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Monday, April 28, 2025

डिजिटल युग में बच्चे गुस्सैल और आक्रामक क्यों?

आज के डिजिटल युग में, बच्चों का व्यवहार और मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य एक गंभीर चिंता का विषय बन गया है। माता-पिता और शिक्षक अक्सर यह शिकायत करते हैं कि बच्चे पहले की तुलना में अधिक गुस्सैल, चिड़चिड़े और आक्रामक हो गए हैं। इसका एक प्रमुख कारण बच्चों का कम उम्र में मोबाइल फोन और इंटरनेट का अत्यधिक उपयोग है। प्रारंभिक स्क्रीन टाइम और डिजिटल दुनिया बच्चों के मानसिक और भावनात्मक विकास को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रही है, जिसके परिणामस्वरूप उनमें गुस्सा और आक्रामकता बढ़ रही है। 


आज के बच्चे ‘डिजिटल नेटिव्स’ हैं, यानी वे उस दुनिया में पैदा हुए हैं जहां स्मार्टफोन, टैबलेट और इंटरनेट रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा हैं। पहले जहां बच्चे खेल के मैदान में दोस्तों के साथ समय बिताते थे, वहीं अब वे मोबाइल स्क्रीन पर गेम खेलने, वीडियो देखने और सोशल मीडिया पर समय बिताने में व्यस्त रहते हैं। एक अध्ययन के अनुसार, भारत में 6-12 वर्ष की आयु के बच्चे औसतन प्रतिदिन 2-4 घंटे स्क्रीन पर बिताते हैं। ये आंकड़ा किशोरों में और भी अधिक है। 


हालांकि तकनीक ने शिक्षा और मनोरंजन के नए द्वार खोले हैं, लेकिन इसका अत्यधिक और अनियंत्रित उपयोग बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि कम उम्र में मोबाइल और इंटरनेट का उपयोग बच्चों के मस्तिष्क के विकास, भावनात्मक नियंत्रण और सामाजिक कौशलों को प्रभावित करता है।


गुस्सा और आक्रामकता के कारण बच्चों का मस्तिष्क विकास के महत्वपूर्ण चरण में होता है और इस दौरान स्क्रीन टाइम का अत्यधिक उपयोग उनके मस्तिष्क के ‘प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स’ को प्रभावित करता है, जो भावनाओं को नियंत्रित करने और निर्णय लेने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मोबाइल गेम्स और सोशल मीडिया में तेजी से बदलते दृश्य और तत्काल पुरस्कार (जैसे गेम में जीत या लाइक्स का मिलना) बच्चों के मस्तिष्क में ‘डोपामाइन’ का स्तर बढ़ाते हैं। इससे वे तुरंत संतुष्टि की उम्मीद करने लगते हैं और जब वास्तविक जीवन में ऐसा नहीं होता, तो वे निराश, चिड़चिड़े और गुस्सैल हो जाते हैं। 



इंटरनेट पर उपलब्ध कई गेम्स और वीडियो में हिंसा, आक्रामकता और अनुचित व्यवहार को दर्शाया जाता है। बच्चे, जिनका दिमाग अभी परिपक्व नहीं हुआ है, इन सामग्रियों को देखकर हिंसक व्यवहार को सामान्य मानने लगते हैं। उदाहरण के लिए कई लोकप्रिय मोबाइल गेम्स में युद्ध, लड़ाई और विनाश को बढ़ावा दिया जाता है, जो बच्चों में आक्रामक प्रवृत्तियों को बढ़ा सकता है। 


मोबाइल और इंटरनेट के अत्यधिक उपयोग से बच्चे वास्तविक दुनिया में अपने दोस्तों और परिवार से कट जाते हैं। वे सोशल मीडिया पर तो सक्रिय रहते हैं, लेकिन वास्तविक सामाजिक संपर्क की कमी उन्हें अकेला और उदास बनाती है। यह अकेलापन और भावनात्मक खालीपन अक्सर गुस्से और आक्रामकता के रूप में व्यक्त होता है।



देर रात तक मोबाइल फोन का उपयोग, विशेष रूप से नीली रोशनी का संपर्क, बच्चों की नींद की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। अपर्याप्त नींद बच्चों में चिड़चिड़ापन, तनाव और गुस्से को बढ़ाती है। एक शोध के अनुसार, जो बच्चे रात में अधिक समय स्क्रीन पर बिताते हैं, उनमें भावनात्मक अस्थिरता और आक्रामक व्यवहार की संभावना अधिक होती है।



सोशल मीडिया बच्चों में प्रतिस्पर्धा की भावना को बढ़ाता है। वे दूसरों की ‘परफेक्ट’ जिंदगी, लुक्स या उपलब्धियों को देखकर खुद को कमतर महसूस करते हैं। यह आत्मसम्मान में कमी और असंतोष का कारण बनता है, जो गुस्से और आक्रामकता के रूप में सामने आता है।


प्रारंभिक उम्र में मोबाइल और इंटरनेट का अत्यधिक उपयोग केवल गुस्सा और आक्रामकता तक सीमित नहीं है। इसके दीर्घकालिक प्रभाव भी चिंताजनक हैं। बच्चों में ध्यान केंद्रित करने की क्षमता कम हो रही है, उनकी रचनात्मकता प्रभावित हो रही है और वे भावनात्मक रूप से कमजोर हो रहे हैं। इसके अलावा, लगातार स्क्रीन टाइम के कारण शारीरिक स्वास्थ्य पर भी असर पड़ रहा है, जैसे कि मोटापा, आंखों की समस्याएं और खराब मुद्रा।


इस समस्या से निपटने के लिए माता-पिता, शिक्षकों और समाज को मिलकर प्रयास करने की आवश्यकता है। निम्नलिखित कुछ सुझाव हैं जो बच्चों में गुस्सा और आक्रामकता को कम करने में मदद कर सकते हैं। माता-पिता को बच्चों के स्क्रीन टाइम पर नजर रखनी चाहिए। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, 2-5 वर्ष की आयु के बच्चों को प्रतिदिन 1 घंटे से अधिक स्क्रीन टाइम नहीं देना चाहिए। बड़े बच्चों के लिए भी उम्र के अनुसार समय सीमा निर्धारित करें। बच्चों को खेल, कला, संगीत और पढ़ने जैसी गतिविधियों में शामिल करें। ये न केवल उनकी रचनात्मकता को बढ़ाते हैं, बल्कि उन्हें भावनात्मक रूप से स्थिर भी बनाते हैं। 


माता-पिता को बच्चों के साथ गुणवत्तापूर्ण समय बिताना चाहिए। साथ में भोजन करना, कहानियां सुनाना या बाहर घूमने जाना बच्चों को भावनात्मक रूप से मजबूत बनाता है। बच्चों को ऐसी सामग्री देखने के लिए प्रोत्साहित करें जो शिक्षाप्रद और सकारात्मक हो। माता-पिता को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बच्चे हिंसक गेम्स या वीडियो से दूर रहें। बच्चों को इंटरनेट के सुरक्षित और जिम्मेदार उपयोग के बारे में शिक्षित करें। उन्हें सोशल मीडिया के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों के बारे में बताएं। यदि बच्चा लगातार गुस्सा या आक्रामक व्यवहार दिखा रहा है, तो मनोवैज्ञानिक या काउंसलर की मदद लें। प्रारंभिक हस्तक्षेप से समस्या को बढ़ने से रोका जा सकता है।


बच्चों के लिए ही नहीं हम सबके लिए भी ये चेतावनी है कि लगातार डिजिटल उपकरणों का उपयोग मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाता है। इसके लिए ‘डिजिटल डिटॉक्स’ करने के जरूरत होती है। जो  तनाव कम करने, नींद सुधारने और वास्तविक रिश्तों को मजबूत करने में मदद करता है। यह एकाग्रता बढ़ाता है और बच्चों को स्क्रीन से दूर प्रकृति व खेलों से जोड़ता है। समय-समय पर ‘डिजिटल डिटॉक्स’ अपनाकर हम और हमारे बच्चे संतुलित और स्वस्थ जीवन जी सकते हैं।

मोबाइल और इंटरनेट का उपयोग आधुनिक जीवन का एक अभिन्न अंग है, लेकिन इसका बच्चों पर होने वाला प्रभाव गंभीर है। यह माता-पिता और समाज की जिम्मेदारी है कि वे बच्चों को डिजिटल दुनिया के नकारात्मक प्रभावों से बचाएं और उनके समग्र विकास को प्रोत्साहित करें। संतुलित जीवनशैली, सकारात्मक वातावरण और प्रेमपूर्ण देखभाल के साथ, हम बच्चों को न केवल गुस्से और आक्रामकता से मुक्त कर सकते हैं, बल्कि उन्हें एक स्वस्थ और खुशहाल भविष्य भी दे सकते हैं। 

Tuesday, July 2, 2024

धर्मगुरुओं के बीच यूट्यूब संग्राम


जब से सोशल मीडिया का प्रभाव तेज़ी से व्यापक हुआ है तब से समाज का हर वर्ग, यहाँ तक कि ग्रहणियाँ भी 24 घंटे सोशल मीडिया पर हर समय छाए रहते हैं। इसके दुष्परिणामों पर काफ़ी ज्ञान उपलब्ध है। सलाह दी जाती है कि यदि आपको अपने परिवार या मित्रों से संबंध बनाए रखना है, अपना बौद्धिक विकास करना है और स्वस्थ और शांत जीवन जीना है तो आप सोशल मीडिया से दूर रहें या इसका प्रयोग सीमित मात्रा में करें। पर विडंबना देखिए कि समाज को संयत और सुखी जीवन जीने का और माया मोह से दूर रहने का दिन रात उपदेश देने वाले संत और भागवताचार्य आजकल स्वयं ही सोशल मीडिया के जंजाल में कूद पड़े हैं। विशेषकर ब्रज में ये प्रवृत्ति तेज़ी से फैलती जा रही है। 


अभी पिछले ही दिनों वृंदावन के विरक्त संत प्रेमानंद महाराज और प्रदीप मिश्रा के बीच सोशल मीडिया पर श्री राधा तत्व को लेकर भयंकर विवाद चला। ऐसे ही पिछले दिनों वृंदावन में नये स्थापित हुए भगवताचार्य अनिरुद्धाचार्य के भी वक्तव्य विवादों में रहे। 



इसी बीच बरसाना के विरक्त संत श्री रमेश बाबा द्वारा लीला के मंचन में राधा स्वरूप धारण कर बालाकृष्ण से पैर दबवाने पर विवाद हुआ। ये सब ब्रज की विभूतियाँ हैं। हर एक के चाहने वाले भक्त लाखों करोड़ों की संख्या में हैं। जैसे ही कोई विवाद पैदा होता है इनका चेला समुदाय भी सोशल मीडिया पर खूब सक्रिय हो जाता है। ठीक वैसे ही राजनैतिक दलों की ट्रोल आर्मी, जो बात का बतंगड़ बनाने में मशहूर है, सक्रिय हो जाती है। ये सब सोशल मीडिया में अपनी पहचान बनाने का एक तरीक़ा बन गया है। अब प्रेमानंद जी वाले विवाद को ही लीजिए, कितने  ही कम मशहूर भागवताचार्य भी इस विवाद में कूद पड़े। जिनके फ़ॉलोवर्स चार-पाँच सौ ही थे पर जैसे ही वे इस विवाद में कूदे तो उनकी संख्या 20 हज़ार पार कर गई। यानी बयानबाज़ी भी फ़ायदे का सौदा है। 


परंपरा से शास्त्र ज्ञान का आदान-प्रदान गुरुओं द्वारा निर्जन स्थलों पर किया जाता था। जहां जिज्ञासु अपने प्रश्न लेकर जाता था और गुरु की सेवा कर ज्ञान प्राप्त करता था। यही पद्धति भगवान श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को बताई थी। भगवद् गीता के चौथे अध्याय का चौंतीसवाँ श्लोक इसी बात को स्पष्ट करता है। तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।4.34।।



परंतु सोशल मीडिया ने आकर ऐसी सारी सीमाओं को तोड़ दिया है। अब धर्म गुरु चाहें न चाहें पर उनके शिष्य, उनके प्रवचनों का सोशल मीडिया पर प्रसारण करने को बेताब रहते हैं और फिर अलग-अलग गुरुओं के शिष्य समूहों में आपसी प्रतिद्वंदता चलती है कि किस गुरु के कितने चेले या श्रोता हैं। जिस संत के फ़ॉलोवर्स की संख्या लाखों में होती है उन पर टिप्पणी करना या उन्हें विवाद में घसीटना लाभ का सौदा माना जाता है। क्योंकि वैसे तो ऐसा विवाद खड़ा करने वालों की कोई फॉलोइंग होती नहीं है। पर इस तरह उन्हें बहुत बड़ी तादाद में फॉलोवर और लोक प्रियता मिल जाती है। मतलब ये कि आप में योग्यता है कि नहीं, पात्रता है कि नहीं, आपको उस विषय का ज्ञान है कि नहीं, इसका कोई संकोच नहीं किया जाता। केवल सस्ती लोकप्रियता पाने के लालच में बड़े बड़े संतों के साथ नाहक विवाद खड़ा किया जाता है। आजकल ऐसे विवादों की भरमार हो गई है। 


वैसे तो तकनीकी के हमले को कोई चाह कर भी नहीं रोक सकता। पर कभी-कभी इंसान को लगता है कि उसने भयंकर भूल कर दी। 2003 की बात है जब मैंने बरसाना (मथुरा) के विरक्त संत श्री रमेश बाबा के प्रवचन नियमित रूप से हर सप्ताह बरसाना जा कर सुनना शुरू किया, बाबा की भक्ति और सरलता ने मुझे बहुत प्रभावित किया। और मुझे लगा कि बाबा के प्रवचन पूरी दुनिया के कृष्ण भक्तों तक पहुँचने चाहिए। तब ऐसा होना केवल टीवी चैनल के माध्यम से ही संभव था। क्योंकि तब तक सोशल मीडिया इतना लोकप्रिय नहीं हुआ था। मैंने इसके लिए प्रयास करके श्री मान मंदिर में टीवी रिकॉर्डिंग स्टूडियो की स्थापना कर दी। उस दौर में मान मंदिर के विरक्त साधुओं ने मेरा कड़ा विरोध किया। उनका कहना था कि बाबा की बात अगर इस तरह प्रसारित की जाएगी तो बरसाना में कलियुग का प्रवेश कोई रोक नहीं पाएगा। पर बाबा ने मुझे अनुमति दी तो काम शुरू हो गया। इसका लाभ मान मंदिर को यह हुआ कि उसके भक्तों की संख्या में देश विदेशों में तेज़ी से बढ़ौतरी हुई और वहाँ धन की वर्षा होने लगी। तब मुझे विरोध करने वाले अव्यवहारिक प्रतीत होते थे। पर आज जब मैं पलट कर देखता हूँ तो मुझे लगता है कि वाक़ई इस प्रयोग में मान मंदिर के पवित्र, शांत और निर्मल वातावरण को बहुत सारे झमेलों में फँसा दिया। अगर वहाँ टीवी का प्रवेश न हुआ होता तो वहाँ का अनुभव पारलौकिक होता था। जिसे अनुभव करने मेरे साथ नीतीश कुमार, अर्जुन सिंह, सुषमा स्वराज, लालू यादव, केंद्रीय सतर्कता आयुक्त और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश तक उस दौर में वहाँ गए और गदगद हो कर लौटे। 


हमने बात शुरू की थी सोशल मीडिया पर बाबाओं के संग्राम से और बात पहुँच गई अध्यात्म की एकांतिक अनुभूति से शुरू होकर उसके व्यवसायी करण तक। इस आधुनिक तकनीकी ने जहां श्री राधा-कृष्ण की भक्ति का और ब्रज की संस्कृति का दुनिया के कोने कोने में प्रचार किया वहीं इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि आज वृंदावन, गोकुल, गोवर्धन, बरसाना व मथुरा आदि अपना सदियों से संचित आध्यात्मिक वैभव व नैसर्गिक सौंदर्य तेज़ी से समेटते जा रहे हैं। हर ओर बाज़ार की शक्तियों ने हमला बोल दिया है। कहते हैं कि विज्ञान अगर हमारा सेवक बना रहे तो उससे बहुत लाभ होता है। पर अगर वो हमारा स्वामी बन जाए तो उसके घातक परिणाम होते हैं। एक ब्रजवासी होने के नाते और संतों के प्रति श्रद्धा होने के नाते मेरा देश भर के संतों से विनम्र निवेदन है कि वे सोशल मीडिया के संग्राम से बचें और अपने अनुयायियों को होड़ में आगे आकर अपना बढ़ा-चढ़ा कर प्रचार करने से रोकें। जिससे वे अपना ध्यान भजन साधन के अलावा तीर्थ स्थलों के सौंदर्यकरण और रख-रखाव में लगा सकें। ताकि तीर्थ यात्रियों को ब्रज जैसे तीर्थों में जाने पर सांस्कृतिक आघात न लगे।जो आज उन्हें लगने लगा है।        

Monday, January 8, 2024

रियुमोटाइड आर्थराइटिस: इलाज संभव है?

सोशल मीडिया के दुरुपयोग के मामले अक्सर सामने आते रहते हैं। पिछले तीन वर्षों से फ़ेसबुक पर एक विज्ञापन चल रहा है जिसमें दावा किया जाता है कि, चर्चित पत्रकार विनीत नारायण के घुटनों के दर्द का सफल इलाज। विज्ञापन देने वाले ने मेरे घुटनों के दर्द की कहानी बता कर अपनी दवा और इलाज का प्रमोशन किया है। मैं कितना चर्चित हूँ या गुमनाम हूँ यह विषय नहीं है। पर इस हिन्दी विज्ञापन के कारण आए दिन हिन्दी भाषी राज्यों के मेरे परिचितों के फ़ोन मुझे आते रहते हैं जो यह जानना चाहते हैं कि क्या वाक़ई इस इलाज से मेरे घुटने ठीक हो गये? मेरा जवाब सुन कर उन्हें धक्का लगता है क्योंकि वे इस विज्ञापन पर यक़ीन कर बैठे थे और कुछ ने तो इलाज भी शुरू कर दिया था। मेरा उनको जवाब होता है कि मैं ख़ुद हैरान हूँ इस विज्ञापन से। क्योंकि मैंने ऐसी किसी व्यक्ति से अपना इलाज कभी नहीं कराया। ये नितांत झूठा विज्ञापन है। अगर मुझे उस व्यक्ति का पता मिल जाए तो मैं उसके विरुद्ध क़ानूनी करवाई अवश्य करूँगा। 


ये सही है कि पिछले तीन वर्षों से मुझे घुटनों में दर्द की शिकायत है। जो कभी बढ़ जाता है तो कभी ग़ायब हो जाता है। ऐसा दर्द शरीर के अन्य जोड़ो में भी कभी-कभी होता रहता है। यह दर्द घुटनों के कार्टिलेज के घिसने वाला दर्द नहीं है, जो प्रायः हमारी उम्र के लोगों को हो जाता है। इस बीमारी का नाम है ‘रियुमोटाइड आर्थराइटिस’ जिसे आयुर्वेद में आमवात रोग कहते हैं। यह एक क़िस्म का गठिया रोग है। ये क्यों, किसे और कब होता है इसका कोई स्पष्ट कारण पता नहीं हैं। पर चिंता की बात यह है कि ये काफ़ी लोगों को होने लगा है। यहाँ तक कि किशोरों में भी अब यह रोग काफ़ी पाया जाने लगा है। इसमें अक्सर जोड़ो में सूजन आ जाती है। जो दो दिन से लेकर दस दिन तक चलती है और भयंकर पीड़ा देती है। रात में यह दर्द और बढ़ जाता है। कभी-कभी सारी रात जाग कर काटनी पड़ती है। 


मरता क्या न करता। इस रोग के शिकार दर-दर भटकते हैं। अगर आप यूट्यूब पर जाएँ तो रियुमोटाइड आर्थराइटिस का इलाज बताने वाले दर्जनों शो मिल जाएँगे, जो प्राकृतिक चिकित्सा, होम्योपैथी, आयुर्वेद और एलोपैथी में इसका अचूक इलाज होने का दावा करते हैं। 



ये लेख मैं अपनी राम कहानी बताने के लिए नहीं लिख रहा बल्कि अपना अनुभव साझा करने के लिए लिख रहा हूँ जिससे, जिन्हें ये रोग है उन्हें कुछ दिशा मिल सके। पारंपरिक रूप से मेरा एलोपैथी में विश्वास नहीं रहा है। हालाँकि हर बीमारी के एलोपैथी के उत्तर भारत के मशहूर डॉक्टरों से मेरे व्यक्तिगत संपर्क रहे हैं, फिर भी मैं उनसे इलाज कराने से बचता रहा हूँ। 


इसलिए तीन वर्ष पहले जब मुझे पहली बार इस रोग ने हमला किया तो मैं भाग कर वृंदावन के मशहूर होमियोपैथिक डॉक्टर प्रमोद कुमार सिंह को दिखाने हवाई जहाज़ से पूना गया। क्योंकि उन दिनों वे निजी कारणों से पूना में थे। उन्होंने एक घंटे मुझ से सवाल-जवाब किए और एक पुड़िया होम्योपैथी की मीठी गोलियों की दी। जिसको खाने के चौबीस घंटों में मेरी सारी सूजन और दर्द चला गया। मैंने बड़ी श्रद्धा और विश्वास से छह महीने उनसे इलाज करवाया। हाँ उनके बताए दो काम मैं नहीं कर सका। एक तो नियमित प्राणायाम करना और दूसरा एक घंटे रोज़ धूप में बैठना। 



इन छह महीनों में स्थिति काफ़ी नियंत्रण में रही। लेकिन फिर भी कभी-कभी जोड़ों की सूजन बढ़ जाती थी। तो मैंने आयुर्वेद का इलाज कराने का निश्चय किया। हालाँकि डॉ प्रमोद कुमार सिंह पर मेरा विश्वास आज भी क़ायम है और वो पिछले हफ़्ते ही मुझसे कह रहे थे कि अगर मैं एक डेढ़ साल लग कर उनका इलाज कर लूँ तो वे मुझे पूरी तरह से ठीक कर देंगे। 


आयुर्वेद का इलाज कराने मैं जयपुर जा पहुँचा। वहाँ आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य रहे डॉ महेश शर्मा ने मेरा इलाज शुरू किया। छह महीने तक मैंने उनकी सभी दवाएँ नियम से लीं। साथ ही उनके बताए परहेज़ भी काफ़ी निष्ठा से किए। जिसका मतलब था कि खाने में गेहूं, चावल, मैदा, चीनी और दूध के पदार्थों का निषेध और दालों में केवल मूँग और मसूर की दाल। ग़ज़ब का फ़ायदा हुआ। मैं इतना ठीक हो गया कि चाट-पकौड़ी और दही बड़े तक खाने लगा। जब डॉक्टर साहब को उनकी प्रशंसा में यह बताया तो उनका कहना था कि, आम वात रोग राख में दबी चिंगारी की तरह होता है, आप ज़रा सी लापरवाही करेंगे तो फिर बढ़ जाएगा। छह महीने बाद उन्होंने मुझे दवा देना बंद कर दिया यह कह कर कि मेरी तरफ़ से इलाज पूरा हुआ। उसके बाद मैं काफ़ी समय तक ठीक रहा। परंतु शाकाहारी होते हुए कई बार ख़ान-पान का अनुशासन तोड़ देता था। परिणाम वही हुआ जो उन्होंने कहा था। बीमारी फिर बढ़ गई। 



मेरे परिवेश में जितने भी लोग हैं वे मेरी मान्यताओं से इत्तिफ़ाक़ नहीं रखते। उनका कहना है कि आज के युग में जब हवा-पानी, ख़ान-पान सब अशुद्ध हैं और खाद्य पदार्थों पर कीटनाशक दवाओं और रासायनिक उर्वरकों का भारी दुष्प्रभाव है तो होम्योपैथी, आयुर्वेद या प्राकृतिक चिकित्सा के कड़े नियमों का पालन करना लगभग असंभव है। इन पद्धतियाँ में कोई कमी नहीं है। किंतु हमारी परिस्थिति, दिनचर्या और ख़ान-पान हमें इनके नियमों का पालन नहीं करने देते। इसलिए इनका पूरा व सही लाभ नहीं मिल पाता। इन सब मित्रों और परिवारजनों का आग्रह था कि मैं एलोपैथी डॉक्टर से इलाज करवाऊँ, तो मैंने दिल्ली के ‘इंडियन स्पाइनल इंजरिज़ अस्पताल’ के मशहूर डॉक्टर संजीव कपूर को दिखाया। जिन्हें मैं दो बरस पहले दिखा चुका था, पर इलाज नहीं किया था। ये उन्हें याद था। वे बोले, आप देश के प्रबुद्ध व्यक्ति हैं। आपके विचारों और लेखों का आमजन पर प्रभाव पड़ता है। फिर आप हमारी पद्धति पर शक क्यों करते हैं? हमारे पास दुनिया का सर्वश्रेष्ठ इलाज है और रियुमोटाइड आर्थराइटिस की हर अवस्था का हम इलाज कर सकते हैं। आप आश्वस्त रहिए हम आपका कष्ट दूर कर देंगे। अब मैंने उनका इलाज शुरू कर दिया है। उम्मीद है उनका दावा सही निकलेगा और मैं शेष जीवन इस कष्ट के बिना जी पाऊँगा जो मेरी भाग-दौड़ की सामाजिक ज़िंदगी के लिए बहुत ज़रूरी है।   

Monday, December 12, 2011

अभिव्यक्ति पर बंदिश

Rajasthan Patrika 11Dec
जबसे टेलिकॉम मंत्री कपिल सिबल ने फेस बुक पर सेंसर लगाए जाने की बात की है, तब से इंटरनेट से जुड़े देश के करोड़ों लोगों में उबाल आ गया गया है। श्री सिबल ने इससे पहले इंटरनेट कंपनियों के मालिकों से बात की थी। सरकार ने गुगल, याहू, माइक्रोसाफ्ट व फेस बुक के अधिकारियों से कहा था कि वे अपनी इन साइट्स पर से कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह व मोहम्मद साहब से जुड़ी अपमानजनक, भ्रामक व भड़काऊ सामग्री हटाए। पर इन अधिकारियों का जवाब था कि अगर कोई सामग्री धार्मिक भावनाएं भड़काती हैं या उससे सुरक्षा को खतरा है तो वे उसे हटाने को तैयार हैं पर लोगों की राय और टिप्पणियां हटाना उनके लिए संभव नहीं है। यह बात श्री सिबल को नागवार गुजरी। उन्होंने आनन-फानन में घोषणा कर डाली कि इस मामले में अब सरकार ही पहल करेगी। उनके इस वक्तव्य को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में दखलंदाजी माना जा रहा है। अब यहां कई प्रश्न खड़े होते हैं।

पहली बात तो यह कि दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में अब यह चलन आम हो गया है कि जनता राजनेताओं या मशहूर हस्तियों के संबंध में अपनी राय खुलकर, बेधड़क सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर व्यक्त करतीं हैं। यह तकनीकी का कमाल है कि कोई घटना घटित होते ही दुनिया भर से हजारों-लाखों लोग उस पर अपनी प्रतिक्रिया देने लगते हैं। मसलन, क्रिकेट मैंच हारने वाली टीम को उसके प्रशंसक इतना जलील करते हैं कि बिचारे खिलाड़ी मुंह दिखाने लायक न बचें।

पर सबसे ज्यादा लक्ष्य राजनेताओं को बना कर टिप्पणियां की जाती हैं। जनता के चुने हुए प्रतिनिधि होने के बावजूद राजनेताओं का सम्वाद जनता से लगभग टूट जाता है क्योंकि व्यवहारिक रूप से भी एक राजनेता के लिए यह संभव नहीं होता कि वो हर व्यक्ति से व्यक्तिगत वार्ता कर सके। ऐसे में उसके मतदाता उसके प्रति अपने विचार और आक्रोश सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अब अभिव्यक्त करने लगे हैं। लोकतंत्र के नजरिए से इसे एक अच्छी शुरूआत माना जाना चाहिए क्योंकि लोगों की राय जानने के बाद राजनेता या मंत्री अपना स्पष्टीकरण दे सकते हैं और अगर उनके आचरण में कोई कमी है तो उसे दूर कर सकते हैं। अगर इतना ही हो तो सेंसर की कोई जरूरत नहीं है।

पर पिछले दिनों देखने में आया है कि राजनैतिक दल और सिविल सोसायटी के कुछ समूह बहुत सारे प्रोफेशनल्स को महंगे वेतन देकर इसी काम में लगा रखे हैं जो उनके विरोधियों के मुंह काले करें। कॉल सेंटर की तरह आउटसोर्स किए जाने वाले ये टेलेंट्स तालिबान की तरह आक्रामक होते हैं। इनकी भाषा और अभिव्यक्ति इतनी हमलावर और घातक होती है कि इनका लक्ष्य तिलमिला कर रह जाता है। अक्सर देखने में आ रहा है कि इस तरह से एक अभियान चला कर हमला करने वालों की फौज बिना तथ्यों की तहकिकात किए हमला बोल देते हैं और बिना प्रमाण के आरोपों के बौछार कर देते हैं। बात यहीं तक नहीं रूकी। अपने अभियान में ये समूह इस हद तक आगे चले जाते हैं कि सामने वाले का चरित्र हनन करने या अश्लीलता की हद तक उस पर कीचड़ उछालने में संकोच नहीं करते। चूंकि इन हमलावरों को सीधे पकड़ना संभव नहीं है इसलिए इनके विरूद्ध कोई कानूनी कार्यवाही नहीं हो पाती। फिर जरूरी नहीं कि हमलावरों की यह टोली उसी देश में बैठी हो जिस देश के नेतृत्व को लक्ष्य बना कर ये हमला कर रहे हों। इंटरनेट की दुनिया में सूचना का आदान-प्रदान सेंकेंड़ों में एक देश से दूसरे देश को हो जाता है। टिप्पणी सही हो या गलत आनन-फानन में आग की तरह पूरी दुनिया में फैल जाती है। फिर प्रतिष्ठा का जो नुकसान होता है उसकी भरपाई करना आसान नहीं है। शायद इस परिस्थिति से निपटने के लिए ही टेलीकॉम मंत्री सिबल ने यह कदम बढ़ाया है।

पर उनके आलोचक उनसे तीखे सवाल पूछ रहे हैं, मसलन, जब इन साइट्स पर अत्यंत अश्लील और समाज के लिए हानिकारक सामग्री प्रचारित होती है तब मंत्री महोदय कहां सोए रहते हैं ? जब भ्रष्टाचार के मामलों में सबूत के बावजूद हर दल के केन्द्रीय और प्रांतीय सरकारें आरोपियों को बचाने में लगी रहती हैं, तब जनता क्या करें ? क्या अपनी भड़ास भी न निकाले। बात यह भी कही जा रही है कि अगर ऐसी भड़ास न निकालने दी गई तो फिर जनता हिन्सक होकर सड़कों पर भी निकल सकती है। इसलिए उन्हें सलाह दी जा रही है कि वे सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर शिकंजा कसने की बजाय अपनी सरकार की छवि सुधारने का काम करें। इन आरोपों में दम हैं। पर फिर सवाल उठता है कि क्या यह प्रतिक्रिया वास्तव में उन लोगों की है जो मतदाता हैं, पीड़ित हैं और नाराज हैं ? या फिर उन लोगों की है जो भाड़े के टटू हैं और किसी एक दल या समूह के राजनैतिक लाभ के लिए इस हमले में जुड़े हैं। अगर ऐसा है तो यह प्रवृत्ति ठीक नहीं क्योंकि राजनैतिक हमले की जगह संसद है। छिप कर वार करना ठीक नहीं। इसलिए कि अगर यह प्रवृत्ति बढ़ती गई तो फिर इस आग की लपेट से कोई नहीं बचेगा। हर दल, हर राजनेता और हर जागरूक समूह ऐसे हमलों का शिकार बन सकता है। इससे समाज में भारी अराजकता फैलेगी।

आवश्यकता इस बात की है कि इस मामले पर देशभर में एक बहस छेड़ी जाए जिसके बाद इस खेल के नियम तय हों, इस माध्यम को स्वस्थ्य लोकतांत्रित परम्पराओं के विस्तार के लिए अवश्य इस्तेमाल किया जाए। अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश न लगे पर भाड़े के टटू इसे राजनैतिक हथियार के रूप में प्रयोग न करें। ये पहल भी समाज को करनी होगी सरकार को नहीं।