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Monday, June 3, 2019

पशु पक्षियों से भी बात की जा सकती है

यकीन नहीं होता? पर ये सच है। पुणे की अमृता पोत्दार को बचपन से ही इन सब का ज्ञान है। आपका कुत्ता, बिल्ली, तोता, गाय या कोई भी अन्य पशु-पक्षी, जलचर हो, थलचर हो या नभचर हो, वो सबसे बात कर सकती हैं। देश-विदेश में साढ़े तीन सौ से भी ज्यादा लोग अमृता की सेवाओं से गद्गद् हैं और सोशल मीडिया पर अमृता पोत्दार और अपने अनुभवों को साझा करते नहीं अघाते। अमृता पोत्दार ने 20 साल तक बडे़ उद्योग कंपनियों में उच्च पद पर रहकर कार्य किया। लेकिन इन सबको छोड़कर वह पशु-पक्षियों की सेवा में जुट गईं और पहले स्वयं पशु-पक्षियों से बातें करनी शुरू की, बाद में फेसबुक पेज Thesoulconnect के माध्यम से अन्य लोगों की सहायता करनी शुरू की।


उदाहरण के तौर पर दिल्ली में ही रहने वाली एक महिला दीपिका का प्रिय कुत्ता खो गया था। उनहोंने बहुत ढूंढा, विज्ञापन निकलवाऐ और 1 लाख रूपये का ईनाम भी घोषित किया, पर वह कुत्ता नहीं मिला। तब किसी ने दीपिका को अमृता पोत्दार के बारे में बताया। अमृता ने फोन पर सारी आवश्यक जानकारी ली और दो-तीन दिन के बाद दीपिका को बताया कि वह कुत्ता दक्षिणी दिल्ली की झुग्गियों में एक परिवार के साथ रह रहा है। अमृता के बताए संकेतों (जैसे- जिस लड़के के पास वह कुत्ता है, उसके बालों का रंग व ढंग) के आधार पर वह कुत्ता मिल गया। अमृता को उस कुत्ते ने आत्मा से आत्मा के संवाद द्वारा बताया कि उसे किसी व्यक्ति द्वारा गाड़ी में पकड़कर जंगल में छोड़ दिया गया था। तभी उस पर झुग्गियों में रहने वाले एक लड़के की नजर पड़ी, जो उसे अपनी झुग्गी में ले गया और उसे पाल रहा है। है ना अचंभे की बात? कुत्ता मिलने के बाद अमृता ने उनसे किसी तरह का ईनाम नहीं लिया।

एक और घटना फ्रांस के साउथ ईस्ट की है, जहां रहने वाले एक परिवार की पालतू बिल्ली घर से चली गई थी। परिवारीजनों ने बिल्ली को खूब ढूंढा, वो नहीं मिली। किसी तरह उन्हें अमृता के बारे में पता चला, तो उन्होंने संपर्क करके बिल्ली की सारी आवश्यक जानकारी अमृता से साझा की। अमृता ने अपनी मानसिक शक्ति के माध्यम से बिल्ली की आत्मा से संपर्क साधा और बिल्ली की गतिविधयों की जानकारी परिवार को देती रही। यह प्रक्रिया छह दिनों तक चली। जिसमें अमृता प्रतिदिन शाम को बिल्ली से मानसिक संपर्क कर, बिल्ली के स्थान का पता लगाती और परिवारीजनों को सूचित करती। जिसके चलते वे वहां-वहां पहुँचते। इस तरह पाँचवे दिन अमृता ने बताया कि उनकी बिल्ली अमुक स्थान पर एक भूरी बिल्ली के साथ है। इस तरह परिवारीजन उक्त स्थान पर पहुँचे, उन्हें बिल्ली दिखी लेकिन उनके हाथ नहीं लगी। तब अमृता ने बताया कि बिल्ली उनसे डर कर भाग रही है। अमृता ने बिल्ली की आत्मा से संपर्क साधा और कहा कि वह अब कहीं और न जाए, वहीं रूकी रहे। छठवें दिन जब परिवारीजन उक्त स्थान पर पुनः पहुँचे, तो उन्हें उनकी बिल्ली वापिस मिल गई।

अक्सर खो जाने वाले पालतू पशु-पक्षियों को अमृता अपनी इसी दुर्लभ शक्ति के द्वारा ढूंढ निकालती है। अमृता बचपन से ही पशु-पक्षियों की मदद व सेवा में रूचि ले रही है। इस सेवा के बदले वह इन लोगों से कुछ फीस वसूलती है, जिसे वह अपनी सामाजिक सेवाओं में खर्च करती है।

टेलीफोन पर हुई वार्ता में अमृता ने बताया कि इस दुर्लभ शक्ति से संपन्न इस दुनिया में वह अकेली नहीं है। भारत और अन्य देशों में ऐसे काफी लोग हैं, जिन्हें ऐनीमल कम्युनिकेटरकहते हैं। जो किसी भी पशु या पक्षी से ठीक वैसे ही बात कर सकते हैं, जैसे हम और आप करते हैं।

अमृता ने बताया कि यह गुण जन्मजात होता है और अभ्यास से निखर जाता है। जिसके लिए उन्होंने कठिन परिश्रम किया है।

आज के वैज्ञानिकता के दौर में जब हर चीज को प्रमाण और तर्क की कसौटी पर कसा जाता है, अमृता जैसी चमत्कारिक प्रतिभाऐं भी मौजूद हैं, जो अपनी दुर्लभ शक्ति से उन तमाम लोगों का दुख दूर कर सकती हैं, जिन्हें पशु-पक्षियों को अपनी बात कहनी हो या उनकी बात समझनी हो, जिनका प्रिय पालतू पशु उन्हें छोड़कर चला गया या फिर अपने उद्दंड स्वभाव के कारण अपने स्वामी को लगातार परेशान करता रहता है। जब अमृता पशुओं से बड़ी सहजता से बातें करती है और उसके रूखे व्यवहार का कारण पूछती है, तो उस पशु के मालिक को आश्चर्य होता है, जानकर कि इतनी सहज सी बात भी वे समझ नहीं पाए और तब वे अमृता का बार-बार आभार व्यक्त करते हैं कि उसने उनकी बहुत बड़ी समस्या चुटकियों में दूर कर दी।

Monday, February 4, 2019

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विचारार्थ कुछ प्रश्न

पिछले हफ्ते ट्वीटर पर मैंने सरसंघचालक जी से एक खुले पत्र के माध्यम से विनम्रता से कहा कि मुझे लगता है कि संघ कभी-कभी हिन्दू धर्म की परंपराओं को तोड़कर अपने विचार आरोपित करता है।  जिससे हिंदुओं को पीड़ा होती है। जैसे हम ब्रजवासियों के 5000 वर्षों की परंपरा में वृन्दावन और मथुरा का भाव अलग था, उपासना अलग थी व दोनों की संस्कृति भिन्न थी। पर आपकी विचारधारा की उत्तर प्रदेश सरकार ने दोनों का एक नगर निगम बनाकर इस सदियों पुरानी भक्ति परम्परा को नष्ट कर दिया, ऐसा क्यों किया ?
इसका उत्तर मिला कि संघ का सरकार से कोई लेना देना नहीं है। देश की राजनीति, पत्रकारिता या समाज से सरोकार रखने वाला कोई भी व्यक्ति क्या यह मानेगा कि संघ का सरकार से कोई संबंध नहीं होता ? सच्चाई तो यह है कि जहां-जहां भाजपा की सरकार होती है, उसमें संघ का काफी हस्तक्षेप रहता है। फिर ये आवरण क्यों ? यदि भाजपा संघ की विचारधारा व संगठन से उपजी है तो उसकी सरकारों में हस्तक्षेप क्यों न हो ? होना ही चाहिए तभी हिन्दू हित की बात आगे बढ़ेगी।
मेरा दूसरा प्रश्न था कि हम सब हिन्दू वेदों, शास्त्रों या किसी सिद्ध संत को गुरु मानते हैं, ध्वज को गुरु मानने की आपके यहां ये परंपरा किस वैदिक स्रोत से ली गई है ? इसका उत्तर नागपुर से मुकुल जी ने संतुष्टिपूर्ण दिया। विभिन्न संप्रदायों के झगड़े में न पड़के संघ ने केसरिया ध्वज को धर्म, संस्कृति, राष्ट्र की प्रेरणा देने के लिये प्रतीक रूप में गुरु माना है। वैसे भी ये हमारी सनातन संस्कृति में सम्मानित रहा है।
मेरा तीसरा प्रश्न था कि हमारी संस्कृति में अभिवादन के दो ही तरीके हज़ारों वर्षों से प्रचलित हैं ; दोनों हाथ जोड़कर करबद्ध प्रणाम (नमस्ते) या धरती पर सीधे लेटकर दंडवत प्रणाम। तो संघ में सीधा हाथ आधा उठाकर, उसे मोड़कर,  फिर सिर को झटके से झुकाकर ध्वज प्रणाम करना किस वैदिक परंपरा से लिया गया है ? इसका कोई तार्किक उत्तर नहीं मिला। हम जानते हैं कि अगर बहता न रहे तो रुका जल सड़ जाता है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। संघ ने दशाब्दियों बाद नेकर की जगह हाल ही में पेंट अपना ली है। तो प्रणाम भी हिन्दू संस्कृति के अनुकूल ही अपना लेना चाहिए। भारत ही नहीं जापान जैसे जिन देशों में भी भारतीय धर्म व संस्कृति का प्रभाव हैं वहां भी नमस्ते ही अभिवादन का तरीका है। माननीय भागवत जी को इस पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए। क्योंकि अभी जो ध्वज प्रणाम की पद्ति है, वो किसी के गले नहीं उतरती। क्योंकि इसका कोई तर्क नहीं है। जब हम बचपन मे शाखा में जाते थे तब भी हमें ये अटपटा लगता था।
मेरा चौथा प्रश्न था कि वैदिक परंपरा में दो ही वस्त्र पहनना बताया गया है ; शरीर के निचले भाग को ढकने के लिए 'अधोवस्त्र' व ऊपरी भाग को ढकने के लिए 'अंग वस्त्र' । तो ये खाकी नेकर/पेंट, सफेद कमीज़ और काली टोपी किस हिन्दू परंपरा से ली गई है ? आप प्राचीन व मध्युगीन ही नहीं आधुनिक भारत का इतिहास भी देखिए तो पाएंगे कि अपनी पारंपरिक पोशाक धोती व बगलबंदी पहन कर योद्धाओं ने बड़े-बड़े युद्ध लड़े और जीते थे। तो संघ क्यों नहीं ऐसी पोषक अपनाता जो पूर्णतःभारतीय लगे। मौजूदा पोषक का भारतीयता से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है।
सोशल मीडिया पर वायरल हुए मेरे इन प्रश्नों के जवाब में मुझे आसाम से 'विराट हिन्दू संगठन' के एक महासचिव ने ट्वीटर पर जान से मारने की खुली धमकी दे डाली। ये अजीब बात है। दूसरे धर्मों में प्रश्न पूछने पर ऐसा होता आया है। पर भारत के वैदिक धर्म ग्रंथों में प्रश्न पूछने और शास्तार्थ करने को सदैव ही प्रोत्साहित किया गया है। मैं नहीं समझता कि माननीय डॉ मोहन भागवत जी को मेरे इन प्रश्नों से कोई आपत्ति हुई होगी ? क्योंकि वे एक सुलझे हुए, गम्भीर और विनम्र व्यक्ति हैं। पर उन्हें भी सोचना चाहिए कि मुझ जैसे कट्टर सनातनधर्मी की भी विनम्र जिज्ञासा पर उनके कार्यकर्ताओं को इतना क्रोध क्यों आ जाता है ? भारत का समाज अगर इतना असहिष्णु होता तो भारतीय संस्कृति आज तक जीवित नहीं रहती। भारत वो देश है जहां झरनों का ही नहीं नालो का जल भी मां गंगा में गिरकर गंगाजल बन जाता है। विचार कहीं से भी आएं उन्हें जांचने-परखने की क्षमता और उदारता हम भारतीयों में हमेशा से रही है।
संघ के कार्यकर्ताओं का इतिहास, सादगी, त्याग और सेवा का रहा है। पर सत्ता के संपर्क में आने से आज उसमें तेज़ी से परिवर्तन आ रहा है। ये चिंतनीय है। अगर संघ को अपनी मान-मर्यादा को सुरक्षित रखना है, तो उसे इस प्रदूषण से अपने कार्यकर्ताओं को बचाना होगा। मुझे विश्वास है कि डॉ साहब मेरे इन बालसुलभ किंतु गंभीर प्रश्नों पर विचार अवश्य करेंगे। वंदे मातरम।

Monday, December 10, 2018

सनातन परंपराओं से छेड़छाड़ ठीक नहीं

सबरी मलाई मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से हम सभी हिंदू उद्वेलित हैं। इसी हफ्ते एक व्याख्यान में सर्वोच्च न्यायालय की पूर्व न्यायाधीश श्रीमती ज्ञान सुधा मिश्रा का कहना था कि जहां संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का पंरपराओं से टकराव होगा, वहां अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ेगा। उन्होंने सती प्रथा का उदाहरण देकर अपनी बात का समर्थन किया। किंतु पूजा पद्धति और उससे जुड़े कर्मकांड को बदलने का अधिकार अदालत का नहीं होना चाहिए। जैसे- जन जातीय समाजों में जो कानून की व्यवस्था है, उसमें भारत सरकार हस्तक्षेप नहीं करती। अंग्रेज हुकुमत ने भी नहीं किया। अण्डमान के पास सेंटीनल द्वीप में वनवासियों द्वारा तीर-कमान से मारे गऐ, ‘अमरीकी मिशनरी युवा’ के मामले में सरकार कोई कानूनी कार्यवाही नहीं कर रही। क्योंकि गत 60 हजार सालों से यह प्रजाति शेष दुनिया से अलग-थलग रहकर जीवन यापन कर रही है। उसके अपने कानून हैं और भारत सरकार ने उनकी स्वतंत्रता को सम्मान दिया है। ईसाईयत का प्रचार करने के उद्देश्य से इस युवा ने कानून का उल्लंघ्न कर सेंटीनल द्वीप में प्रवेश किया और मारा गया।

ईसाई मिशनरी, अन्य धर्मी लोग या फिर अदालतें अगर हमारी धार्मिक मान्यताओं में हस्तक्षेप करे, तो उसका कारण समझा जा सकता है। क्योंकि उनकी आस्था हमारी परंपराओं में नहीं है। उनकी सोच भारतीय संस्कृति से हटकर अंतर्राष्ट्रीय संस्कृति से प्रभावित है। पर अगर हिंदू संस्कृति की रक्षा करने का दावा करने वाले संत, संगठन या राजनैतिक दल ऐसा करते हैं, तो ये चिंता की बात है। इलाहाबाद का नाम ‘प्रयागराज’ करना, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी महाराज का प्रशंसनीय कदम है। पर अर्द्ध कुंभ को कुंभ कहना सनातन परंपराओं से खिलवाड़ है। कुंभ की परंपरा हिंदू मान्यताओं के अनुसार हजारों वर्ष पुरानी है। हर 12 वर्ष में कुंभ, हर 6 वर्ष में अर्द्ध कुंभ और हर 144 वर्ष में महाकुंभ होते आऐ हैं। इसके पीछे वैज्ञानिक और शास्त्रीय दोनों आधार हैं। हमारे धार्मिक  ग्रंथों में इन पर्वों का विस्तृत वर्णन आता है। कुंभ पर उठे वाद-विवादों और धर्म ससंदों का भी उल्लेख आता है। पर ऐसा उल्लेख कहीं नहीं मिलता कि अर्द्ध कुंभ को पूर्णं कुंभ कह दिया जाऐ। योगी महाराज ने अपने अज्ञानी अधिकारियों की चाटुकारिता भरी सलाह से जो यह निर्णंय लिया है, वह संत समाज के गले नहीं उतर रहा। कुछ खुल कर कह रहे हैं और अधिकतर चुपचाप सह रहे हैं। अगर इसी तरह नाम बदले गऐ, तो भविष्य में कोई ऐसी सरकार भी आ सकती है, जो यह कह दे कि 12 वर्ष में ही कुंभ क्यों होगा? हम तो हर मकर संक्राति को कुंभ करेंगे, तब उसे कौन रोक लेगा?

बात यहीं तक नहीं है। पिछले डेढ़ वर्ष में ब्रजभूमि को लेकर योगी महाराज की सरकार ने जो भी कार्यक्रम और योजनाऐं घोषित की हैं, वे सब ब्रज संस्कृति और मान्यताओं के विपरीत हैं। श्रीमदभागवतम् के दशम स्कंध के 24वें अध्याय के 24वें श्लोक में बालकृष्ण नंद बाबा से कहते हैं कि, ‘ये नगर और गांव हमारे घर नहीं। हमारे घर तो वन और पर्वत हैं।’ आज  ‘ब्रजतीर्थ विकास परिषद्’ अपने ही बनाये कानूनों को तोड़कर हजारों करोड़ रूपयों की वाहियात योजनाऐं ब्रज विकास के नाम पर लागू करवा रही है, जो भगवान श्रीकृष्ण के इस कथन की भावना के सर्वथा विपरीत हैं।  इनसे ब्रज की सेवा नहीं, विनाश होगा। ये बात हम जैसे लोग लगातार कह रहे हैं। पर अपने मद में चूर और बड़े कमीशन पर निगाह रखने वाले इन अधिकारियों को समझ में नहीं आ रहा।

इसी तरह मथुरा और वृंदावन के बीच भावनात्मक दूरी है। अक्रूर जी जब कृष्ण-बलराम को मथुरा ले गऐ और कंस वध करने के बाद भगवान लौटे नहीं, तो वे मथुरा के राजमहल में वृंदावन की याद करके अपने मित्र उद्धव से कहते है, ‘उधौ मोहे ब्रज बिसरत नाहि’। वृंदावनवासी ग्वारिये कृष्ण के प्रति साख्य भाव रखते हैं। जबकि मथुरावासी कृष्ण को द्वारिकाधीश अर्थात् राजा के रूप में पूजते हैं। पर योगी महाराज की सरकार ने वृंदावनवासियों के घोर विरोध की उपेक्षा करके मथुरा-वृंदावन नगर निगम बना दिया। जोकि ब्रज की सनातन परंपरा के पूरी तरह विपरीत है। पूरा ब्रज भक्ति भावना प्रधान है। नंदग्राम वालों के लिए अगर ग्वारिया कृष्ण अधिक महत्वपूर्णं हैं, तो बरसानावासी राधारानी के प्रति स्वयं का सखी भाव रखते हैं। हर गांव का अपना पौराणिक इतिहास है। इसी तरह गोवर्धन, जो प्रकृति पूजा का सर्वोत्तम उदाहरण है। उसके चारों ओर विकास का जो मॉडल ‘ब्रजतीर्थ विकास परिषद्’ लेकर आई है। वह गोवर्धन की भावना का सर्वथा प्रतिकूल है। इससे गोवर्धन ‘न्यूयॉर्क’ शहर की तरह हो जाऐगा। जो इसकी अपूर्णंनीय क्षति होगी।

हमारी सनातन परंपराओं से अगर कांग्रेस, समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी ने ऐसी छेड़छाड़ की होती, तो निश्चय ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उससे जुड़े संगठन तूफान मचा देते। जो सही भी होता। लेकिन जब हिंदू धर्म की सेवा करने का दावा करने वाले दल भाजपा की सरकार में सनातन परंपराओं से खिलवाड़ हो, तो किसका विरोध किया जाऐ? यह हम सब सनातनधर्मियों की बिडंबना है और पीड़ा भी।

योगी महाराज के मुख्यमंत्री बनने पर हम सबसे ज्यादा उत्साहित थे । मैंने टीवी चैनलों पर ऐसा कई बार  कहा भी था। आशा थी कि योगी जी हम सनातनधर्मियों की भावना का सम्मान करते हुए, हमारी सांस्कृति विरासतों की रक्षा में उदारता से सहयोग करेंगे। उनकी मंशा और धर्म के प्रति समर्पण में आज भी कोई संदेह नहीं है। वे सनातन संस्कृति की रक्षा के लिए भरपूर थैली खोले बैठे हैं। पर बिडंबना यह है कि उनके चारों ओर वे लोग हैं, जो उनसे तमाम महत्वाकांक्षी योजनाओं को निज लाभ के लिए पारित करवा कर सनातन धर्म की परंपराओं और भावनाओं पर कुठाराघात कर रहे हैं। योगी जी को इस मकड़जाल से निकलकर मुक्त हृदय से दूसरे पक्ष की बात को भी गंभीरता से सुनने की सामर्थ्य दिखानी चाहिए। तभी धर्म की सच्ची सेवा होगी अन्यथा धर्म का विनाश होगा और केवल कुछ जेबें भारी जाएंगी। आगे हरि इच्छा।

Monday, August 28, 2017

कब मोह भंग होगा हमारा छद्म गुरूओं से

एक ओर आत्मघोषित गुरू का भांडाफोड़ हुआ। कल तक ऐश्वर्य की गोद में रंग-रंगेलिया मनाने वाला ‘भक्तों का भगवान’ अब बाकी की जिंदगी, आसाराम और रामलाल की तरह जेल की सलाखों के पीछे काटेगा। सच्चे भक्तों की पीड़ा, मैं समझ सकता हूँ, क्योंकि मैंने कुछ ऐसा मंजर बहुत करीब से देखा है और उसके खिलाफ देशभर में, आवाज भी बुलंद की थी। जब मुझे पता चला कि अपनी पूजा करवाने गुरूओं का इतिहास व व्यभिचार और दुराचरण से भरा हुआ है।  सन्यास का वेश धारणकर, शिष्यों के पुत्र-पुत्रियों और पत्नियों से नाजायाज संबंध बनाने वाले, ये तथाकथित सन्यासी, अब गृहस्थ जीवन जी रहे हैं। उनमें से एक, पूर्व सन्यासी रहे, व्यक्ति से मैंने पूछा कि क्यों तो तुमने सन्यास लिया और क्यों तुम्हारा पतन हो गया? उसने सीधा उत्तर दिया कि अपने गुरू भाईयों का ऐश्वर्य और उनके सैकड़ों-हजारों चेलों की उनके प्रति अंधभक्ति देख, मेरी भी इच्छा गुरू बनने की हुई और मैंने सन्यास ले लिया। दिनभर तो मैं किसी तरह, अपने पर नियन्त्रण रख लेता, पर रात नहीं कटती थी। रात को कामवासना इतनी प्रबल हो जाती थी कि मुझसे नहीं रहा गया। उसने तो अपना गुनाह कबूल कर लिया। पर शेर की खाल में आज भी हजारों भेड़िये, देशभर में आध्यात्मिक गुरू बने बैठे हैं। जो भोली जनता की भावुकता का नाजायज लाभ उठाकर, उसे हर तरह से लूटते हैं। तन-मन-धन गुरू पर न्यौछावर कर देने वाले भक्तों को, जब पता चलता है कि जिसे गुरू रूपी भगवान माना, वो लंपट धूर्त निकला, तो  वे अपना मानसिक संतुलन खो देते हैं। वे या तो धर्म विमुख हो जाते हैं या अपना मानसिक संतुलन खो देते हैं। सिरसा में जो हुआ, उसके पीछे भक्तों की स्वभाविक प्रतिक्रिया कम और बाबा के पाले हुए बदमाशों की हिंसक रणनीति ज्यादा थी।

दरअसल छद्म भेष धरकर इन आत्मघोषित गुरूओं ने धर्म की परिभाषा बदल दी है। कलियुग के इन गुरूओं ने, उस दोहे का भरपूर दुरूपयोग किया है, जिसमें कहा गया, ‘‘गुरू गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पांय। बलिहारी गुरू आपने, जिन गोविंद दियो बताय।’’ ध्यान देने वाली बात ये है कि यहां उस गुरू को भगवान से ज्यादा महत्व देने की बात कही गई है, जो हमें भगवान से मिलाता है। पर आत्मघोषित गुरू तो खुद को ही भगवान बना बैठे हैं। मजे की बात यह है कि जब कभी भगवान धरती पर अवतरित हुए, तो उन्होंने मानव सुलभ लीलाऐं की, किंतु खुद को भगवान नहीं बताया। आज के धनपिपासु, बलात्कारी, हत्यारे और षड्यन्त्रकारी आत्मघोषित गुरू तो बाकायदा खुद को भगवान बताकर, अपना प्रचार करवाते हैं। इन्होंने तो गुरू शब्द की महिमा को ही लज्जित कर रखा है।

इसी कॉलम में जब-जब धर्म की हानि करने वाले ऐसे गुरूओं का पतन होता है, तब-तब मैं इन्हीं बिंदुओं को उठाता हूँ। इस आशा में कुछ पाठक तो ऐसे होंगे, जो इस गंभीर विषय पर सोचेंगे। दरअसल, धर्म का धंधा केवल भारत में चलता हो या केवल हिन्दू कथावाचक या महंत ही इसमें लिप्त हों यह सही नहीं है। तीन दिन तक मैं इटली के रोम नगर में ईसाईयों के सर्वोच्च आध्यात्मिक केन्द्र वेटिकन सिटी में पोप और आर्क बिशपों के आलीशान महल और वैभव के भंडार देखता रहा। एक क्षण को भी न तो आध्यात्मिक स्फूर्ति हुई और न ही कहीं भगवान के पुत्र माने जाने वाले यीशू मसीह के जीवन और आचरण से कोई संबध दिखाई दिया। कहां तो विरक्ति का जीवन जीने वाले यीशू मसीह और कहां उनके नाम पर असीम ऐश्वर्य में जीने वाले ईसाई धर्म गुरू? पैगम्बर साहब हों या गुरू नानक देव, गौतम बुद्ध हो या महावीर स्वामी, गइया चराने वाले ब्रज के गोपाल कृष्ण हो या वनवास झेलने वाले भगवान राम, कैलाश पर्वत पर समाधिस्थ भोले शंकर हो या कुशा के आसन पर भजन करने वाले हनुमान जी सबका जीवन अत्यन्त सादगी और वैराग्य पूर्ण रहा है। पर धर्म के नाम पर धंधा करने वालों ने उनके आदर्शों को ग्रन्थों तक सीमित कर साम्राज्य खड़े कर लिए हैं। कोई धर्म इस रोग से अछूता नहीं। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि हर धर्म क्रमशः भौतिकता की ओर पतनशील हो जाता है।

संत वो है जिसके पास बैठने से हम जैसे गृहस्थ विषयी भोगियों की वासनाएं शान्त हो जाए, भौतिकता से विरक्ति होने लगे और प्रभु के श्री चरणों में अनुराग बढ़ने लगे। पर आज स्वंय को ‘संत‘ कहलाने वाले क्या इस मापदंड पर खरे उतरते हैं ? जो वास्तव में संत हैं उन्हें अपने नाम के आगे विशेषण लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। क्या मीराबाई, रैदास, तुलसीदास, नानक देव, कबीरदास जैसे नाम से ही उनके संतत्व का परिचय नहीं मिलता ? इनमें से किसी ने अपने नाम के पहले जगतगुरू, महामंडलेश्वर, परमपूज्य, अवतारी पुरूष, श्री श्री 1008 जैसी उपाधियां नहीं लगाईं। पर इनका स्मरण करते ही स्वतः भक्ति जागृत होने लगती है। ऐसे संतों की हर धर्म में आज भी कमी नहीं है। पर वे टीवी पर अपनी महानता का विज्ञापन चलवाकर या लाखों रूपया देकर अपने प्रवचनों का प्रसारण नहीं करवाते। क्योंकि वे तो वास्तव में प्रभु मिलन के प्रयास में जुटे हैं ? हम सब जानते हैं कि घी का मतलब होता है गाय या किसी अन्य पशु के दूध से निकली चिकनाई । अब अगर किसी कम्पनी को सौ फीसदी शुद्ध घी कहकर अपना माल बेचना पड़े तो साफ जाहिर है कि उसका दावा सच्चाई से कोसों दूर है। क्योंकि जो घी शुद्ध होगा उसकी सुगन्ध ही उसका परिचय दे देगी। सच्चे संत तो भौतिकता से दूर रहकर सच्चे जिज्ञासुओं को आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग बताते हैं। उन्हें तो हम जानते तक नहीं क्योंकि वे चाहते ही नहीं कि कोई उन्हें जाने। पर जो रोजाना टीवी, अखबारों और होर्डिगों पर पेप्सी कोला की तरह विज्ञापन करके अपने को संत, महामंडलेश्वर, जगद्गुरू या राधे मां कहलवाते हैं उनकी सच्चाई उनके साथ रहने से एक दिन में सामने आ जाती है। बशर्ते देखने वाले के पास आंख हों।

जैसे-जैसे आत्मघोषित धर्माचार्यो पर भौतिकता हावी होती जाती है, वैसे-वैसे उन्हें स्वंय पर विश्वास नहीं रहता इसलिए वे भांति-भांति के प्रत्यय और उपसर्ग लगाकर अपने नाम का श्रंगार करते हैं। नाम का ही नहीं तन का भी श्रंगार करते हैं। पोप के जरीदार गाउन हो या रत्न जटित तामझाम, भागवताचार्यो के राजसी वस्त्र और अलंकरण हों या उनके व्यास आसन की साज सज्जा, क्या इसका यीशू मसीह के सादा लिबास या शुकदेव जी के विरक्त स्वरूप से कोई सम्बन्ध है ? अगर नहीं तो ये लोग न तो अपने इष्ट के प्रति सच्चे हैं और न ही उस आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति जिसे बांटने का ये दावा करते हैं ? हमने सच्चे संतों के श्रीमुख से सुना है कि जितने लोग आज हर धर्म के नाम पर विश्वभर में अपना साम्राज्य चला रहे हैं, अगर उनमें दस फीसदी भी ईमानदारी होती तो आज विश्व इतने संकट में न होता।

गुरमीत राम रहीम सिंह का कोई अपवाद नहीं है। वो भी उसी भौतिक चमक दमक के पीछे भागने वाला शब्दों का जादूगर है, जो शरणागत की भावनाओं का दोहन कर दिन दूनी और रात चैगुनी सम्पत्ति बढ़ाने की दौड़ में लगा रहा है। जिसके जिस्म पर लदे करोड़ों रूपए के आभूषण, फिल्मी हीरो की तरह चाल-ढाल, भड़काऊ पाश्चात्य वेशभूषा और शास्त्र विरूद्ध आचरण देखने के बाद भी उसके अनुयायी क्यों हकीकत नहीं जान पाते? जब-जब आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वालों का संबध ऐश्वर्य से जुड़ा है तब-तब उस धर्म का पतन हुआ है। इतिहास इसका साक्षी है। यह तो उस जनता को समझना है जो अपने जीवन के छोटे-छोटे कष्टों के निवारण की आशा में मृग-मरीचिका की तरह रेगिस्तान में दौड़ती है, कि कहीं जल मिल जाए और प्यास बुझ जाए। पर उसे निराशा ही हाथ लगती है। पुरानी कहावत है ‘पानी पीजे छान के, गुरू कीजे जान के‘।

Monday, March 18, 2013

आए थे हरी भजन को, ओटन लगे कपास

पहले संत दशकों तक जंगलों में तप करते थे। सिद्धि प्राप्त होने पर भी अपना प्रचार नहीं करते थे। स्वयं को छिपा कर रखते थे। चेले बनाने से बचते थे। तब संतो का जीवन न्यूनतम आवश्यकताओं के कारण प्रकृति के साथ संतुलनकारी होता था। पर जब से धार्मिक टी वी चैनल बढे हैं त
ब से धर्म का कारोबार भी खूब चल निकला है। अब कथावाचकों और धर्माचार्यों का यश रातों-रात विश्वभर में फैल जाता है। फिर चली आती है चेलों की बारात, लक्ष्मी की बरसात और लगने लगती है ‘गुरू सेवा‘ की होड़। नतीजतन हर चेला अपनी क्षमता से ज्यादा ‘गुरू सेवा‘ में जुट जाता है। भावातिरेक में गुरू के उपदेशों का पालन करने की भी सुध नहीं रहती। परिणाम यह होता है कि चेले गुरू के जीवनकाल में ही गुरू के आदर्शो की अर्थी निकाल देते है। रोकने टोकने वाले को गुरूद्रोह का आरोप लगाकर धमका देते है। गुरू की आड़ में अपनी दबी हुई महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में जुट जाते हैं।

संत कहते है कि ‘पैसे वाला और सुन्दर स्त्री गुरू को ही शिष्य बना लेते है, खुद शिष्य नही बनते। परिणाम यह होता है कि विरक्त संतो के शिष्य भी ऐश्वर्य का साम्राज्य खड़ा कर लेते हैं । शंकराचार्य जी ने सारे भारत का भ्रमण कष्टपूर्ण यात्रा मे किया और बेहद सादगी का जीवन जीया। आज आप अनेक शंकराचार्यों का वैभव देखकर आदिशंकराचार्य के मूल स्वरूप का अनुमान भी नहीं कर सकते। इसके अपवाद संभव हैं । सूली पर चढ़ने वाले और चरवाहों के साथ सादगी भरा जीवन जीने वाले यीशूमसीह की परंपरा को चलाने वाले पोप वेटिकन सिटी में चक्रवर्ती सम्राटों जैसा जीवन जीते हैं । गरीब की रोटी से दूध और अमीर की रोटी से खून की धार टपकाने वाले गुरू नानक देव जी गुरूद्धारों के सत्ता संघर्ष को देखकर क्या सोचते होंगे ? यही हाल लगभग सभी धर्मो का है।
 
पर धर्माचार्यों के अस्तित्व, ऐश्वर्य, शक्ति व विशाल शिष्य समुदायों की उपेक्षा तो की नही जा सकती। उनके द्धारा की जा रही ‘गुरू सेवा‘ को रोका भी नही जा सकता। पर क्या उसका मूल्यांकन करना गुरूद्रोह माना जाना चाहिए ? अब एक संत ने कहा कि अपने नाम के प्रचार से बचो, अपने फोटो होर्डिग पोस्टरों और पर्चो में छपवाकर बाजारू औरत मत बनों। पर उनके ही शिष्य रातदिन  अपनी फोटो अखबारों और पोस्टरों में छपवाने मे जुटे हो, तो इसे आप क्या कहेगें ? संत कहते है कि प्रकृति के संसाधनों का संरक्षण करो, उनका विनाश रोको। पर उनके शिष्य प्राकृतिक संसाधनों पर महानगरीय संस्कृति थोपकर उनका अस्तित्व ही मिटाने पर तुले हो तो इसे क्या कहा जाये ? संत कहते है कि राग द्धेष से मुक्त रहकर सबको साथ लेकर चलो, तभी बडा काम कर पाओगे। पर चेले राग द्धेष की अग्नि मे ही रात-दिन जलते रहते हैं । उन्हे लक्ष्य से ज्यादा अपने अहं की तुष्टि की चिन्ता ज्यादा रहती है। ऐसे चेले भौतिक साम्राज्य का विस्तार भले ही कर लें, पर संत की आध्यात्मिक पंरपरा को आगे नही बढा पाते। संत के समाधि लेने के बाद उसके नाम के सहारे अपना कारोबार चलाते हैं । पर संत ह्नदय नवनीत समाना। संत का ह्नदय तो मक्खन के समान कोमल होता है। वे अपने कृपापात्रों के दोष नहीं देखते। इसका अर्थ यह नही कि उनके चेले हर वो काम करें जो संत की रहनी और सोच के विपरीत हो ?
 
जहां-जहां  धर्माचार्यों के मठ या आश्रम है वहीं-वहीं सेवा के अनेक प्रकल्प भी चलते हैं । जब तक ये सेवा भजन-प्रवचन तक सीमित रहती है, तब तक समाज में कोई समस्या पैदा नही होती। पर जब उत्साही चेले शिक्षा, स्वास्थ, ग्रामीण विकास, जल, जंगल व जमीन के  ‘विकास‘ की चिन्ता करने लगते है, तब उनके अधकचरे ज्ञान के कारण समाज को बहुत बड़ा खतरा पैदा हो जाता है। यह सभी समस्यायें प्रोफेशनल और अनुभवी सोच के बिना हल करना संभव नही होता। आप अपने भजन से अस्पताल के लिए साधन तो आकर्षित कर सकते है। पर उस अस्पताल को सुचारू रूप से चलाने के लिए प्रोफेशनल योग्यता और अनुभव की जरूरत होगी। इसलिए बिना इस समझ के किया गया विकास प्रायः विनाशकारी होता है। वह प्रकृति के संसाधनों पर भार बन जाता है। ऐसी सेवा और ऐसे विकास से तो अपने परिवेश को उसके हाल पर छोड़ देना ही बेहतर होगा। कम से कम गलत आदर्श तो स्थापित नही होगें। पर सुनता कौन है ? जब छप्पर-फाड़कर पैसा आता है, तब बुद्धि भ्रष्ट  हो जाती है। मदहोश होकर चेले अपने गलत निर्णयों को भी बुलडोजर की तरह बाकी लोगो पर थोपने लगते हैं। ऐसे में मठों मे सत्ता संघर्ष शुरू हो जाते हैं। आये थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास। इससे समाज का बडा अहित होता है। क्योंकि चेलों की मार्फत ‘गुरू आज्ञा‘ के सन्देश पाने वाले भेाले-भाले अनुयायी चेलो की वाणी को ही गुरूवाणी मानकर उसका पालन करने में जुट जाते हैं । यानि विनाश की गति और भी तेज हो जाती है। फिर सेवा कम और अंह तुष्टि ज्यादा होती है। ऐसे अनेक उदाहरण रोज दिखाई देते हैं।
 
आवश्यकता इस बात की है कि यदि किसी संत या उनके शिष्यों के पास यदि अकूत दौलत बरस रही हो और वे समाज की सेवा भी करना चाहते हों या पर्यावरण को सुधारना चाहते हों तो उन्हें ऐसे लोगो की बात सुननी चाहिए जो उस क्षेत्र के विशेषज्ञ या अनुभवी हैं । एक तरह का सेतु बंधन हो। सही और सार्थक ज्ञान का समन्वय यदि समर्पित शिष्यों के उत्साह के साथ हो जाये तो बडे-बडे लक्ष्य बिना भारी लागत के भी प्राप्त किये जा सकते हैं। इसकी विपरीत भारी संसाधन खपाकर छोटा सा भी लक्ष्य प्राप्त करना दुष्कर हो जाता है। पर ऐसे चेलों रूपी बिल्ली के गले मे घंटी कौन बांधे ? यह कार्य तो संत या गुरू को ही करना होगा। उन्हे देखना होगा कि उनकी शरण मे आये सक्षम चेलों और उनके साथ रहने वाले समर्पित चेलों के बीच ताल-मेल कैसे बिठाएं ? एक फोडे़ को चीऱने के लिए गुरू को सर्जन की तरह अपने सभी शिष्यों की मानसिक शल्य चिकित्सा करनी होगी। तभी उनका सत्य संकल्प सही मायनों में पूरा होगा।