भारतीय राजनीति में अपशब्दों का प्रयोग पहले कतई नहीं होता था। लेकिन हाल के दशकों में इसकी तीव्रता और आवृत्ति में चिंताजनक वृद्धि हुई है। विभिन्न दलों के राजनेता, चाहे वे सत्ताधारी हों या विपक्षी, अक्सर एक-दूसरे पर निजी हमले करने, अपमानजनक टिप्पणियाँ करने और समाज को विभाजित करने वाले बयान देने में संकोच नहीं करते। उदाहरण के लिए, कुछ राजनेताओं ने अपने विरोधियों को “नीच”, “मवाली”, “गद्दार”, जैसे शब्दों से संबोधित किया है।
ऐसे बयानों का उद्देश्य अक्सर अपने समर्थकों को उत्तेजित करना और विपक्ष को कमज़ोर करना होता है। लेकिन यह लोकतांत्रिक मर्यादाओं को तोड़ता है। 2017 में, एक सांसद ने एक धार्मिक आयोजन में जनसंख्या वृद्धि के लिए एक विशेष समुदाय को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा, “देश में समस्याएँ खड़ी हो रही हैं जनसंख्या के कारण। इसके लिए हिंदू ज़िम्मेदार नहीं हैं। ज़िम्मेदार तो वो हैं जो चार बीवियों और चालीस बच्चों की बात करते हैं।” इस तरह के बयान न केवल सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा देते हैं, बल्कि समाज में विभाजन को और गहरा करते हैं। बढ़ती जनसंख्या चिंता का विषय है पर उस पर प्रहार जनसंख्या नियंत्रण की नीति बना कर किया जाना चाहिए न कि केवल भड़काऊ बयान देकर।
लोकतंत्र का गुण यह है कि ये जनता की भागीदारी, स्वतंत्र अभिव्यक्ति और विचारों के खुले आदान-प्रदान का मौक़ा देता है। भारत का संविधान, विशेष रूप से अनुच्छेद 19, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। लेकिन इसके साथ ही यह अपेक्षा भी करता है कि यह स्वतंत्रता जिम्मेदारी के साथ प्रयोग की जाए। जब राजनेता अपशब्दों और गैर-जिम्मेदाराना बयानों का सहारा लेते हैं, तो वे लोकतंत्र के सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं। जब राजनेता नीतियों और विचारों के बजाय व्यक्तिगत हमलों और अपशब्दों का प्रयोग करते हैं, तो यह विमर्श का स्तर गिराता है। सार्वजनिक जीवन में हमें एक-दूसरे की नीयत पर भरोसा करना चाहिए, हमारी आलोचना नीतियों पर आधारित होनी चाहिए, व्यक्तित्व पर नहीं। आज के काफ़ी राजनेताओं का व्यवहार इस सिद्धांत के विपरीत हो रहा है।
गत दस वर्षों से मुसलमानों के लेकर कार्यकर्ताओं और नेतृत्व के लगातार आने वाले विरोधी बयानों ने देश में भ्रम की स्थिति पैदा कर दी। उदाहरण के लिए, एक महिला नेता ने 2014 में एक सभा में लोगों को “रामज़ादों” और “हरामज़ादों” में बाँटने की बात कही। दूसरी तरफ़ सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत कहते हैं कि ‘हिंदू और मुसलमानों का डीएनए एक है, या मुसलमानों के बिना हिंदुत्व नहीं हैं।’ ऐसे विरोधाभासी बयानों से समाज में वैमनस्य और भ्रम की स्थिति फैलती है। जब राजनेता गैर-जिम्मेदाराना बयान देते हैं, तो यह लोकतांत्रिक संस्थाओं, जैसे संसद और न्यायपालिका, के प्रति जनता के विश्वास को कम करता है। उदाहरण के लिए, 2024 में एक सांसद ने भाजपा पर संविधान को “हज़ार घावों से खून बहाने” का आरोप लगाया, जबकि भाजपा नेताओं ने विपक्षी नेताओं पर “संविधान का अपमान” करने का आरोप लगाया। इस तरह के आपसी आरोप-प्रत्यारोप संसद जैसे मंच की गरिमा को कम करते हैं। अपशब्दों और गैर-जिम्मेदाराना बयानों का उपयोग अक्सर असहमति को दबाने के लिए किया जाता है। पत्रकारों और आलोचकों को “प्रेस्टीट्यूट” जैसे शब्दों से संबोधित करना या उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करता है। यह लोकतंत्र के लिए खतरा है, क्योंकि असहमति और आलोचना लोकतंत्र के आधार हैं।
राजनेताओं के अपशब्द और गैर-जिम्मेदाराना बयान समाज पर गहरा प्रभाव डालते हैं। ये बयान न केवल जनता के बीच नकारात्मक भावनाओं को भड़काते हैं, बल्कि सामाजिक समरसता को भी नुकसान पहुँचाते हैं। सोशल मीडिया के युग में, जहाँ ये बयान तेजी से वायरल होते हैं, इनका प्रभाव और भी व्यापक हो जाता है। इससे न केवल राजनीतिक तनाव बढ़ता है, बल्कि सामाजिक ध्रुवीकरण भी होता है।
इसके अलावा, जब राजनेता लैंगिक, धार्मिक या जातीय आधार पर अपमानजनक टिप्पणियाँ करते हैं, तो यह समाज के कमज़ोर वर्गों, जैसे महिलाओं, अल्पसंख्यकों और दलितों के प्रति असंवेदनशीलता को बढ़ावा देता है। उदाहरण के लिए, 2013 में एक नेता ने अपनी ही पार्टी की सांसद को “सौ टंच माल” कहकर संबोधित किया, जो न केवल अपमानजनक था, बल्कि लैंगिक रूप से असंवेदनशील भी था।
इस समस्या से निपटने के लिए कई कदम उठाए जा सकते हैं। चुनाव आयोग को राजनेताओं के अपशब्दों और गैर-जिम्मेदाराना बयानों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए। 2019 में, चुनाव आयोग ने कुछ नेताओं को नोटिस जारी किए थे, लेकिन ऐसी कार्रवाइयों को और प्रभावी करने की आवश्यकता है। मीडिया को भी गैर-जिम्मेदाराना बयानों को बढ़ावा देने के बजाय, स्वस्थ विमर्श को प्रोत्साहित करना चाहिए। सोशल मीडिया पर भी ऐसी सामग्री को नियंत्रित करने के लिए नीतियाँ बनानी चाहिए। जनता को जागरूक करने की आवश्यकता है कि वे ऐसे नेताओं का समर्थन न करें जो अपशब्दों और विभाजनकारी बयानों का सहारा लेते हैं। शिक्षा और जागरूकता अभियान इस दिशा में मदद कर सकते हैं। राजनेताओं को अपने बयानों के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। संसद और विधानसभाओं में आचार समितियों को और सक्रिय करना होगा।
जबसे संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण टीवी पर होना शुरू हुआ है, तब से देश के कोने-कोने में बैठे आम जन अपने राजनेताओं का आचरण देख कर उनके प्रति हेयदृष्टि अपनाने लगे हैं। युवा पीढ़ी पर तो इसका बहुत ही खराब असर पड़ रहा है। भगवान श्री कृष्ण भगवद गीता में कहते हैं कि बड़े लोग जैसा आचरण करते हैं तो समाज उनका वैसे ही अनुसरण करता है। नेताओं के उद्दंड व्यवहार से समाज में अराजकता और हिंसा बढ़ रही है जो सबके लिए चिंता का विषय होना चाहिए।