Showing posts with label Socialist. Show all posts
Showing posts with label Socialist. Show all posts

Monday, June 26, 2023

अलविदा प्रो. इम्तियाज़ अहमद साहिब


अगर किसी शिक्षक के छात्र उसकी शख़्सियत को पचास बरस बाद भी ऐसे याद करें जैसे कल की ही बात हो तो मानना पड़ेगा कि वो कितना महान रहा होगा। जी हाँ ऐसी ही नायाब शख़्सियत थी भारत के सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री व मानव विज्ञानशास्त्री (एंथ्रोपोलॉजी) प्रो. इम्तियाज़ अहमद की। जिनके पढ़ाये कितने ही छात्र भारत सरकार के सचिव, विदेशों में राजदूत, प्रोफेसर, पत्रकार और न जाने कहाँ-कहाँ सर्वोच्च पदों पर पहुँचे, पर अपने इस शिक्षक को कभी नहीं भूले।
 


वो थे ही ऐसे कि हर दिल अज़ीज़ बन जाते थे। पिछले हफ़्ते उनका दिल्ली में इंतक़ाल हो गया। देश के तमाम बड़े राष्ट्रीय अंग्रेज़ी और भाषाई अख़बारों ने उन पर बड़े-बड़े लेख छापे। जब क़ब्रिस्तान में उन्हें सुपुर्दे ख़ाक किया जा रहा था तो वहाँ के मौलाना ने रस्मी आवाज़ लगायी कि जो इनका वारिस हो वो पहले आगे बढ़कर मिट्टी डाले। पीछे खड़े दर्जनों लोग, जो दशकों पहले उनके छात्र रहे थे, एक स्वर में बोले हम हैं उनके वारिस। क्योंकि उनके दोनों बेटे उस वक्त देश में नहीं थे। सब ने एक साथ आगे बढ़कर मिट्टी डाली। इनमें से मुसलमान तो शायद ही कोई था। 


अहमद साहिब ने शिकागो विश्वविद्यालय से पीएचडी करने के बाद जेएनयू से लेकर अमरीका, फ़्रांस जैसे तमाम पश्चिमी देशों में पढ़ाया। उनका ज्ञान और अपने विषय की पकड़ इतनी गहरी थी कि जो छात्र नहीं भी होता वो भी उनको सुनकर मंत्रमुग्ध हो जाता था। वे हमेशा छात्रों के दोस्त बनकर रहते थे। वे उनका हर तरह से मार्ग दर्शन करते थे। 


समाजशास्त्र में उनके योगदान को दुनियाँ भर के देशों में सराहा और पढ़ाया जाता है। ये बात दूसरी है कि उस दौर (1978-1995) में जेएनयू पर हावी वामपंथियों ने उनके साथ अच्छा सलूक नहीं किया। उन्हें काफ़ी मानसिक यातना दी गयी और उनकी तरक़्क़ी भी रोकी गयी। पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपनी क़ाबिलियत के दम पर उन वामपंथियों को बहुत पीछे छोड़ दिया। 


दुनिया के विश्वविद्यालयों में ही नहीं मसूरी की आईएएस अकादमी में और देश भर की सार्वजनिक जन सभाओं में भी उनके रोचक संभाषणों के कारण उन्हें प्रायः बुलाया जाता था। 



वो मज़ाक़िया भी बहुत थे। पर उनका मज़ाक़ समझने में कुछ क्षण लगते थे। क्योंकि वो बड़ी मंद मुस्कान के साथ बात को घुमा कर कहते थे। एक बार 1996 में प्रो. अहमद, बीजेपी नेता शत्रुघ्न सिन्हा, गुजरात के मुख्य मंत्री केशु भाई पटेल और मैं खेड़ा ज़िले की एक विशाल किसान जन सभा को संबोधित करने मंच पर साथ-साथ बैठे थे। जब उनका बोलने का नंबर आये तो वे उठे और मेरे कान में फुसफुसाकर चले गये हम तो किराए के भांड हैं जो बुलाये वहीं चले जाते हैं। मैं मुस्कुराया तो पर सोचता रह गया कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा? 


एक बार वो सुबह- सुबह एक दुकान पर अंडे ख़रीदने आये। मैं भी वहीं खड़ा था। वे बड़े संजीदा अन्दाज़ में दुकानदार से बोले, सुना है आप अंडे बहुत अच्छे देते हैं। ये सुनकर दुकानदार झल्ला गया और बोला आप ये क्या कह रहे हैं। पर वहाँ खड़े सब लोग उनके इस दोहरे अर्थ वाले वाक्य को सुनकर ठहाका लगाकर हंस पड़े। 



मुस्लिम समाज में प्रगाढ़ जातिवाद पर उन्होंने बेलाग़ लिखा। वे कहते थे कि जैसे हिंदुओं में वर्ण और जाति व्यवस्था है वैसे ही हिंदुस्तान के मुसलमानों में भी है। क्योंकि उनमें से अधिकतर तो पिछली सदियों में धर्म परिवर्तन से ही मुसलमान बने हैं। हालाँकि इस्लाम सबकी बराबरी का दावा करता है। पर असलियत ये है कि एक मुसलमान जुलाहा, तेली या लुहार से शादी नहीं करता। शिया सुन्नी का भेद तो जग ज़ाहिर है पर मुसलमानों में भी ऊँची और नीची जात होती हैं। सैय्यद, पठान, अंसारी जैसे तमाम जातिगत समूह हैं जो एक दूसरे से शादी का रिश्ता नहीं करते। प्रो. अहमद का एक ख़ास वक्तव्य था कि वो हिंदुओं के मुक़ाबले मुसलमान ज़रूर हैं। पर सैय्यद के मुक़ाबले जुलाहे ही हैं। यानि एक नहीं हैं। 


आज के जिस दौर में चारों तरफ़ समाज में इरादतन बढ़ चढ़ कर नफ़रत फैलायी जा रहे है प्रो. इम्तियाज़ अहमद एक नज़ीर थे। जब मैं जेएनयू में पढ़ता तो अक्सर उनके घर जाता था। ये देखकर बड़ा अच्छा लगता था कि वो जितना इस्लाम का सम्मान करते थे उतना ही अन्य धर्मों का भी। श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर अपने बेटों को विभिन्न धर्मों का सार सिखाने के लिये वे बड़े उत्साह से लड्डू गोपाल जी का झूला सजाते थे। उनके एक आध्यात्मिक गुरु वृंदावन में यमुना किनारे रहते थे। जिनसे सत्संग करने वो वृंदावन भी आते थे।



मेरा उनसे एक व्यक्तिगत रिश्ता भी था। वे मेरी मौसी के सहपाठी थे। दोनों ने लखनऊ विश्वविद्यालय के मानवविज्ञान विभाग से साथ-साथ एमए किया था। इस नाते मैं उन्हें मामू कहता था। मौसी बताती हैं कि तब भी वे बड़े मस्तमौला थे। उनकी क्लास का एक अध्ययन ट्रिप पूर्वी उत्तर प्रदेश गया। वहाँ सबने अगले ही दिन से सर्वेक्षण का अपना काम शुरू कर दिया। पर इम्तियाज़ साहिब शिविर के निर्धारित दस में से आठ दिन यही सोचते रहे कि मैं बदरा जाऊँ या पिपरा जाऊँ। उन्हें इन दो गावों में से एक को सर्वेक्षण के लिए चुनना था। पर जब उन्होंने चुन लिया तो उनका शोध प्रबंध ही सर्वश्रेष्ठ माना गया। ये उनकी बौद्धिक क्षमता का प्रमाण था कि सबसे बाद में शुरू करके भी सबसे बढ़िया अध्ययन उन्होंने ही किया। 


हमने जब दिल्ली में खोजी खबरों की वीडियो मैगज़ीन ‘कालचक्र’ जारी करने के लिये ‘कालचक्र समाचार ट्रस्ट’ की स्थापना की तो उन्हें भी उसका ट्रस्टी बनाया था। बाक़ी ट्रस्टी अन्य व्यवसायों के नामी लोग थे। ट्रस्ट की मीटिंग की कार्यवाही पर जब दस्तख़त करने का उनका नंबर आता तो वह मज़ाक़ में कहते मैं एक दस्तख़त करने का पचास पैसे लेता हूँ। मज़ाक़ की बात अलग पर मुझे व्यक्तिगत रूप से उनसे बहुत सीखने को मिला। ऐसे इंसान दुनियाँ में बहुत कम होते हैं। अब तो उनकी यादें ही शेष हैं।