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Monday, October 6, 2025

भगदड़: भारत क्यों बार-बार विफल हो रहा है ?

भारत, दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश, जहां धार्मिक उत्सव, राजनीतिक रैलियां और सांस्कृतिक आयोजन में लाखों-करोड़ों लोग एकत्रित होते हैं। वहां भीड़ प्रबंधन की विफलता एक बार फिर से राष्ट्रीय शर्म का कारण बन रही है। हाल के वर्षों में हुई कई भयानक घटनाएं इस बात का प्रमाण हैं कि प्रशासनिक लापरवाही, अपर्याप्त योजना और बुनियादी ढांचे की कमी कैसे निर्दोष लोगों की जान ले रही है। सितंबर 2025 में तमिलनाडु के करूर में अभिनेता-नेता विजय की राजनीतिक रैली में 41 लोगों की मौत हो गई, जब देरी से पहुंचे काफिले को देखने के लिए लोग सड़क पर उमड़ पड़े। भगदड़ के हादसों की सूची बहुत लंबी है लेकिन यहाँ सवाल उठता है कि एक के बाद एक हादसों से हमने क्या सीखा? क्या ऐसे हादसे कभी कम होंगे? 



2024 में उत्तर प्रदेश के हाथरस में भोले बाबा के सत्संग के दौरान हुई भगदड़ में 121 लोगों की मौत हो गई, ज्यादातर महिलाएं और बच्चे थे। यह घटना कार्यक्रम समाप्ति के समय भीड़ के बहाव के कारण हुई, जब लोग बाबा के चरण छूने या उनकी चरण रज लेने के लिए उमड़ पड़े। इसी तरह, 2025 में प्रयागराज के महाकुंभ मेला में 'मौनी अमावस्या' के दिन पवित्र नदी में स्नान के दौरान हुई भगदड़ ने 30 लोगों की जान ले ली और 60 से अधिक घायल हो गए। इन घटनाओं से स्पष्ट है कि भारत अपनी जनता की सुरक्षा सुनिश्चित करने में बार-बार असफल हो रहा है। इन घटनाओं पर शासन और प्रशासन इतना गंभीर क्यों नहीं दिखाई देता?


हाल के वर्षों में भारत में भगदड़ की घटनाएं एक चक्रव्यूह की तरह घूम रही हैं। 2024 के दिसंबर में हैदराबाद के संध्या थिएटर में 'पुष्पा 2' फिल्म की स्क्रीनिंग के दौरान हुई भगदड़ में एक महिला की मौत हो गई। 2025 की शुरुआत में आंध्र प्रदेश के तिरुपति मंदिर में वैकुंठ द्वार दर्शन के टोकन वितरण के समय छह भक्तों की मौत हो गई, जब हजारों लोग टोकन के लिए उमड़ पड़े। फरवरी 2025 में नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर फुट ओवर ब्रिज पर हुई भगदड़ ने कई जानें लीं। बेंगलुरु में क्रिकेट टीम रॉयल चैलेंजर्स बेंगलुरु (आरसीबी) की आईपीएल विजय परेड के दौरान 11 लोगों की मौत हुई, जहां प्रशासन ने भीड़ का अनुमान लगाने में चूक की। बिहार के बाबा सिद्धनाथ मंदिर में अगस्त 2024 की भगदड़ में सात मौतें हुईं। ये घटनाएं धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आयोजनों में ही नहीं, बल्कि रेलवे स्टेशनों और सिनेमा घरों जैसे सार्वजनिक स्थानों पर भी हो रही हैं। 1954 से 2012 तक भारत में 79% भगदड़ें धार्मिक आयोजनों के दौरान हुईं, जो आज भी जारी है।  


इन विफलताओं के पीछे कई गहरे कारण हैं। सबसे प्रमुख है आमंत्रित भीड़ का होना और अपर्याप्त प्रबंधन। आयोजक अक्सर अनुमानित संख्या से अधिक लोगों को आने की अनुमति माँग करते हैं, जबकि निकास मार्ग संकरे और अपर्याप्त होते हैं। अनुमति देने वाले विभाग भी, किन्हीं कारणों के चलते, सुरक्षा व्यवस्था के पुख्ता इंतज़ामों पर ज़ोर नहीं देते। हाथरस में अस्थायी टेंट में पर्याप्त निकास न होने से भगदड़ बढ़ी। अफवाहें, जैसे आग लगने या ढांचा गिरने की, घबराहट और भगदड़ पैदा करती हैं। बुनियादी ढांचे की कमी, पुरानी इमारतों, संकरी सड़कों और पहाड़ी इलाकों में तो समझी जा सकती है। वहीं सुरक्षा कर्मियों की कमी और अप्रशिक्षित होना एक और समस्या है। महाकुंभ में वीआईपी व्यवस्थाओं पर फोकस से आम भक्तों की उपेक्षा हो जाती है। राजनीतिक और धार्मिक आयोजनों में भावनाओं का उफान भीड़ को अनियंत्रित बनाता है। इसके अलावा, आपदा प्रबंधन में पुलिस, आयोजकों और स्थानीय प्रशासन के बीच समन्वय की कमी घटनाओं को बढ़ावा देती है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) के दिशानिर्देशों का पालन न होना एक बड़ी लापरवाही है। ये सभी कारक मिलकर भारत को बार-बार विफल कर रहे हैं, जहां जनता की जानें सस्ती साबित हो रही हैं।


ये भगदड़ें केवल आंकड़ों तक सीमित नहीं हैं, इनका मानवीय और सामाजिक प्रभाव बहुत गहरा है। परिवार टूट जाते हैं, बच्चे अनाथ हो जाते हैं और परिवार पर आर्थिक बोझ बढ़ता है। हाथरस में ज्यादातर महिलाओं की मौत ने लिंग असमानता को भी उजागर किया। मनोवैज्ञानिक आघात पीड़ितों और गवाहों को वर्षों तक सताता है। सामाजिक विश्वास कम होता है और अंतरराष्ट्रीय छवि खराब होती है। भारत जैसे विकासशील देश में ये घटनाएं प्रगति की राह में बाधा हैं।


फिर सवाल उठता है कि इनसे कैसे बचा जाए? प्रबंधन के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाना होगा। सबसे पहले, पूर्व नियोजन जरूरी है। आयोजकों को अनुमति देते समय क्षमता का सख्त आकलन हो और अधिकतम संख्या तय की जाए। बुनियादी ढांचे में सुधार लाएं, चौड़े निकास, आपातकालीन मार्ग और मजबूत संरचनाएं। एनडीएमए के अनुसार, सीसीटीवी, ड्रोन और एआई का उपयोग भीड़ निगरानी के लिए किया जाए, जैसा कुंभ में प्रयास हुआ।   सुरक्षा कर्मियों की संख्या बढ़ाएं और उन्हें विशेष प्रशिक्षण दें। अफवाहों पर नियंत्रण के लिए ‘रियल टाइम’ संचार प्रणाली लगाएं। अंतर-एजेंसी समन्वय मजबूत करें—पुलिस, आयोजक और नागरिक प्रशासन एक साथ काम करें।   कानूनी सख्ती लाएं, लापरवाह आयोजकों पर कड़ी सजा और मुआवजा सुनिश्चित करें। जन जागरूकता अभियान चलाएं, जहां लोग भीड़ में धैर्य रखें और सहयोग करें। शासन और प्रशासन की ज़िम्मेदारी है कि नियमित रूप से देश भर में ‘मॉक ड्रिल’ का आयोजन किया जाए, जिससे जागरूकता बढ़ेगी। अंतरराष्ट्रीय उदाहरण लें, जैसे दुनिया भर के कई देशों में स्कूलों में भी आपात स्थिति से निपटने के लिए प्रशिक्षण दिया जाता है।  

भारत को एक बाद एक हुई इन विफलताओं से सबक लेना होगा। सरकार, आयोजक और नागरिकों की संयुक्त जिम्मेदारी से ही भविष्य की त्रासदियां रोकी जा सकती हैं। अन्यथा, ये घटनाएं जारी रहेंगी और देश अपनी जनता को बचाने में असमर्थ साबित होगा। समय आ गया है कि प्रोएक्टिव अप्रोच अपनाया जाए, जैसा कि कहा जाता है  कि, ‘प्रिवेंशन इज बेटर दैन क्योर’। केवल तभी हम एक सुरक्षित भारत का निर्माण कर पाएंगे। 

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Monday, September 8, 2025

प्राकृतिक आपदाओं का बढ़ता कहर

भारत, अपनी प्राकृतिक सुंदरता और विविध भौगोलिक संरचना के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है। लेकिन हर साल मानसून के आगमन के साथ यह देश प्राकृतिक आपदाओं की चपेट में आ जाता है। हाल के वर्षों में, विशेष रूप से हिमालयी राज्यों जैसे उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में बादल फटने, भूस्खलन और भारी बारिश के कारण होने वाली तबाही ने न केवल जन-धन की हानि की है, बल्कि सरकारी तंत्र की नाकामी और भ्रष्टाचार को भी उजागर किया है।



भारत में मानसून का मौसम जून से सितंबर तक रहता है और इस दौरान देश के कई हिस्सों में भारी बारिश, बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएं अब आम हैं। हाल के महीनों में, उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के धराली गांव में बादल फटने से भारी तबाही मची, जिसमें कम से कम पांच लोगों की मौत हुई और 50 से अधिक लोग लापता हो गए। हिमाचल प्रदेश में भी अगस्त 2025 में भारी बारिश के कारण दर्जनों सड़कें बंद हो गईं और कई लोगों की जान चली गई। इन घटनाओं ने एक बार फिर यह सवाल उठाया है कि सरकारी तंत्र इन आपदाओं को रोकने और उनके प्रभाव को कम करने में क्यों असफल हो रहा है?



बादल फटने की घटनाएं, जिन्हें भारत मौसम विज्ञान विभाग 100 मिमी प्रति घंटे से अधिक बारिश के रूप में परिभाषित करता है, विशेष रूप से हिमालयी क्षेत्रों में आम हैं। ये घटनाएं न केवल प्राकृतिक हैं, बल्कि जलवायु परिवर्तन और मानवीय गतिविधियों जैसे अनियोजित निर्माण, जंगलों की कटाई और नदियों के प्राकृतिक प्रवाह में हस्तक्षेप के कारण और भी घातक हो गई हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश की तीव्रता बढ़ रही है, जिससे बादल फटने और भूस्खलन की घटनाएं अधिक बार और अधिक विनाशकारी हो रही हैं।


केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने हाल ही में अपने बयान में कहा कि पहाड़ी राज्यों में होने वाले निर्माण और नुक़सान के लिए घर में बैठकर तैयार की गई फर्जी डीपीआर बनाने वाले दोषी (कल्प्रिट) हैं। ये लोग बिना ज़मीनी हकीकत जाने हुए डीपीआर बना देते हैं जिससे ऐसे हादसे होते हैं। यह बयान न केवल सरकारी तंत्र की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि विकास परियोजनाओं में पारदर्शिता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कमी कितनी घातक हो सकती है। 



डीपीआर, जो किसी भी योजना का बुनियादी ढांचा व आधार होती है, में अगर भ्रष्टाचार और लापरवाही बरती जाती है, तो इसका परिणाम ऐसी हादसों व त्रासदियों के रूप में सामने आता है। इसे ‘करप्शन ऑफ़ डिज़ाइन’ कहा जाता है। 


पहाड़ी क्षेत्रों में सड़कों, पुलों और अन्य बुनियादी ढांचे का निर्माण करते समय भूगर्भीय और पर्यावरणीय कारकों को नजरअंदाज करना आम बात हो गई है। गडकरी का यह बयान इस ओर इशारा करता है कि कई परियोजनाओं के लिए डीपीआर बिना स्थानीय भूगोल और जलवायु की गहन जांच के तैयार की जाती हैं। उदाहरण के लिए, उत्तराखंड जैसे क्षेत्रों में, जहां भूस्खलन और बाढ़ का खतरा हमेशा बना रहता है, सड़क निर्माण के लिए अक्सर पहाड़ों को अंधाधुंध काटा जाता है, जिससे ढलान अस्थिर हो जाते हैं। यह न केवल भूस्खलन को बढ़ावा देता है, बल्कि नदियों में मलबे का प्रवाह भी बढ़ाता है, जिससे बाढ़ की स्थिति और गंभीर हो जाती है।


भारत में बाढ़ और जलभराव की स्थिति को नियंत्रित करने में सरकारी तंत्र की विफलता कई स्तरों पर दिखाई देती है। सबसे पहले तो हमारी आपदा प्रबंधन की तैयारी ही अपर्याप्त है। उत्तराखंड में 2013 की केदारनाथ त्रासदी, जिसमें 6,000 से अधिक लोग मारे गए थे। 2021 की चमोली आपदा, जिसमें 200 से अधिक लोग हिमस्खलन और बाढ़ की चपेट में आए। इन हादसों ने यह स्पष्ट कर दिया कि सरकार को पहले से चेतावनी और तैयारी की जरूरत है। फिर भी, हर साल न सिर्फ़ एक जैसी आपदाएं दोहराई जाती हैं बल्कि राहत और बचाव कार्यों में देरी और अव्यवस्था भी दिखाई देती है।


दूसरा, जल निकासी प्रणालियों की कमी और रखरखाव की अनदेखी भी एक बड़ा मुद्दा है। दिल्ली-एनसीआर जैसे शहरी क्षेत्रों में, जहां 2024 में 108 मिमी बारिश ने भारी जलभराव पैदा किया, नालों की सफाई और उचित जल निकासी की कमी साफ दिखाई दी। पहाड़ी क्षेत्रों में नदियों के किनारे अनियोजित निर्माण और अतिक्रमण ने प्राकृतिक जल प्रवाह को बाधित किया है, जिससे बाढ़ का खतरा बढ़ गया है।


तीसरा, स्थानीय समुदायों की भागीदारी और जागरूकता की कमी भी एक बड़ी समस्या है। ऐसे में स्थानीय ज्ञान का उपयोग करके सड़क निर्माण हो तो शायद भूस्खलन में रोकथाम हो सके। लेकिन वास्तव में, स्थानीय लोगों की सलाह को अक्सर नजरअंदाज किया जाता है और परियोजनाएं केवल ठेकेदारों और अधिकारियों के हितों को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं।


इन समस्याओं का समाधान तभी संभव है जब सरकार और समाज मिलकर एक समग्र और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं। सबसे पहले, डीपीआर तैयार करने की प्रक्रिया को पारदर्शी और वैज्ञानिक बनाना होगा। भूगर्भीय सर्वेक्षण, पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन, और स्थानीय विशेषज्ञों की राय को शामिल करना अनिवार्य होना चाहिए। भ्रष्टाचार को रोकने के लिए स्वतंत्र ऑडिट और निगरानी तंत्र स्थापित किए जाने चाहिए।


दूसरा, आपदा प्रबंधन के लिए एक मजबूत ढांचा तैयार करना होगा। इसमें न केवल राहत और बचाव की तैयारी शामिल होनी चाहिए, बल्कि प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों, जैसे कि बादल फटने की निगरानी, को भी मजबूत करना होगा। कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) का उपयोग भूस्खलन और जलभराव की संभावना वाले स्थानों की पहचान के लिए किया जाना चाहिए।


इसके अलावा पर्यावरण संरक्षण और टिकाऊ विकास को प्राथमिकता देनी होगी। जंगलों की कटाई को रोकना, नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को बहाल करना और अंधाधुंध निर्माण पर रोक लगाना जरूरी है। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों में इको-सेंसिटिव जोन में निर्माण को सख्ती से विनियमित करना होगा।


भारत में बादल फटने, भूस्खलन और बाढ़ की त्रासदियां केवल प्राकृतिक नहीं हैं, बल्कि मानवीय लापरवाही और भ्रष्टाचार का भी परिणाम हैं। नितिन गडकरी का बयान इस दिशा में एक कड़वी सच्चाई को उजागर करता है। सरकारी तंत्र की नाकामी, चाहे वह जलभराव को नियंत्रित करने में हो या आपदा प्रबंधन में, ने आम लोगों का जीवन खतरे में डाल दिया है। अब समय है कि सरकार, समाज और विशेषज्ञ मिलकर एक ऐसी व्यवस्था बनाएं जो न केवल आपदाओं को रोके, बल्कि उनके प्रभाव को कम करने में भी सक्षम हो। टिकाऊ विकास, पारदर्शी प्रशासन, और वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही इस दिशा में आगे बढ़ने का रास्ता है।