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Monday, March 21, 2022

मुसलमानों का क्या करें?

सुजलाम, सुफलाम, मलयज शीतलाम, शस्य श्यामलाम, भारत माता इतनी उदार हैं कि हर भारतवासी सुखी, स्वस्थ व सम्पन्न हो सकता है। पर स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद भी अधिकतर आबादी पेट पालने के लिए भी दान के अनाज पर निर्भर है। कई दशकों तक ‘ग़रीबी हटाओ’ के नाम पर उसे झुनझुना थमाया गया। पर उसकी ग़रीबी दूर नहीं हुई। आज ग़रीबी के साथ युवा बेरोज़गारी एक बहुत बड़ी समस्या बन गयी है । जिसका निदान अगर जल्दी नहीं हुआ तो करोड़ों युवाओं की ये फ़ौज देश भर में हिंसा, अपराध और लूट में शामिल हो जाएगी। हर राजनैतिक दल अपने वोटों का ध्रुवीकरण के लिए जनता को किसी न किसी नारे में उलझाए रखता है और चुनाव जीतने  के लिए उसे बड़े-बड़े लुभावने सपने भी दिखाता है।



पिछले कुछ वर्षों से अल्पसंख्यक मुसलमानों का डर बहुसंख्यक हिंदुओं को दिखाया जा रहा है। आधुनिक सूचना तकनीकी की मदद से ‘इस्लमोफोबिया’ को घर-घर तक पहुँचा दिया गया है। लगभग 30 फ़ीसदी हिंदू आबादी ये मान चुकी है कि भारत की हर समस्या का कारण मुसलमान है, जो सही नहीं है। आर्थिक समस्याओं के कारण दूसरे हैं और सामाजिक समस्याओं के कारण दूसरे।


जहां तक भारत में मुस्लिम आबादी का प्रश्न है वे आज 17 करोड़ हैं और हम हिंदू 96 करोड़ हैं। अपनी आबादी के इतने बड़े हिस्से को अगर हम अपनी हर समस्या का कारण मानते हैं तो इसका निदान क्या है? क्या उन्हें मार डाला जाए? क्या उन्हें एक और पाकिस्तान बना कर भारत से अलग कर दिया जाए? या उनके और हमारे बीच चले आ रहे विवाद के विषयों का समाधान खोजा जाए? 


उल्लेखनीय है कि सरसंघ चालक डॉक्टर मोहन भागवत जी मुसलमानों के विषय में कई बार कह चुके हैं कि उनके और हमारे पुरखे एक ही थे, कि उनका और हमारा डीएनए एक है, कि भारत में रहने वाला हर व्यक्ति हिंदू है। 80 बनाम 20 फ़ीसदी का नारा देकर चुनाव लड़ने वाले योगी आदित्यनाथ जी ने अपनी एक सभा में  कहा, वह मुझसे प्यार करते हैं, मैं उनसे प्यार करता हूँ। 


संघ और भाजपा के कार्यकर्ताओं के लिए इस सब से बड़े असमंजस की स्थितियाँ पैदा होती रहती हैं। उनकी समझ में नहीं आता कि क्या करें ? अगर भागवत जी की यही बात सही है तो फिर मॉबलिंचिंग, लव जिहाद, टोपी-दाढ़ी का विरोध, रेह्ड़ी वालों को पीट कर उनसे जय श्री राम कहलवाना या मुसलमानों के साथ हर तरह का व्यावसायिक व सामाजिक व्यवहार ख़त्म करने जैसे अभियानों का रात दिन सोशल मीडिया पर इतना प्रचार क्यों किया जाता है ? 


अगर भागवत जी या योगी जी या फिर मोदी जी भी यही मानते हैं कि मुसलमान ही हर समस्या की जड़ हैं तो इस अभियान को लम्बा खींचने के बजाय एक बार में इसका समाधान ढूँढ कर उसे कड़ाई से लागू क्यों नहीं करते? अगर वे ऐसा कर देते हैं तो समाज में नित्य नए उठने वाले विप्लव शांत हो जाएँगे। जो समाज और राष्ट्र के आर्थिक स्वास्थ्य के लिए अत्यावश्यक हैं। क्योंकि अशांत समाज में आर्थिक गतिविधियाँ ठहर जाती हैं। अगर इन राष्ट्रीय नेताओं को ये लगता है कि ऐसा करना सम्भव नहीं है तो जो अभियान अभी चल रहे हैं उनको रोकने और उनकी दिशा मोड़ने का कार्य उन्हें करना चाहिये। जो उनके लिए असम्भव नहीं है। हां इससे अपेक्षित राजनैतिक लाभ नहीं प्राप्त होगा किंतु समाज में शांति ज़रूर स्थापित हो जाएगी। 


इस सबसे अलग एक प्रश्न हम सब सनातन धर्मियों के मन में सैंकड़ों वर्षों से घुट रहा है। भारत की सनातन संस्कृति को गत हज़ार वर्षों में राजाश्रय नहीं मिला। कई सदियों में तो उसका दमन किया गया। जिसका विरोध सिख गुरुओं व शिवाजी महाराज जैसे अनेक महापुरुषों ने किया। पर महत्वपूर्ण बात यह है कि इनका विरोध उस राज सत्ता से था जो हिंदुओं का दमन करती थीं। सामाजिक स्तर पर इन्हें मुसलमानों से कोई बैर नहीं था। क्योंकि इनकी सेना और साम्राज्य में मुसलमानों को महत्वपूर्ण पदों पर तैनात किया गया था। 


बँटवारे से पहले जो लोग भारत और पाकिस्तान के भोगौलिक क्षेत्रों में सदियों से रहते आए थे, उनके बीच भी पारस्परिक सौहार्द और प्रेम अनुकरणीय था। बँटवारे के बाद इधर से उधर या उधर से इधर गए ऐसे तमाम लोगों के इंटरव्यू यूट्यूब पर भरे पड़े हैं। ये बुजुर्ग बताते हैं कि बँटवारे की आग फैलने से पहले तक इनके इलाक़ों में साम्प्रदायिक वैमनस्य जैसी कोई बात ही नहीं थी। 


एक तरफ़ सनातन धर्म के मानने वाले वे संत और हम जैसे साधारण लोग हैं जिनका यह विश्वास है कि सनातन धर्म ही मानव और प्रकृति के कल्याण के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है। इसीलिए हम इसका पालन राष्ट्रीय स्तर पर होते देखना चाहते हैं। वैसे भी दुनिया के सभी सम्प्रदाय वैदिक संस्कृति के बाद पनपे हैं। पर ऐसा होता दीख नहीं रहा। चिंता का विषय यह है कि हिंदुत्व का नारा देने वाले भी वैदिक सनातन संस्कृति की मूल भावना व शास्त्रोचित सिद्धांतों की अवहेलना करते हुए अति उत्साह में अपने मनोधर्म को वृहद् हिंदू समाज पर जबरन थोपने का प्रयास करते हैं। जबकि हमारे सनातन धर्म की विशेषता ही यह है कि इसका प्रचार-प्रसार मनुष्यों की भावना से होता है तलवार के ज़ोर से नहीं। 


रही बात मुसलमानों की तो इसमें संदेह नहीं कि मुसलमानों के एक भाग ने भारतीय संस्कृति को अपने दैनिक जीवन में काफ़ी हद तक आत्मसात किया है। ऐसे मुसलमान भारत के हर हिस्से में हिंदुओं के साथ सौहार्दपूर्ण वातावरण में जीवन यापन करते हैं। किंतु उनके धर्मांध नेता अपने राजनैतिक लाभ के लिए उन्हें गुमराह करके ऐसा वातावरण तैयार करते हैं जिससे बहुसंख्यक हिंदू समाज न सिर्फ़ असहज हो जाता है बल्कि उनकी ओर से आशंकित भी हो जाता है। हिंदू समाज की ये आशंका निर्मूल नहीं है। मध्य युग से आजतक इसके सैंकड़ों उदाहरण उपलब्ध हैं। ताज़ा उदाहरण अफ़ग़ानिस्तान के तालिबानों का है जिन्होंने सदियों से वहाँ रह रहे हिंदुओं और  सिक्खों को अपना वतन छोड़ने पर मजबूर कर दिया है। ऐसे में अब समय आ गया है कि शिक्षा, क़ानून और प्रशासन के मामले में देश के हर नागरिक पर एक सा नियम लागू हो। धार्मिक मामलों को समाज के निर्णयों पर छोड़ दिया जाए। उनमें दख़ल न दिया जाए। ऐसे में मुसलमानों के पढ़े-लिखे और समझदार लोगों को भी हिम्मत जुटा कर अपने समाज में सुधार लाने का काम करना चाहिए। जिससे उनकी व्यापक स्वीकार्यता बन सके । वैसे ही जैसे हिंदुत्व का झंडा उठाने वाले नेताओं और कार्यकर्ताओं को गम्भीरता से सनातन धर्म के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए, न कि उसमें घालमेल। तभी भारत अपनी 135 करोड़ जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप खड़ा हो सकेगा। 

Monday, June 14, 2021

योगी ही क्यों रहेंगे उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री ?


पिछले दिनों भाजपा के अंदर और लखनऊ में जो ड्रामा चला उससे लगा कि मोदी और योगी में तलवारें खिंच गईं हैं। मीडिया में अटकलों का बाज़ार गर्म था। पर जो अपेक्षित था वही हुआ। ये सारी नूरा कुश्ती थी, जिसमें न तो कोई जीता, न ही कोई हारा। योगी और मोदी एक थे और एक ही रहेंगे। इस बात का
  मुझे पहले से ही आभास था। 


इस आभास की ऐतिहासिक वजह है। 1990 के दशक में जब आडवाणी जी की राम रथ यात्रा के बाद भाजपा ऊपर उठना शुरू हुई तो भी ऐसी रणनीति बनाई गई थी। जनता की निगाह में आडवाणी जी और वाजपई जी के बीच टकराहट के खूब समाचार प्रकाशित हुए। हद्द तो तब हो गई जब भाजपा के महासचिव रहे गोविंदाचार्य ने सार्वजनिक बयान में अटल बिहारी वाजपई को भाजपा का ‘मुखौटा’ कह डाला। चूँकि गोविंदाचार्य को आडवाणी जी का ख़ास आदमी माना जाता था इसलिए ये मान लिया गया कि ये सब आडवाणी की शह पर हो रहा है। इस विवाद ने काफ़ी तूल पकड़ा। लेकिन योगी मोदी विवाद की तरह ये विवाद भी तब ठंडा पड़ गया और रहे वही ढाक के तीन पात। 



दरअसल उस माहौल में भाजपा का अपने बूते पर केंद्र में सरकार बनाना सम्भव न था। क्योंकि उसके सांसदों की संख्या 115 के नीचे थी। इसलिए इस लड़ाई का नाटक किया गया। जिससे आडवाणी जी तो हिंदू वोटों का ध्रुविकरण करें और अटल जी धर्मनिरपेक्ष वोटरों और राजनैतिक दलों को साधे रखें। जिससे मौक़े पर सरकार बनाने में कोई रुकावट न आए। यही हुआ भी। जैन हवाला कांड के विस्फोट के कारण राजनीति में आए तूफ़ान के बाद जब 1996 में केंद्र में भाजपा की पहली सरकार बनी तो उसे दो दर्जन दूसरे दलों का समर्थन हासिल था। ये तभी सम्भव हो सका जब संघ ने वाजपई की छवि धर्मनिरपेक्ष नेता के रूप में प्रस्तुत की। 


अब उत्तर प्रदेश पर आ जाइए। पिछले चार साल में संघ और भाजपा ने लगातार योगी को देश का सर्वश्रेष्ठ मुख्य मंत्री और प्रशासक बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जबकि हक़ीक़त यह है कि देश के कई राज्यों के मुख्य मंत्रियों का शासन उत्तर प्रदेश से कहीं बेहतर रहा है। ये सही है कि योगी महाराज पर व्यक्तिगत भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे किंतु उनके राज में पिछली सरकारों से ज़्यादा भ्रष्टाचार हुआ है। कितने ही बड़े घोटाले तो सप्रमाण हमारे कालचक्र समाचार ब्यूरो ने ही उजागर किए। पर उन पर आज तक कोई जाँच या कार्यवाही नहीं हुई। 


गोरखपुर में आक्सीजन की कमीं से सैंकड़ों बच्चों की मौत योगी शासन के प्रथम वर्ष में ही हो गई थी। कोविड काल में उत्तर प्रदेश शासन की नाकामी को हर ज़िले, हर गाँव और लगभग हर परिवार ने झेला और सरकार की उदासीनता और लापरवाही को जम कर कोसा। अपनी पीड़ा प्रकट करने वालों में आम आदमी से लेकर भाजपा के विधायक, सांसद, मंत्री और राज्य के वरिष्ठ आईएएस अधिकारी व न्यायाधीश भी शामिल हैं। जिन्होंने कोविड की दूसरी लहर में आक्सीजन, इंजेक्शन और अस्पताल के अभाव में बड़ी संख्या में अपने परिजनों को खोया है।

 

उत्तर प्रदेश में विकास के नाम पर जो लूट और पैसे की बर्बादी हो रही है, उसकी ओर तो कोई देखने वाला ही नहीं है। हम तो लिख लिख कर थक गये। मथुरा, काशी अयोध्या जैसी धर्म नगरियों तक को भी बख्शा नहीं गया है। यहाँ भी धाम सेवा के नाम पर निरर्थक परियोजनाओं पर पैसा पानी की तरह बहाया गया। प्रदेश में ना तो नए उद्योग लगे और न ही युवाओं को रोज़गार मिला। जिनके रोज़गार 2014 से पहले सलामत थे वे नोटबंदी और कोविड के चलते रातों रात बर्बाद हो गए।  


बावजूद इस सबके, उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार ने अपनी छवि सुधारने के लिए अरविंद केजरीवाल की तरह ही, आम जनता से वसूला कर का पैसा, सैंकड़ों करोड़ के विज्ञापनों पर खर्च कर दिया। इतना ही नहीं सरकार की कमियाँ उजागर करने वाले उच्च अधिकारियों और पत्रकारों तक को नहीं बख्शा गया। उन्हें बात बात पर शासन की ओर से धमकी दी गई या मुक़द्दमें दायर किए गए। भला हो सर्वोच्च न्यायालय का जिसने हाल ही में ये आदेश दिया कि सरकार की कमियाँ उजागर करना कोई अपराध नहीं है। हमारे संविधान और लोकतंत्र में पत्रकारों और समाजिक कार्यकर्ताओं को इसका अधिकार मिला हुआ है और यह लोकतंत्र कि सफलता के लिए आवश्यक भी है। बावजूद इसके जिस तरह मोदी जी का एक समर्पित भक्त समुदाय है, वैसे ही योगी जी का भी एक छोटा वर्ग समर्थक है। ये वो वर्ग है जो योगी जी की मुसलमान विरोधी नीतियों और कुछ कड़े कदमों का मुरीद है। इस वर्ग को विकास, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, महंगाई जैसे मुद्दे उतने महत्वपूर्ण नहीं लगते जितना की मुसलमानों को सबक सिखाना। मुख्य मंत्री योगी जी इस वर्ग के लोगों के हीरो हैं। संघ को उनकी यह छवि बहुत भाती है। क्योंकि इसमें चुनाव जीतने के बाद भी जनता को कुछ भी देने की ज़िम्मेदारी नहीं है। केवल एक माहौल बना कर रखने का काम है जिसे चुनाव के समय वोटों के रूप में भुनाया जा सके। 


यह सही है कि पूर्ववर्ती सरकारों के दौर में मुसलमानों ने अपने व्यवहार से ग़ैर मुसलमानों को आशंकित और उद्वेलित किया। चाहे ऐसा करके उन्हें कुछ ठोस न मिला हो, पर भाजपा को अपनी ताक़त बढ़ाने के लिए एक मुद्दा ज़रूर ऐसा मिल गया जिसमें ‘हींग लगे न फ़िटकरी, रंग चोखे का चोखा’। इसलिए उत्तर प्रदेश में 2022 का चुनाव योगी जी के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। चाहे परिणाम कुछ भी आएँ। 

Monday, June 7, 2021

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को सोचना चाहिए

भगवान बुद्ध ने एक चेतावनी दी थी की जब बौध संघों में भ्रष्टाचार आ जाएगा तो बुद्ध धर्म का पतन हो जाएगा और यही हुआ। कहावत है ‘संघे शक्ति कलियुगे’। कलयुग में संगठन में ही बल होता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) भी इसी सिद्धांत को लेकर चला है। इसकी आईटी टीम लगातार यह याद दिलाती है कि यह संगठन कितना विशाल है। कितने करोड़ स्वयंसेवक हैं। कितने सर्वोच्च पदों पर संघ के स्वयंसेवक पदासीन हैं, आदि। संघ हिंदू धर्म की रक्षा करने की भी बात करता है। एक बार वृंदावन के एक प्रतिष्ठित  संत, जिन्होंने 106 वर्ष की आयु में समाधि ली, उनसे मैंने पूछा कि संघ और भाजपा के इस दावे के विषय में उनका क्या मत है? स्वामी जी बोले, कोई संगठन या व्यक्ति धर्म की क्या रक्षा करेगा? धर्म ही हमारी रक्षा करता है। 

प्रश्न उठता है कि क्या सनातन धर्म पर, जिसे संघ हिंदू धर्म कहता है संघ या भाजपा का एकाधिकार है? यह असम्भव है। क्योंकि वैदिक काल से आज तक भारत में सभी दार्शनिक मतभेदों को सम्मान के साथ स्वीकार किया जाता रहा है। इसलिए चार्वाक से गौतम बुद्ध तक को इस परम्परा में समायोजित किया गया है। एक किताब, एक भगवान और एक नियम, ये मान्यता तो ईसाईयत या इस्लाम की है। जो भारतीय दार्शनिक परम्परा के बिलकुल विपरीत है। यहाँ तो तैंतीस करोड़ देवी देवता और दर्जनों सम्प्रदायों में बँटा हो कर भी सनातन धर्म की मूल धारा एक ही है। 



पर जिस तरह संघ की सोच और व्यवहार सामने आता है उसे देख कर यह चिंता होती है कि संघ भी इस्लाम या ईसाईयत से प्रतिस्पर्धा में उन्हीं के ढर्रे पर चल रहा है। वैसे तो संघ इन आयातित धर्मों के विरुद्ध कट्टरता सिखाता है और देशज धर्म को ही भारत का धर्म मानता है। पर व्यवहार में वो स्वयं भारत के सनातन हिंदू धर्म के विरुद्ध खड़ा दिखाई देता है। सनातन का अर्थ ही है जो कभी न बदला जाए।यही कारण है कि सदियों से सैंकड़ों हमले सह कर भी सनातन धर्म ज्यों का त्यों खड़ा रहा है। पर संघ के विचारक गुरु गोलवलकर जी ने अपनी पुस्तक में सनातन परम्पराओं और शास्त्रों को देश, काल और आवश्यकता के अनुरूप व्याख्या करने की वकालत की थी। जिसका कड़ा प्रतिवाद करते हुए भारत के सर्वाधिक सम्मानित रहे धर्म सम्राट स्वामी करपात्रि जी महाराज अपने ग्रंथ ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व हिंदू धर्म’ में लिखते हैं कि अगर इस तरह शास्त्रों की मनमाने ढंग से व्याख्या करने की छूट दी जाएगी तो फिर वो सनातन धर्म कहाँ रहा? फिर तो संघ के हर सरसंघचालक अपनी मान्यताओं को सनातन धर्म पर आरोपित कर उसे चूँ-चूँ का मुरब्बा बना देंगे। करपात्रि जी महाराज ने तो साफ़ लिखा है कि, ‘जिस हिंदुत्व को संघ स्थापित करना चाहता है उसका भारत के सनातन वैदिक धर्म से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है।’ अर्थात् संघ का हिंदुत्व भारत का दार्शनिक पक्ष न होकर केवल संघ की राजनैतिक महत्वाकांक्षा का वैचारिक प्रारूप है।


संघ के बड़े-बड़े अधिकारियों से भी वार्ता में यही पक्ष उजागर होता है। 2019 में सहकार्यवाह डा॰ कृष्ण गोपाल जी से मथुरा में मेरी लम्बी वार्ता हुई। जिसके बीच उन्होंने कहा कि राधा कोई नहीं थीं। ये तो ब्रजवासियों की कोरी कल्पना है। जिसका बाहर मज़ाक़ उड़ता है। प्रत्युत्तर में यह पूछने पर, ‘तो फिर आप राम मंदिर क्यों बनवा रहे हैं?’ वे बोले, उसे छोड़िए, वो दूसरा विषय है। 


पिछले कुछ वर्षों से हर चुनाव के पहले संघ का प्रचार तंत्र ऐसे निर्देश जारी करता है जिससे लगे कि वे लोग धर्म के प्रति गहरी आस्था रखते हैं। कभी निर्देश आता है कि आज राम नाम की माला जपो, कभी निर्देश आता है कि पीपल को जल चढ़ाओ, कभी आता है कि फ़लाँ त्योहार पर घर के बाहर इतने दीपक जलाओ। और तो और सदियों से प्रचलित सम्बोधन ‘राम-राम’ या ‘जय सिया राम’ की जगह ‘जय श्री राम’ कहने पर ज़ोर देते हैं। 


जबकि कोई भी आस्थावान धार्मिक परिवार अपने त्योहार कैसे मनाए इसका निर्णय उस परिवार की पीढ़ियों से चली आ रही परंपराओं के या उनके सम्प्रदाय के आचार्यों के या शास्त्रों में वर्णित निर्देशों के अनुसार होता है। संघ के कार्यकर्ता कब से धर्माचार्यों की श्रेणी में आ गए, जो एक तरफ़ तो राधा जी को कोरी कल्पना बताते हैं और दूसरी तरफ़ हमें इस तरह निर्देश देकर पूजा करने की विधि सिखाते हैं? साफ़ है कि संघ के नेतृत्व को सत्ता पाने में ही रुचि है और यह सारा प्रपंच सत्ता पाने तक ही सीमित रहता है। उसके बाद न तो धार्मिकता, न नैतिकता, न सिद्धांतों की कोई बात की जाती है। बात करना तो दूर उनको नकारने या उपेक्षा करने में भी संकोच नहीं होता। तो फिर ये लोग धर्म की बात ही क्यों करते हैं? खुलकर राजनैतिक दल के रूप में सामने क्यों नहीं आते? धर्म में राजनीति का और राजनीति में धर्म का यह घालमेल राष्ट्र और धर्म दोनों के लिए घातक है। इस पर हिंदुओं को भी गम्भीरता और विवेक से विचार करना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि ‘दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम’। 


गत 35 वर्षों से टीवी और प्रिंट पत्रकारिता के माध्यम से हिंदू धर्म से जुड़े हर सवाल पर मैं दृढ़ता से समर्थन में खड़ा रहा हूँ। बिना ये सोचे कि उस समय की सरकार इससे नाखुश होगी या इसके कारण मुझे क्या व्यावसायिक हानि होगी। पर दुःख होता है कि जब संघ का शीर्ष नेतृत्व धर्म और संस्कृति को लेकर पिछले चार वर्षों में मेरे द्वारा लगातार उठाए गए गम्भीर प्रश्नों पर रहस्यमयी चुप्पी सधे बैठा है। जिसके परिणाम स्वरूप धर्म के कार्यों में भी अनैतिकता और भ्रष्टाचार को खुला संरक्षण मिल रहा है। तो फिर मुसलमानों का डर दिखा कर हिंदुओं को वोटों के लिए एकजुट करने का उद्देश्य क्या केवल सत्ता पाकर अनैतिकता और भ्रष्टाचार को प्रश्रय देना ही हिंदू राष्ट्र माना जाएगा? ज़रा सोचें !   

Monday, May 24, 2021

जहाँ मुसलमान वहाँ हिंसा क्यों?


भारी दावों के विपरीत पश्चिम बंगाल का चुनाव बुरी तरह हारने के बाद बौखलाई भाजपा और उसकी ट्रोल आर्मी हाथ धो कर ममता सरकार के पीछे पड़े हैं। किसी तरह वहाँ राष्ट्रपति शासन लागू हो जाए तो फिर विधायकों को तोड़ने का काम आसानी से हो पाएगा। सारा बवाल बंगाल के मुसलमानों को लेकर है। आरोप है कि ममता बनर्जी की सरकार में
  मुसलमान हिंदुओं के साथ मार-काट कर रहे हैं। भाजपा का प्रचार तंत्र देश-विदेश में रात दिन अपने समर्थन में विडीओ  क्लिप सोशल मीडिया पर डाल रहा है। ये बता कर कि ये आज के हालत हैं। कल एक ऐसी ही विडीओ क्लिप मेरे पास आई जिसमें दिखाया था कि घायल सैनिक को उपचार के लिए ले जाती हुई फ़ौज की गाड़ियों तक को ये लोग अपने इलाक़े से नहीं गुजरने दे रहे। जीप पर नम्बर प्लेट बंगला भाषा में थी तो मैंने वो क्लिप कलकत्ता में अपने कुछ मित्रों को भेज कर उसकी हक़ीक़त जाननी चाही।जवाब आया कि न तो ये आज की क्लिप है और न ही पश्चिम बंगाल की। बल्कि यह क्लिप बांग्लादेश की है और बहुत पुरानी है। जिस ‘भक्त’ ने यह क्लिप मुझे भेजी थी जब उसे मैंने यह बताया तो उसका जवाब था कि मुसलमान तो हर जगह हिंसा ही करते हैं। इस बात का वो कोई जवाब नहीं दे सका कि बंगलादेश की क्लिप को पश्चिम बंगाल की बता कर यह ज़हर क्यों फैलाया जा रहा है? ऐसा नहीं है कि वहाँ हिंसा की वारदातें नहीं हुई हों। पर जितनी हाइप बनाई जा रही है, वैसा नहीं है।  


कुछ अप्रवासी भारतीय भी इस मुद्दे को लेकर उतने ही उत्तेजित हैं जितने महीनों तक सुशांत सिंह राजपूत की तथाकथित ‘हत्या’ को लेकर थे। सब एक ही रट लगा रहे हैं कि बंगाल के हिंदुओं का जीना मुहाल है। जबकि वहाँ के शहरों में अगर अपने सम्पर्कों से आप बात करें तो ऐसा कुछ भी समाचार नहीं मिलता। 



उधर दशकों से राज्यपाल केंद्र सरकार की कठपुतली की तरह काम करते आएँ हैं। राज्यपाल बनाया ही उन्हें जाता है जो अपनी संविधान प्रदत्त स्वायत्तता को दर किनार कर केंद्रीय सरकार के इशारे पर अनैतिकता और झूठ की हदें पार करने में संकोच न करे। इसमें कोई अपवाद नहीं है। कांग्रेस के राज में भी यही होता था और भाजपा के राज में भी यही हो रहा है। 


शपथग्रहण समारोह से शुरू करके आज तक पश्चिम बंगाल के राज्यपाल महामहिम जगदीप धनकड़ ममता सरकार पर सीधा हमला करने का कोई अवसर नहीं छोड़ रहे। कई बार तो उनकी भाव भंगिमा बहुत नाटकीय नज़र आती है। धनकड जी मेरे पुराने स्नेही हैं और सर्वोच्च न्यायालय के वकील रहे हैं। ये इत्तेफ़ाक ही है कि 1993 में जिस ‘जैन हवाला कांड’ को मैंने उजागर किया था, उसमें दुबई और लंदन से कश्मीर के आतंकवादियों को हवाला से आ रही आर्थिक मदद का एक अंश जगदीप धनकड जी को भी मिलने का आरोप था और वे हवाला कांड में चार्जशीट भी हुए थे। भाजपा और संघ के जो लोग मुसलमानों की हिंसक वृत्ति और भारत को इस्लामी देश बनाने का ख़तरा बता-बता कर हिंदू वोट बैंक को संगठित कर रहे हैं उनसे मेरा लगातार एक ही सवाल रहता है। कि जब इस्लामिक आतंकवाद के ख़िलाफ़ 1993 से लड़ाई लड़ी जा रही थी तो ये लोग एक ख़तरनाक खामोशी क्यों साधे बैठे थे ? 


संघ के संस्थापक डाक्टर केशव हेडगेवार जी कहा था कि परिवार के हित के लिए व्यक्ति का हित। समाज के हित के लिए संगठन का हित और राष्ट्र के हित के लिए अपने दल के हित को त्याग देना चाहिए। पर संघ और भाजपा ने तो तब उल्टा ही काम किया। अपने चंद नेताओं को बचाने में उन्होंने राष्ट्र के हित को बलिदान कर दिया। वरना ये  इस्लामिक आतंकवाद 27 बरस पहले ही नियंत्रित हो जाता। मेरे इन प्रश्नों का जवाब संघ और भाजपा के बड़े से बड़े नेता आजतक देने का नैतिक साहस नहीं दिखा पाए। पर आज वे इतिहास  से अनभिज्ञ और विवेकहीन अपने युवा समर्थकों से हर उस व्यक्ति को देशद्रोही कहलवाते हैं जो उनके ग़लत कामों पर ऊँगली उठाता है। तो बहुत दया आती है कि युवा कैसे मानसिक ग़ुलाम बन रहे हैं। इसलिए जरूरी है कि हर नागरिक मीडिया के झूठ  से बच कर हर परिस्थिति का निष्पक्ष मूल्यांकन करे।


यहाँ मुझे यह कहने में भी कोई संकोच नहीं है कि वर्तमान समय में जहां-जहां मुसलमान बहुसंख्यक हैं वहाँ वहाँ अशांति है, हिंसा है, अल्पसंख्यकों की उपेक्षा या दमन है। जिस तरह कश्मीर, असम, प.बंगाल के अलावा अन्य प्रांतों में भी अपनी बढ़ती जनसंख्या के बल पर मुसलमानों ने राजनीति में अपना दबदबा बढ़ाया है वहाँ-वहाँ हिंदू उनके आक्रामक व्यवहार से उत्तेजित हुआ है। जब सेकूलर मीडिया कश्मीर के हिंदुओं पर हुए अत्याचार को नहीं दिखाता और  उनके समर्थन में उतने ही ज़ोर शोर से आवाज़ नहीं उठाता जैसी मुसलमानों के लिए उठाता रहा है, तब मजबूरन  हिंदुओं को भाजपा की छत्र-छाया में जाना पड़ता है। फिर भी बंगाल की आधी हिंदू आबादी ने भाजपा को वोट नहीं दिया। 


मुसलमानों की शिकायत है कि उनके प्रति पक्षपात का आरोप ग़लत है। जिसके प्रमाण में वे अपने समाज के पिछड़ेपन और सेना या प्रशासन में अपनी नगण्य उपस्थिति का हवाला देते हैं। इसके कई सामाजिक कारण भी हैं जिन पर अलग से चर्चा की जा सकती है। पर यह तो स्पष्ट है कि किसी भी सार्वजनिक जगह पर, यहाँ तक कि भारी ट्राफ़िक वाली सड़कों पर भी मुसलमान अपना मुसल्ला बिछा कर नमाज़ पढ़ने लग जाते हैं। जिससे आम जन जीवन में व्यवधान पैदा होता है और अन्य धर्मावलम्बियों में आक्रोश। सरकार के मंत्रियों और राज्यपालों द्वारा इफ़्तार की दावतें देना, जबकि दिवाली, वैसाखि, गुरूपूरब, पोंगल आदि जैसे अन्य धर्मों के त्योहारों पर ऐसा कोई आयोजन नहीं करना या हज यात्रा पर जाने वालों को सब्सिडी देना, कुछ ऐसे काम होते रहे हैं जिनसे हर हिंदू उत्तेजित हुआ है। 


इसलिये समझदार और पढ़े लिखे मुसलमानों को समाज में पारस्परिक सौहार्द का वातावरण तैयार करने की सक्रिय पहल करनी चाहिए। अन्यथा दोनों पक्षों की साम्प्रदायिक ताक़तें राष्ट्र को तबाह कर देगी। 


यही बात मैं संघ और भाजपा के नेतृत्व से भी कहना चाहता हूँ। आप किस हिंदू राष्ट्र की बात करते हैं? हज़ारों साल से हिंदू धर्म की ध्वजा को चारों पीठों के शंकराचार्यों ने वहन कर समाज को दिशा दी है। सनातन धर्म के स्थापित सम्प्रदायों जैसे श्री, रुद्र, ब्रह्म और कुमार सम्प्रदाय और इनकी शाखाओं में एक से बढ़ कर एक ज्ञानी, प्रतिष्ठित और सिद्ध संत हुए हैं और आज भी हैं। इनके अलावा मध्य-युग के भक्ति क़ालीन संत जैसे गुरु नानक देव, मीराबाई, तुलसीदास, सूरदास, रसखान, रहीम, कबीर, चैतन्य महाप्रभु, नामदेव, तुकाराम और अलवर जैसे महान संतों को छोड़ कर आप लोग पैसे, प्रचार और सत्ता के पीछे भागने वाले आत्मघोषित सदगुरुओं को, जो यशोदा मईया को भगवान कृष्ण की प्रेयसी बताने की धृष्टता करते हैं, क्यों हिंदू समाज पर थोपने पर तुले हैं ? इनसे हिंदुत्व का भला नहीं हो रहा बल्कि उसकी जड़ों में छाछ डालने का काम हो रहा है। आप लोगों को भी अपना मूल्यांकन करना चाहिए। क्योंकि ऐसे तमाम उदाहरण दिए जा सकते हैं हैं जिनसे सिद्ध होता है कि सत्ता के लालच में आप सनातन धर्म के स्थापित सिद्धांतों और मान्यताओं की बार-बार उपेक्षा कर रहे हैं और एक ‘सिन्थेटिक हिंदुत्व’ हम हिंदुओं पर थोपने की दुर्भाग्यपूर्ण कोशिश कर रहे हैं। इससे किसी का भला नहीं होगा न हिंदू समाज का  न राष्ट्र का।

Monday, July 9, 2018

धर्मस्थलों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की अच्छी पहल

पिछले हफ्ते सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने जगन्नाथ जी मंदिर के प्रवेश के नियमों की समीक्षा के दौरान पूरे देश के जिला जजों को एक अनूठा निर्देश दिया। उनसे कहा गया है कि उनके जिले में जो भी धर्मस्थल, चाहें किसी धर्म के हों, अगर अपनी व्यवस्था भक्तों के हित में ठीक से नहीं कर रहे या अपनी आय-व्यय का ब्यौरा पारदर्शिता से नहीं रख रहे या इस आय को भक्तों की सुविधाओं पर नहीं खर्च कर रहे, तो उनकी सूची बनाकर अपने राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों के माध्यम से 31 अगस्त 2018 तक सर्वोच्च न्यायालय को भेजें।
इस पहल से यह स्पष्ट है कि सर्वोच्च न्यायालय का ध्यान धर्मस्थलों में हो रही भारी अव्यवस्थाओं और चढावे के धन के गबन की तरफ गया है। अभी सुधार के लिए कोई आदेश जारी नहीं हुए हैं। लेकिन सुझाव मांगे गये हैं। ये एक अच्छी पहल है। समाज के हर अंग की तरह धार्मिक संस्थाओं का भी पतन बहुत तेजी हुआ है। अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए धर्मस्थलों पर आने वाले धर्मावलंबियों की भीड़ लगातार बढ़ रही है। हर श्रद्धालु अपनी हैसियत से ज्यादा दान भी देता है। इससे ज्यादातर धर्मस्थलों की आय में तेजी से इजाफा हुआ है। पर दूसरी तरफ देखने में ये आता है कि दान के इस पैसे को भक्तों की सुविधा विस्तार के लिए नहीं खर्च किया जाता बल्कि उस धर्मस्थल के संचालकों के निजी उपभोग के लिए रख लिया जाता है।

जबकि होना यह चाहिए कि एक निर्धारित सीमा तक ही इस चढ़ावे का हिस्सा सेवायतों या खिदमदगारों को मिले। शेष भवन के रखरखाव और श्रद्धालुओं की सुविधाओं पर खर्च हो। मौजूदा व्यवस्थाओं में चढ़ावे के पैसे को लेकर काफी विवाद समाने आते रहते हैं। मुकदमेबाजियां भी खूब होती हैं। जनसुविधाओं का प्रायः अभाव रहता है। आय-व्यय की कोई पारदर्शी व्यवस्था नहीं है। इन स्थानों की प्रशासनिक व्यवस्था भी बहुत ढुलमुल होती है, जिससे विवाद होते रहते हैं। अच्छा हो कि सर्वोच्च न्यायालय सभी धर्मस्थलों के लिए एक सी प्रशासनिक व्यवस्था की नियमावली बना दे और आय-व्यय पारदर्शिता के साथ संचालित करने के नियम बना दे। जिससे काफी हद तक व्यवस्थाओं में सुधार आ जायेगा।
यहां कुछ सावधनियां बरतने की जरूरत होगी। सरकारें या उनके द्वारा बनाये गए बोर्ड इन धर्मस्थलों के अधिग्रहण के हकदार न हों। क्योंकि फिर भ्रष्ट नौकरशाही अनावश्यक दखलअंदाजी करेगी। वीआईपी संस्कृति बढेगी और भक्तों की भावनाओं को ठेस लगेगी। बेहतर होगा कि हर धर्मस्थल की प्रशासनिक व्यवस्था में दो चुने हुए प्रतिनिधि सेवायतों या खिदमदगारों के हों, छह प्रतिनिधि पिछले वित्तिय वर्ष में उस धर्मस्थल को सबसे ज्यादा दान देने वाले हों। दो प्रतिनिधिः जिला अधिकारी व जिला अधीक्षक हों और दो प्रमुख व्यक्ति, जो उस धर्मस्थल के प्रति आस्थावान हो और जिसके सद्कार्यों की उस जिले में प्रतिष्ठा हो, उन्हें बाकी के सदस्य की सामूहिक राय से मनोनीत किया जाए। इस तरह एक संतुलित प्रशासिक व्यवस्था की स्थापना होगी। जो सबके कल्याण का कार्य करेगी।
यहां एक सावधानी और भी बरतनी होगी। यह प्रशासनिक समिति कोई भी कार्य ऐसा न करे, जिससे उस धर्मस्थल की परंपराओं, आस्थाओं और भक्तों की भावनाओं ठेस लगे। हर धर्मस्थल पर भीड़ नियंत्रण, सुरक्षा निगरानी, स्वयंसेवक सहायता, शुद्ध पेयजल व शौचालय, गरीबों के लिए सस्ता या निशुल्क भोजन उपलब्ध हो सके, यह प्रयास किया जाना चाहिए। इसके साथ ही अगर उस धर्मस्थल की आय आवश्यक्ता से बहुत अधिक है, तो इस आय से उस जिले के समानधर्मी स्थलों के रखरखाव की भी व्यवस्था की जा सकती है। जिन धर्मस्थलों की आय बहुत अधिक है, वे शिक्षा, स्वास्थ्य व अन्य जनसेवाओं में महत्वपूर्णं योगदान कर सकते हैं और कर भी रहे हैं।
जब सर्वोच्च न्यायालय ने यह पहल कर ही दी है। तो हर जिले के जागरूक नागरिकों का यह कर्तव्य बनता है कि वे अपने जिले के, अपने धर्म के स्थलों, का निष्पक्षता से सर्वेक्षण करे और उनकी कमियां और सुधार के सुझाव यथाशीघ्र बाकायदा लिखकर जिला जज के पास जमा करवा दें। जिससे हर जिले के जजों को इनको व्यवस्थित करके अपने प्रांत के मुख्य न्यायाधीश को समय रहते भेजने में सुविधा हो। जो नौजवान कम्प्यूटर साइंस के विशेषज्ञ हैं, उन्हें इस पूरे अभियान को समुचित टैंपलेट बनाकर व्यवस्थित करना चाहिए। जिससे न्यायपालिका बिना मकड़जाल में उलझे आसानी से सभी बिंदुओं पर विचार कर सके।अगर इस अभियान में हर धर्म के मानने वाले बिना राग द्वेष के उत्साह से सक्रिय हो जाऐ, तो इस क्षेत्र में आ रही कुरीतियों पर रोक लग सकेगी। जो भारत जैसे धर्मप्रधान देश के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी साधुवाद के पात्र हैं जिन्होंने यह पहल की है। आशा है ये किसी ठोस अंजाम तक पहुचेगी।

Monday, May 14, 2018

सड़कों पर नमाज क्यों नहीं?

धर्म आस्था और आत्मोत्थान का माध्यम होता है। इसका प्रदर्शन यदि उत्सव के रूप में किया जाए, तो वह एक सामाजिक-सांस्कृतिक घटना मानी जाती है। जिसका सभी आनंद लेते हैं। चाहे विधर्मी ही क्यों न हों। दीपावली, ईद, होली, वैशाखी, क्रिसमस, पोंगल, संक्राति व नवरोज आदि ऐसे उत्सव हैं, जिनमें दूसरे धर्मों के मानने वाले भी उत्साह से भाग लेते हैं। अपने-अपने धर्मों की शोभा यात्राऐं निकालना, पंडाल लगाकर सत्संग या प्रवचन करवाना, नगरकीर्तन करना या मोहर्रम के ताजिये निकालना, कुछ ऐसे धार्मिक कृत्य हैं, जिन पर किसी को आपत्ति नहीं होती या नहीं होनी चाहिए। बशर्ते की इन्हें मयार्दित रूप में, बिना किसी को कष्ट पहुंचाऐ, आयोजित  किया जाए।
किंतु हर शुक्रवार को सड़कों, बगीचों, बाजारों, सरकारी दफ्तरों, हवाई अड्डों और रेलवे स्टेशनों जैसे सार्वजनिक स्थलों पर मुसल्ला  बिछाकर नमाज पढ़ने की जो प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, उससे आम नागरिकों को बहुत तकलीफ होती है। यातायात अवरूद्ध हो जाता है। पुलिस, एम्बुलेंस और फायर बिग्रेड की गाडियां अटक जाती है। जिससे आपातकालीन सेवाओं में बाधा पहुंचती है। इस तरह बड़ी संख्या में एक साथ बैठकर मस्जिद के बाहर नमाज पढ़ने से रूहानियत नहीं फैलती, बल्कि एक नकारात्मक राजनैतिक संदेश जाता है। जो धर्म का कम और ताकत का प्रदर्शन ज्यादा करता है। जाहिर है कि इससे अन्य धर्मावलंबयों में उत्तेजना फैलती है। ऐसी घटना साल में एक आध  बार किसी पर्व हो, तो शायद किसी को बुरा न लगे। पर हर जुम्मे की नमाज इसी तरह पढ़ना, दूसरे धर्मावलंबियों  को स्वीकार नहीं है।
बहुत वर्ष पहले इस प्रवृत्ति का विरोध मुबंई में शिव सेना ने बड़े तार्किक रूप से किया था। मुबंई एक सीधी लाईन वाला शहर है। जिसे अंग्रेजी में ‘लीनियर सिटी’ कहते हैं। उत्तर से दक्षिण मुबंई तक एक सीधी सड़क के दोनों ओर तमाम उपनगर और नगर बसा है। ऐसे में मुबंई की धमनियों में रक्त बहता रहे, यह तभी संभव है, जब इस सीधी सड़क के यातायात में कोई रूकावट न हो। लगभग दो दशक पहले की बात है, मुबंई के मुसलमान भाईयों ने मस्जिदों के बाहर मुसल्ले बिछाकर हर जुम्मे को नमाज पढ़ना शुरू कर दिया। जाहिर है इससे यातायात अवरूद्ध हो गया। आम जनता में इसका विरोद्ध हुआ। शिव सैनिक इस मामले को लेकर बाला साहिब ठाकरे के पास गये। बाला साहिब ने हिंदुओं को आदेश दिया कि वे हर मंदिर के बाहर तक खड़े होकर प्रतिदिन सुबह और शाम की आरती करें। जुम्मे की नमाज तो हफ्ते में एक दिन होती थी। अब ये आरती तो दिन में दो बार होने लगी। व्यवस्था करने में मुबंई पुलिस के हाथ पांव फूल गये। नतीजतन मुबंई के पुलिस आयुक्त ने दोनों धर्मों के नेताओं की मीटिंग बुलाई। पूरे सद्भाव के साथ ये सामूहिक फैसला हुआ कि न तो मुसलमान सड़क पर नमाज पढेंगे और न हिंदू सड़क पर आरती करेंगे। दोनों धर्मावलंबी आज तक अपने फैसले पर कायम हैं।
अब देश की ताजा स्थिति पर गौर कर लें। गत दिनों भाजपा व सहयोगी संगठनों के कार्यकर्ताओं ने  देश में कई जगह सड़कों पर नमाज का खुलकर विरोध किया। नतीजा ये हुआ कि हरियाणा सरकार ने मस्जिदों के बाहर नमाज पढ़ने पर पाबंदी लगा दी। इसका असर आसपास के राज्यों में भी हुआ। 11 मई को शुक्रवार था, आमतौर पर दिल्ली की कई मस्जिदों के बाहर दूर तक नमाजी फैल जाया करते थे। पर इस बार ऐसा नहीं हुआ। लोगों ने राहत की सांस ली।
एक साथी पत्रकार ने मुझसे प्रश्न किया कि आप तो आस्थावान व्यक्ति हैं। क्या आप सड़कों पर नमाज पढ़ने को उचित मानते हैं? मेरा उत्तर था-बिल्कुल नहीं। इस पर वे उछल पड़े और बोले कि जिस हिंदू से भी यह प्रश्न पूछ रहा हूं, उसका उत्तर यही है। इसका मतलब मोदी व अमित शाह का चुनावी ऐजेंडा तय हो गया। मैने पूछा- कैसे? तो उनका उत्तर था- भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों ने सड़कों पर नमाज का विरोध शुरू ही इसलिए किया है कि इससे हिंदू और मुसलमानों का राजनैतिक धु्रवीकरण हो जाए और भाजपा को, विशेषकर उत्तर भारत में, हिंदू मत हासिल करना सुगम हो जाए। अब भाजपा वाले अगले लोक सभा चुनाव तक ऐसे ही मुद्दे उछालते रहेंगे। जैसे तिरंगा ले जाकर मुसलमान के मौहल्लों में पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाना, अलीगढ मुस्लिम विद्यालय से जिन्ना का चित्र हटवाना आदि। जिससे लगातार हिंदू मत एकजुट होते जाए। उन पत्रकार महोदय का यह मूल्यांकन सही हो सकता है। राजनीति में चुनाव जीतने के लिए नऐे-नऐ मुद्दे खोजने का काम हर दल करता है। इसमें कुछ गलत नहीं। अब ये तो मतदाता के विवेक पर है कि वह अपना मत प्रयोग करने से पहले किसी राजनैतिक दल का आंकलन किस आधार पर करता है। केवल भावना के आधार पर या उसके द्वारा विकास कर पाने की संभावनाओं के आधार पर।
चुनावी बहस को छोड़ दें, तो भी यह प्रश्न महत्वपूर्णं है कि धर्म का इस तरह राजनैतिक प्रयोग कहां तक उचित है। चाहे वो कोई भी धर्म को मानने वाला कहे। इसमें संदेह नहीं है कि अल्पसंख्यकों ने राजनैतिक दलों का मोहरा बनकर, अपने आचरण से लगातार, दूसरे धर्मावलंबियों को उत्तेजित किया है। चाहे फिर वो समान नागरिक कानून की बात हो, मदरसों में धार्मिक शिक्षा और राजनैतिक प्रवचनों की बात हो या फिर सड़क पर जुम्मे की नमाज पढ़ने की बात हो। कुछ लोग मानते हैं कि हिंदूवादियों का वर्तमान आक्रोश उनकी सदियों की संचित कुंठा का परिणाम है। दूसरे ऐसा मानते हैं कि अपनी राजनीति के लिए भाजपा इसे नाहक तूल दे रही है। पर हमारे जैसे निष्पक्ष नागरिक को फिर वो चाहे हिंदू हो, मुसलमान हो, सिक्ख हो, पारसी हो, जो भी हो, उसे सोचना चाहिए कि धर्म की उसके जीवन में क्या सार्थकता है? अगर धर्म के अनुसार आचरण करने से उसके परिवार में सुख, शांति और रूहानियत आती है, तो धर्म उसके लिए आभूषण है। पर अगर धर्म के ठेकेदारों, चाहे वे किसी धर्म के हो, के ईशारो पर नाचकर हम अविवेकपूर्णं व्यवहार करते हैं, तो वह तथाकथित धर्म हमारे लिए समाजिक वैमनस्य का कारण बन जाता है। जिससे हमें बचना है। भारत में सदियों से सभी धर्म पनपते रहे हैं। अगर हम पारस्परिक सम्मान और सहयोग की भावना नहीं रखेंगे, तो समाज खंड-खंड हो जायेगा, अशांति और वैमनस्य बढ़ेगा और विकास अवरूद्ध हो जाऐगा।

Monday, August 3, 2015

हिंदू संस्कृति से इतना परहेज क्यों ?


याकूब मेमन की फांसी के बाद सुना है 25 हजार लोग उसके जनाजे में गए। ये वो लोग थे, जिनके शहर के वाशिंदों को 22 बरस पहले याकूब मेमन और उसके साथियों ने बिना वजह मौत के घाट उतार दिया था। दो-चार नहीं, दस-बीस नहीं, सैकड़ों लोगों के चिथड़े उड़ गए। उनमें हिंदू भी थे, मुसलमान भी थे, पारसी भी थे और दूसरे मजहब के लोग भी। इनका कोई कसूर नहीं था। बस, मुल्क के दुश्मनों, दहशतगर्दों और तस्करों ने ठान लिया कि हिंदुस्तान की हुकूमत को एक झटका देना है और इस तरह 1993 में मुंबई शहर में एक साथ दर्जनों जगह ब्लास्ट हुए। 
फिर भी इन हमलों के लिए दोषी याकूब मेनन की फांसी रूकवाने के लिए हिंदुस्तान के कई मशहूर लोगों ने तूफान खड़ा कर दिया। यहां तक कि सर्वोच्च अदालत को भी सुबह 3 बजे तक अदालत चलानी पड़ी। अपने को धर्मनिरपेक्ष मानने वाले लोग याकूब मेमन की तरफदारी में सिर्फ इसलिए कूद पड़े कि उन्हें मुसलमानों की सहानुभूति मिले या उनके वोट मिले। वैसे, हकीकत यह भी है कि इस तरह का बबेला मचाने वालों को खाड़ी के देशों से मोटी रकम पेशगी दी जाती है। जिससे वो अखबारों, टीवी चैनलों और दूसरे मंचों पर उन सवालों को उठाए, जिनके लिए उन्हें विदेशी हुकूमत पैसा देती है। ये बात बार-बार उठी कि जब सरबजीत जैसे किसी हिंदू या सिक्ख को पाकिस्तान में फांसी दी जाती है, तब इन धर्मनिरपेक्षवादियों का खून क्यों नहीं खोलता ? अगर यह लोग वास्तव में धर्मनिरपेक्ष हैं, तो इन्हें कश्मीर की घाटी से आतंकित करके निकाले गए हिंदूओं के लिए भी ऐसे ही चिल्लाना चाहिए था, पर, ये चुप रहे। 
    आज देश में बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं व मीडियाकर्मियों जैसे शोर मचाने वाले लोग दो खेमों में बंटे हैं। एक तरफ वे लोग हैं, जो धर्मनिरपेक्षता का झंडा उठाकर आजाद भारत में 1947 से अपनी रोटियां सेंक रहे हैं, दूसरी तरफ वे लोग हैं, जिन्हें भारत की सनातन सांस्कृतिक पहचान को लेकर भारी उत्तेजना है। इन्हें लगता है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जो सरकार बनी है, वो देश की अस्मिता और सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाएगी। पहले की तरह बहुसंख्यक समाज की भावनाओं और उनके मुद्दों को सांप्रदायिक कहकर दबाने की कोशिश नहीं करेगी। इसलिए लोगों में कुछ ज्यादा उत्साह है। इसमें मुश्किल तो हम जैसे लोगों की है। न तो हम धर्मनिरपेक्षवादियों की तरह खुद को हिंदू कहने से बचते हैं और न ही ‘गर्व से कहो कि हम हिंदू हैं’ कहने वालों की हर बात से सहमत हैं। हम तो वो कहते हैं, जो समाज के हित में हमें ठीक लगता है। इसलिए हमें सारे मुसलमान गद्दार नजर नहीं आते और हिंदू धर्म के सारे झंडाबरदार हमें हिंदू संस्कृति के रक्षक नहीं लगते। धर्म का व्यापार उधर भी खूब चमकता है और इधर भी खूब चमकता है। इसलिए लोगों को आध्यात्मिक ज्ञान देने की बजाय धर्म के ठेकेदार दूसरे धर्म वालों को दुश्मन बताकर अपना उल्लू सीधा करते हैं और सांप्रदायिकता भड़काते हैं। 
     पर, ऐसा नहीं है कि हर व्यक्ति इन खेमों में ही बंटा हो। आज ही वाट्सअप पर मैंने एक पाकिस्तानी विद्वान का इंटरव्यू देखा, जो स्वयं कनाडा में रहते हैं। पर उनकी ससुराल भारत के गुजरात प्रांत में है। ये सज्जन कह रहे थे कि पाकिस्तान के मुसलमान और हिंदुस्तान के मुसलमान अशिक्षा के कारण कठमुल्लों के पीछे चलकर अपना बेड़ागर्क कर रहे हैं। जबकि हिंदू धर्म इतना विशाल हृदय है कि उनके हर शहर में आप 4 बजे लाउडस्पीकर पर अजान लगाकर पूरे शहर को जगाते हैं, फिर भी वे विरोध नहीं करते। जबकि उनका कहना था कि ऐसी जुर्रत अगर पाकिस्तान के किसी शहर में कोई हिंदू कर बैठे, तो उसे मार-मार कर खत्म कर दिया जाएगा और शहर में दंगा हो जाएगा। उनका कहना था कि कश्मीर पर हमारा कोई हक नहीं है। अगर ऐतिहासिक हक की बात करें, तो लाहौर जैसे शहर, जिन्हें भगवान राम के पुत्रों ने बसाया था, को वापिस लेने की मांग भारत भी कर सकता है। पर, ये वाहियात ख्याल है। उन्होंने तो यहां तक कहा कि सिंधु नदी के इस पार रहने वाला हर आदमी हिंदुस्तानी है। चाहे वह पाकिस्तान में रहता हो, चाहे बांग्लादेश में। उनका यह जुमला तो मुझे बहुत ही जोरदार लगा कि ‘हमारे मुसलमान भाई बड़े भाई का कुर्ता और छोटे भाई का पाजामा पहनकर अपनी पहचान अलग रखते हैं और कार्टून नजर आते हैं।’ उनका मानना था कि हिंदुस्तान की पुरानी तहजीब हम सबकी जिंदगी का इतिहास है और उसे संजीदगी से समझना और उसका सम्मान करना चाहिए। अब ऐसी बात कोई मुसलमान भारत में क्यों नहीं करता, वह भी मीडिया पर। क्योंकि उसे डर है कि कोई कठमुल्ला फतवा जारी करके उसकी जान खतरे में डाल सकता है। इसलिए वह चुप रह जाने में ही अपनी भलाई समझता है। जिसका फायदा ऐसे धर्मांध छुठभइये नेता उठा लेते हैं, जो आवाम को लगातार हिंदूओं के खिलाफ भड़काकर समाज में वैमनस्यता और घृणा पैदा करते हैं। 
     हकीकत यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप में रहने वाले किसी भी मुसलमान को खाड़ी के देशों में इज्जत की नजर से नहीं देखा जाता। उनका अलग नाम रख दिया गया है। फिर भी ये मुसलमान अपनी पहचान खाड़ी के देशों से जोड़ना चाहते हैं। अगर वे भारत के बहुसंख्यक हिंदू समाज की भावनाओं का सम्मान करना सीख लें, तो वे पाकिस्तान के मुसलमानों से कहीं ज्यादा आगे निकल जाएंगे। इसी तरह जरूरत इस बात की है कि हल्ला मचाने वाले धर्मनिरपेक्षता का सही मतलब समझें और समाज के हित में लिखते और बोलते वक्त ये ध्यान रखें कि धर्मनिरपेक्षता का मतलब अल्पसंख्यकवाद नहीं है। 

Monday, June 22, 2015

बहुसंख्यक मुसलमान आक्रामक क्यों हो जाते हैं

 धर्मांधता किसी की भी हो, हिंदू, सिक्ख, मुसलमान या ईसाई, मानवता के लिए खतरा होती है। जिस-जिस धर्म को राजसत्ता के साथ जोड़ा, वही धर्म जनविरोधी अत्याचारी और हिंसक बन गया। गत दो-तीन दशकों से इस्लाम धर्म के मानने वालों की हिंसक गतिविधियां पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द बनी हुई हैं। 2005 में समाजशास्त्री डा.पीटर हैमण्ड ने गहरे शोध के बाद इस्लाम धर्म के मानने वालों की दुनियाभर में प्रवृत्ति पर एक पुस्तक लिखी, जिसका शीर्षक है ‘स्लेवरी, टेररिज्म एण्ड इस्लाम - द हिस्टोरिकल रूट्स एण्ड कण्टेम्पररी थ्रेट’। इसके साथ ही द हज के लेखक लियोन यूरिस ने भी इस विषय पर अपनी पुस्तक में विस्तार से प्रकाश डाला है। जो तथ्य निकलकर आए हैं, वह न सिर्फ चैंकाने वाले हैं, बल्कि चिंताजनक हैं।

 उपरोक्त शोध ग्रंथों के अनुसार जब तक मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश-प्रदेश क्षेत्र में लगभग 2 प्रतिशत के आसपास होती है, तब वे एकदम शांतिप्रिय, कानूनपसंद अल्पसंख्यक बनकर रहते हैं और किसी को विशेष शिकायत का मौका नहीं देते। जैसे अमेरिका में वे (0.6 प्रतिशत) हैं, ऑस्ट्रेलिया में 1.5 प्रतिशत, कनाडा में 1.9 प्रतिशत, चीन में 1.8 प्रतिशत, इटली में 1.5 प्रतिशत और नॉर्वे में मुसलमानों की संख्या 1.8 प्रतिशत है। इसलिए यहां मुसलमानों से किसी को कोई परेशानी नहीं है।
 जब मुसलमानों की जनसंख्या 2 प्रतिशत से 5 प्रतिशत के बीच तक पहुँच जाती है, तब वे अन्य धर्मावलम्बियों में अपना धर्मप्रचार शुरु कर देते हैं। जैसा कि डेनमार्क में उनकी संख्या 2 प्रतिशत है, जर्मनी में 3.7 प्रतिशत, ब्रिटेन में 2.7 प्रतिशत, स्पेन मे 4 प्रतिशत और थाईलैण्ड में 4.6 प्रतिशत मुसलमान हैं।
 जब मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश या क्षेत्र में 5 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब वे अपने अनुपात के हिसाब से अन्य धर्मावलम्बियों पर दबाव बढ़ाने लगते हैं और अपना प्रभाव जमाने की कोशिश करने लगते हैं। उदाहरण के लिये वे सरकारों और शॉपिंग मॉल पर ‘हलाल’ का मांस रखने का दबाव बनाने लगते हैं, वे कहते हैं कि ‘हलाल’ का माँस न खाने से उनकी धार्मिक मान्यतायें प्रभावित होती हैं। इस कदम से कई पश्चिमी देशों में खाद्य वस्तुओं के बाजार में मुसलमानों की तगड़ी पैठ बन गई है। उन्होंने कई देशों के सुपरमार्केट के मालिकों पर दबाव डालकर उनके यहाँ ‘हलाल’ का माँस रखने को बाध्य किया। दुकानदार भी धंधे को देखते हुए उनका कहा मान लेते हैं। इस तरह अधिक जनसंख्या होने का फैक्टर यहाँ से मजबूत होना शुरु हो जाता है। जिन देशों में ऐसा हो चुका वह है, वे फ्रांस, फिलीपीन्स, स्वीडन, स्विट्जरलैंड, नीदरलैंड, त्रिनिदाद और टोबैगो हैं। इन देशों में मुसलमानों की संख्या क्रमश: 5 से 8 फीसदी तक है। इस स्थिति पर पहुंचकर मुसलमान उन देशों की सरकारों पर यह दबाव बनाने लगते हैं कि उन्हें उनके क्षेत्रों में शरीयत कानून (इस्लामिक कानून) के मुताबिक चलने दिया जाये। दरअसल, उनका अंतिम लक्ष्य तो यही है कि समूचा विश्व शरीयत कानून के हिसाब से चले। जब मुस्लिम जनसंख्या किसी देश में 10 प्रतिशत से अधिक हो जाती है, तब वे उस देश, प्रदेश, राज्य, क्षेत्र विशेष में कानून-व्यवस्था के लिये परेशानी पैदा करना शुरु कर देते हैं, शिकायतें करना शुरु कर देते हैं, उनकी ‘आर्थिक परिस्थिति’ का रोना लेकर बैठ जाते हैं, छोटी-छोटी बातों को सहिष्णुता से लेने की बजाय दंगे, तोड़फोड़ आदि पर उतर आते हैं, चाहे वह फ्रांस के दंगे हों, डेनमार्क का कार्टून विवाद हो, या फिर एम्स्टर्डम में कारों का जलाना हो, हरेक विवाद को समझबूझ, बातचीत से खत्म करने की बजाय खामख्वाह और गहरा किया जाता है। ऐसा गुयाना (मुसलमान 10 फीसदी), इजराइल (16 फीसदी), केन्या (11 फीसदी), रूस (15 फीसदी) में हो चुका है।
 जब किसी क्षेत्र में मुसलमानों की संख्या 20 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है तब विभिन्न ‘सैनिक शाखायें’ जेहाद के नारे लगाने लगती हैं, असहिष्णुता और धार्मिक हत्याओं का दौर शुरु हो जाता है, जैसा इथियोपिया (मुसलमान 32.8 फीसदी) और भारत (मुसलमान 22 फीसदी) में अक्सर देखा जाता है। मुसलमानों की जनसंख्या के 40 प्रतिशत के स्तर से ऊपर पहुँच जाने पर बड़ी संख्या में सामूहिक हत्याऐं, आतंकवादी कार्रवाईयाँ आदि चलने लगती हैं। जैसा बोस्निया (मुसलमान 40 फीसदी), चाड (मुसलमान 54.2 फीसदी)  और लेबनान (मुसलमान 59 फीसदी) में देखा गया है। शोधकर्ता और लेखक डॉ पीटर हैमण्ड बताते हैं कि जब किसी देश में मुसलमानों की जनसंख्या 60 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब अन्य धर्मावलंबियों का ‘जातीय सफाया’ शुरु किया जाता है (उदाहरण भारत का कश्मीर), जबरिया मुस्लिम बनाना, अन्य धर्मों के धार्मिक स्थल तोड़ना, जजिया जैसा कोई अन्य कर वसूलना आदि किया जाता है। जैसे अल्बानिया (मुसलमान 70 फीसदी), कतर (मुसलमान 78 प्रतिशत) व सूडान (मुसलमान 75 फीसदी) में देखा गया है।
 किसी देश में जब मुसलमान बाकी आबादी का 80 फीसदी हो जाते हैं, तो उस देश में सत्ता या शासन प्रायोजित जातीय सफाई की जाती है। अन्य धर्मों के अल्पसंख्यकों को उनके मूल नागरिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है। सभी प्रकार के हथकंडे अपनाकर जनसंख्या को 100 प्रतिशत तक ले जाने का लक्ष्य रखा जाता है। जैसे बांग्लादेश (मुसलमान 83 फीसदी), मिस्त्र (90 प्रतिशत), गाजापट्टी (98 फीसदी), ईरान (98 फीसदी), ईराक (97 फीसदी), जोर्डन (93 फीसदी), मोरक्को (98 फीसदी), पाकिस्तान (97 फीसदी), सीरिया (90 फीसदी) व संयुक्त अरब अमीरात (96 फीसदी) में देखा जा रहा है।
 ये ऐसे तथ्य हैं, जिन्हें बिना धर्मांधता के चश्मे के हर किसी को देखना और समझना चाहिए। चाहे वो मुसलमान ही क्यों न हों। अब फर्ज उन मुसलमानों का बनता है, जो खुद को धर्मनिरपेक्ष बताते हैं, वे संगठित होकर आगे आएं और इस्लाम धर्म के साथ जुड़ने वाले इस विश्लेषणों से पैगंबर साहब के मानने वालों को मुक्त कराएं, अन्यथा न तो इस्लाम के मानने वालों का भला होगा और न ही बाकी दुनिया का।

Monday, April 13, 2015

मंदिरों की सम्पत्ति का धर्म व समाज के लिए हो सदुपयोग

मंदिरों की विशाल सम्पत्ति को लेकर प्रधानमंत्री की योजना सफल होती दिख रही है। इस योजना में मंदिरों से अपना सोना ब्याज पर बैकों में जमा कराने को आह्वान किया गया था। जिससे सोने का आयात कम करना पड़े और लोगों की सोने की मांग भी पूरी हो सके। केेरल के पद्मनाभ स्वामी मंदिर में दो लाख करोड़ से भी ज्यादा की सम्पत्ति है। ऐसा ही तमाम दूसरे मंदिर के साथ है। पर इस धन का सदुपयोग न तो धर्म के विस्तार के लिए होता है और न ही समाज के लिए। उदाहरण के तौर पर ओलावृष्टि से मथुरा जिले के किसानों की फसल बुरी तरह बर्बाद हो गई। कितने ही किसान आत्महत्या कर बैठे।

उल्लेखनीय है कि ब्रज में, विशेषकर वृन्दावन में एक से एक बड़े मंदिर और मठ हैं। जिनके पास अरबों रूपये की सम्पत्ति हैं। क्या इस सम्पत्ति का एक हिस्सा इन बृजवासी किसानों को नहीं बांटा जा सकता ? भगवान श्रीकृष्ण की कोई लीला किसी मंदिर या आश्रम में नहीं हुई थी। वो तो ब्रज के कुण्डों, वनों, पर्वतों व यमुना तट पर हुई थी। ये मंदिर और आश्रम तो विगत 500 वर्षों में बने, और इतने लोकप्रिय हो गए कि भक्त और तीर्थयात्री भगवान की असली लीला स्थलियों को भूल गए। मंदिरों में तो करोड़ो रूपये का चढ़ावा आता है पर भगवान की लीला स्थलियों के जीर्णोंद्धार के लिए कोई मंदिर या आश्रम सामने नहीं आता।

जबकि इनमें से कितने ही मंदिर तो ऐसे लोगों ने बनाए हैं जिनका ब्रज से कोई पुराना नाता नहीं था। पर आज ये सब ब्रज के नाम पर वैभव का आनंद ले रहे हैं। जबकि ब्रज के किसान हजारों साल से ब्रजभूमि पर अपना खून-पसीना बहाकर अन्न उपजाते है। हजारों साधु-सन्तों को मधुकरी देते हैं। अपने गांव से गुजरने वाली ब्रज चैरासी कोस यात्राओं को छाछ, रोटी और तमाम व्यंजन देते हैं। यहीं तो है असली ब्रजवासी जिन्होंने कान्हा के साथ गाय चराई थी, वन बिहार किया था, उन्हें अपने छाछ और रोटी पर नचाया था। इन्हीं के घर कान्हा माखन की चोरी किया करते थे। आज जब ये किसान कुदरत की मार झेल रहे हैं, तो क्या वृन्दावन के धनाढ्य मंदिरों और मठों का यह दायित्व नहीं कि वे अपनी जमा सम्पत्ति का कम से कम आधा भाग इन ब्रजवासियों में वितरित करें।

यहीं हाल देश के बाकी हिस्सों के मंदिरों का भी है। जो न तो भक्तों की सुविधा की चिन्ता करते है और न ही स्थानीय लोगों की। अपवाद बहुत कम हैं। ऊपर से तुर्रा यह कि ये मंदिर हमारी निज सम्पत्ति हैं। जबकि यह सरासर गलत है। हिमाचल उच्च न्यायालय से लेकर कितने ही फैसले है जो यह स्थापित करते हैं कि जिस मंदिर को एक बार जनता के दर्शनार्थ खोेल दिया जाय, वहां जनता भेंट पूजा करने लगे, तो वह निजी सम्पत्ति नहीं मानी जा सकती। वह सार्वजनिक सम्पत्ति बन जाती हैं। चाहे उसकी मिल्कियत निजी भी रही हो। ऐसे सभी मंदिरों की व्यवस्था में दर्शनार्थियों का पूरा दखल होना चाहिए। क्योंकि उनके ही पैसे से ये मंदिर चलते है। प्रधानमंत्री को चाहिए कि इस बारे में एक स्पष्ट नीति तैयार करवाएं जो देश भर के मंदिरों पर ही नहीं बल्कि हर धर्म के स्थानों पर लागू हो। इस नीति के अनुसार उस धर्म स्थान की आय का निश्चित फीसदी बंटवारा जमापूंजी, रखरखाव, दर्शनार्थी सुविधा, क्षेत्रीय विकास व समाजसेवा के कार्यों में हो। आज की तरह नहीं कि इन सार्वजनिक धर्म स्थलों से होने वाली अरबों रूपये की आय चंद हाथों में सिमट कर रह जाती है। जिसका धर्म और समाज को कोई लाभ नहीं मिलता।

इस मामले में तिरूपति बालाजी का मंदिर एक आदर्श स्थापित करता है। हालांकि वहां भी जितनी आय है उतना समाज पर खर्च नहीं किया जाता। फिर भी भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल जैसी अनेक सेवाओं से एक बड़े क्षेत्र को लाभान्वित किया जा रहा है। धर्म को संवेदनशील मुद्दा बताकर यूपीए की सरकार तो हाथ खड़े कर सकती थी पर एनडीए की सरकार तो धर्म में खुलेआम आस्था रखने वालों की सरकार हैं, इसलिए सरकार को बेहिचक धर्म स्थलों के प्रबन्धन और आय-व्यय के पारदर्शी नियम बनाने चाहिए और उन्हें कड़ाई से लागू करना चाहिए वरना आशाराम बापू और रामलाल जैसे गुरू पनप कर समाज को गुमराह करते रहेंगे। और धर्म का पैसा अधर्म के कामों में बर्बाद होता रहेगा।