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Monday, September 12, 2022

देश में कई ट्रॉमा सेंटर होने चाहिए

 


टाटा समूह के पूर्व चेयरमैन साइरस मिस्त्री की एक सड़क दुर्घटना में हुई मृत्यु से देश भर में सड़क सुरक्षा को लेकर कई सवाल उठने लगे हैं। सड़क दुर्घटना में चोटिल व्यक्ति को यदि समय पर प्राथमिक उपचार मिल जाए तो अधिकतर मामलों में घायल व्यक्ति की जान बचाई जा सकती है। साइरस मिस्त्री की मृत्यु के बाद एक ओर जहां सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गड़करी ने एक आदेश जारी किया है जिसके तहत अब से कार में पीछे बैठने वाले अगर सीट बेल्ट नहीं लगाएँगे तो उनका भी चालान होगा। वहीं सड़क सुरक्षा को लेकर अन्य कई सवाल भी उठने लग गए हैं। इनमें से अहम है देश में ट्रॉमा सेंटर्स की भारी कमी का होना। 


ट्रॉमा सेंटर एक ऐसा अस्पताल होता है जो ऊँचाई से गिरने, सड़क दुर्घटना, हिंसा आदि जैसे हादसों में घायल रोगियों की प्राथमिक चिकित्सा व देखभाल के लिए विशेष स्टाफ़ से लैस रहता है। आम तौर पर ट्रॉमा सेंटर में केवल गम्भीर रूप से चोटिल व्यक्तियों का ही इलाज चलता है। प्राथमिक उपचार के बाद यदि किसी मरीज़ को किसी अन्य विशेषज्ञ से इलाज की ज़रूरत होती है तो उसे आम अस्पताल में भेज दिया जाता है। यानी ट्रॉमा सेंटर में रोज़मर्रा के मरीज़ नहीं देखे जाते।



असल में दर्दनाक चोट अपने आप में एक रोग प्रक्रिया है, जिसके लिए विशेष और अनुभवी उपचार और विशेष संसाधनों की आवश्यकता होती है। यदि ऐसे उपचारों को आम अस्पतालों में ही किया जाए तो आम मरीज़ों की भीड़ के चलते ट्रॉमा सेंटर की विशेष प्रक्रिया में असर पड़ सकता है। दुनिया का पहला ट्रॉमा सेंटर बर्मिंघम दुर्घटना अस्पताल था जो 1941 में बर्मिंघम, इंग्लैंड में खोला गया था। इस अस्पताल को आम रोगियों के बजाए गम्भीर रूप से घायलों के इलाज के लिए विशेष रूप से स्थापित किया गया था। ट्रॉमा सेंटर के उच्चतम स्तर पर विशेषज्ञ चिकित्सा और नर्सिंग देखभाल तक पहुंच है, जिसमें आपातकालीन चिकित्सा, आघात सर्जरी, महत्वपूर्ण देखभाल, न्यूरोसर्जरी, आर्थोपेडिक सर्जरी, एनेस्थिसियोलॉजी और रेडियोलॉजी के साथ-साथ अत्यधिक विशिष्ट और परिष्कृत सर्जिकल और नैदानिक उपकरण की एक विस्तृत विविधता शामिल है। 


आज हमारे देश में यदि कोई बड़ा हादसा हो तो उससे निपटने के लिए देश में कितने ट्रॉमा सेंटर हैं? मौजूदा अस्पतालों को सही ढंग से चलाने में सरकारें कितनी कामयाब हैं इसका अंदाज़ा निजी अस्पतालों की लोकप्रियता से लगाया जा सकता है। आम तौर पर यदि कोई व्यक्ति किसी सरकारी अस्पताल में जाता है तो या तो वहाँ पर डाक्टरों की कमी होती है या फिर वहाँ लगे उपकरण ठीक से नहीं चलते। मजबूरन जाँच करवाने के लिए मरीज़ों को निजी क्लिनिक या अस्पतालों का रुख़ करना पड़ता है जो उनकी जेब पर भारी पड़ता है। यदि मरीज़ों को सरकारी अस्पतालों में सभी सुविधाएँ उपलब्ध हो जाएं तो भला वे निजी अस्पतालों में क्यों जाएं? हमारी सरकारें और अफ़सर बात-बात में यूरोप और अमरीका का उदाहरण देते हैं। जबकि वहाँ सबको सरकारी स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध हैं और हमारी सरकारें अपने सरकारी अस्पतालों को बैंड करती जा रही हैं। जबकि हमारे देश में ग़रीबों की संख्या कहीं ज़्यादा है और वो निजी अस्पताल का खर्च वहन नहीं कर सकते। 



राजनेताओं द्वारा अक्सर मतदाताओं को लुभाने के लिए ऐसे वादे कर दिए जाते हैं जो पूरे नहीं होते। चुनावी वादों में स्वास्थ्य सम्बन्धी योजनाएँ भी ऐलान की जाती हैं। इन योजनाओं में करोड़ों की लागत से बनने वाले बड़े-बड़े अस्पताल और ट्रॉमा सेंटर भी शामिल होते हैं। लेकिन ज़रूरत इस बात की है कि करोड़ों रुपए के नए-नए अस्पतालों को बनाने की बजाय मौजूदा अस्पतालों को दुरुस्त किया जाए। उनकी दशा सुधारी जाए। उनमें मेडिकल उपकरण, दवाओं और जेनरेटर जैसी सुविधाएँ दी जाएं क्योंकि अक्सर छोटे शहरों में बिजली की आपूर्ति नियमित नहीं होती। राजमार्गों पर निश्चित दूरी पर ट्रॉमा सेंटर या अस्पतालों की सुविधा भी बनाई जाए और इनका व्यापक प्रचार भी किया जाए। जैसे हमें राजमार्गों और एक्सप्रेसवे पर जगह-जगह पेट्रोल पम्प और विश्राम स्थल की जानकारी के बोर्ड दिखाई देते हैं वैसे ही इन अस्पतालों/ ट्रॉमा सेंटर की जानकारी भी उपलब्ध होनी चाहिए। 


दिल्ली के प्रतिष्ठित ‘एम्स’ अस्पताल के अधीन जयप्रकाश नारायण एपेक्स ट्रॉमा सेंटर को देश का सर्वश्रेष्ठ ट्रॉमा सेंटर माना जाता है। कई सालों से इस ट्रॉमा सेंटर में कई जटिल उपचार सफलता पूर्वक किए गए हैं। इनमें से एक चर्चित मामला ऐसा था जो शायद आपको भी याद होगा। 19 अप्रेल 2010 को दिल्ली के ग्रेटर कैलाश के पास गाड़ी चला रहे कुवात्रा अदामा नाम के एक विदेशी नागरिक की गाड़ी सरियों से लदे ट्रक में जा भिड़ी। दुर्घटना में ट्रक से लटकते हुए सरिए अदामा की छाती के आर-पार हो गए। दुर्घटना में सरिए इस कदर शरीर के आर-पार हुए कि अदामा और उनके पीछे बैठे मित्र दोनों को अपनी चपेट में ले लिया। इन दोनों घायलों को एम्स के ट्रॉमा सेंटर लाया गया। एम्स ट्रॉमा सेंटर के वरिष्ठ ट्रॉमा सर्जन डॉ अमित गुप्ता की टीम ने इस चुनौतीपूर्ण सर्जरी को सफलतापूर्वक किया। इस घटना को याद करते हुए डॉ गुप्ता बताते हैं कि यह एक ऐसा मामला था जहां दुर्घटना की शिकार गाड़ी को डाक्टरों की निगरानी में अस्पताल के अंदर ही काटा गया। चूँकि सरिए इस तरह से आर-पार हुए थे कि मरीज़ को लेटाना भी संभव नहीं था। लेकिन एम्स ट्रॉमा सेंटर के अनुभवी डाक्टरों की टीम ने इसे सफलतापूर्वक कर दिखाया और अदामा और उनके मित्र को एक नया जीवन दिया। 


सवाल यह है कि देश में एम्स ट्रॉमा सेंटर जैसे कितने अस्पताल हैं? शायद हम उन्हें उँगलियों पर ही गिन लें। इसलिए इनकी संख्या बढ़ाने की ज़रूरत है। ऐसा इसलिए भी ज़रूरी हो गया है क्योंकि देश में उच्च गुणवत्ता वाले राष्ट्रीय राजमार्गों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। इसके साथ ही बढ़ रही है नवीनतम मॉडल की कारों की संख्या। इन चमचमाती गाड़ियों और चिकनी साफ़ सड़कों पर तेज रफ़्तार से गाड़ी दौड़ने का लोभ युवा पीढ़ी रोक नहीं पाती है और आय दिन ख़तरनाक दुर्घटनाओं का शिकार होती है। इसलिए ट्रॉमा सेण्टरों की संख्या बढ़ाना और इसके साथ ही अति आधुनिक ट्रॉमा एम्बुलेंसों की तैनाती इन राजमार्गों पर कर दी जाए तो बहुत सी क़ीमती जाने बच सकती हैं। 

Monday, May 4, 2020

ऋषि कपूर ने कहा था, “पापा की चिता में सिर्फ़ चंदन की लकड़ी लगाना”

दादासाहेब फाल्के अवार्ड लेने दिल्ली आए राज कपूर जी को मई 1988 में दिल का भारी दौरा पड़ा और 2 जून को वो चल बसे। तब ऋषि कपूर ने कहा था, पापा (राज कपूर) की चिता में सिर्फ़ चंदन की लकड़ी लगाना। पर कोरोना क़हर के चलते कल ऋषि कपूर का बेटा रणबीर कपूर चाह कर भी अपने मशहूर पिता को उनके क़द के अनुरूप विदाई नहीं दे सका। ऋषि कपूर का शरीर विद्युत शव दाहग्रह में पंचतत्वों में विलीन हो गया। 

उन दिनो मैं इंडीयन इक्स्प्रेस समूह के हिंदी अख़बार जनसत्ता का दिल्ली संवाददाता था । एप्रिल और मई 1988 में मैं सपरिवार अमरीका के टूर पर था, जहां मेरे व्याख्यान स्टैन्फ़र्ड यूनिवर्सिटी (सैन फ़्रांसिस्को) और शिकागो में हो रहे थे। 

तभी दिल्ली दफ़्तर से फ़ोन आया फ़ौरन भारत लौट आओ। राज कपूर जी को दिल का घातक दौरा पड़ा है और वे दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती हैं, जहां हिंदी या इंग्लिश के किसी भी पत्रकार को घुसने नहीं दिया जा रहा। तुम ही उनकी खबर निकाल कर ला सकते हो। मजबूरन मुझे अमरीका की यात्रा अधूरी छोड़कर भारत लौटना पड़ा। 

तब से एक महीने तक हर दिन मैं सुबह दस बजे से शाम सात बजे तक एम्स के प्राइवेट वार्ड के सूट नम्बर 101 में कपूर परिवार के साथ रहता और रात को दफ़्तर जाकर दिन भर की रिपोर्ट लिखता। क्योंकि वहाँ दिन भर मिलने आने वाले वीवीआईपी और फ़िल्मवालों का ताँता लगा रहता था। जिसके कई रोचक क़िस्से होते। मेरी खबरों को ही अगले दिन देश भर के बाक़ी अख़बार अपनी- अपनी भाषा में छापते थे।

दुःख की घड़ी में आशा की हर किरण नई अपेक्षा जगा देती है। उन्हीं दिनों एक दिन दोपहर को राजीव कपूर (राम तेरे गंगा मैली के नायक) और मैं वीआईपी वार्ड के उसी कमरे में एक ही पलंग पर नीचे पैर लटकाए सो रहे थे। वार्ड के पर्दे के पीछे मरीज़ वाले पलंग पर श्रीमती कृष्णा राजकपूर, बहुरानी और तारीक़ा बाबीता और नीतू इसी तरह पैर लटकाये सो रही थीं। राज साहब तो आईसीयू में थे। 

तभी वार्डबोय ने सूचना दी कि रामायण की सीता जी आयी हैं। हम सब हड़बड़ाकर उठ गए। दीपिका चिखलिया अपनी माँ और छोटे भाई के साथ आयीं थी। उन्हें देखकर बॉलीवुड का ये मशहूर कपूर ख़ानदान ऐसे नतमस्तक हो गया मानो साक्षात सीता जी ही आशीर्वाद देने आ गयी हों। उस दिन मैंने जनसत्ता में खबर लिखी ‘कपूर ख़ानदान के लिए सीता ही थीं दीपिका चिखलिया’।

2 जून 1988 की शाम जब राज कपूर साहब ने अंतिम साँस ली तो उस कक्ष का वातावरण एकदम गमगीन हो गया। पर फिर जल्दी ही आगे की तय्यारी की चर्चा होने लगी। उन दिनों मोबाइल फ़ोन तो थे नहीं। अस्पताल के वीआईपी कमरे में जो एम.टी.एन.एल का फ़ोन था उसमें भारत सरकार ने एस.टी.डी की सुविधा दे रखी थी ।

उस पर सभी कपूर भाई बहन लगातार बम्बई फ़ोन करके अपने-अपने सचिवों को शव यात्रा की तैयारी की हिदायत दे रहे थे। दुखी बैठी श्रीमती कृष्णा राजकपूर को इस सबसे परेशानी ना हो इसलिये उस फ़ोन के तार को लंबा खींच कर बाहर बाल्कनी तक ले गये थे। जहां परिवार के मित्र फ़िल्मी सितारे राजेश खन्ना आदि कुर्सी पर बैठे लगातार सिगरेट पी रहे थे। रणधीर कपूर बहुत गमगींन ख़ामोश खड़े थे। 

मैं तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य व उड्डयन मंत्री मोतीलाल वोरा जी को हर थोड़ी देर बाद फ़ोन करके आगे की व्यवस्था पूछ रहा था। कुछ तय नहीं हो पाया था। 

क़रीब रात 9 बजे वोरा जी ने मुझे बताया कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी जी से अनुमति मिल गयी है। इंडीयन एयरलाइंज़ का एक विशेष विमान कपूर परिवार को लेकर बम्बई जाएगा। उन्होंने मुझसे इसे गोपनीय रखने को कहा अन्यथा इतने सारे फ़िल्मी सितारों को देखने भारी भीड़ अस्पताल और हवाई अड्डे पर जुट जाती। 

तय हुआ कि रात के दो बजे पालम से विमान उड़ेगा। वोरा जी ने कहा मैं रात एक बजे अस्पताल आऊँगा। मैंने उनसे कहा कि मैं अपनी मारुति कार खुद चलाता हूँ इस भागदौड़ में कैसे चला पाउँगा? तो मैं अस्पताल से आपके साथ आपकी गाड़ी में पालम हवाई अड्डे तक विदा करने चलूँगा। उन्होंने कहा ठीक है। कपूर परिवार की बम्बई यात्रा का ये प्लान तय होते ही कक्ष में हलचल तेज हो गयी। 

तभी ऋषि कपूर ने अपने सचिव को फ़ोन करके सारे काम बताना शुरू किये। जहाज़ जब बंबई पहुँचेगा तो इन लोगों को क्या-क्या करना है। कल शव यात्रा के लिए सब सफ़ेद फूल होने चाहिये। उनका एक ख़ास वाक्य मुझे आज भी याद है कि पापा की चिता में आई वांट आल सैंडल्वुड (सब चंदन की लकड़ी होनी चाहिये)।

2018 की बात है, ऋषि कपूर एक हास्य फ़िल्म के लीड रोल में अभिनय कर रहे थे। जिसकी शूटिंग दिल्ली में कई हफ़्तों से चल रही थी। अचानक ऋषि कपूर की तबियत ख़राब हो गयी और कुछ ही घंटों में उनका बेटा रणबीर कपूर मुम्बई से उन्हें लेने आ गया। सारी शूटिंग रोक दी गयी। पूरी शूटिंग यूनिट मुम्बई लौट गई। फिर तो न्यू यॉर्क में ऋषि कपूर का कैन्सर का लम्बा इलाज चला। 

इस तरह उनकी यह आख़री फ़िल्म अधूरी रह गई। ऋषि कपूर की ज़िंदगी में बचपन से ही शानो-शौक़त और शौहरत क़िस्मत में लिखी थी। उनके दादा पृथ्वीराज कपूर से लेकर आज तक दर्जनों फ़िल्मी सितारे इस परिवार ने बॉलीवुड को दिए हैं। पर क़िस्मत का खेल देखिए जब ऋषि कपूर की माँ श्रीमती कृष्णा राजकपूर का मुंबई में देहांत हुआ तो ऋषि कपूर न्यू यॉर्क में थे और कैन्सर के इलाज के कारण अपनी माँ के अंतिम दर्शन भी नहीं कर पाए। अब तो उनकी यादें उन दर्जनों मनोरंजक फ़िल्मों से दुनिया भर के फ़िल्म प्रेमियों को गुदगुदाती रहेंगी। जैसे उनके पिता राज कपूर की फ़िल्में आज भी सदाबहार हैं। अलविदा ऋषि कपूर।