Monday, April 28, 2014

जनता शायद मोदी को एक मौका देना चाहती है



दो-तिहाई चुनाव पूरे हुए | एक तिहाई बचे हैं | संकेत ऐसे ही मिल रहे हैं कि मोदी की सरकार केन्द्र में बन जायेगी | हालांकि अंतिम दौर का चुनाव जिन इलाकों में है वहां भाजपा को बड़ी चुनौती है | अगर यह दौर भी मोदी के पक्ष में गया तो उनके प्रधान मंत्री बनने की संभावना प्रबल हो जायेगी | बस इसी बात का खौफ कांग्रेस या तीसरे मोर्चे को सता रहा है | मोदी के गुजरात मॉडल, तानाशाही, एकला चलो रे की नीति और अहंकार जैसे विशेषणों से मोदी पर हमले तेज कर दीये गए हैं | आखिर मोदी का इतना डर क्यों है? पिछले दस वर्षों में जब जब मोदी पर इन मुद्दों को लेकर हमले हुए, हमने हमलावरों को, चाहे वो राजनेता हों या हमारे सहयोगी मीडिया कर्मीं, ये याद दिलाने की कोशिश की, कि मोदी में कोई ऐसा अवगुण नहीं है जिसका प्रदर्शन कांग्रेस समेत अन्य क्षेत्रीय दलों के राजनेताओं या राजवंशों ने पिछले 60 बरस में देश के सामने किया न हो | फिर मोदी पर ही इतने सारे तीर क्यों छोड़े जाते हैं ? इसका जवाब यह है कि मोदी में कुछ ऐसे गुण हैं जिन्हें देश का आम आदमी, नौजवान व सामन्य मुसलमान तक भारत के नेतृत्व में देखना चाहते हैं | मसलन एक मज़बूत व्यक्तित्व, तुरन्त निर्णय लेने कि क्षमता, लक्ष्य निर्धारित करके हासिल करने का जूनून, अपनी आलोचनाओं से बेपरवाह हो कर अपने तय किये मार्ग पर दृढ़ता से आगे बढते जाना और अपने विरोध में षड्यंत्र करने वालों को उनकी औकात बता देना |

अब इन्हें आप गुण मान लीजिए तो नरेन्द्र मोदी एक सशक्त राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरते हैं और अगर इन्हें अवगुण मने तो एक तानाशाह के रूप में | इस चुनावी माहौल में जनता और खासकर युवाओं ने मोदी के इन्हीं गुणों के कारण भारत का नेतृत्व सौपने का शायद मन बना लिया है | क्योंकि दलों के अंदरूनी लोकतंत्र, सर्वजन हिताय, धर्म निरपेक्षता व गरीबों का विकास आम जनता को थोथे नारे लगते हैं जिन्हें हर दल दोहराता है पर सत्ता आने पर भूल जाता है | मोदी में उन्हें एक ऐसा नेता दिख रहा है जो पिटे हुए नारों से आगे सपने दिखा रहा है और उन सपनों को पूरा करने की अपनी क्षमता का भी किसी न किसी रूप में लगातार प्रदर्शन कर रहा है | इसलिए शायद जनता उन्हें एक मौका देना चाहती है |

मोदी को लेकर व्यक्त की जा रही आशंकाएं उनके लिए निर्मूल हैं जिन्हें अपनी और भारत की तरक्की देखने कि हसरत है | पर उनके लिए आशंकाएं निर्मूल नहीं है जो ये समझते हैं कि अगर मोदी अपने मकसद में कामयाब हो जाते हैं और अपेक्षाओं के मुकाबले थोड़ी बहुत उपलब्धी भी जनता को करा पाते हैं तो उन्हें भविष्य में सत्ता के केन्द्र से जल्दी हिला पाना आसान न होगा | येही उनकी डर का कारण है |

दरअसल देश की जनता जातिवाद, क्षेत्रवाद और सम्प्रदायवाद के शिकंजे से मुक्त हो कर आर्थिक प्रगति देखना चाहती है जो मौजूदा राजनीतक संस्कृति में उसे नज़र नहीं आता | दल कोई भी क्यों न हो उसका आचरण, कार्यशैली और नीतियां एकसी ही चली आ रही हैं | इसलिए जनता को कोई बड़ा बदलाव दिखाई नहीं देता | ऐसा नहीं है कि मुल्क ने तरक्की नहीं की | हम बहुत आगे आ गए हैं और उसके लिए पिछले 60 वर्ष के नेतृत्व को नकारा नहीं जा सकता | पर हमारी क्षमता और साधनों के मुकाबले यह तरक्की नगण्य है क्योंकि हमने यह तरक्की नाकारा और भ्रष्ट नौकरशाही और आत्मकेंद्रित परिवारवादी राजनीति के बावजूद व्यक्तिगत उद्यम से प्राप्त की है | अगर कहीं देश की प्रशासनिक व्यवस्था जनोन्मुख हो जाति तो हम कबके सुखी और संपन्न राष्ट्रों की श्रेणी में खड़े हो जाते | यह नहीं हुआ इसीलिए जनता के मन में आक्रोश है और वो इन हालातों को बदलना चाहती है | वह चाहती है एक ऐसा निजाम हो जिसमे उसके हुनर, उसकी काबलियत को आगे बढ़ने का मौका मिले | वो जलालत सहना नहीं चाहती | अगर मोदी उसकी उम्मीदों पर खरे उतरे तो वो उन्हें देश को उठाने का खूब मौका देगी | और नहीं उतरे तो साथ छोड़ने में हिचकेगी नहीं | इसलिए फिलहाल वो फैसला कर चुकी है कि उसे बदलाव चाहिए | अब जो लोग इस रास्ते में रोड़ा अटकाएंगे वो जनता के कोपभाजन बनेंगे | बाकी समय बलवान है | वही बताएगा कि हिन्दुस्तान कि राजनीति का ऊंठ किस करवट बैठेगा |

Monday, April 21, 2014

इस चुनाव में नया श्रृंगार


लोकसभा के लिए चुनाव का आधा काम निपट गया | अबतक जो कुछ हुआ है वह कई लोगों को चौका रहा है | दसियों साल बाद यह पहली बार दिखा है कि चुनावी हिंसा खत्म होती नज़र आ रही है| और जो लोग इस बार विवादित बयानों या एक दूसरे पर आरोप लगाने में कुछ ज्यादा ही आक्रामक भाषा के इस्तेमाल की बात कर रहे हैं उन्हें बताया जा सकता है कि लोकतंत्र में इतना तो सहन करना ही होगा | कहने का मतलब यह कि पिछले कई चुनाव जिस तरह खून-खराबे और दहशत भरे होते थे वैसा माहोल इस बार नहीं है |

कारण जो भी रहे हों हिंसा के बाद दूसरा भयानक रोग साम्प्रदायिकता के लक्षण भी ज्याद नहीं दिख रहे | यह बात ऊपर से दिखने वाले लक्षणों के आधार पर कही जा रही है | वरना समाज-मनोविज्ञान के अध्यनों को देखें तो यह आश्चर्य ही लगता है कि सिर्फ २५-५० साल में साम्प्रदायिकता जैसे रोग के लक्षण कम कैसे हो गए |

चुनाव के दौरान कुछ बुरा न होना क्या खुश होने के लिए काफी है | क्योंकि बाहुबल और साम्प्रदायिकता जैसे रोग तो बिना किसी प्रयास के खुद-ब-खुद भी निपट जाते हैं | लेकिन धनबल से छुटकारा आसान नहीं होता | धन से सत्ता और सत्ता से धन का दुश्चक्र टूटना बहुत मुश्किल होता है | चुनाव सुधारों के तेहत, चुनाव के खर्च की सीमा के जितने भी उपाय कर लिए गए हों पर यह काम उतना हो नहीं पाया | लेकिन इस मामले में बड़ा रोचक तथ्य यह है कि जो आर्थिक विपन्न लोग चुनावी उद्यम में शामिल हो रहे हैं उनके पास भी निवेशकों की कमी नहीं है | संसदीय लोकतंत्र में चुनाव कि महत्ता इतनी ज्यादा हो गयी है जिसमे होने वाले घाटे भी मुनाफे में तब्दील हो जाते हैं | सामान्य अनुभव है कि संसदीय लोकतंत्र के चुनावों में जनता द्वारा अस्वीकृत उमीदवारों का भी महत्व बडता जा रहा है | स्तिथि यहाँ तक है कि जनता द्वारा स्वीकृत उम्मीदवार चुनाव जीतने के बाद विपक्ष की राजनीति करने में ज्यादा रूचि लेने लगे हैं | यह संसदीय लोकतंत्र में जुड़ रहा एक नया आयाम है जो राजनितिक प्रौद्योगिकी के विशेषज्ञों को समझना पड़ेगा | बस यहां पर अच्छाई इस तरह देखी जा सकती है कि ‘चलिए, लोकतंत्र में सह-भागिता बढ़ तो रही है |’

इन सारी प्रव्रित्यों के बीच वह लक्ष्य अभी भी गर्दिश में है कि लोकतंत्र का अपना मकसद क्या है | ज्यादा से ज्यादा लोगों को सुख-समृधि का सामान वितरण करने वाली इस विलक्षण राजनितिक प्रणाली की विशेषताओं पर पता नहीं क्यों ज्यादा चर्चा नहीं होती | राजनीतिकी पार्टियों के घोषणापत्रों में दूध-घी की नदियाँ बहाने का वायदा तो है पर वह तरकीब नहीं बताई जाती कि सबको समुचित समानता के आधार पर वितरण कैसे सुनिश्चित होगा | अब अगर लोकतंत्र के लक्ष्य के प्रबंधन का काम सामने आया है तो राजनेताओं के जिम्मे एक नया काम आ गया है | उन्हें इस कौशल का विकास भी करना होगा कि सुख समृधि के समान वितरण कि प्रणाली कैसे बने ? यहाँ कुछ नए लोग भ्रष्टाचार की समस्या कि पुरानी बात कह सकते हैं | लेकिन उनसे पूछा जा सकता है कि क्या भ्रष्टाचार को हम निदान के रूप में ले सकते हैं ? भ्रष्टाचार को तो विद्वान लोग खुद एक बड़ी और जटिल समस्या बताते हैं | और ऐसी समस्या बताते हैं जिसके निवारण के लिए अबतक कोई निरापद निदान नहीं ढूंढा जा पाया | लिहाजा लाख दुखों की एक दवा के तौर पर भ्रष्टाचार की बात करना लगभग वैसी बात है जैसे सौ रूपए की समस्या से निपटने के लिए करोड़ों के खर्च की बात करना या कोई ऐसा उपाय बताना जो तत्काल हो ही न पाए | इस तरह हम निष्कर्ष निकल सकते हैं कि संसदीय लोकतंत्र में अब भ्रष्टाचार तब तक कोई मुद्दा नहीं बन सकता जबतक कोई यह न बताये कि यह काम होगा कैसे ? नीयत की बात करने वालों से पूछा जा सकता है कि किसी की नीयत जांचने का उपाय क्या है ? किसी व्यक्ति की नीयत का पता तो तभी चलता है जब वह काम करता है | भारतीय लोकतंत्र का अनुभव है कि भ्रष्टाचार मिटाने के लिए विगत में जितने भी दावे हुए वे किसी एक या दूसरे बहाने से नाकाम ही रहे | ज़ाहिर है कि ऐसे जटिल मुद्दे राजनितिक या चुनावी उत्क्रम का विषय नहीं हो सकते | बल्कि भ्रष्टाचार एक सामाजिक – आर्थिक – वैधानिक विषय है | और इसे निरंतरता के साथ और समग्रता के आधार पर बड़ी गंभीरता से समझना होगा | वरना चुनाव के दौरान ऐसे मुद्दों का इस्तेमाल तात्कालिक लाभ के लिए होता रहेगा और बाद में बहानेबाजी करके  एक दूसरे पर आरोप लगाए जाते रहेंगे और अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ा जाता रहेगा |


कुलमिलाकर चुनाव के इन दिनों में अबतक आशावादिता का कोई नया माहौल नज़र नहीं आता | अगर कुछ नया है तो प्रचार का रूप रंग नया है, श्रृंगार नया है |

Monday, April 7, 2014

तुम कौन होते हो नसीहत देने वाले

अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठित पत्रिका इकॉनोमिस्ट ने अपने ताजा अंक में भारत के मतदाताओं को आगाह किया है कि वे राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी के बीच राहुल गांधी का चुनाव करें। क्योंकि पत्रिका के लेख के अनुसार मोदी हिन्दू मानसिकता के हैं और 2002 के सांप्रदायिक दंगों के जिम्मेदार हैं। पिछले दिनों मैं अमेरिका के सुप्रसिद्ध हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय में व्याख्यान देने गया था, वहां भी कुछ गोरे लोगों ने नरेंद्र मोदी के नाम पर काफी नाक-भौ सिकोड़ी।
सब जानते हैं कि पिछले 10 वर्षों से अमेरिका ने नरेंद्र मोदी को वीज़ा नहीं दिया है। जबकि अमेरिका में ही मोदी को चाहने वालों की, अप्रवासी भारतीयों की और गोरे नेताओं व लोगों की एक बड़ी भारी जमात है, जो मोदी को एक सशक्त नेता के रूप में देखती है। ऐसी टिप्पणियां पढ़ सुनकर हमारे मन में यह सवाल उठना चाहिए कि हम एक संप्रभुता संपन्न लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं और अपने नेता का चयन करने के लिए स्वतंत्र हैं, तो यह मुट्ठीभर नस्लवादी लोग हमारे देश के प्रधानमंत्री पद के एक सशक्त दावेदार के विरूद्ध ऐसी नकारात्मक टिप्पणियां करके और सीधे-सीधे हमें उसके खिलाफ भड़काकर क्या हासिल करना चाहते हैं ?
    हमारा उद्देश्य यहां नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी की दावेदारी की तुलना करना नहीं है। हम तो केवल कुछ सवाल खड़े करना चाहते हैं, हम मोदी को चुनें या गांधी को, तुम बताने वाले कौन हो ? अगर तुम मोदी पर हिंसा के आरोप लगाते हों, तो 84 के सिख दंगों की बात क्यों भूल जाते हो, हमारे देश की बात छोड़ो, तुमने वियतनाम, ईराक और अफगानिस्तान में जो नाहक तबाही मचाई है, उसके लिए तुम्हारे कान कौन ख्ींाचेगा ? तुम्हें कौन बताएगा कि जिनके घर शीशे के होते हैं, वो दूसरे के घर पर पत्थर नहीं फेंकते। हम मां के स्तन का दुग्धपान करें, तो तुम्हारे उदर में पीड़ा होती है और तुम हमें मजबूरन डिब्बे का दूध पिलाकर नाकारा बना देते हो और छह दशक बाद नींद से जागते हो ये बताने के लिए की मां का दूध डिब्बे से बेहतर होता है। हम गोबर की खाद से खेती करें, तो तुम हमें गंवार बताकर कीटनाशक और रसायनिक उर्वरकों का गुलाम बना देते हों और जब इनसे दुनियाभर में कैंसर जैसी बीमारी फैलती हैं, तो तुम जैविक खेती का नारा देकर फिर अपना उल्लू सीधा करने चले आते हो। हम नीबू का शर्बत पिएं, छाछ या लस्सी पिएं, बेल का रस पिएं, तो तुम्हें पचता नहीं, तुम जहरघुला कोलाकोला व पेप्सी पिलाओ, तो हम वाह वाह करें।
    तुम मोदी को हिंदू मानसिकता का बताकर नाकारा सिद्ध करना चाहते हो, पर भूल जाते हो कि यह उसी हिंदू मानसिकता का परिणाम है कि आज पूरी दुनिया योग और ध्यान से अपने जीवन को तबाही से बचा रही है। उसी आयुर्वेद के ज्ञान से मेडिकल साइंस आगे बढ़ रही है। उसी गणित और नक्षत्रों के ज्ञान से तुम्हारा विज्ञान सपनों के जाल बुन रहा है। तुम मानवीय स्वतंत्रता के नाम पर जो उन्मुक्त समाज बना रहे हों, उसमें हताशा, अवसाद, परिवारों की टूटन और आत्महत्या जैसी सामाजिक आपदाएं बढ़ती जा रही हैं, जबकि हिंदूवादी पारंपरिक परिवार व्यवस्था हजारों वर्षों से फल-फूल रही है। इसलिए कोई हिंदूवादी होने से अयोग्य कैसे हो सकता है, यह समझ से परे की बात है। क्या तुमने अपने उन बहुसंख्यक युवाओं से पूछने की कोशिश की है कि दुनिया के तमाम देशों को छोड़कर वो भारत में शांति की खोज में क्यों दौड़े चले आते हैं ?
ऐसा नहीं है कि हिंदू मानसिकता में या नरेंद्र मोदी में कोई कमी न हो और ऐसा भी नहीं है कि पश्चिमी समाज में कोई अच्छाई ही न हो। पर तकलीफ इस बात को देखकर होती है कि तुम गड्ढे में जा रहे हो, तुम्हारा समाज टूट रहा है, नाहक कर्जे में डूब रहा है, पर्यावरण का पाश्विक दोहन कर रहे हो और फिर भी तुम्हारा गुरूर कम नहीं होता। तुम क्यों चैधरी बनते हो ? क्या तुमने नहीं सुना कि अंधे और लंगड़े मित्र ने मिलकर कैसे यात्रा पूरी की। अगर कहा जाए कि हमारी संस्कृति लंगड़ी हो गई है, तो हमें शर्म नहीं आएगी, पर ये कहा जाए कि तुम अंधे होकर दौड़ रहे हो, तो तुम्हें भी बुरा नहीं लगना चाहिए। तुम्हारी प्रबंधकीय क्षमता और हमारी दृष्टि और सोच का अगर मधुर मिलन हो, तो विश्व का कल्याण हो सकता है।
चुनाव के बाद नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे या राहुल गांधी या कोई और, यह फैसला तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का मतदाता करेगा। पर तुम्हें अपना रवैया बदलना चाहिए। नरेंद्र मोदी परंपरा और आधुनिकता का समन्वय लेकर चलने की कोशिश कर रहे हैं। अपने तरीके से राहुल गांधी भी इसी रास्ते पर हैं। हां, दोनों के अनुभव और उपलब्धियों में भारी अंतर है। अगर इस वक्त देश के युवाओं को मोदी से उम्मीद नजर आती है, तो वे मोदी को मौका देंगे। अगर मोदी उनकी उम्मीदों पर खरे उतरे, तो ली क्वान या कमाल अतातुर्क की तरह हिन्दुस्तान की तस्वीर बदलेंगे और अगर उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे, समय को नहीं पहचाना, योग्य-अयोग्य लोगों के चयन में भूल कर गए, तो सत्ता से बाहर भी कर दिए जाएंगे। पर यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की खूबी है कि हम बिना खूनी क्रांति के सत्ता पलट देते हैं। पर तुम जिन देशों की मदद के लिए अपने खजाने लुटा देते हो, वे आज तक लोकतंत्र की देहरी भी पार नहीं कर पाए हैं। पहले उनकी हालत सुधारों, हमें शिक्षा मत दो। हम अपना अच्छा बुरा सोचने में सक्षम हैं और हमने बार-बार यह सिद्ध किया है। आज से 40 वर्ष पहले जब श्रीमती इंदिरा गांधी ने लौह महिला बनकर पश्चिम को चुनौती दी थी, तब भी तुम इतना ही घबराए थे। आज नरेंद्र मोदी के प्रति तुम्हारा एक तरफा रवैया देखकर उसी घबराहट के लक्षण नजर आते हैं। डरो मत, पूरी दुनिया की मानवजाति की तरक्की की सोचो। उसे बांटने और लूटने की नहीं, तो तुम्हें घबराहट नहीं, बल्कि रूहानी सुकून मिलेगा। ईश्वर तुम्हें सद्बुद्धि दें।

Monday, March 31, 2014

कोई नहीं समझा पाया कि विकास का अर्थ क्या है

चुनाव के पहले दौर के मतदान में सिर्फ दस दिन बचे हैं | विभिन्न दलों के शीर्ष नेता दिन में दो-दो तीन-तीन रैलियां कर रहे हैं | इनमे होने वाले भाषणों में, इन सब ने, किसी बड़ी बात पर बहस खड़ी करने की हरचंद कोशीश की लेकिन कोई सार्थक बहस अब तक शुरू नहीं हो पाई | चुनाव पर नज़र रखने वाले विश्लेषक और मीडिया रोज़ ही शीर्ष नेताओं की कही बातों का विश्लेषण करते हैं और यह कोशिश भी करते हैं कि कोई मुद्दा तो बने | लेकिन ज्यादातर नेता एक दूसरे की आलोचना के आगे नहीं जा पाए | जबकि मतदाता बड़ी उत्सुकता से उनके मुह से यह सुनना चाहता है कि सोलहवीं लोकसभा में बैठ कर वे भारतीय लोकतंत्र की जनता के लिए क्या करेंगे ?

यह बात मानने से शायद ही कोई मना करे कि पिछले चुनावों की तरह यह चुनाव भी उन्ही जाति-धर्म-पंथ-बिरादरी के इर्दगिर्द घूमता नज़र आ रहा है | हाँ कहने को विकास की बात सब करते हैं | लेकिन हद कि बात यह है कि मतदाता को साफ़-साफ़ यह कोई नहीं समझा पाया कि विकास के उसके मायने क्या हैं ? जबकि बड़ी आसानी से कोई विद्यार्थी भी बता सकता है कि सुख सुविधाओं में बढ़ोतरी को ही हम विकास कहते हैं | और जब पूरे देश के सन्दर्भ में इसे नापने की बात आती है तो हमें यह ज़रूर जोड़ना पड़ता है कि कुछ लोगों की सुख-सुविधाओं की बढ़ोतरी ही पैमाना नहीं बन सकता | बल्कि देश की समग्र जनता की सुख-समृधी का योग ही पैमाना बनता है | यानी देश की आर्थिक वृधी और विकास एक दुसरे के पर्याय नहीं बन सकते | अगर किसी देश ने आर्थिक वृद्धि की है तो ज़रूरी नहीं कि वहां हम कह सकें कि विकास हो गया या किसी देश ने आर्थिक वृद्धि नहीं की तो ज़रूरी नहीं कि कहा जा सके कि विकास नहीं हुआ |

मुश्किल यह है कि हमारे पास इस तरह के विश्लेषक नहीं है कि पैमाने ले कर बैठें और विकास की नापतौल करते हुए आकलन करें | हो यह रहा है कि विश्लेषक और मीडिया उन्ही लोक-लुभावन अंदाज़ में लगे हैं जिनसे अपने दर्शकों और पाठकों को भौचक कर सकें | जबकि देश का मतदाता इस समय भौचक नहीं होना चाहता | वह इस समय संतुष्ट या असंतुष्ट नहीं होना चाहता | बल्कि वह कुछ जानना चाहता है कि उसके हित में क्या हो सकता है ? यानि वह किसे वोट देकर उम्मीद लगा सकता है ? अब सवाल उठता है कि क्या कोई ऐसी बात हो सकती है कि जिसे हम सरलता से कह कर एक मुद्दे के तौर पर तय कर लें | और इसे तय करने के लिए हमें लोकतान्त्रिक व्यवस्था के मूल उद्देश्य पर नज़र दौड़ानी पड़ेगी |

लोकतंत्र के लक्ष्य का अगर बहुत ही सरलीकरण करें तो उसे एक शब्द में कह सकते हैं – वह है ‘संवितरण’ | यानी ऐसी व्यवस्था जो उत्पादित सुख-सुविधाओं को सभी लोगों में सामान रूप से वितरित करने की व्यवस्था सुनिश्चित करती हो | वैसे गाहे-बगाहे कुछ विद्वान और विश्लेषक समावेशी विकास की बात करते हैं लेकिन वह भी किसी आदर्श स्तिथि को मानते हुए ही करते हैं | यह नहीं बताते कि समावेशी विकास के लिए क्या क्या नहीं हुआ है या क्या क्या हुआ है या क्या क्या होना चाहिए |

इस लेख को सार्थक बनाने की ज़िम्मेदारी भी मुझ पर है | ज़ाहिर है कि लोकसभा चुनाव की पूर्व संध्या या पूर्व सप्ताह में यह सुझाव देना होगा कि विभिन्न राजनितिक दल मतदाताओं से क्या वायदा करें ? इसके लिए मानवीय आवश्यकताओं की बात करनी होगी | यह बताना होगा कि मानवीय आवश्यकताओं की एक निर्विवाद सूची उपलब्ध है जिसमें सबसे ऊपर शारीरिक आवश्यकता यानी भोजन-पानी, उसके बाद सुरक्षा और उसके बाद प्रेम आता है | अगर इसी को ही आधार मान लें तो क्या यह नहीं सुझाया जा सकता कि जो सभी को सुरक्षित पेयजल, पर्याप्त भोजन, बाहरी और आंतरिक सुरक्षा और समाज में सौहार्द के लिए काम करने का वायदा करे उसे भारतीय लोकतंत्र का लक्ष्य हासिल करने का वायदा माना जाना चैहिये | अब हम देख लें साफ़ तौर पर और जोर देते हुए ऐसा वायदा कौन कर रहा है | और अगर कोई नहीं कर रहा है तो फिर ऐसे वायदे के लिए हम व्यवस्था के नियंताओं पर दबाव कैसे बना सकते हैं ? यहाँ यह कहना भी ज़रूरी होगा कि जनता प्रत्यक्ष रूप से यह दबाव बनाने में उतनी समर्थ नहीं दिखती | यह काम उन विश्लेषकों और मिडिया का ज्यादा बनता है जो जनता की आवाज़ उठाने का दावा करते हैं |

चुनाव में समय बहुत कम बचा है | दूसरी बात कि इस बार चुनाव प्रचार की शुरुआत महीने दो-महीने नहीं बल्कि दो साल पहले हो गयी हो वहां काफी कुछ तय किया जा चुका है | अब हम उन्ही मुद्दों पर सोचने मानने के लिए अभिशप्त हैं जो नेताओं ने इस चुनावी वैतरणी को पार करने के लिए हमारे सामने रखे | स्तिथियाँ जैसी हैं वहां मतदाताओं के पास ताकालिक तौर पर कोई विकल्प तो नज़र नहीं आता फिर भी भविष्य के लिए सतर्क होने का विकल्प उसके पास ज़रूर है |

Monday, March 24, 2014

पानी के सवाल से क्यों बचते हैं राजनैतिक दल



चुनाव का बिगुल बजते ही राजनैतिक दल अब इस बात को ले कर असमंजस में हैं कि जनता के सामने वायदे क्या करें ? यह पहली बार हो रहा है कि विपक्ष के दलों को भी कुछ नया नहीं सूझ रहा है। क्योंकि विरोध करके जितनी बार भी सरकारें हराई और गिराई गईं उसके बाद जो नई सरकार बनीं, वो भी कुछ नया नहीं कर पाई। हाल ही में दिल्ली के चुनाव में केजरीवाल सरकार की जिस तरह की फजीहत हुई उससे तमाम विपक्षीय दलों के सामने यह सबसे बड़ी दिक्कत यह खड़ी हो गयी है कि इतनी जल्दी जनता को नये सपने कैसे दिखाये ?

अपने इसी कॉलम में हमने मुद्दाविहीन चुनाव के बारे में लिखा था और उसकी जो प्रतिक्रियाएं आई हैं, उन्होंने फिर से इस बात को जरा बारिकी से लिखने के लिए प्रेरित किया है।
आमतौर पर देश की जनता को केन्द्र सरकार से यह अपेक्षा होती है कि वह देश में लोक कल्याण की नीतियां तय कर दे और उसके लिए आंशिक रूप से धन का भी प्रावधान कर दे। विकास का बाकी काम राज्य सरकारों को करना होता है। पर केंद्र सरकार की सीमायें यह होती हैं कि उसके पास संसाधन तो सीमित होते हैं और जन आकांक्षाएं इतनी बढ़ा दी जाती हैं कि नीतियों और योजनाओं का निर्धारण प्राथमिकता के आधार पर हो ही नहीं सकता। फिर होता यह है कि सभी क्षेत्रों में थोड़े-थोड़े संसाधनों को आवंटित करने की ही कवायद हो पाती है। अब तो यह रिवाज ही बन गया है और इसे ही संतुलित विकास के सिद्धांत का हवाला दे कर चला दिया जाता है। हालांकि इस बात में भी कोई शक नहीं कि चहुंमुखी विकास की इसी तथाकथित पद्धति से हमारे हुक्मरान अब तक जैसे-तैसे हालात संभाले रहे हैं और आगे की भी संभावनाओं को टिकाए रखा गया है। इन्हीं संभावनाओं के आधार पर जनता यह विचार कर सकती है कि आगामी चुनाव में सरकार बनाने की दावेदारी करने वाले दलों और नेताओं से हम क्या मांग करें?
पूरे देश में पिछले 40 वर्षों से लगातार भ्रमण करते रहने से यह तो साफ है कि देश की सबसे बड़ी समस्या आज पानी को लेकर है। पीने का पानी हो या सिंचाई के लिए, हर जगह संकट है। पीने के पानी की मांग तो पूरे साल रहती है, पर सिंचाई के लिए पानी की मांग फसल के अनुसार घटती बढ़ती रहती है। पीने का पानी एक तो पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं और है तो पीने योग्य नहीं। चैतरफा विकास के दावों के बावजूद यह मानने में किसी को भी संकोच नहीं होगा कि हमारे देश में आजादी के 67 साल बाद भी स्वच्छ पेयजल की सार्वजनिक प्रणाली का आज तक नितांत अभाव है। पर कोई राजनैतिक दल इस समस्या को लेकर चुनावी घोषणा पत्र में अपनी तत्परता नहीं दिखाना चाहता। क्योंकि जमीनी हकीकत चुनाव के बाद उसे भारी झंझट में फंसा सकती है। आम आदमी पार्टी ने इस मुद्दे को बड़ी चालाकी से भुनाया। फिर उसकी दिल्ली सरकार ने जनता को अव्यवहारिक समाधान देकर गुमराह किया।
यहां यह बात भी उल्लेखनीय है कि स्वच्छ पेयजल का अभाव ही भारत में बीमारियों की जड़ है। यानि अगर पानी की समस्या का हल होता है, तो आम जनता का स्वास्थ्य भी आसानी से सुधर सकता है। मजे की बात यह है कि स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर हर वर्ष भारी रकम खर्च करने वाली सरकारें और इस मद में बड़े-बड़े आवंटन करने वाला योजना आयोग भी पानी के सवाल पर कन्नी काट जाता है। मतलब साफ है कि देश के सामने मुख्य चुनौती जल प्रबंधन की है। इसीलिए एक ठोस और प्रभावी जल नीति की जरूरत है। जिस पर कोई राजनैतिक दल नहीं सोच रहा। इसलिए ऐसे समय में जब देश में आम चुनाव के लिए विभिन्न राजनैतिक दलों के घोषणा पत्र बनाये जाने की प्रक्रिया चल रही है, पानी के सवाल को उठाना और उस पर इन दलों का रवैया जानना बहुत जरूरी है।
आम आदमी पार्टी की बचकानी हरकतों को थोड़ी देर के लिए भूल भी जाएं, तो यह देखकर अचम्भा होता है कि देश के प्रमुख राजनैतिक दल पानी के सवाल पर ज्यादा नहीं बोलना चाहते, आखिर क्यों ? क्योंकि अगर कोई राजनीतिक दल इस मुद्दे को अपने घोषणापत्र में शामिल करना चाहे तो उसे यह भी बताना होगा कि जल प्रबंधन का प्रभावी काम होगा कैसे और वह नीति क्रियान्वित कैसे होगी ? यही सबसे बड़ी मुश्किल है, क्योंकि इस मामले में देश में शोध अध्ययनों का भारी टोटा पड़ा हुआ है।
जाहिर है कि चुनावी घोषणापत्रों में पानी के मुद्दे को शामिल करने से पहले राजनीतिक दलों को इस समस्या के हल होने या न होने का अंदाजा लगाना पड़ेगा, वरना इस बात का पूरा अंदेशा है कि यह घोषणा चुनावी नारे से आगे नहीं जा पाएंगे। इस विषय पर विद्वानों ने जो शोध और अध्ययन किया है, उससे पता चलता है कि सिंचाई के अपेक्षित प्रबंध के लिए पांच साल तक हर साल कम से कम दो लाख करोड़ रूपए की जरूरत पड़ेगी। पीने के साफ पानी के लिए पांच साल तक कम से कम एक लाख बीस हजार करोड़ रूपए हर साल खर्च करने पड़ेंगे। दो बड़ी नदियों गंगा और यमुना के प्रदूषण से निपटने का काम अलग से चलाना पड़ेगा। गंगा का तो पता नहीं लेकिन अकेली यमुना के पुनरोद्धार के लिए हर साल दो लाख करोड़ रूपए से कम खर्च नहीं होंगे। कुलमिलाकर पानी इस समस्या के लिए कम से कम पांच लाख करोड़ रूपए का काम करवाना पड़ेगा। इतनी बड़ी रकम जुटाना और उसे जनहित में खर्च करना एक जोखिम भरा काम है, क्योंकि असफल होते ही मतदाता का मोह भंग हो जाएगा।
पानी जैसी बुनियादी जरूरत का मुद्दा उठाने से पहले मैदान में उतरे सभी राजनैतिक दलों को इस समस्या का अध्ययन करना होगा। पर हमारे राजनेता चतुराई से चुनावी वायदे करना खूब सीख गए हैं। जिसका कोई मायना नहीं होता।
पानी की समस्या का हल ढूढने की कवायद करने से पहले इन सब बातों को सोचना बहुत जरूरी होगा। आज स्थिति यह है कि राजनैतिक दल बगैर सोचे समझे वायदे करने के आदि हो गए हैं। एक और प्रवृत्ति इस बीच जो पनपी है, वह यह है कि घोषणापत्रों में वायदे लोकलुभावन होने चाहिए, चाहें उन्हें पूरा करना संभव न हो। इसलिए चुनाव लड़ने जा रहे राजनैतिक दलों को पानी का मुद्दा ऐसा कोई लोकलुभावन मुद्दा नहीं दिखता। हो सकता है इसीलिए उन मुद्दों की चर्चा करने का रिवाज बन गया है जिनकी नापतोल ना हो सके या उनके ना होने का ठीकरा किसी और पर फोड़ा जा सके। जबकि पानी, बिजली और सड़क जैसे मुद्दे बाकायदा गंभीर हैं और इन क्षेत्रों में हुई प्रगति या विनाश को नापा-तोला जा सकता है। पर चुनाव के पहले कोई राजनैतिक दल आम जनता की इस बुनियादी जरूरत पर न तो बात करना चाहता है और न वायदा ही।

Monday, March 10, 2014

देश का मतदाता भ्रम में

भारत के लोकतंत्र के सामने जबर्दस्त चुनौती खड़ी हो गई है। कोई कह सकता है कि संसदीय लोकतंत्र में चुनावी महीनों में ऐसा दिखना स्वाभाविक है। 65 साल पुराने भारतीय लोकतंत्र में हर पांच साल में ऐसी अफरा-तफरी मचना वैसे तो कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन इस बार लगता है कि ऐसा कुछ हो गया है कि आगे का रास्ता वाकई चुनौती भरा है।
पिछले दिनों दिल्ली विधानसभा चुनाव और उसके बाद त्रिशंकु विधानसभा के भयावह नतीजे पूरे देश ने देखे हैं। दिल्लीवासी तो खुद को राजनीतिक ठगी का शिकार हुआ महसूस कर रहे हैं और अब लोकसभा चुनाव के पहले दिल्ली की पुर्नरावृत्ति करने की कोशिशें अभी भी हो रही है। खासतौर पर केजरीवाल ने जिस तरह से हलचल मचा रखी है, उससे तो लगता है कि देश का मतदाता अब पूरी तरह से भ्रमित होने की स्थिति में है।
वैसे भारतीय चुनावी लोकतंत्र के इतिहास में यह पहला मौका है कि चुनाव के ऐलान के बाद भी यह साफ नहीं हो पा रहा है कि इस बार का चुनाव किस प्रमुख मुद्दे पर लड़ा जाना है ? पिछले दो साल से भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश में जैसा माहौल बनाया गया था, उसकी भी अपनी धार खत्म हो गई है। महंगाई भी एक शाश्वत मुद्दे जैसा ही अपना असर रखता है, जिसे आज हम प्रमुख मुद्दा नहीं मान सकते। बेरोजगारी मुद्दा बन सकता था, लेकिन सत्तारूढ़ यूपीए ने इस मामले में पिछले 10 साल से एड़ी से चोटी तक दम लगा रखा है। मनरेगा और विकास की दूसरी परियोजना को वह आजमा चुका है। जाहिर है कि विपक्ष के दल इस मुद्दे को शायद ही छूना चाहें। हां केजरीवाल की पार्टी जरूर है, जो नई है और दिल्ली से पिण्ड छुड़ाने के बाद वह कुछ भी दावा कर सकती है, लेकिन दिल्ली की नाकामी के बाद अब उसकी भी हैसियत वादे या दावे करने की उतनी नहीं बची और फिर अपनी धरना प्रदर्शन वाली प्रवृत्ति से ऊपर उठने या आगे जाने की उसकी कुव्वत दिखाई नहीं देती।
ले-देकर एक ही शासक और अस्पष्ट धारणा का मुद्दा बचता है, जिसे विकास कहा जाता है। यह मुद्दा सार्थक है भी इसीलिए क्योंकि इसे परिभाषित करने में भारी मुश्किल आती है। अभी दो हफ्ते पहले तक किसी मुद्दे को लेकर एक बड़े विपक्षीय दल भाजपा ने गुजरात माॅडल के नाम पर इसे जिंदा बनाए रखा था, लेकिन पिछले तीन दिनों में केजरीवाल ने जिस तरह ताबड़तोड़ ढंग से मोदी के खिलाफ अभियान चलाया। उसमें उन्होंने कम से कम एक संदेह तो पैदा कर ही दिया है। यह बात अलग है कि कांग्रेस सालभर से वही बातें कर रही थी, लेकिन केंद्र में सत्तारूढ़ होने के कारण उसके प्रतिवाद का कोई असर ही नहीं था। मीडिया पिछले सालभर से मोदी, गुजरात का विकास और भाजपा की पुर्नस्थापना के विषय में जिस तरह की मुहिम चलाता रहा है, उसके बाद वह फौरन उल्टी बात करने की स्थिति में कैसे आ सकता था। जाहिर है कि केजरीवाल के गुजरात दौरे का प्रचार सिर्फ बौद्धिकस्तर पर संभव था ही नहीं और इसीलिए केजरीवाल ने सनसनीखेज और हठयुग का रास्ता अपनाना ठीक समझा और इसका असर भी हुआ। पिछले दो दिन से एक से एक बड़ी और महत्वपूर्ण घटनाएं छूट गईं और केजरीवाल के हंगामे, योगेन्द्र यादव के मुंह पर कालिख, भाजपा के दफ्तर में आशुतोष का हंगामा, कार्यकर्ताओं द्वारा तोड़फोड़ वगैरह-वगैरह ही खबरों में बने रहे। चुनाव आयोग द्वारा चुनाव के ऐलान के बाद राजनीतिक कर्म और चुनाव संबंधी दूसरी बातों का अचानक गायब हो जाना भारतीय लोकतंत्र के सामने क्या वाकई बहुत बड़ी चुनौती नहीं है ?
अगर अनुमान लगाने बैठे तो आज की स्थिति में मतदाता के सामने फैसला लेने लायक तथ्यों का टोटा पड़ा हुआ है। उसके सामने सबकुछ खराब-खराब परोस दिया गया है और बता दिया गया है कि अगर ये खाओगे तो पछताओगे। लेकिन उसे ये कोई नहीं बता पाता कि वह खाये क्या यानि किसी के पास भविष्य की ऐसी कोई योजना दिखाई नहीं देती। जिससे वह अपने घोषणा पत्र में रखकर आश्वस्त हो सके। इस आधार पर हम अनुमान लगा सकते हैं कि विभिन्न राजनैतिक दलों के चुनावी घोषणा पत्र वायदों की लम्बी-लम्बी लिस्ट वाले होंगे। जिनमें मतदाता को यह तय करना ही मुश्किल पड़ जाएगा कि कौन-सा राजनैतिक दल प्रमुख रूप से क्या वायदा कर रहा है। मसलन, युवाओं की बात होगी, महिलाओं की बात होगी, गरीबों की बात होगी और ऐसी ही सब पुरानी बातें होंगे, जिन्हें हर बार अपनाया जाता है, तो क्या हम यह मानें कि भारतीय लोकतंत्र की राजनीति में ऐसी दिमागी मुफलिसी आ गई है कि हम अपनी समस्याओं की पहचान तक नहीं कर पा रहे हैं। और उससे भी बड़ी बात कि हम बार-बार अपनी समय सिद्ध लोकतांत्रिक व्यवस्था में संदेह बढ़ाते ही चले जा रहे हैं। चलिए किसी भी मौजूदा व्यवस्था में संदेह पैदा कर देने का कोई सकारात्मक पहलू भी हो सकता है, लेकिन यह तब कितना खतरनाक होगा, जब हम हाल के हाल यह न बता पाते हों कि वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था क्या हो सकती है ? क्योंकि कहते हैं कि कुछ भी हो, कोई भी समाज राजनीतिक शून्यता की स्थिति में पलभर भी नहीं रह सकता।

Monday, March 3, 2014

फिर गठबंधन की मजबूरियों पर टिकी राजनीति

यानी गठबंधन की राजनीती से अभी भी छुटकारा मिलता नही दिखता | गठजोड़ की मजबूरियां पिछले दो दशकों से जतायी जा रही हैं | पिछले कटु अनुभवों के बाद इस बार लगता था कि दो ध्रुवीय राजनीति फिर से शक्ल ले लेगी | लेकिन खास तौर पर अभी सिर्फ दो महीने पहले ऐसा दीखता था कि छोटे छोटे क्षेत्रीय दलों का महत्व खत्म हो चला है | मगर उदित राज और पासवान के दलों से भाजपा ने जिस तरह का समझौता किया उससे बिलकुल साफ़ है कि गठबंधन की राजनीति अप्रासंगिक नहीं हुई है बल्कि और ज्यादा महत्वपूर्ण समझी जा रही है |

यहाँ हमें यह भी देखना पड़ेगा कि भाजपा को आखिर इसकी इतनी ज़रूरत क्यों पड़ी | भाजपा के विरोधी दल तो बाकायदा यह समझाने में लगे हैं कि अगर मोदी का माहौल इतना ज़बरदस्त था तो इन गठबंधनों से उसने अपनी कमजोरी उजागर क्यों की | कहते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव ऐसी चीज़ है कि कोई भी पूरे विश्वास के साथ चुनाव में उतर ही नहीं पाता | दो तीन महीने के चुनावी प्रचार के इतिहास को देखें तो भाजपा के सामने यह सवाल उठाया जाता रहा है कि अकेले वह 272 का आंकड़ा लाएगी कहाँ से | अबतक जितने भी सर्वेक्षण हुए हैं और मोदी के पक्षकारों ने जितने भी हिसाब लगाये हैं उसके हिसाब से ज्यादा से ज्यादा 230 हद से हद 240 को पार करने की बात किसी ने नहीं बताई | यानी बिना दूसरे दलों के समर्थन के बगैर बहुमत के जादूई आंकड़े को छूने की कोई स्तिथि बनती दीखती ही नहीं थी | ऐसे में अगर भाजपा ने गठबंदन के लिए कोशिशें जारी रखीं तो यह स्वाभाविक ही है | यह बात अलग है कि पिछले दो तीन महीने के चुनावी प्रचार में भाजपा ने ऐसा माहौल बनाये रखा कि देश में मोदी कि लहर है | ऐसा माहौल बनाये रखना भारतीय लोकतंत्र की चुनावी परंपरा में हमेशा होता आया है | सामान्य अनुभव यह है कि देश के एक–तिहाई से ज्यादा वोटर बहुत ज्यादा माथापच्ची नहीं करते और माहौल के साथ हो लेते हैं | बस एक यही कारण नज़र आता है कि भाजपा की चुनावी रणनीति में माहौल बनाने का काम धुंधाधाड़ तरीके से चला और मीडिया ने भी जितना हो सकता था, उसे हवा दी | लेकिन इन छोटे छोटे दलों से गठबंधन के काम ने उस हवा को या उस माहौल को कुछ नुक्सान ज़रूर पहुँचाया है | हालांकि भाजपा को नुक्सान की बात कहना उतना सही भी नहीं होगा | क्योंकि बात यहाँ लहर या माहौल के नुक्सान की तो हो सकती है पर वास्तविक स्तिथि को देखें तो इससे कितना ही कम सही लेकिन कुछ न कुछ फायदा ज़रूर होगा |

क्योंकि भाजपा को घेरने वाले लोग हमेशा यह सवाल उठाते हैं कि भाजपा अटल बिहारी वाजपयी के अपने स्वर्णिम काल में भी जादूई आंकड़े के आसपास भी नहीं पहुंची थी | और वह तो 20-22 दलों के गठबंधन का नतीजा था कि भाजपा के नेतृत्व में राजग सरकार बना पायी थी | इसी आधार पर गैर भाजपाई दल यह पूछते रहते हैं कि आज की परिस्तिथी में दूसरे कौन से दल हैं जो भाजपा के साथ आयेंगे | इसके जवाब में भाजपा का कहना अब तक यह रहा है कि आगे देखिए जब हम सरकार बनाने के आसपास पहुँच रहे होंगे तो कितने दल खुद-ब-खुद हमारे साथ हो लेंगे | यह बात वैसे तो चुनाव के बाद की स्तिथियों के हिसाब से बताई जाती है लेकिन चुनाव के पहले बनाए गए माहौल का भी एक असर हो सकता है कि छोटे छोटे दल मसलन पासवान या उदित राज भाजपा की ओर पहले ही चले आये | अब स्तिथी यह बनती है कि और भी दलों या नेताओं को चुनाव के पहले ही कोई फैसला लेने का एक मौका मिल गया है | उन्हें यह नहीं लगेगा कि वे अकेले यह क्या कर रहे हैं |

कुलमिलाकर छोटे छोटे क्षेत्रीय दलों का भाजपा की ओर ध्रुविकरण की शुरुआत हो गयी है | एक रासायनिक प्रक्रीया के तौर पर अब ज़रूरत उत्प्रेरकों की पड़ेगी | बगैर उत्प्रेरकों के ऐसी प्रक्रियाएं पूरी हो नहीं पातीं | ये उत्प्रेरक कौन हो सकते हैं ? इसका अनुमान अभी नहीं लगाया जा सकता | अभी तो चुनावों की तारीखों का एलान भी नहीं हुआ | महीनों से चल रही उम्मीदवारों की सूची बनाने का पहाड़ जैसा काम कोई भी दल निर्विघ्न पूरा नहीं कर पा रहा है | जबतक स्थानीय या क्षेत्रीय स्तर पर ये समीकरण ना बैठा लिए जाएं तब तक दूसरे दलों से गठबंधन का कोई हिसाब बन ही नहीं पाता | इसीलिए हफ्ते – दोहफ्ते भाजपा के पक्ष में गठजोड़ की प्रक्रिया बढ़ाने वाले उत्प्रेरक सामने आयेंगे ऐसी कोई संभावना नहीं दिखती |

वैसे भाजपा के अलावा प्रमुख दलों की भी कमोवेश येही स्तिथि है | मसलन लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस को अपना हिसाब भेज दिया है | लेकिन कांग्रेस की ओर से जवाब ना आने से वहां भी गठजोड़ों की प्रक्रिया रुकी सी पड़ी है | खैर अभी तो चुनावी माहौल का ये आगाज़ है | हफ्ते-दोहफ्ते में चुनावी रंग जमेगा | 

Monday, February 24, 2014

सीबीआई में नियुक्ति पर बवाल

पिछले दिनों प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में नियुक्ति समिति ने सीबीआई के अतिरिक्त निदेशक के पद पर श्रीमती अर्चना रामासुन्दरम् की नियुक्ति करके एक और विवाद खड़ा कर दिया है। उल्लेखनीय है कि यह नियुक्ति केन्द्रीय सर्तकता आयोग अधिनियम व दिल्ली पुलिस स्थापना कानून की अवज्ञा करके की गई है। इस कानून के अनुसार सी.बी.आई. में पुलिस अधीक्षक से लेकर विशेष निदेशक तक की नियुक्ति करने का अधिकार जिस समिति को दिया गया है, उसकी अध्यक्षता केन्द्रीय सर्तकता आयुक्त करते हैं। इस समिति में दो सर्तकता आयुक्त, भारत के गृहसचिव व भारत के डी.ओ.पी.टी. विभाग के सचिव भी सदस्य होते हैं। सी.बी.आई. के निदेशक को सलाह लेने के लिए आमन्त्रित अतिथि के रूप में बुलाया जाता है। सी.बी.आई. के निदेशक की सलाह मानना इस समिति की बाध्यता नहीं है। पर इस समिति द्वारा जो नाम प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली नियुक्ति समिति को भेजा जाता है, उससे मानना प्रधानमंत्री की समिति के लिए अनिवार्य है। अभी तक ऐसा ही होता आया है। उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय ने विनीत नारायण फैसले के तहत सी.बी.आई. की स्वायत्ता सुनिश्चित करने के लिए यह निर्देश जारी किए थे।
पर अर्चना रामासुन्दरम् की नियुक्ति करके प्रधानमंत्री ने एक बार फिर इन नियमों की अवहेलना की है। उल्लेखनीय है कि दो वर्ष पहले केन्द्रीय सर्तकता आयुक्त की नियुक्ति के समय प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज की सलाह की उपेक्षा करके पी.जे. थामस को नियुक्त कर दिया था, जिस पर भारी बवाल मचा। उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय के कड़े रूख को देखते हुए श्री थामस को इस्तीफा देना पड़ा। ठीक वैसी स्थिति अब पैदा हो गई है। केन्द्रीय सर्तकता आयुक्त की अध्यक्षता वाली चयन समिति ने सी.बी.आई. के सह निदेशक पद के लिए बंगाल काडर के पुलिस अधिकारी आर.के. पचनन्दा का नाम प्रस्तावित किया था। जिसे डी.ओ.पी.टी. ने लौटाकर पुर्नविचार करने को कहा। जिसके बाद 26 दिसम्बर, 2013 को दूसरी बैठक में भी चयन समिति ने फिर से आरके पचनन्दा का नाम ही प्रस्तावित किया, अब यह सरकार की बाध्यता बन गया। पर सरकार ने इसकी परवाह नहीं की और किन्हीं दबावों में आकर अपनी मर्जी से सहनिदेशक की नियुक्ति कर दी। यहां प्रश्न की इस बात का नहीं है कि अर्चना रामासुन्दरम् योग्य हैं या नहीं। सवाल इस बात का है कि क्या प्रधानमंत्री का यह निर्णय कानून सम्मत है या नहीं, उत्तर है नहीं, तो फिर यह नियुक्ति अदालत की परीक्षा में कैसे खरी उतर पाएगी। अगर प्रधानमंत्री को आरके पचनन्दा के नाम पर आपत्ति थी, तो उन्हें इसके लिखितकारण बताकर समिति को पुर्नविचार करने के लिए कहना चाहिए था। पर ऐसा कोई आरोप सरकार ने पचनन्दा के विरूद्ध नहीं लगाया, इसलिए उनकी उम्मीदवारी की उपेक्षा का कोई कारण समझ में नहीं आता।
उल्लेखनीय है कि जब मुझे इस गैरकानून प्रक्रिया की भनक मिली, तो मैंने 7 फरवरी, 2014 को प्रधानमंत्री को एक खुला पत्र लिखकर ऐसा न करने की सलाह और चेतावनी दी। पर उसके बावजूद जब यह निर्णय हो गया, तो मुझे सार्वजनिक रूप से टेलीविजन चैनलों पर इसकी भत्र्सना करनी पड़ी और अब मैं इस मामले को सर्वोच्च अदालत में ले जाने की तैयारी कर रहा हूं।
मेरा प्रश्न इतना सा है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार गठित चयन समिति की कोई हैसियत सरकार के दिमाग में है या नहीं। अगर सरकार कानून का उल्लंघन करके सी.बी.आई. में अपनी पसंद के अधिकारी नियुक्त करना चाहती हैं, तो वह अदालत से कहकर उसके निर्देशों के विरूद्ध फैसला ले ले, क्योंकि फिर उसे केंद्रीय सर्तकता आयोग की जरूरत नहीं बचेगी। फिर तो वह सी.बी.आई. में मनमानी नियुक्ति कर सकती है। पर जब तक यह कानून प्रभावी है, इसका उल्लंघन गैर कानूनी माना जाएगा। इसलिए एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाकर ‘विनीत नारायण फैसले’ की पुर्नव्याख्या करवानी होगी।
 समझ में नहीं आता कि चुनावी वर्ष में, अपने कार्यकाल के अन्तिम कुछ हफ्तों में प्रधानमंत्री क्यों बार-बार ऐसी गलती दोहरा रहे हैं, जिस पर पहले भी उनकी फजीहत हो चुकी है। अब देखना यह है कि अदालत इस मामले में क्या निर्णय देती है।

जो भी हो, अगर फैसला सरकार के विरूद्ध आता है तो आरके पचनन्दा सी.बी.आई. के अतिरिक्त निदेशक नियुक्त किए जा सकते हैं और अगर फैसला सरकार के पक्ष में आता है, तो अर्चना रामासुन्दरम् इस स्थान को भर सकती हैं। फिलहाल वे तमिलनाडु काडर की पुलिस अधिकारी हैं। मैं समझता हूं कि इस जनहित याचिका पर अदालत का रूख सुने बिना अगर अर्चना रामासुन्दरम् सी.बी.आई. में पदभार ग्रहण कर लेती हैं और फिर फैसला उनके विरूद्ध आता है, तो उन्हें वापिस अपने राज्य लौटना होगा। शायद वे इतनी हड़बड़ी न दिखाएं और अदालत के फैसले का इंतजार करें।
जो भी हो सी.बी.आई. वैसे ही कम विवादों में नहीं रहती और फिर अगर उसकी नियुक्तियों को लेकर सरकार कठघरे में खड़ी हो जाए तो सरकार की क्या छवि बचेगी। इसलिए यह गम्भीर प्रश्न है। अब हमें जनहित याचिका दायर होने और उस पर सर्वोच्च न्यायालय क्या रूख लेता है, इसका इंतजार करना होगा।

Monday, February 17, 2014

केजरीवाल के रवैये से लोकतांत्रिक ढांचे को चोट पहुंची

केजरीवाल ने आखिरकार अपनी जिम्मेदारियों से पिण्ड छुड़ा लिया | दिल्ली में सरकार चला पाने में बुरी तरह से नाकामी के बाद केजरीवाल इतनी मुश्किल में फंस गए थे कि उन्हें किसी भी तरह के बहानों की सख्त ज़रूरत पड़ गई थी | और उन्होंने ऐसा बहाना ढूँढ ही लिया | और उन्होंने ऐसा ऐलान कर दिया जो किसी भी तरह से पूरा हो ही नहीं सकता था | अपने ऐलान में उनहोंने यह जोड़ दिया था कि अगर यह काम मैं नहीं कर पाया तो स्तीफा दे दूंगा | उनहोंने बहाना मिलाया था कि दिल्ली सरकार जन लोकपाल बिल लाएगी | यही ऐसा एलान था कि छोटी कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों को भी पता था कि केन्द्र शासित राज्य दिल्ली की सरकार कानूनी तौर पर यह प्रस्ताव ला ही नहीं सकती और वही हुआ और उसके बाद उन्होंने स्तीफा देकर अपनी बाकी सारी जिम्मेदारियों से पिण्ड छुड़ा लिया | अब वे प्रचार में लग गए हैं कि सारे दल सारे मौजूदा नेता भ्रष्ट हैं इसीलिए उन्होंने जन लोकपाल बिल नहीं लाने दिया|

सच तो यह है कि केजरीवाल कि छवि दिन पर दिन खराब होती जा रही थी | दिल्ली का चुनाव लड़ने से पहले उनके किये सारे वादों कि एक-एक करके पोल खुलती जा रही थी | ऐसे में उनके पास इसे इलावा कोई विकल्प नहीं था की पूरी कि पूरी पोल खुल जाये उसके पहले ही वे किसी तरहर से मुख्यमंत्री की कुर्सी से उठ कर भाग लें|

शुक्रवार की रात जब उनका ड्रामा चल रहा था तब कमोवेश सारे टी वी चैनल बता रहे थे कि केजरीवाल जल्द ही कुर्सी छोड़ कर भागने वाले हैं | लेकिन केजरीवाल बैठकों का दौर चला रहे थे और अपने समर्थकों को एस.एम.एस भिजवा कर कह रहे थे कि पार्टी के दफ्तर के बाहर जमा हो जाओ | उन्हों ने दो – तीन घंटे हरचंद कोशिश की कि किसी तरह अच्छी खासी भीड़ जमा हो जाये और यह दिखाते हुए स्तीफे का ऐलान करें कि जनता उनके साथ है और जनता के कहने पर ही स्तीफा दे रहें हैं | उन्हें उम्मीद थी कि लोकसभा चुनावों के लिए गली-गली से उन्होंने जो टिकटार्थियों की लिस्ट बना ली है वे लोग अपने अपने समर्थकों के साथ दफ्तर के बाहर जमा हो जायेंगे | लेकिन जब भीड़ जमा नहीं हुई और ऐसे कोई आसार भी नहीं दिखे तो उन्होंने रात 9:30 बजे स्तीफे का एलान कर दिया | और बड़े वीराने माहौल में मुख्यमंत्री की कुर्सी बलिदान करने वाली मुद्रा में अपनी जिम्मेदारियों से पिण्ड छुड़ा लिया |

लेकिन यह पिण्ड इतनी आसानी से छूटने वाला नहीं है | पिछले चार महीनों में दिल्ली में जो तमाशा हुआ है उसमे लाखों लोगों को शामिल कराया गया था | उन्हें सपने दिखाए गए थे | कुछ भोले भाले लोगों को उम्मीदें बंधाई गयी थीं | कुछ चश्मदीद भी इस खेल में स्वभावतः शामिल हो गए थे | यानी तरह तरह के इन लोगों की नज़रों में नाकाम साबित हो जाने के बाद और इन लोगों की नज़रों में गिर जाने की चिंता केजरीवाल को सता रही होगी | वैसे वे इतने चतुर हैं कि इस स्तिथि से निपटने का भी कोई इंतज़ाम उन्होंने और उनकी चतुर मंडली ने सोच लिया होगा | पर यह इतना आसान नहीं है |

अब उनके पास एक ही विकल्प बचा है लोकसभा चुनावों में उतरने कि तय्यारियों के नाम पर अपने दर्शकों और श्रोताओं को कुछ महीने और उलझाये रखें | चर्चा में बने रहने के हुनर में पाटू हो चुके केजरीवाल को बड़े गजब का यकीन हैं कि वे एक ही मुद्दे पर और एक ही प्रकार से बार बार बातें बना सकते हैं | लेकिंग इस पर सवाल उठाने के पीछे तर्क यह है कि इतिहास में ऐसा बार बार होने का कोई उदहारण मिलता नहीं है | या तो मुद्दे बदले गए हैं या लोग | इस दलील के पक्ष में यह अनुमान लगाये जा सकता है कि लोकसभा चुनाव आते आते या तो मुद्दे बदले जाएंगे या केजरीवाल अपने बीच से कोई विकल्प या मुखौटा खड़ा कर देंगे | वैसे उनके पास एक विकल्प यह भी है कि कुछ महीनों बाद वे राजनीति का मैदान छोड़ कर अन्नानुमा किसी सामाजिक आंदोलन पर वापिस लौट जायें |


राजनीति में केजरीवाल काण्ड की समीक्षा करते समय हमें यह भी सोचना होगा कि इससे नफा नुक्सान क्या हुआ | पहली नज़र में दीखता है की आन्दोलनों के प्रति समाज की निष्ठा दिन प्रतिदिन कम होती चली गयी और लोकतान्त्रिक राजनीति के ढांचे को चोट ज़रूर पहुंची | यह कहने का आधार यह है कि लोकतांत्रिक राजनीति की जितनी कमजोरियां थी उनको तो समझ बूझ कर ही हमने यानी विश्व ने अपना रखा था | भले ही लोकतंत्र की सीमायें हम भूल गए हों बस यहीं पर इस उठापटक के पक्ष में बात जाती है कि उसने हमें याद दिलाया है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था कोई पूर्णतः निरापद व्यवस्था नहीं है और विचित्र स्तिथ्ती यह है कि इससे बेहतर कोई विकल्प भी हम सोच नहीं पाते | 

Monday, February 10, 2014

केवल कानूनों से नहीं रूक सकता भ्रष्टाचार

इस देश के हर आम और खास आदमी को पता है कि देश में हो रहे अपराधों को रोकने के लिए सैकड़ों कानून हैं। पुलिस और सी.बी.आई. है और नीचे से ऊपर तक न्यायिक तंत्र है, पर क्या इसके बावजूद अपराध घट रहे हैं ? फिर भी लोगों को लगातार बहाकाया जा रहा है कि सख्त कानून से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। जबकि अपराध शास्त्र के शोध बताते हैं कि कानून से केवल 5 फीसद अपराध कम होते हैं। बाकी 95 फीसद अपराध कम करने के लिए दूसरे प्रयासों की जरूरत होती है।

 चूंकि भ्रष्टाचार भी एक अपराध है, तो हमें समझना होगा कि यह अपराध क्यों हो रहा है। इसको कैसे रोका जा सकता है ? जहां तक ताकतवर लोगों के भ्रष्टाचार का सवाल है, तो उसे अपराध शास्त्र की भाषा में ‘व्हाइट कालर क्राइम’ कहते हैं और इसकी परिभाषा यह है कि ‘वह अपराध, जिसे पकड़ा न जा सके’ यानि ताकतवार लोगों के भ्रष्टाचार को पकड़ना आसान नहीं होता। अनेकों उदाहरण हमारे सामने हैं। देशभर में राजनीति, प्रशासन, उद्योग और व्यापार से जुड़े ऐसे करोड़ों उदाहरण हैं, जहां बिना मेहनत के अकूत धन सम्पदा को जमा कर लिया गया है। इलाके के लोग जानते हैं कि यह संग्रह भ्रष्ट तरीकों से किया गया है। फिर भी इन अपराध करने वालों को पकड़ा नहीं जा पाता।
दरअसल भ्रष्टाचार के कारण दो हैं। एक-प्रवृत्ति और दूसरा-परिस्थिति। जितनी ही प्रवृत्ति और परिस्थिति ज्यादा प्रबल होगी, उतना ही उसे रोकने का कानून अप्रभावी होगा। प्रवृत्ति आती है, व्यक्ति के संस्कारों से और परिस्थितियां वो हालात हैं, जो एक आदमी को भ्रष्ट बनने का मौका देते हैं। अगर प्रवृत्ति सादा जीवन उच्च विचार की होगी, तो वह व्यक्ति भ्रष्ट आचरण करने से बचेगा। आज हम लोगों को यह बता रहे हैं कि खुशी पाने का तरीका है, रोज नई खरीददारी करते जाना। चाहे वह नई कारें का माॅडल हो या अन्य कोई सामान। बाजार की सभी शक्तियों, उनकी विज्ञापन एजेंसियों का एक ही मकसद है कि लोग खरीददारी करें। चाहे वो संपत्ति हो, उपकरण हों या सोना चांदी। इस तरह भूख और हवस को लगातार हवा दी जा रही है। जिससे समाज में सामाजिक और आर्थिक असंतुलन पैदा हो रहा है। नतीजा यह है कि लोग अनैतिक साधनों से अपनी इन कृत्रिम आवश्यकताओं को पूरा करने में संकोच नहीं करते और यही भ्रष्टाचार का कारण है।
इसके साथ ही समाज में नैतिक मूल्यों का तेजी से हृास हो रहा है। आज समाज के आदर्श कोई ज्ञानी, त्यागी या सिद्ध पुरूष नहीं हैं, बल्कि जिसके पास अकूत धन और ताकत है, उसी का समाज में बोलबाला है। वही धार्मिक, सामाजिक व शैक्षिक कार्यों को सहायता देता है और यश कमाता है। उसे देखकर हर व्यक्ति वैसा ही बनना चाहता है। फिर भ्रष्टाचार कैसे कम हो ? जो लोग सख्त कानून बनाकर भ्रष्टाचार रोकने की बात कर रहे हैं, वे यह भूल जाते हैं कि दुनिया में ऐसे कई उदाहरण हैं, जब सख्त कानूनों का विपरीत असर पड़ा है। फ्रांस के एक राजा ने मुनादी करवाई कि जेबकतरों को सरेआम फांसी दी जाएगी। अपेक्षा यह थी कि फांसी के डर से जेबकतरे जेबे नहीं काटेंगे। पर जब किसी अपराधी को सार्वजनिक रूप से फांसी दी जाती थी, तो तमाशबीन लोगों की दर्जनों जेबें कट जाती थीं। मतलब साफ था कि फांसी पर लटकते हुए देखकर भी जेबकतरों के मन में डर पैदा नहीं होता था। यही बात भ्रष्टाचार विरोधी कानून की भी है। पिछले तीन बरस के हल्ले को छोड़कर अगर पीछे जाएं, तो पाएंगे कि मौजूदा कानून में ही एक क्लर्क से लेकर प्रधानमंत्री तक को पकड़ने की क्षमता थी। अगर उसका पूरा इस्तेमाल नहीं हुआ, तो कानून की कमी के कारण नहीं, बल्कि उसको लागू करने वालों की प्रवृत्ति के कारण हुआ। फिर वो चाहे सी0बी0आई0 का पुलिस अधिकारी हो या सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश। नये कानून बनाकर भी यह परिस्थिति बदलने वाली नहीं है, क्योंकि लोग तो वही रहेंगे।
तो क्या कानून न बनाया जाए ? कानून की भी भूमिका केवल प्रतिरोध करने तक होती है, समाधान देने की नहीं। उस हद तक कानून की सार्थकता है, पर अगर भ्रष्टाचार से निपटना है, तो समाज में सादा जीवन व नैतिकता के मूल्यों पुर्नस्थापना करनी होगी। कोई प्रश्न कर सकता है कि संपन्न देशों में तो भौतिकता का स्तर ऊंचा है, फिर वहां आम आदमी के स्तर पर भ्रष्टाचार क्यों नहीं दिखाई देता। कारण स्पष्ट है कि वहां आम आदमी की बुनियादी जरूरतों को सरकार पूरा कर देती है। चाहे उसे दूसरे देशों को लूटकर साधन जुटाने पड़ें, इसीलिए आदमी आसानी से भ्रष्टाचार करने का जोखिम उठाने की हिम्मत नहीं करता। पर फिर भी अपराध वहां कम नहीं होते।
इसलिए हम बार-बार यही दोहराते आए हैं कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध केवल कानून बनाने से समस्या का हल नहीं निकलेगा। जो लोग कानून का मुद्दा पकड़कर तूफान मचा रहे हैं, वो भी मन में जानते हैं कि ये तो एक बहाना है, असली मकसद तो सत्ता पाना है। अब यह आम आदमी पर है कि वो नकाबों के पीछे की असलियत को देखे। क्योंकि हमाम में सब नंगे हैं।

Monday, February 3, 2014

भाजपा में सुगबुगाहट

 देशभर में भाजपा व संघ के कार्यकर्ताओं में नरेंद्र मोदी को लेकर भारी उत्साह है। वहीं भाजपा का पुराना नेतृत्व इस उत्साह के अनुरूप सक्रिय नहीं है। इसके दो कारण माने जा रहे हैं, एक तो यह कि भाजपा का पारंपरिक नेतृत्व अचानक आयी मोदी की बाढ़ से असहज है। उसे लगता है कि मोदी की सफलता का अर्थ उनका राजनीति में दरकिनार होना होगा। इसका कारण वे नरेंद्र मोदी की कार्यशैली बताते हैं। इसलिए वे स्वयं और अपने समर्थकों को उस तरह चुनाव की तैयारी में नहीं लगा रहे, जैसा भाजपा के पक्ष में बन रहे आज के माहौल में उन्हें लगाना चाहिए था। कोई भी लड़ाई आधे मन से जीती नहीं जा सकती। चाहे हम अपनी संभावित सफलता का कितना ही ढिढ़ोरा पीट लें।
 शायद नरेंद्र मोदी कैंप को इस मानसिकता का पूर्वाभास है, इसलिए मिशन मोदी के कर्णधारों ने बूथ के विश्लेषण से लेकर प्रत्याशियों के चयन तक की समानान्तर प्रक्रिया विकसित कर ली है। जिससे भाजपा के पारंपरिक नेतृत्व पर बोझ बने बिना अपनी चुनावी लड़ाई जमकर लड़ी जा सके। यह बात दीगर है कि इस लड़ाई को लड़ने के लिए मतदाता को बूथ तक लाने का जैसा मैनेजमेंट चाहिए और जैसे समर्पित युवा चाहिए, उन्हें टीम मोदी अभी सक्रिय नहीं कर पायी है। ऐसे युवाओं का कहना है कि उनके जैसे लाखों युवा मोदी के अभियान में सक्रिय होना चाहते हैं, पर उन्हें स्पष्ट निर्देश नहीं मिल रहे। दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी के स्वयंसेवी लोग जगह-जगह मलिन और निर्धन बस्तियों में मेज-कुर्सी लगाकर सदस्यता अभियान चला रहे हैं और तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। बावजूद इसके कि अरविंद केजरीवाल का रेलभवन के सामने का धरना मध्यम वर्ग और पढ़े-लिखे समाज को पसंद नहीं आया। इसलिए दिल्ली में जैसा लोकप्रियता का ग्राफ चढ़ रहा था, वह गिरने लगा है। दूसरी तरफ दिल्ली सरकार की नीतियों से अप्रभावित अन्य राज्यों के आम आदमी केजरीवाल की कारगुजारियों से उत्साहित हैं और भारी तादाद में सदस्य बन रहे हैं। टीम मोदी के लिए यह चिंता का विषय होना चाहिए।
 जुड़ने के प्रति जो आकर्षण है, उसका मूल कारण है कि राजनैतिक सोच रखने वाले देश के अनेकों लोगों को यह लगता है कि पारंपरिक राजनैतिक दलों में नए व्यक्तियों और नए विचारों के लिए कोई स्थान नहीं होता। वहां तो पुराने थके हुए गुटबाज नेताओं का ही वर्चस्व रहता है। जबकि (आआपा) में फिलहाल हर व्यक्ति को अपनी भूमिका नजर आ रही है। भविष्य में आम आदमी पार्टी (आआपा) की परिणति पारंपरिक दलों की तरह होगी या नहीं होगी, नहीं कहा जा सकता। पर आज तो पढ़े-लिखे लोग भी यह मान रहे हैं कि अन्य दलों का नेतृत्व अहंकारी है और वहां किसी की कोई सुनवाई नहीं होती।
 इस सबके बावजूद भाजपा में टिकटार्थियों की लाइनें लगना शुरू हो गई हैं। जिन राज्यों में हाल ही में भाजपा को प्रभावशाली सफलता मिली, वहां लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए बहुत से लोग इच्छुक हैं। उन्हें लगता है कि मोदी की बहती गंगा में वह भी हाथ धो लें। पर मोदी की टीम उम्मीदवारों के चयन में बहुत सचेत है। वह झूठे दावे करने वालों और वफादारी का नाटक करने वालों को पसंद नहीं करते। उन्हें तलाश है ऐसे चेहरों की जो मोदी के भारत निर्माण अभियान में ठोस और सक्रिय भूमिका निभा सकें। जो गुटबाजी से दूर हों और जिन्हें मोदी के नेतृत्व पर पूरा यकीन हो। ऐसे लोगों का चयन आसान नहीं होगा, क्योंकि ऐसे लोगों को समाज के निहित स्वार्थ कोई न कोई षडयंत्र चलाकर मुख्य धारा से दूर रखते हैं। जिससे उनकी दुकान फीकी न पड़ जाये। पर यह तो जौहरी की योग्यता पर है कि वह गुदड़ी में से भी हीरे पहचान कर ले आये।
 जहां तक आआपा के प्रभाव का प्रश्न है, यह सही है कि आआपा ने अपनी जमीनी पहचान बनाकर सभी प्रमुख राजनैतिक दलों में सुगबुगाहट पैदा कर दी है। पर वैचारिक अस्पष्टता और अराजक तौर तरीकों के कारण आआपा बदनाम भी कम नहीं हुई है। अपने सामने नेपाल का उदाहरण स्पष्ट है। वहां के माओवादी नेता अरविंद केजरीवाल की भाषा और तेवर में बोला करते थे। किस्मत से उन्हें सरकार भी बनाने का मौका मिला, पर उनके राज में नेपाल का जो बंटाधार हुआ कि वह खुद भी मैदान छोड़कर भागते नजर आये और नेपाल को पहले से बदतर हालत में लाकर खड़ा कर दिया। इसी तरह आआपा के नेताओं की अनुभवहीनता, अपरिपक्वता, अहंकार और आत्मश्लाघा से यह स्पष्ट हो गया है कि इनके पास नारों के अलावा देने को कुछ भी नहीं है। इस सबके बावजूद भारत का मतदाता किस ओर बैठेगा, नहीं कहा जा सकता।
 

Monday, January 27, 2014

‘नई राजनीति’ को राष्ट्रपति की चेतावनी

अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताएं, देश की सशस्त्र सेना की परेड या राष्ट्रीय पर्वों पर शानो-शौकत से मनाए जाने वाले उत्सव किसी राष्ट्र की समृद्धि और सफलता की पहचान होते हैं। इनसे सेना और देशवासियों का उत्साह बढ़ता है। पर कुछ लोग यह सवाल करते हैं कि जब समाज का बहुत बड़ा वर्ग साधनहीन हो, तो उत्सव मनाना कहां तक उचित है। शायद इसी संदर्भ में भारत के महामहिम राष्ट्रपति डा.प्रणव मुखर्जी ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में अराजकता की राजनीति पर प्रहार किया है। अगर देश में उत्सव और पर्व नहीं मनाए जाएंगे, तो राष्ट्र के जीवन में नीरसता आ जाएगी। अपने तीज-त्यौहार तो हर व्यक्ति मनाता है, चाहे वो संपन्न हो या विपन्न। क्योंकि इनको मनाने से जीवन में आनन्दरस की प्राप्ति होती है।
हाल के दिनों में दिल्ली के मुख्यमंत्री ने नई राजनीति का दावा करते हुए धरने प्रदर्शन का जो स्वरूप प्रस्तुत किया, उससे हो सकता है कि आम आदमी की पुलिस के प्रति भड़ास को अभिव्यक्ति मिली हो। पर इससे समाधान कोई नहीं निकाल सका। स्वयं को अराजक कहने वाला मुख्यमंत्री यह भूल जाता है कि उसने अपने शपथ ग्रहण भाषण में दावा किया था कि मात्र 48 घंटे में भ्रष्टाचार से जुड़ी अपनी प्रजा की शिकायतों का निपटारा कर देगा। 48 घंटे तो दूर 30 दिनों के बाद भी निपटारे के आसार नजर नहीं आ रहे। मुख्यमंत्री बनने से पहले ही घर पर जनता दरबार लगा लिया। पर जब मुख्यमंत्री बनकर लगाया, तो होश ठिकाने आ गए। भीड़ से घबराकर, अपनी जान बचाने के लिए सचिवालय की छत पर दौड़कर चढ़ना पड़ा। मतलब साफ है कि भीड़ बुलाकर प्रशासनिक समाधान नहीं निकाले जा सकते। फिर रेल भवन के सामने धरना देकर नई राजनीति का दावा करने वाला यह मुख्यमंत्री क्या नहीं जानता था कि इस धरने का कोई औचित्य नहीं है और इससे कुछ नहीं हासिल होगा ?
हर कदम रणनीति के तहत उठाने वाला व्यक्ति मूर्ख नहीं हो सकता। उसने सोचा कि एक तो मीडिया में प्रसिद्धि मिलेगी और दूसरे आमआदमी से जो लम्बे चैड़े दावे किए गए थे, उन्हें पूरा किए बिना ही दोष केंद्र सरकार पर मढ़कर बच भागने का रास्ता निकल जाएगा। जनता भोलीभाली है। पुलिस से नाराज रहती है। वह इसी बात से बहक जाएगी कि हमारा मुख्यमंत्री सड़क पर गद्दे बिछाकर सोता है।
इस नई राजनीति का दंभ भरने वाले एंग्री यंग मैन मुख्यमंत्री क्या यह बताएंगे कि राजस्व का जो विभाग उनके सीधे नियंत्रण में है, उससे भ्रष्टाचार दूर करने में उन्हें क्या दिक्कत आ रही है ? क्योंकि कानून व्यवस्था व पुलिस के मामले में तो वे यह कहकर पल्ला झाड़ सकते हैं कि उनका पुलिस पर कोई नियंत्रण नहीं। पर दिल्ली में अरबों रूपये के सेल्स टैक्स की चोरी खुलेआम रोजाना हो रही है, इसे रोकने की पहल क्यों नहीं करते ? क्योंकि ऐसा करते ही पूरे दिल्ली की जनता एंग्री यंग मैन मुख्यमंत्री के खिलाफ खड़ी हो जाएगी। जो आज सेल्स टैक्स (वैट) दिए बिना ही अरबों का कारोबार करती है। इससे आम आदमी पार्टी का वोट बैंक खिलाफ हो जाएगा।
साफ जाहिर है कि कुछ ठोस कर नहीं सकते तो क्यों न ठीकरा केंद्र सरकार पर फोड़ दिया जाए। पर महाराज गलत फंस गए। नौटंकी का सच सामने आ गया। कल तक जो लोग बड़े उत्साह से इस नई राजनीति के दावेदारों के लोक-लुभावने झूठे दावों से आकर्षित होकर इनकी तरफ बिना सोचे समझे भाग रहे थे, वे ठिठक गए। अब तो दिल्ली में चर्चा यह है कि ऐसा व्यक्ति अगर प्रधानमंत्री बन जायेगा, तो वह राष्ट्रपति भवन के सामने धरने पर बैठकर मांग करेगा कि देश की तीनों सशस्त्र सेनाओं को मेरे आधीन कर दो, वरना मैं सरकार इण्डिया गेट से चलाऊंगा। ऐसे देश का शासन नहीं चला करता। बदलाव के लिए क्रान्तिकारी राजनीति का दंभ भरने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि चीन और रूस की क्रान्ति के बाद भी बड़े भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पर वहां के समाज में भी कोई बदलाव नहीं आया।
उधर आम आदमी पार्टी का एक भी नेता ऐसा नहीं जिसने गत 10 वर्षों में बड़े भ्रष्टाचार के विरूद्ध कोई प्रभावशाली संघर्ष किया हो। इनका एक ही काम है, सबको गाली देना, सबके प्रति अपमानजनक भाषा का प्रयोग करना, सबको चोर बताना और अपने को सबसे ज्यादा साफ और ईमानदार। पर एक कहावत है ‘घर घर चूल्हे माटी के’। आम आदमी पार्टी के तौर तरीके और इनके आत्मघोषित नेताओं के अहंकार और राजनैतिक अपरिपक्वता को देखकर अब इनके शुभचिंतकों का भी इनसे मोह भंग हो रहा है। उन्हें दिख रहा है कि राजनीति के आतंकवादियों की तरह व्यवहार करने वाली यह पार्टी देश में अराजकता और अस्थिरता पैदा कर देगी।यह मानने वालों की भी कमी नहीं कि आम आदमी पार्टी भारतीय राजनीति को एक ऐसे मुकाम पर ले जाएगी, जब न तो केंद्र में मजबूत सरकार बनेगी और न ही देश की समस्याओं का कोई हल निकलेगा। चूंकि हमें इनके चाल-चलन का बहुत लम्बा अनुभव रहा है, इसलिए हम शुरू से इनके दावों और असलियत के बीच के अंतर को जानते हैं। इसलिए हमने इन्हें कभी भी गंभीरता से नहीं लिया। ये पूरे देश में चुनाव लड़ने का दावा कर रहे हैं। पर क्या इससे भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा ? ऐसा कुछ नहीं होगा। केवल इनके संगठन का थोड़ा बहुत विस्तार होगा, जिसकी कीमत आम जनता को एक बार और धोखा खाकर चुकानी पड़ेगी। क्योंकि नारों से आगे बढ़कर ये जनता का कोई भला नहीं कर पाएंगे। उसे कुंए से निकालकर खाई में पटक देंगे। इसलिए राष्ट्रपति ने पहली बार इसी खतरे की ओर ध्यान दिलाया है और ऐसे लोगों को समझदारी से संघर्ष करने की नसीहत दी है।

Monday, January 20, 2014

कब तक चलेगी राहुल गांधी की दुविधा

17 जनवरी को एक बार फिर कांग्रेस की आलाकमान ने अपने कार्यकर्ताओं को निराश किया। कुछ दिन पहले बंगाल के एक अंग्रेजी दैनिक में प्रमुखता से खबर छपी थी कि राहुल गांधी को जल्दी ही प्रधानमंत्री बनाया जा रहा है। उसके तुरंत बाद प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने 10 साल के कार्यकाल में तीसरे संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए इस खबर को और पक्का कर दिया जब उन्होंने यह घोषणा की कि अगले चुनाव के बाद अगर यूपीए की सरकार आती है, तो वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं रहेंगे। राहुल गांधी पर पूछे गए प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा कि हमारे पास बहुत काबिल युवा नेतृत्व है, जो देश की बागडोर संभाल सकता है। इस के बाद सत्ता के गलियारों में चर्चा जोरों पर थी कि 17 जनवरी के कांग्रेस अधिवेशन में प्रस्ताव पारित करके राहुल गांधी को प्रधानमंत्री घोषित कर दिया जाएगा और मनमोहन सिंह अपना इस्तीफा सौंप देंगे। इस खबर के पीछे एक तर्क यह भी दिया जा रहा था कि प्रधानमंत्री बनकर राहुल गांधी अच्छा चुनाव प्रचार कर पाएंगे। पर 17 जनवरी के अधिवेशन में श्रीमती सोनिया गांधी ने ऐसी सब अटकलों पर विराम लगा दिया।
 
भाजपा को इससे एक बड़ा हथियार मिल गया यह कहने के लिए कि नरेंद्र मोदी के कद के सामने राहुल गांधी का कद खड़ा नहीं हो पा रहा था, इसलिए वे मैदान छोड़कर भाग रहे हैं। पर कांग्रेस के प्रवक्ता का कहना था कि उनके दल में  चुनाव परिणामों से पहले प्रधानमंत्री पद का कोई नया दावेदार का नाम तय करने की परंपरा नहीं रही है, इसलिए राहुल गांधी के नाम की घोषणा नहीं की गई। कारण जो भी हो राहुल गांधी की छवि आज तक एक राष्ट्रीय नेता की नहीं बन पायी है। फिर वो चाहे उनकी संकोचपूर्ण निर्णय प्रक्रिया हो, या ढीला ढाला परिधान। कभी लंबी दाढ़ी बढ़ी हुई, कभी क्लीन शेव। जो आज तक यह भी तय नहीं कर पाये कि उन्हें देश के सामने कैसा व्यक्तित्व पेश करना है। उनके नाना गुलाब का फूल, जवाहर कट जैकेट, शेरवानी और गांधी टोपी से जाने जाते थे। सुभाषचंद्र बोस फौजी वर्दी से, सरदार पटेल अपनी चादर से, मौलाना आजाद अपनी दाढ़ी व तुर्की टोपी से, इंदिरा गांधी अपने बालों की सफेद पट्टी व रूद्राक्ष की माला से पहचानी जाती थीं। पर राहुल गांधी ने अपनी ऐसी कोई पहचान नहीं बनाई। उनके भाषणों को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे कोई हड़बड़ाहट में बोल रहा हो। इससे न तो वे वरिष्ठ नागरिकों को प्रभावित कर पाते हैं और न ही युवाओं को।
 
कायदे से तो राहुल गांधी को यूपीए-2 में शुरू से ही उपप्रधानमंत्री का पद ले लेना चाहिए था। जिससे उन्हें अनुभव भी मिलता, गंभीरता भी आती और प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी अपने आप बन जाती। लगता है कि राहुल गांधी इस भ्रम में रहे कि अपने पिता की तरह 1984 के चुनाव परिणामों की तर्ज पर वे भी पूर्ण बहुमत पाने के बाद ही प्रधानमंत्री बनेंगे। राजीव गांधी का यह सपना पूरा नहीं हो पाया। अब तो इसकी संभावना और भी कम हो गई है। ऐसे में राहुल गांधी लगता है कि अब तक बहुत घाटे में रहे। अगर ऐसा ही होना था तो शुरू से ही सोनिया गांधी को प्रियंका गांधी को आगे कर देना चाहिए था। प्रियंका गांधी काफी हद तक इस कमी को पूरा कर लेती। क्योंकि लोग उनके व्यक्तित्व में इंदिरा गांधी कि झलक देखते हैं। पर राबट वडेरा के विवाद उठाये जाने के बाद अब वह सम्भावना भी कम हो गयी। वैसे तो यह कांग्रेस का अंदरूनी मामला है। हां यह जरूर है कि राहुल गांधी की दुविधा से नरेंद्र मोदी के लिए राह आसान बनी रही। अब उनके विरोध में कोई सशक्त उम्मीदवार नहीं खड़ा है। आज तो हालत यह है कि देश में काफी तादाद में लोग नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं। इनमें वे लोग भी हैं, जो आम आदमी पार्टी जैसे दलों की तरफ टिकट की आस में भाग रह हैं।
 

कांग्रेस की नैय्या डांवाडोल दिखती रही है। और अब तक की स्तिथि की समीक्षा करें तो उसके पार लगने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं। वैसे एक अनुभव सिद्ध तथ्य यह भी है कि आज की तेज़ रफतार राजनीति में कब क्या स्तिथियां बनती हैं इसका पूर्वानुमान लगाना भी जोखिम भरा होता है। लोकसभा चुनावों में अभी 4-5 महीने बाकी हैं इस बीच कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष अपनी ऊर्जा कैसे बनाये रखेगा सब कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है।

Monday, January 13, 2014

आम आदमी को निराश कर रहे हैं केजरीवाल

पहले तो इतनी हड़बड़ी थी कि शपथ लेने से पहले ही केजरीवाल ने जनता दरबार लगा लिया। फिर शपथ लेने के बाद जब नहीं संभला तो हड़बड़ाकर 10 दिन की मोहलत मांगी। 10 की बजाय 14 दिन बाद, खूब प्रचार-प्रसार के बाद, 11 जनवरी को जब दोबारा जनता दरबार शुरू किया तो फिर भगदड़ मच गई। मुख्यमंत्री को पुलिस के संरक्षण में जान बचाकर भागना पड़ा। यह एक नमूना है केजरीवाल की अधीरता और अपरिपक्वता का। जनता दरबार का इतिहास अगर आम आदमी पार्टी के नेताओं को पता होता, तो ऐसा बचपना न करते। देश के कई प्रधानमंत्रियों और राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने जब जब जनता दरबार लगाए हैं, वे बुरी तरह विफल हुए हैं। कारण करोड़ों के इस देश में करोड़ों लोगों की हर समस्या का हल जनता दरबार नहीं हुआ करता। इसके लिए प्रशासनिक व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त और जिम्मेदार बनाना होता है। जिसके लिए अनुभव की जरूरत होती है। पर सस्ती लोकप्रियता पाने की हड़बड़ी में आम आदमी पार्टी के नेता एक के बाद एक ऐसे ही अपरिपक्व फैसले ले रहे हैं, जिससे दिल्ली की आम जनता के बीच तेजी से निराशा फैल रही है।

शपथ के लिए मैट्रो में आना। मैट्रो के सारे कायदे कानून तोड़कर उसमें अव्यवस्था फैलाना। फिर टैंपो और बसों में दफ्तर आना और विश्वास मत प्राप्त होते ही बड़ी-बड़ी गाड़ियों को लपक लेना ऐसे ही बचकाने फैसले रहे हैं। गाड़ी लेनी ही थी तो पहले ही दिन क्यों नहीं ले ली ? सुरक्षा न लेने की जिद और सादी वर्दी में सुरक्षा के कवच, ये विरोधाभास कब तक चलेगा ? ऐसा नहीं है कि आम आदमी पार्टी से पहले देश में राजनेताओं ने अत्यंत सादगी और सच्चाई का जीवन न जिया हो। ऐसे तमाम उदाहरण हैं। भारत के गृहमंत्री इंद्रजीत गुप्ता तक छोटे से फ्लैट में रहते रहे। कई मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री आज भी बिना लालबत्ती की गाड़ी के और बिना सुरक्षा के घर से दफ्तर पैदल आते-जाते हैं, जिसका कोई प्रचार नहीं करते। पर अनेक दूसरे झूठे दावों की तरह आम आदमी पार्टी के नेता इन मामलों में भी ऐसे ही झूठे दावे करते आ रहे हैं कि उन्होंने यह काम पहली बार किया।
अरविन्द केजरीवाल को याद होगा कि उन्होंने दिल्ली के आर्य समाज के कार्यालय में जनलोकपाल कानून पर चर्चा करने के लिए उन्होंने एक बैठक बुलाई थी। जिसमें हमने इस कानून की व्यवहारिकता पर सवाल उठाये थे। यह तब की बात है जब इनका जन लोकपाल आंदोलन ठीक से शुरू भी नहीं हुआ था। हमने कहा था कि आपके बनाए जनलोकपाल कानून को लागू करने के लिए कम से कम 2 लाख नए कर्मचारियों की भर्ती करनी पड़ेगी। इस पर कम से कम 50 हजार करोड़ रूपया खर्चा आएगा। फिर ये गारंटी कैसे होगी कि ये 2 लाख कर्मचारी दूध के धुले हों और बने रहें। इसलिए हमने शुरू से अखबारों में अपने लेखों के माध्यम से और टी.वी. चैनलों में केजरीवाल, प्रशांत भूषण, अन्ना हजारे और इनके साथियों के साथ हर बहस में जनलोकपाल कानून की पूरी कल्पना का बार-बार बड़ी मजबूती से विश्लेषण करके इसकी अव्यवहारिकता को रेखांकित किया था। ये वो दौर था जब केजरीवाल की पहल पर दुनियाभर में इनके समर्थक ‘मैं अन्ना हूं’ की टोपी लगाकर घूम रहे थे। उस वक्त इनसे जूझना ऐसा था मानो मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाल दिया जाए। अतीत से बेखबर युवा पीढ़ी को भ्रमित करके केजरीवाल एंड पार्टी ने इतने सब्जबाग दिखा दिए हैं कि उन्हें इनके विरूद्ध सही बात सुनना भी उन्हें गंवारा नहीं होता। पर हम हमेशा वेगवती लहरों से जूझते आए हैं और बाद में समय ने यह सिद्ध किया कि हम सही थे और भीड़ की सोच गलत।
यह बात यहां इसलिए जरूरी है कि भ्रष्टाचारविहीन शासन का दावा करने वाले केजरीवाल के गत 3 सप्ताह के शासन में भ्रष्टाचार के विरूद्ध सिवाय बयानबाजी और नारेबाजी के कुछ ठोस नहीं हुआ। अब जनता को अगर स्टिंग ही करना पड़ेगा, तो जनता अपना काम कब करेगी और फिर मोटे वेतन लेने वाला प्रशासन क्या काम करेगा? जबकि केजरीवाल का दावा था कि वे 48 घंटे में शासन को जनता की शिकायतों के प्रति उत्तरदायी बना देंगे। जबकि हालत यह है कि वे शिकायतियों की भीड़ को संभालने की भी व्यवस्था भी नहीं बना पाए। सोचो अगर 122 करोड़ लोग जनलोकपाल को शिकायत भेजेंगे तो उन शिकायतों को जांचने और परखने और उनकी गंभीरता का मूल्यांकन करने में कितना लम्बा समय लगेगा ? कितनी दिक्कत आएगी ? इससे कितनी निराशा फैलेगी, इसका अंदाजा केजरीवाल को नहीं है। इस सबके बावजूद भी शिकायतों के मुकाबले समाधान नगण्य रहेंगे। यह पूरी सोच ही केवल आम जनता की दुखती नब्ज पर हाथ रखकर, उसे छलावे में डालकर, सब्जबाग दिखाकर अपना उल्लू सीधा करने की है, जो आज हो रहा है। हालात इससे और बदतर होंगे, क्योंकि शिकायत करने वालों का जनसैलाब जब बढ़ेगा, तो केजरीवाल प्रशासन के लिए हर शिकायत को जांचना, समझना और समाधान देना दुश्कर होता जाएगा और इससे जनता में और हताशा फैलेगी।
माना कि आम आदमी पार्टी के नेता लोकसभा चुनाव पर दृष्टि रखकर हड़बड़ी में लोक लुभावने काम करने का माहौल बना रहे हैं। पर उससे जो हताशा फैल रही है, उसकी तरफ उनका कोई ध्यान नहीं है। आज आम आदमी और कांग्रेस के समर्थन ने केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनाया है। दो हफ्ते के भीतर ही दिल्ली के आम आदमी की छोटी-छोटी और जायज शिकायतें सुनने का प्रबंध भी नहीं हो पाया। जरा सोचिये कि उस आम आदमी की क्या मानसिक स्थिति होगी, जिसने अपनी भावनाएं आम आदमी पार्टी पर न्यौछावर कर दी थीं। दुख और चिंता इस बात की है कि आम आदमी का जो मोहभंग इतनी जल्दी हो गया है, तो अब उसके पास किसी पर विश्वास करने का कौन सा मौका बचेगा ? बीसियों साल से समाज की जटिल समस्याओं को समझने और उनके समाधान में जुटे सामाजिक कार्यकर्ताओं और विद्वानों के लिए क्या अब अपना काम करने में बड़ी मुश्किल खड़ी नहीं हो गई है ?
वक्त अभी भी नहीं गुजरा। अभी भी केजरीवाल अपने काम का तरीका सुधार सकते हैं। बशर्ते कि भावनाओं के आवेग को छोड़कर सबसे पहले राजनीतिक इतिहास और अब तक के राजनीतिक ज्ञान पर एक बार गौर कर लें और फिर जो भी घोषणा प्रेस के सामने करें उसका आगापीछा सोचकर करें। सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए नहीं।

Monday, January 6, 2014

हताशा नहीं उत्साह की जरूरत

पिछले कुछ वर्षों से देश में ऐसा माहौल बनाया जा रहा है, मानो भारत गड्ढे में जा रहा हो। हर ओर केवल भ्रष्टाचार के खिलाफ हल्ला, गरीबों से हमदर्दी का नाटक और राहत, सब्सिडी, बेरोजगारी भत्ते जैसे झुनझुने थमाकर देश को नाकारा बनाया जा रहा है। जबकि जमीनी हकीकत कुछ और है। 1947 में जब देश आजाद हुआ, तब वाकई हमारे पास न तो संसाधन थे, न आधारभूत ढांचा, न इतना योग्य युवा वर्ग और न ही बहुत सारे उद्यमी। औपनिवेशिक साम्राज्य के शिकंजे में जकड़ा भारत मध्ययुगीन जीवन जी रहा था। लेकिन आज आजादी के 66 साल बाद भारत दुनिया के खास देशों की कतार में खड़ा है। आज हमारे पास आधारभूत ढांचा है, विज्ञान और तकनीकि की समझ और एक से एक काबिल लोगों का भंडार है। उद्योगपतियों की एक लंबी कतार है, जो दुनिया के दूसरे देशों में भी निवेश कर रही है और पढ़ा-लिखा उत्साही युवा वर्ग ऊर्जा से भरपूर है। ऐसे में अब सोचने की जरूरत है कि हम केवल कमियां खोजते रहे या समाज में आगे बढ़ने की ललक पैदा करें। 

जहां तक भ्रष्टाचार का सवाल है, इससे सब दुखी हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि हम दूसरे के भ्रष्टाचार को देखकर दुखी होते हैं, लेकिन जब अपनी बारी आती है, तो अपनी सुविधा का त्याग करने की कीमत पर भ्रष्टाचार से परहेज नहीं करते। दो दशक तक सत्ता के शिखर पर भ्रष्टाचार से लड़ते हुए मैंने अनुभव किया कि समाज का कोई वर्ग, मीडिया और न्यायपालिका तक, इससे अछूते नहीं हैं। इसके साथ ही यह भी जानकर आश्चर्य हुआ कि दुनिया का शायद ही कोई देश हो, जो भ्रष्टाचार से पूरी तरह अछूता हो। जिस साम्यवादी चीन की प्रशंसा करते बुद्धिजीवियों के मुंह नहीं थकते, उसी चीन में सत्ता के शीर्ष पर भारी भ्रष्टाचार व्याप्त है। इसलिए यह समझ बनीं कि जहां एक ओर भ्रष्टाचार से लड़ाई जारी रखी जाए। वहीं कुछ सकारात्मक करके भी दिखा जाए। आज इसी बात की सबसे ज्यादा जरूरत है। 

इस लेख के पाठकों से मैं यह प्रश्न पूछना चाहता हूं कि वे अखबार पढ़ते हैं, टीवी समाचार देखते हैं और फिर व्यवस्था की बुराई करते हैं। पर आपमें से कितने लोग ऐसे हैं, जो अपने घर के दरवाजे के बाहर से लेकर देश के बाकी हिस्सों तक अपनी क्षमता के अनुसार बिगड़ी व्यवस्थाओं को सुधारने में सक्रिय भूमिका निभाते हैं ? हमारे घर में कूड़ा हो, तो पड़ोसी साफ करने नहीं आता। हमें ही करना होता हैै। तो हमारे समाज और देश में कहीं कुछ गलत हो रहा है तो उसे ठीक करने कोई पाकिस्तान से तो आयेगा नहीं ? मुझे लगता है कि जहां देश में उंगली उठाने वाले ज्यादा आक्रामक और भड़काऊ हो रहे हैं। वहीं व्यवस्थाओं को सुधारने वालों को भी एकजुट होकर एक वैकल्पिक मंच तैयार करना चाहिए और सार्थक समाधानों को लागू करवाने के लिए व्यवस्था और अपने परिवेश पर दवाब बनाना चाहिए। इसके दो लाभ होंगे एक तो हमारी इच्छा के अनुरूप हमारे परिवेश में बदलाव का माहौल बनेगा, दूसरा हमारी अतिरिक्त ऊर्जा का सदुपयोग राष्ट्र के निर्माण में होगा। जिससे समस्याएं भी घटेंगी और हमारा जीवन भी और सुखी होगा। 
यह जिम्मेदारी गम्भीर मीडियाकर्मियों की, बुद्धजीवियों की, अधिकारियों की और राजनेताओं की है कि वे उंगली उठाना छोड़कर समाधानों को लेकर शोर मचाएं और अपनी बात मनमाने के लिए दवाब बनाएं। ऐसा करने से एक हवा बनेगी, माहौल गर्म होगा और व्यवस्था पर भी दवाब बनेगा। ऐसा दवाब जिसमें बिना लागत के निरंतरता की संभावना होगी। जिससे स्थायी समाधान खोजे जा सकते हैं। 

कभी हम लोकनायक जयप्रकाश नारायण से देश के हालात सुधारने की उम्मीद करते हैं। कभी हम वीपी सिंह के लिए कहते हैं ‘‘राजा नहीं फकीर है, भारत की तकरीर है’’, कभी हम टीएन शेषन को देश का मसीहा मान बैठते हैं और बार हमारा मोहभंग होता है, फिर निराशा होती है। 10-20 वर्ष फिर एक मसीहा के इंतजार में गुजर जाते हैं। अब हम सोच रहे हैं कि केजरीवाल जादू की छड़ी घुमा देंगे। जबकि वे शपथ ग्रहण में खुद ही कह चुके हैं कि मेरे पास कोई जादू की छड़ी नहीं है। यह हमें तय करना है कि हम सुबह से रात तक अपनी ऊर्जा का कैसा उपयोग करते हैं। रोजी रोटी के लिए तो सभी दौड़ते हैं। पर अपने परिवेश को सुधारने के लिए जो भी प्रयास हम करते हैं, उससे पूरे समाज को एक शुभ संकेत मिलता है, प्रेरणा मिलती है और आगे का मार्ग दिखायी देता है। दुख की बात यह है कि आज यह काम न तो हमारा राजनैतिक नेतृत्व कर रहा है और न ही बौद्धिक नेतृत्व। टेलीविजन चैनलों पर सारा समय गाली-गलौज देने में निकल जाता है, मानो देश में कुछ शुभ घट ही न रहा हो। यह आत्मघाती रवैया है। इससे बचना चाहिए और हमें अपने देश को, अपने समाज को, अपने परिवार को आगे बढ़ाने के लिए एक सकारात्मक सोच को अपनाना चाहिए। इसी में हम सब का भला है।