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Monday, April 28, 2025

डिजिटल युग में बच्चे गुस्सैल और आक्रामक क्यों?

आज के डिजिटल युग में, बच्चों का व्यवहार और मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य एक गंभीर चिंता का विषय बन गया है। माता-पिता और शिक्षक अक्सर यह शिकायत करते हैं कि बच्चे पहले की तुलना में अधिक गुस्सैल, चिड़चिड़े और आक्रामक हो गए हैं। इसका एक प्रमुख कारण बच्चों का कम उम्र में मोबाइल फोन और इंटरनेट का अत्यधिक उपयोग है। प्रारंभिक स्क्रीन टाइम और डिजिटल दुनिया बच्चों के मानसिक और भावनात्मक विकास को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रही है, जिसके परिणामस्वरूप उनमें गुस्सा और आक्रामकता बढ़ रही है। 


आज के बच्चे ‘डिजिटल नेटिव्स’ हैं, यानी वे उस दुनिया में पैदा हुए हैं जहां स्मार्टफोन, टैबलेट और इंटरनेट रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा हैं। पहले जहां बच्चे खेल के मैदान में दोस्तों के साथ समय बिताते थे, वहीं अब वे मोबाइल स्क्रीन पर गेम खेलने, वीडियो देखने और सोशल मीडिया पर समय बिताने में व्यस्त रहते हैं। एक अध्ययन के अनुसार, भारत में 6-12 वर्ष की आयु के बच्चे औसतन प्रतिदिन 2-4 घंटे स्क्रीन पर बिताते हैं। ये आंकड़ा किशोरों में और भी अधिक है। 


हालांकि तकनीक ने शिक्षा और मनोरंजन के नए द्वार खोले हैं, लेकिन इसका अत्यधिक और अनियंत्रित उपयोग बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि कम उम्र में मोबाइल और इंटरनेट का उपयोग बच्चों के मस्तिष्क के विकास, भावनात्मक नियंत्रण और सामाजिक कौशलों को प्रभावित करता है।


गुस्सा और आक्रामकता के कारण बच्चों का मस्तिष्क विकास के महत्वपूर्ण चरण में होता है और इस दौरान स्क्रीन टाइम का अत्यधिक उपयोग उनके मस्तिष्क के ‘प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स’ को प्रभावित करता है, जो भावनाओं को नियंत्रित करने और निर्णय लेने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मोबाइल गेम्स और सोशल मीडिया में तेजी से बदलते दृश्य और तत्काल पुरस्कार (जैसे गेम में जीत या लाइक्स का मिलना) बच्चों के मस्तिष्क में ‘डोपामाइन’ का स्तर बढ़ाते हैं। इससे वे तुरंत संतुष्टि की उम्मीद करने लगते हैं और जब वास्तविक जीवन में ऐसा नहीं होता, तो वे निराश, चिड़चिड़े और गुस्सैल हो जाते हैं। 



इंटरनेट पर उपलब्ध कई गेम्स और वीडियो में हिंसा, आक्रामकता और अनुचित व्यवहार को दर्शाया जाता है। बच्चे, जिनका दिमाग अभी परिपक्व नहीं हुआ है, इन सामग्रियों को देखकर हिंसक व्यवहार को सामान्य मानने लगते हैं। उदाहरण के लिए कई लोकप्रिय मोबाइल गेम्स में युद्ध, लड़ाई और विनाश को बढ़ावा दिया जाता है, जो बच्चों में आक्रामक प्रवृत्तियों को बढ़ा सकता है। 


मोबाइल और इंटरनेट के अत्यधिक उपयोग से बच्चे वास्तविक दुनिया में अपने दोस्तों और परिवार से कट जाते हैं। वे सोशल मीडिया पर तो सक्रिय रहते हैं, लेकिन वास्तविक सामाजिक संपर्क की कमी उन्हें अकेला और उदास बनाती है। यह अकेलापन और भावनात्मक खालीपन अक्सर गुस्से और आक्रामकता के रूप में व्यक्त होता है।



देर रात तक मोबाइल फोन का उपयोग, विशेष रूप से नीली रोशनी का संपर्क, बच्चों की नींद की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। अपर्याप्त नींद बच्चों में चिड़चिड़ापन, तनाव और गुस्से को बढ़ाती है। एक शोध के अनुसार, जो बच्चे रात में अधिक समय स्क्रीन पर बिताते हैं, उनमें भावनात्मक अस्थिरता और आक्रामक व्यवहार की संभावना अधिक होती है।



सोशल मीडिया बच्चों में प्रतिस्पर्धा की भावना को बढ़ाता है। वे दूसरों की ‘परफेक्ट’ जिंदगी, लुक्स या उपलब्धियों को देखकर खुद को कमतर महसूस करते हैं। यह आत्मसम्मान में कमी और असंतोष का कारण बनता है, जो गुस्से और आक्रामकता के रूप में सामने आता है।


प्रारंभिक उम्र में मोबाइल और इंटरनेट का अत्यधिक उपयोग केवल गुस्सा और आक्रामकता तक सीमित नहीं है। इसके दीर्घकालिक प्रभाव भी चिंताजनक हैं। बच्चों में ध्यान केंद्रित करने की क्षमता कम हो रही है, उनकी रचनात्मकता प्रभावित हो रही है और वे भावनात्मक रूप से कमजोर हो रहे हैं। इसके अलावा, लगातार स्क्रीन टाइम के कारण शारीरिक स्वास्थ्य पर भी असर पड़ रहा है, जैसे कि मोटापा, आंखों की समस्याएं और खराब मुद्रा।


इस समस्या से निपटने के लिए माता-पिता, शिक्षकों और समाज को मिलकर प्रयास करने की आवश्यकता है। निम्नलिखित कुछ सुझाव हैं जो बच्चों में गुस्सा और आक्रामकता को कम करने में मदद कर सकते हैं। माता-पिता को बच्चों के स्क्रीन टाइम पर नजर रखनी चाहिए। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, 2-5 वर्ष की आयु के बच्चों को प्रतिदिन 1 घंटे से अधिक स्क्रीन टाइम नहीं देना चाहिए। बड़े बच्चों के लिए भी उम्र के अनुसार समय सीमा निर्धारित करें। बच्चों को खेल, कला, संगीत और पढ़ने जैसी गतिविधियों में शामिल करें। ये न केवल उनकी रचनात्मकता को बढ़ाते हैं, बल्कि उन्हें भावनात्मक रूप से स्थिर भी बनाते हैं। 


माता-पिता को बच्चों के साथ गुणवत्तापूर्ण समय बिताना चाहिए। साथ में भोजन करना, कहानियां सुनाना या बाहर घूमने जाना बच्चों को भावनात्मक रूप से मजबूत बनाता है। बच्चों को ऐसी सामग्री देखने के लिए प्रोत्साहित करें जो शिक्षाप्रद और सकारात्मक हो। माता-पिता को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बच्चे हिंसक गेम्स या वीडियो से दूर रहें। बच्चों को इंटरनेट के सुरक्षित और जिम्मेदार उपयोग के बारे में शिक्षित करें। उन्हें सोशल मीडिया के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों के बारे में बताएं। यदि बच्चा लगातार गुस्सा या आक्रामक व्यवहार दिखा रहा है, तो मनोवैज्ञानिक या काउंसलर की मदद लें। प्रारंभिक हस्तक्षेप से समस्या को बढ़ने से रोका जा सकता है।


बच्चों के लिए ही नहीं हम सबके लिए भी ये चेतावनी है कि लगातार डिजिटल उपकरणों का उपयोग मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाता है। इसके लिए ‘डिजिटल डिटॉक्स’ करने के जरूरत होती है। जो  तनाव कम करने, नींद सुधारने और वास्तविक रिश्तों को मजबूत करने में मदद करता है। यह एकाग्रता बढ़ाता है और बच्चों को स्क्रीन से दूर प्रकृति व खेलों से जोड़ता है। समय-समय पर ‘डिजिटल डिटॉक्स’ अपनाकर हम और हमारे बच्चे संतुलित और स्वस्थ जीवन जी सकते हैं।

मोबाइल और इंटरनेट का उपयोग आधुनिक जीवन का एक अभिन्न अंग है, लेकिन इसका बच्चों पर होने वाला प्रभाव गंभीर है। यह माता-पिता और समाज की जिम्मेदारी है कि वे बच्चों को डिजिटल दुनिया के नकारात्मक प्रभावों से बचाएं और उनके समग्र विकास को प्रोत्साहित करें। संतुलित जीवनशैली, सकारात्मक वातावरण और प्रेमपूर्ण देखभाल के साथ, हम बच्चों को न केवल गुस्से और आक्रामकता से मुक्त कर सकते हैं, बल्कि उन्हें एक स्वस्थ और खुशहाल भविष्य भी दे सकते हैं। 

Monday, September 2, 2024

जंक फ़ूड खाने के ख़तरे


देश में उपलब्ध खाद्य पदार्थों में मिलावट और उनकी लगातार गिरती गुणवत्ता के कारण जागरूक और जानकार लोगों द्वारा अपने और बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर चिंता व्यक्त की जा रही है। कई सामाजिक संगठन आधुनिक खाद्य पदार्थों के देश में बढ़ते दुष्प्रभाव को लेकर जागृति पैदा करने में जुटे हैं। बर्गर हो या पिजा का बेस, सैंडविच हो या पावभाजी सबमें मैदा की डबल रोटी के ही विभिन्न रूपों का इस्तेमाल होता है। सारे फसाद की जड़ यह डबल रोटी ही है। कुछ वर्ष पूर्व दक्षिणी आस्ट्रेलिया की सरकार ने बर्गर व पिजा जैसे आधुनिक खान-पान के विज्ञापनों के टेलीविजन पर प्रसारण पर रोक लगा दी थी। ग़ौरतलब है कि शीतल पेय और वो सारे आधुनिक व्यंजन जिनमें वसा, चीनी और नमक की मात्रा ज्यादा होती है बच्चों के लिए हानिकारक है। उनकी सरकार यह सुनिश्चित किया कि वहां के स्कूलों की कैंटीनों में बच्चों को केवल स्वास्थ्यवर्धक खाद्य पदार्थ ही मिलें।



भारत का शायद ही कोई शहर होगा जहां आम आदमी की सुबह डबलरोटी के साथ शुरू न होती हो। भारत में जैसे चाय की लत डालकर करोड़ों रूपए के मुनाफे कमाए जा रहे हैं लोगों की सेहत से खिलवाड़ किया जा रहा है वैसे ही डबलरोटी को सुविधाजनक बता कर आज हर घर में जबरन घुसा दिया गया है। जाने-अनजाने सब उसकी आदत के गुलाम बन गए हैं। खासकर शहरवासियों को बनी बनई रोटी यानी डबलरोटी से काफी लगाव है। डबलरोटी बनाने के लिए बारीक आटा या मैदे का इस्तेमाल किया जाता है। इसे बनाने की प्रक्रिया के दौरान आटे अथवा मैदे में उपस्थित सभी विटामिन और खनिज पदार्थ नष्ट हो जाते है। डबलरोटी स्वाद में तो अच्छी लगती है लेकिन रेशे रहित होने के कारण दांतों के लिए अत्यंत नुकसान देह है। यही नहीं यह हमारी पाचन प्रणाली के लिए भी हानिकारक है।



गेहूं के साबुत दाने में कार्बोहाईड्रेट्स के अलावा विटामिन और खनिज पदार्थ भी होते हैं। गेहूं विटामिन मध्यभाग के बाहरी हिस्से में पाया जाता है। मैदा बनाने की प्रक्रिया में कुछ कार्बोहाईड्रेट्स तो बच जाते हैं लेकिन विटामिन पूर्ण रूप से खत्म हो जाते है। इसी प्रकार गेहूं के दाने के बाहरी हिस्से में जिंक और अंदरूनी हिस्से में कौडमियम नामक तत्व पाए जाते हैं। मैदा बनाने के कारण जिंक नष्ट हो जाता है और कौडियम रह जाता है। इस तरह जितने भी जरूरी और लाभदायक तत्व हैं वह नष्ट हो जाते है और दूषित तत्व रह जाते हैं आपकी चहेती ब्रेड के लिए।



क्या कभी सोचा कि डबलरोटी ज्यादा समय तक क्यों रह पाती है? क्योंकि इसमें लगे आटे में पौष्टिक तेल तक नष्ट हो जाता है। यही नहीं इसमें किसी प्रकार के रेशे भी नहीं बचते। जिसका शरीर को नुकसान उठाना पड़ता है। बिना रेशे के खाद्य पदार्थ दांतों में चिपक जाते है। जिससे दांत सड़ सकते हैं। रेशे रहित भोजन कब्ज का भी कारण बनता है। आप अपने इलाके में एक सर्वेक्षण कर लें, तो पाएंगे कि ज्यादातर उन लोगों को ही कब्ज होता है, जो डबलरोटी खाते हैं। उन्हें नहीं जो ताजी रोटी खाते हैं। लेकिन चीनी, टेलीविजन और केबिल टीवी की तरह डबलरोटी भी आधुनिक सभ्यता की पहचान बन गई है। मार्डन मम्मियां समझती हैं कि बच्चों को ब्रेकफास्ट में टोस्ट, लंच में सैंडविच और डिनर में बर्गर देकर उन्होंने बच्चों का दिल जीत लिया है। वह नहीं जानतीं कि यह डबलरोटी उनके बच्चों की सेहत की कितनी बड़ी दुश्मन है?



कभी गेहूं का आटा गूंथिए और उसमें से अपनी उंगलियों को निकाल कर साफ कीजिए। वहीं दूसरी तरफ़ मैदा आपकी उंगलियों पर इस तरह चिपक जाती है कि पानी से कई बार रगड़ने पर ही छूटती है। इसी तरह डबलरोटी की मैदा आपके और आपके बच्चों की आतों की अंदरूनी कोमल झिल्ली पर चिपक जाती है। उसकी स्वाभाविक क्रियाओं को रोक देती है। आसानी से बाहर नहीं निकलती। नया भोजन खा लेने से आतों में पहले से पड़ी मैदा और चिपक जाती है। आगे चलकर बड़ी-बड़ी बीमारियों का कारण बनती है।


जिस तकनीक से डबलरोटी का निर्माण किया जाता है वह उसकी पौष्टिकता को पूर्ण रूप से नष्ट कर देती है। जबसे यह तथ्य साबित हुआ तभी से ही पश्चिमी देशों ने डबलरोटी बनाने के आटे में कृत्रिम विटामिन तथा खनिज पदार्थ मिलाने शुरू कर दिए है। उन देशों में जो डबलरोटी मिलती है उसमें काफी विटामिन ऊपर से मिलाए गए होते हैं। आज के पढ़े-लिखे लोगों की मूर्खता का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि पहले तो गेहूं के आटे में से सभी महत्वपूर्ण पोष्टिक तत्व नष्ट कर देते है। फिर बाद मे उसी आटे में कृत्रिम विटामिन तथा खनिज पदार्थ मिला कर उसे डबलरोटी की सूरत में इस्तेमाल करते हैं। वह भी ताजी नहीं बासी।


भारतीयों को इस बात से सबक सीखना चाहिए। अकलमंदी गलती करते जाने में नहीं, समय रहते उसे सुधारने में है। युनाइटेड नेशन्स विश्वविद्यालय ने अपनी एक खोज से यह नतीजा निकाला है कि यदि सही मायनों में गेहूं व आटे का फायदा उठाना है तो पूरी दुनिया को भारतीयों से रोटी बनाने का तरीका सीखना होगा। हम भारतीय है जो अपनी ताकतवर रोटी भूलकर सुबह, दोपहर व शाम डबलरोटी के पीछे दीवाने है। योगासन सदियों भारत में धक्के खाता रहा और जब अमरीका और दूसरे विकसित देशों ने योग सीखकर अपनी सेहत और पैसे बनाना शुरू किया तो भारत में भी योग सीखने व सिखाने वालों की लाइन लग गई। क्या रोटी के मामले में भी हम यही करने वाले हैं?


पश्चिम के एक वैज्ञानिक रूडोल्फबैलन टाइम लिखते हैंः गेहूं के आटे में उपस्थित तरल तत्व के कारण आटा ज्यादा समय तक टिक नहीं पाता। इसलिए रोटी खाने वालों को बार-बार आटे की चक्की की तरफ जाना पड़ता है। क्योंकि गेहूं को तो सालों तक रखा जा सकता है। इसलिए चक्की वाले भी एक समय में ज्यादा गेहूं न पीस कर थेड़े-थोड़े करके पीसते हैं। इससे आटे की ताजगी और पौष्टिकता दोनों बनी रहती है। मामला बिल्कुल साफ है। गेहूं रखना, आटा पिसवाना और ताजा रोटी बनाकर खाना, इससे ज्यादा फायदे की बात कोई हो नहीं सकती। पर हम सीधे और सरल रास्तों को न अपना कर आधुनिकता के पीछे भागते हैं और आधुनिकता को ही अपनाना चाहते हैं। फिर चाहे यह हमारे लिए नुकसानदायक ही क्यों न हो। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो पिछड़े हुए माने जाएंगे। बात केवल आधुनिक बनने की नहीं है, बात उन बेरोजगार दंत चिकित्सकों को रोजगार दिलवाने की भी है जो हजारों की तादाद में हर साल दंत चिकित्सा में डाक्टरी पास करके आते हैं। अगर हम डबलरोटी नहीं खाएंगे तो दांत सड़ेंगे ही नहीं और अगर दांत नहीं सड़ेंगे तो भला दंत चिकित्सक भूखे नहीं मर जाएंगे? इस तरह अपनी आंतों और अपने दांतों का नुकसान करके हम बनाने वालों को, डाक्टरों को, अस्पतालों को और दवा कंपनियों को अपनी मेहनत का पैसा बांटना चाहते हैं तो हमें कौन रोक सकता है?