Monday, May 18, 2020

कोरोना से कैसे जीता ये परिवार ?

जब-जब हमने अपनी वैदिक परम्पराओं और ज्ञान की उपेक्षा करके पश्चिम का अंधा अनुकरण किया है। तब-तब हम लुटे, पिटे और बर्बाद हुए हैं। आज कोरोना के आतंक से पूरी दुनिया सहमी हुई है। लेकिन भारत में हर कोने से ऐसी खबरें आ रही हैं कि लोगों ने पारम्परिक अनुभव और ज्ञान का सहारा लेकर कोरोना से जंग जीती है। ऐसे ही एक अनुभव की चर्चा इन दिनों सोशल मीडिया में खूब वायरल हो रही है।   

62 वर्षीय वीरेंद्र के. बंसल दिल्ली के मॉडल टाउन में रहते हैं। देश में लॉक डाउन की घोषणा के बाद इनके पूरे परिवार ने इसका ईमानदारी से पालन किया। घर से कोई भी व्यक्ति सिवाय रोजमर्रा की चीजों के जैसे दूध, सब्ज़ी, दाल, चावल इत्यादि के दो दिनों में एक बार के अलावा घर से बाहर नहीं गया। और इन सब चीजों को घर में लाने के बाद साफ सफाई के सभी नियमों का पालन किया।

वे खुद विशेष तौर से एक बार भी घर के गेट से बाहर नहीं निकले। परंतु पता नहीं कहाँ से इनको 26 अप्रेल 2020 को बुखार हो गया। शुरू में दो तीन दिन बुखार हल्का था, उन्होंने अपने पारिवारिक डाक्टर के कहने पर बुखार के सभी रूटीन टेस्ट भी कराये, पर वो सब नेगेटिव निकले। इसके बाद डाक्टर से पुनः संपर्क करने पर उन्हें कोरोना टेस्ट के लिये बोला गया। बंसल जी इस बात को मानने को तैयार नहीं थे, क्योंकि उन्होंने  लॉकडाउन का सही से पालन किया था। फिर भी 4 मई 2020 को दिल्ली की एक नामी लैब से टेस्ट कराने पर 6 मई को इन्हें कोरोना पोसिटिव निकला। 

श्री बंसल ने तुरंत ही अपने आप को एक अलग कमरे में क्वारंटाइन कर सारे घर से अलग कर लिया। इनके छोटे भाई (57 वर्ष) व माताजी (89 वर्ष) का टेस्ट भी कोरोना पोसिटिव निकला, और वे दोनों भी क्वारंटाइन हो गए।

गौरतलब है कि, सरकारी संस्थाओं से लगातार संपर्क करने पर व प्रधानमंत्री जी को ट्वीट करने पर दिल्ली के हिन्दू राव अस्पताल से एक डाक्टर 9 मई 2020 को अपनी टीम के साथ इन्हें देखने आए। और यह कह गए कि पूरा परिवार पोसिटिव निकलेगा तथा सब के टेस्ट 11 मई 2020 को करा दिए जाएंगे। पर अफसोस की बात है कि 12 मई 2020 तक कुछ नहीं हुआ। पूरे बंसल परिवार ने कोरोना की इस बिमारी को एकजुट होकर 26 अप्रेल 2020 से ही इसे एक चैलेंज के रूप में लिया था। 

बंसल परिवार का सुबह से ही दिन भर का कार्यक्रम शुरू हो जाता ; दिन में दो बार गर्म पानी के नमक डाल कर गरारे, दिन में 4 बार घर पर बना हुआ काढ़ा, दो बार आँवले का गर्म पानी, तीन बार स्टीम, दो बार एक चम्मच हल्दी का दूध, नींबू की गर्म शिकंजी, दो समय नाश्ता और दो बार हल्का खाना।

जब भी बुखार 100 से ऊपर गया, तो वे डोलो 650 की एक गोली ले लेते और कई बार जब बुखार गोली लेने पर भी 102 से नीचे नहीं उतरा तो सर पर ठंडे पानी की पट्टी बुखार हल्का होने तक रखते। इसके साथ ही दिन में दो बार प्राणायाम भी करते।

बंसल जी का कहना है कि ईश्वर की कृपा से इनका बुखार पिछले कई दिनों से नॉर्मल चल रहा है, बिना किसी गोली के। इनके छोटे भाई व माता जी को भी पहले से आराम है। इनके परिवार में 11 सदस्य हैं जिसमें दो छोटी बच्ची तीन व चार साल की भी हैं।

बंसल जी ने सभी से करबद्ध प्रार्थना की है कि कोरोना से घबराएं नहीं इसे एक वायरल बुखार के तौर पर लें। इनके परिवार में किसी को भी सांस की कोई तकलीफ नहीं हुई। हल्की फुल्की खांसी या थोड़ा सा बलगम हुआ जो मौसम बदलने पर भी हो ही सकता है। उनकी सलाह है कि जहां तक सम्भव हो सके अपने आप को कोरोना से बचाइये । लेकिन यदि हो जाये तो हिम्मत से इसका सामना करें और इसको हरायें।

आज जिन सवालों और चुनौतियों को लेकर पूरी दुनियाँ परेशान हैं, उनको और उनके कुछ समाधानों को मैंने 1988 में, शिकागो (अमरीका) में एक वैश्विक सम्मेलन में बताया था। जिस पर तब मुझे वहाँ के टीवी और अख़बारों में छापा गया था। पिछले हफ़्ते अचानक उस सम्मेलन पर आधारित (1989 में अमरीका में छपी) ये पुस्तक पुरानी किताबों में रखी हाथ लगी, जिसमें कई जगह मेरे विचारों को उद्धृत किया गया है। 

वहाँ मेरा ज़ोर पर्यावरण संतुलन, आध्यात्मिक जीवन और भौतिकता की आधुनिक दौड़ पर लगाम कसने पर था। मैंने उनसे कहा था आप अंधे हैं और हम लंगड़े। दोनों मिलकर अगर सफ़र तय करें तो मानव जाति का भला होगा। आप हमें पिछड़ा या विकासशील कहना बंद करो। हमारे पारम्परिक ज्ञान और जीवन शैली से रहना सीखो और हमसे अपना तकनीकी ज्ञान साझा करो। जैसे थर्माकोल की जगह पत्तल और डिब्बे के दूध की जगह माँ का दूध, टॉयलेट पेपर की जगह पानी, रासायनिक खाद की जगह गोबर् की खाद, ताकि पर्यावरण का विनाश न हो। मेरे बोलते ही सम्मेलन में सन्नाटा छा गया। क्योंकि मैंने अपने ग्रामीण अनुभवजन्य विचारों से उनकी उपदेशात्मक शैली में चल रहे भाषणों पर प्रश्न खड़े कर दिए थे। 

इस सम्मेलन में कुल 35 लोग थे। जिनमें कई राष्ट्रों के प्रमुख लोग, विश्व बैंक के अध्यक्ष रहे और वियतनाम युद्ध के ज़िम्मेदार अमरीकी विदेश सचिव (मंत्री) रहे मैकनमारा और तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति बुश की सचिव, दिवंगत राष्ट्रपति जॉन एफ कनेडी की भतीजी और बाद में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के कार्यकाल में राज्यपाल रहीं जैसी बड़ी-बड़ी वैश्विक हस्तियाँ और नईजीरिया, आर्जेंटीना और भारत से हम तीन युवा पत्रकार थे। 

मेरी फटकार का ये असर हुआ कि 1988 के बाद मुझे गोरों ने कभी भाषण देने अमरीका नहीं बुलाया। हाँ अमरीका के भारतीय समाज और वहाँ के मशहूर विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले भारतीय छात्र लगातार बुलाते रहे और मैं जाता रहा। 

कोरोना लाक्डाउन के दौरान वृंदावन के अपने पैतृक निवास पर दिन में पुराने बक्से खोल कर देख रहा हूँ तो 50 साल पुराने भी दस्तावेज और ग्रंथ सामने आ रहे हैं। इसी क्रम में  पिछले हफ़्ते जब एक पुराना बक्सा खोला तो ये ग्रंथ हाथ आया, सोचा आपसे साझा करूँ। 

साथ ही यह भी कहना चाहता हूँ कि गांधी जी के ग्राम स्वराज्य का ही एक मॉडल है जो भारत की आम जनता को सुख, स्वास्थ्य, समृद्धि और सुरक्षा प्रदान कर सकता है। और यह बात हम जैसे लोग दशकों से कहते और लिखते आ रहे हैं। पर आज़ादी के बाद न तो प. नेहरू ने इस पर ध्यान दिया, न उनके बाद आज तक के प्रधान मंत्रियों ने। आज़ाद भारत का राजतंत्र, पश्चिम की चकाचौंध के पीछे दौड़-दौड़ कर विदेश जाता रहा और देश बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और लुटेरों के हाथ लुटवाता रहा। चलो, जब जागो तब सवेरा। देर से ही सही मोदी जी ने भी आज आत्मनिर्भरता के महत्व को समझा है। पर यह तभी सफल हो पाएगा जब हमारे राजनेता, अफ़सर, वैज्ञानिक और हम सब तथाकथित पढ़े लिखे लोग पश्चिम का मोह त्याग कर अपनी जड़ों की ओर लौटेंगे और अपनी सोच और जीवन शैली को वाक़ई स्थानीय संसाधनों पर आधारित आत्मनिर्भर बनाएँगे। 

Monday, May 11, 2020

धर्म स्थलों का धन क्या विकास में लगे?

जब से कोरोना का लॉकडाउन शुरू हुआ है तब से अपनी जान बचाने के अलावा दूसरा सबसे महत्वपूर्ण चर्चा का विषय वैश्विक अर्थव्यवस्था को लेकर है। हर आदमी ख़ासकर व्यापारी, कारखानेदार और मज़दूर अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं। अर्थव्यवस्था के इस तेज़ी से पिछड़ जाने के कारण प्रधान मंत्री और मुख्यमंत्रीगण तक सार्वजनिक रूप से आर्थिक तंगी, वेतन में कटौती, सरकारी खर्च में फ़िज़ूल खर्च रोकना और जनता से दान देने की अपील कर रहे हैं। ऐसे में सबका ध्यान भारत के धर्म स्थलों में जमा अकूत दौलत की तरफ़ भी गया है। बार-बार यह बात उठाई जा रही है कि इस धन को धर्म स्थलों से वसूल कर समाज कल्याण के या विकास कार्यों में लगाया जाए। आरोप लगाया जा रहा है कि भारी मात्रा में जमा यह धन, निष्क्रिय पड़ा है। या इसका दुरुपयोग हो रहा है। 

कुछ सीमा तक उपरोक्त आरोप में दम हो सकता है। पर इस धन को सरकारी तंत्र के हाथ में दिए जाने के बहुतसे लोग शुरू से सर्वथा विरुद्ध रहे हैं। क्योंकि, तमाम क़ानूनों, पुलिस, सी.बी.आई., सीवीसी, आयकर विभाग और न्यायपालिका के बावजूद प्रशासनिक तंत्र में भारी भ्रष्टाचार व्याप्त है। इसलिए जनता का विश्वास सरकार के हाथ में धर्मार्थ धन सौंपने में नहीं है। 

दरअसल धार्मिक आस्था एक ऐसी चीज है जिसे कानून के दायरों से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। आध्यात्म और धर्म की भावना न रखने वाले, धर्मावलंबियों की भावनाओं को न तो समझ सकते हैं और न ही उनकी सम्पत्ति का ठीक प्रबन्धन कर सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि उस धर्म के मानने वाले समाज के प्रतिष्ठित और सम्पन्न लोगों की प्रबन्धकीय समितियों का गठन एक सर्वमान्य निर्देश के द्वारा कर देना चाहिए। इन समितियों के सदस्य बाहरी लोग न हों और वे भी न हों जिनकी आस्था उस मंदिर, मस्जिद, चर्च या गुरुद्वारे में न हो। जब साधन सम्पन्न भक्त मिल बैठकर योजना बनाएंगे तो दैविक द्रव्य का बहुजन हिताय सार्थक उपयोग ही करेंगे। 

जैसे हर धर्म वाले अपने धर्म के प्रचार के साथ समाज की सेवा के भी कार्य करते हैं। कोरोना क़हर के दौरान लगभग सभी धर्म स्थलों ने ख़ासकर गुरुद्वारों ने बढ़चढ़ कर ज़रूरतमंद लोगों के लिए उदारता से भंडारे चला रखे हैं। सामान्य काल में भी इन धर्मस्थलों द्वारा अनेक जनोपयोगी कार्य किए जाते हैं। जैसे अस्पतालों, शिक्षा संस्थानों, रैन बसेरों, अन्य क्षेत्रों , आपदा राहत शिविरों आदि का व्यापक और कुशलतापूर्वक संचालन किया जाता है। क्योंकि इन सेवाओं को करने वालों का भाव नर-नारायण की सेवा करना होता है न कि सेवा के धन का ग़बन करना । जैसा कि प्रायः सभी प्रशासनिक तंत्रों में होता है ।

ऐसा नहीं है कि सभी धर्मस्थलों में पूरी पारदर्शिता और ईमानदारी से धर्मार्थ धन का सदुपयोग होता हो । वहाँ भी इस धन के दुरुपयोग की शिकायतें आती रहती हैं। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि उस धर्मावलंबियों की जो प्रबंध समितियाँ गठित हों , उनकी पारदर्शिता और जबावदेही विस्तृत दिशानिर्देश जारी करके सुनिश्चित कर देनी चाहिए। ताकि घोटालों की गुंजाइश न रहे। इन समितियों पर निगरानी रखने के लिए उस समाज के सामान्य लोगों को लेकर विभिन्न निगरानी समितियों का गठन कर देना चाहिए। जिससे पाई-पाई पर जनता की निगाह बनी रहे। किसी भी धर्म के धर्मस्थानों का धन सरकार द्वारा हथियाना, उस समाज को स्वीकार्य नहीं होगा। 

देश में ऐसे हजारों धर्मस्थल हैं, जहाँ नित्य धन की वर्षा होती रहती है। इस धन का सदुपयोग हो इसके लिए उन समाजों को आगे बढ़कर स्वयं भी नई दिशा पकड़नी चाहिए और दैविक द्रव्य का उपयोग उस धर्म स्थान या धर्म नगरी या उस धर्म से जुड़े साधनहीन लोगों की मदद में करना चाहिए। इससे उस धर्म के मानने वालों के मन में न तो कोई अशांति होगी और न कोई उत्तेजना। वे भी अच्छी भावना के साथ ऐसे कार्यों में जुड़ना पसन्द करेंगे। अब वे अपने धन का कितना प्रतिशत मन्दिर और अनुष्ठानों पर खर्च करते हैं और कितना विकास के कार्यों पर, यह उनके विवेक पर छोड़ना होगा।

धर्मस्थलों के धन पर अगर सरकार नज़र डालती है तो यह बड़ा संवेदनशील मामला  हो जाता है। और तब सवाल उठता है कि जनता की खून पसीने की कमाई के हज़ारों लाखों करोड़ रुपया बैंकों से क़र्ज़ लेकर भाग जाने वाले उद्योगपतियों या देश में ही रहने वाले वे उद्योगपति जिन्होंने अकूत दौलत जमा कर रखी है और अपने पारिवारिक उत्सवों में सैकड़ों करोड़ रुपया खर्च करते हैं, उनसे क्यों न धन वसूला  जाए। सब जानते हैं कि देश का हर बड़ा पैसे वाला पसीने बहाकर धनी नहीं बनता। प्रकृतिक संसाधनों का नृशंस दोहन, करों की भारी चोरी, बैंकों के बिना चुकाए बड़े-बड़े ऋण, एकाधिकारिक नीतियों से बाजार पर नियंत्रण और सरकारों को शिकंजे में रखकर अपने हित में कर नीतियों का निर्धारण करवाकर बड़े मुनाफे कमाए जाते हैं। ऐसे में केवल धर्मस्थलों को ही सजा क्यों दी जाए? यदि असीम धन संग्रह के अपराध की सजा मिलनी ही है तो वह राजपरिवारों, धर्माचार्यों को ही नहीं, बल्कि उद्योगपतियों, राजनेताओं, नौकरशाहों और मीडिया के मठाधीशों को भी मिलनी चाहिए। उन सब लोगों को जो अपनी इस विशिष्ट स्थिति का लाभ उठाकर समाज के एक बड़े वर्ग का हक छीन लेते हैं।     

पुरानी कहावत है कि, ‘इस संसार में हर एक की ज़रूरत पूरा करने के लिए काफ़ी धन और संसाधन हैं, लेकिन कुछ लोगों की हवस पूरी करने के लिए वे नाकाफ़ी हैं’। भारत में की भी यही स्थिति है। ‘सुजलां, सुफलाम् शस्य्श्यामलाम’ भारत माता अपनी 135 करोड़ संतानों को स्वास्थ्य और सुखी रखने में सक्षम है। समस्या तब खड़ी होती है जब नियत में खोट हो जाता है। इसलिए हमारे जैसे लोग बरसों से सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता के लिए संघर्ष करते रहे हैं। पर दुःख की बात यह है कि जिस स्तर की पारदर्शिता की आवश्यकता है वह तमाम क़ानूनी व्यवस्थाओं के बावजूद आजतक स्थापित नहीं हो पाई है। इसलिए जनता का विश्वास जीतने में देश की नौकरशाही आज तक सफल नहीं हो पाई है। ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि पहले सार्वजनिक जीवन में पूरी पारदर्शिता और जनता के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित की जाए और तब सरकार से इतर इन संसाधनों पर निगाह डाली जाए।  

Monday, May 4, 2020

ऋषि कपूर ने कहा था, “पापा की चिता में सिर्फ़ चंदन की लकड़ी लगाना”

दादासाहेब फाल्के अवार्ड लेने दिल्ली आए राज कपूर जी को मई 1988 में दिल का भारी दौरा पड़ा और 2 जून को वो चल बसे। तब ऋषि कपूर ने कहा था, पापा (राज कपूर) की चिता में सिर्फ़ चंदन की लकड़ी लगाना। पर कोरोना क़हर के चलते कल ऋषि कपूर का बेटा रणबीर कपूर चाह कर भी अपने मशहूर पिता को उनके क़द के अनुरूप विदाई नहीं दे सका। ऋषि कपूर का शरीर विद्युत शव दाहग्रह में पंचतत्वों में विलीन हो गया। 

उन दिनो मैं इंडीयन इक्स्प्रेस समूह के हिंदी अख़बार जनसत्ता का दिल्ली संवाददाता था । एप्रिल और मई 1988 में मैं सपरिवार अमरीका के टूर पर था, जहां मेरे व्याख्यान स्टैन्फ़र्ड यूनिवर्सिटी (सैन फ़्रांसिस्को) और शिकागो में हो रहे थे। 

तभी दिल्ली दफ़्तर से फ़ोन आया फ़ौरन भारत लौट आओ। राज कपूर जी को दिल का घातक दौरा पड़ा है और वे दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती हैं, जहां हिंदी या इंग्लिश के किसी भी पत्रकार को घुसने नहीं दिया जा रहा। तुम ही उनकी खबर निकाल कर ला सकते हो। मजबूरन मुझे अमरीका की यात्रा अधूरी छोड़कर भारत लौटना पड़ा। 

तब से एक महीने तक हर दिन मैं सुबह दस बजे से शाम सात बजे तक एम्स के प्राइवेट वार्ड के सूट नम्बर 101 में कपूर परिवार के साथ रहता और रात को दफ़्तर जाकर दिन भर की रिपोर्ट लिखता। क्योंकि वहाँ दिन भर मिलने आने वाले वीवीआईपी और फ़िल्मवालों का ताँता लगा रहता था। जिसके कई रोचक क़िस्से होते। मेरी खबरों को ही अगले दिन देश भर के बाक़ी अख़बार अपनी- अपनी भाषा में छापते थे।

दुःख की घड़ी में आशा की हर किरण नई अपेक्षा जगा देती है। उन्हीं दिनों एक दिन दोपहर को राजीव कपूर (राम तेरे गंगा मैली के नायक) और मैं वीआईपी वार्ड के उसी कमरे में एक ही पलंग पर नीचे पैर लटकाए सो रहे थे। वार्ड के पर्दे के पीछे मरीज़ वाले पलंग पर श्रीमती कृष्णा राजकपूर, बहुरानी और तारीक़ा बाबीता और नीतू इसी तरह पैर लटकाये सो रही थीं। राज साहब तो आईसीयू में थे। 

तभी वार्डबोय ने सूचना दी कि रामायण की सीता जी आयी हैं। हम सब हड़बड़ाकर उठ गए। दीपिका चिखलिया अपनी माँ और छोटे भाई के साथ आयीं थी। उन्हें देखकर बॉलीवुड का ये मशहूर कपूर ख़ानदान ऐसे नतमस्तक हो गया मानो साक्षात सीता जी ही आशीर्वाद देने आ गयी हों। उस दिन मैंने जनसत्ता में खबर लिखी ‘कपूर ख़ानदान के लिए सीता ही थीं दीपिका चिखलिया’।

2 जून 1988 की शाम जब राज कपूर साहब ने अंतिम साँस ली तो उस कक्ष का वातावरण एकदम गमगीन हो गया। पर फिर जल्दी ही आगे की तय्यारी की चर्चा होने लगी। उन दिनों मोबाइल फ़ोन तो थे नहीं। अस्पताल के वीआईपी कमरे में जो एम.टी.एन.एल का फ़ोन था उसमें भारत सरकार ने एस.टी.डी की सुविधा दे रखी थी ।

उस पर सभी कपूर भाई बहन लगातार बम्बई फ़ोन करके अपने-अपने सचिवों को शव यात्रा की तैयारी की हिदायत दे रहे थे। दुखी बैठी श्रीमती कृष्णा राजकपूर को इस सबसे परेशानी ना हो इसलिये उस फ़ोन के तार को लंबा खींच कर बाहर बाल्कनी तक ले गये थे। जहां परिवार के मित्र फ़िल्मी सितारे राजेश खन्ना आदि कुर्सी पर बैठे लगातार सिगरेट पी रहे थे। रणधीर कपूर बहुत गमगींन ख़ामोश खड़े थे। 

मैं तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य व उड्डयन मंत्री मोतीलाल वोरा जी को हर थोड़ी देर बाद फ़ोन करके आगे की व्यवस्था पूछ रहा था। कुछ तय नहीं हो पाया था। 

क़रीब रात 9 बजे वोरा जी ने मुझे बताया कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी जी से अनुमति मिल गयी है। इंडीयन एयरलाइंज़ का एक विशेष विमान कपूर परिवार को लेकर बम्बई जाएगा। उन्होंने मुझसे इसे गोपनीय रखने को कहा अन्यथा इतने सारे फ़िल्मी सितारों को देखने भारी भीड़ अस्पताल और हवाई अड्डे पर जुट जाती। 

तय हुआ कि रात के दो बजे पालम से विमान उड़ेगा। वोरा जी ने कहा मैं रात एक बजे अस्पताल आऊँगा। मैंने उनसे कहा कि मैं अपनी मारुति कार खुद चलाता हूँ इस भागदौड़ में कैसे चला पाउँगा? तो मैं अस्पताल से आपके साथ आपकी गाड़ी में पालम हवाई अड्डे तक विदा करने चलूँगा। उन्होंने कहा ठीक है। कपूर परिवार की बम्बई यात्रा का ये प्लान तय होते ही कक्ष में हलचल तेज हो गयी। 

तभी ऋषि कपूर ने अपने सचिव को फ़ोन करके सारे काम बताना शुरू किये। जहाज़ जब बंबई पहुँचेगा तो इन लोगों को क्या-क्या करना है। कल शव यात्रा के लिए सब सफ़ेद फूल होने चाहिये। उनका एक ख़ास वाक्य मुझे आज भी याद है कि पापा की चिता में आई वांट आल सैंडल्वुड (सब चंदन की लकड़ी होनी चाहिये)।

2018 की बात है, ऋषि कपूर एक हास्य फ़िल्म के लीड रोल में अभिनय कर रहे थे। जिसकी शूटिंग दिल्ली में कई हफ़्तों से चल रही थी। अचानक ऋषि कपूर की तबियत ख़राब हो गयी और कुछ ही घंटों में उनका बेटा रणबीर कपूर मुम्बई से उन्हें लेने आ गया। सारी शूटिंग रोक दी गयी। पूरी शूटिंग यूनिट मुम्बई लौट गई। फिर तो न्यू यॉर्क में ऋषि कपूर का कैन्सर का लम्बा इलाज चला। 

इस तरह उनकी यह आख़री फ़िल्म अधूरी रह गई। ऋषि कपूर की ज़िंदगी में बचपन से ही शानो-शौक़त और शौहरत क़िस्मत में लिखी थी। उनके दादा पृथ्वीराज कपूर से लेकर आज तक दर्जनों फ़िल्मी सितारे इस परिवार ने बॉलीवुड को दिए हैं। पर क़िस्मत का खेल देखिए जब ऋषि कपूर की माँ श्रीमती कृष्णा राजकपूर का मुंबई में देहांत हुआ तो ऋषि कपूर न्यू यॉर्क में थे और कैन्सर के इलाज के कारण अपनी माँ के अंतिम दर्शन भी नहीं कर पाए। अब तो उनकी यादें उन दर्जनों मनोरंजक फ़िल्मों से दुनिया भर के फ़िल्म प्रेमियों को गुदगुदाती रहेंगी। जैसे उनके पिता राज कपूर की फ़िल्में आज भी सदाबहार हैं। अलविदा ऋषि कपूर। 

Monday, April 27, 2020

कैसे चलें देश के उद्योग व्यापार ?

कोरोना महामारी के कारण अगर हमारे जीवन की रफ़्तार पर गतिरोध लगा है तो ज़ाहिर है इससे सभी खुश नहीं हैं। लेकिन सोचने वाली बात है कि लॉकडाउन जैसे कठिन निर्णय लेने से पहले सरकार ने इसके हर पहलू पर सोचा ज़रूर होगा। जानकारों की मानें तो फ़िलहाल लॉकडाउन से जल्द राहत मिलना सम्भव नहीं है। ऐसे में जहां सरकार इस लॉकडाउन के एग्ज़िट प्लान के बारे में विचार कर रही है, वहीं समाज के कई वर्गों से भी इसके लिए कई सुझाव भी आ रहे हैं। 

भारत में लॉकडाउन को अब एक महीने से ज़्यादा हो चला है। व्यापार और उद्योग जगत, चाहे लघु हो या विशाल, इस लॉकडाउन के अंत की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा है। ऐसे में सरकार की ओर से जो हिदायत और रियातें आईं हैं वो मध्यम और लघु उद्योगपतियों को नाकाफ़ी लग रहीं हैं। 

देश में एक लघु उद्योग चलाने वाले उद्यमी को उद्योग ठप्प होने और नियमित ख़र्चों की दोहरी मार झेलनी पड़ रही है। एक ओर जहां उस उद्योगपति की फ़ैक्टरी बंद पड़ी है वहीं उसे कर्मचारियों के वेतन के साथ-साथ फ़ैक्टरी के किराए और बिजली के बिलों पर लगने वाले फ़िक्स्ड चार्ज को भी भरना पड़ रहा है। अभी हाल ही में भारत सरकार द्वारा दी गई रियातों में इन ख़र्चों का कोई ज़िक्र नहीं किया गया। केवल बड़े उद्योगों को कुछ ज़रूरी हिदायतों के साथ चलाने की अनुमति दी गई है ।

उधर सोशल मीडिया में भी कई तरह के सुझाव आते हैं कि किस तरह हमें अपनी गाड़ियों को सप्ताह में एक बार स्टार्ट कर लेना चाहिए, या किस तरह हमें कुछ व्यायाम रोज़ कर लेने चाहिए। जिससे गाड़ी और शरीर दोनों चलते रहें। ऐसे में अर्थव्यवस्था को ठप्प होने से रोकने के लिए भी कुछ ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है। 

सरकार ने ऐसी हिदायत दे दी हैं कि हर उद्योगपति को अपने किसी भी कर्मी के वेतन को नहीं काटना है और उसे पूरा वेतन देना है। यह भी कहा गया है कि अगर फ़ैक्टरी को सरकारी हिदायतों के साथ चलाया जाएगा तो उसमें काम करने वाले सीमित कर्मियों के रहने खाने की व्यवस्था साफ़ सुथरे वातावरण में, फ़ैक्टरी परिसर में ही करनी होगी। यदि किसी कर्मी को किसी भी कारण से कोरोना का संक्रमण हुआ तो उस उद्योग को दो दिन के लिये बंद करके संक्रमण मुक्त किया जाएगा  और तभी दोबारा चलने की अनुमति मिलेगी। 

अगर हमें देश की अर्थव्यवस्था को वापस ढर्रे पर लाना है तो हर उस उद्योग को खुलने की छूट देना अनिवार्य होगा जो इन बड़े उद्यमियों पर निर्भर हैं। केवल ट्रांसपोर्ट ही नहीं, उन सभी छोटी बड़ी दुकानों को भी सशर्त खुलने की छूट मिलनी चाहिए। अगर सामान की बिक्री नहीं होगी तो बड़ी-बड़ी फ़ैक्टरी में बनने वाली वस्तुएँ किस काम की? आज अगर सरकार ने कुछ सेवाकार्य करने वाले कारीगरों, जैसे कि इलेक्ट्रिशियन, प्लंबर आदि को छूट दी है तो उनसे जुड़े दुकानदारों को छूट क्यों नहीं दी गई? अगर किसी के घर में कुछ बिगड़ गया है और उसकी मरम्मत करने वाला उपलब्ध है लेकिन मरम्मत के लिए ज़रूरी सामान की दुकानें बंद है तो इस छूट का क्या फ़ायदा? अगर सभी को सशर्त छूट मिलेगी तो धीरे धीरे ही सही, पर अर्थव्यवस्था की गाड़ी तो चलती रहेगी।   

आज जब विश्व में कच्चे तेल क़ीमतों में भारी गिरावट आ चुकी है या कहें की उसके दाम शून्य तक पहुँच गये हैं फिर इसका लाभ अगर जनता को क्यों नहीं मिल रहा? तो इसका कारण ये है कि देश में महंगे दर से ख़रीदे हुए तेल के भंडार अभी भरे हुए हैं। लॉकडाउन के चलते पेट्रोल डीज़ल की बिक्री पर भी विपरीत असर पड़ा है। 

अगर लॉकडाउन के एग्ज़िट प्लान में सशर्त छूट दी जाए तो उपभोक्ता को न सिर्फ़ सस्ते दर पर पेट्रोल डीज़ल जल्द उपलब्ध होगा बल्कि सरकार को मिलने वाले कर में भी बढ़ौतरी होगी। वित्त मंत्रालय और रिज़र्व बैंक को भी इस दिशा में ऐसे ठोस कदम उठा कर देश में मुद्रा की वृद्धि कर उसका लाभ जनता तक पहुँचना चाहिए। 

आज सरकार द्वारा मुफ़्त में राशन बाँटने से कहीं अच्छा ये होगा कि सरकार द्वारा इस पर होने वाले खर्च को स्वास्थ्य योजनाओं में लगाया जाए। मुफ़्त में राशन वितरण का कार्य तो कई स्वयंसेवी संस्थाएँ और व्यापारी वर्ग कर ही रहे हैं। सभी कारीगरों को काम में वापस लेकर उनके वेतन दिए जाएं जिससे वो अपनी कमाई से राशन लें और अर्थव्यवस्था की गाड़ी को पटरी पर लाएँ।   

ग़ौरतलब है कि अगर पेट्रोल डीज़ल के दामों में कटौती होती है तो इसका सीधा असर माल की ढुलाई की लागत में होगा और ज़रूरी वस्तुएँ भी सस्ती होंगी। ऐसा ठीक उसी तरह से है जैसे कि मधु की पैदावार में फूल, माली, तितली और मधुमक्खी का योगदान होता है। परिवार के मुखिया को परिवार के सभी सदस्यों की बेहतरी के लिए सोचना होता है, तभी सबका भला होता है। 

इतिहास गवाह है कि चाहे वो गाँव मोहल्ले के स्तर पर रामलीला का आयोजन हो, दशहरा का रावण बनना हो या फिर देश में किसी संकट का समय हो तो मध्य और लघु उद्यमी और व्यापारी जितना बढ़ चढ़ कर सहयोग करते हैं उसकी तुलना किसी भी बड़े ऑनलाइन मार्केटों कम्पनी या उद्यमी से नहीं की जा सकती। ऑनलाइन मार्केटिंग को बढ़ावा देकर तो इन सबका कारोबार समाप्त हो जाएगा। जिससे देश में बेरोज़गारी बढ़ेगी। लाक्डाउन में ये लोग ही आम जनता के लिए जीवन रक्षक बनकर सामने आए हैं कोई ऑनलाइन पोर्टल नहीं आया।

हाँ यह ज़रूर है कि बड़े उद्यमी समाज के कल्याण के लिए उच्च स्तर पर कार्य करते हैं। फिर वो चाहे कोई विशाल मंदिर का निर्माण हो, स्कूल हो या फिर अस्पताल हो। वो ऐसे समाज कल्याण के कार्यों से पीछे नहीं हटते। 

‘रहिमन देख बड़ेन को लघु न दीजिये डारि।
जहां काम आवे सुई कहा करे तलवार ।। 

तो फिर लघु और मध्य उद्यमियों से सौतेला व्यवहार क्यों ? 

प्रधानमंत्री मोदी जी को देश के मुखिया होने के कारण इस दिशा में ठीक उसी तरह के ठोस कदम उठाने की ज़रूरत है जैसा उन्होंने अतीत में किया है। तभी ‘सबका साथ सबका विकास’ का नारा सच होगा। 

Monday, April 20, 2020

कोरोना क़हर में पुलिस के जबाँजो का सहयोग करें

आज जब पूरा विश्व कोरोना की महामारी से जूझ रहा है, भारत में पुलिसवालों या कहें कोरोना के जाँबाज़ों को एक अलग ही तरह के समस्या का सामना करना पड़ रहा है। इंदौर हो, पटियाला हो, मुरादाबाद हो, या राजस्थान  जिस तरह से पुलिसकर्मियों को कुछ ख़ास इलाक़ों में जाहिल लोगों के ग़ुस्से का सामना करते हुए अपना फ़र्ज़ निभाना पड़ रहा है वो क़ाबिले तारिफ़ है।

सोशल मीडिया पर आपको ऐसे कई विडियो देखने को मिलेंगे जहां पुलिसकर्मी अपने घर भी नहीं जा पा रहे हैं। यदि वो अपनी ड्यूटी करने की जगह से दोपहर का भोजन करने भी घर जाते हैं तो परिवार से दूर, खुले आँगन में ही भोजन कर तुरंत ड्यूटी पर लौट जाते हैं। उनके छोटे बच्चे उन्हें घर पर कुछ देर और ठहरने के लिए फ़रियाद करते रह जाते हैं । 

विश्व के अन्य देशों के मुक़ाबले हमारे देश में अगर कोरोना के क़हर की रफ़्तार फ़िलहाल कम है तो वो केवल मोदी जी के लाक्डाउन के इस सख़्त कदम और उसे लागू करने में इन पुलिसकर्मियों की वजह से ही है । 

सड़कों पे तैनात इन पुलिसकर्मियों को कड़ी धूप में रह कर अपनी ड्यूटी करनी पड़ रही है। कई जगह तो इनके सर पर कनात तक नहीं है। लेकिन सिर्फ़ कनात होने से काम नहीं चलता। आने वाले दिनों में पारा और ऊपर जाएगा तो पूरी बाजू की वर्दी पहन कर ड्यूटी करना इनके लिये और कठिन हो जाएगा। आपने पढ़ा होगा कि कुछ ज़ाहिल लोगों ने किस बेदर्दी से पटियाला पुलिस के अफ़सर हरजीत सिंह का हाथ काटा। ज़रा सोचें इसका क्या असर पुलिस फ़ोर्स के मनोबल पर पड़ेगा? ये घोर निंदनीय कृत्य था, जिसका पूरे समाज को ताक़त से विरोध करना चाहिये। 

हमें सोचना चाहिए कि चाहे वो महिला पुलिसकर्मी हों या पुरुष इनका योगदान हमारे जीवन की रक्षा के लिये अतुल्य है। जहां ये पुलिसकर्मी न सिर्फ़ सड़कों पर तैनात हो कर दिन रात चौकसी से अपनी ड्यूटी कर रहे हैं वहीं  जरूरतमंदों को राशन व अन्य ज़रूरी सामान भी पहुँचा रहे हैं। महिला पुलिसकर्मी अपने अपने थानों में रहकर न सिर्फ़ अपनी सामान्य ड्यूटी कर रही हैं बल्कि ज़रूरतमंदो के लिए फ़ेस मास्क भी सिल रहीं हैं। कुछ शहरों से तो ये भी खबर आई है कि पुलिसकर्मी बेज़ुबान जानवरों को भी भोजन दे रहे हैं।

इसलिये प्रधान मंत्री हों, आम लोग हों या मशहूर हस्तियाँ, आज सभी लोग बढ़-चढ़ कर इन जाँबाज़ों की खुल कर तारीफ कर रहे हैं। यहाँ तक कि कोरोना से लड़ने वाले डाक्टर भी इन पुलिसकर्मियों के सहयोग के बिना कुछ नहीं कर पाएँगे। इसलिए हम सबको, चाहे हम किसी भी धर्म या जाति के हों बिना किसी के उकसाये में आए पुलिस विभाग के इन वीरों को सम्मान देना चाहिए। जहां तक संभव हो उनकी देखभाल भी करनी चाहिये। आपके घर के पास तैनात पुलिसकर्मी को चाय-पानी पूछना तो मानवता का सामान्य तक़ाज़ा है । 

आज अगर पुलिसकर्मी अपनी ड्यूटी ठीक से न करें तो लाकडाउन के बेअसर होने में देर नही लगेगी। कौन जाने फिर हमारे देश में भी कोरोना से संक्रमित होने वालों की संख्या अमरीका से कई अधिक हो जाए। इसलिये समय की माँग ये है कि हम सब जब अपने अपने घरों में आराम से बैठे हैं तो हम से जो भी बन पड़े इन पुलिसकर्मियों का सहयोग करना चाहिए। वो सहयोग किसी भी तरह से हो सकता है। युवा साथी स्वयमसेवकों कि तरह उनसे सहयोग करें। हर मोहल्ले में प्रवेश और निकासी पर कुछ ज़िम्मेदार नागरिक भी अपनी सेवाएँ भी दे सकते हैं। अगर आपके मोहल्ले में या आसपास में कुछ मज़दूर या कामगार लोग रहते हैं तो उन्हें भोजन बाँटने में भी आप पुलिस का सहयोग करें। 

इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि अगर ये पुलिसकर्मी, जो अपनी जान खतरे में डालकर हमारी जान बचा रहे हैं, तो इनका आभार प्रकट करने के लिए हमें प्रधान मंत्री जी की अपील का इंतेज़ार न करना पड़े बल्कि हम स्वयं ही ये कार्य करें।

आज जाहिल जमातियों ने अपने लोगों में ऐसा डर फैला दिया गया है कि जो भी डाक्टर इनकी जाँच के लिए इनके इलाक़े में आ रहा है वो इन्हें गिरफ़्तार करने आए हैं, जबकि ये सत्य नहीं है। इसलिये इसी समाज के चर्चित चेहरों  को अपने समाज के लोगों से ये अपील करनी चाहिए कि वो सभी पुलिसकर्मियों और डाक्टरों का सहयोग करें और जैसा सिनेस्टार सलमान खान ने भी कहा कि ऐसा न करके वे न सिर्फ़ अपनी ही मौत का कारण बन रहे हैं बल्कि समाज के लिए भी एक बड़ा ख़तरा बनते जा रहे हैं।

जिस तरह से समाज के कई वर्गों से ग़रीबों व जरूरतमंदों को भोजन व राशन मुहैया कराया जा रहा है ठीक उसी तरह सरकार और समाज सेवी संस्थाओं को कोरोना के युद्ध में जुटे इन सिपाहियों के बारे में भी कुछ ठोस कदम उठाने चाहिये। 

ग़ौरतलब है कि 1977 में बनी जनता पार्टी की पहली सरकार ने एक राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया था जिसमें तमाम अनुभवी पुलिस अधिकारियों व अन्य लोगों को मनोनीत कर उनसे पुलिस व्यवस्था में वांछित सुधारों की रिपोर्ट तैयार करने को कहा गया। आयोग ने काफी मेहनत करके अपनी रिपोर्ट तैयार की पर बड़े दुख की बात है कि इतने बरस बीतने के बाद भी आज तक इस रिपोर्ट को लागू नहीं किया गया। इसके बाद भी कई अन्य समितियां बनी जिन्हें यही काम फिर-फिर सौंपा गया। आजतक भारतीय पुलिस की जो छवि है वो जनसेवी की नहीं अत्याचारी की रही है। लेकिन कोरोना के कहर के समय जिस तरह पुलिसकर्मी आज जनता के रक्षक के रूप में उभर के आए हैं, लगता है कि सरकार को अब पुलिस सुधार के लिए अवश्य कुछ करना चाहिए। पर लाख टके का सवाल यह है कि क्या हो यह तो सब जानते हैं, पर हो कैसे ये कोई नहीं जानता। राजनैतिक इच्छाशक्ति के बिना कोई भी सुधार सफल नहीं हो सकता। अनुभव बताता है कि हर राजनैतिक दल पुलिस की मौजूदा व्यवस्था से पूरी तरह संतुष्ट है। क्योंकि पूरा पुलिस महकमा राजनेताओं की जागीर की तरह काम कर रहा है। जनता की सेवा को प्राथमिकता मानते हुए नहीं। फिर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ?

Monday, April 13, 2020

शाबाश केरल: कमाल कर दिया

कोरोना वायरस का भारत में सबसे पहला मामला 30 जनवरी 2020 को केरल में पाया गया था। तब से आज तक कोरोना के कारण केरल में केवल 2 मौतें हुई हैं। इस दौरान 1.5 लाख लोगों की टेस्टिंग हो चुकी है, 7447 लोगों में संक्रमण पाया गया और 643 लोग इलाज के बाद ठीक हो कर चले गए। 

जहां भारत के मीडिया का एक बड़ा हिस्सा कोरोना को लेकर हड़बड़ाहट में, रात दिन साम्प्रदायिक ज़हर उगल रहा है, वहीं दुनिया भर के मीडिया में कोरोना प्रबंधन को लेकर केरल सरकार द्वारा समय रहते उठाए गए प्रभावी कदमों की जमकर तारीफ़ हो रही है। विशेषकर केरल की स्वास्थ्य मंत्री सुश्री शैलजा टीचर की, जो बिना डरे रात दिन इस माहमारी से लड़ने के सड़कों, घरों, अस्पतालों  में प्रभावशाली इंतजाम में जुटी रही हैं। 

अगर पूरे भारत की दृष्टि से देखा जाए तो केरल भारत का अकेला ऐसा राज्य है जिसके सामने कोरोना से लड़ने की चुनौती सबसे ज़्यादा थी। इसके तीन कारण प्रमुख हैं। भारत में  सबसे ज़्यादा विदेशी पर्यटक केरल में ही आते हैं और लम्बे समय तक वहाँ छुट्टियाँ मनाते हैं। चूँकि कोरोना विदेश से आने वाले लोगों के मध्यम से आया है इसलिए इसका सबसे बड़ा ख़तरा केरल को था। दूसरा; केरल का शायद ही कोई परिवार हो जिसका कोई न कोई सदस्य विदेशों में काम न करता हो और उसका लगातार अपने घर आना जाना न हो।  केरल की 17.5 फ़ीसदी आबादी विदेशों से रहकर आयी है। इसलिए इस बीमारी को केरल में फैलने ख़तरा सबसे ज़्यादा था। तीसरा; केरल भारत का सबसे ज़्यादा सघन आबादी वाला राज्य है। एक वर्ग किलोमीटर में रहने वाली आबादी का केरल का औसत शेष भारत के औसत से कहीं ज़्यादा है। इसलिए भी इस बीमारी के फैलने का यहाँ बहुत ख़तरा था। इसके बावजूद आज केरल सरकार ने हालात क़ाबू में कर लिए हैं। फिर भी स्वास्थ्य मंत्री सुश्री शैलजा टीचर का कहना है, हम चैन से नहीं बैठ सकते, क्योंकि पता नहीं कब ये माहमारी, किस रूप में फिर से आ धमके। 

आम तौर पर हम सनातन धर्मी लोग वामपंथी विचारधारा का समर्थन नहीं करते क्योंकि हम ईश्वरवादी हैं और वामपंथी नास्तिक विचारधारा के होते हैं। पर पिछले तीन महीनों के केरल की वामपंथी सरकार के इन प्रभावशाली कार्यों ने यह सिद्ध किया है कि नास्तिक होते हुए भी अगर वे अपने मानवतावादी सिद्धांतों का निष्ठा से पालन करें तो उससे समाज का हित ही होता है।

सबसे पहली बात तो केरल सरकार ने ये करी कि उसने बहुत आक्रामक तरीक़े से फ़रवरी महीने में ही हर जगह लोगों के परीक्षण करने शुरू कर दिए थे। इस अभियान में स्वास्थ्य मंत्री ने अपने 30 हज़ार स्वास्थ्य सेवकों को युद्ध स्तर पर झौंक दिया। नतीजा यह हुआ कि अप्रेल के पहले हफ़्ते में पिछले हफ़्ते के मुक़ाबले संक्रमित लोगों की संख्या में 30% की गिरावट आ गई। आज तक केरल में कोरोना से कुल 2 मौत हुई हैं और संक्रमित लोगों में से सरकारी इलाज का लाभ उठाकर 34% लोग स्वस्थ हो कर घर लौट चुके हैं। उनकी यह उपलब्धि भारत के शेष राज्यों के मुक़ाबले बहुत ज़्यादा और प्रभावशाली है। जबकि शेष भारत में लॉक्डाउन के बावजूद संक्रमित लोगों की संख्या व मरने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। 

ये सही है कि इटली, स्पेन, जर्मनी, इंग्लेंड और अमरीका जैसे विकसित देशों के मुक़ाबले भारत का आँकड़ा प्रभावशाली दिखाई देता है। पर इस सच्चाई से भी आँखे नहीं मीचीं जा सकती कि शेष भारत में कोरोना संक्रमित लोगों के परीक्षण का सही आँकड़ा ही उपलब्ध नहीं है। मेडिकल उपकरणों की अनुपलब्धता, टेस्टिंग सुविधाओं का आवश्यकता से बहुत कम होना और कोरोना को लेकर जो आतंक का वातावरण मीडिया ने पैदा किया उसके कारण लोगों का परीक्षण कराने से बचना। ये तीन ऐसे कारण हैं जिससे सही स्थिति का आँकलन नहीं किया जा सकता। इसलिए पिछले हफ़्ते ही मैंने प्रधान मंत्री श्री मोदी जी को सोशल मीडिया के मध्यम से सुझाव दिया था कि वे हर ज़िले के ज़िलाधिकारी को निर्देशित करें कि वे अपने ज़िले में हर दिन  किए गए परीक्षणों की संख्या और संक्रमित लोगों की संख्या अपनी वेबसाइट पर पोस्ट करें। जिसकी गणना करके फिर नैशनल इन्फ़र्मैटिक्स सेंटर (NIC) सही सूचना जारी करता रहे। उल्लेखनीय है कि प्रधान मंत्री जी की पहल पर शुरू किया गया ‘आरोग्य सेतु’ ऐप इस दिशा में एक सराहनीय कदम है पर यह भी उस कमी को पूरा नहीं करता जो ज़िलाधिकारी कर सकते हैं। 

अमरीका के सबसे प्रथिष्ठित अख़बार ‘द वॉशिंगटन पोस्ट’ ने लिखा है कि केरल का उदाहरण भारत सरकार के लिए अनुकरणीय है। क्योंकि पूरे देश का लॉक्डाउन करने के बावजूद भारत में संक्रमित लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है और इस लेख के लिखे जाने तक लगभग 7.5 हज़ार लोग संक्रमित हो चुके हैं और क़रीब 240 लोग अकाल मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं। 

हालाँकि केरल में भी स्वास्थ्य सेवाओं की दशा बहुत हाई क्लास  नहीं थी पर उसने जो कदम उठाए, जैसे लाखों लोगों को भोजन के पैकेट बाँटना, हर परिवार से लम्बी प्रश्नावली पूछना और आवश्यकता अनुसार उन्हें सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध कराना, संक्रमित लोगों को तुरंत अलग कर उनका इलाज करना जैसे कुछ ऐसे कदम थे जिनसे केरल को इस माहमारी को नियंत्रित करने में सफलता मिली है। केरल के हवाई अड्डों पर भारत सरकार से भी दो हफ़्ते पहले यानी 10 फ़रवरी से ही विदेशों से आने वालों यात्रियों के परीक्षण शुरू कर दिए गए थे। ईरान और साउथ कोरिया जैसे 9 देशों से आने वाले हर यात्री को अनिवार्य रूप कवारंटाइन में भेज दिया गया। पर्यटकों और अप्रवासी लोगों को कवारंटाइन में रखने के लिए, पूरे राज्य में भारी मात्रा में अस्थाई आवास ग्रह तैयार कर लिए गए थे। 

इसका एक बड़ा कारण यह है कि पिछले 30 सालों में केरल की सरकार ने ‘सबको शिक्षा और सबको स्वास्थ्य’ के लिए बहुत काम किया है। जबकि दूसरी तरफ़ शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं का व्यवसाईकरण करने के हिमायती विकसित पश्चिम देश अपनी इसी मूर्खता का आज ख़ामियाज़ा भुगत रहे हैं। अमरीका जैसे देश के राष्ट्रपति ट्रम्प का कहना कि अमरीका में इस महामारी से 1 से 2.5 लाख लोग मर सकते हैं, अगर 1 लाख से कम मरे तो हम इसे अपनी सफलता मानेंगे। ऐसा इसलिए है कि अमरीका में जनस्वास्थ्य सेवाओं का आभाव है और इसलिए वहाँ चिकित्सा बहुत महंगी होती है। केरल के इस अनुभव से सबक़ लेकर भारत सरकार को शिक्षा और स्वास्थ्य के व्यवसाईकरण पर रोक लगाने के लिए फिर  से सोचना होगा। क्योंकि पहले तो मौजूदा संकट से निपटना है फिर कौन जाने कौन सी विपदा फिर आ टपके ।

Monday, April 6, 2020

लौट चलें: क्योंकि हम तो जीना ही भूल गये

उज्जैन के 67 वर्षीय युवा उद्योगपति पिछले तीन दशकों से देश के प्रतिष्ठित मेडीकल कालेजों में जाकर डाक्टरों को स्वस्थ रहने का प्रशिक्षण दे रहे हैं। अरुण ऋषि नाम के यह सज्जन पढ़ाई के नाम पर खुद को बी.एस.सी. फेल बताते हैं, अपने नाम के आगे स्वर्गीय लगाते है, स्वर्गीय लगाने का कारण पूछने पर बताते है कि जो भारत मे रहता है वो भारतीय और जो स्वर्ग में रहता है वो स्वर्गीय। उनके भाषण और साक्षात्कार देश के अखबारों में चर्चा का विषय बनते हैं। हमेशा व्यस्त और मस्त  रहने वाले गुलाबी चेहरे के 67 वर्षीय श्री अरुण ऋषि का दावा है कि उन्होंने पिछले 40 वर्षों में टूथब्रश, टूथपेस्ट, चाय, कॉफ़ी, शेविंग-क्रीम साबुन शैम्पू, सौंदर्य प्रसाधन, कृत्रिम शीतल पेय, पान गुटका धूम्रपान तथा मदिरापान का सेवन नही किया तथा इन अप्राकृतिक साधनों के उपभोग नही करने के कारण वे पिछले 40 वर्षों में एक दिन भी बीमार नही हुए और उन्हें किसी भी प्रकार की दवा का सेवन की आवश्यकता नही पड़ी।

कुछ समय पहले दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के डाक्टरों को ‘सैल्फ मैनेजमेंट’ (अपने शरीर का प्रबंध) विषय पर व्याख्यान देते हुए श्री ऋषि ने डाक्टरों से पूछा कि क्या वे स्वस्थ हैं? उत्तर में जब श्रोता डाक्टरों की निगाहें नीचे हो गयीं तो उन्होंने फिर पूछा कि जब आप खुद ही स्वस्थ नहीं हैं तो अपने मरीजों को स्वस्थ कैसे कर पाते हैं? पहली बार मिलने पर श्री ऋषिजी की बातें बहुत अटपटी और हास्यास्पद लगती हैं, पर जब उन पर गंभीरता से विचार किया जाए तो वह दिमाग को झकझोर देती हैं। यही वजह है कि श्री ऋषि महीने में लगभग 18 दिन देश के प्रतिष्ठित संस्थाओं व बड़े बड़े औद्योगिक घरानों के अधिकारियों व कर्मचारियों के परिवारों को ‘सैल्फ मैनेजमेंट’ एवं हेल्थ मैनेजमेंट विदाउट मेडिसिन पर व्याख्यान देने जाते हैं, अल्प से मानधन पर। समाज की यह सारी सेवा वे अपने धर्मार्थ ट्रस्ट ‘आयुष्मान भव’ के झंडे तले करते हैं। 

उनके शोध और अध्ययन का निचोड़ काफी रोचक है और आम पाठक के बहुत फायदे का है। उनके अनुसार सुबह आठ बजे तक भारतवासी टूथब्रश, टूथपेस्ट, चाय, कॉफ़ी, शेविंग-क्रीम, साबुन, शैम्पू तथा अन्य सौन्दर्य प्रसाधनों पर 900 करोड़ रुपया रोजाना खर्च कर देते हैं। इसके बाद सुबह आठ से रात के सोने तक लगभग 1100 करोड़ रुपया चाकलेट, शीतल पेय, पान, गुटका, सिगरेट बीड़ी व मदिरा पर खर्च कर देते है, इस प्रकार जब हम भारतवासी रोज़ाना 2000 करोड़ रुपये के अप्राकृतिक साधनों के द्वारा ईश्वर की प्रकृति का नाश करते है तो ईश्वर भी हम भारतवासियों की प्रकृति का सत्यानाश कर देता है और फिर हम 3000 करोड़ प्रतिदिन फिर अंग्रेज़ी दवाइयों और इलाज पर जो खर्च कर देते है। इस तरह प्रति दिन 5000 करोड़ रुपया, फालतू की चीजों में बर्बाद करने वाले इस देश पर कुल ऋण है लगभग 85 लाख करोड़ रुपये। इसमें देशी और विदेशी दोनों ऋण शामिल हैं। 

अगर यह बर्बादी खत्म हो जाए तो न सिर्फ तीन वर्ष में सारा ऋण पट जाए बल्कि लोगों का स्वास्थ्य इतना सुधर जाएगा कि स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाला खर्च भी तेजी से घट जाएगा। वैसे भी ये सारी वे चीजें हैं जिनके बिना स्वस्थ, सुंदर व साफ सुथरा रहा जा सकता है। जिसे ऋषि जी पिछले 20 वर्षों से गाँव गाँव शहर  शहर जा कर सिखाते है। आज से 60 वर्ष पहले देश में अप्राकृतिक सौन्दर्य प्रसाधनों का प्रचलत नगण्य था। लोग मिट्टी से हाथ धोते थे, घर के बने मंजन से दांत मांजते थे, तेल, घी या मलाई से मालिश करते थे, रीठे या आंवले से सिर धोते थे तथा चाय काफी की जगह छाछ, लस्सी या दूध पीते थे और पूरी तरह स्वस्थ रहते थे। 

प्राकृतिक वस्तुओं को छोड़कर बाजार की शक्तियों का शिकार बन कर हम अपने स्वास्थ्य और जेब दोनों से हाथ धो रहे हैं। बाजार की ये शक्तियां इतनी चालाक हैं कि इन्होंने आम जनता के मन में पहले तो भ्रम पैदा किया कि प्राकृतिक सौन्दर्य वस्तुयें इस्तेमाल करने वाले गंवार हैं, पिछड़े हैं। यह भी प्रचार किया गया कि प्राकृतिक चीजों का इस्तेमाल आधुनिक जीवन में करना संभव नहीं है। किन्तु जब लगा कि इनके झूठे दावों की पोल खुलने लगी है और पश्चिमी देशों के लोग ही, तमाम आधुनिकता के बावजूद प्रकृतिक जीवन की ओर दौड़ रहे हैं तो यही बाजारी शक्तियां फिर दौड़ पड़ी प्राकृतिक वस्तुओं के उत्पादन को पेटेंट कराने में या उनके डिब्बा बंद पैकेट बनाकर उसी तरीके से तड़क भड़क के साथ बेचने में। 

सोचने की बात है कि हल्दी और नीम जैसे घर घर में मिलने वाले पदार्थ को अमरीका में पेटेंट क्यों कराया गया? ताकि कल को चार आने की हल्दी टीवी पर विज्ञापन दिखाने के बाद 40 रुपये की बेची जा सके। हम पढ़े लिखे मूर्ख फिर भी इनके बहकावे में आ जाते हैं।

हम कैसे बैठकर खाना खायें? क्या खाना खाएं? मल और मूत्र का विसर्जन कैसे करें? ऐसे छोटे छोटे सवालों का वैज्ञानिक जवाब आज के पढ़े लिखे अभिभावकों के पास भी नहीं है। जब खुद ही नहीं जानते तो बच्चों को क्या बताएंगे? जबकि ये सारी वैज्ञानिक जानकारियां हमारे शास्त्रों में भरी पड़ी हैं। उसी जानकारी को एकत्रित करके श्री अरुण ऋषि जैसे लोग आम आदमी के भी समझ में आ सकने योग्य तथा अत्यंत ही रोचक भाषा में देश भर में घूम घूम कर लोगों को समझाने में जुटे हैं। उसे चाहे ये ‘सैल्फ मैनेजमेंट’ कह दें या 'बेटर आर्ट आफ लिविंग’ कहें, कोई फर्क नहीं पड़ता। मूल बात यह है कि हम जीवन जीने के सदियों पुराने और आजमाए हुए तरीकों को अपनाएं, जिन्हें हम बिना समझे छोड़ते जा रहे हैं और बदले में दुख पा रहे हैं। खुद लूट रहे हैं और मुल्क लुट रहा है। अरबों-खरबों रुपये का फायदा कुछ बहुराष्ट्रीय या उनके दलालों की जेब में जा रहा है।

ऐसी ही एक और छोटी सी बात है। हम रोज नंगे पैर मंदिर क्यों जाते थे? वहां ताली बजा कर कीर्तन क्यों करते थे? क्या कभी सोचा हमने? वैज्ञानिक प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ है कि दिन में एक बार कुछ समय के लिये जोरदार ताली बजाने से बहुत से रोग दूर हो जाते हैं। देशी तरीके से उकड़ू बैठ कर खाने और मल विर्सजन करने से खाना अच्छा पचता है और कब्जियत नहीं होती, जोड़ो के दर्द कभी नही होता, जिसका शिकार आज लगभग हर शहरी व्यक्ति बन चुका है। इसी तरह जो पुरुष नीचे बैठ कर मूत्र विसर्जन करते हैं उन्हें प्रोस्टेट कैंसर (पौरुष ग्रन्थि) की बीमारी नहीं होती। कुछ देर तक पथरीली जमीन पर नंगे पैर चलने या पत्थर से पैर के तलुए रगड़कर नहाने से स्वतः ही एक्यूप्रेशर का काम हो जाता है और आदमी स्वस्थ रहता है। इसी तरह नमाज की विभिन्न मुद्राओं में बैठना भी स्वास्थ्य के लिये फायदेमंद होता है। जिसे ऋषि जी बहुत ही सरल और रोचक अंदाज से पढ़ाते है, ताली वादन और नमाज़ पर वे एक शेर भी सुनाते है,

जिस दिन ताली और नमाज़ एक साथ होगी अता ।
बस वही होगा जन्नत का सही पता।।

कितनी अजीब बात है कि जब किसी जानवर का पेट भर जाता है तो आप उसे कितनी भी बढि़या चीज खाने को क्यों न दें, वह मुंह फेर लेता है। जबकि हम इंसान भरे पेट पर भी चार गुलाब जामुन और खाने को तैयार रहते हे। ऐसे नमूने हर घर में मिलेंगे। हम भूल गये हैं कि भूख से कम खाने वाले लोग प्रायः बीमारी नहीं पड़ते, पर भूख से ज्यादा खाने वाले हमेशा बीमार पड़ते हैं।

जिस तरह भजन करते समय बात करने या टीवी देखने से भजन का फल नहीं मिलता उसी तरह भोजन करते समय टीवी देखने या बात करने से भोजन का फल नहीं मिलता। पर सब कुछ जान कर भी हम अनजान बने रहते हैं। आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में भी जो लोग प्राकृतिक जीवन के जितना निकट रहने का प्रयास कर रहे हैं वे तथाकथित आधुनिक लोगों के मुकाबले कहीं ज्यादा स्वस्थ और सुखी रहते हैं और लम्बे समय तक जीते हैं।जिसका अरुण ऋषि जी प्रत्यक्ष उदाहरण है।

जो सांस्कृतिक और आध्यात्मिक ज्ञान हमें विरासत में मिला है उसकी तो हम परवाह नहीं करते, यह सोचते हैं कि हम तो सब जानते हैं ये बेचारे पश्चिमी देश कुछ नहीं जानते इसलिये हमारे यहां आते हैं। पर वही पश्चिमी देश दरिद्र लोगों की तरह दौड़ दौड़ कर हमारी बौद्धिक सम्पदा को बटोरने में जुटे हैं। वे सम्पन्न होते जा रहे हैं और हम कर्ज में डूबते जा रहे हैं। इस तरह हम जो सोने की चिड़िया कहलाते थे, आज विश्व के कंगालतम राष्ट्रों में से एक हो गये। दुख की बात तो यह है कि हमारे पतन और लूट की जो गति आजादी के बाद बढ़ी है, वैसी तो पिछले एक हजार साल में भी नहीं थी।

कोरोना के इस आतंक के इन दिनों ऐसे तमाम सवालों पर गंभीर चिंतन करना होगा कि हमसे क्या भूल हो रही है? ताकि कोरोना के बाद का सवेरा भारत के पुनर्जागरण का सवेरा बने। हम सबकी यही कोशिश होनी चाहिये।