Monday, July 4, 2016

हम शहरी हैं या जंगली

बरसात शुरू ही नहीं कि हर शहर के गली मोहल्लों में पानी जमा होना शुरू हो गया| अभी तो आगास है अगर मौसम विभाग का अनुमान ठीक रहा तो इस साल मूसलाधार वर्ष होगी और देश कि ज्यादातर आबादी गंदे पानी के तालाबों के बीच नारकीय जीवन जीने पर मजबूर होगी | हर साल की यही कहानी है |

इसके तीन कारण हैं, पहला कोलोनाइज़रों द्वारा बिना सही योजनाओं के कॉलोनियां बनाना और प्रशासन का आँख मीच कर उनका सहयोग करना | चाहे सड़क, नाली, सीवर कि कोई व्यवस्था हो या न हो | दूसरा सीवर और नालियों में ठोस कचरे का जमा होना क्योंकि स्थानीय निकाय अपनी ज़िम्मेदारी पूरी नहीं करते | तीसरा हर साल दो साल में सड़कों की ऊँचाई बढाते जाना | जिससे अगल बगल के मकानों का तल हमेशा नीचा होता जाता है और यही पानी भराव का मुख्य कारण बनता है |

इस तीसरे बिंदु पर हम आज ज्यादा चर्चा करेंगे | क्योंकि पहले दो बिन्दुंओं पर तो चर्चा होती ही रहती है और पूरी बरसात हर मीडिया पर होती रहेगी | पर हर दो बरस में सड़क का ऊंचा होना समझ में नहीं आता | केवल इसीलिए कि जितनी मोटी सड़क बिछाई जायेगी उतना ही ज्यादा मुनाफा ठेकेदारों और सरकारी इंजीनियरों का होगा | जबकि अगर पहली बार में ही सड़क की गुणवत्ता ठीक हो तो उसे बार बार बनाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी | जहाँ थोड़े बहुत पैच वर्क से काम चल सकता हो वहां भी नई सड़क बिछा दी जाती है | बिना इस बात का लिहाज़ किये कि सड़क के दोनों ओर मकान बनाने वालों की इतनी हैसियत नहीं होती कि वो हर दो साल में अपने मकान का फर्श ऊँचा करा लें | 

अभी मैं तीन हफ्ते का अमरीका का दौरा कर के लौटा हूँ | वहां मैं 32 वर्षों में कई बार जा चुका हूँ | वहां अलग अलग शहरों में सैंकड़ों मित्र और रिश्तेदार रहते हैं जिनके घर मैं सन 1984 से जा रहा हूँ | इतने लम्बे कालक्रम में एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि किसी शहर की, किसी कालोनी की, कोई सड़क कभी ऊंची हुई हो या कोई मकान का फर्श अचानक सड़क से नीचा हो गया हो | 32 वर्ष की ही बात क्यों करे | 100 साल पहले बने मकानों में भी ऐसी समस्या कभी नहीं हुई | न तो सड़क का स्तर ऊँचा हुआ और न तो मकान का फर्श नीचा हुआ | तो हमारे इंजीनियरों की अक्ल पर क्या पत्थर पड़ गए हैं कि वो इतनी छोटी सी बात नहीं समझते | या समझते हैं पर रिश्वत की हवस में करोड़ों देशवासियों की जिंदगी में हर दो चार वर्षों में मुश्किल खड़ी कर देते हैं | 

इस समस्या का एक समाधान हो सकता है | इस लेख को पढ़ने वाले चाहे भारत के किसी भी प्रांत व नगर में क्यों न रहते हों, अगर इस समस्या से जूझ रहे हों तो संगठित हो कर सम्बंधित विभाग के अधिकारीयों से सवाल जवाब करें | उन्हें ये लेख पढ़वाएं, उनसे ऐसी वाहियात योजना बनाने का करण पूछें और अगर वे संतुष्ट न कर पाएं तो उन पर सामूहिक दबाव डालें कि वे अपनी इस भूल को सुधारें और आपके इलाके की सड़क का स्तर घटा कर उतना ही करें जो कि आपको प्लाट या मकान आवंटित करते समय दिखाया गया था | इस लड़ाई में शुरू में समस्याएं आएँगी | क्योंकि लोग ऐसे हैं कि तकलीफ सहेंगे, सरकार को कोसेंगे पर हक मांगने के लिए संगठित नहीं होंगे | ऐसे में उन्हें समझाना पड़ेगा कि नाहक तकलीफ सहने और हर दो तीन साल में अपने घर के स्तर को उठाने के खर्चे से अगर बचना है तो अपने घर के सामने की सड़क की लगातार बढती ऊँचाई को उसके मूल स्तर तक लाने के लिए संघर्ष तो करना ही पड़ेगा |

दरअसल सरकार को कोसने से ज्यादा हम सब शहरियों को आत्मविश्लेषण करने की जरूरत है | आज नागरिक जीवन में, विशेषकर शहरों में जो ढेर सारी समस्याएं पनप रही हैं उनकी जड़ में छिपी है हमारी कमजोरी, उदासीनता और चरित्र का दोहरापन | हम सब अपनी समस्याओं के लिए प्रशासन को दोष देते हैं | पर क्या कभी सोचते हैं कि इन समस्याओं को पैदा करने या बढ़ाने में हमारी क्या भूमिका है ? अवैध कब्जे करना, मानकों से अधिक निर्माण करना, भवन की हवा पानी की चिंता किये बिना निर्माण करना, कुछ ऐसे काम हैं जिसके लिए सरकारी अफसरों के भ्रष्ट आचरण से ज्यादा हम ज़िम्मेदार हैं | क्योंकि हमारा रवैय्या आत्मकेंद्रित है | सामूहिक जीवन जीने की कला जो हमें पूर्वजों से ग्रामीण जीवन में मिली थी उसे शहरों में आकर हम भूल चुके हैं | कहने को हम शहरी हैं लेकिन व्यवाहर हमारा जंगलियों जैसा है | जिस तरह शहरों की आबादी बढ़ रही है और संसाधनों का टोटा पड़ रहा है, समस्याएं घटेंगी नहीं बढेंगी ही | इसिलिय हमें अपनी सोच और रवैय्या बदलना होगा |

Monday, June 27, 2016

अच्छे मानसून के बावजूद कितने निश्चिंत हैं हम ?

देश में मानसून की स्थिति पर नजर रखने वालों का ध्यान लगता है कि कहीं और लगा है। हर साल मौसम विभाग भी बहुत चैकस दिखता था। लेकिन इस बार मानसून आने के एक महीने पहले जो पूर्वानुमान मौसम विभाग ने बताए थे उसके बाद वह अपनी साप्ताहिक विज्ञप्ति जारी करने के अलावा ज्यादा कुछ बता नहीं पा रहा है। उसकी साप्ताहिक विज्ञप्तियों को देखें तो इस मानसून में अब तक औसत बारिश औसत से दस फीसद कम हुई है। जबकि मानसून के चार महीनों का अनुमान नौ फीसद ज्यादा बारिश होने का लगा था।

मानसून की अबतक की स्थिति का विश्लेषण करें तो दो अंदेशे पैदा हो गए हैं। एक यह कि अगर पूरे मानसून का अनुमान सही होने पर विश्वास करके चलें तो अब बाकी के दिनों में भारी बारिश का अंदेशा है और अगर अब तक के आंकड़ों के हिसाब से मानसून के मिजाज का अंदाजा लगाएं तो इस बार लगातार तीसरे साल  बारिश औसत से  कम होने का डर भी है।

अगर बारिश का अनुमान सही निकला तो आज की स्थिति यह है कि देश में एक साथ ज्यादा पानी गिरने से बाढ़ की आशंका सिर पर आकर खड़ी हो गई है। विशेषज्ञ जल विज्ञानी के के जैन के मुताबिक देश में सूखे पड़ने की आवृत्ति बढ़ रही है। आंकड़े बता रहे हैं कि पहले जहां 16 साल में एक बार सूखा पड़ता था वहां पिछले तीन दशकों से हर सोलह साल में तीन बार सूखा पड़ने लगा है। विशेषज्ञों की इस बात पर गौर करने का समय आ गया है कि बदलते हालात में हमें बारिश के पानी को बाकी के आठ महीनों के लिए रोक कर रखने के फौरन ही अतिरिक्त प्रबंध करने होंगे।

उधर इन विशेषज्ञों का यह अध्ययन भी ध्यान देने लायक हो गया है कि देश में जल संचयन या जल भंडारण की क्षमता बढ़ाने से हम बाढ़ की समस्या पर भी काबू पा लेंगे। अभी जो ज्यादा बारिश होने से अतिरिक्त पानी बाढ़ की तबाही मचाता हुआ वापस समुद्र में जाता है वह देश की 32 करोड़ हैक्टेयर जमीन पर जहां तहां कुंडों और पोखरों में जमा होकर नदियों को उफनने से रोक देगा और यही पानी सिंचाई की जरूरतों के दिनों में भी काम आने लगेगा। इससे बड़ी शर्मिंदगी की बात क्या हो सकती है कि किसी देश में उसी साल बाढ़ आए और उसी साल सूखा भी पड़ने लगे। सन् 2016 का यह साल इस जल कुप्रबंधन का जीता जागता उदाहरण बनने वाला है। हद की बात यह है कि वर्षा के सटीक अनुमान लगाने में सक्षम होने के बाद हमारी यह स्थिति है।

यह साल इस मायने में भी हमारी पोल खोलने जा रहा है कि अगर बाढ़ के हालात बने तो जानमाल का भारी नुकसान होगा। और अगर वर्षा का अनुमान गलत निकला, यानी पानी कम गिरा तो लगातार तीसरे साल सूखे के हालात को भुगतना पड़ेगा। तीसरी स्थिति सामान्य बारिश की बनती है। यह भी सुखद स्थिति का आश्वासन नहीं दे रही है। इसका तर्क यह है कि देश की आबादी हर साल दो करोड़ की रफ्तार से बढ़ रही है। यानी हमें हर साल डेढ़ फीसद ज्यादा पानी का प्रबंध करना ही करना है।

जल विज्ञानी बताते हैं कि अभी हमारी जल संचयन क्षमता सिर्फ 253 घन किलोमीटर पानी को रोककर रखने की है। यह पानी खेती की कुल जमीन में से आधे खेतों तक को सींचने के लिए पर्याप्त नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो खेती लायक देश की आधी से जयादा जमीन पर बारिश के भरोसे ही खेती हो रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण हो या अपने जल कुप्रबंध के कारण हो या फिर बढ़ती आबादी के कारण हो, यह बात सामने दिखने लगी है कि जरूरत के दिनों में पानी कम पड़ने लगा है।

भले ही अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के लिहाज से भारत आज जल विपन्न देशों की श्रेणी में आ गया हो, लेकिन आंकड़े बता रहे है कि अभी भी हमारे पास पांच सौ घन किलोमीटर पानी रोकने की गुंजाइश बाकी है। यानी हम अपनी जल भंडारण क्षमता दुगनी करने लायक अभी भी हैं। बस दिक्कत यही है कि जल परियोजनाओं पर खर्चा बहुत होता है। मोटा अनुमान है कि जल के संकट से उबरने के लिए कम से कम एकमुश्त पांच लाख करोड़ का निवेश चाहिए। इससे कम में अब काम इसलिए नहीं हो सकता, क्योंकि फुटकर-फुटकर जो काम हम इस समय कर रहे हैं वह तो बढ़ती आबादी की न्यूनतम जरूरत पूरी करने के लिए भी नाकाफी है।

इन तथ्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इस बार मौसम विभाग की भविष्यवाणी सही निकलने के बाबजूद हम देश में पर्याप्त अनाज, दालों और दूसरे कृषि उत्पादन को लेकर निश्चिंत नहीं हैं। कृषि प्रधान देश में जहां दो तिहाई आबादी आज भी कृषि क्षेत्र पर निर्भर हो, वहां देश की मुख्य नीति अगर कृषि को केंद्र में रखकर न हो तो आने वाले दिनों में संकट को कौन रोक सकता है ?

Monday, June 20, 2016

कमलनाथ से क्यों डरते हैं केजरीवाल ?

कमलनाथ के पंजाब का प्रभारी बनते ही केजरीवाल इतने बौखला क्यों गए ? 1984 के दंगों को भुनाने की नाकाम कोशिश में होश गवां बैठे। जिन दंगो से कमलनाथ का दूर दूर तक कोई नाता नहीं उसमें उनका नाम घसीट कर केजरीवाल ने सिर्फ अपने मानसिक दिवालियापन और हताशा का परिचय दिया।

हैरत की बात है कि आज कहीं केजरीवाल सरकार के कामकाज की बातें नहीं होतीं। केवल उनके झूंठे वायदों का बखान होता है। होती भी हैं तो वे बातें खुद केजरीवाल को ही करनी पड़ती हैं। हालत यहां तक पंहुच गई है कि केजरीवाल के प्रचार पर दिल्ली सरकार के सैंकडों करोड़ रूपये के खर्च का आंकड़ा आम आदमी को परेशान कर रहा है। काम कुछ नहीं प्रचार इतना ज्यादा। इससे ज्यादा अचंभे की क्या बात क्या हो सकती है कि जिन बातों पर हल्ला बोलकर केजरीवाल ने सत्ता कब्जाने का माहौल बनाया था वे सारी बातें आज उनके कामकाज के तरीकों से गायब हैं। एक लाइन में समीक्षा करें तो व्यापार प्रबंधन की चमत्कारी विधियों से केजरीवाल ने अपना जो ब्रांड बनाया था उसके विस्तार के लिए वे अपनी नई ब्रांच पंजाब में खोलने का प्लान बना रहे हैं।

पर केजरीवाल को अपनी सत्ता के विस्तार के लिए क्या दाव पर लगाना पड़ सकता है? क्योंकि केजरीवाल ने दिल्ली में सत्ता हथियाने के लिए जो हथियार चलाया उसकी अब परीक्षा होगी। दिल्ली में विकास की पर्याय बन चुकीं शीला दीक्षित को उखाड़ना आसान नहीं था। लेकिन सब जानते है कि अन्ना के आंदोलन के जरिए केंद्र की यूपीए को उखाडने के लिए जो आंदोलन चलवाया गया था उसने दरअसल कांग्रेस के खिलाफ ही बिसात बिछाई थी। सत्ता के खेल की बहुत ही मजेदार बात है कि उस समय कांग्रेस विरोधी ताकतों ने आंख बंद करके अन्ना और उनके केजरीवाल जैसे अतिमहत्वकांशी कार्यकर्ताओं की पीठ पर हाथ रख दिया था। यूपीए को येन केन प्राकारेण सत्ता से बेदखल करने के लिए जो खेल चला वो  धीरे धीर बेपर्दा जरूर हो गया हो, लेकिन केजरीवाल इस सबके बीच बड़ी चालाकी से और अपने सभी विश्वसनीय साथियों को दगा देकर, केवल अपनी निजी हैसियत बनाकर, दिल्ली की कुर्सी पर काबिज होने में सफल हो ही गए। सारी दिल्ली ठगी गयी। जो उसे आज समझ आ रहा जब दिल्ली के हालात बाद से बदतर हो गए हैं।

इसलिए दिल्ली से उचक कर पंजाब जाने की जुगत में केजरीवाल को सबसे बड़ी दिक्कत आ रही है कि दिल्ली में अगर कुछ बोलेंगे तो फौरन उनके कामकाज का मूल्यांकन होगा ही। जिसमें वो बगलें झांकेंगे। भ्रष्टाचार के मुददे का नारा लगाकर जो आंदोलन उन्होंने चलाया था, उसे याद दिलाया जाएगा, तो भी वो बेनकाब होंगे।

इसी संभावना के डर से वे दिल्ली के अखबारों में भारी विज्ञापन करवाने में लगे रहे कि पुल और सड़को के काम सस्ते में करवा कर उन्होंने सरकारी खजाने का कितना पैसा बचवा दिया। लेकिन उनकी पोल तब खुली जब दिल्ली में सफाई और बिजली के इंतजाम तक के लिए पैसों का टोटा पड़ गया। विकास के दूसरे कामों के लिए वे योजनाएं तक नहीं बना पाए। उपर से दिल्ली में ऑड-ईवन की नौटंकी के बावजूद बढ़ते प्रदूषण ने केजरीवाल सरकार की पोल खोल दी।

केजरीवाल को लगा होगा कि प्रचार तंत्र से वे सब संभाल लेंगे। लेकिन मोटी फीस लेकर, देश विदेश में केजरीवाल की छवि बनाने के ठेकेदार या मीडिया मेनेजर शायद ये भूल गए कि प्रचार से आपको कुछ दिन तक तो बेचा जा सकता है।पर असल में तो आपके काम को ही परखा जाता है। मतलब ये कि पंजाब में घुसने के पहले केजरीवाल को दिल्ली में अपनी उपलब्ध्यिों की प्रचार सामग्री बनवानी पड़ेगी। लेकिन इसमें अड़चन यह है कि कांग्रेस के खिलाफ सड़कों पर ताबड़तोड़ ढंग से चलाये उनके प्रचार अभियान को जुम्मे जुम्मे दो साल ही हुए हैं। सो इतनी जल्दी उसे भुलाना आसान नहीं होगा। जो तब ढोल पीट-पीट कर कहा था वो कुछ किया नहीं। काठ की हंडिया बार-बार नहीं चढ़ती। दिल्ली में चढ़ चुकी काठ की हंडिया पंजाब में फिर से चढ़ा देने की बात उनके देशी विदेशी विशेषज्ञ कतई नहीं सोच सकते। अगर इस्तीफा न देते तो कमलनाथ पंजाब में केजरीवाल को शीशा दिखा देते। इसलिए कमलनाथ के नाम से केजरीवाल पेट में हुलहुली हो गयी।

इन्ही सब कारणों से केजरीवाल ने पंजाब में नशे का शोर मचाकर चुनाव में नया मुद्दा पेश किया है। पर इसके बारे में बॉलीवुड और वहां की मौजूदा सरकार के बीच जो विवाद खड़ा हो गया है उसमें केजरीवाल के घुसने की गुंजाइश ही नहीं बची। फिल्मी कलाकारों को छोटे मोटे लालच में फंसाना आसान नहीं होता। राजनीति के चक्कर में उनका शौक और धंधा दोनों चैपट हो जाते हैं। इसके तमाम उदाहरण उनके सामने  हैं।

रही बात पंजाब में राजनीतिक समीकरण की। तो यह सबके सामने है कि वहां दो ध्रुवीय राजनीति ही है। कांग्रेस के सो कर उठने की संभावना बनती है तो हाल फिलहाल पंजाब में ही बनती है। ऐसे में केजरीवाल वहां सत्तारूढ़ दलों के खिलाफ माहौल को भुनाने में लगेंगे तो मुश्किल यह ही है कि कांग्रेस के खिलाफ भी प्रचार करना पड़ेगा। ऐसा करते समय केजरीवाल कितने भी हथकंडे क्यों न अपनाये आसानी से बेनकाब हो जायेंगे। इसी का उन्हें आज खौफ है। अंदरखाने से जो खबरें मिल रही है उसके मुताबिक केजरीवाल अगर जीत गए तो एलानिया तरीके से दिल्ली को अपने किसी विश्वसनीय दोस्त को सौंपकर पंजाब जाने का फैसला कर सकते हैं। सवाल उठता है कि उन्हें इतनी जल्दी पैर पसारने की जरूरत क्यों पड़ रही है? दरअसल सिद्धान्त तो केजरीवाल के लिए सत्ता पाने के हथकंडे हैं। इसलिए उन्हें दिल्ली में अपनी पोल पूरी तरह से खुलने से बचना है ताकि  सत्ता की हवस पूरी हो सके। पर कोई भी कारोबार बहुत देर तक एक ही मुकाम पर खड़ा नहीं रह सकता। उतार चढ़ाव आते ही हैं। केजरीवाल का कहीं वो हाल न हो कि छब्बे बनने के चक्कर में चैबे जी दुबे बनकर लौट आए।

Monday, June 13, 2016

कुरान, ग्रंथसाहब व शास्त्रों को मानने वाले शराब क्यों पीते हैं ?

अन्ना हजार ने फौज की वर्दी उतारकर अपने गांव रालेगढ़ सिद्धी को सबसे पहले शराबमुक्त किया। क्योंकि परिवारों में दुख, दारिद्र और कलह का कारण शराब होती है। पर उनके ही स्वनामधन्य शिष्य दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल दिल्ली में महिलाओं के लिए विशेष शराब की दुकानें खोल रहे हैं। जहां केवल महिलाएं शराब खरीदकर पी सकेंगी। जबकि वे खुद पंजाब, राजस्थान, गोवा, बिहार राज्यों में जाकर नीतीश कुमार के साथ और अपनी पार्टी की ओर से शराब के विरोध में जनसभाएं कर रहे हैं। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। हर राजनेता के दो चेहरे होते हैं। केजरीवाल अब राजनेता बन गए हैं, तो उन्हें अधिकार है कि कहें कुछ और करें कुछ।

पर सवाल उठता है कि हमारी मौजूदा केंद्रीय सरकार, जो सनातन धर्म के मूल्यों का सम्मान करती है। उसकी शराबनीति क्या है ? ये तो मानी हुई बात है कि इस तपोभूमि भारत में विकसित हुए सभी धर्म जैसे सनातन धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, सिख धर्म आदि हर किस्म के नशे का विरोध करते हैं। हमने आजादी की एक लंबी लड़ाई लड़ी। क्योंकि हम विदेशी भाषा से, विदेशियों की गुलामी से, शराब से और गौवंश की हत्या से आजादी चाहते थे। आजादी की लड़ाई में भारत के हर बड़े नेता और क्रांतिकारी ने भारत को शराबमुक्त बनाने का सपना देखा और वायदा भी किया। पर आज आजादी के 68 साल बाद भी देश का शराबमुक्त होना तो दूर शराब का मुक्त प्रचलन होता जा रहा है। मंदिर हो या गुरूद्वारा, मस्जिद हो या मठ, स्कूल हो या अस्पताल, सबके इर्द-गिर्द शराब की दुकानें धड़ल्ले से खुलती जा रही हैं। सरकार की आबकारी नीति शराब से कमाई करने की है। जबकि सच्चाई यह है कि शराब इस देश के करोड़ों गरीब लोगों को बदहाली के गड्ढे में धकेल देती है। कितनी महिलाएं और बच्चे शराबी मुखिया से प्रताड़ित होते हैं। गरीब मजदूर शराब पीकर असमय काल के गाल में चले जाते हैं। शराब की मांग को देखते हुए नकली शराब का कारोबार खुलकर चलता है और अक्सर सैकड़ों जानें चली जाती हैं।

देश की आधी आबादी महिलाओं की है, जो शराब नहीं पीती। 25 फीसदी आबादी बच्चों की है, जो शराब नहीं पीते। कुल देश की 25 फीसदी आबादी बची, जिसमें हम और आप जैसे भी बहुत बड़ी तादाद में हैं, जो शराब को छूते तक नहीं। कुल मिलाकर बहुत थोड़ा हिस्सा होगा, जो शराब पीता है। पर उस थोड़े से हिस्से के कारण पूरा समाज बर्बाद हो रहा है। महात्मा गांधी ने कहा था कि, ‘अगर मैं तानाशाह बन जाऊं, तो 24 घंटे के अंदर बिना मुआवजा दिए सारी शराब दुकानें बंद कर दूंगा।’, वही महात्मा गांधी, जिन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर यूपीए की अध्यक्षा सोनिया गांधी तक राष्ट्रपिता कहती हैं। हम अपने राष्ट्रपिता की कैसी संतान हैं कि उनकी भावनाओं की कद्र करना भी नहीं सीखे।

आज पंजाब में सबसे ज्यादा शराब का प्रचलन है। पर सिख धर्म को प्रतिपादित करने वाले मध्ययुगीन संत गुरूनानकदेव जी कहते हैं कि, ‘नाम खुमारी नानका, चढ़ी रहे दिन-रात, ऐसा नशा न कीजिए, जो उतर जाए परभात’। तुम शराब पीते हो, तो सुबह को तुम्हारा नशा उतर जाता है। पर एक बार भगवतनाम का नशा करके तो देखो, जिंदगीभर नहीं उतरेगा। हमारा कौन-सा धर्म ग्रंथ या धर्मगुरू ऐसा है, जो हमें शराब पीने की इजाजत देता है। ये रमजान का पाक महीना है और इस्लाम में शराब हराम है।

इस लेख को कश्मीर को कन्याकुमारी और गुजरात से असम तक अलग-अलग अखबारों में पढ़ने वाले मुसलमान भाई अपने सीने पर हाथ रखकर बताएं कि क्या उनमें से सभी ऐसे हैं, जिन्होंने कभी शराब नहीं पी ? अगर पीते हो, तो अपने को मुसलमान क्यों कहते हो ? शराबी न मुसलमान हो सकता है, न सिख हो सकता है, न हिंदू हो सकता है, न बौद्ध हो सकता है और न ही जैन हो सकता है। शराबी तो केवल एक हैवान हो सकता है। विड़बना देखिए कि हमारी सरकारें इंसान को देवता बनाने की बजाए हैवान बनाती हैं। दिनभर कमा। शाम को दारू पी। अपने घर जाकर औरत को पीट। बच्चों को भूखा मार और फिर बीमार पड़कर इलाज के लिए अपना घर भी गिरवी रख दे। जिससे शराब बनाने वालों की तिजोरियां भर जाएं। इतना ही नहीं, जहां शराब बनती है, वहां शराब के कारखानों से निकलने वाला जहर आसपास की नदियांे और पोखरों को जहरीला कर देता है। पर्यावरण को नष्ट कर देता है। पर हमारा पर्यावरण मंत्रालय इतना उदार है कि वो धृतराष्ट्र की तरह आंखों पर पट्टी बांधकर शराब के कारखानों को बेदर्दी से पर्यावरण का विनाश करने की खुली छूट देता है।

पर्यावरण मंत्रालय ही नहीं, खाद्य मंत्रालय भी इस साजिश का हिस्सा है। जान-बूझकर सरकारी गोदामों में खाद्यान्न को सड़ने दिया जाता है। फिर इस सड़े हुए अनाज को मिट्टी के दाम पर शराब निर्माताओं को बेच दिया जाता है। जो इस सड़े अनाज से शराब बनाते हैं और अरबों रूपया कमाते हैं। 

इस दिशा में एक सार्थक पहल ‘इंसानियत धर्म संगठन’ ने की है, जो देश के सभी धर्म के गुरूओं, संतों, सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित लोगों और विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं को एक मंच पर लाकर ‘शराबमुक्त भारत’ का अभियान चला रहा है। इस अभियान के संयोजक दास गौनिंदर सिंह कहते हैं कि, ‘यह चुनौती तो हमारे दबंग प्रधानमंत्री के सामने है, जो खुद आस्थावान हैं और शराब को हाथ नहीं लगाते और डंके की चोट पर जो चाहते हैं, वो कर देते हैं। उन्होंने गुजरात में शराब पहले ही प्रतिबंधित कर रखी थी, उन्हें अब इस नई जिम्मेदारी के साथ शराब की भयावहता को समझकर इसके अमूल-चूल नाश की कार्ययोजना बनानी चाहिए। ऐसा किया तो देश की तीन चैथाई आबादी मोदीजी के पीछे खड़ी होगी।’

Monday, June 6, 2016

सोच बदलने की जरूरत

नरेन्द्र भाई मोदी के अधीन काम करने वाले अफसर हर वक्त अपने पंजों पर खड़े रहते है। क्योंकि उन्हें हर काम लक्ष्य से पहले और अच्छी गुणवत्ता का चाहिए। देश की सांस्कृतिक धरोहरों के जीर्णोंद्धार, संरक्षण और संवर्धन के लिए मोदी सरकार ने कई योजनाएं शुरू की है। पर अफसरशाही की दकियानूसी के चलते पुराने काम के ढर्रे में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आया है। पहले भी फाइलें ज्यादा दौड़ती थी और जमीन पर काम कम होता था। आज भी वहींे हालत है। इसका एक कारण तो यह है कि केन्द्र सरकार के अनुदान का क्रियान्वयन प्रान्तीय सरकारें करती है। जिन पर केन्द्र सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होता। दूसरा कारण यह है कि अलग-अलग राज्यों में भ्रष्टाचार के स्तर अलग-अलग है। किसी राज्य में 100 में 70 फीसदी खर्च होता है। बाकी कमीशन और प्रशासनिक व्यय में खप जाता है। जबकि ऐसे भी राज्य हैं जहां 70 से 80 फीसदी रूपया केवल कमीशन और प्रशासनिक व्यय में खपता है। बचे 20 फीसदी में से 10 फीसदी ठेकेदार का मुनाफा होता है यानि 100 रूपये में से 16 रूपया ही जमीन तक पहुंचता है।
    1984 में इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी ने यही बात कहीं थी। तब उनके इस वक्तव्य को बहुत हिम्मत का काम माना गया था। क्योंकि आजादी के बाद पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने इस हकीकत को सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया था। दुख की बात यह है कि आज 32 साल बाद भी हालात बदले नहीं है। सवाल है क्या मोदी जी को इसकी जानकारी नहीं है ? क्या उनके पास इसका कोई हल नहीं है ? क्या इस हालत को बदलने की उनमें इच्छाशक्ति नहीं है ? तीनों ही प्रश्नों का उत्तर नकारात्मक है। जानकारी भी होगी, हल भी है और इच्छाशक्ति भी है। केवल रूकावट है तो नौकरशाही के औपनिवेशिक रवैये की। जो वैश्वीकरण के इस दौर में भी यह मानने को तैयार नहीं कि उससे बेहतर सोच और समाधान आम लोगों के पास भी हो सकते है। इसलिए नौकरशाही कोई भी नये विचार को अपनाने को तैयार नहीं है। एक दूसरा कारण केन्द्रीय सतर्कता आयोग की लटकती तलवार भी है। जो हर ऐसे नवीन कदम या पहल पर निहित स्वार्थ का आरोप लगाकर जोखिम उठाने वाले अफसर को तलब कर सकता है। इसलिए कोई अफसर नये प्रयोगों का जोखिम उठाना नहीं चाहता।
    पर मोदी जी के बारे में गुजरात के दिनों में यह शोहरत थी कि वे किसी भी अच्छा काम करने वाले को कहीं से भी ढूंढकर पकड़ लाते है और फिर अपनी नौकरशाही को उस व्यक्ति के अनुसार कार्य करने की हिदायत देते है। नतीजतन काम बढ़िया भी होता है और उसकी गुणवत्ता पर कोई प्रश्न नहीं उठा सकता।
    सरकार के अलावा निजी क्षेत्र में या निजी रूप में अद्भुत कार्य कर चुके लोगों की कमी नहीं है। देश के विकास में अपने बूते पर योगदान देने वालों की संख्या अच्छी खासी है। ये वो लोग हैं जिन्होंने कई दशाब्दियों से सामाजिक स्तर पर विभिन्न-विभिन्न क्षेत्रों में अपने अभिनव प्रयोगों, निस्वार्थ कर्मयोग और समाज के प्रति संवेदनशीलता के साथ बहुत बड़े-बड़े काम किये हैं। पर ऐसे लोगों को नौकरशाही का तंत्र नापसन्द करता है। क्योंकि उसे उनकी सफलता देखकर अपना अस्तित्व खतरे में नजर आता है। इसलिए जरूरी है कि मोदी जी कुछ पहल करें।
    प्रधानमंत्री कार्यालय के पास हर ऐसे व्यक्ति के बारे में सूचना का भण्डार है और अगर उसमें कुछ कमी है तो वे अपने प्रभाव से उस सूचना को कहीं से भी मंगा सकते है। आवश्यकता इस बात की है कि प्रधानमंत्री ऐसे अलग-अलग क्षेत्रों के महारथी, स्वयंसेवकों को अपने पास बुलायें और उनसे उनके अनुभव के आधार पर समाधान पूछें और उन समाधानों को लागू करने में अपनी पूर्णक्षमता का प्रयोग करें। इस नूतन प्रयोग से लक्ष्य भी पूरे होंगे और पारदर्शिता भी आयेगी।
    पुरातात्विक संरक्षण के क्षेत्र में, बिना सरकार की आर्थिक मदद के हमारी संस्था ब्रज फाउण्डेशन ने भी ब्रज क्षेत्र में अभूतपूर्व कार्य किये है। जिनकी जानकारी प्रधानमंत्री जी को हैं। क्योंकि वे हमारे काम में लम्बे समय से रूचि लेते रहे है। इस लेख के माध्यम से मैं उन तक यह बात पहुंचाना चाहता हूं कि बिना लालफीताशाही को काटे भारत को मजबूत राष्ट्र बनाने का उनका सपना पूरा नहीं हो सकता। मोदी सरकार को चाहिए कि ऐसे नामचीन लोग जो कभी किसी लाभ के लालच में सत्ता के गलियारों में चक्कर नहीं लगाते, उनको बुलाकर उनकी बात सुनें और इस समस्या का स्थायी हल ढूढ़े। जिससे जनता के पैसे का दुरूपयोग रूके और समाज के हित में कुछ ठोस काम हो जायें।

Monday, May 30, 2016

हर आदमी चाहता है कि मोदी वो सब कर दें जो अब तक कोई नहीं कर पाया

मोदी सरकार के दो साल पूरे होने पर जहाँ एक तरफ सरकार जश्न मना रही है वहीं विपक्षी सरकार को कटघरे में खड़ा करने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं, पर अभी तक कामयाब नहीं हुए। हम बेबाकी से यहाँ उन बातों की चर्चा करें जिनकी चर्चा आम तौर पर नहीं की जा रही। दिल्ली के हर पाँच सितारा होटल की लाॅबी में पिछले दो साल से सन्नाटा पसरा है। आप सोचेगें कि इसका मोदी सरकार से क्या मतलब। गहरा मतलब है। दो साल पहले ये लाॅबियाँ दिल्ली के तमाम दलालों और देशभर के व्यापारियों, उद्योगपतियों और अच्छी पोस्टिंग की इच्छा लेकर आने वाले अफसरों से भरी रहती थी। इन लाॅबियों में अरबों रुपये के बेनामी लेन-देन हो जाते थे। नरेन्द्र मोदी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ ऐसी लगाम कसी कि दलालों के धन्धे चैपट हो गये। क्योंकि अब कोई यह दावा नहीं कर सकता कि वो इस सरकार में काम करवा सकता है। आपको याद होगा जब एक केन्द्रिय मंत्री ने प्रधान मंत्री के मित्र माने जाने वाले मुकेश अम्बानी के साथ किसी पाँच सितारा होटल में मुलाकात की तो उन्हें ऐसा ना करने की कड़ी हिदायत प्रधान मंत्री से मिली। यह बाकी सब मंत्रियों के लिए संकेत था।

    इस मुहिम का नकारात्मक पक्ष यह है कि अब उद्योग जगत और व्यापार से जुड़े बड़े लोग परेशान हैं कि उनके जा-बेजा काम नहीं हो रहे। उनकी शिकायत है कि इससे आर्थिक विकास की गति धीमी पड़ गयी है। उनका मानना है कि काले धन का सरकुलेशन और मोटी रिश्वत का टाॅनिक पीकर ही अर्थ व्यवस्था तेजी से आगे बढ़ती है। जबकि मोदी सरकार का इरादा प्रशासन को जनोन्मुखी व पारदर्शी बनाने का है। अब देखना ये होगा कि आगामी 3 वर्षों में किसका पलड़ा भारी रहता है। 

    इसी क्रम में यह उल्लेख करना भी जरुरी है कि ऊपर के भारी भ्रष्टाचार को नियन्त्रित करने के बावजूद जमीन तक आज भी रुपये में 15 पैसे पहुँच रहे हैं। जिसके दो कारण हैं- एक तो नौकरशाही के चले आ रहे ढ़ाँचे में किसी भी क्रान्तिकारी परिवर्तन का अभाव। दूसरा गुणवत्ता बढ़ाने के नाम पर अनावश्यक रुप से अनेक अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के कन्सल्टेंट्स की हर मंत्रालय में नियुक्ति। अफसरशाही आज भी अपने अहंकार और अहमकपन से फैसले ले रही है। सच को तथ्यों के साथ सामने रखने पर भी वह सुनने और बदलने को तैयार नहीं है। परिणामतः कितनी भी नई योजनाएँ शुरु क्यों न हो जाये, जम़ीन पर उनका क्रियान्वयन राज्य सरकारों के पुराने रवैये के कारण पहले की तरह ही कागजी ज्यादा हो रहा है। पता नहीं प्रधान मंत्री तक यह बात पहुँच रही है या नहीं। अन्तर्राष्ट्रीय कन्सल्टेंट्स मोटी रकम वसूल रहे हैं और मोटा वेतन पाने वाले आला अफसर उनके जिम्मे काम सौंपकर अपने फर्ज से बच रहे हैं। जबकि इन अन्तर्राष्ट्रीय कन्सल्टेंट्स कि समझ जमीनी हकीकत के बारे में ना के बराबर है। प्रायः इनके सुझाव बेतुके और अव्यवहारिक होते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि इस देश के अनुभवसिद्ध लोगों की सलाह मानी जाए। जिससे कम लागत में ठोस काम हो सके। पर ऐसी नीति ज्यादातर ताकतवर लोगों को रास नहीं आती इसलिए वे ढ़ाँचागत परिवर्तन का हमेशा विरोध करते हैं। क्योंकि इससे उनके अस्तित्व पर संकट आ जाता है। साथ-ही बड़ी लूट करने की गुंजाइश नहीं बचती। नीति आयोग के सी.ई.ओ. अमिताभ कान्त को मैंने इस विषय पर सोचने और काम करने की सलाह दी है। वरना मोदी जी के कई अच्छे प्रयास जमीन तक नहीं पहुँच पाएगें।

    केन्द्र सरकार की अफसरशाही नरेन्द्र मोदी की कार्यशैली से भी बहुत त्रस्त है। वे न तो खुद आराम करते हैं और न अफसरों को गोल्फ खेलने और मौज-मस्ती करने का समय देते हैं। नतीजतन बहुत सारे अफसर अपने गृहराज्य लौटने को बेताब हैं। मोदी जी को चाहिए कि अफसरशाही के सामने लक्ष्य निर्धारित करने, उन्हें समय पर पूरा करने और गुणवत्ता सूनिश्चित करने के लिए व्यक्तिगत रुप से जिम्मेदार ठहरा दें। कोताही करने वालों को कड़ी सजा देने का प्रावधान कर दें। इसके साथ-ही अपने इतिहास के अनुरुप वे समाज में हर अच्छा काम करने वाले व्यक्ति को बुलाकर पूछें की तुम जो करना चाहते हो उसके रास्ते में क्या अड़चन है और उस अड़चन को दूर करने की पहल करें।

    यह सही है कि राज्य सभा में बहुमत के अभाव में राजग सरकार अपने विधेयक पारित नहीं करवा पा रही है, पर जहाँ संभव है वहाँ तो नीतियों और निर्देशों को स्पष्ट करके बहुत बड़ा काम करवाया जा सकता है। जिन नीतियों को आज बदलने की जरूरत है। जिससे हर काम गति से हो सके। जिन विभागों में ऐसा करना सम्भव हो वहाँ तो यह कवायद चालू की जाय। उधर देश के कुछ टी.वी. चैनल, जो रात-दिन राज्य सभा की सीट के लालच में मोदी सरकार का यशगान करने में जुटे हैं, उनसे मोदी जी को कोई लाभ नहीं मिलने वाला। क्योंकि जनता जमीन पर परिवर्तन देखना चाहती है। जरूरत इस बात की है कि इन टी.वी. चैनलों पर विचारोत्तेजक और गंभीर कार्यक्रम हों जिनमें देश के नागरिकों की सोच और प्राथमिकताएं बदलने की क्षमता हो। यह कार्य करने में ये चैनल असफल रहै  हैं ।

    हमने कई बार यहाँ लिखा है कि मौर्य सम्राट अशोक भेष बदल कर जनता के बीच जाता और उसकी राय गोपनीय तरीके से जान जाता। इससे उसे अपना शासन चलाने में बहुत मदद मिली। पर मोदी सरकार के दो साल हो गये ऐसा न्यौता शायद ही किसी ऐसे व्यक्ति के पास आया हो, जो अपनी राय खुल कर दे सके। मोदी जी को इस बारे में अपना तंत्र और सुधारना चाहिए। ‘निन्दक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय। बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करे सुभाय’। आज देश में मोदी की टक्कर का सशक्त नेता दूसरा नहीं है। इसलिए हर आदमी चाहता है कि मोदी वो सब कर दें जो अब तक कोई नहीं कर पाया।

Monday, May 23, 2016

कुंभ मेरी नजर में

भगवत गीता में भगवान अर्जुन को बताते हैं कि उनकी शरण में 4 तरह के लोग आते हैं, आर्त, अर्थारतु, जिज्ञासु व ज्ञानी। यह सिद्धांत हाल ही में संपन्न हुए सिंहस्थ कुंभ में बहुत साफतौर पर उजागर हुआ। एक तरफ उन लाखों लोगों का समूह वहां उमड़ा, जो अपने जीवन में कुछ भौतिक उपलब्धि हासिल करना चाहते हैं। कुंभ में आकर उन्हें लगता है कि उनके पुण्य की मात्रा इतनी बढ़ जाएगी कि उनके कष्ट स्वतः दूर हो जाएंगे।
दूसरी भीड़ उन साधन संपन्न सेठ और व्यापारियों की थी, जो अपने व्यापार की वृद्धि की कामना लेकर कुंभ में विराजे हुए संतों के अखाड़ों में नतमस्तक होते हैं। तीसरी भीड़ उन लोगों की थी, जो वहां इस उद्देष्य से आए थे कि उन्हें संतों का सानिध्य मिले और वे भगवान के विषय में कुछ जानें और अंतिम श्रेणी में वे लोग वहां थे, जिन्हें संसार से कुछ खास लेना-देना नहीं। उनको तो धुन लगी है, केवल भगवत प्राप्ति की। स्पष्ट है कि चारों श्रेणी के लोगों को अपनी मनोकामना पूर्ण होती दिखी होगी, तभी तो वे ऐसे हर कुंभ या उत्सव में कष्ट उठाकर भी शामिल होते हैं।
जो बात इस बात कुंभ में उभरी, वो यह कि कुंभ अपने मूल उद्देश्य से भटक गया है। पहले कुंभ एक मौका होता था, जहां सारे देश के संत-महात्मा और विद्वतजन बैठकर उन प्रश्नों के समाधान खोजते थे, जिनमें प्रांतीयस्तर पर हिंदू समाज उद्वेलित रहता था। कुंभ से जो समाधान मिलता था, वह सारा देश अपना लेता था। अब शायद ऐसा कुछ नहीं होता और अगर होता भी है, तो उसका स्वरूप आध्यात्मिक कम और राजनैतिक ज्यादा होता है। यही बात अखाड़ों पर भी लागू होती है। शुद्ध मन से कुंभ आने वाले संत अपनी साधना में जुटे रहते हैं, उनके अखाड़ों में वैभव की छाया भी नहीं रहती। पर दूसरी तरफ इतने विशाल और वैभवशाली अखाड़े बनते हैं कि 5 सितारा होटल के निर्माता भी शर्मा जाएं। इस प्रकार की आर्थिक असमानता कुंभ के सामाजिक ताने-बाने को असंतुलित कर देती है, जिसकी टीस कई संतों के मन में देखी गई।
कलियुग का प्रभाव कहकर हम भले ही अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लें, पर हकीकत यह है कि अपने सभी तीज-त्यौहारों का स्वरूप अब व्यवसायिक होता जा रहा है। कुंभ में इसका प्रभाव व्यापक रूप से देखने को मिलता है। यह स्वस्थ लक्षण नहीं है। इस पर सरकार को या धर्माचार्यों को विचार करके पूरे कुंभ का स्वरूप आध्यात्मिक बनाना चाहिए। अन्यथा कुंभ और शहरों में लगने वाली आम नुमाइंशों में कोई भेद नहीं रह जाएगा।
यह सही है कि हम सब इतने सुविधाभोगी हो गए हैं कि सरलता का जीवन अब हमसे कोसों दूर हो गया है। जबकि तीर्थ जाना या कुंभ में जाना तपस्यचर्या का एक भाग होना चाहिए, तभी हमारी आध्यात्मिकता चेतना और सांस्कृतिक विरासत सुरक्षित रह पाएगी।

हमेशा से कुंभ के बारे में अंतिम निर्णय अखाड़ा परिषद् का रहता है। यह बात सही है कि सरकारें हजारों करोड़ रूपया कुंभ के आयोजन में खर्च करती हैं, पर वह तो उनका कर्तव्य है।
यही बात व्यवसायिक प्रतिष्ठानों को भी सोचनी चाहिए कि हर चीज बिकाऊ माल नहीं होती। कम से कम धर्म का क्षेत्र तो व्यापार से अलग रखें। कुंभ ही क्या, आज तो हर तीर्थस्थल पर भवन निर्माताओं से लेकर अनेक उपभोक्ता सामिग्री बेचने वालों ने कब्जा कर लिया है। जो अपने विशाल होर्डिंग लगाकर उस स्थान की गरिमा को ही समाप्त कर देते हैं। इसका विरोध समाज की तरफ से भी होना चाहिए। तीर्थस्थलों व कुंभस्थलों पर जो भी विज्ञापन हों, वो धर्म से जुड़े हों। उसके प्रायोजक के रूप में कोई कंपनी अपना नाम भले ही दे दे, पर अपने उत्पादनों के प्रचार का काम बिल्कुल नहीं करना चाहिए। इससे आने वाले श्रद्धालुओं का मन भटकता है और उनके आने का उद्देश्य कमजोर पड़ता है।
दरअसल धार्मिक और आध्यात्मिक संस्कार हमारी चेतना का अभिन्न अंग हैं। समाज कितना भी बदल जाए, राजनैतिक उठापटक कितनी भी हो ले, व्यक्तिगत जीवन में भी उतार-चढ़ाव क्यों न आ जाएं, पर यह चेतना मरती नहीं, जीवित रहती है। यही कारण है कि तमाम विसंगतियों के बावजूद मानव सागर सा ऐसे अवसरों पर उमड़ पड़ता है, जो भारत की सनातन संस्कृति की जीवंतता को सिद्ध करता है।
आवश्यकता इस बात की है कि सभी धर्मप्रेमी और हिंदू धर्म में आस्था रखने वाले राजनैतिक लोग अपने उत्सवों, पर्वों और तीर्थस्थलों के परिवेश के विषय में सामूहिक सहमति से ऐसे मापदंड स्थापित करें कि इन स्थलों का आध्यात्मिक वैभव उभरकर आए। क्योंकि भारत का तो वही सच्चा खजाना है। अगर भारत को फिर से विश्वगुरू बनना है, तो उपभोक्तावाद के शिकंजे से अपनी धार्मिक विरासत को बचाना होगा। वरना हम अगली पीढ़ियों को कुछ भी शुद्ध देकर नहीं जाएंगे। वह एक हृदयविदारक स्थिति होगी।