Showing posts with label narendra modi. Show all posts
Showing posts with label narendra modi. Show all posts

Monday, November 12, 2018

खेमों में न बँटें बुद्धिजीवी और समाज के पहरूआ

जब भी देश में लोकतांत्रिक मूल्यों के पतन की बात होती है, तो एक से बढ़कर एक विद्वान, विचारक, समाज सुधारक और पत्रकार ये कहते नहीं थकते कि हमारी राजनैतिक व्यवस्था पर अपराधी हावी हो गऐ हैं। चुनाव ईमानदारी के पैसे से नहीं जीता जा सकता। चुनाव जीतने के लिए धनबल, बाहुबल और छलबल की आवश्यक्ता होती है। राजनेताओं में वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं है। वे बेपैंदी के लोटे हो गऐ हैं। मोटे पैसे लेकर दल बदलना आम बात हो गई है। भ्रष्टाचार के मामलों पर कोई भी दल या सरकार ठोस कदम नहीं उठाना चाहती। भ्रष्टाचार के बड़े घोटालों में तो पक्ष और विपक्ष की साझेदारी रहती है। सत्तारूढ़ दल मोटा कमीशन खाता है और विपक्षी दल पहले शोर मचाते हैं, फिर अपनी कीमत वसूल कर चुप हो जाते हैं। इसलिए भ्रष्टाचार सुरसा की जीभ की तरह बढ़ता जा रहा है और कोई राजनैतिक दल इसे रोकना नहीं चाहता। हर चुनाव के पहले सभी विपक्षी दल सत्तारूढ़ दल पर भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े आरोप लगाते हैं, पर खुद सत्ता में आते ही वही सब करने लगते हैं, जिसे खत्म करने का वायदा करके वो चुनाव जीतते हैं। कोई भी राजनैतिक दल इसका अपवाद नहीं है।


देश के विश्वविद्यालयों में और पढ़े-लिखे लोगों की बैठकों में अक्सर देश की दुर्गति पर चिंता व्यक्त की जाती है। बड़ी उत्तेजक बहसें होती हैं। कभी-कभी तनातनी भी हो जाती है। पर इन्हीं लोगों को जब विपरीत परिस्थिति का सामना पड़ता है, तो उनके नैतिक मूल्य धरे रह जाते हैं। वे वही करते हैं, जिसकी वे आम जीवन में निंदा करते नहीं थकते। किसी एक विचारधारा पर समर्पित बुद्धिजीवी, अपनी विचारधारा को मानने वाले नेताओं में दोष नहीं देखना चाहते और हर बात का ठीकरा विपक्षी दलों के माथे पर थोंप देते हैं।

अक्सर सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय देश की गिरती स्थिति पर कठोर और बेबाक टिप्पणियां  करते हैं और केंद्रीय व प्रांतीय सरकारों को लताड़ते हैं। जबकि न्यायपालिका में नीचे से ऊपर तक व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए वे कोई सख्त कदम नहीं उठाते। अगर न्यायपालिका ही पूरी तरह ईमानदार और निष्पक्ष हो जाए, तो देश की आधी समस्याऐ तो बिना प्रयास के हल हो सकती है। प्रश्न है कि जब इन न्यायधीशों को सारी सुविधाऐं और सुरक्षा सहज उपलब्ध हैं, तो फिर ये कड़े निर्णंय लेने से क्यों डरते हैं? क्यों नहीं यही ठोस पहल करके समाज के लिए आर्दश स्थापित करते हैं? आखिर इस देश की सवा सौ करोड़ जनता उन्हें न्यायमूर्ति नहीं बल्कि न्याय देने वाला भगवान मानती है। फिर भगवान ही अगर राज्यपाल या सांसद बनने के मोह में न्यायमूर्ति पद की गरिमा का ध्यान न रखे, तो समाज के पतन के लिए कौन दोषी है?

समाज के हर वर्ग की गतिविधियों पर नजर रखने वाले और प्रशासकों को हमेशा सवालों के घेेरे में लपेटने वाले मीडियाकर्मी क्या किसी से कम हैं? आज देश में कितने मीडियाकर्मी हैं, जो दावे से यह सिद्ध कर सकें कि उन्होंने कभी किसी नेता या अफसर की दी हुई मंहगी शराब नहीं पी? उनकी दावतें नहीं उड़ाई? उनसे किसी खास विषय पर रिर्पोट लिखने की एडवांस रकम नहीं मांगी? सत्ता पक्ष के साथ मिलकर कोई दलाली नहीं की? किसी की ब्लैकमेलिंग नहीं की? और एक व्यक्ति को लाभ पंहुचाने के लिए उसके विरोधी का चरित्र हनन करने की फीस लेकर इकतरफा रिपोर्टिंग नहीं की?

कितने व्यापारी और उद्योगपति हैं, जो ये दावे से कह सकते हैं कि उनकी आर्थिक प्रगति के पीछे उनकी कड़ी मेहनत और वर्षों बहाया गया खून-पसीना है? कितने व्यापारी और उद्योगपति यह दावे से कह सकते हैं कि उन्होंने अपने कारोबार को आगे बढ़ाने के लिए नाजायज तरीकों को इस्तेमाल नहीं किया?

कितने प्रशासनिक व पुलिस अधिकारी हैं, जो ये दावा कर सकते हैं कि उन्होंने ताकतवर पद पाने के लिए अपने राजनैतिक आकांओं की चप्पल नहीं उठाई? कितने दावे से कह सकते हैं कि उन्होंने अपने राजनैतिक आकांओं के हित के लिए सरकारी संसाधनों का दुरूपयोग नहीं किया? कितनों ने अपने कर्मचारियों का शोषण नहीं किया?

कितने शिक्षक ऐसे हैं, जिन्होंने तन और मन से अपने विद्वार्थियों को ज्ञान देने और उनका चरित्र निर्माण करने के लिए जीवन में बलिदान किऐ हैं ? कितने शिक्षक ऐसे हैं, जो ये दावा कर सकते हैं कि उन्होंने अपने विद्यार्थियों के साथ शिक्षा का व्यवसाय नहीं किया?

अगर हर ओर उत्तर हताशा करने वाले हैं, तो समाज और देश कैसे सुधरेगा? कोई डोनाल्ड ट्रंप या इमरान खान तो हमारी दशा, अर्थव्यवस्था, राजनीतिक, प्रशासनिक, शिक्षा व स्वास्थ्य व्यवस्था सुधारने आयेगा नहीं। यह काम हमें ही करना होगा। जैसे हम अपने घर का कूड़ा साफ करने में हिचकते नहीं, वैसे ही अपने देश को अपना परिवार मानकर, यदि हम अपने क्षेत्र को सुधारने का संकल्प ले लें, तो हमें आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। अन्यथा ये सारी चिंता घड़ियाली आँसू से ज्यादा कुछ नहीं है। हमें अपने मन में झांककर यह सोचना होगा कि हमारे लिए जीवन में क्या बड़ा है, स्वार्थ या परमार्थ?

Monday, October 29, 2018

सीबीआई में घमासान क्यों?

पिछले एक हफ्ते से सभी टीवी चैनलों, अखबारों, सर्वोच्च आदालत और चर्चाओं में सीबीआई के निदेशक और विशेष निदेशक के बीच चल रहे घमासान की चर्चा है। लोग इसकी वजह जानने को बैचेन हैं। सरकार ने आधी रात को सीबीआई भवन को सीलबंद कर इन दोनों को छुट्टी पर भेज दिया। तब से हल्ला मच रहा है कि सरकार को सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा को छुट्टी पर भेजने का कोई हक नहीं है। क्योंकि 1997 में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ में सीबीआई निदेशक और प्रवर्तन निदेशालय निदेशक के कार्यकाल को दो वर्ष की सीमा में निर्धारित कर दिया गया था, चाहे उनकी सेवा निवृत्ति की तारीख निकल चुकी हो। ऐसा करने के पीछे मंशा यह थी कि महत्वपूर्णं मामलों में सरकार दखलअंदाजी करके अचानक किसी निदेशक का तबादला न कर दे। 
पर इस बार मामला फर्क है। यह दोनों सर्वोच्च अधिकारी आपस में लड़ रहे थे। दोनों एक दूसरे पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे थे और दोनों पर अपने-अपने आंकाओं के इशारों पर काम करने का आरोप लग रहा था। स्थिति इतनी भयावह हो गई थी कि अगर सख्त कदम न उठाऐ जाते, तो सीबीआई की और भी दुर्गति हो जाती। हालांकि इसके लिए सरकार का ढीलापन भी कम जिम्मेदार नहीं।

एक अंग्रेजी टीवी चैनल पर बोलते हुए सरकारी फैसले से कई दिन पहले मैंने ही यह सुझाव दिया था कि इन दोनों को फौरन छुट्टी पर भेजकर, इनके खिलाफ जांच करवानी चाहिए। तब उसी पैनल में प्रशांत भूषण मेरी बात से सहमत नहीं थे। इसलिए जब ये फैसला आया, तो प्रशांत भूषण और आलोक वर्मा दोनों ने इसे चुनौती देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की शरण ली। भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश और उनके सहयोगी जजों ने जो फैसला दिया, वो सर्वोत्तम है। दोनों के खिलाफ दो हफ्तों में जांच होगी और नागेश्वर राव, जिन्हें सरकार ने अंतरिम निदेशक नियुक्त किया है, वो कोई नीतिगत निर्णंय नहीं लेंगे। अब अगली सुनवाई 12 नवंबर को होगी।

दरअसल 1993 में जब ‘जैन हवाला कांड’ की जांच की मांग लेकर मैं सर्वोच्च न्यायालय गया था, तो मेरी शिकायत थी कि राष्ट्रीय सुरक्षा के इस आंतकवाद से जुड़े घोटाले को राजनैतिक दबाब में सीबीआई 1991 से दबाये बैठी है। पर 1997 में जब हवाला केस प्रगति कर रहा था, तब प्रशांत भूषण और इनके साथियों ने, अपने चहेते कुछ नेताओं को बचाने के लिए, अदालत को गुमराह कर दिया। मूल केस की जांच तो ठंडी कर दी गई और सीबीआई को स्वायतता सौंप दी गई और सीवीसी का विस्तार कर दिया। इस उम्मीद में कि इस व्यवस्था से सरकार का हस्तक्षेप खत्म हो जाऐगा।

आज उस निर्णय को आए इक्कीस बरस हो गए। क्या हम दावे से कह सकते हैं कि केंद्र में सत्तारूढ़ दल अपने राजनैतिक लाभ के लिए सीबीआई का दुरूपयोग नहीं करते? क्या सीबीआई के कई निदेशकों पर भारी भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे? क्या सीबीआई में ‘विनीत नारायण फैसले’ या ‘सीवीसी अधिनियम’ की अवहेलना करके पिछले दरवाजे से बडे़ पदों अधिकारियों की नियुक्ति नहीं की? अगर इन प्रश्नों के उत्तर हाँ में हैं, तो यह स्पष्ट है कि जो अपेक्षा थी, वैसी पारदर्शिता और ईमानदारी सीबीआई का नेतृत्व नहीं दिखा पाया। इसलिए मेरा मानना है कि इस पूरे फैसले को पिछले 21 वर्षों के अनुभव के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पुनः परखा जाना चाहिए और जो विसंगतियां आ गईं हैं, उन्हें दूर करने के लिए एक संवैधानिक बैंच का गठन कर ‘विनीत नारायण फैसले’ पर पुर्नविचार करना चाहिए । ऐसे नये निर्देश देने चाहिए, जिनसे ये विसंगतियां दूर हो सके।

मैं स्वयं इस मामले में पहल कर रहा हूं और एक जनहित याचिका लेकर जल्दी ही सर्वोच्च अदालत में जाऊंगा। पर उससे पहले मैंने भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा व भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारियों, जागरूक वकीलों और चिंतकों को संदेश भेजा है कि सीबीआई और प्रर्वतन निदेशालय के सुधार के लिए वे मुझे mail@vineetnarain.net पर अपने सुझावों को ईमेल से भेजें। जिन्हें इस याचिका में शामिल किया जा सके। मुझे उम्मीद है कि माननीय न्यायालय राष्ट्रहित में और सीबीआई की साख को बचाने के उद्देश्य से इस याचिका पर ध्यान देगा।

वैसे भारत के इतिहास को जानने वाले अपराध शास्त्र के विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसा कोई समय नहीं हुआ, जब पूरा प्रशासन और शासन पूरी तरह भ्रष्टाचार मुक्त हो गया हो। भगवत् गीता के अनुसार भी समाज में सतोगुण, रजोगुण व तमोगुण का हिस्सा विद्यमान रहता है। जो गुण विद्यमान रहता है, उसी हिसाब से समाज आचरण करता है। प्रयास यह होना चाहिए कि प्रशासन में ही नहीं, बल्कि न्यायपालिका, मीडिया, धर्मसंस्थानों, शिक्षा संस्थानों व निजी उद्यमों में ज्यादा से ज्यादा सतोगुण बढ़े और तमोगुण कम से कम होता जाऐ। इसलिए केवल कानून बना देने से काम नहीं चलता, ये सोच तो शुरू से विकसित करनी होगी। सीबीआई भी समाज का एक अंग है और उसके अधिकारी इसी समाज से आते हैं। तो उनसे साधु-संतों से जैसे व्यवहार की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?
पर लोकतंत्र की रक्षा के लिए और आम नागरिक का सरकार में विश्वास कायम रखने के लिए सीबीआई जैसी संस्थाओं को ज्यादा से ज्यादा पारदर्शी होना पड़ेगा। अन्यथा इनसे सबका विश्वास उठ जाऐगा।

Monday, October 15, 2018

सुब्रमनियन स्वामी: गिरगिटिया या हिंदुत्ववादी ?

हैदराबाद के ‘मदीना एजुकेशन सेंटर’ में 13 मार्च 1993 को भाषण देते हुए स्वनामधन्य डा. सुब्रमनियन स्वामी ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराये जाने के लिए भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद् की कड़े शब्दों में भत्र्सना की। उन्होंने इन तीनों संगठनों को ‘आतंकवादी’ बताया और प्रधानमंत्री नरसिंह राव से इन तीनों संगठनों को प्रतिबंधित करने की मांग भी की थी।जबकि मैने 1990 में  जोखिम उठाकर अपनी कालचक्र वीडियो मैगज़ीन में 'अयोध्या नरसंहार'  पर सशक्त वीडियो फ़िल्म बनाकर प्रसारित की थी, जिसकी विहिप, संघ और भाजपा ने हज़ारों प्रतियां बनवाकर देशभर में दिखाई थीं। 1990 से मैँ अयोध्या, मथुरा और काशी में मंदिरों के समर्थन में लिखता और बोलता रहा हूँ। जबकि स्वामी जैसे अवसरवादी केवल निजी लाभ के लिए मौके के अनुसार उछलते रहते हैं।



आज वहीं डा. स्वामी अपना रंग और चोला बदलकर, पूरी दुनिया के हिंदुओं को मूर्ख बना रहे हैं और दावा कर रहे हैं कि वे अयोध्या में राम मंदिर बनवाकर ही दम लेंगे। युवा पीढ़ी चाहे भारत में हो या अमरिका में रहने वाले अप्रवासी भारतीय, डा. स्वामी के लच्छेदार भाषणों के सम्मोहन में आकर, इन्हें हिंदू धर्म का सबसे बड़ा नेता मान रही है। क्योंकि उन्हें इनका अतीत पता नहीं है।



आजकल डा. स्वामी दावा करते हैं कि उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पूर्णं समर्थन प्राप्त है। अब ये स्पष्टीकरण तो आदरणीय मोहन भागवत जी को देश को देना चाहिए कि क्या डा. स्वामी का दावा सही है? जो व्यक्ति संघ और उससे जुड़े संगठनों को ‘‘आतंकवादी’’ करार देता आया हो, उसे संघ अपना नेता कैसे मान सकता है?



इतना ही नहीं दुनियाभर में ऐसे तमाम लोग हैं, जिन्हें डा. स्वामी ने यह झूठ बोलकर कि वे राम जन्मभूमि के लिए सर्वोच्च अदालत में मुकदमा लड़ रहे हैं, उनसे कई तरह की मदद ली है। कितना रूपया ऐंठा है, ये तो वे लोग ही बताऐंगे। पर हकीकत ये है कि डा. स्वामी का राम जन्मभूमि विवाद में कोई ‘लोकस’ ही नहीं है। पिछले दिनों सर्वोच्च अदालत ने ये साफ कर दिया है कि राम जन्मभूमि विवाद में वह केवल उन्हीं लोगों की बात सुनेंगी, जो इस मामले में भूमि स्वामित्व के दावेदार हैं। यानि डा. स्वामी जैसे लोग अकारण ही बाहर उछल रहे हैं और तमाम तरह के झूठे दावे कर रहे हैं कि वे राम मंदिर बनवा देंगे। जबकि उनकी इस प्रक्रिया में कोई कानूनी भूमिका नहीं है।



एक आश्चर्य कि बात ये है कि बाबरी मस्जिद गिरने के बाद जिस भारतीय जनता पार्टी की मान्यता रद्द करने के लिए डा. स्वामी ने चुनाव आयोग से मांग की थी, उसी भाजपा ने किस दबाब में डा. स्वामी को ‘राज्यसभा’ में मनोनीत करवाया? राजनैतिक गलियारों में ये चर्चा आम है कि इन्हें संघ के दबाव में लेना पड़ा। वरना इनके गिरगिटिया स्वभाव के कारण कोई इन्हें लेने तैयार नहीं था। सुनते हैं कि डा. स्वामी ने प्रधानमंत्री मोदी को यह आश्वासन दिया कि वे ‘नेशनल हेराल्ड’ मामले में कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओें को जेल भिजवा देंगे और ये दावा ये हर कुछ महीनों में दोहराते रहते हैं। जबकि कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि ‘नेशनल हेराल्ड’ केस में कोई दम ही नहीं है।



भारतीय जनता पार्टी के नेता अमित शाह को सोचना चाहिए कि जिस व्यक्ति के संबंध कुख्यात हथियार कारोबारी अदनान खशोगी, विजय मल्ल्या और दूसरे ऐसे लोगों से रहे हों, उसे भाजपा अपने दल में रखकर क्यों अपनी छवि खराब करवा रही है। इतना ही नहीं बिना किसी खतरे के बावजूद डा. स्वामी को ‘जेड’ श्रेणी की सुरक्षा दे रखी है। इस पर इस गरीब देश का लाखों रूपया महीना बर्बाद हो रहा है। मजे की बात तो ये है कि डा. स्वामी आऐ दिन अखबारों में बयान देकर मोदी सरकार के मंत्रियों और अन्य नेताओं पर हमला बोलते रहते हैं और उन्हें नाकारा और भ्रष्ट बताते रहते हैं। तो क्या ये माना जाऐ कि डा. स्वामी को उनकी धमकियों से डरकर राज्यसभा की सदस्यता और जेड श्रेणी की सुरक्षा दी गई है? पुरानी कहावत है कि ‘मूर्ख दोस्त से बुद्धिमान दुश्मन भला’। डा. स्वामी वो बला हैं, जो जिस थाली में खाते हैं, उसी में छेद करते हैं। ऐसे अविश्वसनीय और बेलगाम व्यक्ति को राज्यसभा और भाजपा में रखकर पार्टी क्या संदेश देना चाहती है?



डा. स्वामी खुलेआम झूठ बोलते हैं और इतनी साफगोई से बोलते हैं कि सामने वाले शक भी न हो। एक रोचक उदाहरण है कि 80 के दशक में जब पंजाब में सिक्ख आतंकवाद अपने चरम पर था, तो डा. स्वामी ने भिंड्रावाला के खिलाफ आक्रामक टिप्पणी कर दी। जब इन्हें सिक्ख संगठनों से धमकी आई, तो ये भागकर अमृतसर गए और स्वर्ण मंदिर में डेरा जमाए हुए भिंड्रावाला के पैरों में पड़ गऐ। अंदर का वातावरण छावनी जैसा था। हर ओर निहंग बंदूके और शस्त्र ताने हुए थे। यह सब खुलेआम देखकर भी डा. स्वामी की हिम्मत नहीं हुई कि वे भारत सरकार को अंदर की सच्चाई बता दें। डा. स्वामी ने भिड्रावाला से मिलने के बाद बाहर आकर झूठा बयान दिया कि,‘‘अंदर कोई हथियार नहीं हैं।’’




डा. स्वामी के डीएनए में दोष है। ये नाहक हर बात में टांग अड़ाते हैं और अपने ‘उच्च’ विचारों से देश के मीडिया को गुमराह करते रहते हैं। सारा मकसद अपनी ओर मीडिया का ध्यान आकर्षित करना होता है, देश, धर्म और समाज जाए गड्ढे में। ऐसे गिरिगिटिया, झूठे और ब्लेकमेलर स्वामी को संध नेतृत्व क्यों अपने कंधे पर ढो रहा है?

Monday, September 3, 2018

असली संन्यासिन सुधा भारद्वाज


पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने लोकतंत्र के हित मे एक बड़ा फैसला लिया जब सुधा भारद्वाज की पुणे पुलिस द्वारा गिरफ्तारी को नाजायज ठहरा दिया।

मैं सुधा को 1995 से जनता हूँ, जब वे जिद करके मुझे दिल्ली से छत्तीसगढ़ ले गई थीं। जहां उनके संगठन ने अनेक शहरों और गांवों में मेरी जन सभाएं करवाईं थीं। जिसका उल्लेख मेरी पुस्तक में भी है। उनका अत्यंत  सादगी भरा मजदूरों जैसा  झुग्गी झोपड़ी का रहन सहन देखकर मैं हिल गया था। हालांकि मेरी विचारधारा सनातन धर्म पर आधारित है और उनकी वामपंथी। पर मेरा मानना है कि  मनुष्य अपने सतकर्मों, सेवा व त्याग  के प्रभाव से ही संत कोटि को प्राप्त करता है। सुधा भारद्वाज को असली संत की उपाधि देना अनुचित नहीं होगा। उनके जैसा होना हमारे आपके बस में शायद ही संभव हो। आगे जो लिख रहा हूँ वो साथी महेंद्र दुबे ने भेजा है और मैं इससे शतप्रतिशत सहमत हूँ इसलिये ज्यों का त्यों जोड़ रहा हूँ।

सुधा भारद्वाज कोंकणी ब्राह्मण परिवार की इकलौती संतान हैं। जोकि पेशे से एक यूनियनिस्ट, एक्टिविस्ट और वकील हैं। मजदूर बस्ती में रहने वाली सुधा भारद्वराज 1978 की आईआईटी कानपुर की टॉपर हैं। जो जन्म से अमेरिकन सिटीजन थीं और इंगलैंड में उनकी प्राइमरी शिक्षा हुई है। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है कि इस ‘बैक ग्राउंड’ का कोई शख्स मजदूरों के साथ उनकी बस्ती में रहते हुए बिना दूध की चाय और भात सब्जी पर गुजारा करता होगा। जीवन के इस पड़ाव में भी अत्यंत साधारण लिबास में माथे पर एक बिंदी लगाये मजदूर, किसान और कमजोर वर्ग के लोगों के लिये छत्तीसगढ़ के शहर और गांव की दौड़ लगाती यह महिला अपनी असाधारण प्रतिभा, बेहतरीन अकादमिक योग्यता के विषय में बताना और अपने काम का प्रचार करना कभी पसन्द नहीं करती हैं।

सुधा की मां कृष्णा भारद्वाज जेएनयू में इकोनामिक्स डिपार्टमेंट की डीन हुआ करती थी। जो एक बेहतरीन शास्त्रीय गायिका थीं और नोबेल पुरुस्कार प्राप्त अमर्त्य सेन की समकालीन भी थी। आज भी सुधा की मां की याद में हर साल जेएनयू में ‘कृष्णा मेमोरियल लेक्चर’ होता है। जिसमे देश के नामचीन शिक्षाविद् और विद्वान शरीक होते है।

आईआईटी से टॉपर होकर निकलने के बाद भी सुधा को कैरियर का आकर्षण खूंटे से बांधे नहीं रख सका और अपने वामपंथी रुझान के कारण वह 80 के दशक में छत्तीसगढ़ के ‘करिश्माई यूनियन लीडर’ शंकर गुहा नियोगी के संपर्क में आयी और फिर उन्होंने छत्तीसगढ़ को अपना कार्यक्षेत्र बना लिया।

पिछले 35 साल से अधिक समय से छत्तीसगढ़ में मजदूर, किसान और गरीबों की लड़ाई सड़क और कोर्ट में लड़ते लड़ते इन्होंने अपनी मां के ‘प्रोविडेंट फंड’ का सारा पैसा तक उड़ा दिया। उनकी मां ने दिल्ली में एक मकान खरीद रखा था, जो आजकल उनके नाम पर है मगर बस नाम पर ही है। मकान किराए पर चढ़ाया हुआ है जिसका किराया मजदुर यूनियन के खाते में जमा करने का फरमान उन्होंने किरायेदार को दिया हुआ है। जिस अमेरिकन सिटीजनशीप को पाने के लिये लोग कुछ भी करने को तैयार रहते है ‘बाई बर्थ’ हासिल उस अमेरिकन नागरिकता को वो बहुत पहले अमेरिकन एम्बेसी में फेंक कर आ चुकी है।

हिंदुस्तान में सामाजिक आंदोलन और सामाजिक न्याय के बड़े से बड़े नाम सुविधा सम्पन्न हैं और अपने काम से ज्यादा अपनी पहुंच और अपने विस्तार के लिए जाने जाते हैं। मगर जिनके लिए वो काम कर रहे होते हैं, उनकी हालत में सुधार की कीमत पर अपनी विलासिता छोड़ने को कभी तैयार नहीं दिखते हैं। इधर सुधा हैं जो ‘अमेरिकन सिटिजनशीप’ और ‘आईआईटी टॉपर’ होने के गुमान को त्याग कर, गुमनामी में गुमनामों की लड़ाई लड़ते हुए अपना जीवन होम कर चुकी है। बिना फीस के गरीब, गुरबों की वकालत करने वाली और हाई कोर्ट जज बनाये जाने का ऑफर विनम्रतापूर्वक ठुकरा चुकी सुधा का शरीर अब जवाब देना चाहता है। 35-40 साल से दौड़ते-दौड़ते उनके घुटने घिस चुके है। उनके मित्र डॉक्टर उन्हें बिस्तर से बांध देना चाहते है। मगर गरीब, किसान और मजदूर की एक हलकी सी चीख सुनते ही उनके पैरों में चक्के लग जाते हैं और फिर वो अपने शरीर की सुनती नहीं।
मगर यह कहा जा सकता है कि यदि उन्होंने अपने काम का 10 प्रतिशत भी प्रचार किया होता तो दुनिया का कोई ऐसा पुरुस्कार न होगा जो उन्हें पाकर खुद को सम्मानित महसूस न कर रहा होता। सुधा होना मेरे आपके बस की बात नहीं है। सुधा सिर्फ सुधा ही हो सकती थीं और कोई नही।

Monday, August 20, 2018

करनी ऐसी कर चलो, तुम हंसो जग रोए ..... अलविदा अटल जी

अटल जी को जो पूरे देश और दुनिया का प्यार मिला, वो उनके पद के कारण नहीं है। मेरा मानना है कि कोई व्यक्ति अपने पद, यश, ज्ञान या वैभव से बड़ा नहीं होता बल्कि उसके संस्कार उसे बड़ा और सम्माननीय बनाते हैं। अटल जी में ऐसे संस्कार थे। पत्रकारिता, साहित्य और राजनीति से जुड़े हर उस व्यक्ति के साथ अटल जी का आत्मीय संबंध होता था, जो उन्हें जानता था।
मेरे परिवार का एक नाता और भी था। अटल जी की बेटी नमिता, जिसने उन्हें मुखाग्नि दी, वो हमेशा बड़े स्नेह से मुझे विनीत भैया कहती है। उसकी बेटी निहारिका, हमारे छोटे बेटे ईशित नारायण के साथ सरदार पटेल विद्यालय, दिल्ली में सहपाठी थी और अभिभावकों की बैठकों में हम अक्सर मिलते थे। अटल जी के दामाद रंजन भट्टाचार्य भी हमारे प्रिय रहे हैं। क्योंकि इन तीनो से हमारा तीन दशकों का संबंध रहा है।
अटल जी से जुड़े इतने संस्मरण हैं कि सबको याद करूं, तो एक पुस्तक लिख जाऐगी। 1989 में जब मैंने भारत की पहली हिंदी टीवी पत्रिका ‘कालचक्र’ जारी की, तो पूरे मीडिया जगत में हलचल मच गई। सरकारी नियंत्रण वाले दूरदर्शन के मुकाबले स्वतंत्र टीवी समाचार के मेरे प्रयास से विपक्ष के नेता बहुत उत्साहित थे। जिनमें से रामविलास पासवान, अजीत सिंह, जार्ज फर्नाडीज और अटल बिहारी बाजपेयी ने हृदय से प्रयास किया कि मुझे आर्थिक मदद दिलवाई जाए। पर अपनी सम्पादकीय स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने के लिए मैंने उनके प्रस्ताव स्वीकार नहीं किये। हलांकि उनका ये भाव बहुत अच्छा लगा।
1999 में प्रकाशित मेरी पुस्तक ‘भ्रष्टाचार, आतंकवाद और हवाला कारोबार’ में अटल जी के साथ हवाला कांड के दौर में 1993 से 2000 के बीच हुई वार्ताओं और घटनाओं का खट्टा मीठा विस्तृत ब्यौरा है। जो vineetnarain.net   पर ऑनलाइन किताब में पढा जा सकता है।
1995 में जिन दिनों हवाला कांड में राजनेताओं के घर सीबीआई के छापे पड़ने शुरू हुए, उन्हीं दिनों एक दिन अखबार में खबर छपी कि अटल बिहारी बाजपेयी का नाम भी जैन डायरी में है। उस दिन बाजपेयी जी के कई फोन मुझे आए। मैं जब मिलने पहुंचा, तो कुछ चिंतित थे, बोले, ‘‘ क्या तुम मेरे घर भी छापा डलवाओगे?’’ मैंने हंसकर पूछा- क्या आपने जैन बंधुओ से पैसे लिए थे, चिंता मत कीजिए, आपका नाम जैन डायरी में नहीं है। तब वे मुस्कुराए और गरम-गरम जलेबी और पकौड़ी के साथ नाश्ता करवाया।
अटल जी अपने विरोधी विचारधारा के राजनेताओं और लोगों का पूरा सम्मान करते थे और उनके सुझावों को गंभीरता से लेते थे। विनम्रता इतनी कि हम जैसे युवा पत्रकारों को भी वे हमारी कार तक छोड़ने के लिए चलकर आते थे। जो राजनैतिक कार्यकर्ता आज अटल जी के गुणगान में एक दूसरे को पीछे छोड़ने में जुटे हैं,क्या वे अटल जी के व्यक्तित्व से अपने विरोधियों का भी सम्मान करना और सबके प्रति सदभाव रखने का गुण सीखेंगे या आत्मश्लाघा और अहंकार में डूबे रहकर लोकतंत्र को रसातल में ले जाएंगे ?
अटल जी ने प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए, देश के लिए कई बड़े काम किये। उनका चलाया सर्व शिक्षा अभियान  एक ऐसी ही पहल थी, जिसे 2001 में लॉन्च किया गया था। इस योजना में 6 से 14 वर्ष उम्र के बच्चों को मुफ्त प्राथमिक शिक्षा देने का प्रावधान किया गया था। इस योजना की बदौलत 4 साल में ही स्कूल नही जाने वाले बच्चों की संख्या में 60 फीसदी की कमी आई। आज भी सर्व शिक्षा अभियान के तहत देश के करोड़ों बच्चों को मुफ्त में बेसिक शिक्षा दी जा रही है।
प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना उनकी ऐसी ही दूसरी पहल थी। इस योजना में देश के दूर-दराज के गावों को सड़कों से जोड़ने का काम किया गया। पूर्व प्रधानमत्री अटल बिहारी वाजपेयी की प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना ने गावों तक सड़क पहुंचाने का काम किया। इसके अलावा अटल जी द्वारा शुरू की गई स्वर्णिम चतुर्भुज योजना ने चेन्नई, कोलकाता, दिल्ली और मुंबई को हाइवेज के नेटवर्क से जोड़ने में मदद की।
संचार क्रांति के क्षेत्र में भी उन्होंने क्रांति की। उन्होने ही टेलिकॉम फर्म्स के लिए फिक्स्ड लाइसेंस फीस को हटा कर रेवेन्यू-शेयरिंग की व्यवस्था लाए थे। जिसके बाद भारत संचार निगम लिमिटेड (BSNL) का गठन किया गया था।
अटल बिहारी वाजपेयी ने सरकार का दखल कम करने के लिए निजीकरण को अहमियत दी। जिसके बाद सरकार ने एक अलग विनिवेश मंत्रालय का गठन किया था। इसी के तहत भारत एल्युमीनियम कंपनी (Balco), हिंदुस्तान जिंक, इंडिया पेट्रोकेमिकल्स कॉरपोरेशन लिमिटेड और वीएसएनएल का विनिवेश किया गया था।
वायपेजी सरकार वित्तिय उत्तरदायित्व अधिनियम भी लेकर आई थी। इस अधिनियम में देश का राजकोषीय घाटा कम करने का लक्ष्य रखा गया था। इस कदम के जरिए ही पब्लिक सेक्टर में सेविंग्स को बढ़ावा दिया गया।
कविता और साहित्य के क्षेत्र में उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। कहते हैं कि' वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान'। कवि भावुक हृदय होता है। ऐसे अच्छे इंसान को भी डॉ सुब्रमनियन स्वामी ने धोखा दिया, जब भाजपा सरकार को उन्होंने गिरवा दिया। जिससे वाजपेयी जी को बहुत धक्का लगा। अपनी लिखी पुस्तक में डा. स्वामी ने बाजपेयी जी को खूब गरियाया है। दुश्मन की भी मौत पर संवेदना प्रकट करने वाली हिंदू संस्कृति के रक्षक होने का दावा करने वाले डा. स्वामी के मुंह से अटल जी के निधन पर श्रद्धाजंलि का एक भी शब्द नहीं निकला।
ऐसे धोखेबाज व्यक्ति को भाजपा क्यों ढो रही है? अगले चुनावों में जब वाजपेयी जी भाजपा का ब्रांड बनकर मतदाता को दिखाये जाऐंगे, तब मतदाता और विपक्षी दल ये सवाल करेंगे कि अगर वाजपेयी जी को भाजपा और संघ इतना मान देता है, तो उन्हें धोखा देने वाले और उनसे घृणा करने वाले डा. स्वामी को अपने साथ कैसे खड़ा रख सकता है?

Monday, August 13, 2018

योगी आदित्यानाथ जी ध्यान दें!

पिछले दिनों जब उ.प्र. में निर्माण संबंधी हुई अनेक दुर्घटनाओं के बाद उ.प्र. के सिविल इंजीनियरों ने एक खुला पत्र मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी को संबोधित करते हुए लिखा। जिसका मसौदा निम्न प्रकार है-‘‘आज उत्तर प्रदेश में एक्सप्रेसवे धंस रहे हैं। बनारस में ब्रिज के बीम डिस्प्लेसड हो रहे हैं। सड़कों पर गढ्ढो के कारण दुर्घटनाएं हो रही हैं। नहरें टूट रही हैं। खेतों को समुचित पानी नहीं मिल पा रहा। बाँध पानी से लबालब भर नहीं पा रहे। किसी शहर का भी ड्रेनेज सही नहीं हैं। इन प्रोजेक्ट्स का पूरा फायदा लोगों को नहीं मिल पा रहा। शहरों के सीवर जाम हैं।  आखिर क्यों ? कभी किसी इंजीनयर से पूछा जाएगा या उन्हें केवल दण्डित किया जाएगा ? बच्चा भी 9 माह  पेट में पलता है तभी स्वस्थ पैदा होता है और आगे जीवन में स्वस्थ रहने की संभावना ज्यादा होती है। यहां तो इंजिनीयरों को बस डेट दी जाती है और फिर शुरू होता है समीक्षा - समीक्षा का टी 20 खेल। यह नही पूछा जाता की प्रोजेक्ट कब तक पूरा हो सकता है। दबाव होता है कि फलां तारीख तक प्रोजेक्ट पूरा हो जाए। ना तो मैनपावर मिलेगी ना आवश्यक सुविधाएं।

महाराज जी यह निर्माण का कार्य है। विध्वंस की तरह मत करवाइये। समय दीजिये। डी.पी.आर. बनाने में बहुत समय चाहिए होता है। एस्टीमेट बनाने में बहुत सारी जानकारियां चाहिए। दरों की एनालिसिस करना आसान काम नही है। कोई भी स्ट्रक्चर एक इंजीनयर के लिए उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति है। उसका निर्माण एक सुखद पर पीड़ादायक घटना है। समय पूर्व प्रसव की तरह का व्यवहार किसी भी संरचना के साथ मत कीजिये। इंजिनीयरों ने राष्ट्र के विकास में बहुत योगदान दिया है। उनको पार्टी कार्यकताओं की हठधर्मिता के सहारे मत छोड़िये। नहीं तो कोई भी निर्माण मात्र विध्वंस का कारण ही बनेगा। विकास की आड़ में ठेकेदारी और जेब भरने का उपक्रम नही चलना चाहिए न।  ना तो भारत रत्न विश्वशरैया जी ने ना ही श्रीधरन जी ने दबाव में काम किया था। तभी उन्होंने मेट्रो जैसी धरोहरों का निर्माण किया।

हर राजनैतिक दल सत्तारूढ दल को भ्रष्टाचारी बताकर अपना चुनाव अभियान चलाता है और जनता से भ्रष्टाचारमुक्त शासन देने का वायदा करता है। पर हकीकत यह है कि हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और। ऐसा कभी नहीं सुना जाता कि किसी निर्माण कंपनी को उसके अनुभव और गुणवत्ता के आधार पर योनजाओं के क्रियान्वयन के लिए चुना जाए। यों चुनने की प्रक्रिया अब काफी पारदर्शी बना दी गई है। जिसमें ऑनलाईन निविदाऐं भरी जाती है और टैक्निकल व फायनेंसियल बिडिंग का तुलनात्मक अध्ययन करके ठेके आवंटित किये जाते हैं। पर ये सब भी एक नौटंकी से ज्यादा कुछ नहीं है। सरकार किसी भी दल की क्यों न हो, उसके मंत्री सत्ता में आते ही मोटी कमाई के तरीके खोजने लगते हैं और नौकरशाही के भ्रष्ट अधिकारियों की मिलीभगत से सभी परियोजनाऐं अपने चहेतों को दिलवाते हैं।’’

मंत्री के चहेते का मतलब होता है, जो मंत्री के घर जाकर निविदा दाखिल करने से पहले ही मंत्री को अग्रिम रूप से मोटी रकम देकर, इस बात को सुनिश्चित कर ले कि जो भी ठेका मिलेगा, वो उसे ही मिलेगा। इसके बाद निविदा की सारी प्रक्रिया एक ढकोसला मात्र होती है। और वही होता है जो, ‘जो मंजूरे मंत्री जी होता है’।

योगी जी जब सत्ता में आए थे, तो उन्होंने भी बहुत कोशिश की कि भ्रष्टाचारविहीन शासन दें। पर आज तक कुछ भी नहीं बदला। जो कुछ पहले चल रहा था। उससे और ज्यादा भ्रष्टाचार आज सार्वजनिक निर्माण के क्षेत्र में अनुभव किया जा रहा है। मैंने कई बार इस मुद्दे उठाया है कि भ्रष्टाचार का असली कारण ‘करप्शन इन डिजाईन’ होता है। यानि योजना बनाते समय ही मोटा पैसा खाने की व्यवस्था बना ली जाती है। जैसा उ.प्र. के पर्यटन विभाग में हमें अनुभव हुआ। जब उसने पिछले वर्ष ब्रज के 9 कुंडों के जीर्णोंद्धार का ठेका 77 करोड़ रूपये में उठा दिया। हमने इसका पुरजोर विरोध किया और परियोजना में तकनीकी खामिया उजागर की, तो अब यही काम मात्र 27 करोड़ रूपये में होने जा रहा है। यानि 50 करोड़ रूपया सीधे किसी की जेब में जाने वाले थे। इतना ही नहीं योगी जी ने बड़े प्रचार के साथ जिस ‘ब्रज तीर्थ विकास परिषद्’ की स्थापना की है, उसके मूल संविधान में छेड़छाड़ करके वर्तमान उपाध्यक्ष शैलजाकांत मिश्र ने उसे भारी भ्रष्टाचार करने के लिए सुगम बना दिया है। मूल संविधान में परिषद् में पर्यटन से संबंधित अनेक विशेषज्ञों को लेने का प्राविधान था, जिसे श्री मिश्रा ने बड़े गोपनीय तरीके से हटवाकर, ऐसी व्यवस्था बना ली कि अब किसी भी साधारण सामाजिक कार्यकर्ता या दलालनुमा व्यक्ति को बोर्ड में लाया जा सकता है। इसी तरह ‘सी.ई.ओ’ की ताकत भी इतनी बढ़ा दी कि अब कोई उन्हें ब्रज को बर्बाद करने से नहीं रोक सकता। केवल दो लोगों के अहमकपन से भगवान श्रीकृष्ण के ब्रज का विकास नियंत्रित हो गया है। जिसके निश्चित रूप से घातक परिणाम सामने आऐंगे और तब ये योगी सरकार के लिए ‘ताज कोरिडोर’ जैसा घोटाला खुलेगा।

अभी पिछले दिनों बनारस में निर्माणाधीन पुल की बीम गिरी और 18 लोग मर गऐ। आगरा में ‘रिंग रोड’ धंस गई। मथुरा के गोवर्धन रेलवे स्टेशन का नवनिर्मित चबूतरा बैठ गया। बस्ती जिले में पुल गिर गया। ऐसी दुर्घटनाऐं आए दिन हो रही है, पर सरकार कोई सबक नहीं ले रहीं। इससे उ.प्र. के मतदाताओं की जान जोखिम में पड़ गई है। पता नहीं कब, कहां, क्या हादसा हो जाऐ?

Monday, July 2, 2018

मगहर में प्रधानमंत्री मोदी का मजाक क्यों?

पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी, संत कबीर दास जी की समाधि दर्शन के लिए उ.प्र. के मगहर नामक स्थान पर गऐ थे। जहां उनके भाषण के कुछ अंशों के लेकर सोशल मीडिया में धर्मनिरपेक्ष लोग उनका मजाक उड़ा रहे हैं। इनका कहना है कि मोदी जी को इतिहास का ज्ञान नहीं है। इसीलिए उन्होंने अपने भाषण में कहा कि गुरुनानक देव  जी, बाबा गोरखनाथ जी और संत कबीरदास जी यहां साथ बैठकर धर्म पर चर्चा किया करते थे। मोदी आलोचक सोशल मीडिया पर लिख रहे हैं कि ‘बाबा गोरखनाथ का जन्म 10 वी शताब्दी में हुआ था। संत कबीर दास का जन्म 1398 में हुआ था और गुरुनानक जी का जन्म 1469 में हुआ था। उनका प्रश्न है? फिर कैसे ये सब साथ बैठकर धर्म चर्चा करते थे? मजाक के तौर पर ये लोग लिख रहे हैं कि ‘माना कि अंधेरा घना है, पर बेवकूफ बनाना कहाँ मना है’।

बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद’? अध्यात्म जगत की बातें अध्यात्म में रूचि रखने वाले और संतों के कृपा पात्र ही समझ सकते हैं। धर्म को अफीम बताने वाले नहीं। इस संदर्भ में मैं श्री नाभा जी कृत व भक्त समाज में अति आदरणीय ग्रंथ ‘भक्तमाल’ के प्रथम खंड से एक उदाहरण देकर ये बताने जा रहा हूं कि कैसे जो मोदी जी ने जो कहा, वह उनकी अज्ञानता नहीं बल्कि गहरी धार्मिक आस्था और ज्ञान का परिचायक है।

झांसी के पास ओरछा राज्य के नरेश के राजगुरू, शास्त्रों के प्रकांड पंडित पंडित श्री हरिराम व्यास जी का जन्म 16वीं सदी में हुआ था। बाद में ये ओरछा छोड़कर वृंदावन चले आए और श्री राधावल्लभ सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य श्रीहित हरिवंश जी महाराज से प्रभावित होकर उसी सम्प्रदाय में दीक्षित हुए। जिसमें भगवान श्रीराधाकृष्ण की निभृत निकुंज लीलाओं का गायन और साधना प्रमुख मानी गई है। इस सम्प्रदाय की मान्यतानुसार वृंदावन में भगवान श्रीराधाकृष्ण और गोपियों की रसमयी लीलाऐं आठोप्रहर निरंतर चलती रहती है। गहन साधना और तपश्चर्या के बाद रसिक संतजनों को इन रसमयी लीलाओं का दर्शन ऐसे ही होता है, जैसे भौतिक जगत का प्राणी टेलीवीजन के पर्दे पर फिल्म देखता है। इसे ‘अष्टायाम लीला दर्शन’ कहते हैं।

श्री हरिराम व्यास जी ने वृंदावन में रहकर घोर वैराग्य और तपश्चर्या से इस स्थिति को प्राप्त कर लिया था कि उन्हें समाधि में बैठकर आठों प्रहर की लीलाओं के दर्शन सहज ही हो जाया करते थे। इसलिए श्री हरिराम व्यास जी का स्थान राधावल्लभ सम्प्रदाय के महान रसिक संतों में अग्रणी माना जाता है।

भक्तमाल’ में वर्णन आया है कि एकबार श्री हरिराम व्यास जी यमुना तट पर समाधिस्थ होकर ‘अष्टायाम लीलाओं’ का दर्शन कर रहेे थे। तभी उनके मन में अचानक यह भाव आया कि जिस लीला रस का आस्वादन मैं सहजता से कर रहा हूं, वह रस संत कबीर दास जी को प्राप्त नहीं हुआ। ये विचार मन में आते ही उन्हें लीला दर्शन होना बंद हो गया। एक रसिक संत के लिए यह मरणासन्न जैसी स्थिति होती है। उनकी समाधि टूट गई, नेत्र खुल गये, अश्रु धारा प्रवाहित होने लगी और उनकी स्थिति जल बिन मछली जैसी हो गई। इस व्याकुलता में अधीर होकर, वे हित हरिवंश जी महाराज के पास गऐ और उनसे लीला दर्शन न होने का कारण पूछा। हित हरिवंश जी महाराज ने कहा कि अवश्य ही तुमसे कोई वैष्णव अपराध हुआ है। जाओ जाकर उसका चिंतन करो और जिसके प्रति अपराध हुआ है, उससे क्षमा याचना करो।

हरिराम व्यास जी पुनः यमुना तट पर आऐ और समाधिस्थ होकर अपराध बोध से चिंतन करने लगे कि उनसे किस संत के प्रति अपराध हुआ है। तब उन्हें ध्यान आया कि चूंकि कबीर दास जी ज्ञानमार्गीय संत थे, इसलिए व्यास जी के मन में ये भाव आ गया था कि कबीरदास जी को भगवान श्री राधाकृष्ण की अष्टायाम लीला के दर्शन का रस प्राप्त नहीं हुआ होगा। जो कि भक्ति मार्ग के रसिक संतों सहज ही हो जाता है। जैसे ही ये विचार आया, हरिराम व्यास जी ने अश्रुपूरित कातर नेत्रों से, दीनहीन भाव से संत कबीरदास जी के श्री चरणों में अपने अपराध की क्षमा याचना की।

व्यास जी यह देखकर आश्चर्यचकित हो गऐ कि संत कबीरदास जी उनके सामने ही यमुना जी से स्नान करके बाहर निकले और हरिराम व्यास जी से ‘राधे-राधे’ कहकर सत्संग करने बैठ गऐ। जबकि कबीरदास जी को पूर्णं समाधि लिए लगभग 150 वर्ष हो चुके थे। फिर ये कैसे संभव हुआ? हरिराम व्यास जी ने पुनः अपने अपराध की क्षमा मांगी और तब शायद उन्होंने ही यह पद रचा, ‘मैं तो जानी हरिपद रति नाहिं’। आज मैंने जाना कि मेरे हृदय में आज तक भगवान के श्रीचरणों के प्रति अनुराग ही उत्पन्न नहीं हुआ है। आज तक तो मैं यही मानता था कि हमारा ही सम्प्रदाय सर्वश्रेष्ठ है और हमारे जैसे ही रसिक संतों को निकुंज लीला के दर्शनों का सौभाग्य मिल पाता है। आज मेरा वह भ्रम टूट गया। आज पता चला कि प्रभु की सत्ता का विस्तार सम्प्रदायों में सीमाबद्ध नहीं है।

इसी तरह महावतार बाबाजी के शिष्य पूरी दुनिया में हैं और उनका विश्वास है और दावा है कि वे जब भी पुकारते हैं, बाबा आकर उन्हें दर्शन और निर्देश देते हैं। ऐसा हजारों वर्षों से उनके शिष्यों के साथ हो रहा है।

अब अगर नरेन्द्र भाई मोदी ने अपने इसी आध्यात्मिक ज्ञान और अनुभव को दृष्टिगत रखते हुए, यह कह दिया कि बाबा गोरखनाथ, संत कबीरदास और श्री गुरूनानक देव जी मगहर में एक साथ बैठकर धर्म चर्चा किया करते थे, तो इसमें गलत क्या है? हमारे देश का यही दुर्भाग्य है कि यवन और पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में हम अपनी सनातन संस्कृति को भूल गऐ हैं। उसमें हमारा विश्वास नहीं रह गया है और यही भारत के पतन का कारण है।

Monday, May 28, 2018

मोदी जी की साफ नीयत: सही विकास

राजनेताओं द्वारा जनता को नारे देकर, लुभाने का काम लंबे समय से चल रहा है। ‘जय जवान-जय किसान’, ‘गरीबी हटाओ’, ‘लोकतंत्र बचाओ’, ‘पार्टी विद् अ डिफरेंस’ व पिछले चुनाव में भाजपा का नारा था, ‘मोदी लाओ-देश बचाओ’। जब से मोदी जी सत्ता में आऐ हैं, भारत को परिवर्तन की ओर ले जाने के लिए उन्होंने बहुत सारे नये नारे दिये, जिनमें से एक है, ‘साफ नीयत-सही विकास’। पिछले 15 वर्षों से ब्रज क्षेत्र में धरोहरों के जीर्णोंद्धार व संरक्षण का काम करने के दौरान जिला स्तरीय, प्रांतीय व केन्द्रीय सरकार से बहुत मिलना-जुलना रहा है। उसी संदर्भ में इस नारे को परखेंगे।

भगवान श्रीराधाकृष्ण की लीलाओं से जुड़े पौराणिक कुण्डों, वनों और धरोहरों के जीर्णोंद्धार का जैसा काम ‘ब्रज फाउंडेशन’ ने बिना सरकारी आर्थिक मदद के किया, वैसा काम देश के 80 फीसदी राज्यों के पर्यटन विभाग नहीं कर पाये। यह कहना है-भारत के नीति आयोग के सीईओ. अमिताभ कांत का। इसी तरह  प्रधानमंत्री मोदी से लेकर प्रदेश के मुख्यमंत्री तक और देश के सभी प्रमुख संतों ने व लाखों ब्रजवासियों ने ब्रज फाउंडेशन द्वारा सजाये गये गोवर्धन के रूद्र कुंड, ऋणमोचन कुंड व संकर्षण कुंड, जैंत का जय कुंड व अजयवन, वृंदावन के ब्रह्म कुंड, सेवाकुंज व रामताल, मथुरा का कोईले घाट और बरसाना का गहवन वन आदि लाखों तीर्थयात्रियों का मन लुभाते हैं। अवैध कब्जाधारियों से लड़ने, इनकी गंदगी साफ करने और इनको बनाने में करोड़ों रूपया खर्च हुआ। जो देश के प्रमुख उद्योगपतियों जैसे- श्री कमल मोरारका, श्री अजय पीरामल, श्री राहुल बजाज, श्री रामेश्वर राव और अनेकों कम्पनियों ने अपने ‘सीएसआर. फंड’ से दान दिया। परंपरानुसार सभी दानदाताओं के नामों के शिलालेख, इन स्थलों पर लगाये गये हैं। पिछले दिनों योगी सरकार के एक छोटे अधिकारी ने अपने तुगलकी फरमान जारी कर, इन सभी शिलालेखों पर पेंट कर दिया। ऐसा काम ब्रज में औरंगजेब के बाद पहली बार हुआ। प्रदेश में जब सरकारे बदलती हैं, तो पिछली सरकार की बनाई ईमारतों या शिलालेखों को हाथ नहीं लगाते। चाहे वे विरोधी दल के ही क्यों न हों। पूरी दुनिया में इस तरह के शिलालेख लगाने की परंपरा बहुत पुरानी है। जिससे आनी वाली पीढ़ियां इतिहास जान सकें।
इस दुष्कृत्य के पीछे उन स्वार्थीतत्वों का हाथ है, जो ब्रज फाउंडेशन की सफलता से ईष्र्या करते रहे हैं। ब्रज फाउंडेशन ने मोदी जी के ‘सही नीयत-सही विकास’ और ’स्वच्छ भारत’ के नारे को शब्दसह चरितार्थ किया है। इस संस्था को छह बार भारत की ‘सर्वश्रेष्ठ वाटर एनजीओ’ होने का अवार्ड भी मिल चुका है। इन सार्वजनिक स्थलों का जीर्णोंद्धार करने से पहले मौजूदा कानून की सभी प्रक्रियाओं को पारदर्शी रूप से पूरा किया गया। जिला प्रशासन से लेकर प्रांत और केंद्र सरकार तक का प्रशासनिक सहयोग, इन परियोजनाओं को पूरा करने में बार-बार लिया गया। फिर भी ‘एनजीटी’ के एक सदस्य ने प्रमाणों को अनदेखा करते हुए संस्था को इन स्थलों के रख-रखाव से अलग कर दिया। ये आदेश भी दिया कि ‘ भविष्य में सारे कुंड सरकार बनाये’।  ब्रजवासियों का कहना है कि, ‘जो शासन गत 70 वर्ष में एक भी धरोहर का जीर्णोंद्धार व संरक्षण ब्रज फाउंडेशन द्वारा बनाई गई स्थलियों के सामने 10 गुनी लागत लगाकर 10 फीसदी भी नहीं कर पाया। वो जिला प्रशासन ब्रज के 800 सौ से भी ज्यादा वीरान और सूखे पड़े कुंडों को आज तक क्यों नहीं बना पाया?
उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग के अनुदान पर अब तक कम से कम 200 करोड़ रूपया पिछले 70 सालों में ब्रज में लग चुका होगा। बावजूद इसके उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग एक भी धरोहर को दिखाने लायक नहीं बना पाया। तो भविष्य में क्या कर पायेगा, उसका अनुमान लगाया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय के ‘हिंचलाल तिवारी केस’ मामले में सब जिलाधिकारियों को अपने जिले के सभी कुंडों पर से कब्जे हटवाकर, उनका जीर्णोंद्धार करना था। पर आज तक इस आदेश का अनुपालन नहीं हुआ। यह सीधा सीधा अदालत की अवमानना का मामला है।
इससे भी गंभीर प्रश्न ये है कि एक तरफ तो भारत सरकार उद्योगपतियों से अपने सीएसआर फंड को समाज के कामों में लगाने के लिए आह्वान करती है और दूसरी तरफ उसी भाजपा के मुख्यमंत्री की जानकारी में ऐसा काम करने  वालों के नामों निशान तक मिटा दिये जाते हैं। ऐसे में कोई क्यों सेवा करने सामने आऐगा? नीयत साफ वाले और ठोस काम करने वाले लोगों को अपमानित किया जाऐ और खोखले और नाकारा सलाहकारों को लाखों रूपये फीस देकर, उनसे वाहियात् परियोजनाऐं बनवाई जाऐ और उन पर बिना सोचे समझे, पानी की तरह पैसा बहा दिया जाऐ। तो कैसे होगा सही विकास?
इस संदर्भ में एक और अनुभव बड़ा रोचक हुआ। उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग ने ब्रज के 9 कुंडों के जीर्णोंद्धार के लिए 77 करोड़ रूपये का ठेका लखनऊ के ठेकेदारों को दे दिया। जबकि हमने बढ़िया से बढ़िया कुंड बनाने में ढाई, तीन करोड़ रूपये से ज्यादा खर्च नहीं किया। हमारे विरोध पर ठेका निरस्त करना पड़ा और हमसे कार्य योजना मांगी। अब यही 9 कुंड मात्र 27 करोड़ रूपये में बनेंगे। जाहिर है कि योगी सरकार के मंत्रीं और अधिकारी इस एक परियोजना में 50 करोड़ रूपये हजम करने की तैयारी करे बैठे थे, जो हमारे हस्तक्षेप से बौखला गये और साजिश करके उन्होंने पिछले हफ्ते इन सारी धरोहरों पर कब्जा कर लिया। जबकि ब्रज फाउंडेशन वहां निःस्वार्थ भाव से बाग-बगीचे, मंदिर आदि की इतनी सुंदर सेवा कर रही थी कि हर आदमी उसे देखकर गद्गद् था। पिछले चार साल में केंद्र सरकार और पिछले सवा साल में योगी सरकार तमाम शोर-शराबे के बावजूद एक भी परियोजना नहीं बना पाई। इसका कारण है, भ्रष्ट नौकरशाही, राजनैतिक दलालों का हस्तक्षेप और नाकरा सलाहकारों से परियोजनाऐं बनवाना।
हमने कई बार प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव केंद्र सरकार के मंत्रियों व सचिवों और प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी और आला अफसरों के साथ बैठकें कर-करके प्रशासनिक व्यवस्था की खामियों को दूर करने के अनेक ठोस और व्यवहारिक सुझाव दिये। जिससे काम बेहतर और कलात्मक हो और लागत आधी से भी कम आए। पर कोई सुनने या बदलने को तैयार नहीं है। दावें और बातें बहुत बड़ी-बड़ी हो रही है, पर जिलास्तर पर हलातों में कोई बदलाव नहीं। बाकी प्रदेश को छोड़ो, भगवान श्रीकृष्ण, राम और शिव की भूमि में भी वही हाल है। दीवाली और होली मनाने से राजनैतिक प्रचाार तो मिल सकता है, पर जमीन पर ठोस काम नहीं होता है। ठोस काम होता है, ‘सही नीयत-सही विकास’ के नारे को अमल में लाने से। जो अभी तक कहीं दिखाई नहीं दे रहा है।