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Monday, March 24, 2025

सुनीता विलियम्स का अंतरिक्ष में नौ महीने रहना: वरदान या चुनौती?


सुनीता विलियम्स की वापसी से सारी दुनिया ने राहत के सांस ली है। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आईएसएस) पर नौ महीने से अधिक समय बिताकर सुर्खियां बटोरीं। यह यात्रा, जो मूल रूप से केवल आठ दिनों के लिए नियोजित थी, बोइंग स्टारलाइनर अंतरिक्ष यान में तकनीकी खराबी के कारण अनपेक्षित रूप से लंबी हो गई। 5 जून 2024 को शुरू हुई यह यात्रा 19 मार्च 2025 को समाप्त हुई, जब वे स्पेसएक्स ड्रैगन यान के जरिए पृथ्वी पर लौटीं। इस घटना ने कई सवाल खड़े किए हैं: क्या सुनीता का यह लंबा अंतरिक्ष प्रवास एक वरदान था या यह एक चुनौतीपूर्ण अनुभव था जिसने उनके जीवन और विज्ञान को नए आयाम दिए? आज इस प्रश्न का हम गहराई से विश्लेषण करेंगे।


सुनीता विलियम्स और उनके सहयोगी बुच विल्मोर को बोइंग स्टारलाइनर के पहले मानवयुक्त परीक्षण मिशन के तहत आईएसएस पर भेजा गया था। योजना थी कि वे आठ दिन वहां रहकर अंतरिक्ष यान की कार्यक्षमता का परीक्षण करेंगे और वापस लौट आएंगे। लेकिन स्टारलाइनर के थ्रस्टर्स में खराबी और हीलियम रिसाव जैसी समस्याओं ने उनकी वापसी को असंभव बना दिया। नासा ने सुरक्षा को प्राथमिकता देते हुए स्टारलाइनर को बिना चालक दल के पृथ्वी पर वापस भेजा और सुनीता विलियम्स को आईएसएस पर ही रहने का निर्णय लिया। इस तरह, उनका आठ दिन का मिशन नौ महीने की लंबी यात्रा में बदल गया।



सुनीता विलियम्स का यह लंबा प्रवास विज्ञान के लिए एक अनमोल अवसर साबित हुआ। आईएसएस पर रहते हुए उन्होंने 150 से अधिक वैज्ञानिक प्रयोग किए, जिनमें 900 घंटे से ज्यादा समय रिसर्च में बिताया। इन प्रयोगों में जल पुनर्चक्रण प्रणाली, सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण में बैक्टीरिया और यीस्ट की जैव-उत्पादन प्रक्रिया और अंतरिक्ष के कठोर वातावरण में सामग्रियों के पुराने होने जैसे अध्ययन शामिल थे। ये शोध भविष्य के अंतरिक्ष मिशनों, विशेष रूप से मंगल ग्रह जैसे लंबी अवधि के अभियानों के लिए महत्वपूर्ण हैं।


उदाहरण के लिए, पैक्ड बेड रिएक्टर एक्सपेरिमेंट (PBRE-WRS) में सुनीता ने जल पुनर्जनन प्रणाली की जांच की, जो यह समझने में मदद करती है कि सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण में जल शोधन कैसे काम करता है। यह तकनीक अंतरिक्ष यात्रियों के लिए पानी की आपूर्ति को आत्मनिर्भर बनाने में सहायक हो सकती है। इसी तरह, यूरो मटेरियल एजिंग प्रयोग ने अंतरिक्ष यान और उपग्रहों के डिजाइन को बेहतर बनाने के लिए डेटा प्रदान किया। इस दृष्टिकोण से देखें तो उनका लंबा प्रवास न केवल नासा के लिए, बल्कि पूरी मानवता के लिए एक वरदान था, क्योंकि इससे प्राप्त ज्ञान अंतरिक्ष अन्वेषण के भविष्य को आकार देगा।



सुनीता विलियम्स पहले से ही एक प्रेरणादायक व्यक्तित्व हैं। उन्होंने अपनी पहली अंतरिक्ष यात्रा (2006-07) में 29 घंटे से अधिक का स्पेसवॉक करके महिलाओं के लिए रिकॉर्ड बनाया था। इस बार, नौ महीने के प्रवास के दौरान उन्होंने कुल 62 घंटे और 9 मिनट का स्पेसवॉक पूरा किया, जिससे वह अंतरिक्ष में सबसे अधिक समय तक स्पेसवॉक करने वाली महिला बन गईं। यह उपलब्धि उनके धैर्य, साहस और समर्पण का प्रतीक है।


इसके अलावा, वे अंतरिक्ष में लगातार सबसे लंबे समय तक रहने वाली पहली महिला भी बन गईं। यह रिकॉर्ड न केवल उनके करियर का एक सुनहरा पन्ना है, बल्कि यह दुनिया भर की महिलाओं और युवाओं के लिए एक प्रेरणा है कि कठिन परिस्थितियों में भी सफलता हासिल की जा सकती है। इस नजरिए से, उनका यह अनुभव निस्संदेह एक वरदान था, जिसने उन्हें इतिहास में और ऊंचा स्थान दिलाया है । 


हालांकि, अंतरिक्ष में नौ महीने बिताना केवल उपलब्धियों की कहानी नहीं है। सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण में इतना लंबा समय बिताने से मानव शरीर पर गहरा प्रभाव पड़ता है। हड्डियों का घनत्व हर महीने लगभग 1% तक कम हो जाता है, जिससे ऑस्टियोपोरोसिस का खतरा बढ़ता है। मांसपेशियां, खासकर पैरों और पीठ की, कमजोर हो जाती हैं, क्योंकि वहां वजन का कोई उपयोग नहीं होता। सुनीता और उनके सहयोगी ने रोजाना 2.5 घंटे की कठिन व्यायाम योजना का पालन किया, जिसमें ट्रेडमिल, वेट लिफ्टिंग और स्क्वैट्स शामिल थे, ताकि इस नुकसान को कम किया जा सके। फिर भी, पृथ्वी पर लौटने के बाद उन्हें सामान्य चलने-फिरने में समय लगेगा, और फिजियोथेरेपी की जरूरत पड़ेगी।


मानसिक रूप से भी यह यात्रा आसान नहीं थी। परिवार से दूर, एक सीमित स्थान में नौ महीने बिताना भावनात्मक तनाव पैदा कर सकता है। हालांकि, सुनीता ने इंटरनेट कॉल के जरिए अपने पति, मां और परिवार से संपर्क बनाए रखा, जिससे उन्हें भावनात्मक सहारा मिला। फिर भी, अनिश्चितता और अलगाव की भावना उनके लिए एक बड़ी चुनौती रही होगी। इस दृष्टिकोण से, यह अनुभव एक वरदान कम और एक कठिन परीक्षा अधिक लगता है।


सुनीता का यह अनपेक्षित ठहराव अंतरिक्ष एजेंसियों के लिए एक महत्वपूर्ण सबक भी लेकर आया। बोइंग स्टारलाइनर की तकनीकी खामियों ने यह सवाल उठाया कि क्या निजी कंपनियां अंतरिक्ष यात्रा के लिए पूरी तरह तैयार हैं। इस घटना ने नासा को स्पेसएक्स जैसे वैकल्पिक विकल्पों पर निर्भरता बढ़ाने के लिए मजबूर किया, जिसके ड्रैगन यान ने अंततः सुनीता और बुच को वापस लाया। यह अनुभव अंतरिक्ष यानों की विश्वसनीयता, सुरक्षा प्रोटोकॉल और आपातकालीन योजनाओं को बेहतर करने की जरूरत को रेखांकित करता है। इस तरह, यह घटना भविष्य के मिशनों को सुरक्षित और प्रभावी बनाने के लिए एक वरदान साबित हो सकती है।


भारत के लिए सुनीता विलियम्स का यह सफर विशेष रूप से गर्व का विषय है। गुजरात के अहमदाबाद से संबंध रखने वाली सुनीता ने न केवल अपनी उपलब्धियों से, बल्कि अपनी दृढ़ता से भी भारतीय युवाओं को प्रेरित किया। उनकी कहानी यह सिखाती है कि तकनीकी बाधाएं और व्यक्तिगत चुनौतियां भी इंसान को अपने लक्ष्य से नहीं रोक सकतीं। भारत जैसे देश में, जहां अंतरिक्ष अनुसंधान तेजी से बढ़ रहा है (जैसे गगनयान मिशन), सुनीता का यह अनुभव एक प्रेरणादायक उदाहरण बन सकता है। इस नजरिए से, उनका नौ महीने का प्रवास भारत के लिए भी एक अप्रत्यक्ष वरदान है।

सुनीता विलियम्स का अंतरिक्ष में नौ महीने का प्रवास एक सिक्के के दो पहलुओं जैसा है। एक ओर, यह वैज्ञानिक प्रगति, व्यक्तिगत उपलब्धियों और भविष्य के मिशनों के लिए सबक लेकर आया, जो इसे एक वरदान बनाता है। दूसरी ओर, शारीरिक और मानसिक चुनौतियों ने इसे एक कठिन अनुभव बनाया, जिसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। शायद सच्चाई यह है कि यह दोनों का मिश्रण था—एक ऐसा वरदान जो कठिनाइयों के साथ आया, और एक ऐसी चुनौती जो अनमोल अवसरों में बदल गई। सुनीता की यह यात्रा हमें सिखाती है कि जीवन में अप्रत्याशित परिस्थितियां चाहे जितनी कठिन हों, उनसे कुछ न कुछ सकारात्मक हासिल किया जा सकता है। 

Monday, August 28, 2023

चंद्रयान-3 के श्रेय पर विवाद क्यों ?

चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर विक्रम लैंडर उतारकर भारत ने पूरी दुनिया में अपनी कामयाबी के झंडे गाढ़  दिए हैं। हमारी इस सफलता पर पूरी दुनिया हर्षित है। यहाँ तक कि हमेशा खफ़ा रहने वाला पाकिस्तान भी हमें इस कामयाबी के लिए बधाई दे रहा है। अब भारत दुनिया के उन चार देशों में से एक है जिन्होंने चाँद पर अपना उपग्रह उतारा है। इनमें भी चाँद के दक्षिणी ध्रुव पर ये करामात दिखने वाला भारत अकेला देश है। इस अभूतपूर्व सफलता के लिए वो सैकड़ों वैज्ञानिक जिम्मेदार हैं जिन्होंने पिछले साठ सालों में रात-दिन मेहनत करके यह संभव कर दिखाया है। इस उपलब्धि पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विश्व को दक्षिण अफ़्रीका से संबोधित करते हुए कहा कि, अब चंदा मामा दूर के नहीं बल्कि चंदा मामा टूर के हो गये हैं



जब से ये उपलब्धि हुई है तब से इसका श्रेय लेने वालों में होड़ लग गई है। जहाँ भाजपा और संघ परिवार इसे मोदी जी के नेतृत्व में मिली सफलता बताकर जश्न मना रहा हैं, वहीं कांग्रेस के नेता ये याद दिला रहे हैं कि इस सफलता के पीछे भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु की दूरदृष्टि और वैज्ञानिक सोच है। जिन्होंने डॉ विक्रम साराभाई की योग्यता को पहचाना और 1962 में ‘इंडियन नेशनल कमेटी फॉर स्पेस रिसर्च’ की स्थापना की। यही समिति 15 अगस्त 1969 को ‘इसरो’ (इंडियन स्पेस रिसर्च आर्गेनाईजेशन) बनी। तब से होमी जहांगीर भाभा, विक्रम साराभाई, सतीश धवन, मेघानन्द साहा, शांति स्वरुप भटनागर, ए पी जे अब्दुल कलाम और वर्तमान में श्रीधर सोमनाथ व के सिवान जैसे वैज्ञानिकों ने भारत के अन्तरिक्ष अभियान को दिशा प्रदान की। हालाँकि भारत के सुविख्यात परमाणु वैज्ञानिक डॉ भाभा की इस अभियान में कोई सीधी भागीदारी नहीं थी पर उन्हें इस बात के लिए याद किया जाता है कि उन्होंने डॉ विक्रम साराभाई को प्रोत्साहित किया। 


23 अगस्त 2023 को मिली सफलता एक ही दिन के प्रयास से संभव नहीं हुई है। इसके पीछे 48 वर्षों की कठिन तपस्या का इतिहास है। भारत ने सबसे पहला उपग्रह 1975 में भेजा था जिसे ‘आर्यभट्ट’ के नाम से जाना जाता है। तब से अब तक भारत द्वारा 120 उपग्रह अन्तरिक्ष में भेजे जा चुके हैं। इस तरह क्रमश हम इस मुकाम तक पहुंचे हैं। हर बार भारत के वैज्ञानिकों ने कुछ नया सीखा और उसके अनुसार अगले उपग्रह को तैयार किया। 2019 में चंद्रयान-2 की विफलता से सीखकर चंद्रयान-3 भेजा गया और ये अभियान सफल रहा।



किसी भी देश की नीतियों पर उसके प्रधानमंत्री की सोच और नेतृत्व का असर पड़ता है। भारत के अन्तरिक्ष अभियान को आगे बढ़ाने में पंडित नेहरु के बाद श्रीमति इंदिरा गाँधी से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी, डॉ मनमोहन सिंह व श्री नरेन्द्र मोदी सबकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसलिए किसी एक को इस उपलब्धि का श्रेय नहीं दिया जा सकता। पर मोदी जी की आलोचना करने वालों का यह तर्क गलत है कि वे इसका श्रेय क्यों ले रहे हैं। सामान्य सी बात है कि किसी भी मोर्चे पर देश को अगर सफलता मिलती है या असफलता तो यश और अपयश दोनों प्रधानमंत्री के खाते में जाता है। उदाहरण के तौर पर बांग्लादेश को आजाद कराने की लड़ाई मोर्चे पर तो भारतीय फौज ने लड़ी थी और पाकिस्तान को न सिर्फ करारी शिकस्त दी थी बल्कि उसके दो टुकड़े कर दिए। पर दुनिया में यशगान तो श्रीमति इंदिरा गाँधी का हुआ, जिन्होंने सही समय पर कड़े निर्णय लिए। ऐसे ही चंद्रयान-3 की इस उपलब्धि का श्रेय ‘इसरो’ के वैज्ञानिकों के साथ प्रधानमंत्री मोदी को भी मिलना स्वाभाविक है। 



इसी तरह जब आज़ादी मिलने के कुछ वर्ष बाद ही 1962 में चीन के हमले में भारत को पराजय का मुंह देखना पड़ा था तो पंडित नेहरु को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया गया और कहा गया कि उनका पंचशील का सिद्धान्त असफल रहा। जिसके लिए संघ परिवार आज तक पंडित नेहरु की आलोचना करता है कि उन्होंने भारत की भूमि का एक हिस्सा चीन के हाथ जाने दिया। ठीक वैसे ही जैसे आज का विपक्ष गलवान की शहादत और चीन के भारत पर हाल के वर्षों में किये गये हस्तक्षेप और घुसपैठ को न रोक पाने के लिए मोदी जी को जिम्मेदार ठहराता है। 


चंद्रयान-3 की सफलता के बाद से पिछले दिनों मीडिया में भारत के अन्तरिक्ष अभियान को लेकर तमाम जानकारियां दी जा रही हैं। सबसे महत्वपूर्ण है ये जानना कि पृथ्वी के 14 दिन चाँद के एक दिन के बराबर होते हैं। इन 14 दिनों में विक्रम लैंडर चाँद की सतह पर से तमाम वैज्ञानिक सूचनाएँ पृथ्वी पर भेजेगा। उसके बाद ये काम करना बंद कर देगा क्योंकि वहाँ अँधेरा छा जायेगा और इसकी सौर उर्जा बैटरियां निष्क्रिय हो जाएँगी। उल्लेखनीय है कि 50 वर्ष पूर्व हुए अमरीका के ‘अपोलो मिशन’ की तरह चंद्रयान-3 चाँद पर से मिट्टी या पत्थर का नमूना लेकर नहीं लौटेगा। ऐसा हो सके इसके लिए भारत के वैज्ञानिकों को अभी और मेहनत करनी होगी। पर इस विषय में मेरे पास एक ऐसी अनूठी वस्तु है जो 2019 में चन्द्रयान-2 की विफलता के बाद मैंने मीडिया से साझा की थी। ये एक माइक्रो फिल्म है जो अपोलो-14 के कमांडर एलान बी शेपर्ड, 1971 में अपने साथ चाँद पर लेकर गये थे। इस फिल्म में अमरीका के दैनिक की 25 नवम्बर 1908 की वो ख़बर थी जिसमें लिखा था कि एक दिन मानव चन्द्रमा पर उतरेगा। उनके साथ ऐसी 100 माइक्रो फिल्म चाँद पर भेजी गईं थीं। पृथ्वी पर लौटने के बाद इन 100 फिल्मों को प्लास्टिक के ग्लोब में सील करके दुनिया के 100 प्रमुख लोगों को भेंट किया गया था। उन्हीं 100 लोगों में से एक की पत्रकार बेटी जूली ज्विट जब 2010 में मेरे पास वृन्दावन आईं थीं तो उन्होंने ये बहुमूल्य भेंट मुझे दी यह कहकर कि अब मैं वृद्ध हो गई हूँ। मेरे बाद इस धरोहर का मूल्य कोई नहीं समझेगा। तुम पत्रकार होने के नाते इसका महत्व समझते हो इसलिए तुम्हें दे रही हूँ। चन्द्रयान-2 की विफलता के बाद मीडिया के उदास मित्रों को खुश करने के लिए मैंने वो उपहार उन्हें दिखाया तो उन्होंने उसकी फोटो अख़बारों में प्रकाशित की। जब तक भारत अन्तरिक्ष अभियान चाँद की सतह को छूकर वापस लौटेगा तब तक ये उपहार अपना महत्व कायम रखेगा। आशा और यकीन है कि भारत के अन्तरिक्ष मिशन में वह पल जल्दी ही आयेगा।