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Monday, December 4, 2023

संतों को किससे भय लगता है?


पिछले दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत वृंदावन के सुप्रसिद्ध संत श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज के दर्शन करने गए। आजकल देश भर के वीआईपी और विराट कोहली जैसी सेलिब्रिटी, जो भी वृंदावन आता है वो महाराज के दर्शन करने अवश्य जाता है। इनमें से ज़्यादातर लोग इसलिए जाते हैं क्योंकि पिछले दो-तीन वर्षों में महाराज श्री सोशल मीडिया पर पूरी दुनिया में बहुत तेज़ी से वायरल हुए हैं। बाक़ी लोग उनका आशीर्वाद लेने जाते हैं और थोड़े से जिज्ञासु लोग उनसे ज्ञान लेने जाते हैं। माना जा सकता है कि भागवत जी भी प्रथम श्रेणी के ही दर्शनार्थी थे, जो आशीर्वाद या आध्यात्मिक ज्ञान लेने नहीं बल्कि महाराज के करोड़ों प्रशंसकों के बीच वहाँ अपनी उपस्थिति दर्ज कराने गये थे।



‘संतन के ढिग रहत है सबके हित की बात’ की भावना को चरितार्थ करते हुए महाराज ने भागवत जी को एक लंबा प्रवचन दे डाला। जिसका मूल आशय यह था कि संघ और भाजपा सहित देश के सभी राजनैतिक दल रेवड़ियाँ बाँट कर भारत का ‘विकास’ करने का जो दावा कर रहे हैं उससे भारत कभी सुखी और संपन्न नहीं बन सकता। बल्कि मानसिक और नैतिक रूप से दुर्बल और सामाजिक रूप से विभाजित राष्ट्र बन रहा है, जो देश के भविष्य के लिये बहुत घातक है। महाराज का ज़ोर इस बात पर था कि धर्मांधता, उत्तेजना, आक्रामकता और हिंसा को बढ़ाने वाले दल समाज का भला नहीं कर सकते। यह प्रवचन बड़ी तेज़ी से दुनिया भर में वायरल हो चुका है। इसे सुन कर भागवत जी निरुत्तर हो गये। क्या यह आशा की जा सकती है कि संघ में इस विषय पर आत्मविश्लेषण व चिंतन किया जाएगा? क्योंकि स्वयं महाराज प्रायः यह कहते हैं कि उनके प्रवचन को सुनने से कोई लाभ नहीं, जब तक उसे आचरण में न लाया जाए।



प्रेमानंद महाराज जी देश के एक अति शक्तिशाली राजनेता से इतने कड़े शब्दों में ऐसा इसलिए कह सके  क्योंकि उनका हृदय निर्मल है और उन्होंने जीवन में कठोर तप किया है और उन्हें किसी भी सरकार से किसी लाभ, उपाधि या सहायता की कोई अपेक्षा नहीं है। अब ज़रा परिदृश्य को बदलिए और देखिए उन तथाकथित संतों की ओर जो अध्यात्म का चोला ओढ़ कर वैभव, सत्ता और ग्लैमर का सुख भोग रहे हैं। किसी एक का नाम लेने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, क्योंकि इनकी फ़ेहरिस्त बहुत लंबी है। पिछले कुछ वर्षों में ऐसे सभी आत्मघोषित सद्गुरुओं, महामंडलेश्वरों, शंक्राचार्यों और मठाधीशों की पूछ अचानक बढ़ गई है। धर्म के नाम पर अरबों रुपये की संपत्ति जमा कर लेने वाले ऐसे सभी ‘मीडियाजीवी संत’ आजकल भारत सरकार या राज्य सरकार द्वारा दी गई एक्स, वाई या जेड श्रेणी की पुलिस सुरक्षा के घेरे में चलते हैं। इनकी सुरक्षा पर इस देश के मेहनतकश करदाताओं के टैक्स का अरबों रुपया हर साल खर्च हो रहा है। जबकि करदाताओं को इसका कोई लाभ नहीं मिलता। हिरण्यकश्यप के वध के बाद उसके खून में सनी आंतड़ियों की माला पहने रौद्र रूप में सामने खड़े नरसिंह भगवान को शांत करने गये सुकुमार बालक प्रह्लाद जी ने कहा, ‘भगवन मुझे आपके इस भयानक रूप से डर नहीं लगता, पर अपनी वासनाओं से डर लगता है जो मेरी आध्यात्मिक राह में बाधक हैं।’ सुरक्षा के घेरे में चलने वाले इन संतों ने अपने प्रवचनों अनेक बार श्रीमद् भागवत के इस प्रसंग का उल्लेख किया होगा? पर क्या इससे मिले ज्ञान पर कभी मंथन भी किया? हमने तो विरक्त संतों से यही सुना है कि लाभ, पूजा, प्रतिष्ठा के पीछे भागने वाले कभी आध्यात्मिक प्रगति नहीं कर सकते।    



आप पूछ सकते हैं कि जब दूसरे विशिष्ट व्यक्तियों को सरकार की तरफ़ से इस तरह की सुरक्षा दी जाती है तो इन मशहूर संतों को सुरक्षा क्यों न दी जाए? दोनों परिस्थितियों में अंतर है। बाक़ी लोग अपने सत्कर्मों या कुकर्मों के कारण लगातार मौत के भय में जीते हैं इसलिए वे सरकार से सुरक्षा माँगते हैं। जबकि स्वयं को संत मानने वाले उस आध्यात्मिक मार्ग के पथिक हैं जिसमें, ‘चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह। जिनको कछु न चाहिए, वे साहन के साह॥’ आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले को मौत का क्या भय? गोस्वामी तुलसीदास जी भी कह गये हैं, ‘हानि लाभ जीवन मरण, यश अपयश विधि हाथ।’ फिर मौत से क्या डरना? 


अगर पाठकों को ये आत्मश्लाघा न लगे तो विनम्रता से यहाँ उल्लेख करना चाहूँगा कि 1993-98 के बीच अलग-अलग जगहों पर मुझ पर कई बार जानलेवा हमले हुए। क्योंकि ‘जैन हवाला कांड’ को उजागर करके मैंने देश के सबसे ताकतवर लोगों और हिज़्बुल मुजाहिद्दीन के आतंकवादियों के विरुद्ध अकेले ही युद्ध छेड़ दिया था। पर प्रभु कृपा से मैं न तो डरा, न झुका और न बिका। उस दौर में भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त श्री टी एन शेषन और मैं देश भर में जनसभाओं को संबोधित करने जाते थे तो अक्सर मुझसे यह प्रश्न पूछा जाता था कि ‘आप इतना ख़तरनाक युद्ध लड़ रहे हैं, आपको डर नहीं लगता?’ मेरा श्रोताओं को उत्तर होता था, ‘मारे कृष्णा राखे के, राखे कृष्णा मारे के’, श्री चैतन्य महाप्रभु के उक्त वचन से मुझे नैतिक बल मिलता था। इसलिए मुझे आश्चर्य होता है कि बड़े-बड़े मंचों से धार्मिक प्रवचन करने वाले लोग कमांडो और पुलिस के घेरे में रह कर गर्व का अनुभव करते हैं। माया मोह त्यागने का उपदेश देने वालों की कथनी और करनी में इस भेद के कारण ही देश की आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं हो पा रहा है। कुछ ऐसी ही बात प्रेमानंद जी महाराज ने डॉ मोहन भागवत जी से कही। 


पिछले चार दशकों में ये आम रिवाज हो गया है कि आपराधिक चरित्र के राजनेता, चाहे किसी भी दल के क्यों न हों, सरकारों द्वारा प्रदत्त पुलिस सुरक्षा के घेरे में चलते हैं। इसका समय-समय पर समाज में विरोध भी हुआ और सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिकाएँ भी दायर हुई हैं। पर कोई सरकार इस कुरीति को रोकना नहीं चाहती क्योंकि उसे इन आपराधिक छवि के नेताओं का इस्तेमाल अपनी सत्ता बनाने और चलाने में करना होता है। हर दल के बड़े और मशहूर राजनेताओं को सरकार द्वारा सुरक्षा दिये जाने पर कोई आपत्ति नहीं है। क्योंकि उनके जीवन पर हर समय ख़तरा रहता है। पर गुंडे मवालियों को सुरक्षा मिले या माया-मोह त्यागने का उपदेश देने वाले संतों को यह सुरक्षा मिले, तो यह बात गले नहीं उतरती। आपका क्या विचार है? 

Monday, November 27, 2023

क्रिकेट की ये दीवानगी कहाँ ले जायेगी ?


23 साल के राहुल ने कोलकाता में आत्महत्या कर ली। वो क्रिकेट के विश्व कप में भारतीय टीम की हार का सदमा बर्दाश्त नहीं कर सका। ये तो एक उदाहरण है। देश के अन्य हिस्सों में दूसरे नौजवानों ने हार के सदमे को कैसे झेला इसका पूरा विवरण उपलब्ध नहीं है। यह सही है कि अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में अपने देश की टीम के साथ देशवासियों की भावनाएँ जुड़ी होती हैं और इसलिए जब परिणाम आशा के विपरीत आते हैं तो उस खेल के चाहने वाले हताश हो जाते हैं। खेलों में हार जीत को लेकर अक्सर प्रशंसकों के बीच हाथापाई या हिंसा भी हो जाती है। इसके उदाहरण हैं, दक्षिणी अमरीका के देश जहां फुटबॉल के मैच अक्सर हिंसक झड़पों में बदल जाते हैं। यूरोप और अमरीका में भी लोकप्रिय खेलों के प्रशंसकों के बीच ऐसी वारदातें होती रहती हैं।
 

अंतर्राष्ट्रीय खेलों में इसकी संभावना कम रहती है क्योंकि वहाँ खेलने वाली टीमों में जो बाहर से आती हैं, उनके प्रशंसकों की संख्या गिनी-चुनी होती है। इसलिए वो किसी हिंसक झड़प में फँसने से बचते हैं। यहाँ हम पिछले हफ़्ते अहमदाबाद के नरेंद्र मोदी स्टेडियम में क्रिकेट विश्व कप के लिये खेले गये फाइनल मैच के प्रभाव की विस्तार से चर्चा करेंगे और सोचेंगे कि आख़िर क्यों राहुल ने एक खेल के पीछे अपनी जान दे दी। 



हमें प्राथमिक विद्यालयों से लेकर महाविद्यालयों तक शिक्षा के दौरान बार-बार ये बताया जाता है कि खेल, खेल की भावना से खेले जाते हैं। जिसमें हार और जीत इतनी महत्वपूर्ण नहीं होती जितना कि खेल के दौरान अपने कौशल का प्रदर्शन करना। जो खिलाड़ी हमेशा बढ़िया खेलते हैं वो सबके चहेते बन ही जाते हैं। जैसे विराट कोहली की बैटिंग की प्रशंसा जितनी भारत में होती है उतनी ही पाकिस्तान सहित अन्य देशों में भी होती है। ब्राज़ील का मशहूर फुटबॉल खिलाड़ी पेले पूरी दुनिया के फुटबॉल प्रेमियों का हीरो था। चिंता की बात यह है कि पैसे की हवस ने आज खेलों को भी एक उद्योग बना दिया है और खिलाड़ियों को इन उद्योगपतियों का ग़ुलाम। इस मामले में भारत में क्रिकेट पहले नंबर पर है। जिसे खिलाड़ी या खेलों के विशेषज्ञ नहीं बल्कि सत्ताधीश और पैसे की हवस रखने वाले नियंत्रित करते हैं। इसलिए क्रिकेट को इतना ज़्यादा बढ़ावा दिया जाता है। खेल के नाम पर अरबों-खरबों के वारे-न्यारे किए जाते हैं। कौन नहीं जानता कि क्रिकेट मैच के लिये सटोरिये लार टपकाए बैठे रहते हैं।बार-बार इस तरह के मामले उछले हैं जब क्रिकेट के सट्टे या मैच फिक्सिंग के आरोपों में क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के सदस्यों पर भी छींटे पड़े हैं। हमारे देश में बड़े-बड़े घोटालों की जाँच तो कभी तार्किक परिणीति तक पहुँचती ही नहीं है। केवल अख़बारों की सुर्ख़ियाँ और राजनैतिक लाभ का सामान बन कर रह जाती है। 



पिछले हफ़्ते की घटना को ही लीजिए। सवा लाख दर्शकों की क्षमता वाले स्टेडियम में प्रवेश पाने के लिए टिकटों की जमकर काला बाज़ारी हुई, ऐसे आरोप लग रहे हैं। अहमदाबाद के होटल वालों ने कमरों के किराए दस गुना बढ़ा दिये 5,000 रुपये रोज़ का कमरा 50,000 रुपये पर उठा। यही हाल हवाई यात्रा की टिकटों का भी रहा। कुल मिलाकर इस एक मैच से अरबों-खरबों का कारोबार हो गया। ये सारा मुनाफ़ा मुख्यतः अहमदाबाद के व्यापारियों की जेब में गया। उधर खिलाड़ियों को, चाहे जीतें या हारें, जो शोहरत मिलती है उसका फ़ायदा उन्हें तो मिलता ही है। बड़ी-बड़ी कंपनियाँ उन खिलाड़ियों को दिखाकर विज्ञापन बना कर मोटा लाभ कमा लेती हैं। इस सारे मायाजाल में घाटे में तो आम दर्शक रहता है। जो बाज़ार की शक्तियों के प्रभाव में इस मायाजाल का शिकार बन जाता है। कुछ देर के मनोरंजन के लिए वो अपना क़ीमती समय और धन गँवा बैठता है। उसकी हालत वैसी ही होती है जैसी ‘न ख़ुदा ही मिला, न बिसाले सनम। न इधर के रहे, न उधर के रहे।’ इस तरह के खेल से न तो उसका शरीर मज़बूत होता है और न ही दिमाग़। इसके मुक़ाबले तो फुटबॉल, हॉकी, बैडमिंटन, वॉलीबॉल जैसे खेल कहीं ज़्यादा सार्थक हैं। जिनको खेलने वालों को भी खूब श्रम करना पड़ता है और उनसे प्रेरणा लेकर अपने गाँव क़स्बे में इन खेलों को खेलने वाले युवाओं की सेहत बनती है। क्रिकेट के मुक़ाबले ये खेल काफ़ी सस्ते भी हैं। 


जब हम हर बात में अपने औपनिवेशिक शासक रहे अंग्रेजों की आलोचना करते हैं। यहाँ तक कि उनके रखे नाम ‘इंडिया’ की जगह 75 वर्ष बाद अपने देश को ‘भारत’ कह कर पहचनवाना चाहते हैं, तो हम अंग्रेजों के इस औपनिवेशिक खेल क्रिकेट के पीछे इतने दीवाने क्यों हैं? 


यह दावा किया जाता है कि भारत और कुछ  राज्यों की सत्ता हिंदुत्ववादी है। तो यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न खड़ा होता है कि हिंदुत्ववादी सरकारों ने अपने शासन के इन वर्षों में सनातनी संस्कृति के प्राचीन खेलों को कितना बढ़ावा दिया और अगर नहीं तो क्यों नहीं? मल्लयुद्ध, कबड्डी, कुश्ती, तीरंदाज़ी, घुड़सवारी, नौका दौड़, मल्लखम्ब जैसे खेलों की लागत भी न के बराबर होती है और इनसे युवाओं में शक्ति और बुद्धि का भी संचार होता है। यह बात अहमदाबाद के हेमेंद्रचार्य संस्कृत गुरुकुलम ने सिद्ध कर दी है। उनके विद्यार्थी बाज़ारीकरण की शक्तियों से प्रभावित हुए बिना शुद्ध सनातन संस्कृति पर आधारित शिक्षा और ऐसे पारंपरिक खेलों का प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं। इसलिए वे भारत के किसी भी आधुनिक सुप्रसिद्ध विद्यालय के छात्रों के मुक़ाबले हर क्षेत्र में कहीं ज़्यादा आगे हैं। 


इस देश में क्रिकेट प्रेमियों की तादाद बहुत ज़्यादा है। क्रिकेट मैच के दौरान देश की धमनियों में रक्त रुक जाता है। आश्चर्य होता है यह देख कर कि जिन्हें इस खेल का क, ख, ग, भी नहीं पता वे भी इस खेल के दीवाने हुए रहते हैं। अपने काम और व्यवसाय से ध्यान हटा कर मैच का स्कोर जानने के लिये उत्सुक रहते हैं। ऐसे तमाम लोगों को मेरे ये विचार गले नहीं उतरेंगे। किंतु यदि वे इन बिंदुओं पर गंभीरता से विचार करें तो पायेंगे कि उनमें इस खेल के प्रति आकर्षण का कारण उनकी स्वाभाविक उत्सुकता नहीं है, बल्कि वे बाज़ारीकरण की शक्तियों के शिकार बन चुके हैं। यह ठीक ऐसे ही है जैसे काले रंग का शीतल पेय जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। जिसके उत्पादन का फार्मूला गोपनीय रखा गया है और माना जाता है कि उसमें सैक्रीन, रासायनिक रंग, पेट्रोलियम जेली और कार्बन डाइआक्साइड मिली होती है, जो सब हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। पर अंतर्राष्ट्रीय विज्ञापन के प्रभाव से हम इन शीतल पेयों को गर्व से पीते हैं। जबकि हम जानते हैं कि दूध, छाछ, फलों के रस या नारियल पानी इन काले-पीले शीतल पेयों से कहीं ज़्यादा स्वास्थ्यवर्धक होता है। यही हाल हमारे क्रिकेट प्रेमियों का भी है जिनके दिमाग़ को बाज़ार की शक्तियों ने सम्मोहित कर लिया है। इसलिये कोलकाता के युवा राहुल की आत्महत्या ने मुझे ये लेख लिखने पर बाध्य किया। आपका क्या विचार है? 

Monday, November 20, 2023

लुप्त हो रहीं हैं भारतीय भाषाएँ


हम लोग जो ख़ुद को पढ़ा-लिखा समझते हैं कितने ही मामलों में हम कितने अनपढ़ हैं इसका एहसास तब होता है जब हम किसी विद्वान को सुनते हैं। ऐसा ही अनुभव पिछले हफ़्ते हुआ जब बड़ौदा से आए प्रोफेसर गणेश एन देवी का व्याख्यान सुना। प्रो देवी के व्याख्यान आजकल दुनिया के हर देश में बड़े चाव से सुने जा रहे हैं। उनका विषय है भाषाओं की विविधता और उस पर मंडराता संकट। इस विषय पर उन्होंने दशकों शोध किया है। भाषा, संस्कृति और जनजातीय जीवन पर वे 90 से ज़्यादा पुस्तकें लिख चुके हैं। भाषाओं पर उनके गहरे शोध का निचोड़ यह है कि भारत सहित दुनिया भर में क्षेत्रीय भाषाएँ बहुत तेज़ी से लुप्त होती जा रही हैं। इससे लोकतंत्र पर ख़तरा मंडरा रहा है। कारण भाषाओं की विविधता और उससे जुड़े समाज और पर्यावरण की विविधता से लोग सशक्त होते हैं। पर जब उनकी भाषा ही छिन जाती है तो उनके संसाधन, उनकी पहचान और उनकी लोकतांत्रिक ताक़त भी छिन जाती है। यह एक गंभीर विषय है जिसे पाठक ध्यान देकर पढ़ें तो उन्हें हैरानी होगी। 



प्रो देवी ने बताया कि भारत के पिछले सत्तर हज़ार वर्ष के इतिहास में जब-जब हमारी भाषा बदली तब-तब भारत का नवनिर्माण हुआ। नई संस्कृति, नया धर्म, नये रीति रिवाज और नया राजनैतिक ढाँचा बनता रहा और कुछ सदियों के बाद बिगड़ता रहा है। पुरानी कहावत है कि ‘कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी’ इस कहावत का अर्थ है कि लगभग हर डेढ़ किलोमीटर पर पानी के स्वाद में बदलाव आ जाता है और लगभग साढ़े छह किलोमीटर पर भाषा बदल जाती है। भारत का कुल क्षेत्रफल बत्तीस लाख सत्तासी हज़ार दो सौ तिरसठ वर्ग कि. मी. है। इस हिसाब से भारत में लगभग पाँच लाख प्रकार की बोलियाँ बोली जातीं थीं। जो 2011 के भाषाई सर्वेक्षण में घट कर लगभग 1369 ही रह गई हैं। यही हाल रहा तो हमारी भाषाएँ घट कर 2031 तक 500, 2041 तक 200 और 2051 तक केवल 100 रह जाएँगी। इससे हमारे जीवन पर क्या संकट आने वाला है ये आप आगे पढ़ने पर जान जाएँगे। 



इन आँकड़ों से भाषाई विविधता का पता चलता है। आप अपने इर्द-गिर्द ही अगर देखें तो आप पायेंगे कि आपके रिश्तेदार जो भिन्न-भिन्न शहरों, क़स्बों या गाँवों से आते हैं उनकी भाषा में ही समानता नहीं होती। उदाहरण के तौर पर उत्तर भारत का लोकप्रिय व्यंजन पराँठा कितने नामों से जाना जाता है? कोई इसे ‘परौठा’ कहता है, कोई ‘परामटा’, कोई ‘परौंठी’, कोई ‘परोटा’ आदि। आप कह सकते हैं कि क्या फ़र्क़ पड़ता है, कुछ भी कह लो। जी नहीं, प्रो देवी बताते हैं कि हर शब्द जिसका स्थानीय लोग प्रयोग करते हैं, उसका एक सांस्कृतिक संदर्भ होता है। उसकी उत्पत्ति कैसे हुई और उसको किस संदर्भ में प्रयोग में लाया जा सकता है। हर स्थानीय भाषा अपने परिवेश से जुड़ी होती है। मसलन उस इलाक़े के पेड़-पौधों, फूल-पत्तियों, फल-सब्ज़ियों, नदी, नालों और पोखरों, पशु-पक्षियों, त्योहारों-पर्वों, आभूषणों, परिधानों, ऋतुओं, फसलों, देवी-देवताओं, लोक कथाओं के समावेश से उस इलाक़े की भाषा पनपती है। जिसे केवल उस सांस्कृतिक परिवेश में ही समझा जा सकता है। हमारे ब्रज में एक शब्द आम प्रचलन में है, ‘अर्राना’। आप इसका क्या अर्थ समझे? इसका प्रयोग उस परिस्थिति के लिए होता हैं जब कोई व्यक्ति या तो जबरन आपके घर में प्रवेश करे या पारस्परिक वार्ता में आप पर हावी होने की कोशिश करे। 



इन स्थानीय भाषाओं के कारण उस क्षेत्र के रहने वालों की एक पहचान बनती है। जिसका उन्हें गर्व होता है। एक सी भाषा बोलने वालों के बीच स्वाभाविक रूप से एक अघोषित संगठन होता है। जो उन्हें राजनैतिक शक्ति प्रदान करता है। अनेक समूहों की इस भावना और इस शक्ति के कारण ही लोकतंत्र मज़बूत होता है। कहा जाता रहा है कि भारत सांस्कृतिक और भौगोलिक विविधताओं का देश है। इसलिए एक देश, एक भाषा, एक सरकार और एक मुद्रा जैसे वैश्विक नारे जो आजकल पश्चिमी देशों के नेताओं द्वारा प्रचारित किए जा रहे हैं, लोकतंत्र के लिए बहुत ख़तरनाक हैं। ये प्रवृत्ति भारत जैसे देशों की विविधताओं को नष्ट करने वाली है। इस प्रवृत्ति की परिणीति तानाशाही में होती है। जब हर नागरिक अपने मूलभूत अधिकारों को गँवा बैठता है और मानसिक ग़ुलामी का जीवन जीने को मजबूर होता है। 



प्रो देवी ने बताया कि भारत के समुद्रतटीय क्षेत्रों को आजतक सभी सरकारों ने विवेकहीनता का परिचय देते हुए व्यावसायिक उपयोग के लिए खोल दिया। नतीजा यह हुआ कि वहाँ सदियों से रहने वाले मछुआरों की बस्तियाँ उजड़ गईं। उनकी जगह होटलों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों ने ले ली। इस तरह इन मछुआरों द्वारा बोली जाने वाली 200 भाषाएँ हमेशा के लिए लुप्त हो गईं। इनके साथ ही इन भाषाओं के लोक गीत और मुहावरे भी ग़ायब हो गये। जिनमें सदियों से संचित अनुभवों का व्यावहारिक ज्ञान छिपा था। अपनी जड़ों से उजड़ कर काम की तलाश में ये मछुआरे देश के विभिन्न अंचलों में फैल गए और अब मज़दूरी करके पेट पाल रहे हैं। 


जब उनका समुदाय ही बिखर गया तो वे अपनी भाषा में किससे  बात करेंगे? अगर समुद्र तट पर रहते, जहां का मौसम और पर्यावरण उनके जीवन का अभिन्न अंग था तो वे संगठित भी रहते। संगठित रहते तो अपने हक़ के लिए लड़ते भी और राजनैतिक प्रक्रिया में उनकी भूमिका भी होती। पर आज वे असंगठित हो कर न सिर्फ़ अपने जीविका के आधार को खो बैठे, बल्कि अपनी संस्कृति, अपनी पहचान, अपनी दिनचर्या, अपना मनोरंजन और अपना राजनैतिक अधिकार भी खो बैठे। आज ये उन मछुआरों के साथ हुआ, यही आज देश के वनवासियों के साथ भी हो रहा है और कल ये हम शहरी लोगों के साथ भी होने जा रहा है। क्योंकि डिजिटल मीडिया की भाषा पूरी दुनिया में एक हो गई है। हमारी भी भाषा इस बाढ़ में डूब रही है। आज भाषा गई, कल हमारी पहचान भी चली जाएगी। क्योंकि हमें विश्व नागरिक बनने का सपना दिखाया जा रहा है। जिसके बाद हमारे लोकतांत्रिक अधिकार भी छिन जाएँगे और हम उन मछुआरों की तरह बेघर और बेदर होकर एक रोबोट की तरह ज़िंदगी जीने को मजबूर होंगे। क्या हमें ऐसी ग़ुलामी की ज़िन्दगी स्वीकार्य है? अगर नहीं तो हमें अपनी-अपनी भाषाओं को बचाने के लिए जागरूक होना होगा।      

Tuesday, November 14, 2023

‘ट्वेल्थ फेल’ से युवाओं को सबक़


बात 1984 की है, मैं इंग्लैंड के ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालयों में व्याख्यान दे कर यूरोप में घूम रहा था। तब मेरी उम्र 28 बरस थी। बर्लिन यूनिवर्सिटी के परिसर में कुछ युवा छात्र छात्राओं से बातचीत के दौरान मैंने उनके भविष्य की योजनाओं के विषय में पूछा। सबने अलग-अलग क्षेत्रों में अपनी रुचि बताई। एक जर्मन लड़की कुछ नहीं बोली। तो मैंने उससे भी वही प्रश्न किया। इससे पहले कि वो कुछ कह पाती उसके बाक़ी साथियों ने उसका मज़ाक़ उड़ाते हुए कहा, शी इज़ फिट टू बी ए सिविल सर्वेंट। अर्थात् ये सरकारी अफ़सर बनने के लायक़ है। तब भारतीय युवाओं और पश्चिमी युवाओं की सोच में कितना भारी अंतर था। जहां एक तरफ़ भारत के, विशेषकर आर्थिक रूप से पिछड़े राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा आदि के युवा सरकारी नौकरी के लिए बेताब रहते थे और आज भी रहते हैं। वहीं पश्चिमी समाज में सरकारी नौकरी में वही जाते हैं जिनकी बौद्धिक क्षमता कम होती है। 



भारत के जिन राज्यों में रोज़गार के वैकल्पिक अवसर उपलब्ध थे, वहाँ के युवाओं की सोच भी कुछ-कुछ पश्चिमी युवाओं जैसी थी। मसलन गुजरात के युवा व्यापार में, महाराष्ट्र के युवा वित्तीय संस्थाओं में, दक्षिण भारत के युवा प्रोफेशनल कोर्स में, हरियाणा और पंजाब के युवा कृषि आदि में आगे बढ़ते थे। पिछले कुछ वर्षों से भारत में बेरोज़गारी तेज़ी से बढ़ी है। जबकि दूसरी तरफ़ कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की भरमार हो गई है। नतीजतन तमाम डिग्रियाँ बटोरे करोड़ों नौजवान नौकरी की तलाश में दर-दर भटक रहे हैं। सरकारी संस्थाएँ नौकरी के लुभावने विज्ञापन देकर इन करोड़ों नौजवानों से मोटी रक़म परीक्षा शुल्क के नाम पर वसूल लेती हैं। फिर परीक्षाओं में घोटाले और पेपर लीक होने जैसे कांड बार-बार होते रहते हैं। जिससे इन युवाओं की ज़िंदगी के स्वर्णिम वर्ष और इनके निर्धन माता-पिता की गाढ़ी कमाई भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है। कोई बिरले होते हैं जो इस अंतहीन अंधेरी गुफा में अपने लिए प्रकाश की किरण खोज लेते हैं। उनका संघर्ष प्रेरणास्पद तो होता है पर वह एक औसत युवा के लिए दूर की कौड़ी होती है। ठीक वैसे ही जैसे किसी ज़माने में लाखों युवा देश भर से भाग कर हीरो बनने मुंबई जाते थे पर दो-चार की ही क़िस्मत चमकती थी। मनोरंजन के साथ गहरा संदेश देने में माहिर विधु विनोद चोपड़ा की नई फ़िल्म ‘ट्वेल्थ फेल’ एक ऐसे ही नौजवान की ज़िंदगी पर आधारित है जिसने चंबल के बीहड़ में निर्धन परिवार में जन्म लेकर, तमाम बाधाओं को झेलते हुए, केवल अपनी प्रबल इच्छा शक्ति से आईपीएस बन कर दिखाया। इस फ़िल्म का ये मुख्य पात्र मनोज कुमार शर्मा आजकल मुंबई बड़ा पुलिस अधिकारी है। 



इस फ़िल्म में ऐसे संघर्षशील लाखों नौजवानों की ज़िंदगी का सजीव प्रदर्शन किया गया है। जिसे देख कर हम जैसे मध्यम वर्गीय लोग अंदर तक हिल जाते हैं। मध्यम वर्ग के बच्चे तमाम सुख-सुविधाओं के बावजूद चाह कर भी जो हासिल नहीं कर पाते उसे कुछ मज़दूरों के बच्चे अपनी कड़ी मेहनत और लगन से हासिल करके पूरे समाज को आश्चर्यचकित कर देते हैं। पहले इलाहाबाद विश्वविद्यालय आईएएस या आईपीएस की नौकरी में जाने का प्रवेश द्वार हुआ करता था। पिछले चार दशकों से दिल्ली विश्वविद्यालय व जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय इसके प्रवेश द्वार बन गये हैं। उत्तरी दिल्ली का मुखर्जी नगर इसका बड़ा केंद्र है। पिछले साढ़े चार दशकों से मैं दिल्ली में रहते हुए कभी मुखर्जी नगर नहीं गया था। केवल सुना था कि वो कोचिंग संस्थानों का मछली बाज़ार है। विधु विनोद चोपड़ा ने अपनी पैनी नज़र से मुखर्जी नगर की जो हक़ीक़त पेश की है वह न सिर्फ़ युवाओं के लिए बल्कि उनके माता पिता के लिए भी आँखें खोल देने वाली है। हो सकता है कि चोपड़ा का उद्देश्य फ़िल्म की कैच लाइन री-स्टार्ट से युवाओं को प्रेरित करना हो। पर मेरी नज़र में उन्होंने इससे भी बड़ा काम किया है। देश के दूर-दराज इलाक़ों में रहने वाले मेहनतकश परिवारों को प्रतियोगी परीक्षाओं की नंगी हक़ीक़त दिखा दी है। वे सचेत हो जाएँ और अपने नौ-निहालों के कोरे आश्वासनों से प्रभावित हो कर अपना घर लुटा न बैठें। 


इस संदर्भ में मैं अपने दो व्यक्तिगत अनुभव पाठकों के हित में साझा करना चाहूँगा। मेरे वृंदावन आवास पर चित्रकूट के जनजातीय इलाक़े का एक कर्मचारी मेरी माँ से एक लाख रुपया क़र्ज़ माँग रहा था। उद्देश्य था अपने भतीजे को आईआईटी की कोचिंग के लिए कोटा (राजस्थान) भेजना। सामाजिक सेवा में  सदा से रुचि रखने वाली मेरी माँ उसे ये रक़म देने को तैयार थीं। पर इससे पहले उन्होंने उस लड़के का इंटरव्यू लेना चाहा। जिससे यह पता चला कि उसका मानसिक स्तर साधारण पढ़ाई के योग्य भी नहीं था। माँ ने समझाया कि इसे कोटा भेज कर पैसा बरबाद मत करो। इसे कोई हुनर सिखवा दो। इस पर वो कर्मचारी बहुत नाराज़ हो गया और बोला, आप बड़े लोग नहीं चाहते कि हमारे बच्चे आईआईटी में पढ़ें। इसके बाद उसने कहीं और से क़र्ज़ लेकर उस लड़के को कोटा भेज दिया। दो साल बाद दो लाख रुपये बर्बाद करके वो लड़का बैरंग लौट आया। आजकल वो वृंदावन में बिजली मरम्मत का काम करता है। 


दूसरा अनुभव बिहार के चार लड़कों के साथ हुआ। इनमें से तीन हमारे संस्थान में दो दशकों से कर्मचारी  हैं। तीनों बड़े मेहनती हैं। चौथा भाई आईपीएस बनने बिहार से रायपुर (छत्तीसगढ़) चला गया। चार बरस तक तीनों भाई दिन-रात मेहनत करके उसकी हर माँग पूरी करते रहे। अपने बच्चों का पेट काट कर उस पर लाखों रुपया खर्च किया। वो लगातार इन्हें झूठे आश्वासन देता रहा। एक बार इन भाइयों ने मुझ से पैसा माँगा। ये कह कर कि हमारा भाई आईपीएस में चुन लिया गया है और अब ट्रेनिंग के लिए लंदन जायेगा। मैंने सुनकर माथा पीट लिया। उनसे उस भाई का फ़ोन नंबर माँगा और उससे तीखे सवाल पूछे तो वो घबरा गया और उसने स्वीकारा कि पिछले चार बरसों से वो अपने तीनों भाइयों को मूर्ख बना रहा था। 


मैं विधु विनोद चोपड़ा की इस फ़िल्म को इसीलिए ज़्यादा उपयोगी मानता हूँ कि जहां एक तरफ़ ये मनोज शर्मा की ज़िंदगी से प्रेरणा लेने का संदेश देती है, वहीं प्रतियोगी परीक्षाओं की इस भयावयता को बिना लाग-लपेट के ज्यों-का-त्यों सामने रख देती है। जिससे युवा और उनके माता-पिता दोनों सचेत हो जाएँ। इसलिए इस फ़िल्म को हर शहर और गाँव के हर स्कूल में दिखाया जाना चाहिए। चाहे ये काम सरकार करे या स्वयंसेवी संस्थाएँ। ‘ट्वेल्थ फेल’ फ़िल्म की पूरी टीम को इस उपलब्धि के लिए बधाई।    

Monday, October 30, 2023

कमरतोड़ महंगाई से आम जनता त्रस्त


कमरतोड़ मंहगाई से आज हर आम देशवासी व विशेषकर सेवा निवृत्त लोग त्रस्त हैं। लोगों का कहना है कि पहले कहते थे ‘दाल रोटी खाओ- प्रभु के गुण गाओ’। अब तो दाल भी 200
किलो बिक रही है। सरकार अपनी मजबूरी का रोना रोती है। पर पहले से बदहाली में रहने वाले हिंदुस्तानी का क्या होगा, किसे फिक्र है? कहने को चालू वित्त वर्ष 2023-24 की अप्रैल-जून की पहली तिमाही में 7.8 प्रतिशत रही है पर इसका असर देश के किसान मजदूरों पर नहीं पड़ रहा। बढ़ती हुई महंगाई में ग़रीबी रेखा से नीचे रहने वाला क्या खाएगा, क्या पहनेगा, कैसे घर में रहेगा, इलाज कैसे कराएगा और बच्चों को कैसे पढ़ाएगा? इसकी चिंता गरीबी की परिभाषा देने वालों को नहीं।



आज दुनिया भर में पेट्रोलियम पदार्थों व खाद्यान्न का संकट खड़ा हो गया है। इसलिए मंहगाई भी बढ़ रही है। पर कोई यह जानने की कोशिश नहीं कर रहा कि यह हालात पैदा कैसे हुए ? सारी दुनिया को तरक्की और ऐशोआराम का सपना दिखाने वाले अमरीका जैसे देशों के पास कोई हल क्यों नही है। अभी तो भारत के एक छोटे से मध्यमवर्ग ने अमरीकी विकास मॉडल का दीवाना बन कर अपनी जिंदगी में तड़क भड़क बढ़ानी शुरू की है।  जिस तरह के विज्ञापन टीवी पर दिखाकर मुठ्ठी में दुनिया कैद करने के सपने दिखाये जाते हैं अगर वाकई हर हिंदुस्तानी ऐसी जिंदगी का सपना देखने लगे और उसे पाने के लिए हाथ पैर मारने लगे तो क्या दुनिया के अमीर देश एक सौ दस करोड़ भारतीयों की आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाएंगे ? क्या दे पाएंगे उन सबको जरूरत का खाद्यान्न और पेट्रोल ? आज दुनिया में गरीबी समस्या नहीं है। समस्या है दौलत का चंद लोगों के हाथ में इकठ्ठा होना। धनी देश और धनी लोग साधनों की जितनी बर्बादी करते हैं उतनी में बाकी दुनिया सुखी हो सकती है। उदाहरण के तौर पर इंग्लैंड के लोग हर वर्ष 410 अरब रु. की कीमत का खाद्यान्न कूड़े में फेंक देते है।



पश्चिमी विकास का मॉडल और जीवन स्तर हमारे देश के लिए बिल्कुल सार्थक नहीं है। पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में हमारी सरकारें जनविरोधी नीतियां अपना कर अपने प्राकृतिक साधनों का दुरुपयोग कर रही है और उन्हें बर्बाद कर रही हैं। दुनिया का इतिहास बताता है कि जब जब मानव प्रकृति से दूर हुआ और जब जब हुक्मरान रक्षक नहीं भक्षक बने तब तब आम आदमी बदहाल हुआ। कुछ वर्ष पहले एक टेलीविजन चैनल पर एक वृत्तचित्र देखा था जिसमें दिखाया था कि विश्व बैंक से मदद लेने के बाद अफ्रीका के देशों में कैसे अकाल पड़े और कैसे भुखमरी फैली। क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय मदद को तो बेईमान नेता, अफसर और दलाल खा गये। जनता के हिस्से आई मंहगाई, मोटे टैक्स, खाद्यान्न का संकट और भुखमरी। इस फिल्म में रोचक बात यह थी कि उस देश के आम लोगों ने मिट्टी, पानी, सूरज की रोशनी और हवा की मदद से अपने जीने के साधन फिर से जुटाना शुरू कर दिया था।


भारत की वैदिक संस्कृति प्रकृति की पुजारी थी। प्रकृति के साथ संबंध बनाकर जीना सिखाती थी। कृषि गौ आधारित थी और मानव कृषि आधारित और दोनों प्रकृति के चक्र को तोड़े बिना शांतिपूर्ण सहअस्तिव का जीवन जीते थे। दूसरी खास बात ये थी कि जब जब हमारे राजा और हुक्मरान शोषक, दुराचारी और लुटेरे हुए तब तब जनता को नानक, कबीर, रैदास, मीरा, तुकाराम, नामदेव जैसे संतों ने राहत दी।  आज सरकार राहत दे नहीं पा रही है। लोकतंत्र होते हुए भी आम आदमी सरकार की नीतियों को प्रभावित नहीं कर  पा रहा है। उसके देखते देखते उसका प्राकृतिक खजाना लुटता जा रहा है और वो असहाय है। तकलीफ की बात तो यह है कि आज उसके जख्मों पर मरहम लगाने वाले संत भी मौजूद नहीं। टीवी चैनलों पर पैसा देकर अपने को परमपूज्य कहलवाने वाले चैनल बाबाओं की धूम मची है। अरबों रूपया कमाकर अपने को वैदिक संस्कृति का रक्षक बताने वाले ये आत्मघोषित संत पांच सितारा आश्रम बनाने और राजसी जीवन जीने में जुटे है। इनकी जीवन शैली में कहीं भी न तो प्रकृति से तालमेल है और ना ही वैदिक संस्कृति का कोई दूसरा लक्षण ही। इनके जीवन में और अमरीका के रईसी जीवन शैली में क्या अंतर है ?


वैदिक ऋषि गाय, जमीन, जंगल और पानी के साथ आनंद का जीवन जीते थे। श्रम करते थे। पर आज अपने को संत बताने वाले अपने परिवेश का विनाश करके भोगपूर्ण जीवन जीते हैं और लाखों लोगों को माया मोह त्यागने और वैदिक मान्यताओं पर आधारित जीवन जीने का उपदेश देते हैं। इनकी वाणी में न तो तेज है और न ही असर। इसलिए आम जनता के संकट आने वाले दिनों में घटने वाले नहीं है। न तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों की पकड़ कमजोर होगी न ही हमारे हुक्मरान अपनी गलतियों को दोहराना बंद करेंगे। इसलिए मंहगाई हो या खाद्यान्न का संकट हमें नए सिरे से अपनी जीवन शैली के विषय में सोचना होगा। सौभाग्य से आज देश में ऐसे अनेकों लोग है जो इन तथाकथित संतों की तरह खुद को परमपूज्य नहीं कहते पर बड़ी निष्ठा, त्याग और अनुभव के आधार पर आम लोगों को वैकल्पिक जीवन जीने के सफल मॉडल दे रहे है। इनकी बात मानकर लाखों लोग सुख का जीवन जी रहे है। इन लोगों को मंहगाई बढ़ने से असर नहीं पड़ता क्योंकि इन्हें इस बाजार से कुछ भी खरीदना नहीं होता। ये अपनी जरूरत की हर वस्तु खुद ही पैदा कर रहे हैं। 


ऐसा ही एक नाम है सुभाष पालेकर का। महाराष्ट्र के अमरावती जिले में सुभाष पालेकर ने आम आदमी की जिंदगी बदल दी है। उन्हें वर्ष 2016 के भारत के चौथे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। आज भी उनके अनुभव सुनने और उनसे ज्ञान लेने लाखों किसान जुटते हैं और उन्हें दो तीन दिन तक लगातार सुनते हैं। ऐसे सैकड़ों लोग देश में और भी है जिन्होंने वैदिक जीवन पद्धति को समझने और उसे समसामायिक बनाने में जीवन गुजार दिया। महंगाई, आम आदमी और असहाय हुक्मरान लाचार भले ही हों और उनके पास आम आदमी के दुख दर्द दूर करने का समाधान भी न हो पर देश में सुभाष पालेकर जैसे लोग आज भी है जो हल दे सकते हैं। बशर्तें हम उनकी बात सुनने और समझने को तैयार हों।  

Monday, October 23, 2023

मोदी जी की राह आसान करेगा ‘इंडिया’ गठबंधन


जबसे पटना, बेंगलुरु और मुंबई में प्रमुख विपक्षी दलों की महत्वपूर्ण बैठकें हुईं और ‘इंडिया’ गठबंधन की घोषणा हुई तब से विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं और समर्थकों में एक उत्साह की लहर दौड़ गई थी। क्योंकि पिछले नौ वर्षों से राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा विपक्षी दलों पर हावी रही है। पर पिछले दिनों ‘इंडिया’ गठबंधन में शामिल कुछ दलों के प्रवक्ताओं ने एक दूसरे दल पर ऐसी तीखी टिप्पणियाँ की हैं जिससे गठबंधन में दरार पड़ सकती है। आगामी विधान सभा चुनावों में मध्य प्रदेश की कुछ सीटों को लेकर कांग्रेस और समाजवादी दल की जो बयानबाज़ी हुई है वो भी ‘इंडिया’ गठबंधन के भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है। हालाँकि मध्य प्रदेश में कमल नाथ ने जो कड़ी मेहनत की है उससे हवा कांग्रेस के पक्ष में बह रही है। शायद इसी आत्मविश्वास के कारण कांग्रेस को समाजवादी पार्टी की कोई अहमियत नज़र नहीं आई। पर अगर यही रवैया रहा तो लोक सभा के चुनाव में ‘इंडिया’ गठबंधन कैसे मज़बूती से लड़ पाएगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि विपक्षी दल तीसरी बार भी मोदी जी के प्रधान मंत्री बनने की राह आसान कर देंगे?
 



पिछले नौ वर्षों में विपक्ष ने तमाम हमले सत्तारूढ़ दल पर किए। पर फिर भी कामयाबी नहीं मिली। ज़्यादातर हमले मोदी जी की सार्वजनिक घोषणाओं, उनकी नीतियों और कार्यप्रणाली पर हुए। जैसे मोदी जी की 2014 की घोषणाओं को याद दिलाना कि 2 करोड़ नौकरी हर साल मिलने का और 2022 तक सबको पक्के घर मिलने का वायदा क्या हुआ? 15 लाख सबके खातों में कब आएँगे? 100 स्मार्ट सिटी क्यों नहीं बन पाए? माँ गंगा मैली की मैली क्यों रह गई? विदेशों से काला धन वापस क्यों नहीं आया? इसके अलावा मोदी जी के अडानी समूह से संबंधों को लेकर भी संसद में और बाहर बार-बार सवाल पूछे गये। 


आम आदमी पार्टी ने मोदी जी की डिग्रियों को लेकर सवाल खड़े किए। आरबीआई की जानकारी के अनुसार पिछले नौ वर्षों में बैंकों का 25 लाख करोड़ रुपये बट्टे खाते में चला गया। आम जनता के खून पसीने की कमाई की ऐसी बर्बादी और लाखों करोड़ के ऋण लेकर विदेश भागने वाले नीरव मोदी जैसे लोगों के बारे में भी सवाल पूछे गये। मोदी सरकार पर सीबीआई, ईडी व आयकर एजेंसियों के बार-बार दुरूपयोग के आरोप लगातार लगते रहे। इन एजेंसियों की विपक्षी नेताओं के ख़िलाफ़ इकतरफ़ा कारवाई और चुनावों के पहले उन पर छापे और गिरफ़्तारियों को लेकर भी पूरा विपक्ष उत्तेजित रहा। किसान आंदोलन की उपेक्षा और सैंकड़ों किसानों की शहादत व गृह राज्य मंत्री के बेटे का लखीमपुर में आंदोलनकारी किसानों पर क़ातिलाना हमला भी मोदी सरकार पर हमले का सबब बना। ओलंपिक पदक विजेता महिला खिलाड़ियों के यौन शोषण के आरोपों पर मोदी सरकार की चुप्पी और बाद में उन्हें पुलिस के ज़ोर पर धरने से हटाने को लेकर भी सरकार की बार-बार खिंचाई की गई। मणिपुर में भारी हिंसा के बावजूद प्रधान मंत्री का महीनों तक वहाँ न जाना भी बड़े विवाद का कारण बना हुआ है। ऐसे तमाम गंभीर सवालों पर प्रधान मंत्री का लगातार चुप रह जाना और एक बार भी संवाददाता सम्मेलन न करना, लोकतंत्र के करोड़ों मतदाताओं को आजतक समझ में नहीं आया।



उधर हर चुनाव में प्रधान मंत्री का आक्रामक प्रचार और विपक्षियों को भ्रष्ट बता कर हमला करना। जबकि दूसरी तरफ़ प्रधान मंत्री द्वारा ही बार-बार भ्रष्ट बताए गये विपक्षी नेताओं को भाजपा में शामिल करवा कर उनके साथ सत्ता में भागीदारी करना भी एक बड़े विवाद का कारण रहा है। इस सबसे देश में ऐसा माहौल बना कि विपक्ष इसे अघोषित आपातकाल कहने लगा। किंतु स्थानीय राजनीति पर अपनी पकड़ छोड़ने को कोई क्षेत्रीय दल तैयार न था। इसलिए विपक्ष के दल जहाँ एक तरफ़ भाजपा पर निशाना साधते रहे हैं वहीं दूसरी तरफ़ आपस में भी एक दूसरे पर छींटाकशी करने से बाज नहीं आए। यहीं कारण है कि दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के समर्थन का दावा करने वाले विपक्ष के नेता अपने-अपने क्षेत्रों में तो कामयाब हुए पर राष्ट्रीय स्तर पर मोदी सरकार को चुनौती नहीं दे पाए। आज भी जनाधार वाले ये तमाम विपक्षी दल एकजुट होकर चुनाव नहीं लड़ पा रहे हैं। इसलिए केंद्र में सत्ता पाने का उनका सपना पूरा नहीं हो पा रहा। 



विपक्ष को इस अंधकार से निकालने की पहल कुछ तो प्रांतीय नेताओं ने की जिनके प्रयास से केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, हिमाचल, बिहार, राजस्थान, झारखंड, पंजाब, छत्तीसगढ़, झारखंड, दिल्ली, महाराष्ट्र, जैसे राज्यों में विपक्ष की सरकारें बनीं। दूसरा काम ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के माध्यम से राहुल गांधी ने किया। जिन राहुल गांधी को भाजपा और संघ परिवार ने ‘पप्पू’ सिद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी उन्हीं राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में हर आम आदमी को गले लगा कर अपनी छवि में चार चाँद लगा दिये। बिना मीडिया से डरे, हर दिन सैंकड़ों संवाददाताओं के तीखे सवालों के सहजता से उत्तर दिये। संसद में मोदी सरकार पर इतना कड़ा हमला बोला कि उनकी संसद सदस्यता ही ख़तरे में पड़ गई। पर राहुल गांधी के इस नए तेवर ने और कर्नाटक विधान सभा में कांग्रेस की जीत ने राहुल गांधी को एक आत्मविश्वास दिया कि वे बाँहें फैला कर हर विपक्षी दल को ‘इंडिया’ गठबंधन में जोड़ सके। इसी से भारतीय लोकतंत्र में एक नयी ऊर्जा का संचार हुआ। 


पर जिस ज़ोर-शोर से ‘इंडिया’ गठबंधन की घोषणा हुई थी वो गर्मी अब धीरे-धीरे शांत होती जा रही है, ऐसा प्रतीत होता है। पिछले दिनों ‘इंडिया’ गठबंधन के सहयोगी दल तृण मूल कांग्रेस पर कांग्रेस के नेता अधिरंजन चौधरी ने जो हमला बोला उससे इस गठबंधन में दरार पड़ने का संदेश गया। उधर मध्य प्रदेश विधान सभा चुनाव के लिए कांग्रेस के द्वारा वायदा करने बावजूद सपा को 5-7 टिकटें नहीं दी गईं। जिसपर सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने सार्वजनिक रूप से अपनी नाराज़गी व्यक्त की। हर योद्धा जानता है कि युद्ध जीतने के लिए स्पष्ट लक्ष्य, सुविचारित रणनीति, टीम में एकता और अनुशासन, सामने वाले की व स्वयं की क्षमता का सही आँकलन और सही मौक़े पर सही निर्णय लेने की राजनैतिक समझ की ज़रूरत होती है। अगर ‘इंडिया’ गठबंधन को वास्तव में अपना लक्ष्य हासिल करना है तो उसे सहयोगी दलों के पारस्परिक संबंधों पर विशेष ध्यान देना होगा अन्यथा ‘टीम इंडिया’ बनने से पहले ही बिखर जाएगी।   

Monday, October 9, 2023

भारत पाकिस्तान बटवारे के बुजुर्गों को वीज़ा दें


आज़ादी मिले 75 साल हो गये। उस वक्त के चश्मदीद गवाह बच्चे या जवान आज 80 साल से लेकर  100 की उम्र के होंगे, जो इधर भी हैं और उधर भी। बँटवारे की सबसे ज़्यादा मार पंजाब ने सही। ये बुजुर्ग आज तक उस खूनी दौर को याद करके सिहर जाते हैं। भारत के हिस्से में आए पंजाब से मुसलमानों का पलायन पाकिस्तान की तरफ़ हुआ और पाकिस्तान में रह रहे सिक्खों और हिंदुओं का पलायन भारत की तरफ़ हुआ। ऐसा कोई परिवार नहीं है जिसने अपने घर के दर्जनों बच्चे, बूढ़े और औरतों को अपनी आँखों के सामने क़त्ल होते न देखा हो। इस क़त्लेआम में जो बच गए, वो आज तक अपने सगे-संबंधियों को याद करके फूट-फूट कर रोते हैं। दोनों मुल्कों में मिला कर ऐसे लोगों की संख्या कुछ हज़ारों में है। 


जबसे करतारपुर साहिब कॉरिडोर खुला है तबसे अब तक सैंकड़ों ऐसे परिवार हैं जो 70 साल बाद अपने बिछड़े परिवार जनों से मिल पाये हैं। पर ये मुलाक़ात कुछ घंटों की ही होती है और इसके पीछे उन नौजवानों की मशक़्क़त है जो दोनों ओर के पंजाब में ऐसे बुजुर्गों के इंटरव्यू यूट्यूब पर डाल कर उन्हें मिलाने का काम कर रहे हैं। प्रायः ऐसे सारे इंटरव्यू ठेठ पंजाबी में होते हैं। फिर भी अगर आप ध्यान से सुने तो उनकी भाषा में ही नहीं उनकी आँखों और चेहरे का दर्द देख कर आपके आंसू थमेंगे नहीं। करतारपुर साहिब में जब इन परिवारों की 3-4 पीढ़ियाँ मिलती हैं तो उनका मिलन इतना हृदयविदारक होता है कि आसमान भी रो दे। एक ही परिवार के आधे सदस्य इधर के सिक्ख बने और उधर के मुसलमान बने।   



इन सब बुजुर्गों और इनके परिवारों की एक ही तमन्ना होती है कि दोनों देशों की सरकारें, कम से कम इन बुजुर्गों को लंबी अवधि के वीज़ा दे दें, जिससे ये एक दूसरे के मुल्क में जा कर अपने बिछड़े परिवारों के साथ ज़िंदगी के आख़िरी दौर में कुछ लम्हे बिता सकें। जिसकी तड़प ये सात दशकों से अपने सीने में दबाए बैठे हैं। हम सब जानते हैं कि नौकरशाही और राजनेता इतनी आसानी से पिघलने वाले नहीं। पर सोचने वाली बात यह है कि 80 वर्ष से ऊपर की उम्र वाला कोई बूढ़ा पुरुष या महिला, क्या किसी भी देश की सुरक्षा के लिए ख़तरा हो सकता है? जिसने ज़िंदगी भर बटवारे का दर्द सहा हो और हज़ारों, लाखों बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतरते देखा हो, वो उम्र के इस पड़ाव पर आतंकवादी क़तई नहीं हो सकता। इसलिए दोनों देशों की सरकारों को अपने-अपने देश के अख़बारों में विज्ञापन निकाल कर ऐसे सब बुजुर्गों से आवेदन माँगने चाहिए और उन्हें अविलंब प्रोसेस करके एक-दूसरे के मुल्क में जाने का कम से कम एक महीने का वीज़ा मुहैया करवाना चाहिए। 


आज के माहौल में जब सांप्रदायिकता की आग में दुनिया के कई देश झुलस रहे हैं, तब भारत और पाकिस्तान सरकार का ये मानवीय कदम एक अंतर्राष्ट्रीय मिसाल बन सकता है। इससे समाज में एक नयी चेतना का विस्तार हो सकता है। क्योंकि आज का मीडिया और राजनेता चाहें सरहद के इस पार हों या उस पार सांप्रदायिक आग को भड़काने का काम कर रहे हैं। ऐसे में जब दोनों मुल्कों की नई पीढ़ी जब इन बुजुर्गों से विभाजन के पूर्व के माहौल की कहानियाँ सुनेगी तो उसकी आँखें खुलेंगी। क्योंकि उस दौर में हिंदू, सिक्ख और मुसलमानों के बीच कोई भी वैमनस्य नहीं था। सब एक दूसरे के ग़म और ख़ुशी में दिल से शामिल होते थे और एक दूसरे की मदद करने को हर वक्त तैयार रहते थे। विभाजन की कहानियाँ दिखाने वाले दोनों मुल्कों के इन यूट्यूब चैनलों पर जब आप इन बुजुर्गों की कहानियाँ सुनेंगे तो आपको आश्चर्य होगा कि इतनी प्यार मौहब्बत से रहने वाले इन लोगों के बीच ऐसी हैवानियत अचानक कैसे पैदा हो गई कि वो एक दूसरे के खून के प्यासे हो गये? ये बुजुर्ग बताते हैं कि इस माहौल को ख़राब करने का काम उस वक्त के फ़िरक़ापरस्त राजनैतिक संगठनों और उनके नेताओं ने किया। जबकि आख़िरी वक्त तक दोनों ओर के हिंदू, मुसलमान और सिक्ख, इस तसल्ली से बैठे थे कि हुकूमत बदल जाएगी पर उनका वतन उनसे नहीं छिनेगा। जो अपने घर, दुकान और खेत खलिहान छोड़ कर भागे भी तो इस विश्वास के साथ कि अफ़रा-तफ़री का ये दौर कुछ हफ़्तों में शांत हो जाएगा और वे अपने घर लौट आएँगे। पर ये हो न सका। 



उन्हें एक नए देश में, नए परिवेश में, नए पड़ोसियों के बीच शरणार्थी बनकर रहना पड़ा। जिनके घर दूध दही की नदियाँ बहती थी, उन्हें मेहनत करके, रेहड़ी लगा कर या ज़मीदारों के खेतों में मज़दूरी करके पेट पालना पड़ा। इन लोगों के ख़ौफ़नाक अनुभव पर दोनों मुल्कों में बहुत फ़िल्में बन चुकी हैं। लेख और उपन्यास लिखे जा चुके हैं और सद्भावना प्रतिनिधि मंडल भी एक दूसरे के देशों में आते-जाते रहे। पर उन्होंने जो झेला वो इतना भयावह था कि उस पीढ़ी के जो लोग अभी भी ज़िंदा बचे हैं वो आज तक उस मंजर को याद कर नींद में घबरा कर जाग जाते हैं और फूट-फूट कर रोने लगते हैं।



कई कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें 85 या 90 साल के बुजुर्ग अपने परिवारजनों के साथ अपने पैतृक गाँव, शहर या घर देखने पाकिस्तान या भारत आते हैं। वहाँ पहुँचते ही इनका फूलों, मालाओं और नगाड़ों से स्वागत होता है। वहाँ कभी-कभी उन्हें हमउम्र साथी मिल जाते हैं। तब बचपन के बिछड़े ये दो यार एक दूसरे से लिपट कर फूट-फूट कर रोते हैं। फिर इन्हें इनके बचपन का स्कूल, पड़ौस व इनका घर दिखाया जाता है। जहां पहुँच कर ये अतीत की यादों में खो जाते हैं। वहाँ रहने वाले परिवार से पूछते हैं कि क्या उनके माता-पिता की कोई निशानी आज भी उनके पास है? इनकी भावनाओं का ज्वार उमड़ पड़ता है जब इन्हें वो चक्की दिखाई जाती है, जिस पर इनकी माँ गेहूं पीसती थीं या इनके पिता के कक्ष में रखी लोहे की वो भारी तिजोरी दिखाई जाती है, जो आज भी काम आ रही है। ये उस घर की ऐसी निशानी और आँगन की मिट्टी उनसे माँग लेते हैं, ताकि अपने देश लौट कर अपने परिवार को दिखा सकें। मौक़ा मिले तो आप भी इन कहानियों को देखिएगा और सोचिएगा कि साम्प्रदायिकता या मज़हबी उन्माद में मारे तो आम लोग जाते हैं पर सत्ता का मज़ा वो उड़ाते हैं जो इस आग को भड़काते ही इसलिए हैं कि उन्हें सत्ता पानी है। धर्म और मज़हब तो उनके इस लक्ष्य तक पहुँचने की सीढ़ी मात्र होती है। हम किसी भी धर्म या मज़हब के मानने वाले क्यों न हों, इन फ़िरक़ापरस्ती ताक़तों से सावधान रहना चाहिए, इसी में हमारी भलाई है। 1947 का बँटवारा यही बताता है। 

Monday, October 2, 2023

आयाराम-गयाराम की बेला

लोकसभा के चुनाव अभी 6 महीना दूर हैं। पर उसकी बौखलाहट अभी से शुरू हो गई है। हर राजनैतिक दल को यह पता है कि गठबंधन की राजनीति से छुटकारा नहीं होने वाला। तीस बरस पहले उजागर हुए हवाला कांड के बाद से गठजोड़ की राजनीति हो रही है। पर पिछले कटु अनुभवों के बाद इस बार लग रहा था कि शायद दो ध्रुवीय राजनीति शक्ल ले लेगी। कुछ महीने पहले तक ऐसा लगता था कि छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों का महत्व खत्म हो चला है। मगर विपक्षी दलों ने जिस तरह भाजपा के ख़िलाफ़ एकजुट होकर लड़ना तय किया है उससे बिलकुल साफ़ है कि गठबंधन की राजनीति अप्रासंगिक नहीं हुई है बल्कि और ज्यादा बड़ी भूमिका निभाने जा रही है।



उधर भाजपा का अपने सहयोगी दलों को रोक कर रखना मुश्किल होता जा रहा है। चंद्रबाबु नायडू के बाद एडीएमके का एनडीए से अलग होना बताता है कि एनडीए ख़ेमे में सब कुछ ठीक नहीं है। अब देखना होगा कि बीजेपी क्या रणनीति तय करती है। जिस तरह भाजपा अपने सांसदों, केंद्रीय मंत्रियों व वरिष्ठ नेताओं को आगामी विधान सभा चुनावों में उतार रही है उसकी चिंता साफ़ नज़र आ रही है। इस बात पर भी गौर करने की ज़रूरत है कि आखिर इसकी ज़रूरत क्यों आन पड़ी? 


भाजपा के विरोधी दल तो बाकायदा यह समझाने में लगे हैं कि अगर मोदी जी के पक्ष में जानता खड़ी है और माहौल इतना ज़बरदस्त है तो भाजपा ऐसे कदम क्यों रही है? क्या वोटर अपने स्थानीय नेताओं से खुश नहीं हैं? क्या स्थानीय नेता स्थानीय मुद्दों को सही से सुलझा नहीं पा रहे? क्या वे अपने शासन काल में जानता की समस्याओं पर ध्यान नहीं दे पाये? 



लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव ऐसी घटना है कि कोई भी पूरे विश्वास के साथ चुनाव में उतर ही नहीं पाता। पिछले कुछ महीनों के विधान सभाओं के चुनावी प्रचार के इतिहास को देखें तो भाजपा ने जिस कदर बड़े से बड़े स्टार नेताओं और प्रचारकों की फ़ौज लगाई थी, राज्यों के चुनावों में उसके मुताबिक़ नतीजे नहीं आए। 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सामने यह सवाल उठाया जा रहा है कि वे पूर्ण बहुमत का आंकड़ा लाएगी कहाँ से? अगर भाजपा के स्थानीय नेताओं को राज्यों के आगामी चुनावों में टिकट भी नहीं मिल रहा है तो क्या वे पूरी श्रद्धा और समर्पण के साथ भाजपा के लिए प्रचार करेंगे  या वो भी राजनैतिक ख़ेमा बदल सकते हैं? 


विपक्षी दलों के गठबंधन के बाद जितने भी सर्वेक्षण हुए हैं और मोदी के पक्षकारों ने जितने भी हिसाब लगाये हैं उसके हिसाब से आगामी लोकसभा चुनावों में अकेले भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलना आसान नहीं है। जो-जो दल भाजपा के समर्थन में 2014 में जुड़े थे उनमें से कई दल अब भाजपा से अलग हो चुके हैं। ऐसे में यदि विपक्षी दल एकजुट हो कर भाजपा और उनके सहयोगी दलों के ख़िलाफ़ एक-एक उम्मीदवार खड़ा करेंगे तो जो ग़ैर भाजपाई वोट बंट जाते थे वो सभी मिल-जुल कर भाजपा के ख़िलाफ़ मुश्किल ज़रूर खड़ी कर सकते हैं। 



ऐसे में भाजपा को गठबंधन के लिए अपनी कोशिशें जारी रखना स्वाभाविक होगा। यह बात अलग है कि पिछले चुनावी प्रचारों से आजतक भाजपा ने ऐसा माहौल बनाये रखा है कि देश में मोदी की लहर अभी भी क़ायम है। पर ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और है। इसलिये ऐसा माहौल बनाये रखना उनकी चुनावी मजबूरी है। 


सामान्य अनुभव यह है कि देश के एक–तिहाई से ज्यादा वोटर बहुत ज्यादा माथापच्ची नहीं करते और माहौल के साथ हो लेते हैं। बस एक यही कारण नज़र आता है कि भाजपा की चुनावी रणनीति में माहौल बनाने का काम धुंधाधाड़ तरीके से चलता आया है। मीडिया ने भी जितना हो सकता था, उस माहौल को हवा दी है। लेकिन इन छोटे-छोटे दलों का एनडीए गठबंधन से अलग होना उस हवा को या उस माहौल को कुछ नुक्सान ज़रूर पहुँचाएगा। कितना ? इसका अंदाज़ा आनेवाले पाँच राज्यों के विधान सभा चुनावों से भी लग जाएगा।  भाजपा को घेरने वाले हमेशा यह सवाल उठाते हैं कि भाजपा अटल बिहारी वाजपयी के अपने स्वर्णिम काल में भी जादूई आंकड़े के आसपास भी नहीं पहुंची थी। वह तो 20-22 दलों के गठबंधन का नतीजा था कि भाजपा के नेतृत्व में राजग सरकार बना पायी थी। इसी आधार पर गैर भाजपाई दल यह पूछते हैं कि आज की परिस्थिति में दूसरे कौन से दल हैं जो भाजपा के साथ आयेंगे? इसके जवाब में भाजपा का कहना अब तक यह रहा है कि आगे देखिए जब हम तीसरी बार सरकार बनाने के आसपास पहुँच रहे होंगे तो कितने दल खुद-ब-खुद हमारे साथ हो लेंगे। यह बात वैसे तो चुनाव के बाद की स्थितियों के हिसाब से बताई जाती है। लेकिन चुनाव के पहले बनाए गए माहौल का भी एक असर हो सकता है कि छोटे-छोटे दल भाजपा की ओर पहले ही चले आएँ। अब स्थिति यह बनती है कि और भी दलों या नेताओं को चुनाव के पहले ही कोई फैसला लेने का एक मौका मिल गया है। उन्हें यह नहीं लगेगा कि वे अकेले यह क्या कर रहे हैं।


कुल मिलाकर छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों के भाजपा या विपक्षी गठबंधन से ध्रुविकरण की शुरुआत हो चुकी है। एक रासायनिक प्रक्रीया के तौर पर अब ज़रूरत उत्प्रेरकों की पड़ेगी। बगैर उत्प्रेरकों के ऐसी प्रक्रियाएं पूरी हो नहीं पातीं। ये उत्प्रेरक कौन हो सकते हैं? इसका अनुमान अभी नहीं लगाया जा सकता। अभी तो चुनावों की तारीखों का एलान भी नहीं हुआ। उम्मीदवारों की सूची बनाने का पहाड़ जैसा काम कोई भी दल निर्विघ्न पूरा नहीं कर पा रहा है। जब तक स्थानीय या क्षेत्रीय स्तर पर ये समीकरण ना बैठा लिए जाएं तब तक दूसरे दलों से गठबंधन का कोई हिसाब बन ही नहीं पाता। इसीलिए आने वाले समय में भाजपा के पक्ष में गठजोड़ की प्रक्रिया बढ़ाने वाले उत्प्रेरक सामने आयेंगे ऐसी कोई संभावना फ़िलहाल नहीं दिखती।


वैसे भाजपा के अलावा प्रमुख दलों की भी कमोवेश ये ही स्थिति है। विभिन्न विपक्षी दलों ने बीजेपी से भिड़ने को अपना हिसाब भेजने का मन बना लिया है। लेकिन कांग्रेस की ओर से जवाब ना आने से वहां भी गठजोड़ों की प्रक्रिया धीमी पड़ सकती है। खैर अभी तो चुनावी माहौल का ये आगाज़ है। आने वाले हफ़्तों में चुनावी रंग और ज़ोर से जमेगा।