1789-90 में फ़्रांस में जब लोग भूखे मर रहे तो वहाँ की रानी मैरी एटोनी का ध्यान लोगों की बदहाली की ओर दिलाया गया। तो ऐशों आराम में लिप्त रानी बोली इनके पास रोटी खाने को नहीं है तो ये लोग केक क्यों नहीं खाते ?
हर देश के हुक्मरान अपने देश की जनता को सम्बोधित करते हुए हमेशा बात तो करते हैं जनसेवा की, विकास की और अपने त्याग की लेकिन वास्तव में उनका आचरण वही होता है जो फ़्रांस में लुई सोलह और मैरी एटोनी कर रहे थे। ये सब नेता जनता के दुःख दर्द से बेख़बर रहकर मौज मस्ती का जीवन जीते हैं। इतना महँगा जीवन जीते हैं कि इनके एक दिन के खर्चे के धन से एक गाँव हमेशा के लिए सुधर जाए। जबकि आज राजतंत्र नहीं लोकतंत्र है। पर लोकतंत्र में भी इनके ठाठ बाट किसी शहंशाह से कम नहीं होते। हाँ इसके अपवाद भी हैं।
पर आज मीडिया से प्रचार करवाने का ज़माना है। इसलिये बिलकुल नाकारा, संवेदना शून्य, चरित्रहीन और भ्रष्ट नेता को भी मीडिया द्वारा महान बता दिया जाता है। हम सब जानते हैं कि गाय के दूध की छाछ, नीबू की शिंकजी, संतरे, मोसंबी, बेल या फ़ालसे का रस, लस्सी या ताज़ा गर्म दूध सेहत के लिये बहुत गुणकारी होता है। इनकी जगह जो आज देश में भारी मात्रा में बेचा और आम जनता द्वारा डट कर पिया जा रहा है वो हैं रंग बिरंगे ‘कोल्ड ड्रिंक्स’। जिनमें ताक़त के तत्व होना तो दूर शरीर को हानि पहुँचाने वाले रासायनिकों की भरमार होती है। फिर भी अगर आप किसी को समझाओ कि भैया ये कोल्ड ड्रिंक्स न पियो न पिलाओ, तो क्या वो आपकी बात मानेगा? कभी नहीं। क्योंकि विज्ञापन के मायाजाल ने उसका दिमाग़ कुंद कर दिया है। उसके सोचने, समझने और तर्क को स्वीकारने की शक्ति पंगु कर दी है।
यही हाल नेताओं का भी होता है। जो मीडिया के मालिकों को मोटे फ़ायदे पहुँचाकर, पत्रकारों को रेवड़ी बाँट कर, दिन-रात अपना यशगान करवाते हैं। कुछ समय तक तो लोग भ्रम में पड़े रहते हैं और उसी नेता का गुणगान करते हैं। पर जब इन्हें ये एहसास होता है कि उन्हें कोरे आश्वासनों और वायदों के सिवाय कुछ नहीं मिला तो वे नींद से जागते हैं। पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। हालात बद से बदतर हो चुके होते हैं। फिर कोई नया मदारी आकर बंदर का खेल दिखाने लगता है और लोग उसकी तरफ़ आकर्षित हो जाते हैं। ये सिलसिला तब तक चलता है जब तक सच्चा लोकतंत्र नहीं आता। जब तक हर नागरिक और मीडिया अपने हुक्मरानों से कड़े सवाल पूछने शुरू नहीं करता। जब तक हर नागरिक मीडिया के प्रचार से हट कर अपने इर्दगिर्द के हालात पर नज़र नहीं डालता।
विपक्षी दल सरकार को पूँजीपतियों का दलाल और जनता विरोधी बताते हैं। पर सच्चाई क्या है? कौनसा दल है जो पूँजीपतियों का दलाल नहीं है? कौनसा दल है जिसने सत्ता में आकर नागरिकों की आर्थिक प्रगति को अपनी प्राथमिकता माना हो? धनधान्य से भरपूर भारत का मेहनतकश आम आदमी आज अपने दुर्भाग्य के कारण नहीं बल्कि शासनतंत्र में लगातार चले आ रहे भ्रष्टाचार के कारण गरीब है। इन सब समस्याओं के मूल में है संवाद की कमी। जब तक सत्ता और जनता के बीच संवाद नहीं होगा तब तक गंभीर समस्याओं को नहीं सुलझाया जा सकता। इसलिए लगता है कि अब वो समय आ गया है कि जब दलों की दलदल से बाहर निकल कर लोकतंत्र को ज़मीनी स्तर पर मज़बूत किया जाए। जिसके लिए हमें 600 ई॰पू॰ भारतीय गणराज्यों से प्रेरणा लेनी होगी। जहां संवाद ही लोकतंत्र की सफलता की कुंजी था।
देश के नेताओं के पास जब जनता को उपलब्धियों के नाम पर बताने को कुछ ठोस नहीं होता तो वे आये दिन रंग बिरंगे नए-नए उत्सव या कार्यक्रम आयोजित करवा कर जनता का ध्यान बटाते रहते हैं। इन कार्यक्रमों में गरीब देश की जनता का अरबों रुपया लगता है पर क्या इनके आयोजन से उसे भूख, बेरोज़गारी और मँहगाई से मुक्ति मिलती है? नहीं मिलती। उत्सव इंसान कब मनाता है जब उसका पेट भरा हो।
आज हमारे देश को ही लें चारों ओर गंदगी का साम्राज्य बिखरा पड़ा है। करोड़ों देशवासी नारकीय स्थिति में, झुग्गी झोपड़ियों में, कीड़े-मकोड़ों की तरह ज़िंदगी जी रहे हैं। जब लोग मजबूर होते हैं तो नौकरी की तलाश में अपने गाँव को छोड़कर शहरों में बसने चले आते हैं। इससे वो गाँव तो उजड़ते ही हैं शहर भी नारकीय बन जाते हैं।
सनातन धर्म में राजा से अपेक्षा की गयी है कि वो राजऋषि होगा। उसके चारों तरफ़ कितना ही वैभव क्यों न हो वो एक ऋषि की तरह त्याग और तपस्या का जीवन जिएगा। वो प्रजा को संतान की तरह पालेगा। खुद तकलीफ़ सहकर भी प्रजा को सुखी रखेगा। आज ऐसे कितने नेता आपकी नज़र में हैं? मीडिया के प्रचार से बचकर अपने सीने पर हाथ रखकर अगर ठीक से सोचा जाए तो एक भी नेता ऐसा नहीं मिलेगा। 75 वर्ष के आज़ाद भारत के इतिहास में कितने नेता हुए हैं जिनका जीवन लाल बहादुर शास्त्री जैसा सादा रहा हो?
भगवान गीता में अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि ‘महाजनों येन गताः स पंथः’। महापुरुष जिस मार्ग पर चलते हैं वो अनुकरणीय बन जाता है। आज हमने नेताओं को ही महापुरुष मान लिया है। इसलिये उनके आचरण की नक़ल सब कर रहे हैं। फिर कहाँ मिलेगा त्याग-तपस्या का उदाहरण। हर ओर भोग का तांडव चल रहा है। फिर चाहे पर्यावरण का तेज़ी से विनाश हो, बेरोज़गारी व महंगाई चरम पर हो, शिक्षा के नाम पर वाट्सऐप विश्वविद्यालय चल रहे हों - तो देश तो बनेगा ही ‘महान’।
ज़रूरत है कि हम सब जागें, मीडिया पर निर्भर रहना और विश्वास करना बंद करें। अपने चारों ओर देखें कि क्या ख़ुशहाली आई है या नहीं? नहीं आई तो आवाज़ बुलंद करें। तब मिलेगा जनता को उसका हक़ और तब बनेगा भारत सोने की चिड़िया। केवल थोथे वायदों और प्रचार पर भरोसा करना बंद करें और अपने दिल और दिमाग़ से पूछें कि क्या देख रहे हो? तब नेता भी सुधरेंगे और देश भी।