Showing posts with label Journalist. Show all posts
Showing posts with label Journalist. Show all posts

Monday, September 18, 2023

सवालों के घेरे में टीवी चैनल


जब से इंडिया गठबंधन ने 14 मशहूर टीवी एंकरों के बॉयकॉट की घोषणा की है तब से पूरे मीडिया जगत में एक भूचाल सा आ गया है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है और ऐसा देश में पहली बार हुआ है। इन टीवी चैनलों के समर्थक और केंद्र सरकार विपक्ष के इस कदम को अलोकतांत्रिक बता रही है। उनका आरोप है कि विपक्ष सवालों से बच कर भाग रहा है। जबकि विपक्ष का कहना है कि भाजपा ने लंबे अरसे से एनडीटीवी चैनल का बहिष्कार किया हुआ था। जब तक कि उसे अडानी समूह ने ख़रीद नहीं लिया। इसके अलावा तमिलनाडु के अनेक ऐसे टीवी चैनल जो वहाँ के किसी राजनीतिक दल से नियंत्रित नहीं हैं और उनकी छवि भी दर्शकों में अच्छी है, उन सबका भी भाजपा ने बहिष्कार किया हुआ है। 


सवाल उठता है कि इस तरह सार्वजनिक बहिष्कार करके विवाद खड़ा करने के बजाए अगर विपक्षी दल एक मूक सहमति बना कर इन एंकरों का बहिष्कार करते तो भी उनका उद्देश्य पूरा हो जाता और विवाद भी खड़ा नहीं होता। पर शायद विपक्ष ने यह विवाद खड़ा ही इसलिए किया है कि वो देश के ज़्यादातर टीवी चैनलों की पक्षपातपूर्ण नीति को एक राजनैतिक मुद्दा बना कर जनता के बीच ले जाएँ। जिसमें वो सफल हुए हैं। 



इस विवाद का परिणाम यह हुआ है कि ‘गोदी मीडिया’ कहे जाने वाले इन टीवी चैनलों के समर्पित दर्शकों के बीच इन एंकरों की लोकप्रियता और बढ़ी है। जिससे इन्हें टीआरपी खोने का कोई जोखिम नहीं है। जहां तक बात उन दर्शकों की है जो वर्तमान सत्ता को नापसंद करते हैं, तो वो पहले से ही इन एंकरों के शो नहीं देखते थे, इसलिए उन पर इस विवाद का कोई नया असर नहीं पड़ेगा। पर इन टीवी चैनलों के मालिकों के सामने एक बड़ा सवाल खड़ा हो गया है। अगर वे अपने इन टीवी एंकरों के साथ खड़े नहीं रहते या इन्हें बर्खास्त कर देते हैं तो इसका ग़लत संदेश उनसे जुड़े सभी मीडिया कर्मियों के बीच जाएगा, क्योंकि ये टीवी एंकर इस तरह के इकतरफ़ा तेवर अपनी मर्ज़ी से तो नहीं अपना रहे। ज़ाहिरन इसमें उनके मालिकों की सहमति है। 


इस पूरे विवाद में मैंने एक लंबा ट्वीट (जिसे अब एक्स कहते हैं) लिखा, जिसे 24 घंटे में 35 हज़ार से ज़्यादा लोग देख चुके थे। इसमें मैंने लिखा, कि ये सब जो हो रहा है ये बहुत दुखद है। चूँकि मैं स्वयं एक पत्रकार हूँ इसलिए मुझे इस बात से बहुत कोफ़्त होती है कि आजकल सार्वजनिक विमर्श में प्रायः पत्रकारों की विश्वसनीयता पर बहुत अपमानजनक टिप्पणियाँ की जाती हैं। उसका कारण हमारे पेशे की विश्वसनीयता में आई भारी गिरावट है। सोचने वाली बात यह है कि आज से 30 वर्ष पहले जब मैंने भारत की राजनीति का सबसे ज़्यादा चर्चित और बड़ा ‘जैन हवाला कांड’ उजागर किया था, जिसमें कई प्रमुख राजनैतिक दलों के बड़े-बड़े राजनेता और बड़े अफ़सर प्रभावित हुए थे, तब भारी राजनीतिक क्षति पहुँचने के बावजूद उन राजनेताओं ने मुझ से अपने संबंध नहीं बिगाड़े। उनका कहना था कि तुमने किसी एक राजनैतिक दल का हित साधने के लिए या किसी राजनैतिक व आर्थिक लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से हम पर हमला नहीं बोला था। बल्कि तुमने तो निष्पक्षता और निडरता से पत्रकारिता के मानदंडों के अनुरूप अपना काम किया इसलिए हमें तुमसे कोई शिकायत नहीं है। उन सभी से आजतक मेरे सौहार्दपूर्ण संबंध हैं।



इस देश में खोजी टीवी पत्रकारिता की शुरुआत मैंने 1986 में दूरदर्शन (तब निजी टीवी चैनल नहीं होते थे) पर ‘सच की परछाईं’ कार्यक्रम से की थी। ये अपने समय का सबसे दबंग कार्यक्रम माना जाता था। क्योंकि इस कार्यक्रम में मैं कैमरा टीम को लेकर देश कोने-कोने में जाता था और तत्कालीन राजीव गांधी सरकार की नीतियों के क्रियांवन में ज़मीनी स्तर पर हो रही कमियों को उजागर करता था।         


इसके बाद 1989 में जब देश में पहली बार मैंने स्वतंत्र हिन्दी टीवी समाचारों की वीडियो पत्रिका ‘कालचक्र’ जारी की तो उसके भी हर अंक ने अपनी दबंग रिपोर्टों के कारण देश भर में खलबली मचाई। बावजूद इसके किसी भी राजनेता द्वारा मेरा कभी सोशल बॉयकॉट नहीं किया गया। क्योंकि यहाँ भी मैंने निष्पक्षता का पूरी तरह ध्यान रखा। चाहे कोई भी राजनैतिक दल हो और चाहे आरएसएस से लेकर नक्सलवादियों तक की विचारधारा से जुड़े प्रश्न हों, अगर वो मुझे जनहित में ठीक लगे तो उन्हें कालचक्र  की रिपोर्ट में प्रसारित करने से कभी कोई गुरेज़ नहीं किया। इसलिए लोग आजतक कालचक्र को याद करते हैं।


पिछले 40 वर्षों की टीवी पत्रकारिता के अपने अनुभव और उम्र के 68वें वर्ष में शायद मेरा यह कर्तव्य है कि मैं टीवी चैनलों में काम कर रहे अपने सहकर्मियों को उनके हित में कुछ सलाह दे सकूँ। सरकारें तो आती-जाती रहती हैं। हर केंद्र सरकार के पास अपनी उपलब्धियों का प्रचार करने के लिए दूरदर्शन, ऑल इंडिया रेडियो और पीआईबी है। जबकि लोकतंत्र में स्वतंत्र मीडिया का काम जनता की आवाज़ बनना होता है। उन्हें सरकार से तीखे सवाल पूछने होते हैं और सरकार की योजनाओं में ख़ामियों को उजागर करना होता है। अगर वे ऐसा नहीं करते तो वे पत्रकार नहीं माने जाएँगे। हाँ कोई भी रिपोर्ट या वार्ता में हर टीवी पत्रकार को कोशिश करनी चाहिए कि पूरी तरह निष्पक्षता बनी रहे। इसके साथ ही किसी भी टीवी एंकर को यह हक़ नहीं कि वो विपक्ष के नेताओं को अपमानित करे या उनसे अभद्र व्यवहार करे। टीवी की वार्ता में आने वाले सभी लोग उस एंकर के मेहमान होते हैं। इसलिए उनका पूरा सम्मान किया जाना चाहिए। तीखे सवाल भी शालीनता से पूछे जा सकते हैं। उसके लिए हमलावर होने की नौटंकी करने की कोई ज़रूरत नहीं है। आजकल चल रही ऐसी नौटंकियों के कारण ही टीवी चैनलों की विश्वसनीयता तेज़ी से घटी हैं। 


इसी क्रम में मैं उन नामी टीवी पत्रकारों को भी बिन माँगीं सलाह देना चाहूँगा जो रात-दिन प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के ख़िलाफ़ सोशल मीडिया पर हमलावर रहते हैं। तथ्यों को सामने लाना उनका कर्तव्य हैं। इसलिए वो ये ज़रूर करें। पर नरेंद्र मोदी सरकार के अच्छे कामों की उपेक्षा करके या उन कामों की प्रशंसा न करके वे ऐसे लगते हैं मानो वो विपक्ष का एजेंडा चला रहे हैं। उनका ये रवैया ग़लत है। इस तरह दोनों ख़ेमों के पत्रकारों को आत्म विश्लेषण करने ज़रूरत है। न तो हम ख़ेमों में बटें और न ही अपने दर्शकों को ख़ेमों में बाँटें। जो सही है उसे ज्यों की त्यों प्रस्तुत करें और फ़ैसला दर्शकों के विवेक पर छोड़ दें। 

Monday, July 6, 2020

कैसे जाने मीडिया ईमानदार है?

पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में पहले दिन से पढ़ाया जाता है कि पत्रकारिता के तीन उद्देश्य होते हैं; सूचना देना, शिक्षा देना व मनोरंजन करना। हर पत्रकार चाहे वो प्रिंट मीडिया का हो या टीवी मीडिया का ये बात अच्छी तरह जानता है। पर आम पाठकों और दर्शकों को इसकी सही जानकारी नहीं होती। इस लेख को पढ़ने के बाद, आप आज से ही एक विशेषज्ञ की तरह ये परीक्षण कर पाएँगे जो टीवी चैनल आप देखते हैं या जो अख़बार आप पढ़ते हैं वह पत्रकारिता के उद्देश्य पूरे कर रहा है या पत्रकारिता के आवरण में कुछ और कर रहा है। 


पहले समझ लें की सूचना, शिक्षा और मनोरंजन का सही अर्थ क्या है। मीडिया का काम आपको सूचना देना है। सूचना वो हो जो आपसे छिपाई जा रही हो। उसे खोज कर निकालना और आप तक पहुँचाना होता है। साफ़ ज़ाहिर है कि सरकार की घोषणाएँ, मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और प्रधान मंत्रियों के वक्तव्य और उन पर बहस इस श्रेणी में नहीं आते। उन्हें जनता तक पहुँचाने का काम सरकार का दूरदर्शन, उसकी समाचार एजेंसियाँ और प्रेस सूचना विभाग रात दिन करता है। इसे सूचना की जगह प्रौपोगैंडा कहा जाता है। जनता के लिए महत्वपूर्ण बात यह है कि मीडिया आपको बताए कि जो दावे और घोषणाएँ की जा रही हैं, उनमें कितनी ईमानदारी है ? क्या उनको पूरा करने की क्षमता और साधन सरकार के पास हैं? इससे पहले मौजूदा या पिछली सरकारों ने इसी तरह की घोषणाएँ कितनी ही बार कीं और क्या उन्हें पूरा किया गया? मीडिया आपको यह भी बता सकता है कि इन योजनाओं का घोषित लक्ष्य क्या है और पर्दे के पीछे छिपा हुआ लक्ष्य क्या है। कहीं जनसेवा के नाम पर किसी बड़े औद्योगिक घराने को बड़ा मुनाफ़ा कमाने के लिए तो यह नहीं किया जा रहा। अब आप खुद ही तय कर लीजिए, कि कितने टीवी चैनल और अख़बार आपके हित में ऐसी सूचनाएँ निडरता से देते हैं या सरकार के चाटुकार बनकर उनकी घोषणाओं और बयानबाज़ी पर बल्लियाँ उछलते हैं और नक़ली बहसें करवा कर सत्तारूढ़ दलों की चाटुकारिता करते हैं। मतलब ये कि ऐसे सब चैनल और अख़बार आपको खबरों के नाम पर सूचना नहीं दे रहे। यानी ये पत्रकारिता नहीं कर रहे। 


ये दूसरी बात है की इस तरह की भांडगिरी करने वालों को सरकारें बड़े विज्ञापन, नागरिक अलंकरण, राज्यसभा की सदस्यता या अन्य ओहदे देकर उपकृत करती है।

 

शिक्षा का तात्पर्य है कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा खंबा होने के नाते आपके समवैधानिक अधिकारों की जानकारी आपको लगातार देता रहे और उनपर होने वाले किसी भी आघात पर आपको जागृत करता रहे। जहां तक बात पर्यावरण, भूगोल, इतिहास, वित्त जैसे विषयों की है, तो ये सब शिक्षा तो आपको विभिन्न स्तरों पर शिक्षा संस्थानों में मिलती ही है। यहाँ मीडिया का काम यह है कि क्षेत्रों में जो कुछ घट रहा है और उसका प्रभाव आपके जीवन में कैसा पड़ रहा है, उन विषयों को अपने विशेष समवाददाताओं या उस क्षेत्र के विशेषज्ञों के माध्यम से आप तक सूचना पहुँचाए। यह कहा जा सकता है कि इस मामले में मीडिया काफ़ी हद तक सजग है और आपको सही सूचना दे रहा है। मगर जो मुख्य शिक्षा लोकतांत्रिक अधिकारों या दमन के विरुद्ध दी जानी चाहिए उस काम में हमारे देश का बहुसंख्यक मीडिया विफल रहा है।           


जहां तक मनोरंजन की बात है, तो मीडिया में मनोरंजन देने का काम करने के लिए फ़िल्म, नाटक, साहित्य, संगीत व कला जैसे क्षेत्रों की अपनी संरचनाएँ हैं , जो आम जनता का मनोरंजन करती हैं। जिस संदर्भ  में यहाँ बात की जा रही है उसमें वैसे मनोरंजन का दायरा बहुत सीमित होता है। हालाँकि आजकल असली मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए मीडिया कई तरह के हल्के फुलके मनोरंजन, समाचारों के साथ दिखाने लगा है। पर उसमें गुणवत्ता का अभाव होता है। प्रायः यह मनोरंजन काफ़ी फूहड़ होता है। जिससे उस मीडिया हाउस की गरिमा कम होती है। इस संदर्भ में ऐसा माना जाता है कि खेलकूद, साहित्य, संस्कृति और फ़िल्मों आदि के बारे में समाचार देकर मनोरंजन का दायित्व  पूरा किया जा सकता है। 


1987 की बात है, मैं एक राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक में समवाददाता था और स्वास्थ्य मंत्रालय पर भी ख़बर देना मेरा दायित्व था। एक दिन मुझे दिल्ली पाँच सितारा ताज होटल में देश की प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं पर एक राष्ट्रीय सम्मेलन को कवर करने जाना था। जिसका उद्घघाटन तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मोती लाल वोरा कर रहे थे। सारा दिन सम्मेलन में बैठने के बाद मैंने पाँच कॉलम की जो खबर लिखी, उसकी पहली लाइन ये थी कि ‘देश के ग़रीबों के स्वास्थ्य पर चिंता जताने के लिए आज एक राष्ट्रीय सम्मेलन दिल्ली के पाँच सितारा होटल में सम्पन्न हुआ’ उसके बाद क़रीब 12 पैराग्राफ़ में, 12 प्रांतों से आए ग्रामीण स्वास्थ्य सेवकों की समस्याओं को लिखा।अंतिम पैराग्राफ़ में मैंने एक लाइन लिखी, ‘सम्मेलन का उद्टन करते हुए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मोती लाल वोरा ने कहा, सन 2000 तक हम देश में सबको स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान कर देंगे।’ ज़ाहिर है कि सामान्य रिपोर्टिंग से यह प्रारूप बिल्कुल अलग था। आप अपने अख़बार उठा कर देख लीजिए इस तरह की ख़बर में तीन चौथाई जगह मंत्रियों के भाषण को दी जाती है। जब मुझसे सम्पादक ने पूछा कि मैंने मंत्री के भाषण को ज़्यादा जगह क्यों नहीं दी ? तो मेरा उत्तर था कि मंत्री महोदय तो ये दावा देश के विभिन्न प्रांतों में आए दिन करते ही रहते हैं और वो छपता भी रहता है, उसमें नई बात क्या है? नई बात मेरे लिए यह थी कि मुझे एक ही जगह बैठ कर देश भर के प्राथमिक स्वास्थ्य सेवकों से उनकी दिक़्क़तें जानने का मौक़ा मिला, जिसे मैं बिना इन राज्यों में जाए कभी जान ही नहीं पाता। इस पर सम्पादक महोदय भी हंस दिए और उन्होंने रिपोर्ट की तारिफ़ भी की।       

Monday, August 27, 2018

अलविदा कुलदीप नैय्यर - पत्रकारिता का स्तंभ ढह गया

95 वर्ष की उम्र में आखिरी दिन तक भी अपना साप्ताहिक कॉलम लिखने वाले पत्रकारिता के स्तंभ कुलदीप नैय्यर अब नहीं रहे। उनकी अन्तेष्टि में तीन पीढ़ियों के राजनेता, पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता मौजूद थे। जो इस बात का प्रमाण है कि वे पूरे जीवन सामाजिक सरोकार से जुडे़ रहे। दक्षिणी एशियाई मूल के उनके पाठक और प्रशंसक पूरे विश्व में फैले हैं। क्योंकि दुनियाभर के तमाम अखबारों में अनेक भाषाओं में उनके लेख छपते थे।
मुझे पत्रकारिता में दिल्ली लाने वाले वही थे। 1984 में मैंने उन्हें एक सार्वजनिक व्याख्यान के लिए मुरादाबाद बुलाया। चूंकि वे मेरे मामा-मामी के बहुत घनिष्ठ मित्र थे, इसलिए हमारे परिवार से भावनात्मक रूप से जुड़े थे। भाषण देने के बाद, जब वो मेरे घर लंच पर आए, तो मेरे माता-पिता से बोले कि विनीत में बहुत संभावनाऐं हैं,  इसलिए इसे दिल्ली आकर पत्रकारिता करनी चाहिए। 1978 से 82 के बीच जब मैं जेएनयू में पढ़ता था, तब लगभग हर शनिवार को कुलदीप अंकल और भारती आंटी से इंडिया गेट के पास अपने मामा के निवास पर भेंट होती थी। जहां अक्सर गिरिलाल जैन, अरूण शौरी और निखिल चक्रवर्ती जैसे नामी पत्रकार भी आया करते थे। रात्रि भोजन पर राष्ट्रीय मुद्दों पर चर्चा होती थी। गिरि अंकल ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के एडिटर थे। उनका व्यक्तित्व, व्यवहार, चिंतन और लेखन एक संपादक जैसा ही था। जबकि कुलदीप अंकल अंत तक एक संवाददाता की भूमिका में रहे। जिन्हें हर खास-ओ-आम व्यक्ति से बात करने में रूचि होती थी। इस तरह वह समाज की नब्ज पर हमेशा अपनी अंगुलियां रखते थे। हालांकि वे भी ‘इंडियन एक्सप्रेस’ जैसे बड़े अखबार के संपादक रहे थे, पर उन्हें कुर्सी पर बैठकर सोचना और लिखना पसंद नहीं था।
वे हर सामाजिक आंदोलन से भी जुड़े रहते थे। यात्रा की तकलीफ की परवाह न करते हुए, देश के किसी भी कोने, में कभी भी जाने को तैयार रहते थे, जहां उन्हें सुनने वाले लोग मौजूद हों।
जब मैंने भारत में पहली बार ‘स्वतंत्र हिंदी टीवी पत्रकारिता’ को ‘कालचक्र विडियो मैगज़ीन’ के माध्यम से 1989 में शुरू किया, तो विडियो समाचारों पर सैंसर लगता था। मैंने इसके विरूद्ध एक लंबी लड़ाई लड़ी। जिसमें हर मौके पर कुलदीप नैय्यर साहब बुलाने पर मेरे साथ खड़े होते थे।
उनमें शायद धार्मिक आस्था नहीं थी। जबकि भारती आंटी में यह कूट-कूट कर भरी है। मुझे याद है कि 1988 में भारती आंटी और मेरे मामा-मामी मेरे साथ ‘स्वामी हरिदास संगीत सम्मेलन’ सुनने वृंदावन गये। जब हम बांके बिहारी जी के दर्शन करके निकल रहे थे, तब आंटी ने बताया कि किसी भी देवालय में दर्शन के बाद कुछ देर बैठना चाहिए। जिससे वहां की ऊर्जा हमारे शरीर में प्रवेश कर जाए।
जिन दिनों कुलदीप अंकल लंदन में भारत के राजदूत थे, तब भी वे एक सामान्य व्यक्ति की तरह रहे। बड़ी सहजता से लंदन के ‘साउथ हॉल’ इलाके में रहने वाले सिक्ख समुदाय से उन्होंने अंतरंग व्यवहार बनाने का सफल प्रयास किया। ये ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ के बाद का वक्त था। जब सिक्ख समुदाय भारत की मुख्य धारा से भावनात्मक रूप में कुछ अलग-थलक पड़ गया था। हालांकि ‘कैरियर डिप्लोमेट्स’ को कुलदीप अंकल का ये सहज व्यवहार गले नहीं उतरा। पर मैं समझता हूं कि किसी भी राजदूत के लिए अपने देश के लोगों के साथ भावनात्मक स्तर पर संबंध स्थापित करना जरूरी होता है।
उनकी विचारधारा धर्मनिरपेक्षता और वामपंथ की तरफ झुकी हुई थी। पर आपातकाल में उन्होंने कांग्रेस का घोर विरोध किया था। जिसके कारण उन्हें जेल में भी रहना पड़ा था। पर जब कांग्रेस के समर्थक से जनता पार्टी की सरकार बनी, तो उन्हें भारत का राजदूत बनाया गया। चूंकि वे दिल्ली के उस बौद्धिक पंजाबी समूह का प्रतिनिधित्व करते थे, जो विभाजन के बाद पाकिस्तान से दिल्ली आया था इसलिए उनके साथ उनकी घनिष्ठता गहरी थी। उनके स्वसुर भीमसेन सच्चर जी पंजाब के मुख्यमंत्री भी रहे थे। इस संबंध का उन्हें जीवनभर लाभ मिला। समाचार पत्र-पत्रिकाओं के पंजाबी संपादक हमेशा उनकी प्रतिष्ठावृद्धि में सहयोग करते रहे। जब इंद्र कुमार गुजराल भारत के प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने अपने घनिष्ठ मित्र नैय्यर साहब को राज्यसभा में मनोनीत करवा दिया।
राज्यसभा के सांसद रहते हुए, उनसे मेरा एक बार मन मुटाव हो गया। कारण यह था कि ‘जैन हवाला कांड’ को लेकर जो जोखिम भरा युद्ध में लड़ रहा था, उस पर उन्होंने बहुत सतही लेख लिखा। जिसका कारण था कि हवाला कांड में अनेक आरोपी नेता उनके घनिष्ठ मित्र थे। दूसरा मन मुटाव का कारण यह था कि जब मैंने भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे.एस. वर्मा के उस अनैतिक आचरण का तथ्यों के साथ खुलासा किया कि कैसे उन्होंने ‘जैन हवाला कांड’ को इतनी ऊँचाई तक ले जाकर फिर से दबाने की अनुचित भूमिका निभाई, तो देश के मीडिया और संसद में तूफान मच गया था। उस वक्त कुलदीप अंकल ने जस्टिस वर्मा से मिलकर उनकी प्रशस्ति में जो कॉलम लिखा, वह जस्टिस वर्मा की गिरती साख का ‘डैमेज कंट्रोल’ करने वाला था। ऐसा करने का उनका एक निजी कारण था। जिसे मेरी मामी ने भारती आंटी से पूछकर मुझे बताया। इसलिए मैं उसका यहां उल्लेख नहीं करूंगा।
इसके बावजूद मेरे मन में उनके प्रति सम्मान में कभी कोई कमी नहीं रही। वे मुझे जहां कहीं भी देश में दिखे, फिर वो चाहे सार्वजनिक समारोह ही क्यों न हो, मैंने बिना हिचके तुरंत उनके चरण स्पर्श किये। क्योंकि हमारी सनातन संस्कृति में हमें अपनो से बड़ों का सम्मान करना सिखाया जाता है। चाहे उनके उस आचरण से मेरे मन को काफी ठेस लगी थी। उनको शत-शत नमन। वे पत्रकारों की आने वाली पीढ़ियों के लिए सदैव प्ररेणा स्रोत बने रहेंगे।