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Monday, January 2, 2017

मोदी का विकल्प क्या है?




इसमें शक नहीं की मोदी की शख्सियत ने राजनीति और मीडिया के दायरों को बुरी तरह हिला दिया है | दूसरी तरफ देश की आम जनता इस उम्मीद में बैठी है कि मोदी की नीतियाँ उनके दिन बदल देंगीं, यानी उनके अच्छे दिन आने वाले हैं | ये वो जमात है जिसे आजतक हर प्रधान मंत्री ने सपने दिखाए | पंडित  नेहरु ने योजना बद्ध विकास की बात की तो इंदिरा गाँधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया | राजीव गांधी ने इक्कीसवीं सदी में ले जाने का सपना दिखाया  तो विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भ्रष्टाचार मिटाने का | मतलब यह कि हर बार आम जनता सपने देखती रह गई और उसकी झोली में इंतज़ार के सिवा कुछ ऐसा न  गिरा जो उसकी जिंदगी बदल देता | अब नरेंद्र भाई मोदी की बारी है | समय बतायेगा कि वे आम जनता को कब तक और कैसी राहत देना चाहते हैं | तब तक इंतज़ार करना होगा|

एक दूसरी जमात है जिनके पिछले 69 सालों में अच्छे दिन चल रहे थे, उन्हें मोदी से जरूर निराशा हुई है | ये वो जमात है जिन्होने सरकार को टैक्स देना कभी जरूरी नहीं समझा, जबकि ये लोग साल भर में हर शहर में हज़ारों करोड़ रूपये का व्यापार कर रहे थे | एक समुदाय विशेष तो ऐसा है कि जिसके इलाके में अगर कोई आयकर या बिक्रीकर अधिकारी गलती से भी घुस जाय तो उसकी जमकर धुनाई होती थी | कई सरकारों ने इस जमात को हमेशा अपने दामाद की तरह समझा | उनकी जा और बेजा हर बात को बर्दाश्त किया, चंद वोटों की खातिर |

अच्छे दिनों को जीती आई इसी जमात में देश के राजनेता और नौकरशाही भी आते हैं,  जिन्होंने आम जनता को लूट कर आज तक बहुत अच्छे दिन देखे हैं | पर ये जमात अभी मोदी जी के काबू में नही आयी है | नोटबंदी की इन पर कोई मार नहीं पड़ी | जबकि आम जनता हर तकलीफ सह लेगी अगर उसे लगे कि इस जमात के भी नकेल पड़ी है |

इसके बावजूद अगर लोग देश में सुविधाओं के अभाव का तो रोना रोते रहें और देश के सुधार के लिए कर भी न देना चाहें तो कैसे सुधरेंगे देश के हालात ? इसलिए मोदी सरकार का कर के मामले में कड़े और प्रभावी कदम उठाना निहायत ही जरूरी है | दबी ज़बान से तो अब व्यापारी वर्ग भी यह मानने लगा है कि अगर उचित दर पर कर देकर उसका बकाया धन ‘सफेद’ हो जाय तो उसकी स्थिति आज से बेहतर हो जाएगी |

पर इस बात पर भी देश में आम राय है कि पूरा भारतीय समाज अभी डिजिटल होने के लिए तैयार नहीं है | हालंकि जैसा हमने पिछले कॉलम में लिखा था कि अगर मोदी मुस्तफा कमाल पाशा की तरह कमर कस लें तो शायद वे कामयाब हो सकते हैं |

पर इसके साथ ही नौकरशाही के प्रति प्रधान मंत्री मोदी के अगाध प्रेम को लेकर भी समझदार लोगों में भारी चिंता है | जिस नौकरशाही ने पिछले 69 वर्षों में अपना रवैय्या नहीं बदला, तो वह रातों रात कैसे बदलेगी ? अगर वेतनभोगी नौकरशाही इतनी ही ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ होती तो भारत आज तक जाने किस उंचाई तक पहुंच गया होता ? इसलिए मोदी जी के शुभचिंतकों की सलाह है कि वे किसी भी वर्ग के प्रति इतने आश्वस्त न हों | बल्कि वैकल्पिक विचार और नीति निर्धारण व क्रियान्वन के लिए नौकरशाही के दायरे के बाहर निकलें और अपने-अपने क्षेत्र में स्वयंसिद्ध लोगों को नीति और योजना बनाने के काम में जोड़ें, जिससे बदलाव आये और संतुलन बना रहे | इसके साथ ही मोदी जी के मित्रों की एक सलाह और भी है कि मोदी जी धमकाने की भाषा कंजूसी से प्रयोग करें और देश को आश्वस्त करें कि उनका उद्देश्य कारोबारों को नष्ट करना या धीमा करना नहीं है, बल्कि ऐसे हालात पैदा करना है जिसमे छोटे से छोटा उद्द्यामी और व्यापारी सम्मान के साथ जी सके । पर इस दिशा में अभी कुछ भी ठोस नहीं हुआ है |

मगध साम्राज्य का मौर्य राजा अशोक, भेष बदल कर, बिना सुरक्षा के देश के किसी भी हिस्से में पहुँच जाता था और अपने शासन के बारे में जनता की बेबाक राय जानने की कोशिश करता था| जिससे उसकी नीतियाँ जनता के हित में हों | मोदी जी को भी अपने शुभचिंतकों के मन से यह भय निकलना पड़ेगा कि अगर वे अप्रिय सत्य भी बोलते हैं तो मोदी जी उनका सम्मान करेंगे |

जिन समस्याओं से देश आज गुजर रहा है | जिस तरह का अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य है उसमे भारत को एक मजबूत नेत्तृत्व की जरूरत है | मोदी जी उस कमी को पूरा करते हैं | इसलिए लोगों को उनसे उम्मीदें हैं | केंद्र और प्रान्त के स्तर पर दलों के भीतर जैसी उठा-पटक आज हो रही है | उसमें क्या किसी दल के पास मोदी से बेहतर विकल्प उपलब्ध है ? भाई-भतीजावाद और सरकारी साधनों की लूट से ग्रस्त ये दल मोदी का कैसे मुकाबला कर सकते हैं ? जिसकी ‘जोरू न जाता-राम जी से नाता’| मोदी जी को अपने बेटे-बेटी के लिए न तो आर्थिक साम्राज्य की विरासत छोडनी है और न ही राजनैतिक विरासत | जो कुछ करना है वह अपने जीवन काल में ही करना है। बेशक इंसान से गलतियाँ हो सकती हैं, पर तभी तो वो इंसान है, वरना भगवान न बन जाता| आज जरूरत इस बात की है कि मोदी जी दो सीढ़ी नीचे उतर कर सही लोगों के साथ देश हित में सम्वाद कायम करें और उस आधार पर नीतियां बनाएं| उधर उनके आलोचकों को भी समझना चाहिए जो उर्जा वे मोदी का मजाक उड़ने में या उनकी कमियां निकालने में लगाते हैं, उसे अगर ठोस सुझाव देने में लगाएं और वो  सुझाव सुने जाएँ, ऐसा माहोल बनाये तो देश का ज्यादा भला होगा |

Monday, December 12, 2016

भारत सुंदर कैसे बने?



नोटबंदी में मीडिया ऐसा उलझा है कि दूसरे मुद्दों पर बात ही नहीं हो रही। प्रधानमंत्री नरेन्द मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान बड़े जोर-शोर से शुरू किया था। देश की हर मशहूर हस्ती झाडू लेकर सड़क पर उतर गयी थी। पर आज क्या हो रहा है? क्या देश साफ हुआ ? दूर दराज की छोड़िये देश की राजधानी दिल्ली के हर इलाके में कूड़े के पहाड खड़े हैं, चाहे वह खानपुर-बदरपुर का इलाका हो या नारायण का, रोहिणी का हो, वसंत कुञ्ज का या उत्तरी व पूर्वी दिल्ली के क्षेत्र। जहां चले जाओ सड़कों के  किनारे कूड़े के ढेर लगे पडे हैं। यही हाल बाकी देश का भी है। रेलवे के प्लेटफार्म हों, बस अड्डे हों, बाजार हों या रिहायशी बस्तियां सब ओर कूड़े का साम्राज्य फैला पड़ा है। कौन सुध लेगा इसकी ? कहाँ गयी वो मशहूर हस्तियां जो झाड़ू लेकर फोटो खिंचवा रही थीं ?

प्रधानमंत्री का यह विचार और प्रयास सराहनीय है। क्योंकि सफाई हर गरीब और अमीर के लिए फायदे का सौदा है। गंदगी कहीं भी सबको बीमार करती है। भारतीय समाज में एक बुराई रही कि हमने सफाई का काम एक वर्ण विशेष पर छोड़ दिया। बाकी के तीन वर्ण गंदगी करने के लिए स्वतंत्र जीवन जीते रहे। नतीजा ये कि सफाई करना हम अपनी तौहीन मानते हैं । यही कारण है कि अपना घर तो हम साफ कर लेते हैं, पर दरवाजे के सामने का कूड़ा साफ करने में हमारी नाक कटती है। नतीजतन हमारे बच्चे जिस परिवेश में खेलते हैं, वो उनकी सेहत के लिए अच्छा नहीं होता। हम जब अपने घर, दफ्तर या दुकान पर आते-जाते हैं तो गंदगी से बच-बचकर चलना पड़ता है।  फिर भी हमें अपने कर्तव्य का एहसास क्यों नहीं होता ?

इसका कारण यह है कि हम भेड़ प्रवृत्ति के लोग हैं। अगर कोई डंडा मारे तो हम चल पड़ते है। जिधर हाँके उधर चल पडते हैं। इसलिए स्वच्छ भारत अभियान की विफलता का दोष भी मैं नरेन्द भाई मोदी पर ही थोपना चाहता हूँ। क्योंकि अगर वो चाहें तो उनका यह सुंदर अभियान सफल हो सकता है।

नोट बंदी के मामले में नरेन्द्र भाई ने जिस तरह आम आदमी को समझाया है कि यह उसके फायदे का काम हो रहा है वह बेमिसाल है। आदमी लाइनों में धक्के खा रहा है और उसके काम रूक रहे हैं, फिर भी गीता ज्ञान की तरह यही कहता है कि जो हो रहा है अच्छा हो रहा है और जो आगे होगा वो भी अच्छा ही होगा। अगर नोट बंदी पर मोदी जी इतनी कुशलता से आम आदमी को अपनी बात समझा सकते हैं तो सफाई रखने के लिए क्यों नहीं प्रेरित करते?

मैने पहले भी एक बार लिखा है कि सप्ताह में एक दिन अचानक माननीय प्रधानमंत्री जी को देश के किसी भी हिस्से में, जहां वे उस दिन सफर कर रहे हों, औचक निरीक्षण करना चाहिए। गंदगी रखने वालों को वहीं सजा दें और खुद झाड़ू लेकर सफाई शुरू करवायें। अगर ऐसा वे हफ्ते में एक घंटा भी करते हैं, तो देश में सफाई रखने का एक माहौल बन जायेगा। हर ओर अधिकारियों में डर बना रहेगा कि पता नहीं कब और कहां प्रधानमंत्री आ धमकें ।  जनता में भी उत्साह बना रहेगा कि वो सफाई अभियान में बढ-चढकर भाग ले।

देश में लाखों सरकारी मुलाजिम सेवानिवृत्त होकर पेशन ले रहे हैं। उन्हें अपने -अपने क्षेत्र की सफाई के लिए जिम्मेदार ठहराना चाहिए। इसी तरह सभी स्कूल, कालेजों को अपने परिवेश की सफाई पर ध्यान देने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए। मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारों को भी ये आदेश दिये जाने चाहिए कि वे अपने परिवेश को अपने खर्च पर साफ रखें। अन्यथा उनको मिलने वाली आयकर की छूट खत्म कर दी जायेगी। इसी तरह हर संस्थान को चाहे वो वकीलों का संगठन हो, चाहे व्यापार मंडल और चाहे कोई अन्य कामगार संगठन सबको अपनी परिवेश की सफाई के लिए जिम्मेदार ठहराना होगा। सफाई न रखने पर सजा का और साफ रखने पर प्रोत्साहन का प्रावधान भी होना चाहिए। इस तरह शुरू में जब लगातार डंडा चलेगा तब जाकर लोगों की आदत बदलेगी।

इसके साथ ही जरूरी है कचरे के निस्तारण की माकूल व्यवस्था। इसकी आज भारी कमी है। देश-दुनिया में ठोस कचरा निस्तारण के विशेषज्ञों की  भरमार है। जिन्हें इस समस्या के हल पर लगा देना चाहिए। इसके साथ ही प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड-चाहे वो केन्द्र के हों या राज्यों के, उन्हें सक्रिय करने की जरूरत है। आज वे भारी भ्रष्टाचार से ग्रस्त हैं, इसलिए अपने कर्तव्यों का निर्वाहन नहीं करते। नदियों का प्रदूषण उनकी ही लापरवाही के कारण ही हो रहा है। वरना मौजूदा कानूनों में इतना दम है कि कोई नदी, तालाब या धरती को इतनी बेदर्दी से प्रदूषित नहीं कर सकता।

इसलिए प्रधानमंत्री जी हर विभागाध्यक्ष को सफाई के लिए जिम्मेदार ठहरायें और सेवा निवृत्त कर्मचारियों और छात्रों को निगरानी के लिए सक्रिय करें। तभी यह अभियान सिरे चढ सकता है। जिसका लाभ हर भारतवासी को मिलेगा और फिर सुंदर आत्मा वाला ये देश, सुदर शरीर वाला भी बन जायेगा।

Monday, December 5, 2016

नोटबंदी दूसरे नजरिये से








70 के दशक में जब कुकिंग गैस का परिचय ग्रहणियों को मिला तो हर घर में एक बहस चल पड़ी कि इस गैस के चूल्हे पर खाना बनाना चाहिए या नहीं।बहुमत इसके पक्ष में था कि दाल-सब्जी तो भले ही पका लो, पर रोटी मत सेंकना। क्योंकि रोटी में जहरीली गैस चली जायेगी। पर बाद में जब ग्रहणियों को गैस पर खाना बनाने में सुविधा महसूस हुई तो इसे हर घर ने इसे अपना लिया । यह बात दूसरी है कि चूल्हे पर या तंदूर में सिकी रोटी का स्वाद गैस पर सिकी रोटी से  बेहतर होता है। पर शहरों में चूल्हे जलाना संभव नहीं होता।

1980 में जब रिचर्ड एटनबरो महात्मा गांधी पर फिल्म बनाने भारत आए तो गांधीवादियों ने सड़कों पर उनके खिलाफ प्रदर्शन किए। उनका सवाल था कि कोई अंग्रेज ये काम क्यों करे ? बाद में उसी फिल्म ने विश्वभर की नयी पीढी को गांधी जी से परिचित करवाया। फिल्म की खूब तारीफ हुई।

1985 में जब प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कम्प्यूटर क्रांति लाकर 21 वीं सदी में जाने की बात की तो भाजपा सहित सारे विपक्ष ने देशभर में तूफान मचा दिया और राजीव गांधी का खूब मजाक उड़ाया। आज गांव -गांव में हर नौजवान को कम्प्यूटर हासिल करने की ललक रहती है। कम्प्यूटर के आने से बहुत से क्षेत्रों में कार्यकुशलता सैकड़ों गुना बढ़ गयी है। इसी तरह जब संजय गांधी मारूति कार का विचार लेकर आये तो उनका भी खूब मजाक उड़ाया गया। बाद में उसी कार ने आटोमोबाईल्स उद्योग में क्रांति कर दी।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नोटबंदी को भी इसी परिपेक्ष में देखा जाना चाहिए। जो लोग आज विरोध कर रहे है, बहुत संभव है कि वही लोग कल इसका गुणगान करें। नोटबंदी के आर्थिक पहलुओं और बैंको के मायाजाल पर पिछले दो हफ्तों में इसी कालम में मैं दो लेख लिख चुका हूं। पर आज बात दूसरे नजरिये से कर रहा हूँ । मान लें कि मोदी जी का सपना सच हो जाए और भारत के लोग नकद पैसे का इस्तेमाल 92 फीसदी से घटाकर 20 फीसदी तक भी ले आयें, तो कितना बड़ा फायदा होगा, इस पर भी विचार कर लिया जाए।

आज जब मजदूर महानगरों से अपनी मेहनत की कमाई अंटी में खोसकर गांव जाते हैं, तो रेल गाड़ियों में लूट लिए जाते हैं। पर कल जब वे डिजिटल सुविधाओं का प्रयोग करना सीख जायेंगे तो महानगरों से खाली हाथ गांव जायेगें और अपने गांव के बैंकों से पैसा निकाल कर घरवालों को दे आयेंगे। हम शहरी लोगों को तो इससे बहुत सुविधा होगी जब बिना पैसा जेब में रखे हर काम कर सकेंगे। चाहे कहीं खाना हो, आना-जाना हो और चाहे कुछ खरीदना हो, सब कुछ बिना नकद के लेनदेन के हो जायेगा। हिसाब हर वक्त उपलब्ध रहेगा। मोदी जी ठीक कह रहे हैं कि इससे कारोबार में सबको ही बहुत सुविधा हो जायेगी। ग्रामीण अंचलों को छोड़कर।

12 वर्ष पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने मुझ पर वृंदावन के सुप्रसिद्ध बांकेबिहारी मंदिर और गोवर्धन के दानघाटी मंदिर के रिसीवर की मानद जिम्मेदारी सौंपी। उन दिनों मुझे यह जानकर बहुत अचम्भा हुआ कि मथुरा जनपद में ज्यादातर व्यापार कच्ची पर्ची से होता है। इससे मुझे बहुत परेशानी हुई और मैने जोर देकर कहा कि हमारे मंदिरों में जो सप्लाई आयेगी वह उन्हीं दुकानों से आयेगी जो पक्का बिल देंगे और चैक से भुगतान लेंगे। शुरू में मुझे अपने ही प्रबंधको का विरोध सहना पड़ा। पर सख्ती करने पर यह व्यवस्था जम गयी। वहां एक मंदिर में तो कर्मचारियों को वेतन तक नकद में मिलता था। उन्होंने मुझसे शिकायत की कि वेतन देने वाला कुछ कमीशन काट लेता है। मुझे आश्चर्य हुआ कि जिस मंदिर के प्रांगण में ही स्टेट बैंक आफ इण्डिया की शाखा मौजूद है, उसमें कर्मचारियों के बैक अकाउंट आज तक क्यों नहीं खुले? 2003 में ही मैंने सबके अकाउंट खुलवाये और उनका वेतन सीधा उनके खाते में जमा होने लगा।

इसी तरह आजकल भगवान की लीलास्थलियों के जीर्णोद्धार का जो काम ब्रज में हम बड़े स्तर पर कर रहे हैं, उसमें भी यही दिक्कत आ रही है। सीमेंट की आपूर्ति करने वाला किसी और आईटम के नाम से बिल देना चाहता है। कारण यह बताता है कि वो उस वस्तु के विक्रय का अधिकृत डीलर नहीं है इसलिए दूसरी वस्तु के नाम से बिल  देता है। मैने इसे स्वीकार नहीं किया। क्योंकि साईट पर जरूरत है 100 ईटों की पर बिल में लिखा है 1000 ईंट। क्योंकि 900 ईंट की जगह तो सीमेंट आया है। तो हम अपने खाते में कैसें इस बात को सिद्ध करेंगे कि हमने 100 की जगह 1000 ईंट लगाई। सारा घालमेल हो जायेगा। पक्के बिलों और चैक के भुगतान से इस समस्या का हल हो जायेगा। जो खरीदो बेचो उसी का बिल बनाओ। इसी तरह टोल बैरियर हो या रोजमर्रा की खरीददारी, हमारी आधी उर्जा तो फुटकर मांगने और देने में निकल जाती है। अगर आनलाइन ट्रांस्फर होगा तो चिल्लर की जरूरत ही नही पड़ेगी।

तुर्की के राष्ट्रपति मुस्तफा कमाल पाशा ने जब दकियानुसी तुर्क समाज को आधुनिक बनाने की कोशिश की तो उनका भारी विरोध हुआ। वे चाहते थे कि उनके कबिलाई समाज अरबी- फारसी की लिपि को छोड़कर अंग्रेजी सीख जायें और दुनिया से जुड़ जाये। लड़कियां लड़के साथ-साथ पढ़ें। उनके शिक्षा मंत्री ने कहा कि यह असंभव है कि निरक्षर जनता, खासकर महिलाएं बुर्के के बाहर आकर शिक्षा ग्रहण करें। मंत्री महोदय का आंकलन था कि इस काम में कई दशक लग जायेंगे। पर कमाल पाशा कहाँ मानने वाले थे। उन्होंने खुद ही गांव-गांव जाकर साक्षरता की क्लास लेना शुरू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि 2 वर्ष में ही तुर्की के लोग अंग्रेजी लिखने, पढ़ने और बोलने लगे। अगर सरकार समाज में  जरूरी 8 लाख करोड़ रूपये के नोट जल्दी जारी कर पाई, तभी यह योजना सफल हो पायेगी। इसके अलावा भी मोदी जी को जनता के बीच जाकर कमाल पाशा की तरह कुछ करना पड़ेगा। पुरानी कहावत है न कि ‘बिना मरे स्वर्ग नहीं दीखता।’ फिर चाहे स्वच्छता अभियान हो या बैंकिग प्रणाली का विस्तार, मोदी जी को इसे एक सतत आंदोलन के रूप में चलाना होगा। तभी देश बदलेगा।