4/5 जून 2010 की रात को दिल्ली के रामलीला ग्राउण्ड में सो रहे बाबा रामदेव के भक्तों पर दिल्ली पुलिस के बर्बरतापूर्ण हमले की सर्वोच्च अदालत ने भत्र्सना की है। अदालत ने निहत्थे लोगों पर इस तरह से जुल्म ढाने के लिये दिल्ली पुलिस पर जुर्माना भी किया है। पर साथ ही बाबा रामदेव पर भी इस हादसे के लिये 25 फीसदी जुर्माना देने का आदेश दिया है। अदालत के इस फैसले के दूरगामी परिणाम होंगे। सबसे पहली बात तो यह है कि अब केन्द्र और प्रान्तों की पुलिस सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को कानून बताकर जन-आन्दोलनों को हतोत्साहित करने का काम करेगी। अब पुलिस तर्क देगी कि अगर हमने आपको धरने या प्रदर्शन की अनुमति दे दी तो किसी अप्रिय घटना के हो जाने पर हमारी फोर्स को सजा भुगतनी पड़ सकती है। इसलिये हम ऐसे हालात पैदा ही नहीं होने देंगे वर्ना हमें जुर्माना भी भरना पड़ सकता है। पर राजनैतिक कार्यकर्ताओं का विश्वास है कि इस फैसले के बावजूद किसी भी प्रान्त या केन्द्र की सरकार जन-आन्दोलनों को रोक नहीं पायेंगी। क्योंकि लोकतंत्र में जनता की सत्ता सर्वोपरि होती है। दूसरी तरफ पुलिस के आला हाकिमों का यह कहना है कि बाबा रामदेव ने सारी शर्तों का उल्लंघन किया और योग शिविर को राजनैतिक रैली में बदल दिया। जिससे स्थिति बेकाबू हो रही थी। सुबह तक रूकते तो इससे भी ज्यादा खूनखराबा होता है। इसलिये उसने सावधानी बरती और यह कदम उठाया।
राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर बाबा रामदेव में सत्ता का चरित्र समझने की क्षमता होती, जन-आन्दोलनों का अनुभव होता और उनके अनुयायी मात्र योग के विद्यार्थी न होकर सामाजिक आन्दोलनों से जुड़े हुए होते तो बाबा के धरने की इतनी दुर्दशा नहीं होती। इसीलिये अदालत ने बाबा को भी दोषी ठहराया है। इस फैसले से अब यह भी स्पष्ट हो गया कि भविष्य में अराजकता या हिंसा के लिये जन-आन्दोलन करने वालों को भी जिम्मेदार माना जायेगा।
विपक्ष इस पूरे मामले को वोटों के लिये भुनाने को तत्पर है। इसलिये लगातार यह आरोप लगा रहा है कि इतना बड़ा हादसा भारत सरकार के गृहमंत्री के निर्देश के बिना हो ही नहीं सकता। इसलिये गृहमंत्री पी. चिदम्बरम को इस्तीफा देना चाहिये। पर विपक्ष की इस माँग में एक पेच है। अगर गृहमंत्री के आदेश पर दिल्ली पुलिस ने यह काम किया है तो यह भी मानना पड़ेगा कि गुजरात के दंगों में पुलिसिया जुल्म भी नरेन्द्र मोदी के निर्देश पर हुए, पश्चिमी बंगाल में नक्सलवादियों पर पुलिस का जो जुल्म होता रहा वो सीपीएम सरकार के निर्देश पर हुआ और ब्रज के पर्वतों की रक्षा के लिये भरतपुर के बोलखेड़ा पहाड़ पर धरने पर बैठे साधु-संतों पर जो राजस्थान पुलिस की लाठी-गोली चलीं वो भाजपा सरकार के निर्देश पर हुआ या अयोध्या में कारसेवकों पर पुलिसिया जुल्म मुलायम सिंह यादव ने करवाया।
मतलब है या तो हम यह मान लें कि राजनीतिक दल सत्ता में आकर अपने अधीन पुलिस का दुरूपयोग करते हैं और अपने विरोध को कुचलते हैं। फिर तो हर पुलिसिया जुल्म के लिये सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों को ही जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिये। ऐसे में सिर्फ अकेले चिदम्बरम ही इस्तीफा क्यों दें ? अब तक देश भर में हुए पुलिसिया जुल्म के लिये दोषी सभी मुख्यमंत्रियों पर कार्यवाही होनी चाहिये। अगर ऐसा नहीं है और पुलिस अपनी समझ के अनुसार निर्णय लेती है तो फिर केवल एक रामलीला ग्राउण्ड की घटना को ही इतना तूल क्यों दिया जाये ? जबकि हकीकत यह है कि भारत की पुलिस चाहें केन्द्र में हो या राज्यों में, आज भी अपने औपनिवेशिक स्वरूप को बदल नहीं पायी है। तकलीफ की बात तो यह है कि पुलिसिया जुल्म पर तो हम शोर मचाते हैं पर पुलिस के सुधार की कोई कोशिश नहीं करना चाहते। 1977 में केन्द्र में बनी पहली गैर-काँग्रेसी सरकार ने राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया था। जिसकी सिफारिशें तीन दशकों से धूल खा रही हैं। उन्हें लागू करने की माँग कोई नहीं उठाता। अगर पुलिस आयोग की सिफारिशें लागू हो जायें तो न सिर्फ पुलिस के काम-काज में सुधार आयेगा, बल्कि देश की करोड़ों जनता को पुलिस मित्र जैसी दिखायी देगी, दुश्मन नहीं।
उधर बाबा रामदेव को भी अपनी रणनीति का पुनर्मूल्यांकन करना होगा। वे भ्रष्टाचार और काले धन के विरूद्ध राष्ट्रव्यापी आन्दोलन चलाने की बात तो कहते हैं पर राजनीति में उनका व्यवहार निष्पक्ष दिखायी नहीं देता। जबकि आम जनता मानती है कि भ्रष्टाचार के मामले में कोई भी राजनैतिक दल किसी से कम नहीं है। जिसका, जहाँ, जब, जैसा दाँव लगता है, वहीं मलाई खाता है। तो फिर बाबा रामदेव लगातार केवल एक दल के विरूद्ध बोलकर क्या यह सिद्ध करना चाहते हैं कि बाकी के दल सत्यवादी महाराजा हरिश्चन्द्र के पदचिन्हों पर चलते हैं ? क्यूँकि ऐसा नहीं है इसलिये बाबा रामदेव के आन्दोलन की निष्पक्षता पर सवाल खड़े किये जा रहे हैं। बाबा को यदि वास्तव में देश की चिन्ता है तो उन्हें अपनी मान्यतायें और रणनीति दोनों बदलनी होंगी। इसलिये सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का गहरा मतलब है।