धर्म
आस्था और आत्मोत्थान का माध्यम होता है। इसका प्रदर्शन यदि उत्सव के रूप में किया
जाए,
तो वह एक सामाजिक-सांस्कृतिक घटना मानी जाती है। जिसका सभी
आनंद लेते हैं। चाहे विधर्मी ही क्यों न हों। दीपावली, ईद, होली, वैशाखी, क्रिसमस, पोंगल, संक्राति
व नवरोज आदि ऐसे उत्सव हैं, जिनमें
दूसरे धर्मों के मानने वाले भी उत्साह से भाग लेते हैं। अपने-अपने धर्मों की शोभा
यात्राऐं निकालना, पंडाल
लगाकर सत्संग या प्रवचन करवाना, नगरकीर्तन
करना या मोहर्रम के ताजिये निकालना, कुछ ऐसे धार्मिक कृत्य हैं, जिन पर किसी को आपत्ति नहीं होती या नहीं होनी चाहिए।
बशर्ते की इन्हें मयार्दित रूप में, बिना किसी को कष्ट पहुंचाऐ, आयोजित किया जाए।
किंतु
हर शुक्रवार को सड़कों, बगीचों, बाजारों, सरकारी
दफ्तरों,
हवाई अड्डों और रेलवे स्टेशनों जैसे सार्वजनिक स्थलों पर
मुसल्ला बिछाकर नमाज पढ़ने की जो प्रवृत्ति
बढ़ती जा रही है, उससे आम नागरिकों को
बहुत तकलीफ होती है। यातायात अवरूद्ध हो जाता है। पुलिस, एम्बुलेंस और फायर बिग्रेड की गाडियां अटक जाती है। जिससे
आपातकालीन सेवाओं में बाधा पहुंचती है। इस तरह बड़ी संख्या में एक साथ बैठकर मस्जिद
के बाहर नमाज पढ़ने से रूहानियत नहीं फैलती, बल्कि एक नकारात्मक राजनैतिक संदेश जाता है। जो धर्म का कम
और ताकत का प्रदर्शन ज्यादा करता है। जाहिर है कि इससे अन्य धर्मावलंबयों में
उत्तेजना फैलती है। ऐसी घटना साल में एक आध
बार किसी पर्व हो, तो शायद
किसी को बुरा न लगे। पर हर जुम्मे की नमाज इसी तरह पढ़ना, दूसरे धर्मावलंबियों
को स्वीकार नहीं है।
बहुत
वर्ष पहले इस प्रवृत्ति का विरोध मुबंई में शिव सेना ने बड़े तार्किक रूप से किया
था। मुबंई एक सीधी लाईन वाला शहर है। जिसे अंग्रेजी में ‘लीनियर सिटी’ कहते हैं।
उत्तर से दक्षिण मुबंई तक एक सीधी सड़क के दोनों ओर तमाम उपनगर और नगर बसा है। ऐसे
में मुबंई की धमनियों में रक्त बहता रहे, यह तभी संभव है, जब इस सीधी सड़क के यातायात में कोई रूकावट न हो। लगभग दो
दशक पहले की बात है, मुबंई के
मुसलमान भाईयों ने मस्जिदों के बाहर मुसल्ले बिछाकर हर जुम्मे को नमाज पढ़ना शुरू
कर दिया। जाहिर है इससे यातायात अवरूद्ध हो गया। आम जनता में इसका विरोद्ध हुआ।
शिव सैनिक इस मामले को लेकर बाला साहिब ठाकरे के पास गये। बाला साहिब ने हिंदुओं
को आदेश दिया कि वे हर मंदिर के बाहर तक खड़े होकर प्रतिदिन सुबह और शाम की आरती
करें। जुम्मे की नमाज तो हफ्ते में एक दिन होती थी। अब ये आरती तो दिन में दो बार
होने लगी। व्यवस्था करने में मुबंई पुलिस के हाथ पांव फूल गये। नतीजतन मुबंई के
पुलिस आयुक्त ने दोनों धर्मों के नेताओं की मीटिंग बुलाई। पूरे सद्भाव के साथ ये
सामूहिक फैसला हुआ कि न तो मुसलमान सड़क पर नमाज पढेंगे और न हिंदू सड़क पर आरती
करेंगे। दोनों धर्मावलंबी आज तक अपने फैसले पर कायम हैं।
अब
देश की ताजा स्थिति पर गौर कर लें। गत दिनों भाजपा व सहयोगी संगठनों के
कार्यकर्ताओं ने देश में कई जगह सड़कों पर
नमाज का खुलकर विरोध किया। नतीजा ये हुआ कि हरियाणा सरकार ने मस्जिदों के बाहर
नमाज पढ़ने पर पाबंदी लगा दी। इसका असर आसपास के राज्यों में भी हुआ। 11 मई को शुक्रवार था, आमतौर पर दिल्ली की कई मस्जिदों के
बाहर दूर तक नमाजी फैल जाया करते थे। पर इस बार ऐसा नहीं हुआ। लोगों ने राहत की
सांस ली।
एक
साथी पत्रकार ने मुझसे प्रश्न किया कि आप तो आस्थावान व्यक्ति हैं। क्या आप सड़कों
पर नमाज पढ़ने को उचित मानते हैं? मेरा
उत्तर था-बिल्कुल नहीं। इस पर वे उछल पड़े और बोले कि जिस हिंदू से भी यह प्रश्न
पूछ रहा हूं, उसका उत्तर यही है।
इसका मतलब मोदी व अमित शाह का चुनावी ऐजेंडा तय हो गया। मैने पूछा- कैसे? तो उनका उत्तर था- भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों ने सड़कों
पर नमाज का विरोध शुरू ही इसलिए किया है कि इससे हिंदू और मुसलमानों का राजनैतिक
धु्रवीकरण हो जाए और भाजपा को, विशेषकर
उत्तर भारत में, हिंदू मत हासिल करना
सुगम हो जाए। अब भाजपा वाले अगले लोक सभा चुनाव तक ऐसे ही मुद्दे उछालते रहेंगे।
जैसे तिरंगा ले जाकर मुसलमान के मौहल्लों में पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाना, अलीगढ मुस्लिम विद्यालय से जिन्ना का चित्र हटवाना आदि।
जिससे लगातार हिंदू मत एकजुट होते जाए। उन पत्रकार महोदय का यह मूल्यांकन सही हो
सकता है। राजनीति में चुनाव जीतने के लिए नऐे-नऐ मुद्दे खोजने का काम हर दल करता
है। इसमें कुछ गलत नहीं। अब ये तो मतदाता के विवेक पर है कि वह अपना मत प्रयोग
करने से पहले किसी राजनैतिक दल का आंकलन किस आधार पर करता है। केवल भावना के आधार
पर या उसके द्वारा विकास कर पाने की संभावनाओं के आधार पर।
चुनावी
बहस को छोड़ दें, तो भी यह प्रश्न
महत्वपूर्णं है कि धर्म का इस तरह राजनैतिक प्रयोग कहां तक उचित है। चाहे वो कोई
भी धर्म को मानने वाला कहे। इसमें संदेह नहीं है कि अल्पसंख्यकों ने राजनैतिक दलों
का मोहरा बनकर, अपने आचरण से लगातार, दूसरे धर्मावलंबियों को उत्तेजित किया है। चाहे फिर वो समान
नागरिक कानून की बात हो, मदरसों
में धार्मिक शिक्षा और राजनैतिक प्रवचनों की बात हो या फिर सड़क पर जुम्मे की नमाज
पढ़ने की बात हो। कुछ लोग मानते हैं कि हिंदूवादियों का वर्तमान आक्रोश उनकी सदियों
की संचित कुंठा का परिणाम है। दूसरे ऐसा मानते हैं कि अपनी राजनीति के लिए भाजपा
इसे नाहक तूल दे रही है। पर हमारे जैसे निष्पक्ष नागरिक को फिर वो चाहे हिंदू हो, मुसलमान हो, सिक्ख हो, पारसी
हो,
जो भी हो, उसे
सोचना चाहिए कि धर्म की उसके जीवन में क्या सार्थकता है? अगर धर्म के अनुसार आचरण करने से उसके परिवार में सुख, शांति और रूहानियत आती है, तो धर्म उसके लिए आभूषण है। पर अगर धर्म के ठेकेदारों, चाहे वे किसी धर्म के हो, के ईशारो पर नाचकर हम अविवेकपूर्णं व्यवहार करते हैं, तो वह तथाकथित धर्म हमारे लिए समाजिक वैमनस्य का कारण बन
जाता है। जिससे हमें बचना है। भारत में सदियों से सभी धर्म पनपते रहे हैं। अगर हम
पारस्परिक सम्मान और सहयोग की भावना नहीं रखेंगे, तो समाज खंड-खंड हो जायेगा, अशांति और वैमनस्य बढ़ेगा और विकास अवरूद्ध हो जाऐगा।
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