Monday, May 3, 2021

विपदा क़ानून क्या ढिंढोरा पीटने को बनाये थे ?


जब चारों तरफ़ मौत का भय, कोविड का आतंक, अस्पताल, ऑक्सिजन और दवाओं की कभी न पूरी होने वाली माँग के साये में आम ही नहीं ख़ास आदमी भी बदहवास भाग रहा है, तब हिंदी के कुछ मशहूर कवियों का आशा जगाने वाला एक गीत फिर से लोकप्रिय हो रहा है। पर्दे पर इस गीत को सुरेंद्र शर्मा, संतोष आनंद, शैलेश लोढ़ा, आदि ने गाया है। गीत का शीर्षक ‘फिर नई शुरुआत कर लेंगे’ है।


जब से कोविड का आतंक फैला है तब से सोशल मीडिया पर ज्ञान बाँटने वालों की भी भीड़ लग गई है। दुनिया भर से हर तरह का आदमी चाहे वो डाक्टर हो या ना हो, वैद्य हो या न हो या फिर स्वास्थ्य विशेषज्ञ हो या न हो, कोविड से निपटने या बचने के नुस्ख़े बता रहा है। उसमें कितना ज्ञान सही है और कितना ग़लत तय करना मुश्किल है। उधर देश की स्वास्थ्य सेवाएँ इस बुरी तरह से चरमरा गई हैं कि बड़े-बड़े प्रभावशाली आदमी भी मेडिकल सुविधाओं के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। सरकारों के हाथ पाँव फूल रहे हैं। दुनिया दिल थाम कर भारत में चल रहे मौत के तांडव का नजारा देख रही है। कल तक हम सीना ठोक कर कोविड पर विजय पाने का दावा कर रहे थे पर आज दुनिया के रहमोकरम के आगे घुटने टेक रहे है। अच्छी बात यह है कि हर सक्षम देश भारत की मदद को आगे आ रहा है। अब भारत सरकार ने भी तेज़ी से हाथ-पैर मारने शुरू कर दिए हैं। पर जिस तरह चेन्नई और प्रयाग में उच्च न्यायालयों ने सरकार की नाकामी पर करारा प्रहार किया है और चुनाव आयोग को हत्यारा तक कहा है। उससे यह साफ़ ज़ाहिर है कि कहीं तो सरकार ने भी लापरवाही की है। पर जनता भी कम ज़िम्मेदार नहीं जिसने कोविड की पहली लहर मंद पड़ जाने के बाद खुलकर लापरवाही बरती। 



जहां तक इस आपदा से निपटने की तैयारी का सवाल है तो गौर करने वाली बात यह है कि 2005 में देश में ‘आपदा प्रबंधन क़ानून’ लागू किया गया था। जिसमें राष्ट्रीय व प्रांतीय आपदा प्रबंधन समितियों के गठन का प्रावधान है। उक्त क़ानून की धारा 2 (ई) के तहत आपदा का मूल्यांकन तथा धारा 2 (एम) के तहत तैयारियों का प्रावधान है। धारा 3 के अंतर्गत राष्ट्रीय आपदा प्राधिकरण के अध्यक्ष माननीय प्रधान मंत्री होते हैं। उक्त क़ानून की धारा 42 के तहत एक आपदा संस्थान भी स्थापित करने का प्रावधान है। इसी क़ानून के तहत आपदा कोश बनाने का भी प्रावधान है। उक्त क़ानून की धारा 11 के तहत राष्ट्रीय योजना बनाने का भी प्रावधान है। दुर्भाग्य से न तो कोई योजना बनी, न संस्थान स्थापित हुआ। यही नहीं उक्त क़ानून की धारा 13 के तहत ये भी प्रावधान बनाया गया था की ऋण अदायगी के तहत भी छूट दी जाएगी। इसके अलावा ‘नेशनल डिज़ास्टर रेस्पॉन्स फ़ोर्स’ की धारा 44 व 46 के तहत नेशनल डिज़ास्टर रेस्पॉन्स फंड, धारा 47 के तहत नैशनल डिज़ास्टर लिटिगेशन फंड तथा धारा 48 के तहत नैशनल डिज़ास्टर लिटिगेशन फंड को राज्यों में भी बनाने का प्रावधान है। धारा 72 के तहत आपदा के तहत सभी मौजूदा क़ानून निशप्रभावी रहेंगे। 


2005 से 2014 तक देश में डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए की सरकार थी और 2014 से श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार है। आपदा प्रबंधन के इन क़ानूनों की उपेक्षा करने के लिए ये दोनों सरकारें बराबर की ज़िम्मेदार हैं। 



उक्त क़ानून के अध्याय 10 के तहत दंडनीय अपराधों का प्रावधान भी है। धारा 55, 56 तथा 57 के तहत यदि कोई प्रांतीय सरकार या सरकारी विभाग आपदा प्रबंधन के समय उक्त क़ानून के प्रावधानों की अवहेलना करता है तो यह उसका दंडनीय अपराध माना जाए। कोविड काल में देश में हुए विभिन्न धर्मों के सार्वजनिक आयोजन अन्य राजनैतिक कार्यक्रमों का इतने वृहद् स्तर पर, बिना सावधानियाँ बरते, आयोजन करवाना या उनकी अनुमति देना भी इस क़ानून के अनुसार सम्बंधित व्यक्तियों को अपराधी की श्रेणी में खड़ा करता है। ख़ासकर तब जबकि पिछले वर्ष मार्च से आपदा प्रबंधन क़ानून लागू कर दिया गया था तथा धार 72 के तहत समस्त दूसरे क़ानून निष्प्रभावी थे। ऐसे में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की अनुमति के बिना, विभिन्न धार्मिक, राजनैतिक व सामाजिक आयोजन कराना क्रमशः राज्य सरकारों तथा भारत के चुनाव आयोग के सम्बंधित अधिकारियों को दोषी ठहराता है।


फ़िलहाल जो आपदा सामने है उससे निपटना सरकार और जनता की प्राथमिकता है। जब विधायक और सांसद तक चिकित्सा सुविधाएँ नहीं जुटा पाने के कारण गिड़गिड़ा रहे हैं क्योंकि इनकी देश भर में सरेआम काला बाज़ारी हो रही है। नौकरशाही इस आपदा प्रबंधन में किस हद तक नाकाम सिद्ध हुई है इसका प्रमाण है कि उत्तर प्रदेश के राजस्व बोर्ड के अध्यक्ष तक को 12 घंटे तक लखनऊ के सरकारी अस्पताल में बिस्तर नहीं मिला और जब मिला तो बहुत देर हो चुकी थी और उनका देहांत हो गया। इसलिए समय की माँग है कि ऑक्सिजन, दवाओं और अस्पतालों में बिस्तर के आवंटन और प्रबंधन का ज़िम्मा एक टास्क फ़ोर्स को सौंप देना चाहिए। प्रधान मंत्री श्री मोदी को फ़ौज और टाटा समूह जैसे बड़े औद्योगिक संगठनों को मिलाकर एक राष्ट्रीय समन्वय टास्क फ़ोर्स गठित करनी चाहिए जो इस आपदा से सम्बंधित हर निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हो।



अब जब भारत सरकार भारतीय वायु सेना को इस आपदा प्रबंधन में लगा रही है तो उसे यह भी सुनिश्चित करना चाहिये कि हवाई जहाज़ अन्य वाहन एवं वायु सेना के सम्बंधित कर्मचारी व अधिकारी पूरी तरह से कोविड से बचाव करते हुए काम में लगाए जाएं। ऐसा न हो कि लापरवाही के चलते वायु सेना के लोग इस महामारी की चपेट में आ जाएं। सावधानी यह भी बरतनी होगी कि कोविड उपचार में जुटे डाक्टरों व स्वास्थ्य कर्मियों का उनकी क्षमता से ज़्यादा दोहन न हो। अन्यथा ये व्यवस्था भी चरमरा जाएगी।


Monday, April 26, 2021

द ग्रेट इण्डियन किचन


कल मलयालम भाषा की एक फ़िल्म देखी ‘द ग्रेट इण्डियन किचन’, जिसने सोचने पर मजबूर कर दिया। कहानी सपाट है और घर-घर की है। ग्रहणी कितनी भी पढ़ी लिखी और समझदार क्यों न हो उसकी सारी ज़िंदगी चौका-चूल्हा सम्भालने और घर के मर्दों के नख़रे उठाने में बीत जाती है। ज़्यादातर
  महिलाएँ इसे अपनी नियति मान कर सह लेती हैं। नारी मुक्ति की भावना से जो इसका विरोध करती हैं या तो उनके घर में तनाव पैदा हो जाता है या तो उन्हें घर छोड़ने पर मजबूर हो जाती हैं। ऐसा ही कुछ इस फ़िल्म में दिखाया गया है।

 

ऐसा लगता है कि यह फ़िल्म वामपंथियों ने बनाई है और उस दौर में बनाई है जब केरल के सबरिमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक में एक बड़ा विवाद छिड़ा हुआ था। ज़ाहिर है वामपंथियों का उद्देश्य हिंदू समाज की उन कुरीतियों पर हमला करना था जो उनकी दृष्टि में महिला विरोधी है। जैसे माहवारी के समय महिलाओं को अछूत की तरह रखना। ये फ़िल्म में दिखाया है। हो सकता है कि उन पाँच दिनों भारतीय पारम्परिक समाज में महिलाओं को यातना शिविर की तरह रहना पड़ता हो। पर क्या इसमें संदेह है कि वो पाँच दिन हर महिला की ज़िंदगी में न सिर्फ़ कष्टप्रद होते हैं बल्कि संक्रमण की सभी संभावना लिए हुए भी। अगर महिलाओं पर उन दिनों की जाने वाली ज़्यादतियों को दूर कर दिया जाए और महिला को उन पाँच दिन उसी तरह सम्मानित तरीक़े से घर में रखा जाए जैसे आज परिवार के किसी कोरोना संक्रमित सदस्य को रखा जाता है, तो क्या इसमें पूरे परिवार की भलाई नहीं होगी ? 



इसी तरह पुरुष और स्त्री से हर परिस्थिति में समान व्यवहार की अपेक्षा करने वाले बुद्धिजीवी ज़रा सोचें कि नौ महीने जब महिला गर्भवती होती है तो क्या उसकी वही कार्य क्षमता होती है जो सामान्य परिस्थिति में रहती है? शिशु जन्म के बाद तीन वर्ष तक बच्चे को अगर माँ का दूध और 24 घंटे लाड़-प्यार मिले तो वो बच्चा ज़्यादा स्वस्थ और प्रसन्नचित्त होता है बमुक़ाबले उन बच्चों के जिन्हें उनकी माँ नौकरी के दबाव में ‘डे केयर सेंटर’ में डाल देती हैं। अगर आर्थिक मजबूरी न हो क्या माँ का नौकरी करना ज़रूरी है ? 


इसी तरह सोचने वाली बात यह है कि जिस तरह का मिलावटी, प्रदूषित और ज़हरीला भोजन फ़ास्ट फ़ूड के नाम पर आज सभी बच्चों को दिया जा रहा है उससे उनका मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य चिंता का विषय बन गया है: विकासशील देशों में ही नहीं विकसित देशों में भी । 


हमारे ब्रज में कहावत है कि एक औरत तीन पीढ़ी सुधार देती है; अपने माँ-बाप या सास ससुर की, अपने पति और अपनी और अपने बच्चों की। पढ़ी लिखी महिला भी अगर घर पर रह कर पूरे परिवार के भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा, आचरण और परिवेश पर ध्यान देती है तो वह समाज के लिए इतना बड़ा योगदान है कि किसी भी बड़ी से बड़ी नौकरी का वेतन इसकी बराबरी नहीं कर सकता। शर्त यह है कि उस महिला को परिवार में पूरा सम्मान और सामान अधिकार मिलें। 


वैदिक समाज में पुरुष और महिला एक से आभूषण और वस्त्र पहनते थे; अधोवस्त्र और अंगवस्त्र। महिलाओं के वक्ष भी उसी तरह खुले रहते थे जैसे पुरुषों के। अजन्ता एलोरा के भित्तिचित्र इसके प्रमाण हैं। हर राजनैतिक निर्णय, सामाजिक विवादों, धार्मिक कार्यक्रमों आदि में महिलाएँ बराबर की साझीदार होती थीं। इस व्यवस्था का पतन मध्ययुगीन सामंती  दौर में हो गया। पर आज आधुनिकता व बराबरी के नाम पर जो पनपाया जा रहा है उससे न तो महिलाएँ सुखी हैं और न परिवार। इसलिए फ़िल्म में जो वामपंथी समाधान दिखाया गया है वह उचित नहीं है। उस महिला का विद्रोह करके घर को छोड़ जाना कोई समाधान नहीं है। पर साथ ही उसके पति और ससुर का उसके प्रति व्यवहार भी निंदनीय है। जो प्रायः हर घर में देखा जाता है। हर परिवार के हर पुरुष को यह सोचना चाहिए कि अगर वे अपने परिवार की महिलाओं का सम्मान नहीं करेंगे तो उसका नुक़सान उस परिवार की तीन पीढ़ियों को भुगतना पड़ेगा। 


आधुनिक समाज में बड़े शहरों में रहने वाले बहुत सारे पढ़े लिखे नौजवान स्वतः ही अपनी कामकाजी पत्नी के साथ बराबरी का व्यवहार करते हैं। वे ना सिर्फ़ घर के काम काज में मदद करते हैं बल्कि बच्चे पालने में भी पूरा योगदान करते हैं। सन 2000 में मैं एक हफ़्ता अपने ममेरे भाई आनंद के घर न्यू यॉर्क में रहा। जो उन दिनों एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी का अधिकारी था। उसकी पत्नी प्रीति संयुक्त राष्ट्र के एक प्रकाशन की संवाददाता थी और हफ़्ते में दो -तीन बार यूरोप के किसी प्रधान मंत्री का इंटरव्यू लेने या अंतराष्ट्रीय सम्मेलन की रिपोर्टिंग करने यूरोप जाती थी। तब उनकी नई शादी हुई थी और मैं पहली बार उनके घर रहने गया था। मुझे यह देख कर सुखद आश्चर्य हुआ कि आनंद न सिर्फ़ नाश्ता खाना पकाता था बल्कि घर की साफ़ सफ़ाई भी बड़े क़ायदे से करता था। उसके बाद वे दोनों हॉंगकॉंग और सिंगापुर में भी तैनात रहे। उनके दो बच्चे हैं और वो ज़िंदगी में ऊँचे पदों पर रहे हैं। हम उनके घर हॉंगकॉंग और सिंगापुर भी रहने गए।हमें ये देख कर अच्छा लगा कि आज भी दोनों घर के सभी काम साझा करते हैं। हालांकि अब तो बरसों से उनके घर में एक हाउसकीपर महिला भी रहती है। पर ये उदाहरण इसलिए महत्वपूर्ण है कि जब दो उच्च पदासीन व्यक्ति, अति व्यस्त अंतर्राष्ट्रीय जीवनशैली व आर्थिक सम्पन्नता के बावजूद, बिना किसी आपसी तनाव के, अपने घर का संचालन और बच्चों का लालन-पालन मिल-जुलकर सहजता से कर सकते हैं तो वो जुगल जिनका जीवन इतना व्यस्त नहीं है ऐसा क्यों नहीं कर सकते? आज की शहरी ज़िंदगी में इस समझ की ज़्यादा ज़रूरत है।     

Monday, April 19, 2021

कोरोना आपका धर्म नहीं पूछता


पिछले वर्ष कोरोना ने जब अचानक दस्तक दी तो पूरी दुनिया थम गई थी। सदियों में किसी को कभी ऐसा भयावह अनुभव नहीं हुआ था। तमाम तरह की अटकलें और अफ़वाहों का बाज़ार गर्म हो गया। एक दूसरे देशों पर कोरोना फैलाने का आरोप लगने लगे। चीन को सबने निशाना बनाया। पर कुछ तो राज की बात है कोरोना कि दूसरी लहर में। जब भारत की स्वास्थ्य और प्रशासनिक व्यवस्था लगभग अस्त-व्यस्त हो गई है तो चीन में इस दूसरी लहर का कोई असर क्यों नहीं दिखाई दे रहा? क्या चीन ने इस महामारी के रोकथाम के लिए अपनी पूरी जनता को टीके लगवा कर सुरक्षित कर लिया है? 


कोविड की पिछली लहर आने के बाद से ही दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने इसके मूल कारण और उसका तोड़ निकालने की मुहिम छेड़ दी थी। पर भारत में जिस तरह कुछ टीवी चैनलों और राजनैतिक दलों ने कोविड फैलाने के लिए तबलीकी जमात को ज़िम्मेदार ठहराया और उसके सदस्यों को शक की नज़र से देखा जाने लगा वो बड़ा अटपटा था। प्रशासन भी उनके पीछे पड़ गया। जमात के प्रांतीय अध्यक्ष के ख़िलाफ़ ग़ैर ज़िम्मेदाराना भीड़ जमा करने के आरोप में कई क़ानूनी नोटिस भी जारी किए गये। दिल्ली के निज़ामुद्दीन क्षेत्र को छावनी में तब्दील कर दिया गया। यही मान लिया गया कि चीन से निकला यह वाइरस सीधे तबलीकी जमात के कार्यक्रम का हिस्सा बनने के लिए ही आया था। ये बेहद ग़ैर-ज़िम्मेदाराना रवैया था। माना कि मुसलमानों को लक्ष्य करके भाजपा लगातार हिंदुओं को अपने पक्ष में संगठित करने में जुटी है। पर इसका मतलब यह तो नहीं कि जानता के बीच गैरवैज्ञानिक अंधविश्वास फैलाया जाए।   



जो भी हो शासन का काम प्रजा की सुरक्षा करना और समाज में सामंजस्य स्थापित करना होता है। इस तरह के ग़ैर ज़िम्मेदाराना रवैये से समाज में अशांति और अराजकता तो फैली ही, जो ऊर्जा और ध्यान कोरोना के उपचार और प्रबंधन में लगना चाहिए थी वो ऊर्जा इस बेसिरपैर के अभियान में बर्बाद हो गई। हालत जब बेक़ाबू होने लगे तो सरकार ने कड़े कदम उठाए और लॉकडाउन लगा डाला। उस समय लॉकडाउन का उस तरह लगाना भी किसी के गले नहीं उतरा। सबने महसूस किया कि लॉकडाउन लगाना ही था तो सोच समझ कर व्यावहारिक दृष्टिकोण से लगाना चाहिए था। क्योंकि उस समय देश की स्वास्थ्य सेवाएँ इस महामारी का सामना करने के लिए तैयार नहीं थी इसलिए देश भर में काफ़ी अफ़रा तफ़री फैली। जिसका सबसे ज़्यादा ख़ामियाजा करोड़ों गरीब मज़दूरों को झेलना पड़ा। बेचारे अबोध बच्चों के लेकर सैंकड़ों किलोमीटर पैदल चल कर अपने गाँव पहुँचे। लॉकडाउन में सारा ध्यान स्वास्थ्य सेवाओं पर ही केंद्रित रहा। जिसकी वजह से धीरे धीरे स्थित नियंत्रण में आती गई। उधर वैज्ञानिकों के गहन शोध के बाद कोरोना की वैक्सीन तैयार कर ली और टीका अभियान भी चालू हो गया। जिससे एक बार फिर समाज में एक उम्मीद की किरण जागी। इसलिए सभी देशवासी वही कर रहे थे जो सरकार और प्रधान मंत्री उनसे कह रहे थे। फिर चाहे कोरोना भागने के लिए ताली पीटना हो या थाली बजाना। पूरे देश ने उत्साह से किया। 


ये बात दूसरी है कि इसके बावजूद जब करोड़ों का प्रकोप नहीं थमा तो देश में इसका मज़ाक़ भी खूब उड़ा। क्योंकि लोगों का कहना था कि इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था।


लेकिन हाल के कुछ महीनों में जब देश की अर्थव्यवस्था सही रास्ते पर चलने लगी थी तो कोरोना की दूसरी लहर ने फिर से उम्मीद तोड़ दी है। आज हर तरफ़ से ऐसी सूचनाएँ आ रही हैं कि हर दूसरे घर में एक न एक संक्रमित व्यक्ति है। अब ऐसा क्यों हुआ? इस बार क्या फिर से उस धर्म विशेष के लोगों ने क्या एक और बड़ा जलसा किया? या सभी धर्मों के लोगों ने अपने-अपने धार्मिक कार्यक्रमों में भारी भीड़ जुटा ली और सरकार या मीडिया ने उसे रोका नहीं? तो क्या फिर अब इन दूसरे धर्मावलम्भियों को कोरोना भी दूसरी लहर के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाए? ये फिर वाहियात बात होगी। 


कोरोना का किसी धर्म से न पहले कुछ लेना देना था न आज है। सारा मामला सावधानी बरतने, अपने अंदर प्रतिरोधी क्षमता विकसित करने और स्वास्थ्य सेवाओं के कुशल प्रबंधन का है। जिसमें कोताही से ये भयावह स्थित पैदा हुई है।


इस बार स्थित वाक़ई बहुत गम्भीर है। लगभग सारे देश से स्वास्थ्य सेवाओं के चरमराने की खबरें आ रही है। संक्रमित लोगों की संख्या दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ रही है और अस्पतालों में इलाज के लिए जगह नहीं है। आवश्यक दवाओं का स्टॉक काफ़ी स्थानों पर ख़त्म हो चुका है। नई आपूर्ति में समय लगेगा। शमशान घाटों तक पर लाईनें लग गई हैं। स्थिति बाद से बदतर होती जा रही है। मेडिकल और पैरा मेडिकल स्टाफ़ के हाथ पैर फूल रहे हैं। 


इस अफ़रा तफ़री के लिए लोग चुनाव आयोग, केंद्र व राज्य सरकारों, राजनेताओं और धर्म गुरुओं को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं। जिन्होंने चुनाव लड़ने या बड़े धार्मिक आयोजन करने के चक्कर में सारी मर्यादाओं को तोड़ दिया। आम जनता में इस बात का भी भारी आक्रोश है कि देश में हुक्मरानों और मतदाताओं के लिए क़ानून के मापदंड अलग अलग हैं। जिसके मतों से सरकार बनती है उसे तो मास्क न लगाने पर पीटा जा रहा है या आर्थिक रूप से दंडित किया जा रहा है। जबकि हुक्मरान अपने स्वार्थ में सारे नियमों को तोड़ रहे हैं। सोशल मीडिया पर नॉर्वे का एक उदाहरण काफ़ी वाईरल हो रहा है वहाँ सरकार ने आदेश जारी किया था कि 10 से ज़्यादा लोग कहीं एकत्र न हों पर वहाँ की महिला प्रधान मंत्री ने अपने जन्मदिन की दावत में 13 लोगों को आमंत्रित कर लिया। इस पर वहाँ की पुलिस ने प्रधान मंत्री पर 1.75 लख रुपय का जुर्माना थोक दिया, यह कहते हुए अगर यह गलती किसी आम आदमी ने की होती तो पुलिस इतना भारी दंड नहीं लगाती। लेकिन प्रधान मंत्री ने नियम तोड़ा, जिनका अनुसरण देश करता है, इसलिए भारी जुर्माना लगाया। प्रधान मंत्री ने अपनी गलती मानी और जुर्माना भर दिया। हम भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बताते हुए नहीं थकते। पर क्या ऐसा कभी भारत में हो सकता है? हो सकता तो आज जनता इतनी बदहाली और आतंक में न जी रही होती।

Monday, April 12, 2021

कोरोना की दूसरी लहरः सरकार और जनता


पिछले साल हम अति उत्साह में अपना सीना तान रहे थे कि कोरोना को नियंत्रित करने में भारत दुनिया में सबसे आगे निकल गया है। लेकिन आज हम फिर भयाक्रांत हैं। कोरोना से लड़ने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें अपने अपने तरीके से भिन्न-भिन्न कदम उठा रही हैं। जहां असम, बंगाल और केरल जैसे चुनावी राज्यों में कोई प्रतिबंध नहीं है, वहीं दूसरे कई राज्यों में मास्क न पहनने पर पुलिस पिटाई भी कर रही है और चालान भी। ये बात लोगों की समझ में नहीं आ रही कि जिन राज्यों में चुनाव होता है वहाँ घुसने से कोरोना क्यों डरता है? इसका जवाब न तो किसी सरकार के पास है न तो किसी वैज्ञानिक के पास है।  


जिस तरह कुछ राज्यों में कोरोना की रोकथाम के लिए रात का कर्फ्यू लगाया गया है, उससे लोगों को भय सता रहा है कि कहीं चुनावों के बाद फिर से लॉकडाउन न लगा दिया जाए। पिछले लॉकडाउन का उद्योग और व्यापार पर भारी विपरीत प्रभाव पड़ा था, जिससे देश की अर्थव्यवस्था अभी उबर नहीं पाई है। सबसे ज्यादा मार तो छोटे व्यापारियों और कामगारों ने झेली। इसलिए आज कोई भी लॉकडाउन के पक्ष में नहीं है।  



छोटे व्यापारी की तो समझ में आती है लेकिन उद्योगपति अनिल अम्बानी के बेटे अनमोल अम्बानी तक ने ट्वीट की एक श्रृंखला पोस्ट कर पूछा है कि, ‘जब फिल्म अभिनेता शूटिंग कर सकते हैं, क्रिकेटर देर रात तक क्रिकेट खेल सकते हैं, नेता भारी जनसमूह के साथ रैलियां कर सकते हैं, तो व्यापार पर ही रोक क्यों? हर किसी का काम उनके लिए महत्वपूर्ण है।’ अनमोल ने इसके साथ ही अपने ट्वीट में कोरोना श्पैनडेमिकश् के प्रसार को रोकने के लिए लगाए जाने वाले लॉकडाउन को श्स्कैमडेमिकश् तक कह दिया। 


उधर भारत के वैज्ञानिकों ने दिन रात शोध और कड़ी मेहनत के बाद कोरोना का वैक्सीन बनाया है। पर बहुत कम लोगों को यह पता है कि कोरोना महामारी को वैक्सीन की ढाल देकर भारतीय कम्पनी भारत बायोटेक द्वारा निर्मित कोरोना की वैक्सीन ‘कोवैक्सिन’ की सफलता के पीछे हैदराबाद के समीप ‘जिनोम वैली’ का हाथ है। ‘जिनोम वैली’ असल में एक जीव विज्ञान के शोध का केंद्र है। इस समय यह दुनिया में तीसरे दर्जे पर है, जहां लाखों की तादाद में वैक्सीन की ईजाद और निर्माण होता है। 1996 में जब एक प्रवासी भारतीय वैज्ञानिक डा कृष्णा इला ने भारत बायोटेक कम्पनी की स्थापना ‘जिनोम वैली’ में की थी तो उन्हें इस बात की जरा भी कल्पना नहीं होगी कि एक दिन श्जिनोम वैली’ ही दुनिया को कोरोना महामारी से लड़ने वाली वैक्सीन प्रदान करेगी।


‘जिनोम वैली’ को विकसित करने में तेलंगाना काडर के वरिष्ठ आईएएस अधिकारी बी पी आचार्य और उनकी टीम महत्वपूर्ण योगदान रहा। जिन्होंने रात-दिन एक कर के इसे कामयाबी को हासिल किया है। आज ‘जिनोम वैली’ जीव विज्ञान का एक ऐसा केंद्र बन चुका है जहां 300 से अधिक दवा कम्पनियाँ हैं। जो न सिर्फ कोरोना व अन्य बीमारियों के वैक्सीन का निर्माण कर रही हैं, बल्कि 20 हजार से ज्यादा लोगों को रोजगार भी दे रही है। यह देश के लिए एक गर्व की बात है। कई दशकों पहले उठाए गए इस कदम की बदौलत आज हम कोरोना जैसी महामारी से लड़ने में सक्षम हुए हैं। यह डा कृष्णा इला की दूरदर्शिता और बी पी आचार्य जैसे कर्मठ अधिकारियों की वजह से ही संभव हुआ है।

 

बावजूद इस सबके कोरोना की दूसरी लहर के साथ कोरोना पूरे दम से लौट आया है। कुछ ही महीनों पहले जब इसका असर कम होता दिखा तो लोगों ने इस विषय में सावधानी बरतना कम कर दिया था। चोटिल अर्थव्यवस्था, राज्यों में चुनाव और अन्य मुद्दों पर जनता का ध्यान ज्यादा जा रहा था। लेकिन हाल की कुछ हफ्तों में कोरोना ने जो तेजी पकड़ी है उससे आम आदमी और सरकारी तंत्र एक बार फिर से चिंता में है।


उधर दिल्ली उच्च न्यायालय के एक फैसले ने नया विवाद खड़ा कर दिया है। इस फैसले के अनुसार यदि आप अपनी बंद गाड़ी में अकेले भी सफर कर रहे हैं तो भी मास्क लगाना अनिवार्य है। यह बात समझ से परे है इसलिए सोशल मीडिया पर इस फैसले को लेकर काफी बहस छिड़ गई है। लोग प्रश्न पूछ रहे हैं कि बंद गाड़ी में अकेले सफर करने वाले को कोरोना के संक्रमण का खतरा अधिक है या राजनैतिक रैलियों और कार्यक्रमों में बिना मास्क आने वाली भीड़ को? उधर उत्तर प्रदेश के सहारनपुर का एक वीडियो वायरल हो रहा है जहां कुछ अधिकारी एक दुकानदार को ठीक से मास्क न पहनने पर धमकाते हुए नजर आ रहे हैं। गर्मागर्मी  के बाद मामला शांत तो हो जाता है लेकिन उस वीडियो में यह स्पष्ट दिखाई देता है कि जो अधिकारी उस व्यापारी को धमका रहा है उसने स्वयं मास्क ठीक से नहीं लगा रखा। ऐसे दोहरे मापदंड क्यों अपनाए जा रहे हैं? कई शहरों में पुलिस वाले मास्क न पहनने पर आम लोगों की बेरहमी से पिटाई भी कर रहे हैं जिससे भड़की जनता ने भी पुलिसवालों की पिटाई की है। सरकारों को पुलिसवालों को ये निर्देश देना होगा कि वे नियमों के पालन में कड़ाई तो बरतें पर मानवीय संवेदनशीलता के साथ। अन्यथा समाज में अराजकता फैल जाएगी। पर साथ ही कोरोना की दूसरी लहर में बढ़ते हुए मरीजों और मौतों को भी हमें गम्भीरता से लेना होगा और सभी सावधानियाँ बरतनी होगी। लॉकडाउन की स्थित न आए इसके लिए हम सबको भी अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी।


संतोष की बात यह है कि कोरोना की दूसरी लहर भारत में तब आई है जब हमारे पास इससे लड़ने के लिए वैक्सीन के रूप में एक नहीं बल्कि दो-दो हथियार हैं। पर अभी तो देश के कुछ ही लोगों को वैक्सीन मिली है। फिर भी भारत ने कोरोना वैक्सीन को दूसरे देशों में भेज दिया है। यह अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की दृष्टि से सराहनीय कदम हो सकता है, पर देशवासियों की सेहत और जिंदगी बचाने की दृष्टि से सही कदम नहीं था। सरकारों को वैक्सीन लगाने की मुहिम को और तेज करना होगा, जिससे इस महामारी के कहर से बचा जा सके।

Monday, April 5, 2021

पुलिसवालों में इंसानियत अभी ज़िंदा है


आम तौर पर माना जाता है कि पुलिसवालों में इंसानियत नहीं होती। पुलिसवालों का जनता के प्रति कड़ा रुख़ प्रायः निंदा के घेरे में आता रहता है। पिछले दिनों सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय मौत के बाद बॉलीवुड के मशहूर सितारों का नशीले पदार्थों के साथ नारकोटिक विभाग द्वारा पकड़े जाना राजनैतिक घटना बताया जा रहा था। आरोप था कि ये सब बिहार के चुनाव के मद्देनज़र किया जा रहा है जबकि ये सब नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के महानिदेशक राकेश अस्थाना की मुस्तैदी के कारण हो रहा था। अस्थाना के बारे में यह मशहूर है जब कभी उन्हें कोई संगीन मामला सौंपा जाता है तो वे अपनी पूरी क़ाबलियत और शिद्दत से उसे सुलझाने में जुट जाते हैं। सीबीआई में रहते हुए अस्थाना ने कुख्यात भगोड़े विजय माल्या के प्रत्यर्पण में जो भूमिका निभाई है उसकी जानकारी सीबीआई में उन सभी अफ़सरों को है जो इनकी टीम में रहे थे।
 


लेकिन आज हम एक अनोखे केस की बात करेंगे। पुलिस हो या कोई अन्य जाँच एजेंसी, वो हमेशा बेगुनाहों को झूठे केस में फँसा कर प्रताड़ित करने जैसे आरोपों से घिरी रहती है। लेकिन इतिहास में शायद पहली बार ऐसा हुआ है जब विदेश में एक बेगुनाह जोड़े को बेगुनाह साबित कर भारत वापिस लाने में नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो कामयाब रहा है। इससे दोनो देशों के बीच द्विपक्षीय सम्बन्धों को और मज़बूती मिली है। मामला 2019 का है जब उसी साल 6 जुलाई को कतर के हवाई अड्डे पर मुंबई के एक जोड़े को 4 किलो चरस के साथ पकड़ा गया था। मामला कतर की अदालत में पहुँचा और मुंबई के ओनिबा और शरीक को वहाँ की अदालत में 10 साल की सज़ा सुना दी गई। ओनिबा और शरीक ने अपनी सज़ा के दौरान अपनी बेटी को जेल में ही जन्म दिया। इन दोनों ने आनेवाले 10 सालों के लिए ख़ुद को जेल में ही बंद मान लिया था। लेकिन कतर से दूर मुम्बई में इन दोनों के रिश्तेदारों को इन दोनों की बेगुनाही का पूरा यक़ीन था। लिहाज़ा उन्होंने मुम्बई पुलिस और नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो का दरवाज़ा खटखटाया। वे यहीं तक नहीं रुके उन्होंने प्रधान मंत्री कार्यालय और विदेश मंत्रालय की मदद भी माँगी। हालाँकि ओनिबा और शरीक को रंगे हाथों पकड़ा गया था लेकिन उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं थी कि इतनी बड़ी मात्रा में नशीले प्रदार्थ इनके बैग में कैसे आए। 


किसी ने ख़ूब ही कहा है सत्य परेशान हो सकता है लेकिन पराजित नहीं हो सकता। एक ओर जहां ओनिबा और शरीक हिम्मत हार चुके थे वहीं शरीक की फ़ोन रिकॉर्डिंग में से एक ऐसा सुबूत निकला जिसने इस मामले का सच उजागर कर दिया। दरअसल शरीक की फूफी तबस्सुम ने शरीक के मना करने पर भी शरीक और ओनिबा को एक हनीमून पैकेज तोहफ़े में दिया। इस तोहफ़े में कतर की टिकट और वहाँ रहने और घूमने का पूरा पैकेज था। इस पैकेज के साथ ही तबस्सुम ने शरीक को एक पैकेट भी दिया जिसमें तबस्सुम ने अपने रिश्तेदारों के लिए ‘पान मसाला’ भेजा था। असल में वो पान मसाला नहीं बल्कि चरस थी। 


इतने गम्भीर मामले के बावजूद नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के महानिदेशक राकेश अस्थाना को लगा कि यह मामला इतना सपाट नहीं है जितना दिखाई दे रहा है। उन्हें इसमें कुछ पेच नज़र आए इसलिए अस्थाना ने एक विशेष टीम गठित करी। इस टीम का नेतृत्व नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के डिप्टी डायरेक्टर के पी एस मल्होत्रा ने किया। जाँच हुई और पता चला कि शरीक की फूफी तबस्सुम एक कुख्यात गैंग का हिस्सा हैं जो नशीले पदार्थों की तस्करी करता है। इस गैंग का सरग़ना मुंबई का निज़ाम कारा है जिसे मुम्बई में गिरफ़्तार किया गया। मुम्बई के नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो की जाँच में ही यह सामने आया कि ओनिबा और शरीक दोनों बेगुनाह हैं। 


चूँकि मामला विदेश का था जहां ये बेगुनाह जोड़ा जेल में बंद था और असली गुनहगार भारत में नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो की हिरासत में। तभी नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के महानिदेशक ने ये तय किया कि ओनिबा और शरीक को बाइज़्ज़त वापिस भारत लाया जाए। अस्थाना ने प्रधान मंत्री कार्यालय, विदेश मंत्रालय की मदद से कतर में भारतीय दूतावास के ज़रिए कतर के अधिकारियों को इस मामले सभी सुबूत भिजवाए। कतर की कोर्ट में इन सभी सुबूतों पर फिर सुनवाई हुई और इस साल जनवरी में इस मामले में पुनः विचार किया गया। 29 मार्च 2021 को आख़िरकार कतर की अदालत ने ओनिबा और शरीक को बेगुनाह मान लिया और बाइज़्ज़त रिहा कर दिया। अब बस उस दिन का इंतेज़ार है जब सभी क़ानूनी औपचारिकताओं के बाद ओनिबा और शरीक को वापिस भारत भेजा जाएगा। इस खबर को सुन कर ओनिबा और शरीक के रिश्तेदारों में एक ख़ुशी की लहर दौड़ गई। उनका यह कहना है कि इस मामले में प्रधान मंत्री कार्यालय, विदेश मंत्रालय और ख़ासतौर पर नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो ने उनकी इस बात पर विश्वास किया कि ओनिबा और शरीक बेगुनाह हैं और इसलिए इस केस में आगे बढ़ कर हमारी मदद की। वरना ये जोड़ा दस बरस तक कतर की जेल में सड़ता रहता।  


इस पूरे हादसे से यह साबित होता है कि अगर कोई उच्च अधिकारी निशपक्षता, पारदर्शिता और मानवीय संवेदना से काम करे तो वह जनता के लिए किसी मसीहा से कम नहीं होता। इस मामले में सक्रियता दिखा कर नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो की टीम ने अपनी छवि को काफ़ी सुधार है। यह उदाहरण केंद्र और राज्यों की अन्य जाँच एजेंसीयों के लिए अनुकरणीय है। उन्हें इस बात से सतर्क रहना चाहिए की कोई भी उनका दुरुपयोग निज हित में या अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदियों को परेशान करने के लिए न करे बल्कि सभी जाँच एजेंसियाँ अपने नियमों के अनुसार क़ानूनन कार्यवाही करें और राग द्वेष से मुक्त रहें। इससे उनकी छवि जनता के दिमाग़ में बेहतर बनेगी और ये जाँच एजेंसियाँ गुनहगारों को सज़ा दिलवाने में और बेगुनाहों को बचाने में नए मानदंड स्थापित करेंगी। इसके लिए आवश्यक है कि इन जाँच एजेंसियों की टीम में तैनात अधिकारी अपने वेतन और भत्तों से संतुष्ट रह कर, बिना किसी प्रलोभन में फँसे, अपने कर्तव्य को पूरा करें तो उससे हमारे समाज और देश को लाभ होगा और इन कर्मचारियों को भी आत्मिक संतोष प्राप्त होगा।

Monday, March 29, 2021

सीएसआर का धंधा सबसे चंगा


भारत के आयकर विभाग के सर्वोच्च अधिकारी ने गोपनीयता की शर्त पर बताया की सीएसआर (निगमित सामाजिक दायित्व) के नाम पर बरसों से इस देश में बड़े घोटाले हो रहे हैं। उन्होंने मेरे सहयोगी रजनीश कपूर से पूछा कि आपने ब्रज में इतने सारे जीर्णोद्धार के, इतने प्रभावशाली तरीक़े से कार्य किए हैं, इसमें अब तक कितने करोड़ रुपया खर्च कर चुके हैं? रजनीश ने कहा कि 18 वर्षों में लगभग 23 करोड़ रुपए। यह सुनकर वे अधिकारी उछल पड़े और बोले,
इतना सारा काम केवल 23 करोड़ में। उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ। तब बोले कि मेरे पास ऐसी स्वयंसेवी संस्थाओं की एक लम्बी सूची है जिनका सालाना बजट कई सौ करोड़ रुपए से लेकर हज़ार करोड़ रुपय तक है। लेकिन इनमें से ज़्यादातर एनजीओ ऐसी हैं जिनके पास ज़मीन पर दिखाने को कुछ भी उल्लेखनीय नहीं है। ये सारा गोलमाल देश के बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों द्वारा टैक्स बचाने के लिए किया जाता है। लेकिन अब मोदी सरकार ने निर्देश दिए हैं कि ऐसा फ़र्जीवाड़ा करने वालों पर लगाम कसी जाए। 


दरअसल जब से यह क़ानून बना कि एक सीमा से ऊपर उद्योग या व्यापार करने वालों को अपने मुनाफ़े का कम से कम 2 फ़ीसदी सामाजिक कार्यों पर खर्च करना अनिवार्य होगा। तबसे ज़्यादातर औद्योगिक घरानों ने धर्मार्थ ट्रस्ट या एनजीओ बना लिए और सीएसआर का अपना फंड इनमें ट्रांसफ़र करके टैक्स बचा लिया। इनमें से कुछ ने इस फंड से सामुदायिक सेवा के अनेक तरह के कार्य किए और आज भी कर रहे हैं। पर ज़्यादातर ने इस फंड का उपयोग अपने फ़ायदे के लिए ही किया। मसलन अगर किसी उच्च अधिकारी या मंत्री से कोई बड़ा फ़ायदा लेना था तो उसकी पत्नी या बच्चों के बनाए एनजीओ को बिना जाँचे परखे उदारता से दान दिया और कभी उस पैसे के इस्तेमाल का हिसाब नहीं माँगा। न यह जा कर देखा कि क्या ये पैसा वाक़ई उस काम में खर्च हुआ जिसके लिए ये दिया गया था? स्पष्ट है कि जब उद्देश्य दान की शक्ल में रिश्वत देने का था तो उनकी बला से वो एनजीओ उस पैसे से कुछ भी करे। नतीजतन इन मंत्रियों और अधिकारियों के परिवारों ने सेमिनार, शोध, सर्वेक्षण, वृक्षारोपण, शिक्षा प्रसार, स्वास्थ्य सेवाएँ, पेयजल व महिला सशक्तिकरण जैसे लोकप्रिय मदों के तहत झूठे खर्चे दिखाए और उस पैसे से खुद मोटा वेतन और तमाम भत्ते लिए और गुलछर्रे उड़ाए। 


यह क्रम जैसा यूपीए सरकार में चल रहा था वैसा ही आज भी चल रहा है। जो एनजीओ निष्ठा से, समर्पण से, पारदर्शिता से और गंभीरता से अपने उद्देश्यों के लिए रात दिन ज़मीनी स्तर पर ठोस काम करतीं हैं उन्हें सीएसआर का अनुदान लेने में चप्पलें घिसनी पड़ती हैं। तब जा कर उन्हें चूरन चटनी की मात्रा में अनुदान मिलता हैं। पर जो एनजीओ अनुदान के पैसे पर गुलछर्रे उड़ती है और ज़मीन पर फ़र्जीवाड़ा करती है उन्हें करोड़ों रुपए के अनुदान बिना प्रयास के मिल जाते हैं। इनसे कोई नहीं पूछता की तुमने इतने पैसे का क्या किया? इसकी अगर आज ईमानदारी से जाँच हो जाए तो सब घोटाला सामने आ जाएगा। सीएसआर फंड को खर्च करने का तरीक़ा बड़ा व्यवस्थित है। हर कम्पनी में, चाहे निजी हो, चाहे सार्वजनिक - सीएसआर का काम देखने के लिए एक अलग विभाग होता है। जिसके अधिकारियों का यह दायित्व होता है की वे किसी एनजीओ से आनेवाले प्रस्तावों का, उनकी गुणवत्ता और उपयोगिता का गम्भीरता से मूल्यांकन करें। यदि वे संतुष्ट हो तभी अनुदान स्वीकृत करें। अनुदान देने के बाद उस एनजीओ के काम पर तब तक निगरानी करें जब तक कि वह अपना उद्देश्य पूरा ना कर ले। 25 लाख तक के अनुदान के मामलों में प्रायः यह सावधानी बरती जाती है। पर जो बड़ी मात्रा में मोटे अनुदान दिए जाते हैं, उसमें प्रस्ताव की गुणवत्ता का मूल्यांकन गौण हो जाता है क्योंकि उनकी स्वीकृति के निर्देश मंत्री, मंत्रालय के उच्च अधिकारी या प्रतिष्ठान के अध्यक्ष से सीधे आते हैं और मूल्यांकन की कार्यवाही तो महज़ ख़ानापूर्ति होती हैं। 


सार्वजनिक प्रतिष्ठानों में सीएसआर के लिए एक सलाहकार समिति बनाने का भी प्रावधान होता है, जिसमें नियमानुसार ऐसे अनुभवी और योग्य सदस्य मनोनीत किए जाने चाहिए जिनका सामाजिक सेवा कार्यों का गहरा अनुभव हो। पर अधिकतर मामलों में ऐसा नहीं होता। केंद्र और राज्यों में सत्तारूढ़ दल के कार्यकर्ता या उनसे जुड़े संगठनों के कार्यकर्ता इन समितियों में नामित कर दिए जाते रहे हैं और आज भी किए जाते हैं। इनका उद्देश्य ईमानदारी से समाज सेवा करना नहीं बल्कि अपने चहेतों की स्वयंसेवी संस्थाओं को अनुदान दिलवाकर अपना उल्लू सीधा करना होता है। यही कारण है कि सी एस आर का बजट तो बहुत खर्च होता है पर उसकी तुलना में ज़मीन पर काम बहुत कम दिखाई देता है। 


जब राजनेताओं से इस विषय पर बात करो तो उनका कहना होता है कि हमारे कार्यकर्ता बरसों हमारे पीछे झंडा लेकर दौड़ते हैं। इस उम्मीद में कि जब हम सत्ता में आएँगे तो उन्हें कुछ आर्थिक लाभ होगा। इसलिए हमारी मजबूरी है कि हम इन कार्यकर्ताओं को ऐसी कम्पनियों में पद देकर उपकृत करें। ये तर्क राजनैतिक दृष्टि से ठीक हो सकता है पर समाज की दृष्टि से ठीक नहीं है। इस देश का यह दुर्भाग्य है कि आम आदमी को लक्ष्य करके उसका दुःख दर्द दूर करने के लिए तमाम योजनाएँ और कार्यक्रम चलाए जाते हैं। पर उनका एक अंश ही उस आम आदमी तक पहुँचता है। बाक़ी रास्ते में ही सोख लिया जाता है। सीएसआर की भी यही कहानी है। जब सारे कुएँ में ही भांग पड़ी हो वहाँ कुछ समझौता करके चलना पड़ेगा। भारत सरकार को चाहिए कि सीएसआर फंड का एक हिस्सा, जो एक तिहाई भी हो सकता है, ‘सामाजिक जागरूकता’ जैसे मद में खर्च करने के लिए निर्धारित कर दे। इस मद में जो आवंटन हो वो राजनैतिक कार्यकर्ताओं की आवश्यकता के लिए उपलब्ध करा दिया जाए। पर बाक़ी का 70 फ़ीसदी किसे और किस काम के लिए दिया जाता है इस पर सख़्त नियम बनें और निजी और सार्वजनिक कम्पनियों को पारदर्शिता के साथ इन नियमों का पालन करने की बाध्यता कर दी जाए। इससे ईमानदार और समाज के प्रति समर्पित लोगों को भी प्रोत्साहन मिलेगा और समाज सेवा के नाम पर खर्च किये जा रहे धन का सदुपयोग होगा।        

Monday, March 22, 2021

केवल नारों से नहीं सजते धर्मक्षेत्र


चार बरस पहले जब योगी सरकार बनी तो हर हिंदू को लगा कि अब हमारे धर्मक्षेत्रों को बड़े स्तर पर सजाया -संवारा जाएगा। तब अपने इसी कॉलम में मैने लिखा था कि, ‘अगर धाम सेवा के नाम पर, छलावा, ढोंग और घोटाले होंगे, तो भगवान तो रूष्ट होंगे ही, सरकार की भी छवि खराब होगी। इसलिए हमारी बात को ‘निंदक नियरे राखिए’ वाली भावना से अगर उ.प्र. के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी जी सुनेंगे, तो उन्हें लोक और परलोक में यश मिलेगा। यदि वे निहित स्वार्थों की हमारे विरूद्ध की जा रही लगाई-बुझाई को गंभीरता से लेंगे तो न सिर्फ ब्रजवासियों और ब्रज धाम के कोप भाजन बनेंगे बल्कि परलोक में भी अपयश ही कमायेंगे।’ हमें विश्वास था कि योगी सरकार उ.प्र. की धर्मनगरियों को सजाना-संवारना चाहती है। स्वयं मुख्यमंत्री इस मामले में गहरी रूचि रखते हैं। उनकी हार्दिक इच्छा है कि उनके शासनकाल में मथुरा, वाराणसी, अयोध्या और चित्रकूट का विकास इस तरह हो कि यहां आने वाले श्रद्धालुओं को सुख मिले। इसके लिए वे सब कुछ करने को तैयार हैं।’


तब इस लेख में मैंने उन्हें आगाह किया था कि, ‘धर्मनगरियों व ऐतिहासिक भवनों का जीर्णोंद्धार या सौन्दर्यीकरण एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया है। जटिल इसलिए कि चुनौतियां अनंत है। लोगों की धार्मिक भावनाएं, पुरोहित समाज के पैतृक अधिकार, वहां आने वाले आम आदमी से अति धनी लोगों तक की अपेक्षाओं को पूरा करना, सीमित स्थान और संसाधनों के बीच व्यापक व्यवस्थाऐं करना, इन नगरों की कानून व्यवस्था और तीर्थयात्रियों की सुरक्षा को सुनिश्चति करना।’


इस सबके लिए जिस अनुभव, कलात्मक अभिरूचि व आध्यात्मिक चेतना की आवश्यक्ता होती है, प्रायः उसका प्रशासनिक व्यवस्था में अभाव होता है। सड़क, खडंजे, नालियां, फ्लाई ओवर जैसी आधारभूत संरचनाओं के निर्माण का अनुभव रखने वाला प्रशासन तंत्र इन नगरों के जीर्णोंद्धार और सौन्दर्यीकरण में वो बात नहीं ला सकता, जो इन्हें विश्वस्तरीय तीर्थस्थल बना दे। कारण यह है कि सड़क, खड़जे की मानसिकता से टैंडर निकालने वाले, डीपीआर बनाने वाले और ठेके देने वाले, इस दायरे के बाहर सोच ही नहीं पाते। अगर सोच पात होते तो आज तक इन शहरों में कुछ कर दिखाते। पिछले इतने दशकों में इन धर्मनगरियों में विकास प्राधिकरणों ने क्या एक भी इमारत ऐसी बनाई है, जिसे देखा-दिखाया जा सके? क्या इन प्राधिकरणों ने शहरों की वास्तुकला को आगे बढाया है या इन पुरातन शहरों में दियासलाई के डिब्बों जैसे अवैध बहुमंजले भवन खड़े कर दिये हैं? नतीजतन ये सांस्कृतिक स्थल अपनी पहचान तेजी से खोते जा रहे हैं।


माना कि शहरी विकास की प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता। बढ़ती आबादी की मांग को भी पूरा करना होता है। मकान, दुकान, बाजार भी बनाने होते हैं, पर पुरातन नगरों की आत्मा को मारकर नहीं। अंदर से भवन कितना ही आधुनिक क्यों न हो, बाहर से उसका स्वरूप, उस शहर की वास्तुकला की पहचान को प्रदर्शित करने वाला होना चाहिए। भूटान एक ऐसा देश है, जहां एक भी भवन भूटान की बौद्ध संस्कृति के विपरीत नहीं बनाया जा सकता। चाहे होटल, दफ्तर या दुकान कुछ भी हो। सबके खिड़की, दरवाजे और छज्जे बुद्ध विहारों के सांस्कृतिक स्वरूप को दर्शाते हैं। इससे न सिर्फ कलात्मकता बनीं रहती है, बल्कि ये और भी ज्यादा आकर्षक लगते हैं। दुनिया के तमाम पर्यटन वाले नगर, इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं। जबकि उ.प्र. में आज भी पुराने ढर्रे से सोचा और किया जा रहा है। फिर कैसे सुधरेगा इन नगरों का स्वरूप?


2017 में जब मैंने उ.प्र. के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी को उनके कार्यालय में तत्कालीन पर्यटन सचिव अवनीश अवस्थी की मौजूदगी में ब्रज के बारे में पावर पाइंट प्रस्तुति दी थी, तो मैंने योगी जी से स्पष्ट शब्दों में कहा कि महाराज! दो तरह का भ्रष्टाचार होता है, ‘करप्शन ऑफ डिजाईन’ व ‘करप्शन ऑफ इम्पलीमेंटेशन’। यानि नक्शे बनाने में भ्रष्टाचार और निर्माण करने में भ्रष्टाचार। निर्माण का भ्रष्टाचार तो भारतव्यापी है। बिना कमीशन लिए कोई सरकारी आदमी कागज बढ़ाना नहीं चाहता। पर डिजाईन का भ्रष्टाचार तो और भी गंभीर है। यानि तीर्थस्थलों के विकास की योजनाऐं बनाने में ही अगर सही समझ और अनुभवी लोगों की मदद नहीं ली जायेगी और उद्देश्य अवैध धन कमाना होगा, तो योजनाऐं ही नाहक महत्वाकांक्षी बनाई जायेंगी। गलत लोगों से नक्शे बनावाये जायेंगे और सत्ता के मद में डंडे के जोर पर योजनाऐं लागू करवाई जायेंगी। नतीजतन धर्मक्षेत्रों का विनाश होगा, विकास नहीं। जैसे अयोध्या के दर्जनों पौराणिक कुंडों की दुर्दशा सुधारने के बजाय अकेले सूर्य कुंड के सौंदरीयकरण पर शायद 140 करोड़ रुपए खर्च किए जाएँगे। जबकि यह कुंड सबसे सुंदर और दुरुस्त दशा में है और दो करोड़ में ही इसका स्वरूप निखारा जा सकता है।  


बहुत पीड़ा के साथ कहना पड़ रहा है कि योगी राज में ब्रज सजाने के नाम पर प्रचार तो बहुत हुआ, धन का आवंटन भी खुलकर हुआ, पर कोई भी उल्लेखनीय काम ऐसा नहीं हुआ जिससे ब्रज की संस्कृति और धरोहरों का संरक्षण या जीर्णोद्धार इस तरह हुआ हो जैसा विश्व स्तर पर विशेषज्ञों द्वारा किया जाता है। सबसे पहली गलती तो यह हुई है कि जिस, ‘उ प्र ब्रज तीर्थ विकास परिषद’ को ब्रज विकास के सारे निर्णय लेने के असीमित अधिकार दिए गए हैं, उसमें एक भी व्यक्ति इस विधा का विशेषज्ञ नहीं है। परिषद का आज तक क़ानूनी गठन ही नहीं हुआ। जबकि इसके अधिनियम 2015 की धारा 3 (त) के अनुसार, कानूनन इस परिषद में ब्रज की धरोहरों के संरक्षण के लिए किए गए प्रयत्नों के सम्बंध में ज्ञान, अभिज्ञता और ट्रैक रिकॉर्ड रखने वाले पाँच सुविख्यात व्यक्तियों को लिया जाना था। उनकी सलाह से ही प्रोजेक्ट और प्राथमिकताओं का निर्धारण होना था, अन्यथा नहीं। जबकि अब तक परिषद में सारे निर्णय, उन दो व्यक्तियों ने लिए हैं, जिन्हें इस काम कोई अनुभव ही नहीं है। इसीलिए ब्रज के प्रति सच्ची आस्था रखने वाले संत और भक्त परिषद के कार्यकलापों से और जनता के कर से जमा धन के भारी बर्बादी से बेहद क्षुब्ध हैं। अगर इन दो अधिकारियों को ही सारे निर्णय लेने थे तो फिर परिषद का इतना तामझाम खड़ा करने की ज़रूरत क्या थी? ज़िला पर्यटन अधिकारी ही इस काम के लिए काफ़ी था। 


इसी प्रकार इसके अधिनियम 2015 की धारा 6 (2) के अनुसार परिषद का काम मथुरा स्तर पर करने के लिए एक ज़िला स्तरीय समिति के गठन का भी प्रावधान है। जिसमें 6 मशहूर विशेषज्ञों की नियुक्ति की जानी थी। (1) अनुभवी लैंडस्केप डिज़ाइनर व इंटर्प्रेटिव प्लानर (2) ब्रज क्षेत्र का अनुभव रखने वाले पर्यावरणविद् (3) ब्रज के सांस्कृतिक और पौराणिक इतिहास के सुविख्यात विशेषज्ञ (4) ब्रज साहित्य के प्रतिष्ठित विद्वान (5) ब्रज कला के सुविख्यात मर्मज्ञ (6) ब्रज का कोई सुविख्यात वकील, सामाजिक कार्यकर्ता या जनप्रतिनिधि जिसने ब्रज के सांस्कृतिक विकास में कुछ उल्लेखनीय योगदान दिया हो। इन सबके मंथन के बाद ही विकास की परियोजनाएँ स्वीकृत होनी थी। पर जानबूझकर ऐसा नहीं किया गया ताकि मनमानी तरीक़े से निरर्थक योजनाओं पर पैसा बर्बाद किया जा सके। जिसकी लम्बी सूची प्रमाण सहित योगी जी को दी जा सकती है, यदि वे इन चार वर्षों में परिषद की उपलब्धियों का निष्पक्ष मूल्यांकन करवाना चाहें तो।        


अज्ञान और अनुभवहीनता के चलते ब्रज का जैसा विनाश इन चार वर्षों में हुआ है वैसा ही पिछले तीन दशकों में, हर धर्मक्षेत्रों का किया गया है। उसके दर्जनों उदाहरण दिये जा सकते हैं। फिर भी अनुभव से कुछ सीखा नहीं जा रहा। सारे निर्णय पुराने ढर्रे पर ही लिए जा रहे हैं, तो कैसे सजेंगी हमारी धर्मनगरियां? मैं तो इसी चिंता में घुलता जा रहा हूं। शोर मचाओ तो लोगों को बुरा लगता है और चुप होकर बैठो तो दम घुटता है कि अपनी आंखों के सामने, अपनी धार्मिक विरासत का विनाश कैसे हो जाने दें?