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Monday, January 8, 2024

रियुमोटाइड आर्थराइटिस: इलाज संभव है?

सोशल मीडिया के दुरुपयोग के मामले अक्सर सामने आते रहते हैं। पिछले तीन वर्षों से फ़ेसबुक पर एक विज्ञापन चल रहा है जिसमें दावा किया जाता है कि, चर्चित पत्रकार विनीत नारायण के घुटनों के दर्द का सफल इलाज। विज्ञापन देने वाले ने मेरे घुटनों के दर्द की कहानी बता कर अपनी दवा और इलाज का प्रमोशन किया है। मैं कितना चर्चित हूँ या गुमनाम हूँ यह विषय नहीं है। पर इस हिन्दी विज्ञापन के कारण आए दिन हिन्दी भाषी राज्यों के मेरे परिचितों के फ़ोन मुझे आते रहते हैं जो यह जानना चाहते हैं कि क्या वाक़ई इस इलाज से मेरे घुटने ठीक हो गये? मेरा जवाब सुन कर उन्हें धक्का लगता है क्योंकि वे इस विज्ञापन पर यक़ीन कर बैठे थे और कुछ ने तो इलाज भी शुरू कर दिया था। मेरा उनको जवाब होता है कि मैं ख़ुद हैरान हूँ इस विज्ञापन से। क्योंकि मैंने ऐसी किसी व्यक्ति से अपना इलाज कभी नहीं कराया। ये नितांत झूठा विज्ञापन है। अगर मुझे उस व्यक्ति का पता मिल जाए तो मैं उसके विरुद्ध क़ानूनी करवाई अवश्य करूँगा। 


ये सही है कि पिछले तीन वर्षों से मुझे घुटनों में दर्द की शिकायत है। जो कभी बढ़ जाता है तो कभी ग़ायब हो जाता है। ऐसा दर्द शरीर के अन्य जोड़ो में भी कभी-कभी होता रहता है। यह दर्द घुटनों के कार्टिलेज के घिसने वाला दर्द नहीं है, जो प्रायः हमारी उम्र के लोगों को हो जाता है। इस बीमारी का नाम है ‘रियुमोटाइड आर्थराइटिस’ जिसे आयुर्वेद में आमवात रोग कहते हैं। यह एक क़िस्म का गठिया रोग है। ये क्यों, किसे और कब होता है इसका कोई स्पष्ट कारण पता नहीं हैं। पर चिंता की बात यह है कि ये काफ़ी लोगों को होने लगा है। यहाँ तक कि किशोरों में भी अब यह रोग काफ़ी पाया जाने लगा है। इसमें अक्सर जोड़ो में सूजन आ जाती है। जो दो दिन से लेकर दस दिन तक चलती है और भयंकर पीड़ा देती है। रात में यह दर्द और बढ़ जाता है। कभी-कभी सारी रात जाग कर काटनी पड़ती है। 


मरता क्या न करता। इस रोग के शिकार दर-दर भटकते हैं। अगर आप यूट्यूब पर जाएँ तो रियुमोटाइड आर्थराइटिस का इलाज बताने वाले दर्जनों शो मिल जाएँगे, जो प्राकृतिक चिकित्सा, होम्योपैथी, आयुर्वेद और एलोपैथी में इसका अचूक इलाज होने का दावा करते हैं। 



ये लेख मैं अपनी राम कहानी बताने के लिए नहीं लिख रहा बल्कि अपना अनुभव साझा करने के लिए लिख रहा हूँ जिससे, जिन्हें ये रोग है उन्हें कुछ दिशा मिल सके। पारंपरिक रूप से मेरा एलोपैथी में विश्वास नहीं रहा है। हालाँकि हर बीमारी के एलोपैथी के उत्तर भारत के मशहूर डॉक्टरों से मेरे व्यक्तिगत संपर्क रहे हैं, फिर भी मैं उनसे इलाज कराने से बचता रहा हूँ। 


इसलिए तीन वर्ष पहले जब मुझे पहली बार इस रोग ने हमला किया तो मैं भाग कर वृंदावन के मशहूर होमियोपैथिक डॉक्टर प्रमोद कुमार सिंह को दिखाने हवाई जहाज़ से पूना गया। क्योंकि उन दिनों वे निजी कारणों से पूना में थे। उन्होंने एक घंटे मुझ से सवाल-जवाब किए और एक पुड़िया होम्योपैथी की मीठी गोलियों की दी। जिसको खाने के चौबीस घंटों में मेरी सारी सूजन और दर्द चला गया। मैंने बड़ी श्रद्धा और विश्वास से छह महीने उनसे इलाज करवाया। हाँ उनके बताए दो काम मैं नहीं कर सका। एक तो नियमित प्राणायाम करना और दूसरा एक घंटे रोज़ धूप में बैठना। 



इन छह महीनों में स्थिति काफ़ी नियंत्रण में रही। लेकिन फिर भी कभी-कभी जोड़ों की सूजन बढ़ जाती थी। तो मैंने आयुर्वेद का इलाज कराने का निश्चय किया। हालाँकि डॉ प्रमोद कुमार सिंह पर मेरा विश्वास आज भी क़ायम है और वो पिछले हफ़्ते ही मुझसे कह रहे थे कि अगर मैं एक डेढ़ साल लग कर उनका इलाज कर लूँ तो वे मुझे पूरी तरह से ठीक कर देंगे। 


आयुर्वेद का इलाज कराने मैं जयपुर जा पहुँचा। वहाँ आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य रहे डॉ महेश शर्मा ने मेरा इलाज शुरू किया। छह महीने तक मैंने उनकी सभी दवाएँ नियम से लीं। साथ ही उनके बताए परहेज़ भी काफ़ी निष्ठा से किए। जिसका मतलब था कि खाने में गेहूं, चावल, मैदा, चीनी और दूध के पदार्थों का निषेध और दालों में केवल मूँग और मसूर की दाल। ग़ज़ब का फ़ायदा हुआ। मैं इतना ठीक हो गया कि चाट-पकौड़ी और दही बड़े तक खाने लगा। जब डॉक्टर साहब को उनकी प्रशंसा में यह बताया तो उनका कहना था कि, आम वात रोग राख में दबी चिंगारी की तरह होता है, आप ज़रा सी लापरवाही करेंगे तो फिर बढ़ जाएगा। छह महीने बाद उन्होंने मुझे दवा देना बंद कर दिया यह कह कर कि मेरी तरफ़ से इलाज पूरा हुआ। उसके बाद मैं काफ़ी समय तक ठीक रहा। परंतु शाकाहारी होते हुए कई बार ख़ान-पान का अनुशासन तोड़ देता था। परिणाम वही हुआ जो उन्होंने कहा था। बीमारी फिर बढ़ गई। 



मेरे परिवेश में जितने भी लोग हैं वे मेरी मान्यताओं से इत्तिफ़ाक़ नहीं रखते। उनका कहना है कि आज के युग में जब हवा-पानी, ख़ान-पान सब अशुद्ध हैं और खाद्य पदार्थों पर कीटनाशक दवाओं और रासायनिक उर्वरकों का भारी दुष्प्रभाव है तो होम्योपैथी, आयुर्वेद या प्राकृतिक चिकित्सा के कड़े नियमों का पालन करना लगभग असंभव है। इन पद्धतियाँ में कोई कमी नहीं है। किंतु हमारी परिस्थिति, दिनचर्या और ख़ान-पान हमें इनके नियमों का पालन नहीं करने देते। इसलिए इनका पूरा व सही लाभ नहीं मिल पाता। इन सब मित्रों और परिवारजनों का आग्रह था कि मैं एलोपैथी डॉक्टर से इलाज करवाऊँ, तो मैंने दिल्ली के ‘इंडियन स्पाइनल इंजरिज़ अस्पताल’ के मशहूर डॉक्टर संजीव कपूर को दिखाया। जिन्हें मैं दो बरस पहले दिखा चुका था, पर इलाज नहीं किया था। ये उन्हें याद था। वे बोले, आप देश के प्रबुद्ध व्यक्ति हैं। आपके विचारों और लेखों का आमजन पर प्रभाव पड़ता है। फिर आप हमारी पद्धति पर शक क्यों करते हैं? हमारे पास दुनिया का सर्वश्रेष्ठ इलाज है और रियुमोटाइड आर्थराइटिस की हर अवस्था का हम इलाज कर सकते हैं। आप आश्वस्त रहिए हम आपका कष्ट दूर कर देंगे। अब मैंने उनका इलाज शुरू कर दिया है। उम्मीद है उनका दावा सही निकलेगा और मैं शेष जीवन इस कष्ट के बिना जी पाऊँगा जो मेरी भाग-दौड़ की सामाजिक ज़िंदगी के लिए बहुत ज़रूरी है।   

Monday, December 12, 2011

अभिव्यक्ति पर बंदिश

Rajasthan Patrika 11Dec
जबसे टेलिकॉम मंत्री कपिल सिबल ने फेस बुक पर सेंसर लगाए जाने की बात की है, तब से इंटरनेट से जुड़े देश के करोड़ों लोगों में उबाल आ गया गया है। श्री सिबल ने इससे पहले इंटरनेट कंपनियों के मालिकों से बात की थी। सरकार ने गुगल, याहू, माइक्रोसाफ्ट व फेस बुक के अधिकारियों से कहा था कि वे अपनी इन साइट्स पर से कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह व मोहम्मद साहब से जुड़ी अपमानजनक, भ्रामक व भड़काऊ सामग्री हटाए। पर इन अधिकारियों का जवाब था कि अगर कोई सामग्री धार्मिक भावनाएं भड़काती हैं या उससे सुरक्षा को खतरा है तो वे उसे हटाने को तैयार हैं पर लोगों की राय और टिप्पणियां हटाना उनके लिए संभव नहीं है। यह बात श्री सिबल को नागवार गुजरी। उन्होंने आनन-फानन में घोषणा कर डाली कि इस मामले में अब सरकार ही पहल करेगी। उनके इस वक्तव्य को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में दखलंदाजी माना जा रहा है। अब यहां कई प्रश्न खड़े होते हैं।

पहली बात तो यह कि दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में अब यह चलन आम हो गया है कि जनता राजनेताओं या मशहूर हस्तियों के संबंध में अपनी राय खुलकर, बेधड़क सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर व्यक्त करतीं हैं। यह तकनीकी का कमाल है कि कोई घटना घटित होते ही दुनिया भर से हजारों-लाखों लोग उस पर अपनी प्रतिक्रिया देने लगते हैं। मसलन, क्रिकेट मैंच हारने वाली टीम को उसके प्रशंसक इतना जलील करते हैं कि बिचारे खिलाड़ी मुंह दिखाने लायक न बचें।

पर सबसे ज्यादा लक्ष्य राजनेताओं को बना कर टिप्पणियां की जाती हैं। जनता के चुने हुए प्रतिनिधि होने के बावजूद राजनेताओं का सम्वाद जनता से लगभग टूट जाता है क्योंकि व्यवहारिक रूप से भी एक राजनेता के लिए यह संभव नहीं होता कि वो हर व्यक्ति से व्यक्तिगत वार्ता कर सके। ऐसे में उसके मतदाता उसके प्रति अपने विचार और आक्रोश सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अब अभिव्यक्त करने लगे हैं। लोकतंत्र के नजरिए से इसे एक अच्छी शुरूआत माना जाना चाहिए क्योंकि लोगों की राय जानने के बाद राजनेता या मंत्री अपना स्पष्टीकरण दे सकते हैं और अगर उनके आचरण में कोई कमी है तो उसे दूर कर सकते हैं। अगर इतना ही हो तो सेंसर की कोई जरूरत नहीं है।

पर पिछले दिनों देखने में आया है कि राजनैतिक दल और सिविल सोसायटी के कुछ समूह बहुत सारे प्रोफेशनल्स को महंगे वेतन देकर इसी काम में लगा रखे हैं जो उनके विरोधियों के मुंह काले करें। कॉल सेंटर की तरह आउटसोर्स किए जाने वाले ये टेलेंट्स तालिबान की तरह आक्रामक होते हैं। इनकी भाषा और अभिव्यक्ति इतनी हमलावर और घातक होती है कि इनका लक्ष्य तिलमिला कर रह जाता है। अक्सर देखने में आ रहा है कि इस तरह से एक अभियान चला कर हमला करने वालों की फौज बिना तथ्यों की तहकिकात किए हमला बोल देते हैं और बिना प्रमाण के आरोपों के बौछार कर देते हैं। बात यहीं तक नहीं रूकी। अपने अभियान में ये समूह इस हद तक आगे चले जाते हैं कि सामने वाले का चरित्र हनन करने या अश्लीलता की हद तक उस पर कीचड़ उछालने में संकोच नहीं करते। चूंकि इन हमलावरों को सीधे पकड़ना संभव नहीं है इसलिए इनके विरूद्ध कोई कानूनी कार्यवाही नहीं हो पाती। फिर जरूरी नहीं कि हमलावरों की यह टोली उसी देश में बैठी हो जिस देश के नेतृत्व को लक्ष्य बना कर ये हमला कर रहे हों। इंटरनेट की दुनिया में सूचना का आदान-प्रदान सेंकेंड़ों में एक देश से दूसरे देश को हो जाता है। टिप्पणी सही हो या गलत आनन-फानन में आग की तरह पूरी दुनिया में फैल जाती है। फिर प्रतिष्ठा का जो नुकसान होता है उसकी भरपाई करना आसान नहीं है। शायद इस परिस्थिति से निपटने के लिए ही टेलीकॉम मंत्री सिबल ने यह कदम बढ़ाया है।

पर उनके आलोचक उनसे तीखे सवाल पूछ रहे हैं, मसलन, जब इन साइट्स पर अत्यंत अश्लील और समाज के लिए हानिकारक सामग्री प्रचारित होती है तब मंत्री महोदय कहां सोए रहते हैं ? जब भ्रष्टाचार के मामलों में सबूत के बावजूद हर दल के केन्द्रीय और प्रांतीय सरकारें आरोपियों को बचाने में लगी रहती हैं, तब जनता क्या करें ? क्या अपनी भड़ास भी न निकाले। बात यह भी कही जा रही है कि अगर ऐसी भड़ास न निकालने दी गई तो फिर जनता हिन्सक होकर सड़कों पर भी निकल सकती है। इसलिए उन्हें सलाह दी जा रही है कि वे सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर शिकंजा कसने की बजाय अपनी सरकार की छवि सुधारने का काम करें। इन आरोपों में दम हैं। पर फिर सवाल उठता है कि क्या यह प्रतिक्रिया वास्तव में उन लोगों की है जो मतदाता हैं, पीड़ित हैं और नाराज हैं ? या फिर उन लोगों की है जो भाड़े के टटू हैं और किसी एक दल या समूह के राजनैतिक लाभ के लिए इस हमले में जुड़े हैं। अगर ऐसा है तो यह प्रवृत्ति ठीक नहीं क्योंकि राजनैतिक हमले की जगह संसद है। छिप कर वार करना ठीक नहीं। इसलिए कि अगर यह प्रवृत्ति बढ़ती गई तो फिर इस आग की लपेट से कोई नहीं बचेगा। हर दल, हर राजनेता और हर जागरूक समूह ऐसे हमलों का शिकार बन सकता है। इससे समाज में भारी अराजकता फैलेगी।

आवश्यकता इस बात की है कि इस मामले पर देशभर में एक बहस छेड़ी जाए जिसके बाद इस खेल के नियम तय हों, इस माध्यम को स्वस्थ्य लोकतांत्रित परम्पराओं के विस्तार के लिए अवश्य इस्तेमाल किया जाए। अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश न लगे पर भाड़े के टटू इसे राजनैतिक हथियार के रूप में प्रयोग न करें। ये पहल भी समाज को करनी होगी सरकार को नहीं।