शक पैदा करने लगेगा। जाहिर
है कि मौजूदा परिस्थिति को सामने रखकर और आगे की बात सोचते हुए इस पर बात होनी
चाहिए। इस दृष्टि से देखें तो इस समय आरक्षण के औचित्य पर चर्चा करना एक ही बात को
बार-बार दोहराना ही होगा। हां आरक्षण की व्यवस्था से होने वाले लाभ हाानि की
समीक्षा होते रहने के औचित्य को कोई नहीं नकारेगा। इस संवैधानिक व्यवस्था को कब तक
बनाए रखना है इस पर भी शुरू में ही सोच लिया गया था। इस तरह से हम कह सकते हैं आज
हमें सिर्फ इतना भर देखने की इजाजत है कि क्या आरक्षण की व्यवस्था ने अपना लक्ष्य
हासिल कर लिया है|
आरक्षण की व्यवस्था का लक्ष्य हासिल हो चुका है या नहीं इसकी नापतौल जरा
मुश्किल काम है। जब तक इसकी नापतौल का इंतजाम नहीं हो जाता तब तक कोई निर्णायक बात
हो ही नहीं सकती। यानी आज अगर आगे की बात करना हो तो सबसे पहले यह बात करना होगी
कि आजादी के बाद से आज तक हम सामाजिक रूप् से वंचित वर्ग को समानता के स्तर पर
लाने के लिए कितना कर पाये। जब यह हिसाब लगाने बैठेंगे तो पूरे देश को एक समाज के रूप्
में सामने रखकर हिसाब लगाना पडे़गा।
आज जब जाति और धर्म या बहुसंख्यक और अल्पसंख्यकों को अलग अलग करके देखना
शुरू करते हैं तो भेदभाव देखने और मिटाने की बात तो पीछे छूट जाती है और राजनीतिक
लालच आना स्वाभाविक हो जाता है। राजनीति में यह ऐसी कालजयी कुप्रवृत्ति है जिससे
बचकर रहना किसी के लिए भी बहुत मुश्किल दिख रहा है। वैसे भी जब राजनीति तात्कालिक
लाभ तक सीमित हो गई हो तब तो और भी ज्यादा मुश्किल है। इसीलिए विद्वान लोग सुझाव
देते हैं कि आरक्षण जैसे मुददे को सामाजिक विषय मानकर चलना चाहिए। लेकिन समस्या
ऐसा मानकर चलने में भी है।
आरक्षण को सामाजिक विषय मानकर चलते हैं तो यह पता चलता है कि सामाजिक भेद
भाव की जड़ आर्थिक है। खासतौर पर भारतीय समाज में सदियों से सामाजिक भेदभाव की
शुरूआत आर्थिक आधार पर ही होती रही है। यहीं पर राजनीति के बीच में कूद पड़ने के
मौके बन जाते है। आखिर हर राजनीतिक प्रणाली का एक यही तो ध्येय होता है कि उसके हर
शासित की न्यूनतम आवश्यकताएं सुनिश्चित हों। इसीलिए हर राजनीतिक प्रणाली समवितरण
करने का वायदा करती है। इस तरह से यह सिद्ध होता है कि आरक्षण जैसे सामाजिक मुददे
का राजनीतिकरण होना अपरिहार्य है।
अगर यह राजनीतिक मुददा बनता ही है
तो अब हमें बस यह देखना है कि न्याय संगत क्या है। वैसे भी राजनीति नीतियां तय करने का उपक्रम है। लेकिन हर
लोकतांत्रिक व्यवस्था में ये नीतियां नैतिकता को घ्यान में रखकर बनाई जाती हैं।
इसीलिए हमने सभी को समान अवसर देने की बात करते समय इस बात पर सबसे ज्यादा गौर
किया था कि अपनी ऐतिहासिक भूलों के कारण जाति के आधार पर जिन लोगों का हजारों साल
से शोषण होता रहा है और समान विकास से वंचित किए गए है उन्हें कुछ विशेष सुविधाएं
देकर समान स्तर पर लाने का प्रबंध करें। अब बस यह हिसाब लगाना है कि क्या हजारों
साल से वंचित रखे गए सामाजिक वर्ग इन पांच छह दशकों में बराबरी का स्तर हासिल कर
चुके हैं। अगर कर चुके हैं तो हमें आजादी से लेकर अब तक भारतवर्ष के अपने पूर्व
नेताओं की भूरि-भूरि प्रशंसा करनी पड़ेगी और उनका नमन करना पड़ेगा कि उन्होंने कुद
दशकों में इतनी बड़ी ऐतिहासिक उपलब्धि प्राप्त कर ली। परंतु यदि यह काम पूरा नहीं
हुआ है तो वंचित वर्ग को और ज्यादा आरक्षण देकर इस नैतिक कार्य को जल्द ही पूरा
करना पडे़गा।