Monday, May 26, 2025

राजनीति में अपशब्दों का बढ़ता प्रचलन !

भारत, जिसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है, एक ऐसा देश है जहाँ विविधता उसकी ताकत और चुनौती दोनों है। यहाँ की राजनीति में विभिन्न दलों के राजनेता अपने विचारों, नीतियों और नेतृत्व के माध्यम से जनता का विश्वास जीतने का प्रयास करते हैं। लेकिन हाल के वर्षों में, भारतीय राजनीति में अपशब्दों और गैर-जिम्मेदाराना बयानों का बढ़ता उपयोग एक गंभीर मुद्दा बन गया है। यह न केवल सार्वजनिक विमर्श के स्तर को नीचे लाता है, बल्कि यह लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों, जैसे स्वतंत्रता, समानता, सम्मान और संवाद के खिलाफ भी है।



भारतीय राजनीति में अपशब्दों का प्रयोग पहले कतई नहीं होता था। लेकिन हाल के दशकों में इसकी तीव्रता और आवृत्ति में चिंताजनक वृद्धि हुई है। विभिन्न दलों के राजनेता, चाहे वे सत्ताधारी हों या विपक्षी, अक्सर एक-दूसरे पर निजी हमले करने, अपमानजनक टिप्पणियाँ करने और समाज को विभाजित करने वाले बयान देने में संकोच नहीं करते। उदाहरण के लिए, कुछ राजनेताओं ने अपने विरोधियों को नीच, मवाली, गद्दार, जैसे शब्दों से संबोधित किया है।



ऐसे बयानों का उद्देश्य अक्सर अपने समर्थकों को उत्तेजित करना और विपक्ष को कमज़ोर करना होता है। लेकिन यह लोकतांत्रिक मर्यादाओं को तोड़ता है। 2017 में, एक सांसद ने एक धार्मिक आयोजन में जनसंख्या वृद्धि के लिए एक विशेष समुदाय को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा, देश में समस्याएँ खड़ी हो रही हैं जनसंख्या के कारण। इसके लिए हिंदू ज़िम्मेदार नहीं हैं। ज़िम्मेदार तो वो हैं जो चार बीवियों और चालीस बच्चों की बात करते हैं। इस तरह के बयान न केवल सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा देते हैं, बल्कि समाज में विभाजन को और गहरा करते हैं। बढ़ती जनसंख्या चिंता का विषय है पर उस पर प्रहार जनसंख्या नियंत्रण की नीति बना कर किया जाना चाहिए न कि केवल भड़काऊ बयान देकर। 



लोकतंत्र का गुण यह है कि ये जनता की भागीदारी, स्वतंत्र अभिव्यक्ति और विचारों के खुले आदान-प्रदान का मौक़ा देता है। भारत का संविधान, विशेष रूप से अनुच्छेद 19, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। लेकिन इसके साथ ही यह अपेक्षा भी करता है कि यह स्वतंत्रता जिम्मेदारी के साथ प्रयोग की जाए। जब राजनेता अपशब्दों और गैर-जिम्मेदाराना बयानों का सहारा लेते हैं, तो वे लोकतंत्र के सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं। जब राजनेता नीतियों और विचारों के बजाय व्यक्तिगत हमलों और अपशब्दों का प्रयोग करते हैं, तो यह विमर्श का स्तर गिराता है। सार्वजनिक जीवन में हमें एक-दूसरे की नीयत पर भरोसा करना चाहिए, हमारी आलोचना नीतियों पर आधारित होनी चाहिए, व्यक्तित्व पर नहीं। आज के काफ़ी राजनेताओं का व्यवहार इस सिद्धांत के विपरीत हो रहा है।



गत दस वर्षों से मुसलमानों के लेकर कार्यकर्ताओं और नेतृत्व के लगातार आने वाले विरोधी बयानों ने देश में भ्रम की स्थिति पैदा कर दी। उदाहरण के लिए, एक महिला नेता ने 2014 में एक सभा में लोगों को रामज़ादों और हरामज़ादों में बाँटने की बात कही। दूसरी तरफ़ सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत कहते हैं कि ‘हिंदू और मुसलमानों का डीएनए एक है, या मुसलमानों के बिना हिंदुत्व नहीं हैं।’ ऐसे विरोधाभासी बयानों से समाज में वैमनस्य और भ्रम की स्थिति फैलती है। जब राजनेता गैर-जिम्मेदाराना बयान देते हैं, तो यह लोकतांत्रिक संस्थाओं, जैसे संसद और न्यायपालिका, के प्रति जनता के विश्वास को कम करता है। उदाहरण के लिए, 2024 में एक सांसद ने भाजपा पर संविधान को हज़ार घावों से खून बहाने का आरोप लगाया, जबकि भाजपा नेताओं ने विपक्षी नेताओं पर संविधान का अपमान करने का आरोप लगाया। इस तरह के आपसी आरोप-प्रत्यारोप संसद जैसे मंच की गरिमा को कम करते हैं। अपशब्दों और गैर-जिम्मेदाराना बयानों का उपयोग अक्सर असहमति को दबाने के लिए किया जाता है। पत्रकारों और आलोचकों को प्रेस्टीट्यूट जैसे शब्दों से संबोधित करना या उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करता है। यह लोकतंत्र के लिए खतरा है, क्योंकि असहमति और आलोचना लोकतंत्र के आधार हैं।


राजनेताओं के अपशब्द और गैर-जिम्मेदाराना बयान समाज पर गहरा प्रभाव डालते हैं। ये बयान न केवल जनता के बीच नकारात्मक भावनाओं को भड़काते हैं, बल्कि सामाजिक समरसता को भी नुकसान पहुँचाते हैं। सोशल मीडिया के युग में, जहाँ ये बयान तेजी से वायरल होते हैं, इनका प्रभाव और भी व्यापक हो जाता है। इससे न केवल राजनीतिक तनाव बढ़ता है, बल्कि सामाजिक ध्रुवीकरण भी होता है।


इसके अलावा, जब राजनेता लैंगिक, धार्मिक या जातीय आधार पर अपमानजनक टिप्पणियाँ करते हैं, तो यह समाज के कमज़ोर वर्गों, जैसे महिलाओं, अल्पसंख्यकों और दलितों के प्रति असंवेदनशीलता को बढ़ावा देता है। उदाहरण के लिए, 2013 में एक नेता ने अपनी ही पार्टी की सांसद को सौ टंच माल कहकर संबोधित किया, जो न केवल अपमानजनक था, बल्कि लैंगिक रूप से असंवेदनशील भी था।


इस समस्या से निपटने के लिए कई कदम उठाए जा सकते हैं। चुनाव आयोग को राजनेताओं के अपशब्दों और गैर-जिम्मेदाराना बयानों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए। 2019 में, चुनाव आयोग ने कुछ नेताओं को नोटिस जारी किए थे, लेकिन ऐसी कार्रवाइयों को और प्रभावी करने की आवश्यकता है। मीडिया को भी गैर-जिम्मेदाराना बयानों को बढ़ावा देने के बजाय, स्वस्थ विमर्श को प्रोत्साहित करना चाहिए। सोशल मीडिया पर भी ऐसी सामग्री को नियंत्रित करने के लिए नीतियाँ बनानी चाहिए। जनता को जागरूक करने की आवश्यकता है कि वे ऐसे नेताओं का समर्थन न करें जो अपशब्दों और विभाजनकारी बयानों का सहारा लेते हैं। शिक्षा और जागरूकता अभियान इस दिशा में मदद कर सकते हैं। राजनेताओं को अपने बयानों के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। संसद और विधानसभाओं में आचार समितियों को और सक्रिय करना होगा।


जबसे संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण टीवी पर होना शुरू हुआ है, तब से देश के कोने-कोने में बैठे आम जन अपने राजनेताओं का आचरण देख कर उनके प्रति हेयदृष्टि अपनाने लगे हैं। युवा पीढ़ी पर तो इसका बहुत ही खराब असर पड़ रहा है। भगवान श्री कृष्ण भगवद गीता में कहते हैं कि बड़े लोग जैसा आचरण करते हैं तो समाज उनका वैसे ही अनुसरण करता है। नेताओं के उद्दंड व्यवहार से समाज में अराजकता और हिंसा बढ़ रही है जो सबके लिए चिंता का विषय होना चाहिए।  

Monday, May 19, 2025

‘ऑपरेशन सिंदूर’ और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय !


भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव का इतिहास लंबा और जटिल रहा है। दोनों देशों के बीच कश्मीर को लेकर दशकों से चला आ रहा विवाद समय-समय पर हिंसक संघर्षों का कारण बनता रहा है। हाल ही में, अप्रैल 2025 में पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद दोनों देशों के बीच तनाव एक बार फिर चरम पर पहुंच गया। इस हमले में 26 पर्यटकों की जान गई थी, जिसके लिए भारत ने पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराया। इसके जवाब में भारत ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ शुरू किया, जिसमें पाकिस्तान और पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में आतंकी ठिकानों पर हवाई हमले किए गए। इस घटनाक्रम ने दक्षिण एशिया में तनाव को और बढ़ा दिया। इस संदर्भ में, अमरीका के जॉर्जटाउन विश्वविद्यालय की युद्ध मामलों की विशेषज्ञ प्रोफेसर क्रिस्टीन फेयर ने एक टीवी साक्षात्कार में इस संघर्ष के कारणों, परिणामों और भविष्य की संभावनाओं पर विस्तार से चर्चा की।


प्रोफेसर फेयर ने अपने साक्षात्कार में बताया कि पाकिस्तान की सेना और उसका खुफिया तंत्र लंबे समय से आतंकी संगठनों, जैसे लश्कर-ए-तैयबा आदि को समर्थन देता रहा है। उन्होंने स्पष्ट किया कि ये संगठन न केवल कश्मीर में सक्रिय हैं, बल्कि पाकिस्तान के आंतरिक सुरक्षा परिदृश्य में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उनके अनुसार, पाकिस्तानी सेना इन संगठनों को रणनीतिक संपत्ति के रूप में देखती है, जो भारत के खिलाफ छद्म युद्ध छेड़ने में उपयोगी हैं।



पहलगाम हमले के जवाब में भारत ने ऑपरेशन सिंदूर शुरू किया, जिसमें भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान में नौ आतंकी ठिकानों को निशाना बनाया। इस ऑपरेशन को भारत ने अपनी आत्मरक्षा का अधिकार बताया, जबकि पाकिस्तान ने इसे अपनी संप्रभुता पर हमला करार दिया। प्रोफेसर फेयर ने इस ऑपरेशन को भारत की बदलती रणनीति का हिस्सा बताया। उन्होंने कहा कि भारत अब पहले की तरह केवल कूटनीतिक जवाब तक सीमित नहीं रहा, बल्कि वह सैन्य कार्रवाई के जरिए आतंकवाद के खिलाफ कड़ा संदेश भी देना जानता है। हालांकि, उन्होंने यह भी चेतावनी दी कि ऑपरेशन सिंदूर जैसे कदम आतंकवाद को पूरी तरह खत्म नहीं कर सकते, क्योंकि पाकिस्तान की सेना के लिए भारत के खिलाफ संघर्ष अस्तित्वगत है।ये उनके वजूद का सवाल है। भारत का डर दिखा -दिखा कर ही पाकिस्तान अनेक देशों से आर्थिक मदद माँगता रहा है । 


प्रोफेसर फेयर ने पाकिस्तानी सेना की भारत के प्रति कार्यशैली पर एक किताब भी लिखी है। इस साक्षात्कार में उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि पाकिस्तान की सेना अपने देश की नीति-निर्माण प्रक्रिया में अहम भूमिका निभाती है। उन्होंने कहा कि पाकिस्तानी सेना भारत को अपने अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा मानती है और इस धारणा को बनाए रखने के लिए वह आतंकी संगठनों का इस्तेमाल करती है। फेयर के अनुसार, उनकी यह नीति न केवल भारत के लिए खतरा है, बल्कि पाकिस्तान के आंतरिक स्थायित्व को भी कमजोर करती है।



उन्होंने यह भी बताया कि पाकिस्तानी सेना के लिए कश्मीर विवाद केवल एक क्षेत्रीय मुद्दा नहीं है, बल्कि यह उनकी वैचारिक और रणनीतिक पहचान का हिस्सा है। फेयर ने कहा कि पाकिस्तान की सेना तब तक आतंकवाद को समर्थन देती रहेगी, जब तक कि उसे भारत के खिलाफ अपनी स्थिति मजबूत करने का मौका मिलता रहेगा। भारत की हालिया सैन्य कार्रवाइयों, जैसे ‘ऑपरेशन सिंदूर’, ने पाकिस्तान को यह संदेश दिया है कि भारत अब पहले की तरह निष्क्रिय नहीं रहेगा।



साक्षात्कार में प्रोफेसर फेयर ने भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल की रणनीति की भी चर्चा की। उन्होंने डोवाल को एक ऐसे रणनीतिकार के रूप में वर्णित किया, जो भारत की सुरक्षा नीति को आक्रामक और सक्रिय दिशा में ले जा रहे हैं। फेयर ने कहा कि डोवाल की सक्रिय रक्षा की नीति ने भारत को पाकिस्तान के खिलाफ अधिक प्रभावी बनाया है। ऑपरेशन सिंदूर इस नीति का एक उदाहरण है, जिसमें भारत ने न केवल आतंकी ठिकानों को निशाना बनाया, बल्कि पाकिस्तान को कूटनीतिक और सैन्य रूप से भी जवाब दिया।


हालांकि, फेयर ने यह भी चेतावनी दी कि इस तरह की आक्रामक नीति के अपने जोखिम भी हैं। उन्होंने कहा कि भारत और पाकिस्तान, दोनों ही परमाणु शक्ति संपन्न देश हैं और किसी भी सैन्य टकराव का बढ़ना दक्षिण एशिया में व्यापक विनाश का कारण बन सकता है। उनके अनुसार, भारत को अपनी रणनीति में संतुलन बनाए रखना होगा, ताकि वह आतंकवाद के खिलाफ कड़ा रुख अपनाए, लेकिन साथ ही स्थिति को पूर्ण युद्ध की ओर बढ़ने से रोके।


10 मई 2025 को भारत और पाकिस्तान ने एक युद्धविराम की घोषणा की, जिसे अमेरिका की मध्यस्थता से संभव माना गया। हालांकि, भारत ने इसे द्विपक्षीय समझौता बताया और अमेरिकी हस्तक्षेप को कमतर करने की कोशिश की। प्रोफेसर फेयर ने इस युद्धविराम को अस्थायी करार दिया। उन्होंने कहा कि जब तक पाकिस्तानी सेना अपनी नीतियों में बदलाव नहीं करती, तब तक इस तरह के तनाव बार-बार सामने आएंगे। उन्होंने यह भी भविष्यवाणी की कि पाकिस्तान भविष्य में फिर से भारत के खिलाफ आतंकी हमले कर सकता है, क्योंकि यह उसकी रणनीति का हिस्सा है।


फेयर के अनुसार अंतरराष्ट्रीय समुदाय, विशेष रूप से अमेरिका, इस क्षेत्र में शांति बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि अमेरिका की मध्यस्थता हमेशा दोनों देशों को स्वीकार्य नहीं होती, खासकर भारत के लिए, जो कश्मीर को अपना आंतरिक मामला मानता है।


प्रोफेसर क्रिस्टीन फेयर का टीवी साक्षात्कार भारत-पाकिस्तान संघर्ष की जटिलताओं को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। उनके विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि यह संघर्ष केवल दो देशों के बीच का विवाद नहीं है, बल्कि इसमें गहरे ऐतिहासिक, वैचारिक और रणनीतिक आयाम हैं। पाकिस्तानी सेना की आतंकवाद समर्थक नीतियां और भारत की आक्रामक जवाबी रणनीति इस क्षेत्र में स्थायी शांति की राह में बड़ी बाधाएं हैं।


हालांकि, फेयर का यह भी मानना है कि दोनों देशों के बीच संवाद और कूटनीति के रास्ते अभी पूरी तरह बंद नहीं हुए हैं। यदि पाकिस्तान अपनी नीतियों में बदलाव लाता है और भारत संतुलित रुख अपनाता है, तो भविष्य में तनाव को कम करने की संभावना बनी रह सकती है। लेकिन इसके लिए दोनों पक्षों को न केवल अपनी रणनीतियों पर पुनर्विचार करना होगा, बल्कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ सहयोग भी करना होगा। 

Monday, May 12, 2025

घरेलू कर्मचारियों के प्रति संवेदनशील और जिम्मेदार बनें

भारत में घरेलू कर्मचारी, जिन्हें आमतौर पर नौकर, बाई, या हेल्पर के रूप में जाना जाता है, कई परिवारों के दैनिक जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में, ये कर्मचारी घरों की सफाई, खाना पकाने, बच्चों की देखभाल, और अन्य आवश्यक कार्यों में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। हालांकि, उनके साथ व्यवहार करने का तरीका अक्सर सामाजिक, आर्थिक, और नैतिक सवाल उठाता है। आज के माहौल में ज़रूरत इस बात की है कि घरेलू कर्मचारियों के साथ सम्मानजनक, निष्पक्ष, और संवेदनशील व्यवहार कैसे किया जाए ताकि एक स्वस्थ और सामंजस्यपूर्ण कार्य वातावरण बनाया जा सके।


घरेलू कर्मचारी भी, भले ही उनकी सामाजिक या आर्थिक स्थिति अलग हो, सम्मान के हकदार होते हैं। भारत में, जहां सामाजिक वर्ग-भेद अभी भी प्रचलित है, यह महत्वपूर्ण है कि हम कर्मचारियों को केवल ‘नौकर’ के रूप में न देखें, बल्कि एक व्यक्ति के रूप में समझें, जिनके पास अपनी भावनाएं, जरूरतें, और आकांक्षाएं हैं। कर्मचारी को ‘बाई’ या ‘कामवाली’ जैसे सामान्य शब्दों के बजाय उनके नाम से पुकारें तो यह एक छोटा-सा कदम उनके प्रति सम्मान दर्शाता है। कठोर शब्दों या आदेशात्मक लहजे से बचें। उनकी मेहनत को सराहें और धन्यवाद देना न भूलें। उनके व्यक्तिगत जीवन, परिवार या आर्थिक स्थिति के बारे में अनावश्यक सवाल न पूछें। अगर वे स्वयं कुछ साझा करना चाहें, तो सहानुभूति के साथ सुनें।



घरेलू कर्मचारियों की आर्थिक स्थिति अक्सर कमजोर होती है, और वे अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं। इसलिए, उन्हें उचित पारिश्रमिक देना और उनके कार्य की सम्मानजनक स्थिति प्रदान करना हमारी जिम्मेदारी है। कई भारतीय शहरों में घरेलू कर्मचारियों के लिए न्यूनतम वेतन निर्धारित किया गया है। अपने क्षेत्र के नियमों का पालन करें और बाजार दर के अनुसार वेतन दें। यदि संभव हो, तो समय-समय पर उनकी वेतन  भी बढ़ाएं। कर्मचारियों को अनिश्चित समय तक काम करने के लिए मजबूर न करें। उनके साथ स्पष्ट रूप से कार्य का समय और जिम्मेदारियां तय करें। उन्हें साप्ताहिक अवकाश, त्योहारों पर छुट्टी, और आपातकालीन स्थिति में अवकाश देने का प्रावधान करें। बीमारी या पारिवारिक जरूरतों के लिए भी लचीलापन दिखाएं।



घरेलू कर्मचारी आपके लिए काम करते हैं, इसलिए उनकी सुरक्षा और आराम का ध्यान रखना आवश्यक है। सुनिश्चित करें कि आपके घर में कोई खतरनाक उपकरण या रसायन कर्मचारी की पहुंच में न हों। उन्हें उपकरणों का उपयोग करने की ट्रेनिंग दें। उन्हें पीने का साफ पानी, बैठने की उचित जगह और यदि वे लंबे समय तक काम करते हैं, तो भोजन भी उपलब्ध कराएं। गर्मियों में पंखे या कूलर और सर्दियों में गर्म कपड़े जैसी मौसमी सहायता देने पर भी विचार करें। यदि संभव हो, उनके लिए स्वास्थ्य बीमा या चिकित्सा खर्चों में सहायता प्रदान करें। यह न केवल धर्मार्थ कार्य है, बल्कि ऐसा करने से आपके और उनके बीच सौहार्द भी बढ़ता है।


घरेलू कर्मचारियों के साथ एक स्वस्थ संबंध बनाए रखने के लिए खुला और स्पष्ट संवाद जरूरी है। यदि कर्मचारी अपनी समस्याएं या सुझाव साझा करना चाहें, तो उनकी बात धैर्यपूर्वक सुनें। उनकी राय को महत्व दें। कर्मचारियों पर अनावश्यक शक न करें। यदि कोई गलती हो, तो उसे शांतिपूर्वक और सम्मानपूर्वक संबोधित करें। कर्मचारियों के साथ दोस्ताना व्यवहार अच्छा है, लेकिन अत्यधिक व्यक्तिगत होने से बचें। स्पष्ट सीमाएं दोनों पक्षों के लिए सहजता बनाए रखती हैं।

भारत में घरेलू कर्मचारियों के अधिकारों को लेकर कानून धीरे-धीरे बेहतर हो रहे हैं। नियोक्ता के रूप में, आपको इन कानूनों का पालन करना चाहिए। घरेलू कर्मचारियों को न्यूनतम वेतन, यौन उत्पीड़न से सुरक्षा और कार्यस्थल पर भेदभाव से मुक्ति जैसे अधिकार प्राप्त हैं। इनका उल्लंघन न करें। 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को घरेलू कार्य के लिए नियुक्त करना अवैध है। यह सुनिश्चित करें कि आपके कर्मचारी वयस्क हों। यदि संभव हो तो कर्मचारी के साथ एक साधारण लिखित अनुबंध बनाएं, जिसमें वेतन, कार्य घंटे, अवकाश और उनकी जिम्मेदारियां स्पष्ट हों। जिससे बाद में किसी भी तरह का विवाद न हो।


घरेलू कर्मचारी भी हमारे समाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। फिर भी वे अक्सर उपेक्षित रहते हैं। नियोक्ता के रूप में आप उनके जीवन में सकारात्मक बदलाव भी ला सकते हैं। यदि आपके कर्मचारी या उनके बच्चे पढ़ना चाहते हैं, तो उन्हें स्कूल या प्रशिक्षण केंद्रों से जोड़ने में मदद करें। उनके कौशल विकास के लिए प्रोत्साहित करें। उन्हें अपने घर के छोटे-मोटे उत्सवों में शामिल करें, जैसे कि जन्मदिन या अन्य त्योहार। इससे उन्हें अपनापन महसूस होता है। यदि आप देखते हैं कि अन्य लोग घरेलू कर्मचारियों के साथ गलत व्यवहार कर रहे हैं, तो इसका विरोध करें और जागरूकता फैलाएं।


कभी-कभी कर्मचारियों के साथ आपके बीच मतभेद या अन्य समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। इनका समाधान शांतिपूर्वक और समझदारी से करना चाहिए। यदि कर्मचारी कोई गलती करता है, तो उसे डांटने के बजाय समझाएं और सुधरने का अवसर दें। ग्रामीण क्षेत्रों से आए कर्मचारी शहरी जीवनशैली से अपरिचित हो सकते हैं। उन्हें धैर्यपूर्वक समझाएं और प्रशिक्षित करें। यदि कोई बड़ा विवाद हो, तो परिवार के किसी वरिष्ठ सदस्य या तटस्थ व्यक्ति की मदद लें।


घरेलू कर्मचारियों के साथ व्यवहार केवल एक मालिक-कर्मचारी संबंध तक सीमित नहीं है। यह मानवता, करुणा, और सामाजिक जिम्मेदारी का प्रतीक है। भारत जैसे देश में, जहां सामाजिक और आर्थिक असमानताएं गहरी हैं, घरेलू कर्मचारियों के प्रति हमारा व्यवहार समाज में बदलाव लाने का एक छोटा लेकिन महत्वपूर्ण कदम हो सकता है। सम्मान, उचित पारिश्रमिक, सुरक्षा, और संवाद के माध्यम से, हम न केवल उनके जीवन को बेहतर बना सकते हैं, बल्कि अपने घरों में भी सकारात्मक और सामंजस्यपूर्ण वातावरण बना सकते हैं। आइए, हम सभी मिलकर एक ऐसी संस्कृति का निर्माण करें, जहां हर मेहनतकश व्यक्ति को वह सम्मान और अधिकार मिले, जिसका वह हकदार है।


आज से 50 वर्ष पूर्व हिंदी की एक प्रतिष्ठित साप्ताहिक पत्रिका में लेख छपा था, ‘चाकरी धर्म सबसे मुश्किल’। उसकी कुछ पंक्तियां मुझे याद आ रही हैं। ‘आपका सेवक अगर ज़ोर से बोले तो आप कहते हैं कि सिर पर क्यो चढ़ा आ रहा है? धीरे से बोले तो आप कहेंगे कि ज़ोर से क्यों नहीं बोलता? क्या मुंह में दहीं जमा है? अगर वो काम में फुर्ती दिखाए और समझदारी की बात करे तो आप कहते हैं कि ये बड़ा चलता पुर्जा है। अगर काम में सुस्ती दिखाए और कम समझदारी की बात करे तो आप उसे अपमानजनक उपमा देकर सबके सामने उसका मज़ाक़ उड़ाते हैं।’ इसलिए कहते हैं कि सेवा का कार्य सबसे कठिन होता है।  

Monday, May 5, 2025

फिर गरजे केसीआर !


अलग तेलंगाना राज्य की स्थापना के लिए सफल संघर्ष करने वाले नेता के चंद्रशेखर राव लगभग दो वर्ष के बाद एक बार फिर से अपने पुराने गरजने वाले तेवर में दिखाई दिए। तेलंगाना के पूर्व मुख्यमंत्री और भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) के अध्यक्ष  केसीआर ने हाल ही में अपना दो वर्षीय एकांतवास तोड़ा। नवंबर 2023 के विधानसभा चुनाव में हार के बाद केसीआर ने खुद को सार्वजनिक कार्यक्रमों से दूर कर लिया था। इसके चलते उन्होंने 2024 के लोकसभा चुनावों में भी दूरी बना ली थी। ज़मीन से जुड़े और संघर्षशील नेता का यूँ अचानक ख़ुद को सार्वजनिक जीवन से अलग कर लेना किसी के भी गले नहीं उतरा। 


केसीआर दो बार लगातार प्रभावशाली बहुमत से तेलंगाना के मुख्य मंत्री बने। इस दौरान उन्होंने तेलंगाना का बहुत तेज़ी से विकास किया। उनकी इस मेधा को देखकर दुनिया की मशहूर और बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने तेलंगाना में भारी निवेश किया। केसीआर ने व्यवस्थित शहरीकरण और निरंतर बिजली और पानी की आपूर्ति सुनिश्चित कर शहरी विकास को तीव्र गति प्रदान की, जिससे भवन निर्माण उद्योग को बहुत बढ़ावा मिला। आज हैदराबाद में ज़मीनों के भाव सबसे ज़्यादा हैं। किसानों, महिलाओं, युवाओं और दलितों के लिए उन्होंने अनेक लाभकारी योजनाएँ चालू कीं। सिंचाई के क्षेत्र में कालेश्वरम जैसी अतिमहत्वाकांक्षी योजना के प्रति दुनिया भर का ध्यान आकर्षित किया। इस सब के दौरान उनके विपक्षियों और आलोचकों ने उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए। जिनकी परवाह किए बिना केसीआर एक जुनूनी की तरह अपने अभियान में जुटे रहे। पर उनसे एक भारी चूक हो गई। उन पर ये आरोप लगे कि वे ख़ुद को जनता और अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं से दूर रखते थे। शायद इसलिए 2023 में उन्हें जनता का समर्थन नहीं मिला और हार का सामना करना पड़ा। 



रामानुजाचार्य सम्प्रदाय के संत श्री चिन्नाजियार स्वामी की सलाह पर मेरा केसीआर से 2022 में परिचय हुआ। पहले परिचय में ही उन्होंने मुझे बहुत स्नेह और सम्मान दिया और इसके बाद पूरे वर्ष मुझे बार-बार हैदराबाद बुला कर विकास के अनेक विषयों पर मुझसे और मेरे साथियों से गहरा संवाद किया। मैंने उनमें एक दूरदृष्टि वाला नेता देखा। जिस तरह उन्होंने हैदराबाद से 60 किलोमीटर दूर यदाद्रीगिरीगुट्टा के इलाके में भगवान लक्ष्मी-नृसिंह देव का, नक्काशीदार ग्रेनाइट पत्थर का, पहाड़ के ऊपर, एक अत्यंत भव्य मंदिर बनवाया है, वह अकल्पनीय है। गौरतलब है कि इस मंदिर का सारा निर्माण कार्य आगम, वास्तु और पंचरथ शास्त्रों के सिद्धांतों पर किया गया है। जिनकी दक्षिण भारत के खासी मान्यता है। केसीआर की सनातन धर्म में गहरी आस्था है। इस मंदिर के चारों ओर उन्होंने तिरुपति जैसा सुंदर वैदिक नगर रातों-रात स्थापित कर दिया। जहाँ उत्तर भारत के मंदिरों का तेज़ी से बाज़ारीकरण होता जा रहा है, वहीं केसीआर ने मंदिर के परिसर और उसके आस-पास फल-फूल, मिठाई, कलाकृतियों या ख़ान-पान की एक भी दुकान नहीं बनने दी। क्योंकि उससे मंदिर की पवित्रता भंग होती। ये सारी व्यावसायिक गतिविधियां पहाड़ी की तलहटी में चारों ओर बसे नवनिर्मित नगर में ही होती है।  



तेलंगाना राज्य को बनवाने के बाद केसीआर नये राज्य के मुख्य मंत्री बन कर ही चुप नहीं बैठे। उन्होंने किसानी के अपने अनुभव और दूरदृष्टि से सीईओ की तरह दिन-रात एक करके, हर मोर्चे पर ऐसी अद्भुत कामयाबी हासिल की है कि इतने कम समय में तेलंगाना भारत का सबसे तेज़ी से विकसित होने वाला प्रदेश बन गया है। मैंने खुद तेलंगाना के विभिन्न अंचलों में जा कर तेलंगाना के कृषि, सिंचाई, कुटीर व बड़े उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य और समाज कल्याण के क्षेत्र में जो प्रगति देखी वो आश्चर्यचकित करने वाली है। मुझे आश्चर्य इस बात का हुआ कि दिल्ली में चार दशक से राजनैतिक पत्रकारिता करने के बावजूद न तो मुझे केसीआर की इन उपलब्धियों का कोई अंदाज़ा था और न ही केसीआर के बारे में सामान्य से ज़्यादा कुछ भी पता था।



बीते सप्ताह केसीआर ने अपनी पार्टी की रजत जयंती के उपलक्ष्य में वारंगल जिले के एलकथुर्थी गांव में एक विशाल रैली का आयोजन किया। इस रैली में अपार जनसमूह के आने से यह बात सामने आई कि जिन वोटरों ने दो बरस पहले केसीआर को विधान सभा और लोक सभा चुनावों में नकार दिया था वे अब फिर लौट कर केसीआर के झंडे तले खड़े हो गए हैं। हैदराबाद और शेष तेलंगाना में अपने संपर्कों से तहक़ीक़ात करने पर पता चला कि तेलंगाना की मौजूदा कांग्रेस सरकार दो वर्षों में ही अपनी लोकप्रियता खो चुकी है। इसका मुख्य कारण ये बताया जा रहा है कि कांग्रेस पार्टी ने जो दर्जनों वादे तेलंगाना की जनता से किए थे उनमें से ज़्यादातर को वो पूरा नहीं कर पाई। जबकि पड़ोसी राज्य कर्नाटक में कांग्रेस ने अपने काफ़ी वादे पूरे किए हैं। इस रैली में केसीआर कांग्रेस पर जमकर बरसे। केसीआर ने रैली में जनता से पूछा कि क्या अपने वादों के मुताबिक़ कांग्रेस सरकार ने आपको डबल पेंशन दी? क्या छात्रों को मुफ्त स्कूटी दिए? किसानों के कर्ज माफ किए? इस पर जनता का ज़ोर-शोर से जवाब था ‘नहीं’। वहीं केसीआर ने अपने कार्यकाल में शुरू की गई रायथु बंधु जैसी कल्याणकारी पहलों और सिंचाई की बड़ी परियोजनाओं पर प्रकाश डाला। उल्लेखनीय है कि तेलंगाना का कृषि उत्पादन केसीआर के शासन काल में दुगना हो गया। इस विशाल रैली ने न केवल पार्टी कार्यकर्ताओं को उत्साहित किया, बल्कि यह भी संदेश दिया कि केसीआर और उनकी पार्टी अब दोबारा से तेलंगाना की जनता के बीच अपनी पकड़ मजबूत कर रही है। 



इस जनसभा में केसीआर ने कांग्रेस को ‘तेलंगाना का नंबर एक खलनायक’ करार दिया। हालांकि वे स्वयं दशकों तक कांग्रेस पार्टी के सदस्य थे पर इस रैली में उन्होंने आरोप लगाया कि 1956 में कांग्रेस ने तेलंगाना को आंध्र प्रदेश के साथ जबरन मिला दिया था, जिसके खिलाफ तेलंगाना की जनता ने लंबा संघर्ष किया। उन्होंने न केवल कांग्रेस की नीतियों की आलोचना की, बल्कि वर्तमान मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी पर भी निशाना साधा। उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने 420 से अधिक वादे किए, लेकिन राज्य की वित्तीय स्थिति का आकलन किए बिना किए गए ये वादे खोखले साबित हुए। इसके अलावा, उन्होंने बीजेपी के हिंदुत्व एजेंडे का जवाब देते हुए भगवान राम का उल्लेख किया और कहा कि उनकी प्रेरणा ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ थी, जिसने उन्हें तेलंगाना आंदोलन शुरू करने के लिए प्रेरित किया। यह उनके हिंदू वोट बैंक को जोड़ने की रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। रैली में केसीआर ने नक्सलियों और आदिवासी युवाओं का भी जिक्र किया, जो तेलंगाना के उत्तरी जिलों में महत्वपूर्ण मतदाता वर्ग हैं। उन्होंने बीजेपी पर आदिवासियों के प्रति ‘लोकतांत्रिक’ रवैया न अपनाने का आरोप लगाया। यह रणनीति बीआरएस के ग्रामीण क्षेत्रों में खिसकते जनाधार को फिर से मजबूत करने की कोशिश थी।

सोशल मीडिया पर भी इस रैली की व्यापक चर्चा हुई। एक यूजर ने लिखा, केसीआर तेलंगाना के आइकन हैं, उनकी लोकप्रियता अभी भी बरकरार है। 2023 की हार के बाद उनकी यह वापसी बीआरएस को फिर से संगठित करने और आगामी चुनावों में कांग्रेस और बीजेपी को चुनौती देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होगी। 

Monday, April 28, 2025

डिजिटल युग में बच्चे गुस्सैल और आक्रामक क्यों?

आज के डिजिटल युग में, बच्चों का व्यवहार और मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य एक गंभीर चिंता का विषय बन गया है। माता-पिता और शिक्षक अक्सर यह शिकायत करते हैं कि बच्चे पहले की तुलना में अधिक गुस्सैल, चिड़चिड़े और आक्रामक हो गए हैं। इसका एक प्रमुख कारण बच्चों का कम उम्र में मोबाइल फोन और इंटरनेट का अत्यधिक उपयोग है। प्रारंभिक स्क्रीन टाइम और डिजिटल दुनिया बच्चों के मानसिक और भावनात्मक विकास को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रही है, जिसके परिणामस्वरूप उनमें गुस्सा और आक्रामकता बढ़ रही है। 


आज के बच्चे ‘डिजिटल नेटिव्स’ हैं, यानी वे उस दुनिया में पैदा हुए हैं जहां स्मार्टफोन, टैबलेट और इंटरनेट रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा हैं। पहले जहां बच्चे खेल के मैदान में दोस्तों के साथ समय बिताते थे, वहीं अब वे मोबाइल स्क्रीन पर गेम खेलने, वीडियो देखने और सोशल मीडिया पर समय बिताने में व्यस्त रहते हैं। एक अध्ययन के अनुसार, भारत में 6-12 वर्ष की आयु के बच्चे औसतन प्रतिदिन 2-4 घंटे स्क्रीन पर बिताते हैं। ये आंकड़ा किशोरों में और भी अधिक है। 


हालांकि तकनीक ने शिक्षा और मनोरंजन के नए द्वार खोले हैं, लेकिन इसका अत्यधिक और अनियंत्रित उपयोग बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि कम उम्र में मोबाइल और इंटरनेट का उपयोग बच्चों के मस्तिष्क के विकास, भावनात्मक नियंत्रण और सामाजिक कौशलों को प्रभावित करता है।


गुस्सा और आक्रामकता के कारण बच्चों का मस्तिष्क विकास के महत्वपूर्ण चरण में होता है और इस दौरान स्क्रीन टाइम का अत्यधिक उपयोग उनके मस्तिष्क के ‘प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स’ को प्रभावित करता है, जो भावनाओं को नियंत्रित करने और निर्णय लेने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मोबाइल गेम्स और सोशल मीडिया में तेजी से बदलते दृश्य और तत्काल पुरस्कार (जैसे गेम में जीत या लाइक्स का मिलना) बच्चों के मस्तिष्क में ‘डोपामाइन’ का स्तर बढ़ाते हैं। इससे वे तुरंत संतुष्टि की उम्मीद करने लगते हैं और जब वास्तविक जीवन में ऐसा नहीं होता, तो वे निराश, चिड़चिड़े और गुस्सैल हो जाते हैं। 



इंटरनेट पर उपलब्ध कई गेम्स और वीडियो में हिंसा, आक्रामकता और अनुचित व्यवहार को दर्शाया जाता है। बच्चे, जिनका दिमाग अभी परिपक्व नहीं हुआ है, इन सामग्रियों को देखकर हिंसक व्यवहार को सामान्य मानने लगते हैं। उदाहरण के लिए कई लोकप्रिय मोबाइल गेम्स में युद्ध, लड़ाई और विनाश को बढ़ावा दिया जाता है, जो बच्चों में आक्रामक प्रवृत्तियों को बढ़ा सकता है। 


मोबाइल और इंटरनेट के अत्यधिक उपयोग से बच्चे वास्तविक दुनिया में अपने दोस्तों और परिवार से कट जाते हैं। वे सोशल मीडिया पर तो सक्रिय रहते हैं, लेकिन वास्तविक सामाजिक संपर्क की कमी उन्हें अकेला और उदास बनाती है। यह अकेलापन और भावनात्मक खालीपन अक्सर गुस्से और आक्रामकता के रूप में व्यक्त होता है।



देर रात तक मोबाइल फोन का उपयोग, विशेष रूप से नीली रोशनी का संपर्क, बच्चों की नींद की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। अपर्याप्त नींद बच्चों में चिड़चिड़ापन, तनाव और गुस्से को बढ़ाती है। एक शोध के अनुसार, जो बच्चे रात में अधिक समय स्क्रीन पर बिताते हैं, उनमें भावनात्मक अस्थिरता और आक्रामक व्यवहार की संभावना अधिक होती है।



सोशल मीडिया बच्चों में प्रतिस्पर्धा की भावना को बढ़ाता है। वे दूसरों की ‘परफेक्ट’ जिंदगी, लुक्स या उपलब्धियों को देखकर खुद को कमतर महसूस करते हैं। यह आत्मसम्मान में कमी और असंतोष का कारण बनता है, जो गुस्से और आक्रामकता के रूप में सामने आता है।


प्रारंभिक उम्र में मोबाइल और इंटरनेट का अत्यधिक उपयोग केवल गुस्सा और आक्रामकता तक सीमित नहीं है। इसके दीर्घकालिक प्रभाव भी चिंताजनक हैं। बच्चों में ध्यान केंद्रित करने की क्षमता कम हो रही है, उनकी रचनात्मकता प्रभावित हो रही है और वे भावनात्मक रूप से कमजोर हो रहे हैं। इसके अलावा, लगातार स्क्रीन टाइम के कारण शारीरिक स्वास्थ्य पर भी असर पड़ रहा है, जैसे कि मोटापा, आंखों की समस्याएं और खराब मुद्रा।


इस समस्या से निपटने के लिए माता-पिता, शिक्षकों और समाज को मिलकर प्रयास करने की आवश्यकता है। निम्नलिखित कुछ सुझाव हैं जो बच्चों में गुस्सा और आक्रामकता को कम करने में मदद कर सकते हैं। माता-पिता को बच्चों के स्क्रीन टाइम पर नजर रखनी चाहिए। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, 2-5 वर्ष की आयु के बच्चों को प्रतिदिन 1 घंटे से अधिक स्क्रीन टाइम नहीं देना चाहिए। बड़े बच्चों के लिए भी उम्र के अनुसार समय सीमा निर्धारित करें। बच्चों को खेल, कला, संगीत और पढ़ने जैसी गतिविधियों में शामिल करें। ये न केवल उनकी रचनात्मकता को बढ़ाते हैं, बल्कि उन्हें भावनात्मक रूप से स्थिर भी बनाते हैं। 


माता-पिता को बच्चों के साथ गुणवत्तापूर्ण समय बिताना चाहिए। साथ में भोजन करना, कहानियां सुनाना या बाहर घूमने जाना बच्चों को भावनात्मक रूप से मजबूत बनाता है। बच्चों को ऐसी सामग्री देखने के लिए प्रोत्साहित करें जो शिक्षाप्रद और सकारात्मक हो। माता-पिता को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बच्चे हिंसक गेम्स या वीडियो से दूर रहें। बच्चों को इंटरनेट के सुरक्षित और जिम्मेदार उपयोग के बारे में शिक्षित करें। उन्हें सोशल मीडिया के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों के बारे में बताएं। यदि बच्चा लगातार गुस्सा या आक्रामक व्यवहार दिखा रहा है, तो मनोवैज्ञानिक या काउंसलर की मदद लें। प्रारंभिक हस्तक्षेप से समस्या को बढ़ने से रोका जा सकता है।


बच्चों के लिए ही नहीं हम सबके लिए भी ये चेतावनी है कि लगातार डिजिटल उपकरणों का उपयोग मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाता है। इसके लिए ‘डिजिटल डिटॉक्स’ करने के जरूरत होती है। जो  तनाव कम करने, नींद सुधारने और वास्तविक रिश्तों को मजबूत करने में मदद करता है। यह एकाग्रता बढ़ाता है और बच्चों को स्क्रीन से दूर प्रकृति व खेलों से जोड़ता है। समय-समय पर ‘डिजिटल डिटॉक्स’ अपनाकर हम और हमारे बच्चे संतुलित और स्वस्थ जीवन जी सकते हैं।

मोबाइल और इंटरनेट का उपयोग आधुनिक जीवन का एक अभिन्न अंग है, लेकिन इसका बच्चों पर होने वाला प्रभाव गंभीर है। यह माता-पिता और समाज की जिम्मेदारी है कि वे बच्चों को डिजिटल दुनिया के नकारात्मक प्रभावों से बचाएं और उनके समग्र विकास को प्रोत्साहित करें। संतुलित जीवनशैली, सकारात्मक वातावरण और प्रेमपूर्ण देखभाल के साथ, हम बच्चों को न केवल गुस्से और आक्रामकता से मुक्त कर सकते हैं, बल्कि उन्हें एक स्वस्थ और खुशहाल भविष्य भी दे सकते हैं।