Showing posts with label UPA. Show all posts
Showing posts with label UPA. Show all posts

Monday, June 24, 2019

मोदी इफैक्ट के फायदे?

जब से  नरेन्द्र मोदी ब्रांड को हर मतदाता के मन में बसाकर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भाजपा को अप्रत्याशित विजय दिलाई है, तब से मोदी जी के आलोचकों और विपक्षी दलों को एक भय सता रहा है कि अब मोदी यथाशीघ्र भारत को राष्ट्रपति प्रणाली की तरफ ले जाऐंगे। उन्हें दूसरा डर इस बात का है कि अब मोदी जी खुल्ल्मखुल्ला अधिनायकवाद की स्थापना करेंगे। उनका ये भी कहना है कि भाजपा के जीते हुए सांसद ये मानते है कि उनकी विजय उनके अपने कृतित्व के कारण नहीं बल्कि मोदी जी के नाम के कारण हुई है। इसलिए उनका तीसरा भय इस बात का है कि ये सभी सांसद संसद में केवल हाथ उठाऐंगे या नारे लगायेंगे। इनसे संसद की बहसों को कोई, गरिमा प्रदान नहीं होगी। इस तरह संसद का स्तर लगातार गिरता जायेगा। हम इन तीनों मुद्दों का विवेचन करेंगे।

जहाँ तक देश को राष्ट्रपति प्रणाली की ओर ले जाने की बात है, तो यह कोई गलत विचार नहीं है। दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक देशों में राष्ट्रपति प्रणाली है और कुछ अपवादों को छोड़कर ठीक-ठाक काम कर रही है। आयाराम-गयाराम की संस्कृति में सांसदों की खरीद-फरोख्त से बनी सरकारें ब्लैकमेल का शिकार होती है। छोटे-छोटे दल अल्पमत की सरकार को समर्थन देने की एवज में कमाऊ मंत्री पद हड़पना चाहते हैं। कैबिनेट की  सामूहिक जिम्मेदारी की बजाय हर सहयोगी दल अपने क्षेत्रीय दल, नेता व क्षेत्र के लिए ही सक्रिय रहता है, बाकी देश के प्रति गंभीर नहीं रहता। ‘हवाला कांड’ के बाद राजनीति में भ्रष्टाचार और अपराधीकरण को लेकर पूरी रात संसद का अधिवेशन चला, पर आज तक कुछ भी नहीं बदला। जिन दलों और लोगों को आज मोदी जी की मंशा पर संदेह है, उन्होंने पिछले 23 वर्षों में राजनीति की दशा सुधारने के लिए कितने गंभीर प्रयास किये? जब वो ढर्रा देश 72 साल तक ढोता रहा, तो अब एकबार अगर मोदी जी राष्ट्रपति प्रणाली लाकर नया प्रयोग करना चाहें, तो इससे इतनी घबराहट क्यों होनी चाहिए?

राष्ट्रपति प्रणाली का सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि पूरे देश की जनता अपनी पंसद के नेता को 5 साल के लिए देश की बागडोर सौंप देती है। ऐसे चुना गया राष्ट्रपति, बिना किसी दबाव के, अपने मंत्रीमंडल का गठन कर सकता है। जाहिरन तब वह अपनी पसंद के और अनुभवी लोगों को किसी भी क्षेत्र से उठाकर मंत्री बना सकता है। जैसा- इस बार मोदी जी ने विदेश मंत्री के संदर्भ में प्रयोग किया। फिर वो व्यक्ति चाहे प्रोफेसर हो, वैज्ञानिक हो, उद्योगपति हो, पत्रकार हो, समाजसेवी हो या रणनीति विशेषज्ञ हो। अमरीका में आज ऐसा ही होता है। इससे कैबिनेट की योग्यता, कार्यक्षमता और निर्णंय लेने की स्वतंत्रता बढ़ जाती है। हां एक नुकसान हो सकता है, अगर राष्ट्रपति अहंकारी हो, अनैतिक आचरण वाला हो या लालची हो, तो वह देश को मटियामैट भी कर सकता है। पर जिसे पूरा देश अपने विवेक से चुनेगा, उससे ऐसे आचरण की उम्मीद कम ही की जा सकती है।

मोदी जी के आलोचकों को डर है कि वे हिटलर या मुसौलनी की तरह धीरे-धीरे अधिनायकवाद की ओर बढ़ रहे हैं। चुनाव के दौरान व्हाट्सएप्प समूहों में हिटलर की आदतों को लेकर ऐसे कई संदेश प्रचारित किये गये, जिनमें मोदी जी की तुलना हिटलर से की गई। यहां एक बुनियादी फर्क है। हिटलर प्रजाति के अहंकार से ग्रस्त एक गैर आध्यात्मिक व्यक्ति था। जिसकी मंशा विश्व विजेता बनने की थी। जबकि मोदी जी ने योग को विश्वस्तर पर मान दिलाकर, राष्ट्राध्यक्षों को श्रीमद्भगवत्गीता भेंटकर और देश के सभी प्रमुख देवालयों में पूजा अर्चन कर अपने-अपने सनातनी होने का प्रमाण दिया है। निश्चित तौर पर उन्होंने श्रीमद्भागवत् के राजा रहुगण व जड़ भरत संवाद को पढ़ा होगा। जो कल राजा था, वो आज पालकी उठाने वाला बन गया और जो आज सड़क के पत्थर तोड़ता है, वो कल भारत का राष्ट्रपति बन सकता है। जिसने वैदिक दर्शन के इस मूल सिद्धांत को समझ लिया, वह राजा अधिनायकवादी नहीं, राजऋषि बनेगा। अब यह तो समय ही बतायेगा कि मोदी जी स्वान्तः सुखाय अधिनायकवादी बनेंगे या बहुजन हिताय?

मोदी जी की एक शिकायत आम है, जो उनके आलोचक नहीं, बल्कि चाहने वालों के बीच है। उनका नौकरशाही पर ज्यादा से ज्यादा निर्भर होना। जबकि इस देश के तमाम ईमानदार और चरित्रवान व उच्च पदासीन रहे नौकरशाहों ने अपने स्मरणों में बार-बार इस बात पर दुखः प्रगट किया है कि नौकरशाही के तंत्र में उलझ कर वे कुछ भी ठोस और सार्थक नहीं कर पाये। एक घिसीपिटी मशीन का पुर्जा बनकर रह गऐ। यह पीड़ा मेरी भी है। गत 5 वर्षों से बार-बार स्मरण दिलाने के बावजूद प्रधानमंत्री कार्यालय में ब्रज को लेकर मेरी अनुभवजन्य व स्वयंसिद्ध उपलब्धियों पर आधारित चिंताओं पर ध्यान नहीं दिया और आज भी ब्रज का विकास नये पुराने नौकरशाहों पर छोड़ दिया है, जो 5 वर्ष में भी एक भी काम उल्लेखनीय या प्रशंसनीय नहीं कर पाये। अमरीका की प्रगति के पीछे सबसे बड़ा कारण वहां मिलने वाला वो सम्मान है, जो अमरीकी सरकार और समाज हर उस व्यक्ति को देता है, जो अपनी योग्यता सिद्ध कर देता है।

रही बात संसद की। यह सही है कि भाजपा के अधिकतर सांसद अपने काम और नाम की बजाय मोदी जी के नाम पर जीतकर आये हैं। पर इसका अर्थ ये नहीं कि वो किसी गड़रिये की भेडे़ हैं। लाखों लोगों ने उन्हें अपना प्रतिनिधि चुना है। उनकी बहुत अपेक्षाऐं हैं। जनता से जुड़ाव के बिना कोई नेता बहुत लंबी दूरी तक नहीं चल सकता। न सिर्फ स्थानीय मुद्दों पर पकड़ जरूरी है, बल्कि राष्ट्रीय और अंर्तराष्ट्रीय मुद्दों पर भी हस्तक्षेप करने की अपेक्षा देशवासी हर सांसद से करते हैं। ‘निंदक नियरे राखिये’ वाले सिद्धांत में आस्था रखते हुए मोदी जी को चाहिए कि वे अपने सांसदों को यह निर्देश और शिक्षा दें कि वे संसद की बहसों में सक्रिय रहकर अपना योगदान करें और जहाँ आवश्यक हो, अपनी ही सरकार की कमियों की ओर इशारा करने से न चूकें। इससे सरकार की विश्वसनीयता व लोकप्रियता दोनों बढ़ती है। आशा की जानी चाहिए कि मोदी जी अपने आलोचकों की शंकाओं के विरूद्ध एक मजबूत राष्ट्र के निर्माण की तरफ कदम बढ़ाऐंगे।

Monday, June 11, 2018

चुनावी माहौल में उलझते बुनियादी सवाल

2019 के चुनावों की पेशबंदी शुरू हो गयी है। जहां एक तरफ भाजपा भविष्य के खतरे को देखते हुए रूठे साथियों को मनाने में जुटी है, वहीं विपक्षी दल आपसी तालमेल बनाने का प्रयास कर रहे हैं। दोनों ही पक्षों की तरफ से सोशल मीडिया पर मनोवैज्ञानिक युद्ध जारी है। जहां भाजपा का सोशल मीडिया देशवासियों को मुसलमानों का डर दिखाने में जुटा है, वहीं  विपक्षी मीडिया, जो अभी कम आक्रामक है मोदी जी के 2014 के चुनावी वायदे पूरे न होने की याद दिला रहा है। इस युद्ध के माहौल में बुनियादी सवाल नदारद है। लोकतंत्र में मतदाताओं की संख्या का बड़ा महत्व होता है। उस दृष्टि से मुसलमानों की बढ़ती ताकत का डर आसानी से हिंदूओं को दिखाकर उनके मत को एकमत किया सकता है। पर आम आदमी की जिंदगी में धर्म से ज्यादा रोजी, रोटी, शिक्षा, मकान, स्वास्थ और सुरक्षा का महत्व ज्यादा होता है।  धर्म की याद तो उसे भरे पेट पर आती है। पिछले 4 वर्ष की एनडीए सरकार दावों के विपरीत इन सभी क्षेत्रों में प्रधानमंत्री की योजनाओं का लाभ आम लोगों तक नहीं पहुंचा, इससे समाज में भारी हताशा है। ज्यादातर मध्यम स्तरीय उद्योग धंधे चैपट हैं। रियल ईस्टेट का धंधा चैपट है। बेरोजगारी चरम पर है। आम जनता में भारी निराशा है। मीडिया और सरकारी प्रचार तंत्र सरकार की उपलब्धियों के कितने ही दावे क्यों  करे, जमीन पर कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। यह भाजपा के लिए शुभ संकेत नहीं है और अब इतनीदेर हो चुकी है कि रातों-रात कुछ नया खड़ा नहीं किया जा सकता। यही वजह है कि भाजपा को घिसेपीटे पुराने मुद्दे ही दोहराने पड़ रहे हैं। फिर वो चाहे अल्पसंख्यकों से खतरा बताकर हिंदू वोटों को पकड़ने की कोशिश हो या राजनैतिक विपक्षियों पर सीबीआई के शिकंजे कसकर उनकी संभावित एकता को रोकने का प्रयास हो या पाकिस्तान से कश्मीर के मुद्दे पर युद्ध की झलक दिखाकर देशभक्ति के नाम पर देश को एकजुट करने का प्रयास हो। पर इन सभी चुनावी हथकंडों से आम मतदाता की समस्याओं का कोई संबंध नहीं है। ये सब लोगों को अब भटकाने वाले मुद्दे नजर आते हैं। उनके असली मुद्दों की कोई बात नहीं कर रहा। 2014 के आम चुनाव में मोदी जी ने हर वर्ग और आयु के मतदाता के मन में उम्मीद जगाई थी। जो वे पूरी नहीं कर पाऐ। इसलिए लगता है कि ये हथकंडे शायद इस चुनाव में काम न आए।

दूसरी तरफ विभिन्न विचारधाराओं और भारत के विभिन्न प्रांतों के राजनेता हैं, जो कर्नाटक की सफलता से बहुत उत्साहित हैं। जो केवल आपसी तालमेल की बात कर रहे हैं भाजपा के कार्यकर्ताओं की संगठित सेना से वैचारिक स्तर पर निपटने का अभी कोई साफ नक्शा दिखाई नहीं देता। जिससे इस बात की संभावना बनती है कि एकजुट होकर भी ये विभिन्न राजनैतिक दल, जनता के दिल को छूने वाले मुद्दे नहीं उठा पायेंगे। ऐसे में यह स्पष्ट है कि आगामी चुनाव में लड़ाई बुनियादी मुद्दों को लेकर नहीं बल्कि सतही मुद्दों को लेकर होगी। जो भी जीतेगा वो फिर सरकार को वैसे ही चलायेगा, जैसा आज तक चलाता आ रहा है। इस तरह तो कुछ नहीं बदलेगा। देश की गाड़ी 1947 से जिस ढर्रे पर चल रही है, उसी ढर्रे पर आगे बढ़ेगी। आज विकास के नाम पर गलत योजनाओं की परिकल्पना, भ्रष्ट नौकरशाही के असीम अधिकार, निचले स्तर पर भारी भ्रष्टाचार ने विकास की कमर तोड़ दी है। अब चुनाव में चाहे कोई जीते कुछ बदलने वाला नहीं है। जब सांसदों की इतनी बड़ी संख्या लेकर दमदार नेता नरेन्द्र भाई मोदी चार साल में जनता को राहत नहीं दे पाये, तो आगे दे पायेंगे इसका क्या भरोसा? ऐसे में मतदाता के सामने प्रश्न खड़ा होता कि वे किसे वोट दे और क्यों, और न भी दे तो क्या फर्क पड़ता है। क्योंकि उसकी जिंदगी बदलने वाली नहीं है- ‘‘कोउ नृप होय हमें का हानि, चेरि छोड़ न होबई रानी’।

जनता तो लुटने पिटने और शोषित होने के लिए है। इसलिए उसकी चुनावों में रूचि समाप्त हो गयी है। इस तरह तो हमारा लोकतंत्र कमजोर होता जाऐगा। जरूरत इस बात की थी कि पिछले 71 सालों में विकास का जो ढर्रा चलता रहा, उसे पूरी तरह बदल दिया जाता। फिर स्वयं सिद्ध लोगों की राय से विकास की योजनाऐं बनाई जाती। ऐसा कुछ नहीं हो रहा। यह चिंता की बात है।

दरअसल हमारा तो मानना रहा है। कि आप काज, महा काज। जनता को अपने और अपने आसपास के लोगों की भलाई और विकास की तरफ खुद ही कदम बढ़ाने होंगे और अनुभव यह दिखा देगा कि जो काम जनता ईमानदारी से चार आने में कर लेती है, वही काम सरकारी अमला 40 रूपये में भी नहीं कर पाता। आज के संचार के युग में सूचनाओं का प्रसारण बहुत तीव्र गति से होता है। अगर ये सूचनाऐं आम जनता तक पहुंची, तो सभी राजनैतिक दल कटघरे में खड़े होंगे और ऐसे में एक दल की सरकार बनना असंभव होगा। वास्तव में क्या होता है, ये तो आम चुनाव के परिणाम ही बतायेंगे।

Monday, October 30, 2017

किसानों के साथ धोखाधड़ी


हमारे देश में अगर कोई सबसे अधिक मेहनत करता है, तो वो इस देश के किसान हैं, जो दिन-रात, जाड़ा, गर्मी और बरसात झेलकर फसल उगाते हैं और 125 करोड़ देशवासियों का पेट भरते हैं। लेकिन सबसे ज्यादा उपेक्षा भी उनकी ही होती है। चुनावों के माहौल में हर राजनैतिक दल किसानों के दुख-दर्द का रोना रोता है और ये जताने की कोशिश करता है कि मौजूदा सरकार के शासन में किसानों का बुरा हाल है और वो आत्महत्या करने पर मजबूर हैं। जबकि हकीकत यह है कि वही राजनैतिक दल जब सत्ता में होते हैं, तो ऐसी नीतियां बनाते हैं, जिनसे किसान की तरक्की हो ही नहीं सकती। चाहे वह बिजली की आपूर्ति हो या सिंचाई के जल की, चाहे वह समर्थन मूल्य की बात हो या खाद के दाम की। हर नीति की नींव में एक बड़ा घोटाला छिपा होता है। जिसका खामियाजा, इस देश के करोड़ों किसानों को झेलना पड़ता है। जबकि इन नीतियों को बनाने वाले नेता और अफसर, मोटी चांदी काटते हैं।


दरअसल किसानों के प्रति उपेक्षा का ये भाव सत्ताधीशों का ही नहीं होता, हम सब शहरी लोग भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। अब मीडिया को ही ले लीजिए, अखबार हो या टी.वी., कुल खबरों की कितनी फीसदी खबर, किसानों की जिंदगी पर केंद्रित होती हैं? सारी खबरें औद्योगिक जगत, बहुर्राष्ट्रीय कंपनियां, सिनेमा या खेल पर केंद्रित होती है। किसानों पर खबर नहीं होती, किसान खुद खबर बनते हैं, जब वे भूख से तड़प कर मरते हैं या कर्ज में डूबकर आत्महत्या करते है।


ये कैसा समाजवाद है? कहने को श्रीमती गांधी ने भारतीय संविधान में संशोधन करके समाजवाद शब्द को घुसवाया। पर क्या यूपीए सरकार की नीतियां ऐसी थीं कि किसानों की दिन-दूगनी और रात-चैगुनी तरक्की होती? अगर ऐसी हुआ होता, तो किसानों की हालत इतनी खराब कैसे हो गयी कि वे आत्महत्या करने पर मजबूर हो गये? ये रातों-रात तो हुआ नहीं, बल्कि वर्षों की गलत नीतियों का परिणाम है। हमारी सरकारों ने किसानों को आत्मनिर्भर बनाने की बजाए, याचक बना दिया। ताकि वो हमेशा सत्ताधीशों के सामने हाथ जोड़े खड़ा रहे। छोटे-छोटे कर्जों में डूबा किसान तो अपनी इज्जत बचाने के लिए आत्महत्या करता आ रहा है, पर क्या किसी उद्योगपति ने बैंकों का कर्जा न लौटाने पर आत्महत्या की? लाखों-करोडों का कर्जा उद्योग जगत पर है। पर उन्हें आत्महत्या करने की जरूरत नहीं पड़ती। क्योंकि वे मंहगे वकील खड़े करके, बैंकों को मुकदमों में उलझा देते हैं। जिसमें दशकों का समय यूं ही निकल जाता है।


प्रधानमंत्री मोदी पर आरोप लग रहा है कि उनकी परोक्ष मदद के कारण अंबानी और अडानी की प्रगति दिन-दूनी और रात-चैगुनी हो रही है। पर क्या ये बात किसी से छिपी है कि पूर्ववर्ती सरकारों के कार्यकाल में भी अंबानी समूह की बेइंतहां वृद्धि हुई? सारा औद्योगिक जगत ये तमाशा देखता रहा कि कैसे सरकार से निकटता का लाभ लेकर, धीरूभाई अंबानी ने ये विशाल साम्राज्य खड़ा कर लिया था।  इसमें नया क्या है?


मैं पूंजीवाद के खिलाफ नहीं हूं। मैं मानता हूं कि व्यक्तिगत पुरूषार्थ के बिना, आर्थिक प्रगति नहीं होती। सरकारों की सहायता पर पलने वाला समाज कभी आत्मविश्वास से नहीं भर सकता। वह हमेशा परजीवि बना रहेगा। साम्यवादी देश इसका स्पष्ट उदाहरण है। जबकि पूंजीपति बुद्धि लगाता है, मेहनत करता है, खतरे मोल लेता है और दिन-रात जुटता है, तब जाकर उसका औद्योगिक साम्राज्य खड़ा होता है। इसलिए पूंजीपतियों की प्रगति का विरोध नहीं है। विरोध है, उनके द्वारा गलत तरीके अपनाकर धन कमाना और टैक्स की चोरी करना। इससे समाज का अहित होता है। इसलिए प्रधानमंत्री मोदी ऐसी व्यवस्था लाना चाह रहे हैं, जिससे टैक्स की चोरी भी न हो और लोग अपना आर्थिक विकास भी कर सकें। इस तरह सरकार के पास, सामाजिक कार्यों के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध हो जायेंगे।

 
हर परिवर्तन कुछ आशंका लिए होता है। ढर्रे पर चलने वाले लोग, हर बदलाव का विरोध करते हैं। परंतु बदलाव अगर उनकी भलाई के लिए हो, तो क्रमशः उसे स्वीकार कर लेते हैं। आज देश के समझदार लोगों को किसानों और देश की आर्थिक स्थिति पर मंथन करना चाहिए और ये तय करना चाहिए कि भारत का आर्थिक विकास किस माडल पर होगा? क्या देश का केवल औद्योगिकरण होगा या किसानों मजदूरों के आर्थिक उत्थान को साथ लेकर चलते हुए औद्योगिक विकास होगा? क्योंकि समाज के बहुसंख्यक लोगों को अभावों में रखकर मुट्ठीभर लोग वैभव पर एकाधिकार नहीं कर सकते। उन्हें गांधी जी के ‘ट्रस्टीशिप’ वाले सिद्धांत को मानना होगा। जिसका मूल है कि धन इसलिए कमाना है कि हम समाज का भला कर सकें। ऐसी सोच विकसित होगी, तो किसान भी खुश होगा और शेष समाज भी।



भारत के आर्थिक विकास के माडल पर बहुत कुछ सोचा-लिखा जा चुका है। उसी पर अगर एकबार फिर मंथन कर लिया जाए, तो तस्वीर साफ हो जायेगी। जरूरत है कि हम विकास के पश्चिमी माडल से हटकर देशी माडल को विकसित करें, जिसमें सबका साथ हो-सबका विकास हो।

Monday, August 21, 2017

खाद्य पदार्थों में मिलावट पर रोक नहीं

हवा, पानी और भोजन आदमी की जिंदगी की बुनियादी जरूरत हैं। अगर इनमें ही मिलावट होगी, तो जनता कैसे जियेगी? खाद्यान में मिलावट के नियम कितने भी सख्त हों, जब तक उनको ठीक से लागू नहीं किया जायेगा, इस समस्या का हल नहीं निकल सकता। आज मिलावट का कहर सबसे ज्यादा हमारी रोजमर्रा की जरूरत की चीजों पर ही पड़ रहा है। संपूर्ण देश में मिलावटी खाद्य-पदार्थों की भरमार हो गई है । आजकल नकली दूध, नकली घी, नकली तेल, नकली चायपत्ती आदि सब कुछ धड़ल्ले से बिक रहा है। अगर कोई इन्हें खाकर बीमार पड़ जाता है तो हालत और भी खराब है, क्योंकि जीवनरक्षक दवाइयाँ भी नकली ही बिक रही हैं ।
एक अनुमान के अनुसार बाजार में उपलब्ध लगभग 30 से 40 प्रतिशत समान में मिलावट होती है। खाद्य पदार्थों में मिलावट की वस्तुओं पर निगाह डालने पर पता चलता है कि मिलावटी सामानों का निर्माण करने वाले लोग कितनी चालाकी से लोगों की आँखों में धूल झोंक रहे हैं। इन मिलावटी वस्तुओं का प्रयोग करने से लोगों को कितनी कठिनाइयाँ उठानी पड़ रही हैं।
आजकल दूध भी स्वास्थ्यवर्धक द्रव्य न होकर मात्र मिलावटी तत्वों का नमूना होकर रह गया है, जिसके प्रयोग से लाभ कम हानि ज्यादा है। हालत यह है कि लोग दूध के नाम पर यूरिया, डिटर्जेंट, सोडा, पोस्टर कलर और रिफाइंड तेल पी रहे है।
बाजार में उपलब्ध खाद्य तेल और घी की भी हालत बेहद खराब है। सरसों के तेल में सत्यानाशी बीज यानी आर्जीमोन और सस्ता पॉम आयल मिलाया जा रहा है। देशी घी में वनस्पति घी और जानवरों की चर्बी की मिलावट, आम बात हो गई है। मिर्च पाउडर में ईंट का चूरा, सौंफ पर हरा रंग, हल्दी में लेड क्रोमेट व पीली मिट्टी, धनिया और मिर्च में गंधक, काली मिर्च में पपीते के बीज मिलाए जा रहे हैं।
फल और सब्जी में चटक रंग के लिए रासायनिक इंजेक्शन, ताजा दिखने के लिए लेड और कॉपर सोल्युशन का छिड़काव व सफेदी के लिए फूलगोभी पर सिल्वर नाइट्रेट का प्रयोग किया जा रहा है। चना और अरहर की दाल में खेसारी दाल, बेसन में मक्का का आटा मिलाया जा रहा और दाल और चावल पर बनावटी रंगों से पालिश की जा रही है ।
ऐसा अर्से से होता आ रहा है। 50 वर्ष पहले, एक फिल्म में महमूद ने एक गाना गाया था, जो ऊपर लिखे गये सारे पदार्थों का इसी तरह वर्णन करता था। मतलब यह हुआ कि 50 वर्षों में कुछ भी नहीं सुधरा। इसके विपरीत अब तो दूध, फल और सब्जी तक जहरीले हो गये हैं। भारत की पूरी आबादी, इस जहर को खाकर जी रही है। हमारे बच्चे इन मिलावटी सामानों को खाकर बड़े हो रहे हैं। भारत की आने वाली युवा पीढ़ी कैसे ताकतवर बनेगी?
मोदी सरकार के आने के बाद, सबको उम्मीद थी कि खाने के पदार्थों में मिलावट करने वालों पर, सरकार सख्ती करेगी। स्वयं मोदी जी ने अपने भाषणों में इस समस्या की भयावहता को रेखांकित किया था। पर उनके अधीनस्थ अफसरों ने ऐसी नीति बनाई है कि खाद्य पदार्थों में मिलावट का धंधा, दिन-दूना और रात-चैगुना बढ़ गया है। ‘ईज़ आफ बिजनेस’ के नाम पर खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता परखने वाले विभागों को कहा गया है कि वे ऐसी किसी भी अर्जी पर, बिना देर किये, अनापत्ति पत्र जारी कर दिये जायें।
जरा सोचिए कि मलेशिया से ‘पाम आयल’ आया। आयातक ने अनापत्ति पत्र के लिए अर्जी दी। खाद्य नियंत्रण विभाग, अगर यह सुनिश्चित करना चाहे कि यह तेल, खाने योग्य है या नहीं, तो उसे परीक्षा के लिए प्रयोगशाला में भेजना होगा। जहां कैमिस्ट उसकी गुणवत्ता की जांच कर सकें। खाद्य विभाग को यह जांच रिर्पोट 7 दिन में चाहिए। प्रयोगशाला के पास इतने सारे सैंपल जांच के लिए आये हुए हैं कि वो तीन महीने में भी यह रिर्पोट नहीं दे सकती। ऐसे में दो ही विकल्प हैं। पहला कि बिना जांच के, फर्जी अनापत्ति पत्र दे दिये जायें, दूसरा जांच आने तक इंतजार किया जाए। ऐसी स्थिति में खाद्य नियंत्रण विभाग पर लाल फीता शाही और काम में ढीलेपन का आरोप लगाकर, उसके अधिकारियों को शासन द्वारा  प्रताड़ित किया जा सकता है। इसी डर से आज, यह विभाग बिना जांच करावाए ही, अनापत्ति प्रमाण पत्र देने को मजबूर हैं। जबकि ऐसा करने से लोगों की जिंदगी खतरे में पड़ती है। पर आज हो यही रहा है। खद्यान के नमूनों की बिना जांच कराए ही मजबूरी में, अनापत्ति प्रमाण पत्र देने पड़ रहे हैं। नतीजतन पूरे देश के बाजार में, जहरीले रासायनिक और रंग मिलाकर धड़ल्ले से खाद्यान्न बेचे जा रहे हैं। जिससे हम सबका जीवन खतरे में पड़ रहा है। मोदी सरकार को, इस गंभीर समस्या की ओर ध्यान देना चाहिए और खाद्य पदार्थों में मिलावट करने वालों के खिलाफ सख्त से सख्त कार्यवाही करनी चाहिए।

Monday, June 12, 2017

एनडीटीवी पर सीबीआई का छापा

जिस दिन एनडीटीवी पर सीबीआई का छापा पड़ा, उसके अगले दिन एक टीवी चैनल पर बहस के दौरान भाजपा के प्रवक्ता का दावा था कि सीबीआई स्वायत्त है। जो करती है, अपने विवेक से करती है। मैं भी उस पैनल पर था, मैं इस बात से सहमत नहीं हूं। सीबीआई कभी स्वायत्त नही रही या उसे रहने नहीं दिया गया। 1971 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने इसे अपने अधीन ले लिया था, तब से हर सरकार इसका इस्तेमाल करती आई है। 



रही बात एनडीटीवी के मालिक के यहां छापे की तो मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं कि डा. प्रणय रॉय एक अच्छे इंसान हैं। मेरा उनका 1986 से साथ है, जब वे दूरदर्शन पर ‘वल्र्ड दिस वीक’ एंकर करते थे और मैं ‘सच की परछाई’। तब देश में निजी चैनल नहीं थे। जैसा मैंने उस शो में बेबाकी से कहा कि 1989 में कालचक्र वीडियो मैग्जी़न के माध्यम से देश में पहली बार स्वतंत्र हिंदी टीवी पत्रकारिता की स्थापना करने के बावजूद, आज मेरा टीवी चैनल नहीं है। इसलिए नहीं कि मुझे पत्रकारिता करनी नहीं आती या चैनल खड़़ा करने का मौका नहीं मिला, बल्कि इसलिए कि चैनल खड़ा करने के लिए बहुत धन चाहिए। जो बिना सम्पादकीय समझौते किये, संभव नहीं था। मैं अपनी पत्रकारिता की स्वतंत्रता खोकर चैनल मालिक नहीं बनना चाहता था। इसलिए ऐसे सभी प्रस्ताव अस्वीकार कर दिये। 



एनडीटीवी के कुछ एंकर बढ़-चढ़कर ये दावा कर रहे हैं कि उनकी स्वतंत्र पत्रकारिता पर हमला हो रहा है। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि ‘गोधरा कांड’ के बाद, जैसी रिपोर्टिंग उन्होंने नरेन्द्र मोदी के खिलाफ की, क्या वैसे ही तेवर से उन्होंने कभी कांग्रेस के खिलाफ भी अभियान चलाया ? जब मैंने हवाला कांड में लगभग हर बड़े दल के अनेकों बड़े नेताओं को चार्जशीट करवाया, तब वे सब चैनलों पर जाकर अपनी सफाई में तमाम झूठे तर्क और स्पष्टीकरण देने लगे। उस समय मैंने उन सब चैनलों के मालिकों और एंकरों को इन मंत्रियों और नेताओं से कुछ तथ्यात्मक प्रश्न पूछने को कहा तो किसी ने नहीं पूछे। क्योंकि वे सब इन राजनेताओं को निकल भागने का रास्ता दे रहे थे। ऐसा करने वालों में एनडीटीवी भी शामिल था। ये कैसी स्वतंत्र पत्रकारिता है? जब आप किसी खास राजनैतिक दल के पक्ष में खड़े होंगे, उसके नेताओं के घोटालों को छिपायेंगे या लोकलाज के डर से उन्हें दिखायेंगे तो पर दबाकर दिखायेंगे। ऐसे में जाहिरन वो दल अगर सत्ता में हैं, तो आपको और आपके चैनल को हर तरह से मदद देकर मालामाल कर देगा। पर जिसके विरूद्ध आप इकतरफा अभियान चलायेंगे, वो भी जब सत्ता में आयेगा, तो बदला लेने से चूकेगा नहीं। तब इसे आप पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर हमला नहीं कह सकते।



सोचने वाली बात ये है कि अगर कोई भी सरकार अपनी पर उतर आये और ये ठान ले कि उसे मीडियाकर्मियों के भ्रष्टाचार को उजागर करना है, तो क्या ये उसके लिए कोई मुश्किल काम होगा? क्योंकि काफी पत्रकारों की आर्थिक हैसियत पिछले दो दशकों में जिस अनुपात में बढ़ी है, वैसा केवल मेहनत के पैसे से होना संभव ही न था। जाहिर है कि बहुत कुछ ऐसा किया गया, जो अपराध या अनैतिकता की श्रेणी में आता है। पर उनके स्कूल के साथियों और गली-मौहल्ले के खिलाड़ी मित्रों को खूब पता होगा कि पत्रकार बनने से पहले उनकी माली हालत क्या थी और इतनी अकूत दौलत उनके पास कब से आई। ऐसे में अगर कभी कानून का फंदा उन्हें पकड़ ले तो वे इसेप्रेस की आजादी पर हमला’ कहकर शोर मचायेंगे। पर क्या इसे ‘प्रेस की आजादी पर हमला’ माना जा सकता है?



अगर हमारी पत्रकार बिरादरी इस बात का हिसाब जोड़े कि उसने नेताओं, अफसरों या व्यवसायिक घरानों की कितनी शराब पी, कितनी दावतें उड़ाई, कितने मुर्गे शहीद किये, उनसे कितने मंहगे उपहार लिए, तो इसका भी हिसाब चैकाने वाला होगा। प्रश्न है कि हमें उन लोगों का आतिथ्य स्वीकार ही क्यों करना चाहिए, जिनके आचरण पर निगेबानी करना हमारा धर्म है। मैं पत्रकारिता को कभी एक व्यवसायिक पेशा नहीं मानता, बल्कि समाज को जगाने का और उसके हक के लिए लड़ने का हथियार मानता रहा हूं। प्रलोभनों को स्वीकार कर हम अपनी पत्रकारिता से स्वयं ही समझौता कर लेते हैं। फिर हम प्रेस की आजादी पर सरकार का हमला कहकर शोर क्यों मचाते हैं



सत्ता के विरूद्ध अगर कोई संघर्ष कर रहा हो, तो उसे अपने दामन को साफ रखना होगा। तभी हमारी लड़ाई में नैतिक बल आयेगा। अन्यथा जहां हमारी नस कमजोर होगी, सत्ता उसे दबा देगी। पर ये बातें आज के दौर में खुलकर करना आत्मघाती होता है। मध्य युग के संत अब्दुल रहीम खानखाना कह गये हैं, ‘अब रहीम मुस्किल परी, बिगरे दोऊ काम। सांचे ते तौ जग नहीं, झूंठे मिले न राम’।। जो सच बोलूंगा, तो दुनिया मुझसे रूठेगी और झूंठ बोलूंगा तो भगवान रूठेंगे। फैसला मुझे करना है कि दुनिया को अपनाऊं या भगवान को। लोकतंत्र में प्रेस की आजादी पर सरकार का हमला एक निंदनीय कृत्य है। पर उसे प्रेस का हमला तभी माना जाना चाहिए जबकि हमले का शिकार मीडिया घराना वास्तव में निष्पक्ष सम्पादकीय नीति अपनाता हो और उसकी सफलता के पीछे कोई बड़ा अनैतिक कृत्य न छिपा हो।


Monday, January 2, 2017

मोदी का विकल्प क्या है?




इसमें शक नहीं की मोदी की शख्सियत ने राजनीति और मीडिया के दायरों को बुरी तरह हिला दिया है | दूसरी तरफ देश की आम जनता इस उम्मीद में बैठी है कि मोदी की नीतियाँ उनके दिन बदल देंगीं, यानी उनके अच्छे दिन आने वाले हैं | ये वो जमात है जिसे आजतक हर प्रधान मंत्री ने सपने दिखाए | पंडित  नेहरु ने योजना बद्ध विकास की बात की तो इंदिरा गाँधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया | राजीव गांधी ने इक्कीसवीं सदी में ले जाने का सपना दिखाया  तो विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भ्रष्टाचार मिटाने का | मतलब यह कि हर बार आम जनता सपने देखती रह गई और उसकी झोली में इंतज़ार के सिवा कुछ ऐसा न  गिरा जो उसकी जिंदगी बदल देता | अब नरेंद्र भाई मोदी की बारी है | समय बतायेगा कि वे आम जनता को कब तक और कैसी राहत देना चाहते हैं | तब तक इंतज़ार करना होगा|

एक दूसरी जमात है जिनके पिछले 69 सालों में अच्छे दिन चल रहे थे, उन्हें मोदी से जरूर निराशा हुई है | ये वो जमात है जिन्होने सरकार को टैक्स देना कभी जरूरी नहीं समझा, जबकि ये लोग साल भर में हर शहर में हज़ारों करोड़ रूपये का व्यापार कर रहे थे | एक समुदाय विशेष तो ऐसा है कि जिसके इलाके में अगर कोई आयकर या बिक्रीकर अधिकारी गलती से भी घुस जाय तो उसकी जमकर धुनाई होती थी | कई सरकारों ने इस जमात को हमेशा अपने दामाद की तरह समझा | उनकी जा और बेजा हर बात को बर्दाश्त किया, चंद वोटों की खातिर |

अच्छे दिनों को जीती आई इसी जमात में देश के राजनेता और नौकरशाही भी आते हैं,  जिन्होंने आम जनता को लूट कर आज तक बहुत अच्छे दिन देखे हैं | पर ये जमात अभी मोदी जी के काबू में नही आयी है | नोटबंदी की इन पर कोई मार नहीं पड़ी | जबकि आम जनता हर तकलीफ सह लेगी अगर उसे लगे कि इस जमात के भी नकेल पड़ी है |

इसके बावजूद अगर लोग देश में सुविधाओं के अभाव का तो रोना रोते रहें और देश के सुधार के लिए कर भी न देना चाहें तो कैसे सुधरेंगे देश के हालात ? इसलिए मोदी सरकार का कर के मामले में कड़े और प्रभावी कदम उठाना निहायत ही जरूरी है | दबी ज़बान से तो अब व्यापारी वर्ग भी यह मानने लगा है कि अगर उचित दर पर कर देकर उसका बकाया धन ‘सफेद’ हो जाय तो उसकी स्थिति आज से बेहतर हो जाएगी |

पर इस बात पर भी देश में आम राय है कि पूरा भारतीय समाज अभी डिजिटल होने के लिए तैयार नहीं है | हालंकि जैसा हमने पिछले कॉलम में लिखा था कि अगर मोदी मुस्तफा कमाल पाशा की तरह कमर कस लें तो शायद वे कामयाब हो सकते हैं |

पर इसके साथ ही नौकरशाही के प्रति प्रधान मंत्री मोदी के अगाध प्रेम को लेकर भी समझदार लोगों में भारी चिंता है | जिस नौकरशाही ने पिछले 69 वर्षों में अपना रवैय्या नहीं बदला, तो वह रातों रात कैसे बदलेगी ? अगर वेतनभोगी नौकरशाही इतनी ही ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ होती तो भारत आज तक जाने किस उंचाई तक पहुंच गया होता ? इसलिए मोदी जी के शुभचिंतकों की सलाह है कि वे किसी भी वर्ग के प्रति इतने आश्वस्त न हों | बल्कि वैकल्पिक विचार और नीति निर्धारण व क्रियान्वन के लिए नौकरशाही के दायरे के बाहर निकलें और अपने-अपने क्षेत्र में स्वयंसिद्ध लोगों को नीति और योजना बनाने के काम में जोड़ें, जिससे बदलाव आये और संतुलन बना रहे | इसके साथ ही मोदी जी के मित्रों की एक सलाह और भी है कि मोदी जी धमकाने की भाषा कंजूसी से प्रयोग करें और देश को आश्वस्त करें कि उनका उद्देश्य कारोबारों को नष्ट करना या धीमा करना नहीं है, बल्कि ऐसे हालात पैदा करना है जिसमे छोटे से छोटा उद्द्यामी और व्यापारी सम्मान के साथ जी सके । पर इस दिशा में अभी कुछ भी ठोस नहीं हुआ है |

मगध साम्राज्य का मौर्य राजा अशोक, भेष बदल कर, बिना सुरक्षा के देश के किसी भी हिस्से में पहुँच जाता था और अपने शासन के बारे में जनता की बेबाक राय जानने की कोशिश करता था| जिससे उसकी नीतियाँ जनता के हित में हों | मोदी जी को भी अपने शुभचिंतकों के मन से यह भय निकलना पड़ेगा कि अगर वे अप्रिय सत्य भी बोलते हैं तो मोदी जी उनका सम्मान करेंगे |

जिन समस्याओं से देश आज गुजर रहा है | जिस तरह का अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य है उसमे भारत को एक मजबूत नेत्तृत्व की जरूरत है | मोदी जी उस कमी को पूरा करते हैं | इसलिए लोगों को उनसे उम्मीदें हैं | केंद्र और प्रान्त के स्तर पर दलों के भीतर जैसी उठा-पटक आज हो रही है | उसमें क्या किसी दल के पास मोदी से बेहतर विकल्प उपलब्ध है ? भाई-भतीजावाद और सरकारी साधनों की लूट से ग्रस्त ये दल मोदी का कैसे मुकाबला कर सकते हैं ? जिसकी ‘जोरू न जाता-राम जी से नाता’| मोदी जी को अपने बेटे-बेटी के लिए न तो आर्थिक साम्राज्य की विरासत छोडनी है और न ही राजनैतिक विरासत | जो कुछ करना है वह अपने जीवन काल में ही करना है। बेशक इंसान से गलतियाँ हो सकती हैं, पर तभी तो वो इंसान है, वरना भगवान न बन जाता| आज जरूरत इस बात की है कि मोदी जी दो सीढ़ी नीचे उतर कर सही लोगों के साथ देश हित में सम्वाद कायम करें और उस आधार पर नीतियां बनाएं| उधर उनके आलोचकों को भी समझना चाहिए जो उर्जा वे मोदी का मजाक उड़ने में या उनकी कमियां निकालने में लगाते हैं, उसे अगर ठोस सुझाव देने में लगाएं और वो  सुझाव सुने जाएँ, ऐसा माहोल बनाये तो देश का ज्यादा भला होगा |