Monday, September 25, 2023

महिलाओं को पचास फ़ीसदी आरक्षण मिले


तैंतीस फ़ीसदी ही क्यों, पचास फ़ीसदी आरक्षण महिलाओं के लिए होना चाहिए। इस पचास फ़ीसदी में से दलित और वंचित समाज की महिलाओं का कोटा भी आरक्षित होना चाहिए। आज़ादी के 75 वर्ष बाद देश की आधी आबादी को विधायिका में एक तिहाई आरक्षण का क़ानून पास करके पक्ष और विपक्ष भले ही अपनी पीठ थपथपा लें पर ये कोई बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं है। जब महिलाएँ देश की आधी आबादी हैं तो उन्हें उनके अनुपात से भी कम आरक्षण देने का औचित्य क्या है? 


क्या महिलाएँ परिवार, समाज और देश के हित में सोचने, समझने, निर्णय लेने और कार्य करने में पुरुषों से कम सक्षम हैं? देखा जाए तो वे पुरुषों से ज़्यादा सक्षम हैं और हर कार्य क्षेत्र में नित्य अपनी सफलता के झंडे गाढ़ रहीं हैं। यहाँ तक कि भारतीय वायु सेना के लड़ाकू विमान की पायलट तक महिलाएँ बन चुकी हैं। दुनिया की अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सीईओ तक भारतीय महिलाएँ हैं। अनेक देशों में राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री पदों पर महिलाएँ चुनी जा चुकी हैं और सफलता पूर्वक कार्य करती रहीं हैं। अगर ज़मीनी स्तर पर देखा जाए तो उस मजदूरिन का ध्यान कीजिए जो नौ महीने तक गर्भ में बालक को रखे हुए भवन निर्माण के काम में कठिन मज़दूरी करती हैं और उसके बाद सुबह-शाम अपने परिवार के भरण पोषण का ज़िम्मा भी उठाती हैं। अक्सर इतना ही काम करने वाले पुरुष मज़दूर मज़दूरी करने के बाद या तो पलंग तोड़ते हैं या दारू पी कर घर में तांडव करते हैं।



हमारे देश की राष्ट्रपति, जिस जनजातीय समाज से आती हैं वहाँ की महिलाएँ घर और खेती के दूसरे सब काम करने के अलावा ईंधन के लिए लकड़ी बीन कर भी लाती हैं। जब हर कार्य क्षेत्र में महिलाएँ पुरुषों से आगे हैं तो उन्हें आबादी में उनके अनुपात के मुताबिक़ प्रतिनिधित्व देने में हमारे पुरुष प्रधान समाज को इतना संकोच क्यों है ? जो अधिकार उन्हें दिये जाने की घोषणा संसद के विशेष अधिवेशन में दी गई वो भी अभी 5-6 वर्षों तक लागू नहीं होगी। तो उन्हें मिला ही क्या कोरे आश्वासन के सिवाय। 


इस संदर्भ में कुछ अन्य ख़ास बातों पर भी ध्यान दिये जाने की ज़रूरत है। आज के दौर में ग्राम प्रधान व नगर पालिकाओं के अध्यक्ष पद के लिए व महानगरों के मेयर पद के लिये जो सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं उनका क्या हश्र हो रहा है, ये भी देखने व समझने की बात है। देश के हिन्दी भाषी प्रांतों में एक नया नाम प्रचलित हुआ है, ‘प्रधान पति’। मतलब यह कि महिलाओं के लिए आरक्षित इन सीटों पर चुनाव जितवाने के बाद उनके पति ही उनके दायित्वों का निर्वाह करते हैं। ऐसी सब महिलाएँ प्रायः अपने पति की ‘रबड़ स्टाम्प’ बन कर रह जाती हैं। अतः आवश्यक है कि हर शहर के एक स्कूल और एक कॉलेज में नेतृत्व प्रशिक्षण का कोर्स चलाया जाए। जिनमें दाख़िला लेने वाली महिलाओं को इन भूमिकाओं के लिए प्रशिक्षित किया जाए, जिससे भविष्य में उन्हें अपने पतियों पर निर्भर न रहना पड़े। 



इसके साथ ही मुख्यमंत्री कार्यालयों से ये निर्देश भी जारी हों कि ऐसी सभी चुनी गई महिलाओं के पति या परिवार का कोई अन्य पुरुष सदस्य अगर उनका प्रतिनिधत्व करते हुए पाए जाएँगे तो इसे दंडनीय अपराध माना जाएगा। उस क्षेत्र का कोई भी जागरूक नागरिक उसकी इस हरकत की शिकायत कर सकेगा। आज तो होता यह है कि ज़िला स्तर की बैठक हो या प्रदेश स्तर की या चुनी हुई इन प्रतिनिधियों के प्रशिक्षण का शिविर हो, हर जगह पत्नी के बॉडीगार्ड बन कर पति मौजूद रहते हैं। यहाँ तक की चुनाव के दौरान और जीतने के बाद भी इन महिला प्रतिनिधियों के होर्डिंगों पर इनके चित्र के साथ इनके पति का चित्र भी प्रमुखता से प्रचारित किया जाता है। इस पर भी चुनाव आयोग को प्रतिबंध लगाना चाहिए। कोई भी होर्डिंग ऐसा न लगे जिसमें ‘प्रधान पति’ का नाम या चित्र हो। 


हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे समाज में चली आ रही इन रूढ़िवादी बातों पर हमेशा से ज़ोर दिया गया है कि घर की महिला जब भी घर की चौखट से पाँव बाहर रखेगी तो उसके साथ घर का कोई न कोई पुरुष अवश्य होगा। इन्हीं रूढ़िवादी सोचों के चलते महिलाओं को घर की चार दिवारी में ही सिमट कर रहना पड़ा। परंतु जैसे सोच बदलने लगी तो महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिये जाने में किसी को कोई गुरेज़ नहीं। आज महिलाएँ पुरुषों के साथ हर क्षेत्र में कंधे से कंधा मिला कर चल रहीं हैं। इसलिए महिलाओं को पुरुषों से कम नहीं समझना चाहिए। इस विधेयक को लाकर सरकार ने अच्छी  पहल की है किंतु इसके बावजूद महिलाओं को आरक्षण का लाभ मिलने में वर्षों की देरी के कारण ही विपक्ष आज सरकार को घेर रहा है। 



वैसे हम इस भ्रम में भी न रहें कि सभी महिलाएँ पाक-साफ़ या दूध की धुली होती हैं और बुराई केवल पुरुषों में होती है। पिछले कुछ वर्षों में देश के अलग-अलग प्रांतों में निचले अधिकारियों से लेकर आईएएस और आईपीएस स्तर तक की भी महिला अधिकारी बड़े-बड़े घोटालों में लिप्त पाई गई हैं। इसलिए ये मान लेना कि महिला आरक्षण देने के बाद सब कुछ रातों रात सुधर जाएगा, हमारी नासमझी होगी। जैसी बुराई पुरुष समाज में है वैसी बुराइयों महिला समाज में भी हैं। क्योंकि समाज का कोई एक अंग दूसरे अंग से अछूता नहीं रह सकता। पर कुछ अपवादों के आधार पर ये फ़ैसला करना कि महिलाएँ अपने प्रशासनिक दायित्वों को निभाने में सक्षम नहीं हैं इसलिए फ़िलहाल उन्हें एक-तिहाई सीटों पर ही आरक्षण दिया जा रहा है ठीक नहीं है। ये सूचना कि भविष्य में उन्हें इनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण दे दिया जाएगा सपने दिखाने जैसा है। अगर हमारी सोच नहीं बदली और मौजूदा ढर्रे पर ही महिलाओं के नाम पर ये ख़ानापूर्ति होती रही तो कभी कुछ नहीं बदलेगा।
    

Monday, September 18, 2023

सवालों के घेरे में टीवी चैनल


जब से इंडिया गठबंधन ने 14 मशहूर टीवी एंकरों के बॉयकॉट की घोषणा की है तब से पूरे मीडिया जगत में एक भूचाल सा आ गया है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है और ऐसा देश में पहली बार हुआ है। इन टीवी चैनलों के समर्थक और केंद्र सरकार विपक्ष के इस कदम को अलोकतांत्रिक बता रही है। उनका आरोप है कि विपक्ष सवालों से बच कर भाग रहा है। जबकि विपक्ष का कहना है कि भाजपा ने लंबे अरसे से एनडीटीवी चैनल का बहिष्कार किया हुआ था। जब तक कि उसे अडानी समूह ने ख़रीद नहीं लिया। इसके अलावा तमिलनाडु के अनेक ऐसे टीवी चैनल जो वहाँ के किसी राजनीतिक दल से नियंत्रित नहीं हैं और उनकी छवि भी दर्शकों में अच्छी है, उन सबका भी भाजपा ने बहिष्कार किया हुआ है। 


सवाल उठता है कि इस तरह सार्वजनिक बहिष्कार करके विवाद खड़ा करने के बजाए अगर विपक्षी दल एक मूक सहमति बना कर इन एंकरों का बहिष्कार करते तो भी उनका उद्देश्य पूरा हो जाता और विवाद भी खड़ा नहीं होता। पर शायद विपक्ष ने यह विवाद खड़ा ही इसलिए किया है कि वो देश के ज़्यादातर टीवी चैनलों की पक्षपातपूर्ण नीति को एक राजनैतिक मुद्दा बना कर जनता के बीच ले जाएँ। जिसमें वो सफल हुए हैं। 



इस विवाद का परिणाम यह हुआ है कि ‘गोदी मीडिया’ कहे जाने वाले इन टीवी चैनलों के समर्पित दर्शकों के बीच इन एंकरों की लोकप्रियता और बढ़ी है। जिससे इन्हें टीआरपी खोने का कोई जोखिम नहीं है। जहां तक बात उन दर्शकों की है जो वर्तमान सत्ता को नापसंद करते हैं, तो वो पहले से ही इन एंकरों के शो नहीं देखते थे, इसलिए उन पर इस विवाद का कोई नया असर नहीं पड़ेगा। पर इन टीवी चैनलों के मालिकों के सामने एक बड़ा सवाल खड़ा हो गया है। अगर वे अपने इन टीवी एंकरों के साथ खड़े नहीं रहते या इन्हें बर्खास्त कर देते हैं तो इसका ग़लत संदेश उनसे जुड़े सभी मीडिया कर्मियों के बीच जाएगा, क्योंकि ये टीवी एंकर इस तरह के इकतरफ़ा तेवर अपनी मर्ज़ी से तो नहीं अपना रहे। ज़ाहिरन इसमें उनके मालिकों की सहमति है। 


इस पूरे विवाद में मैंने एक लंबा ट्वीट (जिसे अब एक्स कहते हैं) लिखा, जिसे 24 घंटे में 35 हज़ार से ज़्यादा लोग देख चुके थे। इसमें मैंने लिखा, कि ये सब जो हो रहा है ये बहुत दुखद है। चूँकि मैं स्वयं एक पत्रकार हूँ इसलिए मुझे इस बात से बहुत कोफ़्त होती है कि आजकल सार्वजनिक विमर्श में प्रायः पत्रकारों की विश्वसनीयता पर बहुत अपमानजनक टिप्पणियाँ की जाती हैं। उसका कारण हमारे पेशे की विश्वसनीयता में आई भारी गिरावट है। सोचने वाली बात यह है कि आज से 30 वर्ष पहले जब मैंने भारत की राजनीति का सबसे ज़्यादा चर्चित और बड़ा ‘जैन हवाला कांड’ उजागर किया था, जिसमें कई प्रमुख राजनैतिक दलों के बड़े-बड़े राजनेता और बड़े अफ़सर प्रभावित हुए थे, तब भारी राजनीतिक क्षति पहुँचने के बावजूद उन राजनेताओं ने मुझ से अपने संबंध नहीं बिगाड़े। उनका कहना था कि तुमने किसी एक राजनैतिक दल का हित साधने के लिए या किसी राजनैतिक व आर्थिक लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से हम पर हमला नहीं बोला था। बल्कि तुमने तो निष्पक्षता और निडरता से पत्रकारिता के मानदंडों के अनुरूप अपना काम किया इसलिए हमें तुमसे कोई शिकायत नहीं है। उन सभी से आजतक मेरे सौहार्दपूर्ण संबंध हैं।



इस देश में खोजी टीवी पत्रकारिता की शुरुआत मैंने 1986 में दूरदर्शन (तब निजी टीवी चैनल नहीं होते थे) पर ‘सच की परछाईं’ कार्यक्रम से की थी। ये अपने समय का सबसे दबंग कार्यक्रम माना जाता था। क्योंकि इस कार्यक्रम में मैं कैमरा टीम को लेकर देश कोने-कोने में जाता था और तत्कालीन राजीव गांधी सरकार की नीतियों के क्रियांवन में ज़मीनी स्तर पर हो रही कमियों को उजागर करता था।         


इसके बाद 1989 में जब देश में पहली बार मैंने स्वतंत्र हिन्दी टीवी समाचारों की वीडियो पत्रिका ‘कालचक्र’ जारी की तो उसके भी हर अंक ने अपनी दबंग रिपोर्टों के कारण देश भर में खलबली मचाई। बावजूद इसके किसी भी राजनेता द्वारा मेरा कभी सोशल बॉयकॉट नहीं किया गया। क्योंकि यहाँ भी मैंने निष्पक्षता का पूरी तरह ध्यान रखा। चाहे कोई भी राजनैतिक दल हो और चाहे आरएसएस से लेकर नक्सलवादियों तक की विचारधारा से जुड़े प्रश्न हों, अगर वो मुझे जनहित में ठीक लगे तो उन्हें कालचक्र  की रिपोर्ट में प्रसारित करने से कभी कोई गुरेज़ नहीं किया। इसलिए लोग आजतक कालचक्र को याद करते हैं।


पिछले 40 वर्षों की टीवी पत्रकारिता के अपने अनुभव और उम्र के 68वें वर्ष में शायद मेरा यह कर्तव्य है कि मैं टीवी चैनलों में काम कर रहे अपने सहकर्मियों को उनके हित में कुछ सलाह दे सकूँ। सरकारें तो आती-जाती रहती हैं। हर केंद्र सरकार के पास अपनी उपलब्धियों का प्रचार करने के लिए दूरदर्शन, ऑल इंडिया रेडियो और पीआईबी है। जबकि लोकतंत्र में स्वतंत्र मीडिया का काम जनता की आवाज़ बनना होता है। उन्हें सरकार से तीखे सवाल पूछने होते हैं और सरकार की योजनाओं में ख़ामियों को उजागर करना होता है। अगर वे ऐसा नहीं करते तो वे पत्रकार नहीं माने जाएँगे। हाँ कोई भी रिपोर्ट या वार्ता में हर टीवी पत्रकार को कोशिश करनी चाहिए कि पूरी तरह निष्पक्षता बनी रहे। इसके साथ ही किसी भी टीवी एंकर को यह हक़ नहीं कि वो विपक्ष के नेताओं को अपमानित करे या उनसे अभद्र व्यवहार करे। टीवी की वार्ता में आने वाले सभी लोग उस एंकर के मेहमान होते हैं। इसलिए उनका पूरा सम्मान किया जाना चाहिए। तीखे सवाल भी शालीनता से पूछे जा सकते हैं। उसके लिए हमलावर होने की नौटंकी करने की कोई ज़रूरत नहीं है। आजकल चल रही ऐसी नौटंकियों के कारण ही टीवी चैनलों की विश्वसनीयता तेज़ी से घटी हैं। 


इसी क्रम में मैं उन नामी टीवी पत्रकारों को भी बिन माँगीं सलाह देना चाहूँगा जो रात-दिन प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के ख़िलाफ़ सोशल मीडिया पर हमलावर रहते हैं। तथ्यों को सामने लाना उनका कर्तव्य हैं। इसलिए वो ये ज़रूर करें। पर नरेंद्र मोदी सरकार के अच्छे कामों की उपेक्षा करके या उन कामों की प्रशंसा न करके वे ऐसे लगते हैं मानो वो विपक्ष का एजेंडा चला रहे हैं। उनका ये रवैया ग़लत है। इस तरह दोनों ख़ेमों के पत्रकारों को आत्म विश्लेषण करने ज़रूरत है। न तो हम ख़ेमों में बटें और न ही अपने दर्शकों को ख़ेमों में बाँटें। जो सही है उसे ज्यों की त्यों प्रस्तुत करें और फ़ैसला दर्शकों के विवेक पर छोड़ दें। 

Monday, September 11, 2023

बहस : भारत बनाम इंडिया


बचपन से सुनते थे कि हमारे देश का नाम भारत भी है और इंडिया भी। जैसे इंग्लैंड को दक्षिण एशिया में विलायत भी कहा जाता है। पर विलायत उसका अधिकृत नाम नहीं है, केवल बोलचाल में ये नाम कहा जाता है। पर भारत के ये दोनों नाम संविधान में क्यों लिखे गये? ये सवाल हर बच्चे के मन में उठता था। 


अब इंडिया हटाकर सिर्फ़ भारत नाम रखने के मोदी जी के फ़ैसले को एक क्रांतिकारी कदम माना जा रहा है। ऐसे ही जैसे जी 20 के सम्मेलन को भारतीय सांस्कृतिक रंग देकर प्रधान मंत्री मोदी जी ने अपने इस नये इरादे का संकेत दे दिया है। उन्होंने जी 20 सम्मेलन में भारत की संस्कृति को ही आगे बढ़ाया, इंडिया का तो नाम तक कहीं आने नहीं दिया, तो कई कानूनविदों की भौं टेढ़ी  हुईं। 


उनका कहना था कि बिना विधायिका की स्वीकृति के ये फ़ैसला संविधान के विरुद्ध है। बीजेपी के राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी इसे विपक्ष के ताज़ा गठबंधन ‘आई एन डी आई ए’ के ख़ौफ़ से लिया गया कदम बताते हैं। वे ऐसे तमाम वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल कर रहे हैं जिनमें मोदी जी पिछले चुनावों में जनता से बार बार अपील करते हैं वोट फ़ोर इंडिया। विपक्ष का दावा है उसकी एकजुटता से बीजेपी घबड़ा गयी है इसलिए उसकी एकजुटता से डर कर ये नया शगूफ़ा छोड़ा गया है। वैसे चुनाव अभी दूर है पर इस सबसे देश का माहौल चुनावी बन चुका है। 



इसलिए मोदी जी के इस मनोभाव के प्रगट  होते ही देश भर में बहस शुरू हो गयी कि आज तक ‘वोट फॉर इंडिया’, ‘मेक इन इंडिया’, ‘डिजिटल इंडिया’, ‘स्टार्ट अप इंडिया’ जैसी दर्जनों योजनाओं को शुरू करने वाले मोदी जी को अचानक ये ख़्याल कैसे आया कि अब हम ‘इंडिया’ की जगह ‘भारत’ के नाम से जाने जाएँगे। इसके साथ ही ये बहस शुरू हो गयी है कि रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया, स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया, यूनियन बैंक ऑफ़ इंडिया, स्टील अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया, आईआईटी, आईआईएम, आईएमए, आईएएस, आईपीएस, आईआरएस, आईएफ़एस, इण्डियन नेवी, इण्डियन एयरफ़ोर्स, एयर इंडिया जैसी संस्थाओं को क्या अब अपने नाम बदलने पड़ेंगे? क्या फिर से नोटबंदी होगी और नये नाम से नोट छापे जाएँगे? फिर इण्डियन ओशियन के नाम का क्या होगा? 


वैसे दुनियाँ भारत को इंडिया के नाम से ही जानती है। 9 वर्षों में 74 से ज्यादा देशों की यात्रा कर चुके प्रधानमंत्री मोदी जी ने भी इंडिया का नाम ही आजतक प्रचारित किया है। इसलिए इंडिया अब सारी दुनियाँ में भारत का ब्रांड नेम बन चुका है। ऐसे में भारत नाम कैसे दुनिया के लोगों की ज़ुबान पर चढ़ेगा? 



इस संदर्भ में  सोशल मीडिया पर मनीष सिंह ने एक रोचक पोस्ट डाली है। वे पूछते हैं कि, क़ायदे आज़म मुहम्मद अली जिन्ना को, भारत को इंडिया कहे जाने से क्या आपत्ति थी? मनीष की पोस्ट के अनुसार ऐसा दरअसल दो कारण से हुआ; एक तो इंडिया का नाम, इतिहास में हमे ‘इंडस रिवर' का देश होने की वजह से मिला था। इंडस जब पाकिस्तान में रह गई थी, तो इधर बिना इंडस, काहे का इंडिया? क्या आपको याद है, एक बार सुनील दत्त में आंतकवाद के दौर में पंजाब का नाम, खलिस्तान रखने का सुझाव दिया था। उनका भी यही लॉजिक था, कि पंजाब का मतलब, 5 नदियों का प्रदेश था। अब 60% पंजाब तो पाकिस्तान हो गया। भारतीय पंजाब में 5 नदियां तो थी नही। उसको भी तोड़कर हरियाणा और हिमाचल बना दिया। तो बचे इलाके को पंजाब कहने का कोई तुक नही। अगर लोगो को "पवित्र स्थान" याने "खालिस्तान" कहना है, तो कहने दो। 



बहरहाल बात जिन्ना की हो रही थी। वे इस बात से वाकिफ थे, कि इंडिया को इंडिया कहे जाने पर पाकिस्तान को स्थायी राजनीतिक शर्मिंदगी भी उठानी पड़ती।इसका लॉजिक यह था कि डूरंड से तमिलनाडु तक सारा इलाका इंडिया कहलाता था। अब उसके दो टुकड़े हो रहे थे। अगर भारत अपने को इंडिया कहता है, याने पुराने देश का दर्जा, तो असली सक्सेसर स्टेट की पहचान, तो इंडिया को ही मिलेगी। पाकिस्तान, इतिहास में मूल देश से टूटने और अलग होने वाला हिस्सा माना जायेगा। तो उनकी चाहत यह थी-कि इंडिया टूटा, और दो देश बने। अगर एक खुद को पाकिस्तान कहता है, तो दूसरा खुद को भारत कहे। 



मगर जिन्ना चल बसे। उनकी ख़्वाहिश नेहरू भला काहे पूरी करते। 18 सितंबर 1949 को भारत के सम्विधान ने खुद का नामकरण किया, तो कहा ‘इंडिया, दैट इज भारत’। इस तरह हमने दोनों नाम क्लेम कर लिए। इस पर पाकिस्तान ने नेहरू को कभी दिल से माफ नहीं किया। आज भी, अगर आप पाकिस्तानी समाचार देखते हों तो याद करेंगे कि वे अपनी बोलचाल में इंडियन फ़ौज या इंडियन पीएम या इंडिया की नही कहते। वे हमेशा भारतीय फौज, भारतीय पीएम या भारत ही कहते हैं। क्योंकि वे दिल से, आपको इंडिया स्वीकारते ही नहीं। भारत ये नाम ख़ुशी से मानने को तैयार हैं। 


और यही कारण है कि खबर आई, कि अगर भारत यूएन में अपना नाम इंडिया छोड़ने की सूचना देता है, तो पाकिस्तान का फटाफट बयान आया कि इस नाम को वे क्लेम करेंगे। फिर वो लिखेंगे- पाकिस्तान, दैट इज इंडिया। और सच भी यही है कि इंडस रिवर की वजह से इण्डिया का नाम, हमसे ज्यादा, उन्हें ही सूट करेगा। पर पंडित नेहरू ने उनसे यह मौका छीन लिया था। जो अब पाकिस्तानी को मिल सकता है।


आगे आगे देखें होता है क्या? वैसे भारत नाम पर देश की भावना भी दो हिस्सों में बटीं है। उत्तर भारत अपने को भारत से जुड़ा महसूस करता है जबकि दक्षिण भारत इंडिया नाम से। ऐसे में इस फ़ैसले के क्या राजनीतिक, आर्थिक और भावनात्मक परिणाम होंगे वो तो समय ही बतायेगा। पर फ़िलहाल मोदी जी ने मीडिया और राजनीतिक लोगों को विवाद और बहस का एक नया विषय थमा दिया है। 

Monday, September 4, 2023

पहाड़ों पर भारी भूस्खलन: ठेकेदारों के शिकंजे में सत्ताधीश


हिमाचल प्रदेश में पाँच सौ से ज़्यादा सड़कें भूस्खलन के कारण नष्ट हो गई हैं। जो सरकार अपने कर्मचारियों को महंगाई भत्ता नहीं दे पा रही उस पर 5000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त भार पड़ गया है। अरबों रुपये की निजी संपत्ति बाढ़ में बह गई है। सैंकड़ों लोग काल के गाल में समा गये। ये सब हुआ हिमालय को बेदर्दी और बेअक्ली से काट-काट कर चार लेन के राजमार्ग बनाने के कारण। परवानु-सोलन राजमार्ग के धँसने की एवज़ में हिमाचल सरकार ने राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण पर उच्च न्यायालय में 650 करोड़ का हर्जाना माँगा है। प्राधिकरण के निदेशक ने इस मामले में अपनी गलती स्वीकारी है और ये माना है कि पहाड़ों में सड़क बनाने का पूर्व अनुभव न होने के कारण प्राधिकरण से ये गलती हुई है। 



अदालत में गलती मान लेने से इस भयावह त्रासदी का समाधान नहीं निकलेगा। क्योंकि इसी तरह का दानवीय निर्माण उत्तराखण्ड में चार धाम यात्रा के मार्ग को ‘फोर लेन’ बनाने के लिए बदस्तूर जारी है। पर्यावरणविदों की चेतावनियों की उपेक्षा करके या उनका मज़ाक़ उड़ा कर या उन्हें विकास विरोधी बता कर सत्ताधीश, चाहे किसी भी दल के क्यों न हों, अपने खेल जारी रखते हैं। हिमाचल केडर के सेवानिवृत आईएएस व पर्यावरणविद अवय शुक्ला अपने अंग्रेज़ी लेख, ‘हिमाचल - प्लानिंग फॉर मोर डिजास्टर्स’ में लिखते हैं कि इस पूरे खेल में राजनेता, अफ़सर व ठेकेदारों की मिलीभगत है। वे लिखते हैं कि ऐसी त्रासदी से, इस गठजोड़ को दोहरा लाभ मिलता है। पहले इन सब निर्माण कार्यों में जम कर घोटाले होते हैं और फिर विनाश के बाद पुनर्निर्माण में। ख़ामियाजा तो भुगतना पड़ता है देश की आम जनता को जिसके खून पसीने की कमाई टैक्स के रूप में वसूल कर उसी के विनाश की नीतियाँ बनाई जाती हैं। वैसे वो लोग भी कम दोषी नहीं जो पर्यटन व्यवसाय या अपने लाभ के लिए पहाड़ों पर बड़े-बड़े भवन बनाते आ रहे हैं। जिसमें न तो पहाड़ की परिस्थितिकी का ध्यान रखा जाता है और न पहाड़ों पर परम्परा से चली आ रही भवन निर्माण पद्दति का। पहाड़ों में कभी दुमंज़िले से ज़्यादा घर नहीं बनते थे। ये घर भी स्थानीय पत्थर से उन पहाड़ों पर बनाए जाते थे जिन्हें स्थानीय लोग पक्का पहाड़ कहते हैं। मतलब इन पहाड़ों पर कभी भूस्खलन नहीं होता। 



अब तो आप भारत के किसी भी पहाड़ी पर्यटन स्थल पर हज़ारों बहूमज़िली इमारतें, होटल व अपार्टमेंट देखते हैं जिनमें लिफ्ट लगी होती हैं। इनका निर्माण पहाड़ के सुरम्म्य वातावरण में एक बदनुमा दाग की तरह होता है। इनके निर्माण में लगने वाली सामग्री ट्रकों में भर कर मैदानों से पहाड़ों पर ले जाई जाती है। जिससे और भी प्रदूषण बढ़ता है। पुरानी कहावत है कि विज्ञान की हर प्रगति प्रकृति के सामने बौनी होती है। प्रकृति एक सीमा तक मानव के अत्याचारों को सहती है। पर जब उसकी सहनशीलता का अतिक्रमण हो जाता है तो वह अपना रौद्र रूप दिखा देती है। 2013 में केदारनाथ में बदल फटने के बाद उत्तराखण्ड में हुई भयावह तबाही और जान-माल की हानि से प्रदेश और देश की सरकार ने कुछ नहीं सीखा। आज भी वहाँ व अन्य प्रांतों के पहाड़ों पर तबाही का यह तांडव जारी है। 



आज पूरे देश में अनावश्यक रूप से, बहुत तेज़ी से, बिजली की खपत दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़  रही है। इसलिए उसके उत्पादन को और बढ़ाने का काम जारी है। पर इंजीनियरों का विज्ञान यहाँ भी प्रकृति से मार खा जाता है। हिमाचल की ‘हरजी जल विद्युत योजना’ को जिस गोविंद सागर से जल की आपूर्ति मिलती है उसमें इन सड़कों के निर्माण में पैदा हुए मलबों से इतनी गाद जमा हो गई है कि अब हरजी प्लांट में कई महीनों के लिए बिजली का उत्पादन बंद कर दिया गया है। 



फिर भी हिमाचल की सरकार ने कोई सबक़ नहीं सीखा। वहाँ के उप-मुख्यमंत्री ने घोषणा की है कि पलचन (मनाली) से कुल्लू तक 30 किलोमीटर की नदी को बांधा जाएगा। जिसके लिये उन्होंने 1650 करोड़ की डीपीआर तैयार करवा ली है और केंद्र से इसके लिये आर्थिक सहायता माँगी है। अप-मुख्यमंत्री को इस बात का अंदाज़ा नहीं है कि ब्यास नदी, लखनऊ की गोमती व अहमदाबाद की साबरमती की  तरह हल्के जल प्रवाह वाली शांत नदी नहीं है, जिसे तटबंधों से बांधा जा सके। ये तो पहाड़ों से निकलती हुई, चट्टानों से टकराती हुई, जल के रौद्र प्रवाह को सहती हुई बहती है। जिसमें पहाड़ों पर होने वाली अचानक तेज़ वर्षा के कारण भारी मात्र में जल आ जाता है। ऐसी नदी को तटबंधों से कैसे नियंत्रित किया जा सकता है? ये तटबंध तो ब्यास नदी के एक दिन के आक्रोश में बह कर कहाँ-के-कहाँ जाएँगे कोई अनुमान भी नहीं लगा सकता। ये ठीक वैसी ही मूर्खता है जैसी हाल ही के वर्षों में उत्तर प्रदेश सरकार ने गंगा की रेत में करोड़ों रुपया खर्च करके एक नहर खोदी जो पहली ही वर्षा में बह गई। या काशी की गंगा में रेत के टापू पर करोड़ों रुपये खर्च करके पर्यटकों के लिए ‘टेंट सिटी’ बनाई। जिसके एक ही अंधड़ में परखच्चे उड़ गये।   


चिंता की बात यह है कि हमारे नीति निर्धारक और सत्ताधीश इन त्रासदियों के बाद भी पहाड़ों पर इस तरह के विनाशकारी निर्माण को पूरी तरह प्रतिबंधित करने को तैयार नहीं हैं। वे आज भी समस्या के समाधान के लिए जाँच समितियाँ या अध्ययन दल गठन करने से ही अपने कर्तव्य की पूर्ति मान लेते हैं। परिणाम होता है ढाक के वही तीन पात। ख़ामियाजा भुगतना पड़ता है देश की जनता और देश के पर्यावरण को। हाल के हफ़्तों में और उससे पहले उत्तराखण्ड की तबाही के दिल दहलाने वाले वीडियो टीवी समाचारों में देख कर आप और हम भले ही काँप उठे हों पर शायद सत्ताधीशों की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। अगर पड़ता है तो वे अपनी सोच और नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन कर भारत माता के मुकुट स्वरूप हिमालय पर्वत श्रृंखला पर विकास के नाम पर चल रहे इस दानवीय विनाश को अविलंब रोकें। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो माना जायेगा कि उनका हर दावा और हर वक्तव्य जनता को केवल मूर्ख बनाने के लिए है।  

Monday, August 28, 2023

चंद्रयान-3 के श्रेय पर विवाद क्यों ?

चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर विक्रम लैंडर उतारकर भारत ने पूरी दुनिया में अपनी कामयाबी के झंडे गाढ़  दिए हैं। हमारी इस सफलता पर पूरी दुनिया हर्षित है। यहाँ तक कि हमेशा खफ़ा रहने वाला पाकिस्तान भी हमें इस कामयाबी के लिए बधाई दे रहा है। अब भारत दुनिया के उन चार देशों में से एक है जिन्होंने चाँद पर अपना उपग्रह उतारा है। इनमें भी चाँद के दक्षिणी ध्रुव पर ये करामात दिखने वाला भारत अकेला देश है। इस अभूतपूर्व सफलता के लिए वो सैकड़ों वैज्ञानिक जिम्मेदार हैं जिन्होंने पिछले साठ सालों में रात-दिन मेहनत करके यह संभव कर दिखाया है। इस उपलब्धि पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विश्व को दक्षिण अफ़्रीका से संबोधित करते हुए कहा कि, अब चंदा मामा दूर के नहीं बल्कि चंदा मामा टूर के हो गये हैं



जब से ये उपलब्धि हुई है तब से इसका श्रेय लेने वालों में होड़ लग गई है। जहाँ भाजपा और संघ परिवार इसे मोदी जी के नेतृत्व में मिली सफलता बताकर जश्न मना रहा हैं, वहीं कांग्रेस के नेता ये याद दिला रहे हैं कि इस सफलता के पीछे भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु की दूरदृष्टि और वैज्ञानिक सोच है। जिन्होंने डॉ विक्रम साराभाई की योग्यता को पहचाना और 1962 में ‘इंडियन नेशनल कमेटी फॉर स्पेस रिसर्च’ की स्थापना की। यही समिति 15 अगस्त 1969 को ‘इसरो’ (इंडियन स्पेस रिसर्च आर्गेनाईजेशन) बनी। तब से होमी जहांगीर भाभा, विक्रम साराभाई, सतीश धवन, मेघानन्द साहा, शांति स्वरुप भटनागर, ए पी जे अब्दुल कलाम और वर्तमान में श्रीधर सोमनाथ व के सिवान जैसे वैज्ञानिकों ने भारत के अन्तरिक्ष अभियान को दिशा प्रदान की। हालाँकि भारत के सुविख्यात परमाणु वैज्ञानिक डॉ भाभा की इस अभियान में कोई सीधी भागीदारी नहीं थी पर उन्हें इस बात के लिए याद किया जाता है कि उन्होंने डॉ विक्रम साराभाई को प्रोत्साहित किया। 


23 अगस्त 2023 को मिली सफलता एक ही दिन के प्रयास से संभव नहीं हुई है। इसके पीछे 48 वर्षों की कठिन तपस्या का इतिहास है। भारत ने सबसे पहला उपग्रह 1975 में भेजा था जिसे ‘आर्यभट्ट’ के नाम से जाना जाता है। तब से अब तक भारत द्वारा 120 उपग्रह अन्तरिक्ष में भेजे जा चुके हैं। इस तरह क्रमश हम इस मुकाम तक पहुंचे हैं। हर बार भारत के वैज्ञानिकों ने कुछ नया सीखा और उसके अनुसार अगले उपग्रह को तैयार किया। 2019 में चंद्रयान-2 की विफलता से सीखकर चंद्रयान-3 भेजा गया और ये अभियान सफल रहा।



किसी भी देश की नीतियों पर उसके प्रधानमंत्री की सोच और नेतृत्व का असर पड़ता है। भारत के अन्तरिक्ष अभियान को आगे बढ़ाने में पंडित नेहरु के बाद श्रीमति इंदिरा गाँधी से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी, डॉ मनमोहन सिंह व श्री नरेन्द्र मोदी सबकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसलिए किसी एक को इस उपलब्धि का श्रेय नहीं दिया जा सकता। पर मोदी जी की आलोचना करने वालों का यह तर्क गलत है कि वे इसका श्रेय क्यों ले रहे हैं। सामान्य सी बात है कि किसी भी मोर्चे पर देश को अगर सफलता मिलती है या असफलता तो यश और अपयश दोनों प्रधानमंत्री के खाते में जाता है। उदाहरण के तौर पर बांग्लादेश को आजाद कराने की लड़ाई मोर्चे पर तो भारतीय फौज ने लड़ी थी और पाकिस्तान को न सिर्फ करारी शिकस्त दी थी बल्कि उसके दो टुकड़े कर दिए। पर दुनिया में यशगान तो श्रीमति इंदिरा गाँधी का हुआ, जिन्होंने सही समय पर कड़े निर्णय लिए। ऐसे ही चंद्रयान-3 की इस उपलब्धि का श्रेय ‘इसरो’ के वैज्ञानिकों के साथ प्रधानमंत्री मोदी को भी मिलना स्वाभाविक है। 



इसी तरह जब आज़ादी मिलने के कुछ वर्ष बाद ही 1962 में चीन के हमले में भारत को पराजय का मुंह देखना पड़ा था तो पंडित नेहरु को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया गया और कहा गया कि उनका पंचशील का सिद्धान्त असफल रहा। जिसके लिए संघ परिवार आज तक पंडित नेहरु की आलोचना करता है कि उन्होंने भारत की भूमि का एक हिस्सा चीन के हाथ जाने दिया। ठीक वैसे ही जैसे आज का विपक्ष गलवान की शहादत और चीन के भारत पर हाल के वर्षों में किये गये हस्तक्षेप और घुसपैठ को न रोक पाने के लिए मोदी जी को जिम्मेदार ठहराता है। 


चंद्रयान-3 की सफलता के बाद से पिछले दिनों मीडिया में भारत के अन्तरिक्ष अभियान को लेकर तमाम जानकारियां दी जा रही हैं। सबसे महत्वपूर्ण है ये जानना कि पृथ्वी के 14 दिन चाँद के एक दिन के बराबर होते हैं। इन 14 दिनों में विक्रम लैंडर चाँद की सतह पर से तमाम वैज्ञानिक सूचनाएँ पृथ्वी पर भेजेगा। उसके बाद ये काम करना बंद कर देगा क्योंकि वहाँ अँधेरा छा जायेगा और इसकी सौर उर्जा बैटरियां निष्क्रिय हो जाएँगी। उल्लेखनीय है कि 50 वर्ष पूर्व हुए अमरीका के ‘अपोलो मिशन’ की तरह चंद्रयान-3 चाँद पर से मिट्टी या पत्थर का नमूना लेकर नहीं लौटेगा। ऐसा हो सके इसके लिए भारत के वैज्ञानिकों को अभी और मेहनत करनी होगी। पर इस विषय में मेरे पास एक ऐसी अनूठी वस्तु है जो 2019 में चन्द्रयान-2 की विफलता के बाद मैंने मीडिया से साझा की थी। ये एक माइक्रो फिल्म है जो अपोलो-14 के कमांडर एलान बी शेपर्ड, 1971 में अपने साथ चाँद पर लेकर गये थे। इस फिल्म में अमरीका के दैनिक की 25 नवम्बर 1908 की वो ख़बर थी जिसमें लिखा था कि एक दिन मानव चन्द्रमा पर उतरेगा। उनके साथ ऐसी 100 माइक्रो फिल्म चाँद पर भेजी गईं थीं। पृथ्वी पर लौटने के बाद इन 100 फिल्मों को प्लास्टिक के ग्लोब में सील करके दुनिया के 100 प्रमुख लोगों को भेंट किया गया था। उन्हीं 100 लोगों में से एक की पत्रकार बेटी जूली ज्विट जब 2010 में मेरे पास वृन्दावन आईं थीं तो उन्होंने ये बहुमूल्य भेंट मुझे दी यह कहकर कि अब मैं वृद्ध हो गई हूँ। मेरे बाद इस धरोहर का मूल्य कोई नहीं समझेगा। तुम पत्रकार होने के नाते इसका महत्व समझते हो इसलिए तुम्हें दे रही हूँ। चन्द्रयान-2 की विफलता के बाद मीडिया के उदास मित्रों को खुश करने के लिए मैंने वो उपहार उन्हें दिखाया तो उन्होंने उसकी फोटो अख़बारों में प्रकाशित की। जब तक भारत अन्तरिक्ष अभियान चाँद की सतह को छूकर वापस लौटेगा तब तक ये उपहार अपना महत्व कायम रखेगा। आशा और यकीन है कि भारत के अन्तरिक्ष मिशन में वह पल जल्दी ही आयेगा। 

Monday, August 21, 2023

तीर्थों की भीड़ संभालें !

प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी व उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री श्री योगी जी ने हिन्दू तीर्थों के विकास की तरफ जितना ध्यान पिछले सालों में दिया है उतना पिछली दो सदी में किसी ने नही दिया था। ये बात दूसरी है कि उनकी कार्यशैली को लेकर संतों के बीच कुछ मतभेद है। पर आज जिस विषय पर मैं अपनी बात रखना चाहता हूँ उससे हर उस हिन्दू का सरोकार है जो तीर्थाटन में रुचि रखता है। जब से काशी, अयोध्या, उज्जैन व केदारनाथ जैसे तीर्थ स्थलों पर मोदी जी ने विशाल मंदिरों का निर्माण करवाया है, तब से इन सभी तीर्थों पर तीर्थयात्रियों का सागर उमड़ पड़ा है। इतनी भीड़ आ रही है कि कहीं भी तिल रखने को जगह नही मिल रही।

इस परिवर्तन का एक सकारात्मक पहलू ये है कि इससे स्थानीय नागरिकों की आय तेज़ी से बढ़ी है और बड़े स्तर पर रोजगार का सृजन भी हुआ है। स्थानीय नागरिक ही नहीं बाहर से आकार भी लोगों ने इन तीर्थ नगरियों में भारी निवेश किया है। इससे यह भी पता चला है कि अगर देश के अन्य तीर्थ स्थलों का भी विकास किया जाए तो तीर्थाटन व पर्यटन उद्योग में भारी उछाल आ जायेगा। इस विषय में प्रांतीय सरकारों को भी सोचना चाहिए। जहाँ एक तरफ इस तरह के विकास के आर्थिक लाभ हैं वहीं इससे अनेक समस्याएँ भी पैदा हो रही हैं।



उदाहरण के तौर पर अगर मथुरा को ही लें तो बात साफ़ हो जाएगी। आज से 2 वर्ष पहले तक मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन व बरसाना आना-जाना काफ़ी सुगम था। जो आज असंभव जैसा हो गया है। कोविड के बाद से तीर्थाटन के प्रति भी एक नया ज्वार पैदा हो गया है। आज मथुरा के इन तीनों तीर्थ स्थलों पर प्रवेश से पहले वाहनों की इतनी लम्बी कतारें खड़ी रहती हैं कि कभी-कभी तो लोगों को चार-चार घंटे इंतज़ार करना पड़ता है। यही हाल इन कस्बों की सड़कों व गलियों का भी हो गया है। जन सुविधाओं के अभाव में, भारी भीड़ के दबाव में वृन्दावन में बिहारी जी मंदिर के आस-पास आए दिन लोगों के कुचलकर मरने या बेहोश होने की ख़बरें आ रही हैं। भीड़ के दबाव को देखते हुए आधारभूत संरचना में सुधार न हो पाने के कारण आए दिन दुर्घटनाएँ हो रही हैं। जैसे हाल ही में वृंदावन के एक पुराने मकान का छज्जा गिरने से पांच लोगों की मौत और पांच लोग गंभीर रूप से घायल हो गए। अब नगर निगम ने वृन्दावन के ऐसे सभी जर्जर भवनों की पहचान करना शुरू किया है जिनसे जान-माल का खतरा हो सकता है। ऐसे सभी भवनों को प्रशासन निकट भविष्य में मकान-मालिकों से या स्वयं ही गिरवा देगा, ऐसे संकेत मिल रहे हैं। ये एक सही कदम होगा। पर इसमें एक सावधानी बरतनी होगी कि जो भवन पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं या जिनकी वास्तुकला ब्रज की संस्कृति को प्रदर्शित करती है, उन्हें गिराने की बजाय उनका जीर्णोद्धार किया जाना चाहिए।



इस सन्दर्भ में यह बात भी महत्वपूर्ण है कि जो नए निर्माण हो रहे हैं या भविष्य में होंगे उनमें भवन निर्माण के नियमों का पालन नही हो रहा। जिससे अनेक समस्याएँ पैदा हो रही हैं। इस पर कड़ाई से नियंत्रण होना चाहिए। पिछले दिनों यमुना जी की बाढ़ ने जिस तरह वृन्दावन में अपना रौद्र रूप दिखाया उससे स्थिति की गंभीरता को समझते हुए मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ ने यमुना डूब क्षेत्र में हुए सभी अवैध निर्माण गिराने के आदेश दिए हैं। फिर वो चाहें घर हों, आश्रम हों या मंदिर हों। स्थानीय नागरिकों का प्रश्न है कि यमुना के इसी डूब क्षेत्र में हाल के वर्षों जो निर्माण सरकारी संस्थाओं ने बिना दूर-दृष्टि के करवा दिए क्या उनको भी ध्वस्त किया जायेगा?


जहाँ तक तीर्थ नगरियों में भीड़ और यातायात को नियंत्रित करने का प्रश्न है इस दिशा में प्रधान मंत्री मोदी जी को विशेष ध्यान देना चाहिए। हालांकि यह विषय राज्य का होता है लेकिन समस्या सब जगह एक सी है। इसलिए इस पर एक व्यापक सोच और नीति की ज़रूरत है, जिससे प्रांतीय सरकारों को हल ढूँढने में मदद मिल सके। वैसे आन्ध्र प्रदेश के तीर्थ स्थल तिरुपति बालाजी का उदाहरण सामने है जहाँ लाखों तीर्थयात्री बिना किसी असुविधा के दर्शन लाभ प्राप्त करते हैं। जबकि मुख्य मंदिर का प्रांगण बहुत छोटा है और उसका विस्तार करने की बात कभी सोची नही गई। इसी तरह अगर काशी, मथुरा व उज्जैन जैसे तीर्थ नगरों की यातायात व्यवस्था पर इस विषय के जानकारों और विशेषज्ञों की मदद ली जाए तो विकराल होती इस समस्या का हल निकल सकता है।


तीर्थ स्थलों के विकास की इतनी व्यापक योजनाएँ चलाकर प्रधान मंत्री मोदी जी ने आज सारी दुनिया का ध्यान सनातन हिन्दू धर्म की ओर आकर्षित किया है। स्वाभाविक है कि इससे आकर्षित होकर देशी पर्यटक ही नही बल्कि विदेशों से भी भारी मात्रा में पर्यटक इन तीर्थ नगरों को देखने आ रहे हैं। अगर उन्हें इन नगरों में बुनियादी सुविधाएँ भी नही मिलीं या भारी भीड़ के कारण परेशानियों का सामना करना पड़ा, तो इससे एक ग़लत संदेश जायेगा। इसलिए तीर्थों के विकास के साथ आधारभूत ढांचे के विकास पर भी ध्यान देना चाहिए। केंद्र और राज्य की सरकारें हमारे धर्मक्षेत्रों को सजाएं-संवारें तो सबसे ज्यादा हर्ष हम जैसे करोड़ों धर्म प्रेमियों को होगा, पर धाम सेवा के नाम पर, अगर छलावा, ढोंग और घोटाले होंगे तो भगवान तो रुष्ट होंगे ही, भाजपा की भी छवि खराब होगी।


2008 से मैं, अपने साप्ताहिक लेखों में मोदी जी के कुछ अभूतपूर्व प्रयोगों की चर्चा करता रहा हूँ जो उन्होंने गुजरात का मुख्य मंत्री रहते हुए किये थे। जैसे हर समस्या के हल के लिए उसके विशेषज्ञों को बुलाना और उनकी सलाह को नौकरशाही से ज्यादा वरीयता देना। ऐसा ही प्रयोग इन तीर्थ नगरों के लिए किया जाना चाहिए क्योंकि कानून-व्यवस्था की दैनिक जिम्मेदारी में उलझा हुआ जिला-प्रशासन इस तरह की नई जिम्मेदारियों को सँभालने के लिए न तो सक्षम होता है और न उसके पास इतनी ऊर्जा और समय होता है। इसलिए समाधान गैर-पारंपरिक तरीकों से निकला जाना चाहिए। 

Monday, August 14, 2023

चुनाव आयोग: हंगामा है क्यों बरपा?


भारतीय लोकतंत्र का एक रोचक पहलू यह है कि जो विपक्ष में होता है वो सरकार के हर निर्णय की बढ़-चढ़ कर आलोचना करता है। पर जब वही दल सत्ता में आ जाते हैं तो वही करते हैं जो पूर्ववर्ती सरकारें करती आईं हैं। पत्रकार इस नूरा-कुश्ती से कभी प्रभावित नहीं होते। जबकि ये इस देश के मीडिया का दुर्भाग्य है कि उसके काफ़ी
  सदस्य राजनैतिक ख़ेमों में बटे रहते हैं और इसलिए उनकी पत्रकारिता एक पक्षीय होती है। ऐसे ही पत्रकार अपने समर्थकों के शासन में आने पर मलाई खाते हैं और उनके विपक्ष में बैठने पर प्रलाप करते हैं। 


अगर हर राजनैतिक दल देश की समस्याओं का ईमानदारी से हल निकालना चाहे तो यह कार्य बिल्कुल भी कठिन नहीं है। पर हल निकालने से ज़्यादा राजनैतिक लाभ पाने के उद्देश्य से शोर मचाया जाता है। जैसे अब चुनाव आयोग पर प्रधान मंत्री के नियंत्रण की संभावना वाले विधेयक को देख कर मचाया जा रहा है। जो आज मोदी सरकार के इस कदम की आलोचना कर रहे हैं, जब वे सरकार में थे तो उन्होंने भी चुनाव आयुक्त की ताक़त को कम करने का काम किया था।    



ताज़ा विवाद इसलिए पैदा हुआ है कि भारत सरकार ने संसद के मानसून सत्र में अचानक एक नया बिल पेश करके राजनैतिक हलकों में खलबली मचा दी है। इस प्रस्तावित विधेयक के अनुसार चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए बनने वाली चयन समिति में अब केवल प्रधान मंत्री, उनके द्वारा मनोनीत उनका कैबिनेट मंत्री और नेता प्रतिपक्ष हींगें। इसका सीधा मतलब यह हुआ कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति, चयन समिति में बहुमत के आधार पर सीधे प्रधान मंत्री करेंगे। जबकि 2 मार्च 2023 को सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ के सदस्य पाँचों न्यायाधीशों ने एक मत से यह आदेश दिया था कि इस समिति में प्रधान मंत्री, नेता प्रतिपक्ष व भारत के मुख्य न्यायाधीश सदस्य होंगे। हालाँकि यह व्यवस्था क़ानून बनाए जाने तक की ही थी पर इसमें संविधान के रक्षक सर्वोच्च न्यायालय ने अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया था। इसलिए देश की अपेक्षा यही थी कि इसी आदेश को आधार मानते हुए चुनाव आयोग के आयुक्तों के चयन का क़ानून बनाया जाएगा। उल्लेखनीय है कि अब तक चुनाव आयुक्तों के चयन की कोई लोकतांत्रिक व पारदर्शी व्यवस्था नहीं रही है। आजतक केंद्र सरकार के मुखिया ही अब तक चुनाव आयुक्तों का चयन करते आये हैं। 



पिछले कुछ वर्षों में चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर लगातार सवाल खड़े हो रहे हैं। आरोप है कि मौजूदा चुनाव आयोग केंद्र सरकार के इशारों पर काम कर रहा है। ऐसे में बार-बार देश 90 के दशक के बहुचर्चित मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषण को बार-बार याद कर रहा है। जिन्होंने पुराने ढाँचे में रहते हुए भी चुनाव आयोग के संवैधानिक महत्व को पहचाना और देश के राजनैतिक दलों को एक मज़बूत और निष्पक्ष चुनाव आयोग बना कर दिखाया। उन्होंने इसी दौर में देश की चुनाव प्रक्रिया में क्रांतिकारी परिवर्तन किए और चुनावों को यथासंभव पारदर्शी बनाया। हालाँकि, शेषण का एक छत्र शासन कुछ ही समय तक चला क्योंकि उनके आक्रामक व्यवहार से घबराकर तत्कालीन प्रधान मंत्री नरसिंह राव ने शेषण के दो सहयोगी चुनाव आयुक्तों की ताक़त बढ़ा कर उनके समकक्ष कर दी। ऐसे में अब टी एन शेषण कोई भी निर्णय अकेले लेने के लिए स्वतंत्र नहीं थे। 


मौजूदा चुनाव आयोग पर पक्षपात पूर्ण होने का आरोप लगाकर कुछ जनहित याचिकाएँ सर्वोच्च न्यायालय में दायर हुईं, जिन पर सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने उक्त आदेश पारित किया, जिसे मौजूदा सरकार ने इस नये प्रस्तावित विधेयक के मार्फ़त दर किनार कर दिया। ज़ाहिर है कि सरकार के इस कदम से विपक्षी दलों को डर है कि अब मोदी सरकार, चुनाव आयोग को अपनी मुट्ठी में जकड़ कर आगामी चुनावों को प्रभावित करेगी। इसलिए ये विधेयक पेश होते ही राजनैतिक हलकों और सोशल मीडिया पर चर्चाओं का दौर शुरू हो गया है। केंद्र सरकार के प्रति सोशल मीडिया पर लगातार आक्रामक रहने वाले बुद्धिजीवीयों और पत्रकारों का कहना है कि सरकार का यह कदम लोकतंत्र की समाप्ति की दिशा में आगे बढ़ने वाला है। उनका आरोप है कि अब आगामी चुनाव निष्पक्ष नहीं हो पाएँगे। पर महत्वपूर्ण बात यह है कि जब तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषण के अधिकारों कम किया गया था तब कोई भी राजनैतिक दल शेषण के समर्थन में खड़ा नहीं हुआ था। 



इसी तरह दिल्ली सरकार के प्रशासनिक नियंत्रण को कम करने का मामला है। इसी सत्र में दिल्ली सरकार के अधिकारों को सीमित करने वाला जो विधेयक संसद में पारित हुआ उसकी भी पृष्ठभूमि में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को दर-किनार करने की मंशा ज़ाहिर हुई है। जबकि भाजपा ने चार दशकों तक दिल्ली को स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिलाने के लिए संघर्ष किया था। पर आज उसी उपलब्धि को भाजपा अपने ऊपर भार मान रही है। 



तमाम ऐसे मुद्दे हैं जिनमें ये बात साफ़ होती है कि जहां अपने अधिकारों को कम करने की या अपने वेतन और भत्तों की बढ़ाने की बात होती है तो वहाँ सत्तापक्ष और विपक्ष एक हो जाते हैं। ऐसे ही जैन हवाला केस में 1997 के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुरूप सरकारी जाँच एजेंसियों के ऊपर नियंत्रण रखने वाले केंद्रीय सतर्कता आयोग को स्वायत्ता देने की बात कही गई थी। पर जब सीवीसी अधिनियम बनाने का समय आया तो संसदीय समिति ने सर्वोच्च न्यायालय के तमाम निर्देशों को दर-किनार कर एक ऐसा विधेयक बनाया जिसमें केंद्रीय सतर्कता आयोग के अधिकारों को सीमित कर दिया। इसे दंत-विहीन संस्था बना दिया। जहां तक मुझे याद है इस संसदीय समिति में कांग्रेस के सांसद संजय निरुपम, भाजपा की सांसद सुषमा स्वराज, एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार जैसे विभिन्न दलों के भारी भरकम नेता थे। अगर ये चाहते तो सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुरूप सीवीसी को एक ताकतवर संस्था बना सकते थे। अब जब सीबीआई या ईडी विपक्ष पर अपना शिकंजा कसती है, तो मोदी सरकार पर उसके दुरुपयोग का आरोप लगाया जाता है। अगर विधेयक बनाते समय इस बात का ध्यान रखा गया होता तो कोई भी दल जो केंद्र में सत्ता हासिल करता वो द्वेष की भावना से विपक्षी दलों पर ऐसा हमला न कर पाता, जिससे उसके एक पक्षीय होना सिद्ध होता। वो निष्पक्षता अपना काम करता।


यह सही है कि हर राजनैतिक दल अपनी विचारधारा के अनुरूप अपने कुछ लक्ष्य निर्धारित करता है और सत्ता में आने के बाद उन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए काम करता है। उस दृष्टि से भाजपा को भी हक़ है कि वो अपने एजेंडा के अनुरूप योजनाओं और कार्यक्रमों में बदलाव करे। पर संविधान में बदलाव करने के दूरगामी परिणाम होते हैं। इसलिए ऐसे क़ानून यथासंभव अगर सर्वसम्मति से बनाए जाते हैं तो उससे राजनीति में कटुता या वैमनस्य उत्पन्न नहीं होगा और सरकार के लिए भी काम करना आसान होगा। उदाहरण के तौर पर किसानों से संबंधित विधेयक अगर सामूहिक बहस के बाद लाए जाते तो हो सकता है कि उन विधायकों के कई हिस्सों पर आम-सहमति बन जाती और इतना बवण्डर खड़ा नहीं होता।