Showing posts with label elections. Show all posts
Showing posts with label elections. Show all posts

Monday, March 13, 2017

चन्द्रगुप्त मौर्य बनेंगे नरेन्द्र मोदी

उ.प्र. के चुनाव परिणामों ने मोदी के राष्ट्रवाद पर मोहर लगा दी है। जो इस उम्मीद में थे कि नोटबंदी मोदी को ले डूबेगी, उन्हें अब बगले झांकनी पड़ रही है। हमने नोटबंदी के उन्माद के दौर में भी लिखा था कि तुर्की के राष्ट्रपति मुस्तफा कमाल पाशा की तरह मोदी सब विरोधों को झेलते हुए अपना लक्ष्य हासिल कर लेंगे। उनके सेनापति अमित शाह ने एक बड़ा और महत्वपूर्ण प्रांत जीतकर मोदी की ताकत को कई गुना बढ़ा दिया है। दरअसल उ.प्र. की जनता को मोदी का प्रखर राष्ट्रवाद अपील कर गया। अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण की राजनीति ने देश का सही विकास नहीं होने दिया। इससे न हिंदुओं का लाभ हुआ और न मुसलमानों को।

मगर यह भी सही है कि भाजपा ने उप्र को जीतकर अपनी जिम्मेदारियां और बढ़ा ली हैं। क्षेत्रीय दलों को केंद्र में रखकर देखें तो यह चैंकाने वाली बात है कि उप्र में दोनों प्रमुख दल यानी सपा और बसपा लगभग हाशिए पर चले गए हैं। यह बात देश की राजनीति में क्षेत्रीय राजनीति के अवसान का संकेत दे रही है।

यह सर्वस्वीकार्य बात है कि भाजपा का उप्र में अपना वजूद कोई बहुत ज्यादा नहीं था। भाजपा के लिए मोदी और अमित शाह की अपनी हैसियत ने ही सारा काम किया। इसलिए यह जीत भी उन्ही की ही साबित होती है। इसलिए चाय बेचने से लेकर प्रधानमंत्री के पद तक पहुचने का मोदी का सफर चंद्रगुपता मौर्य की तरह संघर्षों से भरा रहा है। इसलिए यह विश्वास होता  है कि मोदी भी मौर्य शासक की तरह भारत  को सुदृढ़ बनाने का काम करेंगे।

अगर ऐसा है तो उप्र की जनता की उम्मीदें भाजपा से नहीं बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ही होंगी। और इसमें भी कोई शक नहीं कि प्रधानमंत्री होने के कारण उनकी हैसियत भी बहुत कुछ करने की है।

यहां याद दिलाने की बात यह है कि उप्र में प्रचार के दौरान मोदी ने उप्र के विकास में बाधाओं की बात कही थी। उन बाधाओं में एक थी कि केंद्र की भेजी मदद को उप्र खर्च नहीं कर पाया। यानी उप्र में सरकारी खर्च बढ़ाया जाना पहला काम होगा जो सरकार बनते ही दिखना चाहिए। किसानों की कर्ज माफी दूसरा बड़ा काम है। लेकिन इसके लिए उप्र सरकार कितना क्या कर पाएगी यह अभी देखना होगा लेकिन पूरे देश के लिहाज से भी यह काम असंभव नहीं है। हो सकता है कि उप्र के बहाने पूरे देश को किसानों को यह राहत मिल जाए।

उप्र में प्रचार के दौरान अखिलेश सरकार ने अपने विकास कार्यों को मुख्य मुददा बनाने की कोशिश जरूर की थी लेकिन चुनाव नतीजे बता रहे हैं कि यह मुददा बन नहीं पाया। बल्कि भाजपा ने प्रदेश में सड़कें, पुल, सिंचाई, नए कारखाने, रोजगार की कमी बताते हुए अखिलेश सरकार के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश्श की थी। सो अब बिल्कुल तय है कि इन मोर्चों पर नई सरकार को कुछ करते हुए दिखना पड़ेगा। लेकिन इन कामों को पहले से ज्यादा बड़े पैमाने पर होते हुए दिखाना आसान काम नहीं है। इसीलिए नई सरकार को इस मामले में सतर्क रहना पड़ेगा कि पहले से जो हो रहा था उसकी अनदेखी न हो जाए।

लगे हाथ इस बात की चर्चा कर लेनी चाहिए कि क्या उप्र का चुनाव वाकई 2019 में लोकसभा चुनाव के पहले एक सेमीफायनल था। इसमें कोई शक नहीं कि प्रधानमंत्री को ही आगे रखकर चुनाव लड़ा गया। लेकिन इतने भर से उप्र का चुनाव सेमीफायनल जैसा नहीं बन जाता। खासतौर पर इसलिए क्योंकि 2019 के पहले कुछ और बड़े राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। उन चुनावों के दौरान भी भाजपा को प्रधानमंत्री का चेहरा दाव पर लगाना पड़ेगा। हालांकि उन ज्यादातर प्रदेशों में भाजपा की ही सरकार है। सो यह तय है कि उप्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद शुरू हुए नए कामों का जिक्र किया जाएगा। इस लिहाज से भाजपा को उप्र में अपना ही विकास मंच सजाने की जरूरत पड़ेगी। तभी वह 2019 के पहले होने वाले विधान सभा चुनावों में सिर उठा कर प्रचार कर पाएगी। इस तरह  साबित होता है कि सेमीफाइनल उप्र नहीं था बल्कि अभी होना है।

उप्र में भाजपा को जीत ऐसे मुश्किल समय में मिली है जब केंद्र में मोदी सरकार के तीन साल गुजर चुके हैं। इसमें कोई शक नहीं कि सरकार के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती यह है कि अपनी उपलब्धियों को भौतिक रूप से कैसे दिखाए। अब तक जिन प्रदेशों में उसकी सरकार बनी है वे सारे बीमारू राज्य के रूप में प्रचारित किए जाते थे। अपनी सत्ता आने के पहले यह प्रचार खुद भाजपा ही करती आ रही थी। सो स्वाभाविक था उन राज्यों की हालत सुधार देने का दावा उसे लगातार करना ही पड़ा। लेकिन वे छोटे राज्य थे। अब जिम्मेदारी उप्र जैसे भारीभरकम राज्य में कर दिखाने की आई है।

Monday, January 25, 2016

पेट्रोल के दाम घटते क्यों नहीं ?

 जब से तेल निर्यातक देशों ने कच्चे तेल के प्रति बैरल दाम पिछले वर्ष के मुकाबले लगभग आधे कर दिए हैं, तब से दुनियाभर में पेट्रोल और डीजल के दाम में भारी गिरावट आयी है। पाकिस्तान में पेट्रोल 26 रूपये लीटर है। जबकि बांग्लादेश में 22 रूपये, क्यूबा में 19 रूपये, इटली में 14 रूपये, नेपाल में 34 रूपये, वर्मा में 30 रूपये, अफगानिस्तान में 26 रूपये, लंका में 34 रूपये और भारत में 68 रूपये लीटर है। यानि अपने पड़ोस के देशों से ढ़ाई गुने दाम पर भारतवासी पेट्रोल खरीदने पर मजबूर हैं। ये 68 रूपये का तोड़ इस तरह है कि इसमें से 1 लीटर पेट्रोल की लागत होती कुल 16.50 रूपये, जिस पर केंद्रीय कर हैं 11.80 फीसदी। उत्पादन शुल्क है 9.75 फीसदी। वैट है 4 फीसदी और बिक्री कर है 8 फीसदी। इस सब को जोड़ लें, तो भी 1 लीटर पेट्रोल की कीमत बनती है, मात्र 50.05 पैसे। फिर भारतवासियों से हर लीटर पर यह 18 रूपये अतिरिक्त क्यों वसूले जा रहे हैं? इसका जवाब देने को कोई तैयार नहीं है। इस तरह अरबों खरबों रूपया हर महीने केंद्र सरकार के खजाने में जा रहा है। 
 
पिछली सरकार को लेकर भ्रष्टाचार के जो बड़े-बड़े आरोप थे, उनमें अगर कुछ तथ्य था, तो यह माना जा सकता है कि यूपीए सरकार सरकारी खजाना खाली करके चली गई। अब मोदी सरकार के सामने कोई विकल्प नहीं, सिवाय इसके कि वह पेट्रोल पर अतिरिक्त कर लगाकर अपनी आमदनी इकट्ठा करे। मोदी सरकार यह कह सकती है कि देश के विकास के लिए आधारभूत संरचनाएं, मसलन हाईवेज, फ्लाईओवर और दूसरी बुनियादी सेवाओं का विस्तार करना है, जो बिना अतिरिक्त आमदनी किए नहीं किया जा सकता। इसलिए पेट्रोल पर कर लगाकर सरकार अपनी विकास योजनाओं के लिए धन जुटा रही है। 
 
सरकार की मंशा ठीक हो सकती है। पर देश की सामाजिक और आर्थिक दशा की नब्ज पर उंगली रखने वाले विद्वान उससे सहमत नहीं है। उनका कहना है कि बुलेट ट्रेन और स्मार्ट सिटी जैसी महत्वाकांक्षी और मोटी रकम खर्च करने वाली योजनाओं से न तो गरीबी दूर होगी, न देशभर में रोजगार का सृजन होगा और न ही व्यापार में बढ़ोत्तरी होगी। चीन इसका जीता-जागता उदाहरण है। जिसने अपने पुराने नगरों को तोड़-तोड़कर अति आधुनिक नए नगर बसा दिए। उनमें हाईवे और माॅल जैसी सारी सुविधाएं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सर्वश्रेष्ठ दर्जे की बनाई गईं। पर जिस गति से चीन का आधुनिकरण हुआ, उस गति से वहां की आमजनता की आमदनी नहीं बढ़ी। नतीजा यह है कि चीन की तरक्की कागजी बनकर रह गई। पिछले 6 महीने में जिस तेजी से चीन की अर्थव्यवस्था का पतन हुआ है, उससे पूरी दुनिया को झटका लगा है। फिर भी अगर भारत सबक न ले और अपने गांवों की बुनियादी समस्याओं को दूर किए बिना बड़ी छलांग लगाने की जुगत में रहे, तो मुंह की खानी पड़ सकती है। 
 
एक तरफ तो हालत यह है कि आज हर गांव में बेरोजगारी बरकरार है या बढ़ी है। हमने ग्रामीण युवाओं को पारंपरिक व्यवसायों से दूर कर दिया। उन्हें ऐसी शिक्षा दी कि न तो शहर के लायक रहे और न गांव के। मात्र 15 कुटीर उद्योग ऐसे हैं, जिन्हें अगर ग्रामीण स्तर पर उत्पादन के लिए आरक्षित कर दिया जाए और उन उत्पादनों का बढ़े कारखानों में निर्माण न हो, तो 2 साल में बेरोजगारी तेजी से खत्म हो सकती है। पर इसके लिए जैसी क्रांतिकारी सोच चाहिए, वो न तो एनडीए सरकार के पास है और न ही गांधी के नाम पर शासन चलाने वाली यूपीए सरकार के पास थी। 
 
उधर रोजगार एवं प्रशिक्षण के महानिदेशक का कहना है कि भारतीय खाद्य निगम में अनाज की बोरी ढ़ोने वाले कर्मचारी को साढ़े चार लाख रूपया महीना पगार मिल रही है, जो कि भारत के राष्ट्रपति के वेतन से भी कई गुना ज्यादा है। 7वें वेतन आयोग में सरकार की ऐसी तमाम नीतियों की ओर संकेत किया है, जहां सरकार का सीधा हाथ नहीं जानता कि सरकार का बायां हाथ क्या कर रहा है। एक ही विभाग में मंत्रालय कहता है कि 2.10 लाख लोग तनख्वाह ले रहे हैं, जबकि वित्त मंत्रालय के अनुसार इस विभाग में मात्र 19 हजार कर्मचारी हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि पिछली सरकार के समय से ही अरबों रूपये बेनामी कर्मचारियों के नाम से वर्षों से उड़ाए जा रहे हों और किसी को कानोंकान खबर भी न हो। कुल मिलाकर जरूरत धरातल पर उतरने की है। यह सब देखकर लगता है कि भारत की आर्थिक स्थिति इतनी बुरी नहीं कि आमआदमी को अपना जीवनयापन करना कठिन लगे। पर जाहिर है कि पुरानी व्यवस्थाओं के कारण काफी कुछ अभी भी पटरी नहीं आया है। जिसका खामियाजा आमजनता भुगत रही है। 

Monday, May 19, 2014

मोदी को न समझने की भूल महेंगी पड़ी

    पिछले 10 वर्षों में पद्मश्री, राज्य सभा की सदस्यता या अपने अखबार या चैनल के लिए आर्थिक मदद की एवज में मीडिया का एक बहुत बड़ा वर्ग नरेन्द्र मोदी के ऊपर लगातार हमले करता रहा। 2007 में एक स्टिंग ऑपरेशन भी किया गया। पर यह सब वार खाली गए क्योंकि इस तरह की पत्रकारिता करने वाले इस गलतफहमी में रहे कि जनता मूर्ख है और उनका खेल नहीं समझेगी। पर जनता ने बता दिया कि वह अपनी राय मीडिया से प्रभावित होकर नहीं बल्कि खुद की समझ से बनाती है। पिछले 10 वर्षों में जब-जब किसी मुद्दे पर मीडिया का एक बड़े वर्ग ने मोदी पर हमला बोला तो मैने 22 राज्यों में छपने वाले अपने साप्ताहिक लेखों में इन हमलावरों के खिलाफ कुछ प्रश्न खड़े किए। जिनका मकसद बार-बार यह बताना था कि उनके हर हमले से जनता के बीच मोदी की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। क्योंकि मोदी वो काम कर रहे थे जिनकी जनता को नेता से अपेक्षा होती है। नतीजा सबके सामने हैं। यह बात दूसरी है कि गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले अब मोदी का गुणगान करने में नहीं हिचकेंगे। पर मोदी ने भी ऐसे लोगों की लगातार उपेक्षा कर यह बता दिया कि उन्हें अपने लक्ष्य हासिल करने का जुनून है और वो उसे पा कर ही रहेंगे।
    मोदी को लेकर साम्प्रदायिकता का जो आरोप लगाया गया उसे मुसलमानों की युवा पीढ़ी तक ने नकार दिया। 2010 में गुजरात के दौरे पर जब हर जगह मुसलमानों ने मोदी के काम के तरीके की तारीफ की तो मैंने लेख लिखा, ‘मुसलमानों ने मोदी को वोट क्यों दिया?’ हाल ही में वाराणसी की यात्रा में जब मैंने मुसलमानों से बात की तो पता चला कि पुराने विचारों के मुसलमान मोदी के खिलाफ थे वहीं युवा पीढ़ी ने मोदी के विकास के वायदों पर भरोसा जताया और उसका परिणाम सामने है। मोदी को कट्टर हिन्दूवादी बताने का अभियान चला रहे उन सभी लोगों को मैं यह बताना चाहता हूं कि उन्होंने आज तक हिन्दू धर्म की उदारता को समझने का प्रयास ही नहीं किया है। विविधता में एकता और हर जल को गंगा में मिलाकर गंगाजल बनाने वाली भारतीय संस्कृति न सिर्फ देश के लिए आवश्यक है बल्कि पूरी मानव जाती के लिए सार्थक है। जिसमें धर्माधता की मोई जगह नहीं। मुझे विश्वास है कि नरेन्द्र मोदी अपने कड़े इरादे और कार्यशैली से भारत के मुसलमानों को भी तरक्की की राह पर ले जाएंगे। तब इन लोगों को पता चलेगा कि बिना मुस्लिम तुष्टिकरण के भी सबका भला किया जा सकता है।
    जब चुनाव परिणाम आ रहे थे तो मैं एक टीवी चैनल पर टिप्पणियां देने के लिए बुलाया गया था। उस वक्त कई साथी विशेषज्ञों ने प्रश्न किए कि मोदी ने जो बड़े-बड़े वायदे किए हैं, उन्हें कैसे पूरा करेंगे? मेरा जवाब था कि जिस तरह उन्होंने तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद चुनाव में अभूतपूर्व सफलता हासिल की है वह एक सोची-समझी लंबी रणनीति के कारण हो सका है। ठीक इसी तरह देश की हर बड़ी समस्या के समाधान के लिए मोदी ने चुनाव लड़ने से भी बहुत पहले से अपनी नीतियों के ब्लूप्रिंट तैयार कर रखे हैं। वे हर उस व्यक्ति पर निगाह रखे हुए है जो इन नीतियों के क्रियान्वयन में अच्छे परिणाम ला सकता है। मोदी किसी आईएएस या दल के नेताओं को भी अनावश्यक तरजीह नहीं देते। जिस कार्य के लिए जो व्यक्ति उन्हें योग्य लगता है उसे बुला कर काम और साधन सौप देते हैं। हाल ही में एक टीवी साक्षात्कार में मोदी ने कहा भी कि मैं कुछ नहीं करता केवल अनुभवी और योग्य लोगों को काम सौप देता हूं और वे ही सब काम कर देते हैं।
    अपनी सरकार के मंत्रिमण्डल और प्रमुख सचिवों की सूची वे पहले ही तैयार करे बैठे हैं। मंत्रिमण्डल का गठन होते ही उनकी रफ्तार दिखाई देने लगेगी। पर यहां एक प्रश्न हमें खुद से भी करना चाहिए। एक अकेला मोदी क्या कश्मीर से क्न्या कुमारी और कच्छ से आसाम तक की हर समस्या का हल फौरन दे सकते हैं। शायद देवता भी यह नहीं कर सकते। इसी लिए गंगा मैया की आरती करने के बाद मोदी ने पूरे देश के हर नागरिक का आह्वान किया कि वे अगर एक कदम आगे बढ़ाएंगे तो देश सवा सौ करोड़ कदम आगे बढ़ेगा। पिछले कुछ वर्षों में कुछ निहित स्वार्थों ने, जीवन में दोहरे मापदण्ड अपनाते हुए देश के लोकतंत्र को पटरी से उतारने की भरपूर कोशिश की। उन्हें देश विदेश से भारी आर्थिक सहायता मिली और उन्हें गलतफहमी हो गई कि मोदी के रथ को रोक देंगे। पर खुद उनका ही पत्ता साफ हो गया। उनका ही नहीं 10 साल से सत्ता में रही कांग्रेस का पत्ता साफ हो गया। दरअसल इस देश की जनता को एक मजबूत इरादे वाले नेतृत्व का इंतजार था। श्रीमती इंदिरा गांधी के बाद आज तक देश को ऐसा नेतृत्व नहीं मिला। इसलिए देश मोदी के पीछे खड़ा हो गया। सांसद तो राजीव गांधी के मोदी से ज्यादा जीत कर आए थे। पर एक भले इन्सान होने के बावजूद राजीव गांधी राजनैतिक नासमझी, अनुभवहीनता, कोई राजनैतिक लक्ष्य का न होने के कारण अधूरे मन से राजनीति में आए थे। उन्हें स्वार्थी मित्र मण्डली ने घेर लिया था। इसलिए जल्दी विफल हो गए। जबकि नरेन्द्र मोदी के पास अनुभव, समझ, विश्वसनीयता, कार्यक्षमता और पूर्व निधारित स्पष्ट लक्ष्य है। इसलिए उनकी सफलता को लेकर किसी के मन में कोई संदेह नहीं होना चाहिए। हां यह तभी होगा जब हर नागरिक राष्ट्रनिर्माण के काम में, बिना किसी पारितोषिक की अपेक्षा के, उत्साह से जुट़ेगा। ‘साथी हाथ बढ़ाना साथी रे, एक अकेला थक जाएगा मिलकर बोझ उठाना।’ वन्दे मातरम्।

Monday, April 7, 2014

तुम कौन होते हो नसीहत देने वाले

अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठित पत्रिका इकॉनोमिस्ट ने अपने ताजा अंक में भारत के मतदाताओं को आगाह किया है कि वे राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी के बीच राहुल गांधी का चुनाव करें। क्योंकि पत्रिका के लेख के अनुसार मोदी हिन्दू मानसिकता के हैं और 2002 के सांप्रदायिक दंगों के जिम्मेदार हैं। पिछले दिनों मैं अमेरिका के सुप्रसिद्ध हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय में व्याख्यान देने गया था, वहां भी कुछ गोरे लोगों ने नरेंद्र मोदी के नाम पर काफी नाक-भौ सिकोड़ी।
सब जानते हैं कि पिछले 10 वर्षों से अमेरिका ने नरेंद्र मोदी को वीज़ा नहीं दिया है। जबकि अमेरिका में ही मोदी को चाहने वालों की, अप्रवासी भारतीयों की और गोरे नेताओं व लोगों की एक बड़ी भारी जमात है, जो मोदी को एक सशक्त नेता के रूप में देखती है। ऐसी टिप्पणियां पढ़ सुनकर हमारे मन में यह सवाल उठना चाहिए कि हम एक संप्रभुता संपन्न लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं और अपने नेता का चयन करने के लिए स्वतंत्र हैं, तो यह मुट्ठीभर नस्लवादी लोग हमारे देश के प्रधानमंत्री पद के एक सशक्त दावेदार के विरूद्ध ऐसी नकारात्मक टिप्पणियां करके और सीधे-सीधे हमें उसके खिलाफ भड़काकर क्या हासिल करना चाहते हैं ?
    हमारा उद्देश्य यहां नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी की दावेदारी की तुलना करना नहीं है। हम तो केवल कुछ सवाल खड़े करना चाहते हैं, हम मोदी को चुनें या गांधी को, तुम बताने वाले कौन हो ? अगर तुम मोदी पर हिंसा के आरोप लगाते हों, तो 84 के सिख दंगों की बात क्यों भूल जाते हो, हमारे देश की बात छोड़ो, तुमने वियतनाम, ईराक और अफगानिस्तान में जो नाहक तबाही मचाई है, उसके लिए तुम्हारे कान कौन ख्ींाचेगा ? तुम्हें कौन बताएगा कि जिनके घर शीशे के होते हैं, वो दूसरे के घर पर पत्थर नहीं फेंकते। हम मां के स्तन का दुग्धपान करें, तो तुम्हारे उदर में पीड़ा होती है और तुम हमें मजबूरन डिब्बे का दूध पिलाकर नाकारा बना देते हो और छह दशक बाद नींद से जागते हो ये बताने के लिए की मां का दूध डिब्बे से बेहतर होता है। हम गोबर की खाद से खेती करें, तो तुम हमें गंवार बताकर कीटनाशक और रसायनिक उर्वरकों का गुलाम बना देते हों और जब इनसे दुनियाभर में कैंसर जैसी बीमारी फैलती हैं, तो तुम जैविक खेती का नारा देकर फिर अपना उल्लू सीधा करने चले आते हो। हम नीबू का शर्बत पिएं, छाछ या लस्सी पिएं, बेल का रस पिएं, तो तुम्हें पचता नहीं, तुम जहरघुला कोलाकोला व पेप्सी पिलाओ, तो हम वाह वाह करें।
    तुम मोदी को हिंदू मानसिकता का बताकर नाकारा सिद्ध करना चाहते हो, पर भूल जाते हो कि यह उसी हिंदू मानसिकता का परिणाम है कि आज पूरी दुनिया योग और ध्यान से अपने जीवन को तबाही से बचा रही है। उसी आयुर्वेद के ज्ञान से मेडिकल साइंस आगे बढ़ रही है। उसी गणित और नक्षत्रों के ज्ञान से तुम्हारा विज्ञान सपनों के जाल बुन रहा है। तुम मानवीय स्वतंत्रता के नाम पर जो उन्मुक्त समाज बना रहे हों, उसमें हताशा, अवसाद, परिवारों की टूटन और आत्महत्या जैसी सामाजिक आपदाएं बढ़ती जा रही हैं, जबकि हिंदूवादी पारंपरिक परिवार व्यवस्था हजारों वर्षों से फल-फूल रही है। इसलिए कोई हिंदूवादी होने से अयोग्य कैसे हो सकता है, यह समझ से परे की बात है। क्या तुमने अपने उन बहुसंख्यक युवाओं से पूछने की कोशिश की है कि दुनिया के तमाम देशों को छोड़कर वो भारत में शांति की खोज में क्यों दौड़े चले आते हैं ?
ऐसा नहीं है कि हिंदू मानसिकता में या नरेंद्र मोदी में कोई कमी न हो और ऐसा भी नहीं है कि पश्चिमी समाज में कोई अच्छाई ही न हो। पर तकलीफ इस बात को देखकर होती है कि तुम गड्ढे में जा रहे हो, तुम्हारा समाज टूट रहा है, नाहक कर्जे में डूब रहा है, पर्यावरण का पाश्विक दोहन कर रहे हो और फिर भी तुम्हारा गुरूर कम नहीं होता। तुम क्यों चैधरी बनते हो ? क्या तुमने नहीं सुना कि अंधे और लंगड़े मित्र ने मिलकर कैसे यात्रा पूरी की। अगर कहा जाए कि हमारी संस्कृति लंगड़ी हो गई है, तो हमें शर्म नहीं आएगी, पर ये कहा जाए कि तुम अंधे होकर दौड़ रहे हो, तो तुम्हें भी बुरा नहीं लगना चाहिए। तुम्हारी प्रबंधकीय क्षमता और हमारी दृष्टि और सोच का अगर मधुर मिलन हो, तो विश्व का कल्याण हो सकता है।
चुनाव के बाद नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे या राहुल गांधी या कोई और, यह फैसला तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का मतदाता करेगा। पर तुम्हें अपना रवैया बदलना चाहिए। नरेंद्र मोदी परंपरा और आधुनिकता का समन्वय लेकर चलने की कोशिश कर रहे हैं। अपने तरीके से राहुल गांधी भी इसी रास्ते पर हैं। हां, दोनों के अनुभव और उपलब्धियों में भारी अंतर है। अगर इस वक्त देश के युवाओं को मोदी से उम्मीद नजर आती है, तो वे मोदी को मौका देंगे। अगर मोदी उनकी उम्मीदों पर खरे उतरे, तो ली क्वान या कमाल अतातुर्क की तरह हिन्दुस्तान की तस्वीर बदलेंगे और अगर उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे, समय को नहीं पहचाना, योग्य-अयोग्य लोगों के चयन में भूल कर गए, तो सत्ता से बाहर भी कर दिए जाएंगे। पर यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की खूबी है कि हम बिना खूनी क्रांति के सत्ता पलट देते हैं। पर तुम जिन देशों की मदद के लिए अपने खजाने लुटा देते हो, वे आज तक लोकतंत्र की देहरी भी पार नहीं कर पाए हैं। पहले उनकी हालत सुधारों, हमें शिक्षा मत दो। हम अपना अच्छा बुरा सोचने में सक्षम हैं और हमने बार-बार यह सिद्ध किया है। आज से 40 वर्ष पहले जब श्रीमती इंदिरा गांधी ने लौह महिला बनकर पश्चिम को चुनौती दी थी, तब भी तुम इतना ही घबराए थे। आज नरेंद्र मोदी के प्रति तुम्हारा एक तरफा रवैया देखकर उसी घबराहट के लक्षण नजर आते हैं। डरो मत, पूरी दुनिया की मानवजाति की तरक्की की सोचो। उसे बांटने और लूटने की नहीं, तो तुम्हें घबराहट नहीं, बल्कि रूहानी सुकून मिलेगा। ईश्वर तुम्हें सद्बुद्धि दें।

Monday, March 31, 2014

कोई नहीं समझा पाया कि विकास का अर्थ क्या है

चुनाव के पहले दौर के मतदान में सिर्फ दस दिन बचे हैं | विभिन्न दलों के शीर्ष नेता दिन में दो-दो तीन-तीन रैलियां कर रहे हैं | इनमे होने वाले भाषणों में, इन सब ने, किसी बड़ी बात पर बहस खड़ी करने की हरचंद कोशीश की लेकिन कोई सार्थक बहस अब तक शुरू नहीं हो पाई | चुनाव पर नज़र रखने वाले विश्लेषक और मीडिया रोज़ ही शीर्ष नेताओं की कही बातों का विश्लेषण करते हैं और यह कोशिश भी करते हैं कि कोई मुद्दा तो बने | लेकिन ज्यादातर नेता एक दूसरे की आलोचना के आगे नहीं जा पाए | जबकि मतदाता बड़ी उत्सुकता से उनके मुह से यह सुनना चाहता है कि सोलहवीं लोकसभा में बैठ कर वे भारतीय लोकतंत्र की जनता के लिए क्या करेंगे ?

यह बात मानने से शायद ही कोई मना करे कि पिछले चुनावों की तरह यह चुनाव भी उन्ही जाति-धर्म-पंथ-बिरादरी के इर्दगिर्द घूमता नज़र आ रहा है | हाँ कहने को विकास की बात सब करते हैं | लेकिन हद कि बात यह है कि मतदाता को साफ़-साफ़ यह कोई नहीं समझा पाया कि विकास के उसके मायने क्या हैं ? जबकि बड़ी आसानी से कोई विद्यार्थी भी बता सकता है कि सुख सुविधाओं में बढ़ोतरी को ही हम विकास कहते हैं | और जब पूरे देश के सन्दर्भ में इसे नापने की बात आती है तो हमें यह ज़रूर जोड़ना पड़ता है कि कुछ लोगों की सुख-सुविधाओं की बढ़ोतरी ही पैमाना नहीं बन सकता | बल्कि देश की समग्र जनता की सुख-समृधी का योग ही पैमाना बनता है | यानी देश की आर्थिक वृधी और विकास एक दुसरे के पर्याय नहीं बन सकते | अगर किसी देश ने आर्थिक वृद्धि की है तो ज़रूरी नहीं कि वहां हम कह सकें कि विकास हो गया या किसी देश ने आर्थिक वृद्धि नहीं की तो ज़रूरी नहीं कि कहा जा सके कि विकास नहीं हुआ |

मुश्किल यह है कि हमारे पास इस तरह के विश्लेषक नहीं है कि पैमाने ले कर बैठें और विकास की नापतौल करते हुए आकलन करें | हो यह रहा है कि विश्लेषक और मीडिया उन्ही लोक-लुभावन अंदाज़ में लगे हैं जिनसे अपने दर्शकों और पाठकों को भौचक कर सकें | जबकि देश का मतदाता इस समय भौचक नहीं होना चाहता | वह इस समय संतुष्ट या असंतुष्ट नहीं होना चाहता | बल्कि वह कुछ जानना चाहता है कि उसके हित में क्या हो सकता है ? यानि वह किसे वोट देकर उम्मीद लगा सकता है ? अब सवाल उठता है कि क्या कोई ऐसी बात हो सकती है कि जिसे हम सरलता से कह कर एक मुद्दे के तौर पर तय कर लें | और इसे तय करने के लिए हमें लोकतान्त्रिक व्यवस्था के मूल उद्देश्य पर नज़र दौड़ानी पड़ेगी |

लोकतंत्र के लक्ष्य का अगर बहुत ही सरलीकरण करें तो उसे एक शब्द में कह सकते हैं – वह है ‘संवितरण’ | यानी ऐसी व्यवस्था जो उत्पादित सुख-सुविधाओं को सभी लोगों में सामान रूप से वितरित करने की व्यवस्था सुनिश्चित करती हो | वैसे गाहे-बगाहे कुछ विद्वान और विश्लेषक समावेशी विकास की बात करते हैं लेकिन वह भी किसी आदर्श स्तिथि को मानते हुए ही करते हैं | यह नहीं बताते कि समावेशी विकास के लिए क्या क्या नहीं हुआ है या क्या क्या हुआ है या क्या क्या होना चाहिए |

इस लेख को सार्थक बनाने की ज़िम्मेदारी भी मुझ पर है | ज़ाहिर है कि लोकसभा चुनाव की पूर्व संध्या या पूर्व सप्ताह में यह सुझाव देना होगा कि विभिन्न राजनितिक दल मतदाताओं से क्या वायदा करें ? इसके लिए मानवीय आवश्यकताओं की बात करनी होगी | यह बताना होगा कि मानवीय आवश्यकताओं की एक निर्विवाद सूची उपलब्ध है जिसमें सबसे ऊपर शारीरिक आवश्यकता यानी भोजन-पानी, उसके बाद सुरक्षा और उसके बाद प्रेम आता है | अगर इसी को ही आधार मान लें तो क्या यह नहीं सुझाया जा सकता कि जो सभी को सुरक्षित पेयजल, पर्याप्त भोजन, बाहरी और आंतरिक सुरक्षा और समाज में सौहार्द के लिए काम करने का वायदा करे उसे भारतीय लोकतंत्र का लक्ष्य हासिल करने का वायदा माना जाना चैहिये | अब हम देख लें साफ़ तौर पर और जोर देते हुए ऐसा वायदा कौन कर रहा है | और अगर कोई नहीं कर रहा है तो फिर ऐसे वायदे के लिए हम व्यवस्था के नियंताओं पर दबाव कैसे बना सकते हैं ? यहाँ यह कहना भी ज़रूरी होगा कि जनता प्रत्यक्ष रूप से यह दबाव बनाने में उतनी समर्थ नहीं दिखती | यह काम उन विश्लेषकों और मिडिया का ज्यादा बनता है जो जनता की आवाज़ उठाने का दावा करते हैं |

चुनाव में समय बहुत कम बचा है | दूसरी बात कि इस बार चुनाव प्रचार की शुरुआत महीने दो-महीने नहीं बल्कि दो साल पहले हो गयी हो वहां काफी कुछ तय किया जा चुका है | अब हम उन्ही मुद्दों पर सोचने मानने के लिए अभिशप्त हैं जो नेताओं ने इस चुनावी वैतरणी को पार करने के लिए हमारे सामने रखे | स्तिथियाँ जैसी हैं वहां मतदाताओं के पास ताकालिक तौर पर कोई विकल्प तो नज़र नहीं आता फिर भी भविष्य के लिए सतर्क होने का विकल्प उसके पास ज़रूर है |

Monday, March 24, 2014

पानी के सवाल से क्यों बचते हैं राजनैतिक दल



चुनाव का बिगुल बजते ही राजनैतिक दल अब इस बात को ले कर असमंजस में हैं कि जनता के सामने वायदे क्या करें ? यह पहली बार हो रहा है कि विपक्ष के दलों को भी कुछ नया नहीं सूझ रहा है। क्योंकि विरोध करके जितनी बार भी सरकारें हराई और गिराई गईं उसके बाद जो नई सरकार बनीं, वो भी कुछ नया नहीं कर पाई। हाल ही में दिल्ली के चुनाव में केजरीवाल सरकार की जिस तरह की फजीहत हुई उससे तमाम विपक्षीय दलों के सामने यह सबसे बड़ी दिक्कत यह खड़ी हो गयी है कि इतनी जल्दी जनता को नये सपने कैसे दिखाये ?

अपने इसी कॉलम में हमने मुद्दाविहीन चुनाव के बारे में लिखा था और उसकी जो प्रतिक्रियाएं आई हैं, उन्होंने फिर से इस बात को जरा बारिकी से लिखने के लिए प्रेरित किया है।
आमतौर पर देश की जनता को केन्द्र सरकार से यह अपेक्षा होती है कि वह देश में लोक कल्याण की नीतियां तय कर दे और उसके लिए आंशिक रूप से धन का भी प्रावधान कर दे। विकास का बाकी काम राज्य सरकारों को करना होता है। पर केंद्र सरकार की सीमायें यह होती हैं कि उसके पास संसाधन तो सीमित होते हैं और जन आकांक्षाएं इतनी बढ़ा दी जाती हैं कि नीतियों और योजनाओं का निर्धारण प्राथमिकता के आधार पर हो ही नहीं सकता। फिर होता यह है कि सभी क्षेत्रों में थोड़े-थोड़े संसाधनों को आवंटित करने की ही कवायद हो पाती है। अब तो यह रिवाज ही बन गया है और इसे ही संतुलित विकास के सिद्धांत का हवाला दे कर चला दिया जाता है। हालांकि इस बात में भी कोई शक नहीं कि चहुंमुखी विकास की इसी तथाकथित पद्धति से हमारे हुक्मरान अब तक जैसे-तैसे हालात संभाले रहे हैं और आगे की भी संभावनाओं को टिकाए रखा गया है। इन्हीं संभावनाओं के आधार पर जनता यह विचार कर सकती है कि आगामी चुनाव में सरकार बनाने की दावेदारी करने वाले दलों और नेताओं से हम क्या मांग करें?
पूरे देश में पिछले 40 वर्षों से लगातार भ्रमण करते रहने से यह तो साफ है कि देश की सबसे बड़ी समस्या आज पानी को लेकर है। पीने का पानी हो या सिंचाई के लिए, हर जगह संकट है। पीने के पानी की मांग तो पूरे साल रहती है, पर सिंचाई के लिए पानी की मांग फसल के अनुसार घटती बढ़ती रहती है। पीने का पानी एक तो पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं और है तो पीने योग्य नहीं। चैतरफा विकास के दावों के बावजूद यह मानने में किसी को भी संकोच नहीं होगा कि हमारे देश में आजादी के 67 साल बाद भी स्वच्छ पेयजल की सार्वजनिक प्रणाली का आज तक नितांत अभाव है। पर कोई राजनैतिक दल इस समस्या को लेकर चुनावी घोषणा पत्र में अपनी तत्परता नहीं दिखाना चाहता। क्योंकि जमीनी हकीकत चुनाव के बाद उसे भारी झंझट में फंसा सकती है। आम आदमी पार्टी ने इस मुद्दे को बड़ी चालाकी से भुनाया। फिर उसकी दिल्ली सरकार ने जनता को अव्यवहारिक समाधान देकर गुमराह किया।
यहां यह बात भी उल्लेखनीय है कि स्वच्छ पेयजल का अभाव ही भारत में बीमारियों की जड़ है। यानि अगर पानी की समस्या का हल होता है, तो आम जनता का स्वास्थ्य भी आसानी से सुधर सकता है। मजे की बात यह है कि स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर हर वर्ष भारी रकम खर्च करने वाली सरकारें और इस मद में बड़े-बड़े आवंटन करने वाला योजना आयोग भी पानी के सवाल पर कन्नी काट जाता है। मतलब साफ है कि देश के सामने मुख्य चुनौती जल प्रबंधन की है। इसीलिए एक ठोस और प्रभावी जल नीति की जरूरत है। जिस पर कोई राजनैतिक दल नहीं सोच रहा। इसलिए ऐसे समय में जब देश में आम चुनाव के लिए विभिन्न राजनैतिक दलों के घोषणा पत्र बनाये जाने की प्रक्रिया चल रही है, पानी के सवाल को उठाना और उस पर इन दलों का रवैया जानना बहुत जरूरी है।
आम आदमी पार्टी की बचकानी हरकतों को थोड़ी देर के लिए भूल भी जाएं, तो यह देखकर अचम्भा होता है कि देश के प्रमुख राजनैतिक दल पानी के सवाल पर ज्यादा नहीं बोलना चाहते, आखिर क्यों ? क्योंकि अगर कोई राजनीतिक दल इस मुद्दे को अपने घोषणापत्र में शामिल करना चाहे तो उसे यह भी बताना होगा कि जल प्रबंधन का प्रभावी काम होगा कैसे और वह नीति क्रियान्वित कैसे होगी ? यही सबसे बड़ी मुश्किल है, क्योंकि इस मामले में देश में शोध अध्ययनों का भारी टोटा पड़ा हुआ है।
जाहिर है कि चुनावी घोषणापत्रों में पानी के मुद्दे को शामिल करने से पहले राजनीतिक दलों को इस समस्या के हल होने या न होने का अंदाजा लगाना पड़ेगा, वरना इस बात का पूरा अंदेशा है कि यह घोषणा चुनावी नारे से आगे नहीं जा पाएंगे। इस विषय पर विद्वानों ने जो शोध और अध्ययन किया है, उससे पता चलता है कि सिंचाई के अपेक्षित प्रबंध के लिए पांच साल तक हर साल कम से कम दो लाख करोड़ रूपए की जरूरत पड़ेगी। पीने के साफ पानी के लिए पांच साल तक कम से कम एक लाख बीस हजार करोड़ रूपए हर साल खर्च करने पड़ेंगे। दो बड़ी नदियों गंगा और यमुना के प्रदूषण से निपटने का काम अलग से चलाना पड़ेगा। गंगा का तो पता नहीं लेकिन अकेली यमुना के पुनरोद्धार के लिए हर साल दो लाख करोड़ रूपए से कम खर्च नहीं होंगे। कुलमिलाकर पानी इस समस्या के लिए कम से कम पांच लाख करोड़ रूपए का काम करवाना पड़ेगा। इतनी बड़ी रकम जुटाना और उसे जनहित में खर्च करना एक जोखिम भरा काम है, क्योंकि असफल होते ही मतदाता का मोह भंग हो जाएगा।
पानी जैसी बुनियादी जरूरत का मुद्दा उठाने से पहले मैदान में उतरे सभी राजनैतिक दलों को इस समस्या का अध्ययन करना होगा। पर हमारे राजनेता चतुराई से चुनावी वायदे करना खूब सीख गए हैं। जिसका कोई मायना नहीं होता।
पानी की समस्या का हल ढूढने की कवायद करने से पहले इन सब बातों को सोचना बहुत जरूरी होगा। आज स्थिति यह है कि राजनैतिक दल बगैर सोचे समझे वायदे करने के आदि हो गए हैं। एक और प्रवृत्ति इस बीच जो पनपी है, वह यह है कि घोषणापत्रों में वायदे लोकलुभावन होने चाहिए, चाहें उन्हें पूरा करना संभव न हो। इसलिए चुनाव लड़ने जा रहे राजनैतिक दलों को पानी का मुद्दा ऐसा कोई लोकलुभावन मुद्दा नहीं दिखता। हो सकता है इसीलिए उन मुद्दों की चर्चा करने का रिवाज बन गया है जिनकी नापतोल ना हो सके या उनके ना होने का ठीकरा किसी और पर फोड़ा जा सके। जबकि पानी, बिजली और सड़क जैसे मुद्दे बाकायदा गंभीर हैं और इन क्षेत्रों में हुई प्रगति या विनाश को नापा-तोला जा सकता है। पर चुनाव के पहले कोई राजनैतिक दल आम जनता की इस बुनियादी जरूरत पर न तो बात करना चाहता है और न वायदा ही।

Monday, March 10, 2014

देश का मतदाता भ्रम में

भारत के लोकतंत्र के सामने जबर्दस्त चुनौती खड़ी हो गई है। कोई कह सकता है कि संसदीय लोकतंत्र में चुनावी महीनों में ऐसा दिखना स्वाभाविक है। 65 साल पुराने भारतीय लोकतंत्र में हर पांच साल में ऐसी अफरा-तफरी मचना वैसे तो कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन इस बार लगता है कि ऐसा कुछ हो गया है कि आगे का रास्ता वाकई चुनौती भरा है।
पिछले दिनों दिल्ली विधानसभा चुनाव और उसके बाद त्रिशंकु विधानसभा के भयावह नतीजे पूरे देश ने देखे हैं। दिल्लीवासी तो खुद को राजनीतिक ठगी का शिकार हुआ महसूस कर रहे हैं और अब लोकसभा चुनाव के पहले दिल्ली की पुर्नरावृत्ति करने की कोशिशें अभी भी हो रही है। खासतौर पर केजरीवाल ने जिस तरह से हलचल मचा रखी है, उससे तो लगता है कि देश का मतदाता अब पूरी तरह से भ्रमित होने की स्थिति में है।
वैसे भारतीय चुनावी लोकतंत्र के इतिहास में यह पहला मौका है कि चुनाव के ऐलान के बाद भी यह साफ नहीं हो पा रहा है कि इस बार का चुनाव किस प्रमुख मुद्दे पर लड़ा जाना है ? पिछले दो साल से भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश में जैसा माहौल बनाया गया था, उसकी भी अपनी धार खत्म हो गई है। महंगाई भी एक शाश्वत मुद्दे जैसा ही अपना असर रखता है, जिसे आज हम प्रमुख मुद्दा नहीं मान सकते। बेरोजगारी मुद्दा बन सकता था, लेकिन सत्तारूढ़ यूपीए ने इस मामले में पिछले 10 साल से एड़ी से चोटी तक दम लगा रखा है। मनरेगा और विकास की दूसरी परियोजना को वह आजमा चुका है। जाहिर है कि विपक्ष के दल इस मुद्दे को शायद ही छूना चाहें। हां केजरीवाल की पार्टी जरूर है, जो नई है और दिल्ली से पिण्ड छुड़ाने के बाद वह कुछ भी दावा कर सकती है, लेकिन दिल्ली की नाकामी के बाद अब उसकी भी हैसियत वादे या दावे करने की उतनी नहीं बची और फिर अपनी धरना प्रदर्शन वाली प्रवृत्ति से ऊपर उठने या आगे जाने की उसकी कुव्वत दिखाई नहीं देती।
ले-देकर एक ही शासक और अस्पष्ट धारणा का मुद्दा बचता है, जिसे विकास कहा जाता है। यह मुद्दा सार्थक है भी इसीलिए क्योंकि इसे परिभाषित करने में भारी मुश्किल आती है। अभी दो हफ्ते पहले तक किसी मुद्दे को लेकर एक बड़े विपक्षीय दल भाजपा ने गुजरात माॅडल के नाम पर इसे जिंदा बनाए रखा था, लेकिन पिछले तीन दिनों में केजरीवाल ने जिस तरह ताबड़तोड़ ढंग से मोदी के खिलाफ अभियान चलाया। उसमें उन्होंने कम से कम एक संदेह तो पैदा कर ही दिया है। यह बात अलग है कि कांग्रेस सालभर से वही बातें कर रही थी, लेकिन केंद्र में सत्तारूढ़ होने के कारण उसके प्रतिवाद का कोई असर ही नहीं था। मीडिया पिछले सालभर से मोदी, गुजरात का विकास और भाजपा की पुर्नस्थापना के विषय में जिस तरह की मुहिम चलाता रहा है, उसके बाद वह फौरन उल्टी बात करने की स्थिति में कैसे आ सकता था। जाहिर है कि केजरीवाल के गुजरात दौरे का प्रचार सिर्फ बौद्धिकस्तर पर संभव था ही नहीं और इसीलिए केजरीवाल ने सनसनीखेज और हठयुग का रास्ता अपनाना ठीक समझा और इसका असर भी हुआ। पिछले दो दिन से एक से एक बड़ी और महत्वपूर्ण घटनाएं छूट गईं और केजरीवाल के हंगामे, योगेन्द्र यादव के मुंह पर कालिख, भाजपा के दफ्तर में आशुतोष का हंगामा, कार्यकर्ताओं द्वारा तोड़फोड़ वगैरह-वगैरह ही खबरों में बने रहे। चुनाव आयोग द्वारा चुनाव के ऐलान के बाद राजनीतिक कर्म और चुनाव संबंधी दूसरी बातों का अचानक गायब हो जाना भारतीय लोकतंत्र के सामने क्या वाकई बहुत बड़ी चुनौती नहीं है ?
अगर अनुमान लगाने बैठे तो आज की स्थिति में मतदाता के सामने फैसला लेने लायक तथ्यों का टोटा पड़ा हुआ है। उसके सामने सबकुछ खराब-खराब परोस दिया गया है और बता दिया गया है कि अगर ये खाओगे तो पछताओगे। लेकिन उसे ये कोई नहीं बता पाता कि वह खाये क्या यानि किसी के पास भविष्य की ऐसी कोई योजना दिखाई नहीं देती। जिससे वह अपने घोषणा पत्र में रखकर आश्वस्त हो सके। इस आधार पर हम अनुमान लगा सकते हैं कि विभिन्न राजनैतिक दलों के चुनावी घोषणा पत्र वायदों की लम्बी-लम्बी लिस्ट वाले होंगे। जिनमें मतदाता को यह तय करना ही मुश्किल पड़ जाएगा कि कौन-सा राजनैतिक दल प्रमुख रूप से क्या वायदा कर रहा है। मसलन, युवाओं की बात होगी, महिलाओं की बात होगी, गरीबों की बात होगी और ऐसी ही सब पुरानी बातें होंगे, जिन्हें हर बार अपनाया जाता है, तो क्या हम यह मानें कि भारतीय लोकतंत्र की राजनीति में ऐसी दिमागी मुफलिसी आ गई है कि हम अपनी समस्याओं की पहचान तक नहीं कर पा रहे हैं। और उससे भी बड़ी बात कि हम बार-बार अपनी समय सिद्ध लोकतांत्रिक व्यवस्था में संदेह बढ़ाते ही चले जा रहे हैं। चलिए किसी भी मौजूदा व्यवस्था में संदेह पैदा कर देने का कोई सकारात्मक पहलू भी हो सकता है, लेकिन यह तब कितना खतरनाक होगा, जब हम हाल के हाल यह न बता पाते हों कि वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था क्या हो सकती है ? क्योंकि कहते हैं कि कुछ भी हो, कोई भी समाज राजनीतिक शून्यता की स्थिति में पलभर भी नहीं रह सकता।

Monday, March 3, 2014

फिर गठबंधन की मजबूरियों पर टिकी राजनीति

यानी गठबंधन की राजनीती से अभी भी छुटकारा मिलता नही दिखता | गठजोड़ की मजबूरियां पिछले दो दशकों से जतायी जा रही हैं | पिछले कटु अनुभवों के बाद इस बार लगता था कि दो ध्रुवीय राजनीति फिर से शक्ल ले लेगी | लेकिन खास तौर पर अभी सिर्फ दो महीने पहले ऐसा दीखता था कि छोटे छोटे क्षेत्रीय दलों का महत्व खत्म हो चला है | मगर उदित राज और पासवान के दलों से भाजपा ने जिस तरह का समझौता किया उससे बिलकुल साफ़ है कि गठबंधन की राजनीति अप्रासंगिक नहीं हुई है बल्कि और ज्यादा महत्वपूर्ण समझी जा रही है |

यहाँ हमें यह भी देखना पड़ेगा कि भाजपा को आखिर इसकी इतनी ज़रूरत क्यों पड़ी | भाजपा के विरोधी दल तो बाकायदा यह समझाने में लगे हैं कि अगर मोदी का माहौल इतना ज़बरदस्त था तो इन गठबंधनों से उसने अपनी कमजोरी उजागर क्यों की | कहते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव ऐसी चीज़ है कि कोई भी पूरे विश्वास के साथ चुनाव में उतर ही नहीं पाता | दो तीन महीने के चुनावी प्रचार के इतिहास को देखें तो भाजपा के सामने यह सवाल उठाया जाता रहा है कि अकेले वह 272 का आंकड़ा लाएगी कहाँ से | अबतक जितने भी सर्वेक्षण हुए हैं और मोदी के पक्षकारों ने जितने भी हिसाब लगाये हैं उसके हिसाब से ज्यादा से ज्यादा 230 हद से हद 240 को पार करने की बात किसी ने नहीं बताई | यानी बिना दूसरे दलों के समर्थन के बगैर बहुमत के जादूई आंकड़े को छूने की कोई स्तिथि बनती दीखती ही नहीं थी | ऐसे में अगर भाजपा ने गठबंदन के लिए कोशिशें जारी रखीं तो यह स्वाभाविक ही है | यह बात अलग है कि पिछले दो तीन महीने के चुनावी प्रचार में भाजपा ने ऐसा माहौल बनाये रखा कि देश में मोदी कि लहर है | ऐसा माहौल बनाये रखना भारतीय लोकतंत्र की चुनावी परंपरा में हमेशा होता आया है | सामान्य अनुभव यह है कि देश के एक–तिहाई से ज्यादा वोटर बहुत ज्यादा माथापच्ची नहीं करते और माहौल के साथ हो लेते हैं | बस एक यही कारण नज़र आता है कि भाजपा की चुनावी रणनीति में माहौल बनाने का काम धुंधाधाड़ तरीके से चला और मीडिया ने भी जितना हो सकता था, उसे हवा दी | लेकिन इन छोटे छोटे दलों से गठबंधन के काम ने उस हवा को या उस माहौल को कुछ नुक्सान ज़रूर पहुँचाया है | हालांकि भाजपा को नुक्सान की बात कहना उतना सही भी नहीं होगा | क्योंकि बात यहाँ लहर या माहौल के नुक्सान की तो हो सकती है पर वास्तविक स्तिथि को देखें तो इससे कितना ही कम सही लेकिन कुछ न कुछ फायदा ज़रूर होगा |

क्योंकि भाजपा को घेरने वाले लोग हमेशा यह सवाल उठाते हैं कि भाजपा अटल बिहारी वाजपयी के अपने स्वर्णिम काल में भी जादूई आंकड़े के आसपास भी नहीं पहुंची थी | और वह तो 20-22 दलों के गठबंधन का नतीजा था कि भाजपा के नेतृत्व में राजग सरकार बना पायी थी | इसी आधार पर गैर भाजपाई दल यह पूछते रहते हैं कि आज की परिस्तिथी में दूसरे कौन से दल हैं जो भाजपा के साथ आयेंगे | इसके जवाब में भाजपा का कहना अब तक यह रहा है कि आगे देखिए जब हम सरकार बनाने के आसपास पहुँच रहे होंगे तो कितने दल खुद-ब-खुद हमारे साथ हो लेंगे | यह बात वैसे तो चुनाव के बाद की स्तिथियों के हिसाब से बताई जाती है लेकिन चुनाव के पहले बनाए गए माहौल का भी एक असर हो सकता है कि छोटे छोटे दल मसलन पासवान या उदित राज भाजपा की ओर पहले ही चले आये | अब स्तिथी यह बनती है कि और भी दलों या नेताओं को चुनाव के पहले ही कोई फैसला लेने का एक मौका मिल गया है | उन्हें यह नहीं लगेगा कि वे अकेले यह क्या कर रहे हैं |

कुलमिलाकर छोटे छोटे क्षेत्रीय दलों का भाजपा की ओर ध्रुविकरण की शुरुआत हो गयी है | एक रासायनिक प्रक्रीया के तौर पर अब ज़रूरत उत्प्रेरकों की पड़ेगी | बगैर उत्प्रेरकों के ऐसी प्रक्रियाएं पूरी हो नहीं पातीं | ये उत्प्रेरक कौन हो सकते हैं ? इसका अनुमान अभी नहीं लगाया जा सकता | अभी तो चुनावों की तारीखों का एलान भी नहीं हुआ | महीनों से चल रही उम्मीदवारों की सूची बनाने का पहाड़ जैसा काम कोई भी दल निर्विघ्न पूरा नहीं कर पा रहा है | जबतक स्थानीय या क्षेत्रीय स्तर पर ये समीकरण ना बैठा लिए जाएं तब तक दूसरे दलों से गठबंधन का कोई हिसाब बन ही नहीं पाता | इसीलिए हफ्ते – दोहफ्ते भाजपा के पक्ष में गठजोड़ की प्रक्रिया बढ़ाने वाले उत्प्रेरक सामने आयेंगे ऐसी कोई संभावना नहीं दिखती |

वैसे भाजपा के अलावा प्रमुख दलों की भी कमोवेश येही स्तिथि है | मसलन लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस को अपना हिसाब भेज दिया है | लेकिन कांग्रेस की ओर से जवाब ना आने से वहां भी गठजोड़ों की प्रक्रिया रुकी सी पड़ी है | खैर अभी तो चुनावी माहौल का ये आगाज़ है | हफ्ते-दोहफ्ते में चुनावी रंग जमेगा | 

Monday, July 22, 2013

नरेन्द्र मोदी के बयानों से क्यों भड़कती है कांग्रेस ?

हैदराबाद के लाल बहादुर शास्त्री स्टेडियम की क्षमता 50,000 है और नरेन्द्र मोदी की आगामी जनसभा के लिए इतने ही युवाओं ने उनका संभाषण सुनने के लिए 5 रूपये प्रति व्यक्ति की दर से टिकट खरीद लिये हैं। अब इस पर कांग्रेस प्रवक्ता टिप्पणी कर रहे हैं कि नरेन्द्र मोदी की कीमत बॉलीवुड सिनेमा की टिकटों के  मुकाबले कुछ भी नहीं है। जबकि ये टिकटें 300 रूपये से ज्यादा की बिकती हैं। कितनी हास्यादपद बात है। कद्दू का मुकाबला सेब से किया जा रहा है। उस दौर में जब हर राजनैतिक दल को  भीड़ जुटाने के लिए लोगों को 300 रूपये रोज, आने -जाने का किराया, बढ़िया भोजन और शराब भी देनी पड़ती हो, अगर हैदराबाद का पढ़ा- लिखा नौजवान नरेन्द्र मोदी का भाषण सुनने के लिए 5 रूपये भी देने को तैयार हैं, तो इसकी तारीफ की जानी चाहिए, कि नरेन्द्र मोदी राजनीति की संस्कृति बदलने की कोशिश कर रहे हैं।

ऐसा ही नरेन्द्र मोदी के हर बयान पर हो रहा है। फिर वो चाहे कार के नीचे पिल्ले वाला बयान हो या धर्मनिरपेक्षता के बुर्के वाला। ऐसा लगता है कि कांग्रेंस नरेन्द्र मोदी के जाल में उलझती जा रही है। ऐजेन्डा मोदी तय कर रहे हैं, कांग्रेस लकीर पीट रही है। यहां ध्यान देने वाली बात यह भी है कि नरेन्द्र मोदी इतने कच्चे खिलाड़ी नहीं कि जो मन में आये अनर्गल प्रलाप करें। वे हर शब्द चुनकर तय करते हैं और एक तीर से कई निशाने साधते हैं। इन बयानों से जहां उन्होंने अपने समर्पित वोट बैंक को अपनी आगामी रणनीति का संकेत दिया है, वहीं विरोधियों को भी कूटनीतिक भाषा में चेतावनी दे डाली। बस कांग्रेस उलझ गई और लगी मोदी पर ताबडतोड़ हमला करने। राजनीति का एक सामान्य सिद्धान्त है कि आप जितना विवादों में रहेंगे, उतनी आपकी चर्चा होगी और आपका जनाधार बढ़ेगा। गुजरात के पिछले हर चुनाव में कांग्रेस ने नरेन्द्र मोदी पर हर तरह का हमला करके देख लिया। पर विजय हर बार मोदी के हाथ लगी। इसलिए आज तक तो मोदी अपनी इस रणनीति में सफल होते नजर आ रहे हैं।

कांग्रेस को चाहिए कि वह मोदी के बयानों पर प्रतिक्रिया देने की बजाय अपनी उपलब्धियों का प्रचार करे। अगर उसकी उपलब्धियां ठोस हैं और जमीनी हकीकत बदलने में कामयाब रही है तो कोई बयानबाजी उसका जनाधार डिगा नहीं पायेंगी। किन्तु अगर नरेगा से लेकर खा़द्य सुरक्षा बिल तक हर योजना कागजों तक सीमित है तो दावे और विज्ञापन जनमानस को प्रभावित नहीं कर पायेंगे। यह सही है कि सत्ता पक्ष के मुकाबले विपक्ष हमेशा फायदे में रहता है क्योंकि सरकार की कमियों पर हमला करना आसान होता है। सरकार जो कुछ भी करे वह जनआकांक्षाओं पर कभी पूरा नहीं उतरता। पर इसके अपवाद वह राज्य सरकारें हैं जो लगातार चुनाव जीतकर सत्ता में आतीं हैं। इसलिए केन्द्रीय सत्ता में शामिल दलों को अपनी दामन में झाँककर देखना चाहिए।

कांग्रेस की एक और दिक्कत है। उसमें कार्यकर्ताओं और छोटे नेताओं की पूछ नहीं होती। ये लोग दशकों तक मेहनत करें पर कभी भी आलाकमान की निगाहों में नहीं चढ़ पाते। बड़े नेताओं के बेटे-बेटी, भाई-भतीजे और बहू-दामाद ही चुनावों में टिकट झपट लेते हैं। ऐसे ही कारणों से उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में कांग्रेस का स्थानीय कार्यकर्ता निष्क्रिय है और नाराज है। जिसका आक्रोश चुनावों में फूटता है। जो स्थानीय स्तर पर दूसरे दलों के उम्मीदवारों से समझौते कर अपने दल के उम्मीदवारों को हरवा देता है। जबकि दूसरी तरफ पिछले दिनों नरेन्द्र मोदी के चुनावी कमान संभालते ही जो भाजपा में माहौल बना उससे लगा कि बारात सजने से पहले ही बिखर जायेगी। पर जिस कुशलता से नरेन्द्र मोदी ने 65 नेताओं की टीम को एकजुट कर  अपनी सेना तैयार की है उससे तो लगता है कि यह चुनौती भी कांग्रेस को भारी पड़ेगी।

नरेन्द्र मोदी के बयानों पर भड़कने का कांग्रेस का एक और भी स्वभाविक कारण है। कांग्रेस के पास नरेन्द्र मोदी की कद काठी  और तेवर का कोई नेता नहीं है या उसे उभरने नहीं दिया गया। मजबूरन कांग्रेस के युवा नेताओं को नरेन्द्र मोदी के हर बयान का जवाब बढ़ चढ़कर देना पड़ रहा है। उन्हें डर है कि उनकी शब्दावली में कहीं ये ‘‘फेंकू‘‘  नेता अपने बयानों से बाजी न मार ले जाए। इसलिए वे हाथों-हाथ जवाब देते हैं। पर इससे संदेश यही जा रहा है कि कांग्रेस मोदी के लगातार हो रहे हमलों से हड़बड़ाई हुई है। उसे डर है कि कहीं मोदी की रणनीति गुजरात की तरह देश में भी काम न कर जाये।

चुनाव जब भी हो और परिणाम जो भी हो आज दिन तो ऐसा लगता है कि मोदी ने चुनाव का ऐजेन्डा सेट करने की भूमिका निभानी शुरू कर दी है। पर यह तेवर, नए-नए मुद्दे और आक्रामक शैली क्या मोदी चुनावों तक अपना पायेंगे ? अगर नहीं, तो परिणाम इण्डिया शाइनिंग की तरह हो सकते हैं। अगर अपना ले गए तो अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव की तरह इतिहास रच जायेंगे। क्योंकि तब मतदाता दलों और उनके नेताओं के इतिहास को भूलकर देश में एक सशक्त नेतृत्व की आकांक्षा से वोट करेगा। क्या होगा यह तो वक्त ही बताएगा।

Monday, January 30, 2012

इन चुनावों में असली मुद्दे गायब

पाँच राज्यों में हो रहे चुनावों में अलग-अलग राजनैतिक दलों ने अपने घोषणा पत्र में अपने कार्यक्रमों की घोषणा कर दी है। हमेशा की तरह सपने दिखाये जा रहे हैं। कोई विजन की बात कर रहा है तो कोई मन्दिर बनाने की। हकीकत यह है कि अब किसी भी राजनैतिक दल में कोई गहरा वैचारिक मतभेद नहीं बचा है। यूँ दिखाने को नारे, झण्डे और प्रतीक भले ही अलग-अलग हैं पर सब की कार्यशैली लगभग एक सी है। मतदाता जानता है कि इन वायदों में गंभीरता नाम मात्र की होती है। इसलिये चुनावी घोषणापत्र मतदाता को उत्साहित नहीं करते। जो उसके मुद्दे हैं उनकी बात कोई नहीं करता। यही कारण है कि आधे मतदाता तो मतदान केन्द्र तक भी नहीं जाते। हालांकि उन्हें जाना चाहिये, तभी तो राजनैतिक दलों के नेतृत्व पर उनका दबाव बनेगा।

अगर असली मुद्दों की बात करें तो पंजाब में इस वक्त किसानों की हालत खराब है। जो पंजाब कभी हरित क्रान्ति का नेतृत्व कर रहा था, वहाँ के किसान आज कर्ज के बोझ तले दबे हैं। फसल अब मुनाफे का सौदा नही रही। चार रूपये किलो की उत्पादन लागत वाला आलू एक रूपये किलो बिका। रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अन्धाधुन्ध प्रयोग ने पंजाब की कृषि भूमि की उत्पादकता इतनी घटा दी कि अब  खेती करना घाटे का सौदा हो गया है। पंजाब के किसानों ने सबमर्सिबिल पम्प लगाकर जमीन के नीचे के पानी को इस बुरी तरह बहाया कि आज पाँच नदियों के लिये मशहूर पंजाब की जमीन के नीचे का भूजल स्तर तेजी से घट रहा है। पंजाब की सत्ता के लिये दावेदार प्रमुख दलों ने इस समस्या के हल के लिये क्या रणनीति बनायी है ? बैंक के कर्जे माफ करना, सस्ती दर पर ऋण देना या खाद और कीटनाशकों पर सब्सिडी देना, इस समस्या का हल नहीं है। हल तो पहले से मौजूद था। पर पश्चिम की नकल और जल्दी ज्यादा पैदा करने की हविश ने हमारी पारंपरिक खेती को खत्म कर दिया। अब समाधान उस तरफ लौट कर ही होगा। गाय के गोबर में ही वह क्षमता है कि भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ा सके। पर जिस देश में इस वैज्ञानिक ज्ञान को भी अन्धविश्वास बता कर उपेक्षा की गयी हो और गायों के कत्लखाने खोलकर गौवंश की लगातार नृशंस हत्या की जा रही हो, उस देश में कृषि और किसानों की दुर्दशा को कोई राहत नहीं दूर कर सकती। पर कोई भी राजनैतिक दल ऐसे बुनियादी समाधानों को बढ़ावा नहीं देता। क्योंकि अगर लोगों को यह बता दिया जाये कि गाय-बैल पालकर तुम अपनी खेती को धीरे-धीरे फिर से बढ़िया बना सकते हो, तो फिर रासायनिक खाद के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में जो अरबों रूप्ये का कमीशन खाया जाता है, उसकी गुंजायश कहाँ बचेगी ?

पिछला पूरा साल देश का शहरी नागरिक भ्रष्टाचार के सवाल पर सक्रिय रहा। ऐसा लगा कि कुछ हल निकाला जायेगा। पर सभी दल एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहे। किसी ने भी समाधान की तरफ कोई ठोस पहल नहीं की। नतीजा यह कि अब बढ़-चढ़ कर यह दावा किया जा रहा है कि इन चुनावों में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है। बेशक जिस तरह राजनेता एक-दूसरे के भ्रष्टाचार पर हंगामा खड़ा करते रहे हैं, वैसे हंगामे में मतदाता की कोई रूचि नहीं। उसे तो यह बात काटती है कि सरकारी विभागों के कर्मचारियों से साधारण सी सेवाओं के लिये भी उसे रोज जूझना पड़ता है। क्या किसी भी घोषणापत्र में इसका समाधान बताया गया है ?

हर शहर में कूड़े के पहाड़ बनते जा रहे हैं। जेएनआरयूएम जैसे अरबों रूपये के पैकेज लेने वाले शहर भी अपने नागरिकों को नारकीय स्थिति में जीने पर मजबूर कर रहे हैं। क्या किसी घोषणापत्र में इस बात की चिन्ता व्यक्त की गयी है कि हुक्मरानों के बंगलों जैसे ठाठ-बाट न भी हों, तो भी कम से कम साफ और स्वस्थ वातावरण में नागरिकों को जीने का हक तो मिलना चाहिये ? ऐसा नहीं है कि इन समस्याओं के समाधान संभव नही हैं। समाधान हैं पर राजनैतिक इच्छा शक्ति नहीं है।

नौजवानों को तकनीकी और प्रबन्धकीय शिक्षा देने के नाम पर हर शहर में इंजीनियरिंग, मेडिकल, मैनेजमैंट कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की कुकुरमुत्ते की तरह फसल उग आयी है। रोजगार की तलाश में भटकने वाले लाखों निम्न मध्यमवर्गीय नौजवान अपने माता-पिता की खून-पसीने की कमाई को देकर इन संस्थानों से डिग्रियाँ हासिल कर रहे हैं। पर पेट काट कर, लाखों रूपया फीस देकर भी इन संस्थानों से निकलने वाले युवा न तो कुछ खास सीख पाते हैं और न ही नौकरी के बाजार में सफल होते हैं। कारण इन शिक्षा संस्थानों को चलाने वालों ने इन्हें नोट छापने का कारखाना बना दिया है। न तो फैकल्टी में गुणवत्ता है और न ही संस्थान के पास समुचित पुस्तकालय और अन्य साधन। एमबीए की डिग्री लेने वाले साड़ी की दुकान में सेल्समैन की नौकरी कर रहे हैं। इन संस्थानों के पीछे छुपा है एक बड़ा शिक्षा माफिया। जिसे राजनैतिक बाहुबलियों का संरक्षण प्राप्त है। नौजवानों को रोजगार की गारण्टी का लुभावना वायदा देने की बजाय अगर उन्हें ऊँचे दर्जे की किन्तु सस्ती और सुलभ शिक्षा उपलब्ध करवायी जाये तो वे खुद अपने पैरों पर खड़े हो सकते हैं। पर यह सोच किसी राजनैतिक दल की नहीं है।

ऐसे तमाम बुनियादी सवाल हैं जिन पर ईमानदारी से कदम बढ़ाने की जरूरत है। अगर ऐसा हो तो उन लोगों का जीवन सुखी और समृद्ध हो जिन्हें चुनावी मौसम में भेड़-बकरी समझ कर वायदों का चारा फैंका जाता है। काश ऐसा हो पाता।