Showing posts with label Communists Kerala West Bengal. Show all posts
Showing posts with label Communists Kerala West Bengal. Show all posts

Monday, November 1, 2021

केरल में जीने का ये नायाब तरीक़ा


केरल के वायनाड का नाम चर्चा में तब आया था जब राहुल गांधी वहाँ से लोक सभा चुनाव लड़ने गए। इससे पहले मुझे वायनाड के बारे में कुछ पता नहीं था। इत्तेफ़ाक देखिए कि पिछला हफ़्ता हम दोनों ने वायनाड की पहाड़ियों पर बिताया। यूँ तो दुनिया के तमाम देशों में यात्रा करने या छुट्टियाँ बिताने का मौक़ा मिला है। पर वायनाड का यह अनुभव बिल्कुल अनूठा था। ख़ासकर इसलिए कि इस यात्रा ने ज़िंदगी जीने का एक नया तरीक़ा दिखाया। वायनाड की अलौकिक खबसूरती की चर्चा बाद में करूँगा, पहले इस नए अनुभव को साझा कर लूँ।

   

दिल्ली के प्रतिष्ठित मॉडर्न स्कूल में मेरी जीवन साथी मीता नारायण की एक सहपाठी रहीं सुजाता गुप्ता और उनके कुछ साथियों ने वायनाड के एक पहाड़ पर अपने आशियाने बनाए हैं। इसका नाम ‘इलामाला इस्टेट’ है। समुद्र तल से 3000 फूट ऊँचे पहाड़ पर सघन वन में रहने का यह अनूठा अन्दाज़ हर किसी को आह्लादित करता है। सात मित्रों की सात कौटेज बहुत कलात्मक रुचि से बनाई और सजाई गई है जिनके हर ओर सुंदर फूल और घने वृक्ष दिखाई देते हैं। किसी भी घर में भोजन नहीं पकता केवल चाय - कॉफ़ी बनाने की व्यवस्था है। सातों मित्रों ने पहाड़ की चोटी पर एक ‘लोंग हाउस’ बनाया है। जिसकी रसोई में पारम्परिक से लेकर आधुनिक तरीक़े तक से खाना पकाने की अनेक व्यवस्थाएँ हैं।

 


इस रसोई में 10-12 जने एक साथ भोजन पका सकते हैं। वहाँ का नियम यह है कि हर दिन भोजन पकवाने और खिलवाने का ज़िम्मा एक साथी का होता है। जिसके निर्देशन में रोज़ तीनों वक्त नाश्ता और खाना बनाया जाता है। चूँकि ये सातों सदस्य अलग-अलग प्रांतों से हैं इसलिए ‘इलामाला इस्टेट’ के भोजन कक्ष में हर दिन विविध व्यंजनों का स्वाद मिलता है। जहां सातों कौटेज के लोग दिन में तीन बार जमा होते हैं और भोजन के साथ विविध विषयों पर गम्भीर चर्चा या ‘इंडोर गेम्स’ का आनंद लेते हैं। इस ‘लोंग हाउस’ की बाल्कनी से चारों तरफ़ जहां भी निगाह जाती है 50-50 मील दूर तक घना जंगल और सुंदर पहाड़ हैं, जिनमें दिन भर बादल, बारिश, इंद्रधनुष अटखेलियाँ करते रहते हैं।

 

यहाँ चंदन, रोज़वुड, सुपारी, नारियल जैसे अनेक बहुमूल्य उत्पादों के हज़ारों वृक्ष हैं। यहाँ का वन्य जीवन भी कम रोमांचक नहीं। अक्सर हिरन आपके वरांडे में आकर खड़े हो जाते हैं। हिंसक पशु, कोबरा और जंगली हाथी भी यदा-कदा चक्कर लगा लेते हैं, जिनसे सावधानी बरतनी होती है। ‘लोंग हाउस’ में परिवार के मित्रों के ठहरने के लिए चार आधुनिक कक्ष भी हैं, जिनकी साज-सज्जा ‘ताज रिज़ॉर्टस’ से कम नहीं। पर यह व्यवस्था व्यावसायिक नहीं है, जहां किराया देकर ठहरा जा सके। सात दिन कैसे बीत गए, पता ही नहीं लगा। प्रकृति के इतना निकट इस अलौकिक वातावरण में शेष दुनिया से सम्पर्क रखने की इच्छा ही नहीं होती। हमारी उम्र के वरिष्ठ नागरिकों के लिए जीवन जीने का ये तरीक़ा बहुत सुखद और अदभुत है। जब आप एक दूसरे के साथ अपना जीवन इस तरह साझा कर लेते हैं कि फिर किसी और की ज़रूरत ही नहीं होती।

 

अनजाने प्रदेश में जहां बोली जाने वाली मलयालम भाषा कोई न जानता हो और स्थानीय लोग अंग्रेज़ी भी टूटी-फूटी बोलते हों, वहाँ उत्तर भारतीय लोगों का रहना कितना मुश्किल होगा? पर ऐसा नहीं है। ‘इलामाला इस्टेट’ के सभी कर्मचारी बेहद शालीन और काम के प्रति समर्पित हैं। हां केरल में व्याप्त कर्मचारी यूनियनों की संस्कृति के कारण कर्मचारियों से काम करवाने की शर्तें बिल्कुल साफ़ हैं। उनमें कोई ढील बर्दाश्त नहीं की जाती। पर जो बात सबसे ज़्यादा प्रभावित करती है वो ये, कि पूरा केरल बेहद अनुशासित राज्य है। जहां के लोग नियम और क़ानूनों का पूरी ज़िम्मेदारी से पालन करते हैं। जैसे शेष भारत में आपको शायद ही कोई दुकान ऐसी मिले जिसका सामान दुकान के बाहर फुटपाथ या सड़क पर फैला न हो। जबकी केरल में कैसी भी दुकान क्यों न हो, सड़क पर आपको कुछ भी रखा नहीं मिलेगा। सब कुछ दुकान के शटर के अंदर तक ही सीमित रहता है।

 

इसी तरह सड़क पर आप यह देख कर हैरान रह जाएँगे कि लोगों के घर के बाहर सड़क के किनारे एलपीजी के लाल सिलेंडर 24 घंटे पड़े रहते हैं और कोई उनकी चोरी नहीं करता। गैस की आपूर्ति वाली गाड़ी भरा सिलेंडर रख जाती है और ख़ाली सिलेंडर उठा कर ले जाती है। इसी तरह दूध के बड़े-बड़े कैन सड़क के किनारे रखे रहते हैं और दूधिया उन्हें उठा कर घर-घर दूध बाँट कर फिर सड़क पर रख देता है और दूध की गाड़ी ख़ाली कैन उठा लेती है और भरे छोड़ देती है। अड़ोस-पड़ोस के बीच विश्वास का रिश्ता इस कदर है कि दो घरों के बीच कोई बाउंड्री वॉल नहीं बनती। हर घर के चारों तरफ़ सुपारी या नारियल आदि के बड़े-बड़े पेड़ होते हैं। केरल में ज़्यादातर सड़कें घुमावदार हैं और केवल दो लेन की ही होती हैं। एक जाने की और एक आने की। पर उत्तर भारत की तरह कभी ट्रैफ़िक जाम की समस्या नहीं होती। क्योंकि सभी वाहन चालक एक सीधी क़तार में चलते हैं। कोई भी जल्दीबाज़ी में ओवरटेक करके सामने से आ रहे वाहनों का रास्ता नहीं रोकता। वायनाड में हिंदूओँ की आबादी आधी है, शेष मुसलमान और ईसाई हैं और सभी एक दूसरे के साथ हिल-मिल कर रहते हैं। इसलिए ‘इलामाला इस्टेट’ के हमारे इन मित्रों को अपने इलाक़े से 2000 मील दूर रहकर भी कोई दिक्कत नहीं होती।

 

वायनाड में बाणासुर बांध, प्राग ऐतिहासिक गुफाएँ, पहाड़ों पर सुंदर जल प्रपात, प्राचीन मंदिर और वाइल्ड लाइफ़ सेंचुरी जैसे अनेक पर्यटक स्थल भी हैं। पर यहाँ का सबसे बड़ा आकर्षण है यहाँ होने वाली चाय, कॉफ़ी और मसालों की खेती। जहां तक आपकी निगाह जाती है वहाँ तक आपको यही हरा-भरा दृश्य दिखाई देता है। पर इन बाग़ानों में काम करने के लिए श्रमिक बिहार, बंगाल और आसाम से बड़ी तादाद में यहाँ आते हैं। दक्षिणी केरल की तरह यहाँ गर्मी और मच्छरों का प्रकोप नहीं होता। बल्कि एक पहाड़ी ज़िला होने के कारण अप्रैल-मई छोड़ कर यहाँ का मौसम सुहावना ही रहता है। पर अभी तक वायनाड में पर्यटकों का आना सीमित मात्रा में ही होता है। क्योंकि इस ज़िले का विकास पर्यटन की दृष्टि से नहीं किया गया है। ऐसी जगह में जाकर वरिष्ठ नागरिकों का रहना और सामूहिक जीवन जीने के प्रयोग करना रोमांचक ही नहीं सुखद है। शेष भारत में भी जहां वरिष्ठ नागरिकों को अकेलापन लगता हो या उनके बच्चे उनका ध्यान रखने के लिए हर समय उपलब्ध न हों वहाँ भी इस तरह मिलजुलकर साथ रहने के प्रयोग किए जाने चाहिए, जिससे बुढ़ापा आनन्द से कट सके।

Monday, April 13, 2020

शाबाश केरल: कमाल कर दिया

कोरोना वायरस का भारत में सबसे पहला मामला 30 जनवरी 2020 को केरल में पाया गया था। तब से आज तक कोरोना के कारण केरल में केवल 2 मौतें हुई हैं। इस दौरान 1.5 लाख लोगों की टेस्टिंग हो चुकी है, 7447 लोगों में संक्रमण पाया गया और 643 लोग इलाज के बाद ठीक हो कर चले गए। 

जहां भारत के मीडिया का एक बड़ा हिस्सा कोरोना को लेकर हड़बड़ाहट में, रात दिन साम्प्रदायिक ज़हर उगल रहा है, वहीं दुनिया भर के मीडिया में कोरोना प्रबंधन को लेकर केरल सरकार द्वारा समय रहते उठाए गए प्रभावी कदमों की जमकर तारीफ़ हो रही है। विशेषकर केरल की स्वास्थ्य मंत्री सुश्री शैलजा टीचर की, जो बिना डरे रात दिन इस माहमारी से लड़ने के सड़कों, घरों, अस्पतालों  में प्रभावशाली इंतजाम में जुटी रही हैं। 

अगर पूरे भारत की दृष्टि से देखा जाए तो केरल भारत का अकेला ऐसा राज्य है जिसके सामने कोरोना से लड़ने की चुनौती सबसे ज़्यादा थी। इसके तीन कारण प्रमुख हैं। भारत में  सबसे ज़्यादा विदेशी पर्यटक केरल में ही आते हैं और लम्बे समय तक वहाँ छुट्टियाँ मनाते हैं। चूँकि कोरोना विदेश से आने वाले लोगों के मध्यम से आया है इसलिए इसका सबसे बड़ा ख़तरा केरल को था। दूसरा; केरल का शायद ही कोई परिवार हो जिसका कोई न कोई सदस्य विदेशों में काम न करता हो और उसका लगातार अपने घर आना जाना न हो।  केरल की 17.5 फ़ीसदी आबादी विदेशों से रहकर आयी है। इसलिए इस बीमारी को केरल में फैलने ख़तरा सबसे ज़्यादा था। तीसरा; केरल भारत का सबसे ज़्यादा सघन आबादी वाला राज्य है। एक वर्ग किलोमीटर में रहने वाली आबादी का केरल का औसत शेष भारत के औसत से कहीं ज़्यादा है। इसलिए भी इस बीमारी के फैलने का यहाँ बहुत ख़तरा था। इसके बावजूद आज केरल सरकार ने हालात क़ाबू में कर लिए हैं। फिर भी स्वास्थ्य मंत्री सुश्री शैलजा टीचर का कहना है, हम चैन से नहीं बैठ सकते, क्योंकि पता नहीं कब ये माहमारी, किस रूप में फिर से आ धमके। 

आम तौर पर हम सनातन धर्मी लोग वामपंथी विचारधारा का समर्थन नहीं करते क्योंकि हम ईश्वरवादी हैं और वामपंथी नास्तिक विचारधारा के होते हैं। पर पिछले तीन महीनों के केरल की वामपंथी सरकार के इन प्रभावशाली कार्यों ने यह सिद्ध किया है कि नास्तिक होते हुए भी अगर वे अपने मानवतावादी सिद्धांतों का निष्ठा से पालन करें तो उससे समाज का हित ही होता है।

सबसे पहली बात तो केरल सरकार ने ये करी कि उसने बहुत आक्रामक तरीक़े से फ़रवरी महीने में ही हर जगह लोगों के परीक्षण करने शुरू कर दिए थे। इस अभियान में स्वास्थ्य मंत्री ने अपने 30 हज़ार स्वास्थ्य सेवकों को युद्ध स्तर पर झौंक दिया। नतीजा यह हुआ कि अप्रेल के पहले हफ़्ते में पिछले हफ़्ते के मुक़ाबले संक्रमित लोगों की संख्या में 30% की गिरावट आ गई। आज तक केरल में कोरोना से कुल 2 मौत हुई हैं और संक्रमित लोगों में से सरकारी इलाज का लाभ उठाकर 34% लोग स्वस्थ हो कर घर लौट चुके हैं। उनकी यह उपलब्धि भारत के शेष राज्यों के मुक़ाबले बहुत ज़्यादा और प्रभावशाली है। जबकि शेष भारत में लॉक्डाउन के बावजूद संक्रमित लोगों की संख्या व मरने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। 

ये सही है कि इटली, स्पेन, जर्मनी, इंग्लेंड और अमरीका जैसे विकसित देशों के मुक़ाबले भारत का आँकड़ा प्रभावशाली दिखाई देता है। पर इस सच्चाई से भी आँखे नहीं मीचीं जा सकती कि शेष भारत में कोरोना संक्रमित लोगों के परीक्षण का सही आँकड़ा ही उपलब्ध नहीं है। मेडिकल उपकरणों की अनुपलब्धता, टेस्टिंग सुविधाओं का आवश्यकता से बहुत कम होना और कोरोना को लेकर जो आतंक का वातावरण मीडिया ने पैदा किया उसके कारण लोगों का परीक्षण कराने से बचना। ये तीन ऐसे कारण हैं जिससे सही स्थिति का आँकलन नहीं किया जा सकता। इसलिए पिछले हफ़्ते ही मैंने प्रधान मंत्री श्री मोदी जी को सोशल मीडिया के मध्यम से सुझाव दिया था कि वे हर ज़िले के ज़िलाधिकारी को निर्देशित करें कि वे अपने ज़िले में हर दिन  किए गए परीक्षणों की संख्या और संक्रमित लोगों की संख्या अपनी वेबसाइट पर पोस्ट करें। जिसकी गणना करके फिर नैशनल इन्फ़र्मैटिक्स सेंटर (NIC) सही सूचना जारी करता रहे। उल्लेखनीय है कि प्रधान मंत्री जी की पहल पर शुरू किया गया ‘आरोग्य सेतु’ ऐप इस दिशा में एक सराहनीय कदम है पर यह भी उस कमी को पूरा नहीं करता जो ज़िलाधिकारी कर सकते हैं। 

अमरीका के सबसे प्रथिष्ठित अख़बार ‘द वॉशिंगटन पोस्ट’ ने लिखा है कि केरल का उदाहरण भारत सरकार के लिए अनुकरणीय है। क्योंकि पूरे देश का लॉक्डाउन करने के बावजूद भारत में संक्रमित लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है और इस लेख के लिखे जाने तक लगभग 7.5 हज़ार लोग संक्रमित हो चुके हैं और क़रीब 240 लोग अकाल मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं। 

हालाँकि केरल में भी स्वास्थ्य सेवाओं की दशा बहुत हाई क्लास  नहीं थी पर उसने जो कदम उठाए, जैसे लाखों लोगों को भोजन के पैकेट बाँटना, हर परिवार से लम्बी प्रश्नावली पूछना और आवश्यकता अनुसार उन्हें सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध कराना, संक्रमित लोगों को तुरंत अलग कर उनका इलाज करना जैसे कुछ ऐसे कदम थे जिनसे केरल को इस माहमारी को नियंत्रित करने में सफलता मिली है। केरल के हवाई अड्डों पर भारत सरकार से भी दो हफ़्ते पहले यानी 10 फ़रवरी से ही विदेशों से आने वालों यात्रियों के परीक्षण शुरू कर दिए गए थे। ईरान और साउथ कोरिया जैसे 9 देशों से आने वाले हर यात्री को अनिवार्य रूप कवारंटाइन में भेज दिया गया। पर्यटकों और अप्रवासी लोगों को कवारंटाइन में रखने के लिए, पूरे राज्य में भारी मात्रा में अस्थाई आवास ग्रह तैयार कर लिए गए थे। 

इसका एक बड़ा कारण यह है कि पिछले 30 सालों में केरल की सरकार ने ‘सबको शिक्षा और सबको स्वास्थ्य’ के लिए बहुत काम किया है। जबकि दूसरी तरफ़ शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं का व्यवसाईकरण करने के हिमायती विकसित पश्चिम देश अपनी इसी मूर्खता का आज ख़ामियाज़ा भुगत रहे हैं। अमरीका जैसे देश के राष्ट्रपति ट्रम्प का कहना कि अमरीका में इस महामारी से 1 से 2.5 लाख लोग मर सकते हैं, अगर 1 लाख से कम मरे तो हम इसे अपनी सफलता मानेंगे। ऐसा इसलिए है कि अमरीका में जनस्वास्थ्य सेवाओं का आभाव है और इसलिए वहाँ चिकित्सा बहुत महंगी होती है। केरल के इस अनुभव से सबक़ लेकर भारत सरकार को शिक्षा और स्वास्थ्य के व्यवसाईकरण पर रोक लगाने के लिए फिर  से सोचना होगा। क्योंकि पहले तो मौजूदा संकट से निपटना है फिर कौन जाने कौन सी विपदा फिर आ टपके ।

Monday, February 22, 2016

जेएनयू पर हमले का सच

 इसमें शक नहीं कि अपनी स्थापना के तीन दशक बाद तक दिल्ली का जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) माक्र्सवादियों का गढ़ रहा। इस दौरान माक्र्सवादियों ने दूसरी विचारधाराओं को न तो पनपने दिया और न ही उनका सम्मान किया। इतना ही नहीं माक्र्सवाद के नाम पर बड़ी तादाद में अयोग्य लोगों को यहां नौकरियां दी गईं। जबकि योग्य लोगों को दरकिनार कर दिया गया। इसलिए लोकतांत्रिक मूल्यों की बात करना आज उन्हें शोभा नहीं देता। अगर माक्र्सवादी दल लोकतांत्रिक ही होते तो उनके शासित राज्य पश्चिम बंगाल में नक्सलवाद का जन्म क्यों होता ? जाहिर है कि हर विचारधारा के अंदर गुण-दोष होते हैं और कोई विचारधारा अपने आप में संपूर्ण नहीं होती। ऐसा दुनिया का इतिहास भी सिद्ध करता है।
 
रही बात माक्र्सवाद बनाम हिंदू राष्ट्रवाद की तो स्पष्टता दोनों में बुनियादी टकराव है। पर इसका मतलब ये नहीं कि हिंदू राष्ट्रवाद की भावना में इस राष्ट्र और समाज के हित की कोई बात ही न हो। फिर भी माक्र्सवादियों का हिंदू राष्ट्रवादी विचार पर लगातार इकतरफा हमला गले नहीं उतरता। मार्क्स के आयातित विचारों के मुकाबले हजारों वर्षों से भारत के ऋषिमुनियों द्वारा संचित ज्ञान भारतीय समाज के लिए कहीं ज्यादा सार्थक है, यह बात मार्क्सवादी आज तक नहीं समझ पाये। इधर हिन्दू राष्ट्रवादी भी अपनी बात भावुकता से ज्यादा और तर्क से कम रखते हैं, इसलिए उन पर हमले होते हैं, वरना उनकी बात कहीं ज्यादा जन उपयोगी है। हम लोग जो जेएनयू की दूसरी पीढ़ी के छात्र रहे, विचाराधाओं के ऐसे चरम किनारों के बीच चलते रहे हैं। जो अच्छा लगा, उसे अपनाया और जो गलत लगा, उसकी खुली आलोचना की। अपने इसी मापदंड से हम जेएनयू के मौजूदा माहौल का आंकलन करेंगे।
 

अभी तक के उपलब्ध प्रमाणों से ऐसा नहीं लगता कि छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया ने देशद्रोह का कोई काम किया। कन्हैया उस शोषित समाज का युवा है, जिसके मन में सदियों के सामाजिक शोषण और मौजूदा भ्रष्ट आर्थिक व्यवस्था के विरोध में भारी आक्रोश है। इसलिए ऐसे युवा मन का उत्तेजना में बह जाना तो समझा जा सकता है। पर उसे राष्ट्रद्रोह नहीं कहा जा सकता। इसलिए उसके साथ जो कुछ हो रहा है, उससे कोई भी स्वतंत्र चिंतन वाला व्यक्ति सहमत नहीं है। ये जरूर है कि कश्मीर के आतंकवाद से जुड़े कुछ युवा उस दिन की घटना के पीछे रहे हों, जिसकी जांच दिल्ली पुलिस कर रही है। हो सकता है उन्होंने कन्हैया का इस्तेमाल अपने राजनैतिक लाभ के लिए किया हो। पर ये एक ऐसी घटना थी, जिसे विश्वविद्यालय के स्तर पर निपटाया जाना चाहिए था। जो घटना हुई और कुछ चैनलों ने जिस तरह उसे बढ़ा-चढ़ाकर देशद्रोह की तरह पेश किया व जिस तरह वहां पुलिस कार्यवाही हुइ उससे साफ जाहिर है कि जेएनयू की छवि खराब करने की एक साजिश रची गई। जिससे हम सब लोगों को बहुत तकलीफ है। क्योंकि हम सब आज जो कुछ हैं, उसमें जेएनयू का महत्वपूर्ण योगदान है। विभिन्न सामाजिक, आर्थिक, पृष्ठभूमियों से देशभर के नौजवान जेएनयू आते रहे हैं और इसी स्वतंत्र चिंतन के माहौल में उनके व्यक्तित्व का निर्माण हुआ है। फिर उन्होंने देश और विदेश में अनेक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दिया है और आज भी दे रहे हैं।
 
 विरोध की तो जेएनयू में ऐसी परंपरा रही है कि इसके छात्रों और शिक्षकों ने अपनी चांसलर व भारत की प्रधानमंत्री रहीं इंदिरा गांधी तक का खुला और जबर्दस्त विरोध किया था। हो सकता है कि विरोध के ये तेवर कई बार सीमाएं लांघ जाते हों। पर जहां दूसरे तमाम विश्वविद्यालयों में डिग्री बांटने का कारोबार धंधे की तरह चल रहा हो, वहां ऐसे स्वतंत्र चिंतन के अनुभवों से युवाओं में जो आत्मविश्वास और विश्लेषणात्मक व तार्किक बुद्धि का विकास होता है, वह उन्हें जीवन भर खड़े रहने की ताकत देता है। यह सही है कि कोई भी सरकार ऐसे स्वतंत्र वातावरण को बर्दाश्त नहीं करती। पर फिर विश्वविद्यालय का तो उद्देश्य ही होता है, विचारों का स्वतंत्र आदान-प्रदान करना। इसलिए विश्वविद्यालयों के मामलों में सरकारों को अति संवेदनशीलता के साथ निर्णय लेने होते हैं, जो मौजूदा घटनाक्रम में दिखाई नहीं दिया।
 
 जिस तरह कुछ टीवी एंकरों और वैचारिक प्रतिबद्धता वाले लोगांे ने जेएनयू को टीवी चैनलों पर बार-बार देशद्रोही करार दिया, उससे हम सब बहुत आहत हैं। क्योंकि जेएनयू परिवार देशद्रोही नहीं है। मैं याद दिलाना चाहूंगा कि जेएनयू का पूर्व छात्र होते हुए भी मैं राष्ट्रवादी हूं और इसलिए 1993 में जब मैंने कश्मीर के आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन को विदेशों से आ रही अवैध आर्थिक मदद के ‘जैन हवाला कांड’ का पर्दाफाश किया तो मुझे विश्वास था कि भाजपा, संघ और विहिप जैसे संगठन खुलकर मेरे साथ खड़े होंगे और देशद्रोह के इस कांड की ईमानदारी से जांच कराने की मांग करेंगे। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया, कारण देशद्रोह के इस घोटाले में उनके बड़े नेता लाल कृष्ण आडवाणी व अन्य भी फंसे थे। मुझे आजतक इस बात का दुख है कि अगर इन संगठनों ने अपने नेताओं को बचाने के चक्कर में राष्ट्रधर्म की बलि न दी होती, तो देश में आतंकवाद इतने पैर न पसार पाता। इसलिए आज जब वे पूरे जेएनयू को देशद्रोही करार दे रहे हैं, तो जेएनयू के छात्र उनसे भी मेरा यह सवाल दोहरा सकते हैं कि उन्होंने ‘हवाला कांड’ में ऐसी खतरनाक चुप्पी क्यों साधी थी ?
 
इन टीवी एंकरों से भी मुझे पूछना है कि ‘जैन हवाला कांड’ को दबाए जाने के कानूनी पक्षों पर उन्होंने आज तक वैसे ही तेवर क्यों नहीं दिखाए, जैसे वे जेएनयू को देशद्रोही कहते वक्त उठा रहे हैं ? जबकि वे दशकों पुराने ‘पुरलिया कांड’ तक को अचानक चुनावों के बीच उठाने में गुरेज नहीं करते ? कहावत है कि जब हम एक ऊंगली किसी पर उठाते हैं, तो तीन हम पर उठ जाती हैं और वे पूछती हैं कि जो आरोप हम दूसरों पर लगा रहे हैं क्या वह अपराध हमने, हमारे परिवार ने या हमारे परिकरों ने तो नहीं किया ? जेएनयू के मौजूदा संकट को इस परिप्रेक्ष्य में भी देखने की जरूरत है, तभी असली सच सामने आएगा। क्योंकि अक्सर जो दिखाया या बताया जाता है, वो सच नहीं होता।

Tuesday, May 17, 2011

सबक नहीं सीखे वामपंथी

Amar Ujala 17-03-2011
पश्चिम बंगाल और केरल के विधानसभा चुनाव के आज के परिणाम ने यह साबित कर दिया है कि वामपंथी पार्टियों ने अपनी पुरानी गलतियों से शायद अब तक कुछ नहीं सीखा। माक्र्सवाद और माक्र्सवादी विचारधारा भले ही दुनिया के नक्शे में आज छोटा और असंगत हो गया हो, लेकिन भारत के वामपंथी नेताओं की सोच और कार्यशैली कमोवेश आज भी उसी पुराने ढर्रे पर चलती दिखायी दे रही है। इन नेताओं ने न तो पश्चिम बंगाल में मतदाताओं के रूझान और उनकी संवदेनाओं को संजीदगी से जानने व परखने की कोशिश की और न ही केरल में अन्दरूनी कलह और नेताओं के वर्चस्व की लड़ाई पर काबू पाने में कोई दरियादिली दिखायी।

पश्चिम बंगाल में पिछले 34 सालों में माक्र्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी की सरकार और उसके क्रियाकलापों ने यह साबित कर दिया कि माक्र्सवादी विचारधारा आज भी अपने पार्टी कैडर के आगे जाने की हिम्मत नहीं करती। बल्कि आज भी वो अपनी पार्टी की उन पुरानी नीतियों की गुलाम है जो आज के दौर में तर्कसंगत नहीं रह गया है। पश्चिम बंगाल के शीर्षस्थ नेताओं की यह दलील कि साम्यवाद और सर्वहारा का वर्चस्व ही उनके लिए मूलमंत्र है, एक कोरी कल्पना ही बनकर रह गयी। तेजी से बदलते राष्टृीय परिपेक्ष्य तथा समाज की अनगिनत नई चुनौतियों के मद्देनजर पश्चिम बंगाल की सरकार ने उनके निराकरण और सर्वांगीण विकास की तरफ से जैसे आॅंख मूंद ली हों। ऐसे में ममता बनर्जी का उदय उस राजनैतिक खाई को पाटने में बड़ा ही कारगर साबित हुआ और आज पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की ऐतिहासिक जीत इस बात की गवाह है कि जनता सिर्फ खोखले वायदे पर अब बहुत दिनों तक भरोसा नहीं करती।

पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम से साफ जाहिर है कि जनता ने वामपंथी विचारधारा को पूरी तरह नकार दिया है। ममता बनर्जी का अपना व्यक्तित्व और आम लोगों में पड़ोस के घर में रहने वाली एक दीदी की छवि, उनकी पार्टी की ऐसी ऐतिहासिक जीत का एक महत्वपूर्ण कारण है। उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी और एक आम आदमी का जीवनचर्या उन्हें राज्य के मतदाताओं से जोड़ने में काफी कारगर साबित हुआ।

 यह पहली बार है कि ममता बनर्जी ने अपने बूते पर वो कर दिखाया जो पिछले तीन दशक में काॅंगे्रस पार्टी भी नहीं कर पायी। पश्चिम बंगाल में पिछले 34 सालों के वामपंथी शासन में राज्य के सर्वांगीण विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया गया और इसका सबसे ताजा उदाहरण यह है कि अन्य राज्यों की तुलना में औद्योगिक विकास के आंकड़ों को देखें तो पश्चिम बंगाल सत्रहवें नम्बर पर आता है। वही हाल शिक्षा का है और यह कहा जाये कि वामपंथी सरकारों ने जिस तरह से चाहा, राज्य किया। दरअसल वामपंथियों ने जिस साम्यवादी विचारधारा का आवरण ओढ़ा, उसे अपने आचरण में नहीं उतारा। अगर उतारा होता तो बंगाल में नक्सलवाद का जन्म नहीं हुआ होता। केद्र की सरकारों को हमेशा गरीबी के मुद्दे पर घेरने वाली सी.पी.एम. इसका क्या जबाव देगी कि उसकी दो दशकों की हुकूमत के दौरान पश्चिमी बंगाल के गरीबों की हालत बद से बदतर हुयी है? आज अपने इसी दोहरे आचरण का खामियाजा उसे भुगतना पड़ रहा है।

पश्चिमी बंगाल जिस हालत में ममता बनर्जी को मिला है, वह एक कांटों भरा ताज है। गरीबी और आर्थिक पिछड़ापन तो है ही, बांग्लादेश से जुड़ा एक लम्बी अन्तर्राष्टृीय सीमा अपने आप में एक बड़ी समस्या है। घुसपैठियों का लगातार आना, सीमा पर अवैध अन्तर्राष्टृीय व्यापार और आतंकवाद का खतरा, कुछ ऐसी चुनौतियां हैं जिन्हंे ममता को झेलना होगा। पश्चिमी बंगाल की आबादी भी कुछ कम नहीं। जितने लोग, उतनी अपेक्षाऐं। सबकी अपेक्षा फौरन पूरी करना सरल न होगा। अपेक्षा पूरी न होने की दशा में निराशा भी जल्दी घर कर जाती है। इसलिए जरूरी है कि ममता इस चुनौती को गम्भीरता से लें और गुजरात और बिहार के मुख्यमंत्रियों के अनुभवों से सबक लेते हुए अपनी पहली प्राथमिकता पश्चिमी बंगाल के विकास को बनायें। यह तो जग-जाहिर है कि यह विजय विधायकों की व्यक्तिगत विजय नहीं है, पूरा श्रेय अकेले ममता बनर्जी को जाता है। इसलिए मंत्रिमण्डल के गठन में वे अपनी आवश्यकता के अनुसार निर्णय ले सकती हैं। उन्हें यह देखना होगा कि जाति, धर्म, क्षेत्र को मंत्रिमण्डल में तरजीह देने की बजाय, वे उन व्यक्तियों को मंत्रिमण्डल में लें जिनमें राज्य का विकास तेजी से करवा पाने की झमता हो। लोकप्रिय नेता होने का मतलब जरूरी नहीं कि आप कुशल प्रशासक भी हों। पर ममता जैसा साफ छवि का नेता यह जानता है कि किस काम के लिए कौन व्यक्ति योग्य है? उन्हें काम सौंपकर ममता जनता के बीच ज्यादा समय बिता सकती हैं और राष्टृीय और क्षेत्रीय राजनीति में अपनी भूमिका निभा सकती हैं। यह कुछ ऐसा होगा जैसा अमरीकी राष्टृपति का प्रशासकि माॅडल, जिसमें हर काम के लिए उस क्षेत्र के अनुभवी और योग्य व्यक्तियों को जिम्मा दिया जाता है।

कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि जिस ममता बनर्जी ने सिंगूर में टाटा के नैनो प्लांट का विरोध किया था, उसी नैनो पर चढ़कर वो सिंगूर पर अपना चुनाव प्रचार करने गयीं थीं। लेकिन कई राजनैतिक पर्यवेक्षक यह मानते हैं कि ये सिंगूर आन्दोलन ही था जिसने ममता बनर्जी को यह अहसास दिलाया कि राज्य में उनकी लोकप्रियता क्या है और यहीं से उनके राजनैतिक अभियान को और बल मिला।