पिछले हफ्ते मैं चीन
में था। बचपन में एक फिल्म देखी थी। ‘कोटनीस की अमर कहानी’ 1961-1962
में भारत में हिंदी चीनी भाई-भाई के नारे सुने थे। फिर चीन के हमले के बाद ‘हकीकत’
फिल्म देखी, तो फौजियों के हाल पर बहुत दुख हुआ। उसके बाद 1965 के आसपास ‘संगीत नाटक अकादमी’ का एक नाटक देखा था ‘नेफा’ की एक शाम जिसकी
हीरोईन एक चीनी महिला थी। नेफा के हमारे लोगों को प्रेमजाल में फंसाकर जासूसी कर
रही थी। इस सबसे अलग इतिहास की पुस्तकों में चीन की ‘ग्रेट वॉल’ और चीन की
कम्यूनिस्ट क्रांति के बारे में भी पढ़ा था। मगध सम्राट अशोक ने चीन में बौद्धधर्म
के प्रचार के लिए ईसा से 300 वर्ष पहले जो सफल प्रयास किये,
उनकी भी जानकारी थी और ह्वेनसांग की भारत यात्रा का विवरण भी पढ़ा
था। गत 30 वर्षों में चीन की जो आर्थिक प्रगति हुई है,
उसका यशगान तो सुनते ही आ रहे हैं। खुद हमारे प्रधानमंत्री जी भी
इससे प्रभावित हुऐ बिना नहीं रहे हैं और पिछले वर्ष 5 दिन
चीन में बिताकर आऐ हैं। भारत के बाजार सस्ते और जल्दी खराब होने वाले चीनी माल से
पटे पड़े हैं, ये बात आप सब जानते हैं। कुल मिलाकर बचपन से
चीन के अलग-अलग प्रतिबिंब मन मस्तिष्क पर छाये थे। पर उम्र के 62 वर्ष में चीन जाने का मौका मिला, तो पिछले हफ्ते जो
देखा उसका एक मिश्रित अनुभव आपसे बांट रहा हूं।
लोकतंत्र की मांग करने वाले हजारों युवाओं को
‘थिनामेन स्क्वायर’ पर बेदर्दी से पेटन टैंकों से भून देने वाले चीन के हुक्मरान
कितने संवेदना शून्य हैं कि उन्होंने बीजिंग और शंघाई से लगभग सभी बड़े-बूढ़ों को ही
खदेड़कर बाहर कर दिया है। जिससे इन शहरों में पर्यटकों को युवा और खूबसूरत जोड़े ही
दिखाई दें। जिससे चीनी लोगों के व्यवहार में आम तौर पर कोई गर्म जोशी नही है।
वे दुनिया को एक
बाजार की तरह देखते हैं और हर व्यक्ति को खरीदार की तरह। बीजिंग और शंघाई जैसे शहर
आधुनिक खूबसूरती, तकनीकी विकास, चकाचैंध
और साफ-सफाई में दुनिया के अग्रणी शहरों में है। न्यूयॉर्क और मॉस्को भी उनका
मुकाबला नहीं कर सकते, पर इन शहरों की आत्मा मर गयी है। चीन
की सांस्कृतिक परंपराऐं समाप्त हो गयी हैं। समाज का तानाबाना छिन्न-भिन्न हो गया
है। हर एक मीटर की दूरी पर लगे कैमरों ने व्यक्ति की आजादी को आमूलचूल रूप से खत्म
कर दिया है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण ये है कि इन दोनों बड़े शहरों में आपको ढूढ़े से
भी कोई पुलिस वाला दिखाई नहीं देगा। फिर भी 2.5 करोड़ की
आवादी वाले शहर में अपराध या अव्यवस्था का नामो-निशान नहीं है। सुनकर लगेगा की वाह
ये तो रामराज्य है। पर असलियत ये है कि हर आदमी अदृश्य पुलिस के आतंक के साये में
जी रहा है। हर व्यक्ति के, हर काम पर, हर
वक्त निगाह है। ऐसे में हर व्यक्ति डरा और
सहमा दिखाई देता है। ये भयावह स्थिति है। जहां आप न तो राजनैतिक व्यवस्था से सवाल
पूछ सकते हैं, न उस पर टिप्पणी कर सकते हैं और न उस पर अखबार
और टेलीविजन में बहस कर सकते हैं। जो आकाओं ने कह दिया वो आपको मानना होगा। यही
कारण कि 5000 सांसद भी अगर देश की व्यवस्था पर विचार करने
बैठे तो सवाल खड़े नही करेंगे, नेता के आदेश का पालन करेंगे।
चीन की आम जनता किस
बदहाली में जी रही है, इसका तो कोई जिक्र ही नहीं होता। टीन-खप्पर
के झुग्गीनुमा घरों में रहकर, दो वक्त उबले नूडल्स खाकर और 10 घंटे बिना सिर उठाये कारखानों में काम करके चीनी लोग एक मशीन का पुर्जा
बन गये हैं। ये कैसा विकास है? जो आदमी को पुर्जा बना देता
है। उसकी आत्मा को मार देता है। उसके जीवन से हर्षोल्लास छीन लेता है। उसकी
आस्थाओं को नष्ट कर देता है। उसको प्लास्टिक की नकली जिदंगी जीने पर मजबूर कर देता
है। क्या विकास का ये मौडल हमारा आदर्श हो सकता है? उस भारत
का जिसके हर भौगोलिक क्षेत्र का अपना सांस्कृतिक इतिहास है। जहां नित्य आनंद और
उत्सव हैं। जहां घर की तिजोरियों में छिपी दादी-पोतियों की खानदानी विरासत है।
जहां आस्था के 33 करोड़ प्रतीक हैं। जहां हजारों साल की सतत
चलने वाली सांस्कृतिक परंपराऐं हैं। नहीं, चीन हमारा आदर्श
कदापि नहीं हो सकता। यूरोप और अमरिका तो पहले ही हमारे आदर्श नहीं थे। हमारा आदर्श
तो हमारा अपना अतीत होगा। जो तकनीकी आधुनिकता को उपकरण के रूप में तो प्रयोग करेगा,
पर उसका गुलाम नहीं बनेगा।
चीन जाकर कोई सुखद्
अनुभूति नहीं हुई। बल्कि मन में एक आशंका और भय व्याप्त हो गया। अगर कहीं हम इस
रास्ते पर चल पड़े तो हममें और शंघाई-सिंगापुर में क्या अंतर रह जायेगा? क्या 40
साल का इनका तथाकथित विकास भारत के हजारों साल के इतिहास पर हावी हो
जायेगा? क्या हम भी अपनी जड़ों से इसी तरह कट जायेंगे?
क्या हम प्लास्टिक संस्कृति के अंग बनकर इसी तरह लाचार और बेसहारा
हो जायेंगे और अपनी मौलिक सृजनशीलता को खो देंगे? दिल्ली वापसी की फ्लाइट में
भगवान से एक ही प्रार्थना है की, ‘हे योगेश्वर कृष्ण तुम इस
तपोभूमि भारत को चीन जैसा मत बनने देना’।