Monday, September 26, 2022

बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा?



मशहूर शायर नवाब मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता का शेर, ‘हम तालिब-ए-शोहरत हैं हमें नंग से क्या काम, बदनाम अगर होंगे तो क्या नाम न होगा’ काफ़ी लोकप्रिय हुआ। इसका अर्थ है जिन्हें शोहरत की भूख होती है वो शोहरत पाने के लिए किसी भी हद तक जाने तैयार हो जाते हैं। ऐसा करने पर यदि उन्हें बदनामी भी मिले तो वे उसी में शोहरत के अवसर खोज लेते हैं। सुप्रीम कोर्ट की मीडिया ऐंकरों को पड़ी फटकार का कुछ ऐसा ही अर्थ निकाला जा सकता है। 


दरअसल हेट स्पीच के एक मामले में सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने टीवी एंकरों को कड़ी फटकार लगाई है। कोर्ट ने कहा कि नफरती भाषा एक जहर की तरह है जो भारत के सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचा रही है। पिछले कुछ समय से चैनलों पर बहस बेलगाम हो गई है। देश के राजनैतिक दल इस सब में भी लाभ खोज रहे हैं। अदालत ने कहा कि ऐसी नफ़रत फैलाने वाले दोषियों के खिलाफ सख्त कार्यवाही की जानी चाहिए। केंद्र सरकार से जवाब माँगते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि क्या इसको लेकर सरकार का कानून बनाने का इरादा है या नहीं? मौजूदा क़ानून ऐसे मामलों में निपटने के लिए अपर्याप्त है। न्यायमूर्ति के एम जोसेफ और हृषिकेश रॉय की खंडपीठ ने कहा कि हेट स्पीच के मामलों में केंद्र को 'मूक दर्शक' नहीं बने रहना चाहिए। कोर्ट ने आगे कहा कि, पूरी तरह से स्वतंत्र प्रेस के बिना कोई भी देश आगे नहीं बढ़ सकता है। एक मुक्त बहस होनी चाहिए। आपको यह भी पता होना चाहिए कि बहस की सीमा क्या है। बोलने की स्वतंत्रता वास्तव में श्रोता के लाभ के लिए है। एक बहस को सुनने के बाद श्रोता अपना मन बनाता है। लेकिन हेट स्पीच सुनने के बाद वह कैसे अपना मन बनाएगा।


आपको याद होगा कि जिस दिन से भाजपा की राष्ट्रीय प्रवक्ता रहीं नूपुर शर्मा के बयान पर विवाद खड़ा हुआ है उस दिन से देश में आग लग गई। इसके लिए कौन जिम्मेदार है? यकीनन टीवी चैनल ही इस अराजकता फैलाने के गुनहगार है। जो अपनी टीआरपी बढ़ाने के लालच में आये दिन इसी तरह के विवाद पैदा करते रहते है। जानबूझ कर ऐसे विषयों को लेते है जो विवादास्पद हों और ऐसे ही वक्ताओं को बुलाते है जो उत्तेजक बयानबाजी करते हों। टीवी ऐंकर खुद सर्कस के जोकरों की तरह पर्दे पर उछल कूद करते है। जिस किसी ने बीबीसी के टीवी समाचार सुने होगें उन्हें इस बात का खूब अनुभव होगा कि चाहें विषय कितना भी विवादास्पद क्यों न हो, कितना ही गम्भीर क्यों न हो, बीबीसी के ऐंकर संतुलन नहीं खोते। हर विषय पर गहरा शोध करके आते है और ऐसे प्रवक्ताओं को बुलाते है जो विषय के जानकार होते है। हर बहस शालीनता से होती है। जिन्हें देखकर दर्शकों को उत्तेजना नहीं होती बल्कि विषय को समझने का संतोष मिलता है।


आज की स्थिति में मैं मानने लगा हूं कि टेलीविजन समाचारों पर नियंत्रण जरूरी है। खबरों को फूहड़ और बिकाऊ बनाने के लिए टीआरपी को बहाना बनाया जाता है और खबरों के नाम पर ज्यादातर चैनल जो कुछ परोस रहे हैं उसे झेलना बेहद मुश्किल हो गया है। एक समय था जब रात में सिर्फ एक बार नौ बजे खबरें प्रसारित होती थीं। पहले रेडियो पर और फिर टीवी पर। उस समय खबरें सुनने या जानने में जो दिलचस्पी होती थी वह क्या अब किसी में रह गई है। तब खबरें नई होती थीं वाकई खबर होती थीं। पर अब दिन भर चलने वाली खबरों को जानने के लिए वो उत्सुकता नहीं रहती है। एक तो संचार के साधन बढ़ने और लगातार सस्ते होते जाने से लोगों तक सूचनाएं बहुत आसानी से और बहुत कम समय में पहुंचने लगी हैं। ऐसे में दर्शकों को खबरों से जोड़ने के लिए कुछ नया और अभिनव किए जाने की जरूरत है। पर ऐसा नहीं करके ज्यादातर चैनल फूहड़पन पर उतर आए हैं।


दूसरी ओर, नए और अपरिपक्व लोगों को समाचार संकलन और संप्रेषण जैसे काम में लगा दिए जाने का भी नुकसान है। किसी भी अधिकार के साथ जिम्मेदारी भी आती है। नए और युवा लोग अधिकार तो मांगते हैं पर जिम्मेदारी निभाने में चूक जाते हैं। उन्हें मीडिया की आजादी तो मालूम है पर इस आजादी के प्रभाव का अनुमान नहीं है। आपने देखा होगा कि दिन भर चलने वाले समाचार चैनल अपने प्रसारण में हिंसा और अपराध की खबरें खूब दिखाते हैं और कई-कई बार या काफी देर तक दिखाते रहते हैं। दर्शकों को आकर्षित करने के लिए ये अपने हिसाब से अपराधी तय कर लेते हैं और अदालत में मुकदमा कायम होने से पहले ही किसी को भी अपराधी साबित कर दिया जाता है। बाद में अगर वह निर्दोष पाया जाए तो उसकी कोई खबर दिखाई बताई नहीं जाती है। ऐसी खबरों से आहत होकर लोगों के आत्म हत्या कर लेने के भी मामले सामने आए हैं पर टेलीविजन चैनल संयम बरत रहे हों, ऐसा नहीं लगता है। दुर्घटना या प्राकृतिक आपदा की स्थिति में पीड़ितों से बेसिर-पैर के सवाल पूछे जाने के कई उदाहरण हैं। नए और गैरअनुभवी लोगों पर समाचारों के चयन और प्रसारण की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी डाल दिए जाने और टीआरपी की भूख से ऐसा हो रहा है। समय की मांग है समाचार चयन और चैनल का संचालन अनुभवी हाथों में हो और हम तक निष्पक्ष खबरें ही पहुंचें। 


जब भारत में कोई प्राईवेट टीवी चैनल नहीं था तब 1989 में देश की पहली हिन्दी विडियो समाचार कैसेट ‘कालचक्र’ जारी करके मैंने टीवी पत्रकारिता के कुछ मानदंड स्थापित किये थे। बिना किसी औद्योगिक घराने या राजनैतिक दल की आर्थिक मदद के भी कालचक्र ने देश भर में तहलका मचा दिया था। हमने कालचक्र में जनहित के मुद्दों को गम्भीरता से उठाया और उन पर देश के मशहूर लोगों से बेबाक बहस करवाई। जिनकी चर्चा लगातार देश के हर अखबार में हुई। इसी तरह आज के साधन सम्पन्न टीवी चैनल अगर चाहें तो जनहित में अनेक गम्भीर मुद्दों पर बहस करवा सकते है। जैसे नौकरशाही या लालफीताशाही पर, शिक्षा व्यवस्था पर, न्याय व्यवस्था पर, पुलिस व्यवस्था पर, अर्थ व्यवस्था पर, पर्यावरण पर व स्वास्थ्य व्यवस्था जैसे अनेक अन्य विषयों पर गम्भीर बहसें करवाई जा सकती हैं। जिनके करने से देश के जनमानस में मंथन होगा और उससे विचारों का जो नवनीत निकलेगा उससे समाज और राष्ट्र को लाभ होगा। आज की तरह देश में अराजकता, हिंसा और कुंठा नहीं फैलेगी।

Monday, September 19, 2022

सिर्फ़ उत्सवों से भूख नहीं मिटती


1789-90 में फ़्रांस में जब लोग भूखे मर रहे तो वहाँ की रानी मैरी एटोनी का ध्यान लोगों की बदहाली की ओर दिलाया गया। तो ऐशों आराम में लिप्त रानी बोली इनके पास रोटी खाने को नहीं है तो ये लोग केक क्यों नहीं खाते ? 


हर देश के हुक्मरान अपने देश की जनता को सम्बोधित करते हुए हमेशा बात तो करते हैं जनसेवा की, विकास की और अपने त्याग की लेकिन वास्तव में उनका आचरण वही होता है जो फ़्रांस में लुई सोलह और मैरी एटोनी कर रहे थे। ये सब नेता जनता के दुःख दर्द से बेख़बर रहकर मौज मस्ती का जीवन जीते हैं। इतना महँगा जीवन जीते हैं कि इनके एक दिन के खर्चे के धन से एक गाँव हमेशा के लिए सुधर जाए। जबकि आज राजतंत्र नहीं लोकतंत्र है। पर लोकतंत्र में भी इनके ठाठ बाट किसी शहंशाह से कम नहीं होते। हाँ इसके अपवाद भी हैं। 



पर आज मीडिया से प्रचार करवाने का ज़माना है। इसलिये बिलकुल नाकारा, संवेदना शून्य, चरित्रहीन और भ्रष्ट नेता को भी मीडिया द्वारा महान बता दिया जाता है। हम सब जानते हैं कि गाय के दूध की छाछ, नीबू की शिंकजी, संतरे, मोसंबी, बेल या फ़ालसे का रस, लस्सी या ताज़ा गर्म दूध सेहत के लिये बहुत गुणकारी होता है। इनकी जगह जो आज देश में भारी मात्रा में बेचा और आम जनता द्वारा डट कर पिया जा रहा है वो हैं रंग बिरंगे ‘कोल्ड ड्रिंक्स’। जिनमें ताक़त के तत्व होना तो दूर शरीर को हानि पहुँचाने वाले रासायनिकों की भरमार होती है। फिर भी अगर आप किसी को समझाओ कि भैया ये कोल्ड ड्रिंक्स न पियो न पिलाओ, तो क्या वो आपकी बात मानेगा? कभी नहीं। क्योंकि विज्ञापन के मायाजाल ने उसका दिमाग़ कुंद कर दिया है। उसके सोचने, समझने और तर्क को स्वीकारने की शक्ति पंगु कर दी है। 


यही हाल नेताओं का भी होता है। जो मीडिया के मालिकों को मोटे फ़ायदे पहुँचाकर, पत्रकारों को रेवड़ी बाँट कर, दिन-रात अपना यशगान करवाते हैं। कुछ समय तक तो लोग भ्रम में पड़े रहते हैं और उसी नेता का गुणगान करते हैं। पर जब इन्हें ये एहसास होता है कि उन्हें कोरे आश्वासनों और वायदों के सिवाय कुछ नहीं मिला तो वे नींद से जागते हैं। पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। हालात बद से बदतर हो चुके होते हैं। फिर कोई नया मदारी आकर बंदर का खेल दिखाने लगता है और लोग उसकी तरफ़ आकर्षित हो जाते हैं। ये सिलसिला तब तक चलता है जब तक सच्चा लोकतंत्र नहीं आता। जब तक हर नागरिक और मीडिया अपने हुक्मरानों से कड़े सवाल पूछने शुरू नहीं करता। जब तक हर नागरिक मीडिया के प्रचार से हट कर अपने इर्दगिर्द के हालात पर नज़र नहीं डालता। 



विपक्षी दल सरकार को पूँजीपतियों का दलाल और जनता विरोधी बताते हैं। पर सच्चाई क्या है? कौनसा दल है जो पूँजीपतियों का दलाल नहीं है? कौनसा दल है जिसने सत्ता में आकर नागरिकों की आर्थिक प्रगति को अपनी प्राथमिकता माना हो? धनधान्य से भरपूर भारत का मेहनतकश आम आदमी आज अपने दुर्भाग्य के कारण नहीं बल्कि शासनतंत्र में लगातार चले आ रहे भ्रष्टाचार के कारण गरीब है। इन सब समस्याओं के मूल में है संवाद की कमी। जब तक सत्ता और जनता के बीच संवाद नहीं होगा तब तक गंभीर समस्याओं को नहीं सुलझाया जा सकता। इसलिए लगता है कि अब वो समय आ गया है कि जब दलों की दलदल से बाहर निकल कर लोकतंत्र को ज़मीनी स्तर पर मज़बूत किया जाए। जिसके लिए हमें 600 ई॰पू॰ भारतीय गणराज्यों से प्रेरणा लेनी होगी। जहां संवाद ही लोकतंत्र की सफलता की कुंजी था।  


देश के नेताओं के पास जब जनता को उपलब्धियों के नाम पर बताने को कुछ ठोस नहीं होता तो वे आये दिन रंग बिरंगे नए-नए उत्सव या कार्यक्रम आयोजित करवा कर जनता का ध्यान बटाते रहते हैं। इन कार्यक्रमों में गरीब देश की जनता का अरबों रुपया लगता है पर क्या इनके आयोजन से उसे भूख, बेरोज़गारी और मँहगाई से मुक्ति मिलती है? नहीं मिलती। उत्सव इंसान कब मनाता है जब उसका पेट भरा हो। 


आज हमारे देश को ही लें चारों ओर गंदगी का साम्राज्य बिखरा पड़ा है। करोड़ों देशवासी नारकीय स्थिति में, झुग्गी झोपड़ियों में, कीड़े-मकोड़ों की तरह ज़िंदगी जी रहे हैं। जब लोग मजबूर होते हैं तो नौकरी की तलाश में अपने गाँव को छोड़कर शहरों में बसने चले आते हैं। इससे वो गाँव तो उजड़ते ही हैं शहर भी नारकीय बन जाते हैं। 


सनातन धर्म में राजा से अपेक्षा की गयी है कि वो राजऋषि होगा। उसके चारों तरफ़ कितना ही वैभव क्यों न हो वो एक ऋषि की तरह त्याग और तपस्या का जीवन जिएगा। वो प्रजा को संतान की तरह पालेगा। खुद तकलीफ़ सहकर भी प्रजा को सुखी रखेगा। आज ऐसे कितने नेता आपकी नज़र में हैं? मीडिया के प्रचार से बचकर अपने सीने पर हाथ रखकर अगर ठीक से सोचा जाए तो एक भी नेता ऐसा नहीं मिलेगा। 75 वर्ष के आज़ाद भारत के इतिहास में कितने नेता हुए हैं जिनका जीवन लाल बहादुर शास्त्री जैसा सादा रहा हो? 


भगवान गीता में अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि ‘महाजनों येन गताः स पंथः’। महापुरुष जिस मार्ग पर चलते हैं वो अनुकरणीय बन जाता है। आज हमने नेताओं को ही महापुरुष मान लिया है। इसलिये उनके आचरण की नक़ल सब कर रहे हैं। फिर कहाँ मिलेगा त्याग-तपस्या का उदाहरण। हर ओर भोग का तांडव चल रहा है। फिर चाहे पर्यावरण का तेज़ी से विनाश हो, बेरोज़गारी व महंगाई चरम पर हो, शिक्षा के नाम पर वाट्सऐप विश्वविद्यालय चल रहे हों - तो देश तो बनेगा ही ‘महान’।


ज़रूरत है कि हम सब जागें, मीडिया पर निर्भर रहना और विश्वास करना बंद करें। अपने चारों ओर देखें कि क्या ख़ुशहाली आई है या नहीं? नहीं आई तो आवाज़ बुलंद करें। तब मिलेगा जनता को उसका हक़ और तब बनेगा भारत सोने की चिड़िया। केवल थोथे वायदों और प्रचार पर भरोसा करना बंद करें और अपने दिल और दिमाग़ से पूछें कि क्या देख रहे हो? तब नेता भी सुधरेंगे और देश भी। 

 

Monday, September 12, 2022

देश में कई ट्रॉमा सेंटर होने चाहिए

 


टाटा समूह के पूर्व चेयरमैन साइरस मिस्त्री की एक सड़क दुर्घटना में हुई मृत्यु से देश भर में सड़क सुरक्षा को लेकर कई सवाल उठने लगे हैं। सड़क दुर्घटना में चोटिल व्यक्ति को यदि समय पर प्राथमिक उपचार मिल जाए तो अधिकतर मामलों में घायल व्यक्ति की जान बचाई जा सकती है। साइरस मिस्त्री की मृत्यु के बाद एक ओर जहां सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गड़करी ने एक आदेश जारी किया है जिसके तहत अब से कार में पीछे बैठने वाले अगर सीट बेल्ट नहीं लगाएँगे तो उनका भी चालान होगा। वहीं सड़क सुरक्षा को लेकर अन्य कई सवाल भी उठने लग गए हैं। इनमें से अहम है देश में ट्रॉमा सेंटर्स की भारी कमी का होना। 


ट्रॉमा सेंटर एक ऐसा अस्पताल होता है जो ऊँचाई से गिरने, सड़क दुर्घटना, हिंसा आदि जैसे हादसों में घायल रोगियों की प्राथमिक चिकित्सा व देखभाल के लिए विशेष स्टाफ़ से लैस रहता है। आम तौर पर ट्रॉमा सेंटर में केवल गम्भीर रूप से चोटिल व्यक्तियों का ही इलाज चलता है। प्राथमिक उपचार के बाद यदि किसी मरीज़ को किसी अन्य विशेषज्ञ से इलाज की ज़रूरत होती है तो उसे आम अस्पताल में भेज दिया जाता है। यानी ट्रॉमा सेंटर में रोज़मर्रा के मरीज़ नहीं देखे जाते।



असल में दर्दनाक चोट अपने आप में एक रोग प्रक्रिया है, जिसके लिए विशेष और अनुभवी उपचार और विशेष संसाधनों की आवश्यकता होती है। यदि ऐसे उपचारों को आम अस्पतालों में ही किया जाए तो आम मरीज़ों की भीड़ के चलते ट्रॉमा सेंटर की विशेष प्रक्रिया में असर पड़ सकता है। दुनिया का पहला ट्रॉमा सेंटर बर्मिंघम दुर्घटना अस्पताल था जो 1941 में बर्मिंघम, इंग्लैंड में खोला गया था। इस अस्पताल को आम रोगियों के बजाए गम्भीर रूप से घायलों के इलाज के लिए विशेष रूप से स्थापित किया गया था। ट्रॉमा सेंटर के उच्चतम स्तर पर विशेषज्ञ चिकित्सा और नर्सिंग देखभाल तक पहुंच है, जिसमें आपातकालीन चिकित्सा, आघात सर्जरी, महत्वपूर्ण देखभाल, न्यूरोसर्जरी, आर्थोपेडिक सर्जरी, एनेस्थिसियोलॉजी और रेडियोलॉजी के साथ-साथ अत्यधिक विशिष्ट और परिष्कृत सर्जिकल और नैदानिक उपकरण की एक विस्तृत विविधता शामिल है। 


आज हमारे देश में यदि कोई बड़ा हादसा हो तो उससे निपटने के लिए देश में कितने ट्रॉमा सेंटर हैं? मौजूदा अस्पतालों को सही ढंग से चलाने में सरकारें कितनी कामयाब हैं इसका अंदाज़ा निजी अस्पतालों की लोकप्रियता से लगाया जा सकता है। आम तौर पर यदि कोई व्यक्ति किसी सरकारी अस्पताल में जाता है तो या तो वहाँ पर डाक्टरों की कमी होती है या फिर वहाँ लगे उपकरण ठीक से नहीं चलते। मजबूरन जाँच करवाने के लिए मरीज़ों को निजी क्लिनिक या अस्पतालों का रुख़ करना पड़ता है जो उनकी जेब पर भारी पड़ता है। यदि मरीज़ों को सरकारी अस्पतालों में सभी सुविधाएँ उपलब्ध हो जाएं तो भला वे निजी अस्पतालों में क्यों जाएं? हमारी सरकारें और अफ़सर बात-बात में यूरोप और अमरीका का उदाहरण देते हैं। जबकि वहाँ सबको सरकारी स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध हैं और हमारी सरकारें अपने सरकारी अस्पतालों को बैंड करती जा रही हैं। जबकि हमारे देश में ग़रीबों की संख्या कहीं ज़्यादा है और वो निजी अस्पताल का खर्च वहन नहीं कर सकते। 



राजनेताओं द्वारा अक्सर मतदाताओं को लुभाने के लिए ऐसे वादे कर दिए जाते हैं जो पूरे नहीं होते। चुनावी वादों में स्वास्थ्य सम्बन्धी योजनाएँ भी ऐलान की जाती हैं। इन योजनाओं में करोड़ों की लागत से बनने वाले बड़े-बड़े अस्पताल और ट्रॉमा सेंटर भी शामिल होते हैं। लेकिन ज़रूरत इस बात की है कि करोड़ों रुपए के नए-नए अस्पतालों को बनाने की बजाय मौजूदा अस्पतालों को दुरुस्त किया जाए। उनकी दशा सुधारी जाए। उनमें मेडिकल उपकरण, दवाओं और जेनरेटर जैसी सुविधाएँ दी जाएं क्योंकि अक्सर छोटे शहरों में बिजली की आपूर्ति नियमित नहीं होती। राजमार्गों पर निश्चित दूरी पर ट्रॉमा सेंटर या अस्पतालों की सुविधा भी बनाई जाए और इनका व्यापक प्रचार भी किया जाए। जैसे हमें राजमार्गों और एक्सप्रेसवे पर जगह-जगह पेट्रोल पम्प और विश्राम स्थल की जानकारी के बोर्ड दिखाई देते हैं वैसे ही इन अस्पतालों/ ट्रॉमा सेंटर की जानकारी भी उपलब्ध होनी चाहिए। 


दिल्ली के प्रतिष्ठित ‘एम्स’ अस्पताल के अधीन जयप्रकाश नारायण एपेक्स ट्रॉमा सेंटर को देश का सर्वश्रेष्ठ ट्रॉमा सेंटर माना जाता है। कई सालों से इस ट्रॉमा सेंटर में कई जटिल उपचार सफलता पूर्वक किए गए हैं। इनमें से एक चर्चित मामला ऐसा था जो शायद आपको भी याद होगा। 19 अप्रेल 2010 को दिल्ली के ग्रेटर कैलाश के पास गाड़ी चला रहे कुवात्रा अदामा नाम के एक विदेशी नागरिक की गाड़ी सरियों से लदे ट्रक में जा भिड़ी। दुर्घटना में ट्रक से लटकते हुए सरिए अदामा की छाती के आर-पार हो गए। दुर्घटना में सरिए इस कदर शरीर के आर-पार हुए कि अदामा और उनके पीछे बैठे मित्र दोनों को अपनी चपेट में ले लिया। इन दोनों घायलों को एम्स के ट्रॉमा सेंटर लाया गया। एम्स ट्रॉमा सेंटर के वरिष्ठ ट्रॉमा सर्जन डॉ अमित गुप्ता की टीम ने इस चुनौतीपूर्ण सर्जरी को सफलतापूर्वक किया। इस घटना को याद करते हुए डॉ गुप्ता बताते हैं कि यह एक ऐसा मामला था जहां दुर्घटना की शिकार गाड़ी को डाक्टरों की निगरानी में अस्पताल के अंदर ही काटा गया। चूँकि सरिए इस तरह से आर-पार हुए थे कि मरीज़ को लेटाना भी संभव नहीं था। लेकिन एम्स ट्रॉमा सेंटर के अनुभवी डाक्टरों की टीम ने इसे सफलतापूर्वक कर दिखाया और अदामा और उनके मित्र को एक नया जीवन दिया। 


सवाल यह है कि देश में एम्स ट्रॉमा सेंटर जैसे कितने अस्पताल हैं? शायद हम उन्हें उँगलियों पर ही गिन लें। इसलिए इनकी संख्या बढ़ाने की ज़रूरत है। ऐसा इसलिए भी ज़रूरी हो गया है क्योंकि देश में उच्च गुणवत्ता वाले राष्ट्रीय राजमार्गों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। इसके साथ ही बढ़ रही है नवीनतम मॉडल की कारों की संख्या। इन चमचमाती गाड़ियों और चिकनी साफ़ सड़कों पर तेज रफ़्तार से गाड़ी दौड़ने का लोभ युवा पीढ़ी रोक नहीं पाती है और आय दिन ख़तरनाक दुर्घटनाओं का शिकार होती है। इसलिए ट्रॉमा सेण्टरों की संख्या बढ़ाना और इसके साथ ही अति आधुनिक ट्रॉमा एम्बुलेंसों की तैनाती इन राजमार्गों पर कर दी जाए तो बहुत सी क़ीमती जाने बच सकती हैं। 

Monday, September 5, 2022

तेलंगाना : प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या?


कहावत है कि क्रिकेट और राजनीति अनिश्चिताओं का खेल होते है। क्रिकेट में पारी की आख़री बॉल टीम को जीता भी सकती है और हरा भी सकती है। क्या किसी ने कभी सोचा था कि चरण सिंह, वी पी सिंह, चंद्रशेखर, आई के गुजराल और एच डी देवेगोड़ा भारत के प्रधान मंत्री बनेंगे। जबकि किसी के पास प्रधान मंत्री बनने लायक सांसद तो क्या उसका पाँचवाँ हिस्सा भी सांसद नहीं थे। आई के गुजराल तो ऐसे प्रधान मंत्री थे जो अपने बूते एक लोक सभा की सीट भी नहीं जीत सकते थे। फिर भी ये सब प्रधान मंत्री बने। वो अलग बात है कि इनका प्रधान मंत्री बनना किसी अखिल भारतीय आंदोलन की परिणिति नहीं था बल्कि उस समय की राजनैतिक परिस्थितियों ने इन्हें ये मौक़ा दिया। 


एक बार फिर देश के हालत ऐसे हो रहे हैं कि देश की बहुसंख्यक आबादी शायद सत्ता परिवर्तन देखना चाहती है। एक तरफ़ वो लोग हैं जो मानते हैं कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता घटी नहीं है और भाजपा के समान ताक़त, पैसा और संगठन किसी दल के पास नहीं है। इसलिए 2024 का चुनाव एक बार फिर मोदी के पक्ष में ही जाएगा। 



पर दूसरी तरफ़ वो राजनैतिक विश्लेषक हैं जो यह बताते हैं की देश की कुल 4139 विधान सभा सीटों में से भाजपा के पास केवल 1516 सीटें ही हैं। जिनमें से 950 सीटें 6 राज्यों में ही हैं। आज भी देश की 66 फ़ीसद सीटों पर भाजपा को हार का मुँह  देखना पड़ा है। इसलिए उनका कहना है कि देश में भाजपा की कोई लहर नहीं है। इसलिये मुख्य धारा की मीडिया के द्वारा भाजपा का रात-दिन जो प्रचार किया जाता है वह ज़मीनी हक़ीक़त से कोसों दूर है। इनका यह भी कहना है कि मतदाता का भाजपा से अब तेज़ी से मोह भंग हो रहा है। पहले पाँच साल तो आश्वासनों और उम्मीद में कट गए, लेकिन एनडीए 2 के दौर में किसानों की दुर्दशा, महंगाई व बेरोज़गारी जैसी बड़ी समस्याओं का कोई हाल अभी तक नज़र नहीं आ रहा। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आँकड़ों के अनुसार भारत में  पिछले वर्ष दिहाड़ी मज़दूरों की आत्महत्याएँ तेज़ी से बढ़ी हैं। हर आत्महत्या करने वालों में चौथा व्यक्ति दिहाड़ी मज़दूर है, जो देश के ग़रीबों की दयनीय दशा का प्रमाण है। 


सरकार द्वारा करोड़ों लोगों को मुफ़्त का राशन दिया जाना यह सिद्ध करता है कि देश में इतनी ग़रीबी है कि एक परिवार दो वक्त पेट भर कर भोजन भी नहीं कर सकता। स्वास्थ्य और शिक्षा की बात तो भूल जाइए। इस दुर्दशा के लिए आज़ादी के बाद से आई हर सरकार ज़िम्मेदार है। ‘ग़रीबी हटाओ’ का बरसों नारा देने वाली कांग्रेस पार्टी ग़रीबी नहीं हटा पाई। इसलिए उसे ‘मनरेगा' जैसी योजनाएँ लाकर ग़रीबों को राहत देनी पड़ी। ये वही योजना है जिसका भाजपा की सरकार ने शुरू में कांग्रेस पर कटाक्ष करते हुए खूब मज़ाक़ उड़ाया था। पर इस योजना को बंद करने का साहस भाजपा भी नहीं दिखा सकी। कोविड काल में तो ‘मनरेगा’ से ही सरकार की इज़्ज़त बच पाई। मतलब ये कि ‘सबका साथ सबका विकास’ का भाजपा का नारा भी ‘ग़रीबी हटाओ’ के नारे की तरह हवा-हवाई ही रहा? 



हमें इस बात पर गर्व होना चाहिए कि पिछले आठ बरसों में हमारे देश के एक उद्योगपति गौतम आडानी दुनिया के तीसरे सबसे धनी व्यक्ति बन गये। जबकि आठ बरस पहले दुनिया के धनी लोगों की सूची में उनका नाम दूर-दूर तक कहीं नहीं था। अगर इतनी अधिक न सही पर इसके आस-पास की भी आर्थिक प्रगति भारत के अन्य औद्योगिक घरानों ने की होती या औसत हिंदुस्तानी की आय थोड़ी भी बढ़ी होती तो आँसूँ पौंछने लायक स्थिति हो जाती। तब यह माना जा सकता था कि वर्तमान सरकार की नीति ‘सबका साथ और सबका विकास’ करने की है। 


इन हालातों में दक्षिण भारत का छोटा से राज्य तेलंगाना के आर्थिक विकास का उदाहरण धीरे-धीरे देश में चर्चा का विषय बनता जा रहा है। देश का सबसे युवा प्रदेश तेलंगाना आठ बरस पहले जब अलग राज्य बना तो इसकी आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय थी। कृषि, उद्योग, रोज़गार, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे हर मामले में ये एक पिछड़ा राज्य था। पर लम्बा संघर्ष कर तेलंगाना राज्य को बनवाने वाले के चंद्रशेखर राव (केसीआर) नये राज्य के मुख्य मंत्री बन कर ही चुप नहीं बैठे। उन्होंने किसानी के अपने अनुभव और दूरदृष्टि से सीईओ की तरह दिन-रात एक करके, हर मोर्चे पर ऐसी अद्भुत कामयाबी हासिल की है कि इतने कम समय में तेलंगाना भारत का सबसे तेज़ी से विकसित होने वाला प्रदेश बन गया है। 


पिछले हफ़्ते पटना में बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार और उप मुख्य मंत्री तेजस्वी यादव ने भी सार्वजनिक रूप से तेलंगाना की प्रगति की प्रशंसा की। उससे एक हफ़्ता पहले देश के 26 राज्यों के किसान संगठनों के 100 से अधिक किसान नेता तेलंगाना पहुँचे, ये देखने कि केसीआर के शासन में तेलंगाना का किसान कितना खुशहाल हो गया है। ये सब किसान नेता उसके बाद इस संकल्प के साथ अपने-अपने प्रदेशों को लौटे हैं कि अपने राज्यों की सरकारों पर दबाव डालेंगे कि वे भी किसानों के हित में तेलंगाना के मॉडल को अपनाएँ। 


मैंने खुद तेलंगाना के विभिन्न अंचलों में जा कर तेलंगाना के कृषि, सिंचाई, कुटीर व बड़े उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य और समाज कल्याण के क्षेत्र में जो प्रगति देखी वो आश्चर्यचकित करने वाली है। दिल्ली में चार दशक से पत्रकारिता करने के बावजूद न तो मुझे इस उपलब्धि का कोई अंदाज़ा था और न ही केसीआर के बारे में सामान्य से ज़्यादा कुछ भी पता था। लेकिन अब लगता है कि विपक्षी एकता का प्रयास या 2024 का लोक सभा चुनाव तो एक सीढ़ी मात्र है, केसीआर की योजना तो पूरे भारत में तेलंगाना जैसी प्रगति करके दिखाने की है। चुनाव में कौन जीतता है, कौन प्रधान मंत्री बनता है, ये तो मतदाता के मत और उस व्यक्ति के भाग्य पर निर्भर करेगा। पर एक बार शेष भारत के हर पत्रकार का इस प्रगति को देखने के लिए तेलंगाना जाना तो ज़रूर बनता है। क्योंकि कहावत है कि ‘प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता’ नहीं होती। प्रांतीय सरकारों को ही नहीं भाजपा की केंद्र सरकार को भी केसीआर से दुश्मनी मानने के बजाय उनके काम का निष्पक्ष मूल्यांकन करके उनसे कुछ सीखना चाहिए।  

Monday, August 29, 2022

मुखरता के लिए मशहूर ‘जनता के जज’


जब भी कभी किसी के बीच कोई विवाद उठता है और वो लोग किसी नतीजे पर नहीं पहुँचते तो अदालत का रुख करते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जनता को न्यायालयों पर पूरा विश्वास है। परंतु भारत के न्यायतंत्र में लंबित मामलों की संख्‍या लगभग पांच करोड़ के पार चली गई है। हाल ही में देश के क़ानून मंत्री ने संसद में कहा कि यदि कोई जज 50 मामलों का निपटारा करता है तो 100 और नए मामले दर्ज हो जाते हैं। देश के न्यायालयों में जजों की संख्या कम है और मामलों की काफ़ी अधिक। ऐसे में न्याय मिलने के बजाय वादी को मिलती है तो सिर्फ़ एक नई तारीख़। 


कोविड महामारी ने दुनिया भर में ‘ऑनलाइन’ कार्य को काफ़ी बढ़ावा दिया और इससे संसाधनों की काफ़ी बचत भी हुई। शुक्रवार को रिटायर हुए देश के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एन वी रमना ने अपना पद सम्भालने के कुछ ही हफ़्तों में इस बात पर काफ़ी ज़ोर दिया था कि सर्वोच्च न्यायालय में होने वाली सुनवाई का सीधा प्रसारण किया जाना चाहिए। जस्टिस रमना के अनुसार ऐसा करना इसलिए उचित रहता क्योंकि अदालत में हुई सुनवाई जनता तक बिना किसी निहित स्वार्थ के सेंसर किए पहुँचती। उन्होंने मुकदमों की मीडिया रिपोर्टिंग पर सवाल उठाते हुए कहा था कि कई बार संदर्भ से हटकर खबरें छाप दी जाती हैं। इसलिए यदि कोर्ट की सुनवाई का सीधा प्रसारण किया जाए तो वो जनता के हित में ही होगा।  



आज तकनीक का कमाल है की हम घर बैठे आराम से शॉपिंग कर लेते हैं। कोविड महामारी के चलते जब कोर्ट में केवल ऑनलाइन सुनवाई हो रही थी तब कोर्ट की कार्यवाही नहीं रुकी बल्कि लोग अपने घरों से ही कोर्ट की सुनवाई में शामिल होते थे। ऐसे में अदालतों की सुनवाई यदि अधिक से अधिक ऑनलाइन तरीक़े से होती है तो इसके कई फ़ायदे होते हैं। यदि कोर्ट की सुनवाई का सीधा प्रसारण भी हो तो कोर्ट में फ़ालतू की भीड़ भी नहीं लगेगी। अदालत की कार्यवाही को कवर करने वाले पत्रकारों को भी इसका लाभ पहुँचेगा। किसी भी उच्च न्यायालय या उस न्यायालय में, जहां एक से अधिक कोर्ट रूम होते हैं, पत्रकारों की दिक्कत तब बढ़ जाती है जब एक से अधिक ख़ास मामले दो अलग-अलग कोर्ट में चल रहे होते हैं। यदि सुनवाई का सीधा प्रसारण हो और वो सुनवाई के बाद भी देखा जा सके तो सुनवाई की खबर लिखने में आसानी हो जाती है। इससे पहले राँची में एक भाषण के दौरान जस्टिस रमना ने कहा था कि न्याय से जुड़े मुद्दों पर गलत सूचना और एजेंडा चलाना स्वस्थ लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है।


तब मुख्य न्यायधीश जस्टिस रमना की इस पहल को सभी ने सराहा था। उनके कार्यकाल के आख़री दिन भारत के इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई का सीधा प्रसारण देखने को मिला। इस सुनवाई को एक ‘सेरिमोनियल बेंच’ का नाम दिया गया। इस सुनवाई में शुरुआती दौर में ज़रूरी मामलों की अगली तारीख़ तय करने संबंधित कार्यवाही हुई। इसके पश्चात न्यायमूर्ति एन वी रमना को अधिवक्ताओं द्वारा विदाई देने की प्रक्रिया शुरू हुई। 



सीधे प्रसारण में वकीलों से खचाखच भरी हुई कोर्ट नम्बर एक का नज़ारा देखने लायक़ था। कोर्ट रूम के अलावा कई वरिष्ठ अधिवक्ता ऑनलाइन रूप से भी जुड़े हुए थे। एक-एक करके कभी कोर्ट रूम से तो कभी ऑनलाइन मोड से सभी जस्टिस रमना को उनकी शानदार पारी के लिए बधाई दे रहे थे। विदाई देते हुए अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने कहा कि आपके रिटायरमेंट से हम एक बुद्धिजीवी और एक उत्कृष्ट न्यायाधीश खो रहे हैं। पूर्व केंद्रीय मंत्री व वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा कि आपने अपने परिवार के अलावा वकीलों और जजों के परिवारों का भी खास ख्याल रखा।


वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने जस्टिस रमना की कार्यशैली की तारीफ़ करते हुए उनके द्वारा लिए गए फ़ैसलों और उनके 16 महीने की अवधि दौरान अदालत के कामकाज में किये गये बड़े सुधारों के लिए भी याद किया। उन्होंने अपने कार्यकाल में जजों की रिक्त पदों को भरने का काम किया। उनके कार्यकाल में जिला अदालतों और हाई कोर्ट्स में जजों की संख्या में भी इजाफा किया गया। उन्होंने ‘जज-टू-पॉपुलेशन रेश्यो’ की बात की और कहा कि इसी तरीके से केस लोड को कम किया जा सकता है। एन वी रमना के कार्यकाल में 15 हाई कोर्ट्स के चीफ जस्टिस भी नियुक्त हुए हैं। 


अधिवक्ताओं के द्वारा दिए गए विदाई संदेशों में कई महिला वकीलों ने भी जस्टिस रमना को उनके द्वारा महिला वकीलों के लिए उठाए गए महत्वपूर्ण कदमों के लिए याद किया और आभार व्यक्त किया। मुख्य न्यायधीश की अदालत में उस समय एक भावुक माहौल बन गया जब वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे जस्टिस रमना को जनता का जज बताते हुए अपनी बात कहते-कहते रो पड़े। वे बोले, मैं आज अपनी भावनाओं को रोक नहीं रख सकता। आपने रीढ़ के साथ अपना कर्तव्य निभाया। आपने अधिकारों को बरकरार रखा, आपने संविधान को बरकरार रखा, आपने जांच और संतुलन की व्यवस्था बनाए रखी। मुझे बहुत संतोष है कि आपका आधिपत्य न्यायमूर्ति ललित के हाथों में अदालत छोड़ रहा है। हम आपको मिस करेंगे।  


मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने अपने कार्यकाल के दौरान 225 न्यायिक अफसरों और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति की सिफारिश भी की। जस्टिस रमना के कार्यकाल के दौरान सुप्रीम कोर्ट में 11 जजों की नियुक्ति की गई। इनमें महिला जज सुश्री बीवी नागरत्ना भी शामिल हैं। 2027 में वे देश की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश होंगी। जस्टिस रमना को उनकी मुखरता के लिए भी जाना जाएगा। उनके एक बयान की काफी चर्चा हुई थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि मैं नेता बनना चाहता था, लेकिन न्यायिक क्षेत्र में आ गया। अपने कार्यकाल में जस्टिस रमना के सामने कई अहम मामले आए जो सुर्ख़ियों में रहे। इनमें राजद्रोह मामला, बिलकिस बानो गैंगरेप मामला, पेगासस मामला, ईडी के निदेशक की सेवा विस्तार का मामला और शिवसेना पर अधिकार मामला आदि थे। आने वाले समय में यह देखना होगा जिन अहम मामलों की सुनवाई पूरी किए बिना जस्टिस रमना सेवानिवृत हो गए, उन पर भविष्य के मुख्य न्यायधीशों का क्या रुख़ रहता है।   

Monday, August 22, 2022

बिहारी जी मंदिर में मौत क्यों ?



श्री कृष्ण जन्माष्टमी के अगले दिन वृंदावन के सुप्रसिद्ध श्री बाँके बिहारी मंदिर में मंगला आरती के समय हुई भगदड़ में दो लोगों की जान गई और कई घायल हुए। इस दुखद हादसे पर देश भर के कृष्ण भक्त सदमे में हैं और जम कर निंदा भी कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर ऐसे तमाम विडीयो भी देखे जा सकते हैं जहां श्रद्धालुओं की भीड़ किस कदर धक्का-मुक्की का शिकार हो रही है। श्री कृष्ण जन्माष्टमी के पर्व पर भक्तों को अव्यवस्था के चलते जिन दिक्कतों का सामना करना पड़ता है उनसे शायद मथुरा प्रशासन को भविष्य के लिए सबक सीखने की आवश्यकता है।   

 

मंदिरों की अव्यवस्था के चलते हुई मौतों की सूची छोटी नहीं है। 2008 में हिमाचल प्रदेश के नैना देवी मंदिर में भगदड़ में डेढ़ सौ से अधिक जाने गईं थी। महाराष्ट्र के पंडरपुर में भी ऐसा ही हादसा हुआ था। बिहार के देवघर में शिवजी को जल चढाने गयी भीड़ की भगदड़ में मची चीतकार हृदय विदारक थी। कुंभ के मेलों में भी अक्सर ऐसे हादसे होते रहते हैं। जब से टेलीविजन चैनलों का प्रचार प्रसार बढ़ा है तब से भारत में तीर्थस्थलों और धार्मिक पर्वो के प्रति भी उत्साह बढ़ा है। आज देश के मशहूर मंदिरों में पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा भीड़ जाती है। जितनी भीड़ उतनी अव्यवस्था। उतना ही दुर्घटना का खतरा। पर स्थानीय प्रशासन प्रायः कुछ ठोस नहीं करता या वीआईपी की व्यवस्था में लगा रहता है या साधनों की कमी की दुहाई देता है। हमेशा हादसों के बाद राहत की अफरा-तफरी मचती है।



मथुरा हो या काशी उत्तर प्रदेश और केंद्र सरकार ने इन तीर्थों के विकास के लिए पैसे की कोई कमी नहीं होने दी। वृंदावन के जिस बाँके बिहारी मंदिर में यह दुखद हादसा हुआ उस मंदिर की गली के विकास के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो कुबेर का ख़ज़ाना खोल दिया। विश्व बैंक से 27 करोड़ की मोटी रक़म स्वीकृत करवाकर दी थी। परंतु वहाँ सुविधा के नाम पर भक्तों को क्या मिला ये सबके सामने है। वहाँ के निवासी और दुकानदार बताते हैं कि उत्तर प्रदेश ब्रज तीर्थ विकास परिषद ने योगी जी द्वारा दिए गए इस धन को हज़म कर लिया या बर्बाद कर दिया। इतने पैसे से तो बिहारी जी के मंदिर और उसके आस-पास के इलाक़े में भक्तों की सुविधा के लिए काफ़ी कुछ किया जा सकता था। परंतु ऐसा नहीं हुआ। 


ऐसा नहीं है कि वृंदावन में ऐसे हादसे पहले नहीं हुए। ऐसा भी नहीं है कि इससे पहले बिना हादसों के बड़े-बड़े त्योहार शांतिपूर्वक सम्पन्न नहीं हुए। मुझे याद है जब 2003 में मुझे माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्देश पर इसी बाँके बिहारी मंदिर का रिसीवर नियुक्त किया गया था। तो मेरे रिसीवर बनते ही कुछ ही सप्ताह बाद हरियाली तीज का त्योहार आ रहा था। उस दिन बिहारी जी के दर्शनों के लिए लाखों की भीड़ आती है। मेरे लिए यह पहला मौक़ा था और काफ़ी चुनती पूर्ण था। 


मैंने अपने सम्पर्कों से पता लगाया कि एसपीजी के कुछ सेवानिवृत जवान एक संस्था चलाकर भीड़ नियंत्रण करने का काम करते हैं। उनसे संपर्क कर उन्हें इस पर्व पर भीड़ नियंत्रण के लिए वृंदावन बुलाया। दिल्ली के एक बड़े मंदिर में जूतों की निशुल्क सेवा करने वाले व्यापारी वर्ग के लोगों को भी बुलाया। इसके साथ ही युवा ब्रजवासियों के अपने संगठन ब्रज रक्षक दल के क़रीब 400 युवाओं को इनकी सहायता के लिए बुलाया। मथुरा पुलिस से भी 400 सिपाही लिये। इन सब को तीन दिनों तक वृंदावन के मोदी भवन में भीड़ नियंत्रण की ट्रेनिंग दी की गई। खुद मैं रात दिन जुटा रहा।


लाखों लोगों ने दर्शन किये पर नतीजा यह हुआ कि बिहारी जी मंदिर के इतिहास में पहली बार न तो किसी की जेब कटी। न किसी को कोई चोट आई और न ही किसी की चप्पल चोरी हुई। बिहारी जी की कृपा से पूरा पर्व शांतिपूर्ण ढंग से सम्पन्न हुआ। ऐसा केवल इसलिए हुआ क्योंकि समस्या का हल खोजने में सभी का योगदान था।              


गुरूद्वारों की प्रबंध समितियों ने और अनुशासित सिख समाज ने गुरूद्वारों की व्यवस्था स्वयं ही लगातार सुधारी है। दक्षिण भारत में मैसूर के दशहरा का प्रबंधन देखने काबिल होता है। तिरुपति बाला जी तो है ही नायाब अपनी व्यवस्था के लिये। मस्जिदों और चर्चो में भी क्रमबद्ध बैठकर इबादत करने की व्यवस्था है इसलिए भगदड़ नहीं मचती। पर हिंदू मंदिरों में देव दर्शन अलग-अलग समय पर खुलते हैं। इसलिए दर्शनार्थियों की भीड़, अधीरता और जल्दी दर्शन पाने की लालसा बढ़ती जाती है। दर्शनों के खुलते ही भीड़ टूट पड़ती है। नतीजतन अक्सर हृदय विदारक हादसे हो जाते हैं। आन्ध्र प्रदेश में तिरूपतिबाला जी, महाराष्ट्र में सिद्धि विनायक, दिल्ली में कात्यानी मंदिर, जांलधर में दुग्र्याना मंदिर और कश्मीर में वैष्णो देवी मंदिर ऐसे हैं जहां प्रबंधकों ने दूरदर्शिता का परिचय देकर दर्शनार्थियों के लिए बहुत सुन्दर व्यवस्थाएं खड़ी की हैं। इसलिए इन मंदिरों में सब कुछ कायदे से होता है।


जब भारत के ही विभिन्न प्रांतों के इन मंदिरों में इतनी सुन्दर व्यवस्था बन सकी और सफलता से चल रही है तो शेष लाखों मंदिरों में ऐसा क्यों नहीं हो सकता ? जरूरत इस बात की है कि भारत सरकार में धार्मिक मामलों के लिए एक अलग मंत्रालय बने। जिसमें कैबिनेट स्तर का मंत्री हो। इस मंत्रालय का काम सारे देश के सभी धर्मों के उपासना स्थलों और तीर्थस्थानों की व्यवस्था सुधारना हो। केंद्र और राज्य सरकारें राजनीतिक वैमनस्य छोड़कर पारस्परिक सहयोग से नीतियां बनाएं और उन्हें लागू करें। ऐसा कानून बनाया जाए कि धर्म के नाम पर धन एकत्रित करने वाले सभी मठों, मस्जिदों, गुरूद्वारों आदि को अपनी कुल आमदनी का कम से कम तीस फीसदी उस स्थान या उस नगर की सुविधाओं के विस्तार के लिए देना अनिवार्य होगा।जो वे स्वयं खर्च करें। 


धार्मिक स्थल को भी यह आदेश दिए जाए कि अपने स्थल के इर्द-गिर्द तीर्थयात्रियों द्वारा फेंका गया कूड़ा उठवाने की जिम्मेदारी उसी मठ की होगी। यदि ऐसे नियम बना दिए जाए तो धर्मस्थलों की दशा तेजी से सुधर सकती है। इसी तरह धार्मिक संपत्तियों के अधिग्रहण की भी स्पष्ट नीति होनी चाहिए। अक्सर देखने में आता है कि धर्मस्थान बनवाता कोई और है पर उसके कुछ सेवायत उसे निजी संपत्ति की तरह बेच खाते हैं। धर्मनीति में यह स्पष्ट होना चाहिए कि यदि किसी धार्मिक संपत्ति को बनाने वाले नहीं रहते हैं तो उस संपत्ति का सरकार अधिग्रहरण करके एक सार्वजनिक ट्रस्ट बना देगी। इस ट्रस्ट में उस धर्मस्थान के प्रति आस्था रखने वाले लोगों को सरकार ट्रस्टी मनोनीत कर सकती है। 


इस तरह एक नीति के तहत देश के सभी तीर्थस्थलों का संरक्षण और संवर्धन हो सकेगा। इस तरह हर धर्म के तीर्थस्थल पर सरकार अपनी पहल से और उस स्थान के भक्तों की मदद से इतना धन अर्जित कर लेगी कि उसे उस स्थल के रख-रखाव पर कौड़ी नहीं खर्च करनी पड़ेगी। तिरूपति और वैष्णों देवी का उदाहरण सामने है। जहां व्यवस्था अच्छी होने के कारण अपार धन बरसता है।


देश में अनेक धर्मों के अनेकों पर्व सालभर होते रहते हैं। इन पर्वों पर उमड़ने वाली लाखों करोड़ों लोगों की भीड़ को अनुशासित रखने के लिए एक तीर्थ रक्षक बल की आवश्यकता होगी। इसमें ऊर्जावान युवाओं को तीर्थ की देखभाल के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित किया जाए। ताकि वे जनता से व्यवहार करते समय संवेदनशीलता का परिचय दें। यह रक्षा बल आवश्यकतानुसार देश के विभिन्न तीर्थस्थलों पर बड़े पर्वों के दौरान तैनात किया जा सकता है। रोज-रोज एक ही तरह की स्थिति का सामना करने के कारण यह बल काफी अनुभवी हो जाएगा। तीर्थयात्रियों की मानसिकता और व्यवहार को सुगमता से समझ लेगा।


ये धर्मस्थल हमारी आस्था के प्रतीक है और हमारी सांस्कृतिक पहचान हैं। इनके बेहतर रख-रखाव से देश में पर्यटन भी बढ़ेगा और दर्शनार्थियों को भी सुख मिलेगा।

Monday, August 15, 2022

आरसीपी सिंह की असलियत


राजनीति के मौजूदा दौर में अनैतिकता का सवाल अपना महत्व खोता जा रहा है। इसकी बिल्कुल नई मिसाल बिहार में आरसीपी सिंह की राजनीति है। इस बात का जिक्र करना जरूरी है कि आरसीपी एक नौकरशाह रहे हैं। भारतीय लोकतंत्र के चारों स्तंभों के अपने अपने दायरे हैं। इस लिहाज से यह जरूर देखा जाना चाहिए कि नौकरशाह रहे आरसीपी क्या क्या करते रहे हैं और आखिर राजनीति की बिसात पर एक मोहरे के तौर पर बिहार में उन्होंने क्या कर डालने की कोशिश की और आखिरकार उसकी क्या परिणति हुई।

वैसे देश की मौजूदा राजनीति में नैतिकता को बेकार की चीज़ साबित किया जाने लगा है। लेकिन देश की राजनीति अगर पूरी तौर पर गर्त में नहीं जा पाई है तो इसका एक कारण यह ही माना जाता है कि भारतीय लोकतंत्र के 75 साल के इतिहास में न्यूनतम नैतिकता ने ही उसे बचाए रखा है। इसीलिए सभ्य राजनीतिक समाज में नैतिकता की बात करने वालों का अभी लोप नहीं हुआ है। देश में बहुतेरे लोग अभी भी हैं जो किसी भी कीमत पर हासिल की गई सफलता को जायज़ नहीं ठहराते। इसीलिए आरसीपी बनाम नीतीश कुमार प्रकरण में हर सभ्य नागरिक को तय करना पड़ेगा कि वह किसके पक्ष में खड़ा है। सभ्य समाज को सर्वमान्य लोकतंत्र के पक्ष में उसे  साक्ष्यों के साथ अपने तर्क देने पड़ेंगे। एक जिम्मेदार नागरिक की हैसियत से मेरी भी यह ज़िम्मेदारी है।


आरसीपी सिंह मेरे जेएनयू में सहपाठी रहे हैं। उस नाते वे निरतंर मेरे संपर्क में रहे। उत्तर प्रदेश काडर के आईएस आरसीपी को मैंने नीतीश के संपर्क में आते भी देखा है। जब नीतीश रेल मंत्री बने तो आरसीपी को उन्होंने अपना विशेष अधिकारी बनाया। ये बात यह समझने के लिए काफी है कि आरसीपी किस हद तक नीतीश के विश्वासपात्र रहे होंगे। यहां तक तो फिर भी साफ था लेकिन जब नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री हुए तो उन्होंने आरसीपी का उत्तर प्रदेश कैडर बदलवाकर बिहार बुलवा लिया। आरसीपी की विश्वासपात्रता की हद बताने के लिए मेरे पास एक व्यक्तिगत अनुभव भी है। जो यह बताने के लिए काफी है कि आरसीपी और नीतीश के बीच पारिवारिक प्रगाढता किस हद तक रही।

आरसीपी का मेरे पास फोन आया नीतीश की पत्नी मंजू जी और उनके बेटे निशांत और मंजू जी की मां वृंदावन तीर्थाटन पर आना चाहती हैं। आरसीपी ने मुझसे उनके वृंदावन प्रवास पर अपने घर ठहराने का अनुरोध किया। क्योंकि आरसीपी सिंह सपरिवार मेरे घर ठहरते रहे थे। तो मैंने उनका अनुरोध सहर्ष स्वीकार कर लिया। मंजु जी के साथ बिताए तीन दिन अच्छे रहे। लेकिन इससे मुझे यह अंदाजा हो गया कि नौकरशाह रहे आरसीपी और नीतीश के बीच विश्वास और सम्बन्धों का स्तर क्या है। बाद में तो जब आरसीपी को नीतीश ने अपने दल का राष्टीय अध्यक्ष तक बना दिया तो दोनों के बीच संबंधों को लेकर कोई शंका ही नहीं रह गई। 

अब अगर आरसीपी ने नीतीश के साथ जो व्यवहार किया उसे कोई विश्वासघात की पराकाष्ठा कहे तो बिल्कुल भी अतिश्योक्ति नहीं होगी।


बात यहीं खत्म नहीं होती। एक लोक सेवक होते हुए आरसीपी से नीतीश के चुनाव सम्बन्धी राजनीतिक कार्य में जिस तरह की खुलेआम हिस्सेदारी की थी वह खुद में अवैध और परले दर्जे की अनैतिकता कही जानी चाहिए। यह उसी तरह का मामला था जैसा पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए उनके सचिव यशपाल कपूर पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय में आरोप लगे थे। यहां तक कि एक समय आर के धवन को भी इंदिरा गांधी के साथ विश्वासघात के आरोपों से घेरा गया था। लेकिन वह भी इतिहास में दर्ज है कि यशपाल कपूर या आर के धवन ने आखिर साँस तक अपने उपर विश्वासघात का लांछन लगने नहीं दिया। लेकिन आरसीपी ने जो किया उसके लिए भारतीय इतिहास में सार्वकालिक अनेकों कुख्यात विश्वासघातियों को याद किया जा सकता है। 

यह भी सही है कि दोनों ने एक दूसरे का उपयोग किया। पर आरसीपी सिंह को अब लग रहा होगा कि वे शिखर पर पहुंच चुके हैं अब नीतिश से उन्हें कोई और उम्मीद नहीं है। आरसीपी पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद अब भाजपा की शरण में जाना उनकी मजबूरी है। नीतिश और भाजपा के संबंध अपनी जगह। इसी के मद्देनजर वे अब और आगे जाने के लिए भी भाजपा के करीब जाना चाहते होंगे। हो सकता है आरसीपी का लक्ष्य हासिल न हुआ हो और आगे बढ़ने के लिए नीतिश के साथ रहना उन्हें बाधा लग रही हो। नीतिश कुमार ने लालू और पिछली बार तेजस्वी के मामले में जो किया उसके आलोक में यह उनके कर्मों का फल ही है। वैसे देश की राजनीति में आरसीपी सिंह का कद ऐसा नहीं है कि दिल्ली में बैठकर उनकी चर्चा भी की जाए।

उधर नीतीश कुमार के दो दशकों के राजनीतिक इतिहास का विश्लेषण किया जाएगा तो उसकी भी आलोचनात्मक समीक्षा हो सकती है। बहुत से राजनीतिक समीक्षक उन्हें विकट परिस्थितियों के हवाले से बरी भी कर सकते हैं। लेकिन आरसीपी के विश्वासघात प्रकरण ने नीतीश के लिए जो सहानुभूति उपजाई है वह उन्हें अचानक भारी लाभ पहुंचा सकता है। खासतौर पर आने वाले डेढ दो साल में देश की राजनीति जिस तरह की करवट लेती दिख रही है उस लिहाज से बिहार के इस राजनीतिक कांड ने उथल पुथल मचा दी है। बेशक  निराशाजनक राजनीतिक माहौल में बदलाव की गुंजाइश पैदा हुई है। अगर नीतीश कुमार समय पर नहीं चेतते और मप्र कर्नाटक महाराष्ट और पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों की सरकारों की तरह गच्चा खा सकते थे। इस आधार पर कहा जा सकता है कि आरसीपी के विश्वासघात से सबक लेते हुए नीतीश कुमार ने सही समय पर फैसला कर लिया और इस निराशाजनक धारणा को गलत साबित कर दिया है कि आयाराम गयाराम की राजनीति से बचने का कोई उपाय नहीं है।

बहरहाल हद से ज्यादा मुश्किल दौर से गुज़र रही राजनीति में जहां देश का सभ्य समाज तटस्थ हो जाने में ही भलाई समझ रहा है वहां मुझे खुलकर यह कहने में बिल्कुल भी संकोच नहीं है कि नीतीश और आरसीपी प्रकरण में मैं नीतीश के पक्ष में खड़ा हूं।