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Monday, April 29, 2024

बाबा रामदेव क्यों फँसे?

1989 में जब मैंने देश की पहली हिन्दी वीडियो समाचार कैसेट ‘कालचक्र’ जारी की तो उसमें तमाम खोजी रिपोर्ट्स के अलावा एक स्लॉट भ्रामक विज्ञापनों को भी कटघरे में खड़े करने वाला था। ये वो दौर था जब प्रभावशाली विज्ञापन सिनेमा हॉल के पर्दों पर दिखाए जाते थे या दूरदर्शन के कार्यक्रमों के बीच में। उस दौर में इन कमर्शियल विज्ञापनों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाने का प्रचलन नहीं था। इस दिशा में देश के कुछ जागरूक नागरिकों को बड़ी कामयाबी तब मिली जब उन्होंने सिगरेट बनाने वाली कंपनियों को मजबूर कर दिया कि वो सिगरेट की डिब्बी पर ये छापें ‘सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है’। 

चूँकि ज़्यादातर विज्ञापन प्रिंट मीडिया में छपते थे और मीडिया कोई भी हो बिना विज्ञापनों की मदद के चल ही नहीं पता। इसलिए मीडिया में भ्रामक विज्ञापनों के विरुद्ध प्रश्न खड़े करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। उस पीढ़ी के जागरूक देशवासी जानते हैं कि हमारी कालचक्र वीडियो मैगज़ीन ने अपनी दमदार व खोजी टीवी रिपोर्ट्स के कारण पहला अंक जारी होते ही देश भर में तहलका मचा दिया था। जो काम देश के बड़े-बड़े स्थापित मीडिया घराने करने की हिम्मत नहीं दिखा पाए वो हिम्मत कालचक्र की हमारी छोटी सी जुझारू टीम ने कर दिखाया। उत्साह जनक बात यह थी कि देश भर के हर भाषा के मीडिया ने कालचक्र के हर अंक को अपने प्रकाशनों की सुर्ख़ियाँ बनाया। 


उस दौर में जिन विज्ञापनों पर हमने सीधा लेकिन तथ्यात्मक हमला किया उसकी कुछ रिपोर्ट्स थीं, ‘नमक में आयोडीन का धंधा’, ‘नूडल्स  खाने के ख़तरे’, ‘झागदार डिटर्जेंट का कमाल’, ‘प्यारी मारुति - बेचारी मारुति’ आदि। ज़ाहिर है कि हमारी इन रिपोर्ट्स से मुंबई के विज्ञापन जगत में हड़कंप मच गया और हमें बड़ी विज्ञापन कंपनियों से प्रलोभन दिए जाने लगे, जिसे हमने अस्वीकार कर दिया। क्योंकि हमारी नीति थी कि हम जनहित में ऐसे विज्ञापन बना कर प्रसारित करें जिनमें किसी कंपनी के ब्रांड का प्रमोशन न हो बल्कि ऐसी वस्तुओं का प्रचार हो जो आम जनता के लिए उपयोगी हैं। उदाहरण के तौर पर हमने एक विज्ञापन की स्क्रिप्ट लिखी, ‘भुना चना खाइए - सेहत बनाइए। हर गली मोहल्ले में मिलता है, भुना चना - टनटना’। पर हमारी यह नीति ज़्यादा चल नहीं पाई। देश के ताकतवर लोगों ने फ़िल्म सेंसर बोर्ड के माध्यम से हमें परेशान करना शुरू कर दिया। 

निजी टेलिविज़न मीडिया की अनुपस्थिति में, उस दौर में सरकार की स्पष्ट नीति न होने के कारण हमारी समाचार वीडियो पत्रिका को फिक्शन यानी काल्पनिक कथा के समान मान कर हमें प्री-सेन्सरशिप से होकर गुज़रना पड़ता था। 

इस पूरे ऐतिहासिक घटनाक्रम का बाबा रामदेव के संदर्भ में यहाँ उल्लेख करना इसलिए ज़रूरी था ताकि यह तथ्य रेखांकित किया जा सके कि देश में झूठे दावों पर आधारित भ्रामक विज्ञापनों की शुरू से भरमार रही है। जिन्हें न तो मीडिया ने कभी चुनौती दी और न ही कार्यपालिका, न्यायपालिका या विधायिका ने। लोकतंत्र के ये चारों स्तंभ आम जनता को भ्रमित करने वाले ढेरों विज्ञापनों को देख कर भी आँखें मींचे रहे और आज भी यही स्थिति है। बाबा रामदेव के समर्थन में सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने ऐसे विज्ञापनों की सूची प्रसारित की है जिनके दावे भ्रामक हैं। जैसे त्वचा का रंग साफ़ करने वाली क्रीम या फलों के रसों के नाम पर बिकने वाले रासायनिक पेय या सॉफ्ट ड्रिंक पी कर बलशाली बनने का दावा या बच्चों के स्वास्थ्य को पोषित करने वाले बाल आहार, आदि। 

मेरे इस लेख का उद्देश्य न तो बाबा रामदेव और आचार्य बालाकृष्ण के उन दावों का समर्थन करना है जो आजकल सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन हैं। न ही ऐसे भ्रामक दावों के लिए बाबा रामदेव और आचार्य बालकृष्ण को कटघरे में खड़ा करना है। इसलिए नहीं कि ये दोनों ही से मेरे निःस्वार्थ गहरे आत्मीय संबंध हैं बल्कि इसलिए कि ऐसी गलती देश की तमाम बड़ी-बड़ी कंपनियाँ अपने उत्पादनों को लेकर दशकों से करती आई हैं। तो फिर पतंजलि को ही कटघरे में खड़ा क्यों किया जाए? एक ही जैसे अपराध को नापने के दो अलग मापदंड कैसे हो सकते हैं?

‘निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय’ की भावना से बाबा रामदेव के सार्वजनिक जीवन के उन पक्षों को रेखांकित करना चाहता हूँ जिनके कारण, मेरी नज़र में आज बाबा रामदेव विवादों में घिरे हैं। इस क्रम में सबसे पहला विवाद का कारण है, उनका संन्यासी भेष में हो कर व्यापार करना। अलबत्ता आज यह कार्य सदगुरु, श्री श्री रवि शंकर, इस्कॉन व स्वामी नारायण जैसे अनेकों धार्मिक संगठन भी कर रहे हैं, जो धर्म की आड़ में व्यापारिक गतिविधियाँ भी चला रहे हैं। चूँकि बाबा रामदेव ने योग और भारतीय संस्कृति के बैनर तले अपनी सार्वजनिक यात्रा शुरू की थी और आज उनका पतंजलि, साबुन, शैम्पू, बिस्कुट, कॉर्नफ्लेक्स जैसे तमाम आधुनिक उत्पाद बना कर बेच रहा है, जिनका योग और वैदिक संस्कृति से लेना देना नहीं है। अगर बाबा रामदेव की व्यापारिक गतिविधियों बहुत छोटे स्तर पर सीमित रहतीं तो वे किसी की आँख में न खटकते। पर उनका आर्थिक साम्राज्य दिन दुगुनी और रात चौगुनी गति से बढ़ा है। इसलिए वे ज़्यादा निगाह में आ गये हैं। 

साधु सन्यासियों को राजनीति से दूर इसलिए रहना चाहिए क्योंकि राजनीति वो काल कोठरी है जिसमें, ‘कैसो ही सयानों जाए - काजल का दाग भाई लागे रे लागे’। बाबा रामदेव ने अपने आंदोलन की शुरुआत तो भ्रष्टाचार और काले धन के विरुद्ध की थी पर एक ही राजनैतिक दल से जुड़ कर वे अपनी निष्पक्षता खो बैठे। इसीलिए वे आलोचना के शिकार बने। 

आंदोलन की शुरुआत में बाबा ने अपने साथ देश के तमाम क्रांतिकारियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी जोड़ा था। इससे उनकी विश्वसनीयता भी बढ़ी और जनता का उन पर विश्वास भी बढ़ा। पर केंद्र में अपने चहेते दल के सत्ता में आने के बाद बाबा उन सारे मुद्दों और क्रांतिकारिता को भी भूल गए। शुद्ध व्यापार में जुट गये। इससे उनका व्यापक वैचारिक आधार भी समाप्त हो गया। अगर वे ऐसा न करते और धन कमाने के साथ जनहित के लिए चलाए जा रहे आंदोलनों और प्रकल्पों को उनकी आवश्यकता अनुसार थोड़ी-थोड़ी  आर्थिक मदद भी करते रहते तो उनका जनाधार भी बना रहता और योग्य व जुझारू समर्थकों की फ़ौज भी उनके साथ खड़ी रहती। जहां तक बाबा की आर्थिक गतिविधियों से संबंधित विवाद हैं या उनके उत्पादों की गुणवत्ता से संबंधित सवाल हैं उन पर मैं यहाँ टिप्पणी नहीं कर रहा हूँ। मुझे लगता है कि आयु, क्षमता और ऊर्जा को देखते हुए बाबा रामदेव में इस देश का भला करने की आज भी असीम संभावनाएँ हैं अगर वे अपने तौर-तरीक़ों में वांछित बदलाव कर सकें।  

Monday, January 8, 2024

रियुमोटाइड आर्थराइटिस: इलाज संभव है?

सोशल मीडिया के दुरुपयोग के मामले अक्सर सामने आते रहते हैं। पिछले तीन वर्षों से फ़ेसबुक पर एक विज्ञापन चल रहा है जिसमें दावा किया जाता है कि, चर्चित पत्रकार विनीत नारायण के घुटनों के दर्द का सफल इलाज। विज्ञापन देने वाले ने मेरे घुटनों के दर्द की कहानी बता कर अपनी दवा और इलाज का प्रमोशन किया है। मैं कितना चर्चित हूँ या गुमनाम हूँ यह विषय नहीं है। पर इस हिन्दी विज्ञापन के कारण आए दिन हिन्दी भाषी राज्यों के मेरे परिचितों के फ़ोन मुझे आते रहते हैं जो यह जानना चाहते हैं कि क्या वाक़ई इस इलाज से मेरे घुटने ठीक हो गये? मेरा जवाब सुन कर उन्हें धक्का लगता है क्योंकि वे इस विज्ञापन पर यक़ीन कर बैठे थे और कुछ ने तो इलाज भी शुरू कर दिया था। मेरा उनको जवाब होता है कि मैं ख़ुद हैरान हूँ इस विज्ञापन से। क्योंकि मैंने ऐसी किसी व्यक्ति से अपना इलाज कभी नहीं कराया। ये नितांत झूठा विज्ञापन है। अगर मुझे उस व्यक्ति का पता मिल जाए तो मैं उसके विरुद्ध क़ानूनी करवाई अवश्य करूँगा। 


ये सही है कि पिछले तीन वर्षों से मुझे घुटनों में दर्द की शिकायत है। जो कभी बढ़ जाता है तो कभी ग़ायब हो जाता है। ऐसा दर्द शरीर के अन्य जोड़ो में भी कभी-कभी होता रहता है। यह दर्द घुटनों के कार्टिलेज के घिसने वाला दर्द नहीं है, जो प्रायः हमारी उम्र के लोगों को हो जाता है। इस बीमारी का नाम है ‘रियुमोटाइड आर्थराइटिस’ जिसे आयुर्वेद में आमवात रोग कहते हैं। यह एक क़िस्म का गठिया रोग है। ये क्यों, किसे और कब होता है इसका कोई स्पष्ट कारण पता नहीं हैं। पर चिंता की बात यह है कि ये काफ़ी लोगों को होने लगा है। यहाँ तक कि किशोरों में भी अब यह रोग काफ़ी पाया जाने लगा है। इसमें अक्सर जोड़ो में सूजन आ जाती है। जो दो दिन से लेकर दस दिन तक चलती है और भयंकर पीड़ा देती है। रात में यह दर्द और बढ़ जाता है। कभी-कभी सारी रात जाग कर काटनी पड़ती है। 


मरता क्या न करता। इस रोग के शिकार दर-दर भटकते हैं। अगर आप यूट्यूब पर जाएँ तो रियुमोटाइड आर्थराइटिस का इलाज बताने वाले दर्जनों शो मिल जाएँगे, जो प्राकृतिक चिकित्सा, होम्योपैथी, आयुर्वेद और एलोपैथी में इसका अचूक इलाज होने का दावा करते हैं। 



ये लेख मैं अपनी राम कहानी बताने के लिए नहीं लिख रहा बल्कि अपना अनुभव साझा करने के लिए लिख रहा हूँ जिससे, जिन्हें ये रोग है उन्हें कुछ दिशा मिल सके। पारंपरिक रूप से मेरा एलोपैथी में विश्वास नहीं रहा है। हालाँकि हर बीमारी के एलोपैथी के उत्तर भारत के मशहूर डॉक्टरों से मेरे व्यक्तिगत संपर्क रहे हैं, फिर भी मैं उनसे इलाज कराने से बचता रहा हूँ। 


इसलिए तीन वर्ष पहले जब मुझे पहली बार इस रोग ने हमला किया तो मैं भाग कर वृंदावन के मशहूर होमियोपैथिक डॉक्टर प्रमोद कुमार सिंह को दिखाने हवाई जहाज़ से पूना गया। क्योंकि उन दिनों वे निजी कारणों से पूना में थे। उन्होंने एक घंटे मुझ से सवाल-जवाब किए और एक पुड़िया होम्योपैथी की मीठी गोलियों की दी। जिसको खाने के चौबीस घंटों में मेरी सारी सूजन और दर्द चला गया। मैंने बड़ी श्रद्धा और विश्वास से छह महीने उनसे इलाज करवाया। हाँ उनके बताए दो काम मैं नहीं कर सका। एक तो नियमित प्राणायाम करना और दूसरा एक घंटे रोज़ धूप में बैठना। 



इन छह महीनों में स्थिति काफ़ी नियंत्रण में रही। लेकिन फिर भी कभी-कभी जोड़ों की सूजन बढ़ जाती थी। तो मैंने आयुर्वेद का इलाज कराने का निश्चय किया। हालाँकि डॉ प्रमोद कुमार सिंह पर मेरा विश्वास आज भी क़ायम है और वो पिछले हफ़्ते ही मुझसे कह रहे थे कि अगर मैं एक डेढ़ साल लग कर उनका इलाज कर लूँ तो वे मुझे पूरी तरह से ठीक कर देंगे। 


आयुर्वेद का इलाज कराने मैं जयपुर जा पहुँचा। वहाँ आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य रहे डॉ महेश शर्मा ने मेरा इलाज शुरू किया। छह महीने तक मैंने उनकी सभी दवाएँ नियम से लीं। साथ ही उनके बताए परहेज़ भी काफ़ी निष्ठा से किए। जिसका मतलब था कि खाने में गेहूं, चावल, मैदा, चीनी और दूध के पदार्थों का निषेध और दालों में केवल मूँग और मसूर की दाल। ग़ज़ब का फ़ायदा हुआ। मैं इतना ठीक हो गया कि चाट-पकौड़ी और दही बड़े तक खाने लगा। जब डॉक्टर साहब को उनकी प्रशंसा में यह बताया तो उनका कहना था कि, आम वात रोग राख में दबी चिंगारी की तरह होता है, आप ज़रा सी लापरवाही करेंगे तो फिर बढ़ जाएगा। छह महीने बाद उन्होंने मुझे दवा देना बंद कर दिया यह कह कर कि मेरी तरफ़ से इलाज पूरा हुआ। उसके बाद मैं काफ़ी समय तक ठीक रहा। परंतु शाकाहारी होते हुए कई बार ख़ान-पान का अनुशासन तोड़ देता था। परिणाम वही हुआ जो उन्होंने कहा था। बीमारी फिर बढ़ गई। 



मेरे परिवेश में जितने भी लोग हैं वे मेरी मान्यताओं से इत्तिफ़ाक़ नहीं रखते। उनका कहना है कि आज के युग में जब हवा-पानी, ख़ान-पान सब अशुद्ध हैं और खाद्य पदार्थों पर कीटनाशक दवाओं और रासायनिक उर्वरकों का भारी दुष्प्रभाव है तो होम्योपैथी, आयुर्वेद या प्राकृतिक चिकित्सा के कड़े नियमों का पालन करना लगभग असंभव है। इन पद्धतियाँ में कोई कमी नहीं है। किंतु हमारी परिस्थिति, दिनचर्या और ख़ान-पान हमें इनके नियमों का पालन नहीं करने देते। इसलिए इनका पूरा व सही लाभ नहीं मिल पाता। इन सब मित्रों और परिवारजनों का आग्रह था कि मैं एलोपैथी डॉक्टर से इलाज करवाऊँ, तो मैंने दिल्ली के ‘इंडियन स्पाइनल इंजरिज़ अस्पताल’ के मशहूर डॉक्टर संजीव कपूर को दिखाया। जिन्हें मैं दो बरस पहले दिखा चुका था, पर इलाज नहीं किया था। ये उन्हें याद था। वे बोले, आप देश के प्रबुद्ध व्यक्ति हैं। आपके विचारों और लेखों का आमजन पर प्रभाव पड़ता है। फिर आप हमारी पद्धति पर शक क्यों करते हैं? हमारे पास दुनिया का सर्वश्रेष्ठ इलाज है और रियुमोटाइड आर्थराइटिस की हर अवस्था का हम इलाज कर सकते हैं। आप आश्वस्त रहिए हम आपका कष्ट दूर कर देंगे। अब मैंने उनका इलाज शुरू कर दिया है। उम्मीद है उनका दावा सही निकलेगा और मैं शेष जीवन इस कष्ट के बिना जी पाऊँगा जो मेरी भाग-दौड़ की सामाजिक ज़िंदगी के लिए बहुत ज़रूरी है।   

Monday, May 25, 2020

अब आगे की सोचें

लॉकडाउन से सबने ये समझ लिया है कि कोरोना के साथ कैसे जीना है। धीरे धीरे कई राज्य लॉकडाउन में ढील देते जा रहे हैं। प्रवासी मज़दूरों की घर लौटने की भीड़ देश के हर महानगर व अन्य नगरों में व शराब की दुकानों के बाहर लगी लम्बी लाइनें इस बात का प्रमाण है कि लोगों के धैर्य का बांध अब टूट चुका है। बहुत से लोग मानते हैं कि लॉकडाउन के चलते कोरोना से नहीं मरे तो भूख और बेरोज़गारी से लाखों लोग अवश्य मर जाएँगे। इसलिए जो भी हो इस क़ैद से बाहर निकला जाए और चुनौती का सामना किया जाए। 

जिनके पास घर बैठे खाने की सुविधा है और जिनका लॉकडाउन से कोई आर्थिक नुक़सान नहीं हो रहा उन्हें इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि लॉकडाउन कितने दिन अभी और चले।

उधर देश भर से तमाम सूचनाएँ आ रही हैं कि जिस तरह का आतंक कोरोना को लेकर खड़ा हुआ या किया गया वैसी बात नहीं है। पारम्परिक पद्धतियों जैसे होमियोपैथी और आयुर्वेद ने बहुत सारे कोरोना पोज़िटिव लोगों को बिना किसी महंगे इलाज के ठीक किया। इन चिकित्सा पद्धतियों के विशेषज्ञों ने भी ऐसे कई दावे किए हैं जो सोशल मीडिया पे वायरल हो रहे हैं। और इसी बीच पिछले हफ़्ते विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्यक्ष ने एक धमकी भरी चेतावनी जारी की जिसका सार यह था कि इन पारम्परिक इलाजों से कोरोना का कोई मरीज़ ठीक नहीं हो सकता और वो इसे तभी मानेंगे जब ऐसा दावा करने वाले जान-बूझ कर कोरोना का इंफ़ेक्शन लें और फिर ठीक हो कर दिखाएं। उनकी यह चेतावनी उसी अहंकार और अज्ञानता का प्रमाण है जिसके चलते अनेक मोर्चों पर अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने पूरब के सदियों पुराने पारम्परिक ज्ञान का उपहास किया, उसे नष्ट करने की कुत्सित चालें चली और विज्ञान के नाम पर मानव जाति के साथ नए नए हानिकारक प्रयोग किए। जिन्हें बाद में रद्द करना पड़ा। जैसे माँ के दूध की जगह डिब्बे का दूध और गोबर की खाद की जगह कीटनाशक और रासायनिक उर्वरक। पहले थोपे और फिर इन्हें हानिकारक बता कर हटाया। 

जहां तक हम भारतीयों की बात है मैं हमेशा से इस बात पर ज़ोर देता आ रहा हूँ कि भारत का पारम्परिक भोजन, पर्यावरण से संतुलन पर आधारित जीवन, पारम्परिक औषधियाँ और विकेंद्रित अर्थव्यवस्था से ही हम सशक्त राष्ट्र बन पाएँगे। रही बात कोरोनापूर्व के आधुनिक जीवन की तो कोरोनापूर्व वाला जीवन तो लौटने वाला नहीं। न उत्सवों में वैसी भीड़ जुटेगी, न वैसा पर्यटन होगा, न वैसे मेलजोल होंगे और न वैसी चमक दमक की ज़िंदगी। कुछ महीनों या कुछ सालों तक सब सावधान रहते हुए सादगीपूर्ण जीवन जीने का प्रयास करेंगे। 

1978 में जब मैं दिल्ली पढ़ने आया था तो किसी मंत्री या नेता के घर के चारों ओर न तो चार दिवारी होती थी, न सुरक्षा के इतने तामझाम । पर बढ़ते आतंकवाद और अपराध ने शासकवर्ग को हज़ारों किलों में क़ैद कर दिया है। इसी तरह न्यू यॉर्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की इमारतों पर आतंकवादी हमले के बाद से हवाई अड्डों पर सुरक्षा अचानक ही कई गुना बढ़ा दी गई। जिसका असर पूरी दुनिया में हुआ। शुरू में तो अटपटा लगा फिर लोगों ने सुरक्षा जाँच उपकरणों से गुजरने के लिए लम्बी लम्बी क़तारों में धीरज से खड़े रहने की आदत डाल ली। 

इसी तरह पूरी दुनिया पर हुए कोरोना के अभूतपूर्व हमले के बाद अब भविष्य में लोग एक दूसरे से हाथ मिलाने, गले मिलने और एक दूसरे के घर जाने में भी संकोच करेंगे। चेहरे पर मास्क, बार बार साबुन से हाथ धोना और सामाजिक दूरी बना कर व्यवहार करना, जैसी आज अटपटी लग रही बातें आने वाले दिनों में हमारे सामान्य व्यवहार का हिस्सा होंगी। इसी तरह अब लोग एक दूसरे को उपहार देने या फल, मिठाई और प्रसाद देने में भी संकोच करेंगे।ऐसे सब लेन-देने ऑनलाइन पैसे के ट्रांसफ़र से ही कर लिए जाएँगे। इसी तरह छोटे बच्चों को स्कूल भेजने में माँ बाप डरेंगे और इसलिए सारी दुनिया में ऑनलाइन शिक्षा पर ज़ोर दिया जा रहा है।जहां तक सम्भव होगा दफ़्तर का काम भी लोग घर से ही करना चाहेंगे। जिससे कम से कम सामाजिक सम्पर्क हो। 

इस नई कार्य संस्कृति और जीवन पद्धति से सबसे ज़्यादा लाभ तो नष्ट हो चुके पर्यावरण का होगा। क्योंकि प्रदूषणकारी गतिविधियाँ काफ़ी कम हो जाएँगी। लेकिन इसका बहुत बड़ा असर लोगों के मनोविज्ञान पर होगा। अनेक शोध प्रपत्रों में यह बात कही जा रही है कि इस तरह ऑनलाइन काम करने या पढ़ाई करने से लोगों के व्यवहार में चिड़चिड़ापन, क्रोध और हताशा बढ़ेगी। बच्चे जब स्कूल जाते हैं तो अपने सहपाठियों से मिल कर मस्त हो जाते हैं। वे एक दूसरे के अनुभवों से सीखते हैं। खेलकूद से उनका शरीर बनता है और शिक्षकों के प्रभाव से उनके व्यक्तित्व का विकास होता है। ये सब उनसे छिन जाएगा तो कल्पना कीजिए कि हमारी अगली पीढ़ी के करोड़ों नौजवान कितने डरे सहमें और असंतुलित बनेंगे। इसलिए विश्व स्तर पर एक बहुत बड़ा तबका ऐसे वैज्ञानिकों, पत्रकारों व राजनेताओं का है जो बार बार इस बात पर ज़ोर दे रहा है कि कोरोना का आतंक फैला कर सरकारें लोकतांत्रिक परम्पराओं को नष्ट कर रही हैं, मानव अधिकारों का हनन कर रही हैं और राजनैतिक सत्ता का सीमित हाथों में नियंत्रण स्थापित कर रही हैं। यानी ये सब सरकारें तानाशाही की ओर बढ़ रही हैं। इस आरोप में कितना दम है ये तो आने वाला समय ही बताएगा। फ़िलहाल हमें कोरोना के इस मायाजाल से काफ़ी समय तक उलझे रहना होगा और अपनी सोच और तौर तरीक़ों में भारी बदलाव लाना होगा।                  

Monday, May 18, 2020

कोरोना से कैसे जीता ये परिवार ?

जब-जब हमने अपनी वैदिक परम्पराओं और ज्ञान की उपेक्षा करके पश्चिम का अंधा अनुकरण किया है। तब-तब हम लुटे, पिटे और बर्बाद हुए हैं। आज कोरोना के आतंक से पूरी दुनिया सहमी हुई है। लेकिन भारत में हर कोने से ऐसी खबरें आ रही हैं कि लोगों ने पारम्परिक अनुभव और ज्ञान का सहारा लेकर कोरोना से जंग जीती है। ऐसे ही एक अनुभव की चर्चा इन दिनों सोशल मीडिया में खूब वायरल हो रही है।   

62 वर्षीय वीरेंद्र के. बंसल दिल्ली के मॉडल टाउन में रहते हैं। देश में लॉक डाउन की घोषणा के बाद इनके पूरे परिवार ने इसका ईमानदारी से पालन किया। घर से कोई भी व्यक्ति सिवाय रोजमर्रा की चीजों के जैसे दूध, सब्ज़ी, दाल, चावल इत्यादि के दो दिनों में एक बार के अलावा घर से बाहर नहीं गया। और इन सब चीजों को घर में लाने के बाद साफ सफाई के सभी नियमों का पालन किया।

वे खुद विशेष तौर से एक बार भी घर के गेट से बाहर नहीं निकले। परंतु पता नहीं कहाँ से इनको 26 अप्रेल 2020 को बुखार हो गया। शुरू में दो तीन दिन बुखार हल्का था, उन्होंने अपने पारिवारिक डाक्टर के कहने पर बुखार के सभी रूटीन टेस्ट भी कराये, पर वो सब नेगेटिव निकले। इसके बाद डाक्टर से पुनः संपर्क करने पर उन्हें कोरोना टेस्ट के लिये बोला गया। बंसल जी इस बात को मानने को तैयार नहीं थे, क्योंकि उन्होंने  लॉकडाउन का सही से पालन किया था। फिर भी 4 मई 2020 को दिल्ली की एक नामी लैब से टेस्ट कराने पर 6 मई को इन्हें कोरोना पोसिटिव निकला। 

श्री बंसल ने तुरंत ही अपने आप को एक अलग कमरे में क्वारंटाइन कर सारे घर से अलग कर लिया। इनके छोटे भाई (57 वर्ष) व माताजी (89 वर्ष) का टेस्ट भी कोरोना पोसिटिव निकला, और वे दोनों भी क्वारंटाइन हो गए।

गौरतलब है कि, सरकारी संस्थाओं से लगातार संपर्क करने पर व प्रधानमंत्री जी को ट्वीट करने पर दिल्ली के हिन्दू राव अस्पताल से एक डाक्टर 9 मई 2020 को अपनी टीम के साथ इन्हें देखने आए। और यह कह गए कि पूरा परिवार पोसिटिव निकलेगा तथा सब के टेस्ट 11 मई 2020 को करा दिए जाएंगे। पर अफसोस की बात है कि 12 मई 2020 तक कुछ नहीं हुआ। पूरे बंसल परिवार ने कोरोना की इस बिमारी को एकजुट होकर 26 अप्रेल 2020 से ही इसे एक चैलेंज के रूप में लिया था। 

बंसल परिवार का सुबह से ही दिन भर का कार्यक्रम शुरू हो जाता ; दिन में दो बार गर्म पानी के नमक डाल कर गरारे, दिन में 4 बार घर पर बना हुआ काढ़ा, दो बार आँवले का गर्म पानी, तीन बार स्टीम, दो बार एक चम्मच हल्दी का दूध, नींबू की गर्म शिकंजी, दो समय नाश्ता और दो बार हल्का खाना।

जब भी बुखार 100 से ऊपर गया, तो वे डोलो 650 की एक गोली ले लेते और कई बार जब बुखार गोली लेने पर भी 102 से नीचे नहीं उतरा तो सर पर ठंडे पानी की पट्टी बुखार हल्का होने तक रखते। इसके साथ ही दिन में दो बार प्राणायाम भी करते।

बंसल जी का कहना है कि ईश्वर की कृपा से इनका बुखार पिछले कई दिनों से नॉर्मल चल रहा है, बिना किसी गोली के। इनके छोटे भाई व माता जी को भी पहले से आराम है। इनके परिवार में 11 सदस्य हैं जिसमें दो छोटी बच्ची तीन व चार साल की भी हैं।

बंसल जी ने सभी से करबद्ध प्रार्थना की है कि कोरोना से घबराएं नहीं इसे एक वायरल बुखार के तौर पर लें। इनके परिवार में किसी को भी सांस की कोई तकलीफ नहीं हुई। हल्की फुल्की खांसी या थोड़ा सा बलगम हुआ जो मौसम बदलने पर भी हो ही सकता है। उनकी सलाह है कि जहां तक सम्भव हो सके अपने आप को कोरोना से बचाइये । लेकिन यदि हो जाये तो हिम्मत से इसका सामना करें और इसको हरायें।

आज जिन सवालों और चुनौतियों को लेकर पूरी दुनियाँ परेशान हैं, उनको और उनके कुछ समाधानों को मैंने 1988 में, शिकागो (अमरीका) में एक वैश्विक सम्मेलन में बताया था। जिस पर तब मुझे वहाँ के टीवी और अख़बारों में छापा गया था। पिछले हफ़्ते अचानक उस सम्मेलन पर आधारित (1989 में अमरीका में छपी) ये पुस्तक पुरानी किताबों में रखी हाथ लगी, जिसमें कई जगह मेरे विचारों को उद्धृत किया गया है। 

वहाँ मेरा ज़ोर पर्यावरण संतुलन, आध्यात्मिक जीवन और भौतिकता की आधुनिक दौड़ पर लगाम कसने पर था। मैंने उनसे कहा था आप अंधे हैं और हम लंगड़े। दोनों मिलकर अगर सफ़र तय करें तो मानव जाति का भला होगा। आप हमें पिछड़ा या विकासशील कहना बंद करो। हमारे पारम्परिक ज्ञान और जीवन शैली से रहना सीखो और हमसे अपना तकनीकी ज्ञान साझा करो। जैसे थर्माकोल की जगह पत्तल और डिब्बे के दूध की जगह माँ का दूध, टॉयलेट पेपर की जगह पानी, रासायनिक खाद की जगह गोबर् की खाद, ताकि पर्यावरण का विनाश न हो। मेरे बोलते ही सम्मेलन में सन्नाटा छा गया। क्योंकि मैंने अपने ग्रामीण अनुभवजन्य विचारों से उनकी उपदेशात्मक शैली में चल रहे भाषणों पर प्रश्न खड़े कर दिए थे। 

इस सम्मेलन में कुल 35 लोग थे। जिनमें कई राष्ट्रों के प्रमुख लोग, विश्व बैंक के अध्यक्ष रहे और वियतनाम युद्ध के ज़िम्मेदार अमरीकी विदेश सचिव (मंत्री) रहे मैकनमारा और तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति बुश की सचिव, दिवंगत राष्ट्रपति जॉन एफ कनेडी की भतीजी और बाद में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के कार्यकाल में राज्यपाल रहीं जैसी बड़ी-बड़ी वैश्विक हस्तियाँ और नईजीरिया, आर्जेंटीना और भारत से हम तीन युवा पत्रकार थे। 

मेरी फटकार का ये असर हुआ कि 1988 के बाद मुझे गोरों ने कभी भाषण देने अमरीका नहीं बुलाया। हाँ अमरीका के भारतीय समाज और वहाँ के मशहूर विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले भारतीय छात्र लगातार बुलाते रहे और मैं जाता रहा। 

कोरोना लाक्डाउन के दौरान वृंदावन के अपने पैतृक निवास पर दिन में पुराने बक्से खोल कर देख रहा हूँ तो 50 साल पुराने भी दस्तावेज और ग्रंथ सामने आ रहे हैं। इसी क्रम में  पिछले हफ़्ते जब एक पुराना बक्सा खोला तो ये ग्रंथ हाथ आया, सोचा आपसे साझा करूँ। 

साथ ही यह भी कहना चाहता हूँ कि गांधी जी के ग्राम स्वराज्य का ही एक मॉडल है जो भारत की आम जनता को सुख, स्वास्थ्य, समृद्धि और सुरक्षा प्रदान कर सकता है। और यह बात हम जैसे लोग दशकों से कहते और लिखते आ रहे हैं। पर आज़ादी के बाद न तो प. नेहरू ने इस पर ध्यान दिया, न उनके बाद आज तक के प्रधान मंत्रियों ने। आज़ाद भारत का राजतंत्र, पश्चिम की चकाचौंध के पीछे दौड़-दौड़ कर विदेश जाता रहा और देश बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और लुटेरों के हाथ लुटवाता रहा। चलो, जब जागो तब सवेरा। देर से ही सही मोदी जी ने भी आज आत्मनिर्भरता के महत्व को समझा है। पर यह तभी सफल हो पाएगा जब हमारे राजनेता, अफ़सर, वैज्ञानिक और हम सब तथाकथित पढ़े लिखे लोग पश्चिम का मोह त्याग कर अपनी जड़ों की ओर लौटेंगे और अपनी सोच और जीवन शैली को वाक़ई स्थानीय संसाधनों पर आधारित आत्मनिर्भर बनाएँगे। 

Monday, April 6, 2020

लौट चलें: क्योंकि हम तो जीना ही भूल गये

उज्जैन के 67 वर्षीय युवा उद्योगपति पिछले तीन दशकों से देश के प्रतिष्ठित मेडीकल कालेजों में जाकर डाक्टरों को स्वस्थ रहने का प्रशिक्षण दे रहे हैं। अरुण ऋषि नाम के यह सज्जन पढ़ाई के नाम पर खुद को बी.एस.सी. फेल बताते हैं, अपने नाम के आगे स्वर्गीय लगाते है, स्वर्गीय लगाने का कारण पूछने पर बताते है कि जो भारत मे रहता है वो भारतीय और जो स्वर्ग में रहता है वो स्वर्गीय। उनके भाषण और साक्षात्कार देश के अखबारों में चर्चा का विषय बनते हैं। हमेशा व्यस्त और मस्त  रहने वाले गुलाबी चेहरे के 67 वर्षीय श्री अरुण ऋषि का दावा है कि उन्होंने पिछले 40 वर्षों में टूथब्रश, टूथपेस्ट, चाय, कॉफ़ी, शेविंग-क्रीम साबुन शैम्पू, सौंदर्य प्रसाधन, कृत्रिम शीतल पेय, पान गुटका धूम्रपान तथा मदिरापान का सेवन नही किया तथा इन अप्राकृतिक साधनों के उपभोग नही करने के कारण वे पिछले 40 वर्षों में एक दिन भी बीमार नही हुए और उन्हें किसी भी प्रकार की दवा का सेवन की आवश्यकता नही पड़ी।

कुछ समय पहले दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के डाक्टरों को ‘सैल्फ मैनेजमेंट’ (अपने शरीर का प्रबंध) विषय पर व्याख्यान देते हुए श्री ऋषि ने डाक्टरों से पूछा कि क्या वे स्वस्थ हैं? उत्तर में जब श्रोता डाक्टरों की निगाहें नीचे हो गयीं तो उन्होंने फिर पूछा कि जब आप खुद ही स्वस्थ नहीं हैं तो अपने मरीजों को स्वस्थ कैसे कर पाते हैं? पहली बार मिलने पर श्री ऋषिजी की बातें बहुत अटपटी और हास्यास्पद लगती हैं, पर जब उन पर गंभीरता से विचार किया जाए तो वह दिमाग को झकझोर देती हैं। यही वजह है कि श्री ऋषि महीने में लगभग 18 दिन देश के प्रतिष्ठित संस्थाओं व बड़े बड़े औद्योगिक घरानों के अधिकारियों व कर्मचारियों के परिवारों को ‘सैल्फ मैनेजमेंट’ एवं हेल्थ मैनेजमेंट विदाउट मेडिसिन पर व्याख्यान देने जाते हैं, अल्प से मानधन पर। समाज की यह सारी सेवा वे अपने धर्मार्थ ट्रस्ट ‘आयुष्मान भव’ के झंडे तले करते हैं। 

उनके शोध और अध्ययन का निचोड़ काफी रोचक है और आम पाठक के बहुत फायदे का है। उनके अनुसार सुबह आठ बजे तक भारतवासी टूथब्रश, टूथपेस्ट, चाय, कॉफ़ी, शेविंग-क्रीम, साबुन, शैम्पू तथा अन्य सौन्दर्य प्रसाधनों पर 900 करोड़ रुपया रोजाना खर्च कर देते हैं। इसके बाद सुबह आठ से रात के सोने तक लगभग 1100 करोड़ रुपया चाकलेट, शीतल पेय, पान, गुटका, सिगरेट बीड़ी व मदिरा पर खर्च कर देते है, इस प्रकार जब हम भारतवासी रोज़ाना 2000 करोड़ रुपये के अप्राकृतिक साधनों के द्वारा ईश्वर की प्रकृति का नाश करते है तो ईश्वर भी हम भारतवासियों की प्रकृति का सत्यानाश कर देता है और फिर हम 3000 करोड़ प्रतिदिन फिर अंग्रेज़ी दवाइयों और इलाज पर जो खर्च कर देते है। इस तरह प्रति दिन 5000 करोड़ रुपया, फालतू की चीजों में बर्बाद करने वाले इस देश पर कुल ऋण है लगभग 85 लाख करोड़ रुपये। इसमें देशी और विदेशी दोनों ऋण शामिल हैं। 

अगर यह बर्बादी खत्म हो जाए तो न सिर्फ तीन वर्ष में सारा ऋण पट जाए बल्कि लोगों का स्वास्थ्य इतना सुधर जाएगा कि स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाला खर्च भी तेजी से घट जाएगा। वैसे भी ये सारी वे चीजें हैं जिनके बिना स्वस्थ, सुंदर व साफ सुथरा रहा जा सकता है। जिसे ऋषि जी पिछले 20 वर्षों से गाँव गाँव शहर  शहर जा कर सिखाते है। आज से 60 वर्ष पहले देश में अप्राकृतिक सौन्दर्य प्रसाधनों का प्रचलत नगण्य था। लोग मिट्टी से हाथ धोते थे, घर के बने मंजन से दांत मांजते थे, तेल, घी या मलाई से मालिश करते थे, रीठे या आंवले से सिर धोते थे तथा चाय काफी की जगह छाछ, लस्सी या दूध पीते थे और पूरी तरह स्वस्थ रहते थे। 

प्राकृतिक वस्तुओं को छोड़कर बाजार की शक्तियों का शिकार बन कर हम अपने स्वास्थ्य और जेब दोनों से हाथ धो रहे हैं। बाजार की ये शक्तियां इतनी चालाक हैं कि इन्होंने आम जनता के मन में पहले तो भ्रम पैदा किया कि प्राकृतिक सौन्दर्य वस्तुयें इस्तेमाल करने वाले गंवार हैं, पिछड़े हैं। यह भी प्रचार किया गया कि प्राकृतिक चीजों का इस्तेमाल आधुनिक जीवन में करना संभव नहीं है। किन्तु जब लगा कि इनके झूठे दावों की पोल खुलने लगी है और पश्चिमी देशों के लोग ही, तमाम आधुनिकता के बावजूद प्रकृतिक जीवन की ओर दौड़ रहे हैं तो यही बाजारी शक्तियां फिर दौड़ पड़ी प्राकृतिक वस्तुओं के उत्पादन को पेटेंट कराने में या उनके डिब्बा बंद पैकेट बनाकर उसी तरीके से तड़क भड़क के साथ बेचने में। 

सोचने की बात है कि हल्दी और नीम जैसे घर घर में मिलने वाले पदार्थ को अमरीका में पेटेंट क्यों कराया गया? ताकि कल को चार आने की हल्दी टीवी पर विज्ञापन दिखाने के बाद 40 रुपये की बेची जा सके। हम पढ़े लिखे मूर्ख फिर भी इनके बहकावे में आ जाते हैं।

हम कैसे बैठकर खाना खायें? क्या खाना खाएं? मल और मूत्र का विसर्जन कैसे करें? ऐसे छोटे छोटे सवालों का वैज्ञानिक जवाब आज के पढ़े लिखे अभिभावकों के पास भी नहीं है। जब खुद ही नहीं जानते तो बच्चों को क्या बताएंगे? जबकि ये सारी वैज्ञानिक जानकारियां हमारे शास्त्रों में भरी पड़ी हैं। उसी जानकारी को एकत्रित करके श्री अरुण ऋषि जैसे लोग आम आदमी के भी समझ में आ सकने योग्य तथा अत्यंत ही रोचक भाषा में देश भर में घूम घूम कर लोगों को समझाने में जुटे हैं। उसे चाहे ये ‘सैल्फ मैनेजमेंट’ कह दें या 'बेटर आर्ट आफ लिविंग’ कहें, कोई फर्क नहीं पड़ता। मूल बात यह है कि हम जीवन जीने के सदियों पुराने और आजमाए हुए तरीकों को अपनाएं, जिन्हें हम बिना समझे छोड़ते जा रहे हैं और बदले में दुख पा रहे हैं। खुद लूट रहे हैं और मुल्क लुट रहा है। अरबों-खरबों रुपये का फायदा कुछ बहुराष्ट्रीय या उनके दलालों की जेब में जा रहा है।

ऐसी ही एक और छोटी सी बात है। हम रोज नंगे पैर मंदिर क्यों जाते थे? वहां ताली बजा कर कीर्तन क्यों करते थे? क्या कभी सोचा हमने? वैज्ञानिक प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ है कि दिन में एक बार कुछ समय के लिये जोरदार ताली बजाने से बहुत से रोग दूर हो जाते हैं। देशी तरीके से उकड़ू बैठ कर खाने और मल विर्सजन करने से खाना अच्छा पचता है और कब्जियत नहीं होती, जोड़ो के दर्द कभी नही होता, जिसका शिकार आज लगभग हर शहरी व्यक्ति बन चुका है। इसी तरह जो पुरुष नीचे बैठ कर मूत्र विसर्जन करते हैं उन्हें प्रोस्टेट कैंसर (पौरुष ग्रन्थि) की बीमारी नहीं होती। कुछ देर तक पथरीली जमीन पर नंगे पैर चलने या पत्थर से पैर के तलुए रगड़कर नहाने से स्वतः ही एक्यूप्रेशर का काम हो जाता है और आदमी स्वस्थ रहता है। इसी तरह नमाज की विभिन्न मुद्राओं में बैठना भी स्वास्थ्य के लिये फायदेमंद होता है। जिसे ऋषि जी बहुत ही सरल और रोचक अंदाज से पढ़ाते है, ताली वादन और नमाज़ पर वे एक शेर भी सुनाते है,

जिस दिन ताली और नमाज़ एक साथ होगी अता ।
बस वही होगा जन्नत का सही पता।।

कितनी अजीब बात है कि जब किसी जानवर का पेट भर जाता है तो आप उसे कितनी भी बढि़या चीज खाने को क्यों न दें, वह मुंह फेर लेता है। जबकि हम इंसान भरे पेट पर भी चार गुलाब जामुन और खाने को तैयार रहते हे। ऐसे नमूने हर घर में मिलेंगे। हम भूल गये हैं कि भूख से कम खाने वाले लोग प्रायः बीमारी नहीं पड़ते, पर भूख से ज्यादा खाने वाले हमेशा बीमार पड़ते हैं।

जिस तरह भजन करते समय बात करने या टीवी देखने से भजन का फल नहीं मिलता उसी तरह भोजन करते समय टीवी देखने या बात करने से भोजन का फल नहीं मिलता। पर सब कुछ जान कर भी हम अनजान बने रहते हैं। आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में भी जो लोग प्राकृतिक जीवन के जितना निकट रहने का प्रयास कर रहे हैं वे तथाकथित आधुनिक लोगों के मुकाबले कहीं ज्यादा स्वस्थ और सुखी रहते हैं और लम्बे समय तक जीते हैं।जिसका अरुण ऋषि जी प्रत्यक्ष उदाहरण है।

जो सांस्कृतिक और आध्यात्मिक ज्ञान हमें विरासत में मिला है उसकी तो हम परवाह नहीं करते, यह सोचते हैं कि हम तो सब जानते हैं ये बेचारे पश्चिमी देश कुछ नहीं जानते इसलिये हमारे यहां आते हैं। पर वही पश्चिमी देश दरिद्र लोगों की तरह दौड़ दौड़ कर हमारी बौद्धिक सम्पदा को बटोरने में जुटे हैं। वे सम्पन्न होते जा रहे हैं और हम कर्ज में डूबते जा रहे हैं। इस तरह हम जो सोने की चिड़िया कहलाते थे, आज विश्व के कंगालतम राष्ट्रों में से एक हो गये। दुख की बात तो यह है कि हमारे पतन और लूट की जो गति आजादी के बाद बढ़ी है, वैसी तो पिछले एक हजार साल में भी नहीं थी।

कोरोना के इस आतंक के इन दिनों ऐसे तमाम सवालों पर गंभीर चिंतन करना होगा कि हमसे क्या भूल हो रही है? ताकि कोरोना के बाद का सवेरा भारत के पुनर्जागरण का सवेरा बने। हम सबकी यही कोशिश होनी चाहिये।

Monday, January 7, 2019

कैसे मुक्त हों अंग्रेजी दवाओं के षड्यंत्र से ?

विश्व स्वास्थ्य संगठन की 1997 की एक रिर्पोट के अनुसार बाजार में बिक रही चैरासी हजार दवाओं में बहत्तर हजार दवाईओं पर तुरंत प्रतिबंध लगना चाहिए। क्योंकि ये दवाऐं हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। लेकिन प्रतिबंध लगना तो दूर, आज इनकी संख्या दुगनी से भी अधिक हो गई है। 2003 की रिर्पोट के अनुसार भारत में नकली दवाओं का धंधा लगभग डेढ़ लाख करोड़ रूपये प्रतिवर्ष हो गया था, जो अब और भी अधिक बढ़ गया है। भारत में मिलने वाली मलेरिया, टीबी. या एड्स जैसी बीमारियों की पच्चीस फीसदी दवाऐं नकली हैं। कारण स्पष्ट है। जब दवाओं की शोध स्वास्थ्य के लिए कम और बड़ी कंपनियों की दवाऐं बिकवाने के लिए अधिक होने लगे, कमीशन और विदेशों में सैर सपाटे व खातिरदारी के लालच में डॉक्टर, मीडिया, सरकार और प्रशासन ही नहीं, बल्कि स्वयंसेवी संस्थाऐं तक समाज का ‘ब्रेनवॉश’ करने में जुटे हों, तब हमें इस षड्यंत्र से कौन बचा सकता है? कोई नहीं। केवल तभी बच सकते हैं, जब हम अपने डॉक्टर खुद बन जाऐं।

जिस वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति का प्रत्येक क्रांतिकारी आविष्कार 10-15 वर्षों में ही नऐ आविष्कार के साथ अधूरा, अवैज्ञानिक व हानिकारक घोषित कर दिया जाता है। उसके पांच सितारा अस्पतालों, भव्य ऑपरेशन थियेटरों, गर्मी में भी कोट पहनने वाले बड़े-बड़े डिग्रीधारी डॉक्टरों से प्रभावित होने की बजाय यह अधिक श्रेष्ठ होगा कि हजारों वर्षों से दादी-नानी के प्रमाणित नुस्खों व परंपराओं में बसी चिकित्सा को समझकर हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें।

जब अपनी खंडित दृष्टि के कारण डॉक्टर औषधि देकर एक नऐ रोग को शरीर में घुसा दें या शरीर में भयंकर उत्पाद पैदा कर दें और शास्त्र की अवैज्ञानिकता को छिपाने के लिए साइड इफैक्ट, रिऐक्शन जैसे शब्द जाल रचें, तब तक अपने आप ‘गिनी पिग’ बनने से बचाने के लिए जरूरी है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें। जब पैथोलॉजिस्ट-डॉक्टर की सांठ-गांठ से बात-बेबात रक्त-जांच, एक्स-रे, सोनोग्राफी, एमआरआई, ईसीजी आदि के चक्कर में फंसा हमसे रूपये ऐंठे जाने लगे, तब मानसिक तनाव से बचने और समय व धन की बर्बादी को रोकने के लिए जरूरी हो जाता है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें।

जिस व्यवस्था में लाखों रूपये खर्च करने पर डॉक्टर बना जाता हो और विशेषज्ञ के रूप में स्थापित होते-होते आयु के 33-34 वर्ष निकल जाते हों, उस व्यवस्था में डॉक्टरों को नैतिकता का पाठ- ‘मरीज को अपना शिकार नहीं भगवान समझें’ पढ़ाने के बजाय यह अधिक जरूरी हो जाता है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें। जब चारों ओर इस प्रकार का वातावरण हो कि डॉक्टर भय मनोविज्ञान का सहारा ले रोगी के रिश्तेदारों की भावनाओं का शोषण करने लगे, तब भय के सौदागरों से बचने के लिए जरूरी हो जाता है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें। जिस व्यवस्था में डॉक्टरों को ऐसी भाषा सिखायी जाऐ, जो आम जनता समझ न सके और इस कारण उन्हें रोगी के अज्ञान का मनमाना लाभ उठाने का भरपूर मौका मिले या दूसरे शब्दों में जिस व्यवस्था में धन-लोलुप भेड़ियों के सामने आम जनता को लाचार भेड़ की तरह जाना पड़ता हो, उस व्यवस्था में खूनी दांतों से आत्मरक्षा के लिए यह बहुत जरूरी है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें।

जिस देश में यूरोपीय-अमरीकी समाज की आवश्यक्ताओं के अनुसार की गई खोजों को पढ़कर डॉक्टर बनते हों और जिन्हें अपने देश के हजार वर्षों से समृद्ध खान-पान और रहन-सहन में छिपी वैज्ञानिकता का ज्ञान न हों, उस देश में स्वास्थ्य के संबंध में डॉक्टरों पर विश्वास करने के बजाय यह अधिक जरूरी हो जाता है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें। जिस दुनिया में कभी डेंगू, कभी एड्स, कभी हाइपेटेटिस बी, कभी चिकनगुनिया, कभी स्वाइन फ्लू के नाम पर आतंक फैलाकर लूटा जाता हो। वहां षड्यंत्रों के चक्रव्यूह से बचने के लिए यह जरूरी हो जाता है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें।

जब स्वास्थ्य विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति के साथ-साथ रोग बढ़ने लगे, बुढ़ापे में होने वाले हृदय रोग 30-35 वर्ष की आयु में होने लगे, सामान्य प्रसव चीरा-फाड़ी वाले प्रसव में बदलने लगे, उक्त रक्तचाप, मधुमेह (डायबिटीज), कमर व घुटनों में दर्द घर-घर में फैलने लगे, तब इसका तथाकथित विज्ञान से स्वयं की सुरक्षा के लिए यह जरूरी है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें। जब कोई चिकित्सा मानव प्रेम या सेवा के आधार पर न कर धंधे के लिए करे, तब भी ठीक है। क्योंकि धंधे में एक नैतिकता होती है। लेकिन यदि कोई नैतिकता छोड़ इसे लूट, ठगी, शिकार आदि का स्रोत बना ले, तब बजाय सिर धुनने के समझदारी इसी में है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें।

बात अजीब लगेगी। अगर स्वस्थ्य रहने के लिए डॉक्टर बनना पड़ेगा, तो बाकी व्यवसाय कौन चलायेगा? ऐसा नहीं है जिस डॉक्टरी की बात यहां की जा रही है, उसके लिए किसी मेडीकल कॉलेज में दाखिला लेकर 10 वर्ष पढ़ाई करने की जरूरत नहीं है। केवल अपने इर्द-गिर्द बिखरे पारंपरिक ज्ञान और अनुभव को खुली आंखों और कानों से देख-समझकर अपनाने की जरूरत है। टीवी सीरियलों, फिल्मों, मैकाले की शिक्षा पद्धति, उदारीकरण व बाजारू संस्कृति ने हमें हमारी जड़ों से काट दिया है। इसलिए भारत की बगिया में खिलने वाले फूल समय से पहले मुरझाने लगे हैं। इस परिस्थिति को पलटने का एक अत्यंत सफल और प्रभावी प्रयास किया है मुबंई के उत्तम माहेश्वरी जी ने अपनी एक पुस्तक लिखकर, जिसका शीर्षक है ‘अपने डॉक्टर स्वयं बनें’। मैंने यह रोचक, सरल व सचित्र पुस्तक पढ़ी, तो लगा कि हम पढ़े-लिखे लोग कितने मूर्ख हैं, जो स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। goseva.rogmukti@gmail.com पर इमेल भेजकर आप उनसे मार्गदर्शन ले सकते हैं। जब ज्ञान बेचा जाए, तो वह धंधा होता है और जब बांटा जाऐ, तो वह परमार्थ होता है। आपको लाभ हो, तो इसे दूसरों को बांटियेगा।

Monday, March 27, 2017

वेदों के अनुसार आकाश की बिजली का प्रयोग संभव

बिजली आज सभ्य समाज की बुनियादी जरूरत बन चुकी है। गरीब-अमीर सबको इसकी जरूरत है। विकासशील देशों में बिजली का उत्पादन इतना नहीं होता कि हर किसी की जरूरत को पूरा कर सके। इसलिए बिजली उत्पादन के वैकल्पिक स्त्रोत लगातार ढू़ढे जाते है। पानी से बिजली बनती है, कोयले से बनती है, न्यूक्लियर रियेक्टर से बनती है और सूर्य के प्रकाश से भी बनती है। लेकिन वैज्ञानिक सूर्य प्रकाश कपूर जिन्होंने वैदिक विज्ञान के आधार पर आधुनिक जगत की कई बड़ी चुनौतियों को मौलिक रूप से सुलझाने का काम किया है, उनका दावा है कि बादलों में चमकने वाली बिजली को भी आदमी की जरूरत के लिए प्रयोग किया जा सकता है।

यह कोई कपोल कल्पना नहीं बल्कि एक हकीकत है। दुनिया के विकसित देश जैसे अमेरिका, जापान, चीन, फ़्रांस आदि तो इस बिजली के दोहन के लिए संगठित भी हो चुके हैं । उनकी संस्था का नाम है ‘इंटरनेशनल कमीशन आन एटमास्फारिक इलैक्ट्रिसिटी’। दुर्भाग्य से भारत इस संगठन का सदस्य नहीं है। अलबत्ता यह बात दूसरी है कि भारत के वैदिक शास्त्रों में इस आकाशीय बिजली को नियंत्रित करने का उल्लेख आता है। देवताओं के राजा इंद्र को इसकी महारत हासिल है। सुनने में यह विचार अटपटा लगेगा। ठीक वैसे ही जैसे आज से सौ वर्ष पहले अगर कोई कहता कि मैं लोहे के जहाज में बैठकर उड़ जाउंगा! तो दुनिया उसका मजाक उड़ाती।

पृथ्वी की सतह से 80 किमी. उपर तक तो हमारा वायुमंडल है। उसके उपर 220 किमी. का एक अदृश्य गोला पृथ्वी को चारों ओर से घेरे हुए है। जिसे ‘आईनों स्फियर’ कहते हैं। जो ‘आयन्स’ से बना हुआ है। इस आयनो स्फियर के कण बिजली से चार्ज होते हैं। उनके और पृथ्वी की सतह के बीच लगातार आकाशीय बिजली का आदान प्रदान होता रहता है। इस तरह एक ग्लोबल सर्किट काम करता है। जो आंखों से दिखाई नहीं देता लेकिन इतनी बिजली का आदान प्रदान होता है कि पूरी दुनिया की 700 करोड़ आबादी की बिजली की जरूरत बिना खर्च किये पूरी हो सकती है। उपरोक्त अंर्तराष्ट्रीय संस्था का यही उद्देश्य है कि कैसे इस बिजली को मानव की आवश्यक्ता के लिए प्रयोग किया जाये।

जब आकाश में बिजली चमकती है, तो ये प्रायः पहले पहाड़ों की चोटियों पर लगातार गिरती हैं। डा. कपूर बताते हैं कि इस बिजली से 30000 डिग्री सेंटीग्रेड का तापमान पैदा होता है। जिससे पहाड़ की चोटी खंडित हो जाती है। उपरोक्त अंर्तराष्ट्रीय संस्था ने अभी तक मात्र इतनी सफलता प्राप्त की है कि इस बिजली से वे पहाड़ों के शिखरों को तोड़कर समतल बनाने का काम करने लगे हैं। जो काम अभी तक डायनामाईट करता था। ऋग्वेद के अनुसार देवराज इंद्र ने शंभर राक्षस के 99 किले इसी बिजली से ध्वस्त किये थे। ऋग्वेद में इंद्र की प्रशंक्ति में 300 सूक्त हैं। जिनमें इस बिजली के प्रयोग की विधियां बताई गई है।

वेदों के अनुसार इस बिजली को साधारण विज्ञान की मदद से ग्रिड में डालकर उपयोग में लाया जा सकता है। न्यूयार्क की मशहूर इमारत इंम्पायर स्टेट बिल्डिंग के शिखर पर जो तड़िचालक लगा है
, उस पर पूरे वर्ष में औसतन 300 बार बिजली गिरती है। जिसे लाइट्निंग कंडक्टर के माध्यम से धरती के अंदर पहुंचा दिया जाता है। भारत में भी आपने अनेक भवनों के उपर ऐसे तड़िचालक देखे होंगे, जो भवनों को आकाशीय बिजली के गिरने से होने वाले नुकसान से बचाते हैं। अगर इस बिजली को जमीन के अंदर न ले जाकर एडाप्टर लगाकर, उसके पैरामीटर्स बदलकर, उसको ग्रिड में दे दिया जाये तो इसका वितरण मानवीय आवश्यक्ता के लिए किया जा सकता है।

मेघालय प्रांत जैसा नाम से ही स्पष्ट है, बादलों का घर है। जहां दुनिया में सबसे ज्यादा बारिश होती है और सबसे ज्यादा बिजली गिरती है। इन बादलों को वेदों में पर्जन्य बादल कहा जाता है और विज्ञान की भाषा में ‘कुमुलोनिम्बस क्लाउड’ कहा जाता है। किसी हवाई जहाज को इस बादल के बीच जाने की अनुमति नहीं होती। क्योंकि ऐसा करने पर पूरा जहाज अग्नि की भेंट चढ़ सकता है। बादल फटना जो कि एक भारी प्राकृतिक आपदा है, जैसी उत्तराखंड में हुई, उसे भी इस विधि से रोका जा सकता है। अगर हिमालय की चोटियों पर ‘इलैट्रिकल कनवर्जन युनिट’ लगा दिये जाए और इस तरह पर्जन्य बादलों से प्राप्त बिजली को ग्रिड को दे दिया जाए तो उत्तर भारत की बिजली की आवश्यक्ता पूरी हो जायेगी और बादल फटने की समस्या से भी छुटकरा मिल जायेगा।

धरती की सतह से 50000 किमी. ऊपर धरती का चुम्बकीय आवर्त (मैग्नेटो स्फियर) समाप्त हो जाता है। इस स्तर पर सूर्य से आने वाली सौर्य हवाओं के विद्युत आवर्त कण (आयन्स) उत्तरी और दक्षिणी धु्रव से पृथ्वी में प्रवेश करते हैं, जिन्हें अरोरा लाईट्स के नाम से जाना जाता है। इनमें इतनी उर्जा होती है कि अगर उसको भी एक वेव गाइड के माध्यम से इलैट्रिकल कनवर्जन युनिट लगाकर ग्रिड में दिया जाये तो पूरी दुनिया की बिजली की आवश्यक्ता पूरी हो सकती है। डा. कपूर सवाल करते हैं कि भारत सरकार का विज्ञान व तकनीकी मंत्रालय क्यों सोया हुआ है ? जबकि हमारे वैदिक ज्ञान का लाभ उठाकर दुनियों के विकसित देश आकाशीय बिजली के प्रयोग करने की तैयारी करने में जुटे हैं।

Monday, December 19, 2016

बाबा रामदेव से इतनी ईष्र्या क्यों?



जब से बाबा रामदेव के पातंजलि आयुर्वेद का कारोबार दिन दूना और रात चैगुना बढ़ना शुरू हुआ है तब से उनसे ईष्र्या करने वालों की और उनकी आलोचना करने वालों की तादात भी काफी बढ़ गयी है। इनमें कुछ दलों के राजनेता भी शामिल है। इनका आरोप है कि बाबा प्रधानमंत्री मोदी की मदद से अपना आर्थिक साम्राज्य बढ़ा रहे हैं। उनके उत्पादन गुणवत्ता में खरे नही हैं। उन्होंने विज्ञापन बांटकर मीडिया का मुंह बंद कर दिया है। वे राज्यों में भारी मात्रा में जमीन हड़प रहे हैं। 

नेताओं के अलावा संत समाज के कुछ लोग भी बाबा रामदेव की आर्थिक प्रगति देखकर दुखी हैं। इनका आरोप है कि कोई योगी व्यापारी कैसे हो सकता है? कोई व्यापारी योगी कैसे हो सकता है? इसमें विरोधाभास है। बाबा केसरिया बाना पहनकर उसका अपमान कर रहे हैं। केसरिया बाना तो वह सन्यासी पहनता है जिसकी सारी भौतिक इचछाऐं अग्नि की ज्वालाओं में भस्म हो चुकी हों। जबकि बाबा रामदेव तो हर इच्छा पाले हुए है। उनमें लाभ, लोभ व प्रतिष्ठा तीनों पाने की लालसा कूट-कूट कर भरी है।     

ऐसे आरोप लगाने वाले नेताओं से मैं पूछना चाहता हूं कि सत्तर और अस्सी के दशक में श्रीमती इंदिरा गांधी के योग गुरू स्वामी धीरेन्द्र ब्रह्मचारी ने जब दिल्ली में, गुड़गाव के पास, जम्मू में और कश्मीर के उधमपुर के पास पटनीटॉप में सैकड़ों करोड़ का साम्राज्य अवैध कमाई से खड़ा किया था, हवाई जहाजों के बेड़े खरीद लिए थे, रक्षादृष्टि से वर्जित क्षेत्र में सड़कें, होटल, हवई अड्डे बना लिये थे, तब ये नेता कहां थे? क्या ये कोई अपना कोई बयान दिखा सकते हैं जो उन्होंने उस वक्त मीडिया को दिया हो? जबकि रामदेव बाबा का साम्राज्य तो वैध उत्पादन और चिकित्सा सेवाओं को बेचकर कमाये गये मुनाफे से खड़ा किया गया है। धीरेन्द्र ब्रह्मचारी का साम्राज्य तो अंतरराष्ट्रीय रक्षा सौदों में दलाली से बना था। ये बात उस समय की राजनैतिक गतिविधियों पर नजर रखने वाले बताते थे।

रही बात बाबा रामदेव के उत्पादनों की गुणवत्ता की तो ये ऐसा मामला है जैसे ‘मियां बीवी राजी तो क्या करेगा काजी’। जब ग्राहक संतुष्ट है तो दूसरों के पेट में दर्द क्यों होता है? मै भी पूरें देश में अक्सर व्याख्यान देने जाता रहता हूं और होटलों के बजाय आयोजकों के घरों पर ठहरना पसंद करता हूं। क्योंकि उनके घर का वातावरण मुझे होटल से ज्यादा सात्विक लगता है। इन घरों के बाथरूम में जब मैं स्नान को जाता हूं, तो यह देखकर आश्चर्य होता है कि जहां पहले विदेशी शैम्पू, साबुन, टूथपेस्ट आदि लाईन से सजे रहते थे, वहां आज ज्यादातर उत्पादन पातंजलि के ही दिखाई देते है। पूछने पर घर के सदस्य बताते हैं कि वे बाबा रामदेव के उत्पादनों से कितने संतुष्ट है। क्या ये बात हमारे लिए गर्व करने की नहीं है कि एक व्यक्ति ने अपने पुरूषार्थ के बल पर विदेशी कंपनियों के सामने इतना बड़ा देशी साम्राज्य खड़ा कर दिया? जिससे देश में रोजगार भी बढ़ रहा है और देश का पैसा देश में ही लग रहा है। सबसे बड़ी बात तो ये कि बाबा के उत्पादन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादन के मुकाबले कहीं ज्यादा किफायती दाम पर मिलते हैं। वे भी तब जबकि बाबा हर टीवी चैनल पर हर वक्त विज्ञापन देते हैं।

यहां भी बाबा ने विज्ञापन ऐजेंसियों को मात दे दी। उन्हें किसी मॉडल की जरूरत नहीं पड़ती। वे खुद ही माँडल बन जाते हैं। इससे सबसे ज्यादा सम्मान तो महिलाओं का बढ़ा है क्योंकी अब तक् होता यह आया था कि साबुन और शैम्पू का ही नहीं बल्कि मोटरसाइकिल और मर्दानी बनियान तक का विज्ञापन किसी अर्धनग्न महिला को दिखाकर ही बनाया जाता था। इस बात के लिए तो भारत की आधी आबादी यानी मातृशक्ति को मिलकर बाबा का सम्मान करना चाहिए।

रही बात संत बिरादरी में कुछ लोगों के उदरशूल की। तो क्या जरी के कपड़े पहनकर, आभूषणों से सुसज्जित होकर, मंचों पर विवाह पंडाल जैसी सजावट करवाकर, भागवत की नौटंकी करने वाले धर्म का व्यापार नहीं कर रहे? क्या वे शुकदेव जी जैसे वक्ता हैं? या हम सब परीक्षित महाराज जैसे विरक्त श्रोता हैं? धर्म का व्यापार तो सभी धर्म वाले करते हैं। जो नहीं करते वे हिमालय की कंदराओं में भजन करते हैं। उन्हें होर्डिंग और टीवी पर अपने विज्ञापन नहीं चलाने पड़ते। कोई कथा बेचता है, तो कोई दुखःनिवारण का आर्शावाद  बेच रहा है। बाबा तो कम से कम स्वस्थ रहने का ज्ञान और स्वस्थ रहने के उत्पादन बेच रहे हैं। इसमें कहीं कोई छलावा नहीं। अगर किसी उत्पादन में कोई कमी पाई जाती है तो उसके लिए कानून बने है।

कुल मिलाकर बाबा ने अभूतपूर्व क्षमता का प्रदर्शन किया है। किसी ने उन्हें उंगली पकड़कर खड़ा नहीं किया। वे अपनी मेहनत से खड़े हुए है। उनके साथ आचार्य बालकृष्ण जैसे तपस्वियों का तप जुड़ा है और उन करोड़ों लोगों का आर्शीवाद जिन्हें बाबा से शारीरिक या मानसिक लाभ मिला है। इनमे हर राजनैतिक विचारधारा के लोग शामिल हैं। ऐसे बाबा रामदेव को तो भारत का रत्न माना जाना चाहिए।