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Monday, July 17, 2023

ईडी: कार्यपालिका पर न्यायपालिका की नज़र


प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के मौजूदा निदेशक संजय कुमार मिश्रा के कार्यकाल विस्तार को सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध ठहराया है। क्योंकि उनको तीन बार जो सेवा विस्तार दिया गया वो सर्वोच्च न्यायालय के 1997 के आदेश, ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार, सीवीसी एक्ट, दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट एक्ट व कॉमन कॉज़’ के फ़ैसले के विरुद्ध था। इन सब फ़ैसलों के अनुसार ईडी निदेशक का कार्यकाल केवल दो वर्ष का ही होना चाहिए। इस तरह लगातार सेवा विस्तार देने का उद्देश्य क्या था? इस सवाल के जवाब में भारत सरकार का पक्ष यह था कि श्री मिश्रा ‘वित्तीय कार्रवाई कार्य बल’ (एफ़एटीएफ़) में भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं इसलिए इनको सेवा विस्तार दिया जा रहा है। जबकि एफ़एटीएफ़ की वेबसाइट पर ईडी निदेशक का कोई कोई उल्लेख नहीं है। इस पर न्यायाधीशों की टिप्पणी थी कि क्या भारत में कोई दूसरा व्यक्ति इतना योग्य नहीं है जो ये काम कर सके? 



संजय कुमार मिश्रा की कार्य प्रणाली पर लगातार उँगलियाँ उठती रहीं हैं। उन्होंने जितने नोटिस भेजे, छापे डाले, गिरफ़्तारियाँ की या संपत्तियाँ ज़ब्त कीं वो सब विपक्ष के नेताओं के ख़िलाफ़ थीं। जबकि सत्तापक्ष के किसी नेता, विधायक, सांसद व मंत्री के ख़िलाफ़ कोई करवाई नहीं की। इससे भी ज़्यादा विवाद का विषय यह था कि विपक्ष के जिन नेताओं ने ईडी की ऐसी करवाई से डर कर भाजपा का दामन थाम लिया, उनके विरुद्ध आगे की करवाई फ़ौरन रोक दी गई। ये निहायत अनैतिक कृत्य था। जिसका विपक्षी नेताओं ने तो विरोध किया ही, देश-विदेश में भी ग़लत संदेश गया। सोशल मीडिया पर भाजपा को ‘वाशिंग पाउडर’ कह कर मज़ाक़ बनाया गया। अगर श्री मिश्रा निष्पक्ष व्यवहार करते तो भी उनके कार्यकाल का विस्तार अवैध ही था, पर फिर इतनी उँगलियाँ नहीं उठतीं। इन्हीं सब कारणों से सुप्रीम कोर्ट ने उनके सेवा विस्तार को अवैध करार दिया और भारत सरकार को निर्देश दिया कि वो 31 जुलाई 2023 तक ईडी के नये निदेशक को नियुक्त कर दें। इसे देश-विदेश में एक बड़ा फ़ैसला माना गया है। हालाँकि सेवा विस्तार के सरकारी अध्यादेश को निर्धारित प्रक्रिया के तहत पालन करने की छूट भी भारत सरकार को दी गई। मनमाने ढंग से अब सरकार ये सेवा विस्तार नहीं दे सकती। 



सर्वोच्च न्यायालय के इस फ़ैसले का देश की नौकरशाही ने बहुत स्वागत किया है। उनकी इस भावना का वैध कारण भी है। कोई भी व्यक्ति जब आईएएस, आईपीएस या आईआरएस की नौकरी शुरू करता है तो उसे इस बात उम्मीद होती है कि अपने सेवा काल के अंत में, वरिष्ठता के क्रम से, अगर संभव हुआ तो वो सर्वोच्च पद तक पहुँचेगा। परंतु जब एक ही व्यक्ति को इस तरह बार-बार सेवा विस्तार दिया जाता है तो उसके बाद के बैच के अधिकारी ऐसे पदों पर पहुँचने से वंचित रह जाते हैं। जिससे पूरी नौकरशाही में हताशा फैलती है। यह सही है कि ऐसे महत्वपूर्ण पदों पर किस व्यक्ति को तैनात करना है, ये फ़ैसला प्रधान मंत्री की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय नियुक्ति समिति करती है। पर इसके लिए भी कुछ नियम और प्रक्रिया निर्धारित हैं। जैसे इस समिति को विचारार्थ संभावित उम्मीदवारों की जो सूची भेजी जाती है उसे केंद्रीय सतर्कता आयोग छान-बीन करके तैयार करता है। लेकिन हर सरकार अपने प्रति वफादार अफ़सरों को तैनात करने की लालसा में कभी-कभी इन नियमों की अवहेलना करने का प्रयास करती है। इसी तरह के संभावित हस्तक्षेप को रोकने के लिए दिसंबर 1997 में जैन हवाला कांड के मशहूर फ़ैसले में विस्तृत निर्देश दिये गये थे। 



इन निर्देशों की अवहेलना, जैसे अब मोदी सरकार ने की है वैसे ही 2014 में मनमोहन सिंह सरकार ने भी की थी। जब उसने तमिलनाडु की पुलिस महानिदेशक अर्चना रामासुंदरम को पिछले दरवाज़े से ला कर सीबीआई का विशेष निदेशक नियुक्त कर दिया था। इस बार की ही तरह 2014 में भी मैंने इस अवैध नियुक्ति को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। मेरी उस याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने अर्चना रामासुंदरम की नियुक्ति को ख़ारिज कर दिया था। 


उधर गृह मंत्री अमित शाह ने ईडी वाले मामले में फ़ैसला आते ही ट्विटर पर बयान दिया कि विपक्षी दल ख़ुशी न मनाएँ क्योंकि भ्रष्टाचार के विरुद्ध ईडी की मुहिम जारी रहेगी। उनका ये बयान स्वागत योग्य है यदि ईडी की ये मुहिम बिना भेद-भाव के सत्तापक्ष और विपक्ष के संदेहास्पद लोगों के ख़िलाफ़ जारी रहती है। जहां तक मेरा प्रश्न है मेरा कभी कोई राजनैतिक उद्देश्य नहीं रहता। चूँकि सीबीआई, सीवीसी, ईडी आदि को अधिकतम स्वायत्तता दिलवाने में मेरी भी अहम भूमिका रही थी। इसलिए जब भी कोई सरकार ऐसे मामलों में क़ानून के विरुद्ध कुछ करती है तो मैं उसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देना अपना कर्तव्य समझता हूँ।



सर्वोच्च न्यायालय के इस फ़ैसले से उत्साहित हो कर देश के मीडिया में एक बहस चल पड़ी है कि अगर सर्वोच्च न्यायालय ने संजय कुमार मिश्रा के कार्यकाल के विस्तार को अवैध माना है तो श्री मिश्रा द्वारा इस दौरान लिये गये सभी निर्णय भी अवैध क्यों न माने जाएँ? इस तरह के सुझाव मुझे भी देश भर से मिल रहे हैं कि मैं इस मामले में फिर से सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाऊँ। फ़िलहाल मुझे इसकी ज़रूरत महसूस नहीं हो रही। कारण, सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ फ़ैसले में पहले से ही इस बात का सुझाव है कि ईडी व सीबीआई के कार्यकलापों की एक नोडल एजेंसी द्वारा हर महीने समीक्षा की जाएगी। इस समिति की अध्यक्षता, भारत के गृह सचिव करेंगे। जिनके अलावा इसमें सीबीडीटी के सदस्य (इन्वेस्टीगेशन), महानिदेशक राजस्व इंटेलिजेंस, ईडी व सीबीआई के निदेशक रहेंगे, विशेषकर जिन मामलों में नेताओं और अफ़सरों के आपराधिक गठजोड़ के आरोप हों। ये नोडल एजेंसी हर महीने ऐसे मामलों का मूल्यांकन करेगी। अगर सर्वोच्च न्यायालय के इस सुझाव को सरकार अहमियत देती है तो ऐसे विवाद खड़े ही नहीं होंगे। ईडी और सीबीआई दो सबसे महत्वपूर्ण जाँच एजेंसियाँ हैं जिनकी साख धूमिल नहीं होनी चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हर सरकार इन एजेंसियों का दुरुपयोग करने की कोशिश करती हैं। पर इससे सरकार और ये एजेंसियाँ नाहक विवादों में घिरते रहते हैं और हर अगली सरकार फिर पिछली सरकार के विरुद्ध बदले की भावना से काम करती है, जो नहीं होना चाहिए।
    

Monday, June 5, 2023

बालासोर हादसे से सबक


रेल मंत्री अश्वनी वैष्णव ने बालासोर के बेहद खौफ़नाक रेल हादसे के एक दिन पहले टीवी के जरिये जनता को बताया था कि मोदी सरकार ने भारतीय रेल का कायाकल्प कर दिया है। उन्होंने यह भी दावा किया कि ट्रेन दुर्घटनाओं को टालने के लिए मोदी सरकार ने विश्व की सबसे आधुनिक सुरक्षा प्रणाली ‘कवच’ को लागू कर दिया है। हकीकत यह है कि इस तकनीक को लागू करने का फ़ैसला मनमोहन सिंह की सरकार ने 2012 में ले लिया था। तब इसका नाम ‘ट्रेफिक कोलिजन अवोइडेंस सिस्टम’ था। पुरानी योजनाओं के नाम बदलकर उन्हें अपनी नई योजना बताकर लागू करने में माहिर भाजपा सरकार ने 2022 में उसी योजना को ‘कवच’ के नाम से लागू किया। प्रश्न है कि पिछले 9 वर्ष से केंद्र सरकार इस सुरक्षा प्रणाली पर कुंडली मारे क्यों बैठी थी ?


‘कवच’ वह तकनीक है जिसे लागू करने के बाद पटरियों पर दौड़ती रेलगाड़ी किसी दुर्घटना के अंदेशे से 400 मीटर पहले ही अपने आप रुक जाती है। शुरू में इसे दिल्ली-मुंबई और दिल्ली-हावड़ा के रूट पर लागू किया गया और दावा किया गया कि मोदी सरकार के ‘मिशन रफ़्तार’ के तहत 160 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ़्तार से दौड़ने वाली रेलगाड़ी अपने आप रुक जाएगी। उल्लेखनीय है कि इस तकनीक का परिक्षण करने के लिए रेल मंत्री अश्वनी वैष्णव ने अपनी जान को जोखिम में डाला और पिछले साल मार्च में सिकंदराबाद में इंजन ड्राईवर के साथ बैठे और इस तकनीक का सफल परीक्षण किया। जिसमें आमने-सामने से आती दो रेलगाड़ियों पर इसे परखा गया था। रेल मंत्री ने बालासोर के दुखद हादसे से कुछ घंटे पहले ही दिल्ली में रेल मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों  को संबोधित करते हुए ‘कवच’ के परीक्षण का विडियो भी दिखाया। उन्होंने रेल अधिकारियों से सभी प्रमुख रेल गाड़ियों की गति को 160 किलोमीटर तक बढ़ाने की अपील की। जिससे प्रधान मंत्री मोदी का ‘मिशन रफ़्तार’ गति पकड़ सके।



पर अनहोनी को कौन टाल सकता है? बालासोर में जो हादसा हुआ उसमें एक नही, तीन-तीन ट्रेनें आपस में भिड़ीं। ऐसा हादसा दुनिया की रेल दुर्घटनाओं में होने वाले हादसों में शायद पहले कभी नहीं हुआ। उल्लेखनीय है कि इस रूट पर ‘कवच’ को अभी लागू नही किया गया था। इस हादसे में सैकड़ों लोग अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए और हजार से ज्यादा गंभीर रूप से घायल हुए। राहत और बचाव कार्य करने वाले लोग दुर्घटना स्थल को देखकर दहल गए। क्योंकि उनके सामने चारों तरफ लाशों का अम्बार लगा था। रेलगाड़ी की कई बोगियां तो पूरी तरह पलट गईं, जिनके पहिये ऊपर और छत जमीन पर आ गई थी।



काल के आगे किसी का बस नहीं चलता। कहते हैं जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु की घड़ी भी पूर्व निर्धारित होती है। इसलिए जिन परिवारों ने अपनों को खो दिया है उनके प्रति पूरे देश की सहानुभूति है। सरकार से उम्मीद है कि वह जो भी कर सके वो सब इन परिवारों के लिए करे। मगर यहाँ एक गंभीर प्रश्न खड़ा होता है कि क्या हम रेल यात्रा के मामले में अपनी क्षमता से अधिक हासिल करने का प्रयास तो नही कर रहे? 11 करोड़ लोग भारतीय रेल में सफ़र करते हैं। मालगाड़ी की जगह यात्री सेवाओं पर कहीं ज्यादा खर्च आता है। क्योंकि यात्रियों की अपेक्षाएँ बहुत ज्यादा होती हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि संपन्न वर्ग अब रेल यात्रा की जगह हवाई यात्रा को प्राथमिकता देता है। जबकि आम आदमी, विशेषकर मजदूर वर्ग के लिए रेल यात्रा ही एक मात्र विकल्प है। काम की तलाश में मजदूर देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में आते-जाते रहते हैं। इन्हें 5 सितारा चमक-धमक की बजाय पेय-जल, शौचालय और वेटिंग हाल जैसी बुनियादी सुविधाओं से ही संतोष हो जाता है। ऐसे में सरकार का रेलवे स्टेशनों और रेलगाड़ियों को 5 सितारा संस्कृति से सुसज्जित करना बड़ी प्राथमिकता नहीं होना चाहिए। अभी तो देश को अपने सीमित संसाधनों को आम जनता के स्वास्थ्य व शिक्षा पर खर्च करने की ज़रूरत है।



मोदी जी हमेशा बड़े सपने देखते हैं। वे ‘मिशन रफ़्तार’ को सभी प्रमुख रेल गाड़ियों पर लागू करना चाहते हैं। सत्ता में आते ही उन्होंने ‘बुलट ट्रेन’ का भी सपना दिखाया था। जो अभी धरातल पर नही उतर पाया है। हमारे देश की जमीनी हकीकत यह है कि हम जापान और चीन की तरह न तो अपने कार्य के प्रति ईमानदारी से समर्पित हैं और न ही अनुशासित हैं। परिणामत: सरकार की तमाम महत्वाकांक्षी योजनाएँ लागू होने से पहले ही विफल हो जाती हैं। यहाँ अगर उज्जैन के महाकाल का उदाहरण लें तो अनुचित न होगा। छ: महीने पहले 856 करोड़ रूपये से हुआ मंदिर का सौंदर्यीकरण एक ही आंधी में धराशायी हो गया। ऐसे तमाम उदाहरण हैं जब मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए बड़ी-बड़ी योजनाओं को जल्दबाज़ी में, बिना गुणवत्ता का ध्यान रखे, लागू किया गया और वे जल्दी ही अपनी अकुशलता का सबूत देने लगीं। इसलिए रेल विभाग को नई तकनीकी और 5 सितारा संस्कृति अपनाने में जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए। ऐसा न हो ‘आधी छोड़ सारी को धावे, आधी मिले न पूरी पावे।’


अंतिम प्रश्न है कि क्या रेल मंत्री अश्वनी वैष्णव को 1956 में तत्कालीन रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री का अनुसरण करते हुए, बालासोर की दुखद दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए व विपक्ष की मांग का सम्मान करते हुए अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए? मैं इसका समर्थक नहीं हूँ। क्योंकि आज की राजनीति में न तो राजनीतिज्ञों के नैतिक मूल्यों का शास्त्री जी के समय जैसा उच्च नैतिक स्तर बचा है और न ही ऐसे इस्तीफों से किसी मंत्रालय की दशा सुधरती है। बजाय इस्तीफा मांगने के मैं रेल मंत्री को सुझाव देना चाहता हूँ कि वे अपनी प्राथमिकताओं, क्षमताओं, उपलब्ध संसाधनों और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के करोड़ों रेल यात्रियों की सुविधा का ध्यान रखकर निर्णय लें। जो मौजूदा ढांचा रेल मंत्रालय का है उसमें यथा संभव सुधार की कोशिश करें और अपने विभाग से भ्रष्टाचार को ख़त्म करें और कार्य कुशलता को बढ़ाएं। वही बालासोर के इस हादसे में मारे गए रेल यात्रियों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

Monday, May 15, 2023

बचाओ - बचाओ भेड़िया आया !


भारत की सनातन वैदिक संस्कृति अनेक अर्थों में विश्व की सर्वश्रेष्ठ संस्कृति है। क्योंकि ये व्यक्ति, पर्यावरण व समाज के बीच संतुलन पर आधारित जीवन मूल्यों की स्थापना करती है। भारत विश्व गुरु था इसके तमाम ऐतिहासिक प्रमाण हैं जिन्हें हज़ारों वर्षों से भारत आने वाले विदेशी पर्यटकों ने अपने लेखन में उल्लेख किया है। विसंगतियां भी हर समाज में होती हैं। भारत इसका अपवाद नहीं है। यह भी सही है कि अंग्रेज इतिहासकारों और आज़ादी के बाद वामपंथी इतिहासकारों ने ऐतिहासिक तथ्यों को अपनी विचारधारा के अनुरूप तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया। इसलिए सनातनी मानसिकता के लोगों के मन में ये बात हमेशा से बैठी रही कि उनके इतिहास के साथ न्याय नहीं हुआ। अचानक 2014 से ये दबी भावनाएँ अब मुखर हो गईं हैं।



अपने धर्म, संस्कृति और इतिहास की श्रेष्ठता को बताना और स्थापित करने में कोई बुराई नहीं है। ये किया ही जाना चाहिए। पर ऐसा करते समय उत्साह के अतिरेक में अगर हम तथ्यों से छेड़छाड़ करेंगे, अपने विपक्षियों के ऊपर हमला करते समय उनकी उपलब्धियों को वैसे ही छिपाएँगे जैसे वे करते आए हैं और उन पर झूठे आरोप मढ़ कर या उन्हें बदनाम करने की दृष्टि से उन पर हमला करेंगे, तो हमारी ये क़वायद सफल नहीं होगी। हम उपहास के पात्र बनेंगे। हमारे दावों की पुष्टि न हो पाने पर हम झूठे सिद्ध हो जाएँगे और फिर हमारी सही बात भी ग़लत कही जाएगी। आज के दौर में सूचना तकनीकी का इतना विस्तार हो गया है कि दुनिया के किसी भी कोने में बैठा व्यक्ति किसी भी दावे की वैधता को क्षणों में चुनौती दे सकता है, अगर वो दावा सत्य नहीं है। 


ट्विटर पर पोस्टों को खंगालते समय मेरी निगाह ‘सनातनी पूर्णिमा’ की इस पोस्ट पर अटक गई, जिसमें लिखा था, वियतनाम विश्व का एक छोटा सा देश है जिसने अमेरिका जैसे बड़े बलशाली देश को झुका दिया। लगभग बीस वर्षों तक चले युद्ध में अमेरिका पराजित हुआ। अमेरिका पर विजय के बाद वियतनाम के राष्ट्राध्यक्ष से एक पत्रकार ने एक सवाल पूछा... आप युद्ध कैसे जीते या अमेरिका को कैसे झुका दिया? उत्तर सुनकर आप हैरान रह जायेंगे और आपका सीना भी गर्व से भर जायेगा। उत्तर था, सभी देशों में सबसे शक्ति शाली देश अमेरिका को हराने के लिए मैंने एक महान व श्रेष्ठ भारतीय राजा का चरित्र पढ़ा और उस जीवनी से मिली प्रेरणा व युद्धनीति का प्रयोग कर हमने सरलता से विजय प्राप्त की। आगे पत्रकार ने पूछा, कौन थे वो महान राजा? वियतनाम के राष्ट्राध्यक्ष ने खड़े होकर जवाब दिया, वो थे भारत के राजस्थान में मेवाड़ के महाराजा महाराणा प्रताप सिंह (ये सिंह कबसे जुड़ गया?)। महाराणा प्रताप का नाम लेते समय उनकी आँखों में एक वीरता भरी चमक थी, आगे उन्होंने कहा, अगर ऐसे राजा ने हमारे देश में जन्म लिया होता तो हमने सारे विश्व पर राज किया होता। कुछ वर्षों के बाद उस राष्ट्राध्यक्ष की मृत्यु हुई तो जानिए उसने अपनी समाधि पर क्या लिखवाया, यह महाराणा प्रताप के एक शिष्य की समाधि है। कालांतर में वियतनाम के विदेशमंत्री भारत के दौरे पर आए थे। पूर्व नियोजित कार्य क्रमानुसार उन्हें पहले लाल किला व बाद में गांधीजी की समाधि दिखलाई गई। ये सब दिखलाते हुए उन्होंने पूछा मेवाड़ के महाराजा महाराणा प्रताप की समाधि कहाँ है? तब भारत सरकार के अधिकारी चकित रह गए, और उन्होंने वहाँ उदयपुर का उल्लेख किया। वियतनाम के विदेशमंत्री उदयपुर गये, वहाँ उन्होंने महाराणा प्रताप की समाधि के दर्शन किये। समाधि के दर्शन करने के बाद उन्होंने समाधि के पास की मिट्टी उठाई और उसे अपने बैग में भर लिया। इस पर पत्रकार ने मिट्टी रखने का कारण पूछा। उन विदेशमंत्री महोदय ने कहा ये मिट्टी शूरवीरों की है इस मिट्टी में एक महान् राजा ने जन्म लिया ये मिट्टी मैं अपने देश की मिट्टी में मिला दूंगा ताकि मेरे देश में भी ऐसे ही वीर पैदा हों। मेरा यह राजा केवल भारत का गर्व न होकर सम्पूर्ण विश्व का गर्व होना चाहिए। 



इस पोस्ट को पढ़ कर उत्साही लोगों ने बढ़-चढ़ कर हर्ष और गर्व अभिव्यक्त करना शुरू कर दिया। उत्सुकतावश मैंने भी गूगल पर जा कर जब खोज की तो पता चला कि जो सूचना दी गयी है उसमें वियतनाम के ऐसे किसी राष्ट्रपति का ज़िक्र नहीं है जो महाराणा प्रताप से प्रेरित रहा हो या उनका विदेश मंत्री उदयपुर गया हो। तब मैंने इस दावे के प्रमाण की माँग करते हुए अपनी प्रतिक्रिया लिखी। कुछ और खोज करने पर पता चला कि पिछले वर्ष ऐसा ही दावा छत्रपति शिवाजी महाराज के बारे में भी किया गया था। उसमें भी प्रमाण माँगने पर दावा करने वाला प्रमाण नहीं दे पाया। वियतनाम घूम कर आए एक व्यक्ति ने तो साफ़ लिखा कि वियतनाम में ऐसी किसी घटना की कोई जानकारी नहीं है। एक और व्यक्ति ने लिखा की वियतनाम के संघर्ष के नेता और लंबे समय तक वहाँ के प्रधान मंत्री रहे हो चि मिन्ह धुर वामपंथी थे और उनके किसी लेख या भाषण में महाराणा प्रताप या शिवाजी का कोई उल्लेख नहीं है। इससे तो यही सिद्ध होता है कि ये ‘ह्वाट्सऐप विश्वविद्यालय’ की ही खोज है जिसका तथ्यों से कोई लेना-देना नहीं है।



वियतनाम का तो ये एक उदाहरण है। अपने राजनैतिक विरोधियों की छवि नष्ट करने के लिए और उनकी उपलब्धियों को नकारने के लिए ऐसी पोस्ट सारा दिन दर्जनों की तादाद में आती रहती हैं। बिना उनकी सत्यता परखे समाज का एक हिस्सा उन्हें फॉरवर्ड करने में जुट जाता है। जिससे कुछ समय बाद झूठ सच लगने लगता है। पर जब कोई ऐसे मूर्खतापूर्ण व द्वेषपूर्ण दावों की पड़ताल करता है और उन्हें झूठा सिद्ध कर देता है तो सामने की तरफ़ सन्नाटा छ जाता है। न उत्तर दिया जाता है और न ही अपने अपराध के लिए क्षमा माँगी जाती है। ये सिलसिला यूँ ही चलता जा रहा है। समझ में नहीं आता कि सैंकड़ों करोड़ रुपये खर्च करके आईटी सेल चलाने वाले राजनैतिक संगठन या दल ऐसा झूठ फैला कर क्या हासिल करना चाहते हैं? इससे उनकी विश्वसनीयता तेज़ी से घटती जा रही है। वो दिन दूर नहीं जब ऐसा भ्रम फैलाने वालों की भी वही गति होगी जो उस भेड़ चराने वाले लड़के की हुई थी जो बार-बार झूठा शोर मचाता था, बचाओ-बचाओ भेड़िया आया

Monday, May 8, 2023

विवादों में न घिरें सरकारी जाँच एजेंसियाँ !


बीते शुक्रवार को किसी समय देश की सबसे बड़ी रही निजी एयरलाइन के यहाँ सीबीआई के छापे पड़े। जेट एयरवेज़ पर 538 करोड़ रुपये के बैंक घोटाले के आरोप के चलते ये छापे पड़े। पिछले कई महीनों से जेट एयरवेज़ के नए स्वामी जालान कार्लॉक समूह को लेकर काफ़ी विवाद भी चल रहा है। अब इन छापों से जेट एयरवेज़ के गड़े मुर्दे फिर से बाहर आने लग गए हैं। इसके साथ ही लंबित पड़ी शिकायतों पर बहुत देरी से कार्यवाही करने वाली जाँच करने वाली एजेंसियाँ भी सवालों के घेरे में आएँगी।


ऐसा नहीं है कि निजी क्षेत्र की सबसे बड़ी एयरलाइन जेट एयरवेज़ ने केवल बैंक घोटाला ही किया है। इस समूह ने देश के नागर विमानन क्षेत्र में अपनी दबंगई के चलते कई नियमों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाई और नागर विमानन मंत्रालय व अन्य मंत्रालयों ने आँखें बंद रखीं। 2014 से हमने जेट एयरवेज़ की तमाम गड़बड़ियों की सप्रमाण लिखित शिकायतें नागर विमानन मंत्रालय, डीजीसीए, गृह मंत्रालय, प्रधान मंत्री कार्यालय, सीवीसी और सीबीआई को दी। परंतु जेट एयरवेज़ के मालिक नरेश गोयल की ताक़त के चलते इन शिकायतों पर कछुए की चाल पर ही कार्यवाही हुई। आख़िरकार जब ये कंपनी दिवालिया हुई तो सभी शिकायतें भी ठंडे बस्ते में चली गयीं। परंतु आज जब सीबीआई ने बैंक घोटाले की शिकायत पर कार्यवाही शुरू की तो सवाल उठा कि केवल बैंक घोटाले पर ही जाँच क्यों? जेट एयरवेज़ पर नागर विमानन क़ानून की धज्जियाँ उड़ाना। सोने व विदेशी मुद्रा की तस्करी करना। अपनी कंपनी के खातों में गड़बड़ी करना। कंपनी की सुरक्षा जाँच को लेकर गड़बड़ी करना। ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से विदेशी नागरिक को अपनी कंपनी में उच्च पद पर रखना। बिना ज़रूरी इजाज़त के ग़ैर क़ानूनी ढंग से विमान को विदेश में उतारना। ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से विदेशों में बेनामी सम्पत्ति अर्जित करना। अप्रवासन क़ानून तोड़ कर ‘कबूतर बाज़ी’ करना। पायलटों को तय समय सीमा से अधिक उड़ान भरवा कर यात्रियों की जान से खेलना। इन मामलों पर जाँच कब होगी?          



प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री श्री अमित शाह व भाजपा के अन्य नेता गत 9 वर्षों से हर मंच पर पिछली सरकारों को भ्रष्ट और अपनी सरकारों को ईमानदार बताते आए हैं। मोदी जी दमख़म के साथ कहते हैं न खाऊँगा न खाने दूँगा। उनके इस दावे का प्रमाण यही होगा कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध जाँच करने वाली ये एजेंसियाँ सरकार के दख़ल से मुक्त रहें। अगर वे ऐसा नहीं करते तो विपक्ष द्वारा मौजूदा सरकार की नीयत पर शक होना निराधार नहीं होगा।       


जहां तक जाँच एजेंसियों की बात है दिसम्बर 1997 के सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ के फ़ैसले के तहत सरकार की श्रेष्ठ जाँच एजेंसियों को निष्पक्ष व स्वायत्त बनाने की मंशा से काफ़ी बदलाव लाने वाले निर्देश दिये गये थे। इसी फ़ैसले की तहत इन पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया पर भी विस्तृत निर्देश दिए गए थे। उद्देश्य था इन संवेदनशील जाँच एजेंसियों की अधिकतम स्वायत्ता को सुनिश्चित करना। इसकी ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि हमने 1993 में एक जनहित याचिका के माध्यम से सीबीआई की अकर्मण्यता पर सवाल खड़ा किया था। तमाम प्रमाणों के बावजूद सीबीआई हिज़बुल मुजाहिद्दीन की हवाला के ज़रिए हो रही दुबई और लंदन से फ़ंडिंग की जाँच को दो बरस से दबा कर बैठी थी। उसपर भारी राजनैतिक दबाव था। इस याचिका पर ही फ़ैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त आदेश जारी किए थे, जो बाद में क़ानून बने।


परंतु पिछले कुछ समय से ऐसा देखा गया है कि ये जाँच एजेंसियाँ सर्वोच्च न्यायालय के उस फ़ैसले की भावना की उपेक्षा कर कुछ चुनिंदा लोगों के ख़िलाफ़ ही कार्यवाही कर रही है। इतना ही नहीं इन एजेंसियों के निदेशकों की सेवा विस्तार देने के ताज़ा क़ानून ने तो सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की अनदेखी कर डाली। इस नए क़ानून से यह आशंका प्रबल होती है कि जो भी सरकार केंद्र में होगी वो इन अधिकारियों को तब तक सेवा विस्तार देगी जब तक वे उसके इशारे पर नाचेंगे। क्या शायद इसीलिए यह महत्वपूर्ण जाँच एजेंसियाँ सरकार की ब्लैकमेलिंग का शिकार बन रही हैं? 



केंद्र में जो भी सरकार रही हो उस पर इन जाँच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगता रहा है। पर मौजूदा सरकार पर विपक्ष द्वारा यह आरोप बार-बार लगातार लग रहा है कि वो अपने राजनैतिक प्रतीद्वंदियों या अपने विरुद्ध खबर छापने वाले मीडिया प्रथिष्ठानों के ख़िलाफ़ इन एजेंसियों का लगातार दुरुपयोग कर रही है। 


पर यहाँ सवाल सरकार की नीयत और ईमानदारी का है। सर्वोच्च न्यायालय का वो ऐतिहासिक फ़ैसला इन जाँच एजेंसियों को सरकार के शिकंजे से मुक्त करना था। जिससे वे बिना किसी दबाव या दख़ल के अपना काम कर सके। क्योंकि सीबीआई को सर्वोच्च अदालत ने भी ‘पिंजरे में बंद तोता’ कहा था। इसी फ़ैसले के तहत इन एजेंसियों के ऊपर निगरानी रखने का काम केंद्रीय सतर्कता आयोग को सौंपा गया था। यदि ये एजेंसियाँ अपना काम सही से नहीं कर रहीं तो सीवीसी के पास ऐसा अधिकार है कि वो अपनी मासिक रिपोर्ट में जाँच एजेंसियों की ख़ामियों का उल्लेख करे। 


हमारा व्यक्तिगत अनुभव भी यही रहा है कि पिछले इन 9 वर्षों में हमने सरकारी या सार्वजनिक उपक्रमों के बड़े स्तर के भ्रष्टाचार के विरुद्ध सप्रमाण कई शिकायतें सीबीआई व सीवीसी में दर्ज कराई हैं। पर उन पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। जबकि पहले ऐसा नहीं होता था। इन एजेंसियों को स्वायत्ता दिलाने में हमारी भूमिका का सम्मान करके, हमारी शिकायतों पर तुरंत कार्यवाही होती थी। हमने जो भी मामले उठाए उनमें कोई राजनैतिक एजेंडा नहीं रहा है। जो भी जनहित में उचित लगा उसे उठाया। ये बात हर बड़ा राजनेता जनता है और इसलिए जिनके विरुद्ध हमने अदालतों में लम्बी लड़ाई लड़ी वे भी हमारी निष्पक्षता व पारदर्शिता का सम्मान करते हैं। यही लोकतंत्र है। मौजूदा सरकार को भी इतनी उदारता दिखानी चाहिए कि अगर उसके किसी मंत्रालय या विभाग के विरुद्ध सप्रमाण भ्रष्टाचार की शिकायत आती है तो उसकी निष्पक्ष जाँच होने दी जाए। शिकायतकर्ता को अपना शत्रु नहीं बल्कि शुभचिंतक माना जाए। क्योंकि संत कह गए हैं कि, ‘निंदक नियरे  राखिए, आंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।’  

 

मामला कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष पर लगे आरोपों का हो, केजरीवाल सरकार के शराब घोटाले का हो, नीरव मोदी विजय माल्या जैसे भगोड़ों का हो या किसी भी अन्य घोटाले का हो, जाँच एजेंसियों का निष्पक्ष होना बहुत महत्वपूर्ण है। जानता के बीच ऐसा संदेश जाना चाहिए कि जाँच एजेंसियाँ अपना काम स्वायत्त और निष्पक्ष रूप से कर रहीं हैं। किसी भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा चाहे वो किसी भी विचारधारा या राजनैतिक दल का समर्थक क्यों न हो। क़ानून अपना काम क़ानून के दायरे में ही करेगा।

Monday, April 3, 2023

भ्रष्टाचार से जंग का शंखनाद : मोदी



संसद में हुए ताज़ा विवाद के संदर्भ में एक न्यूज़ चैनल के कॉन्क्लेव में बोलते हुए प्रधान मंत्री श्री मोदी ने कहा कि आजकल की सुर्ख़ियाँ क्या होती है? भ्रष्टाचार के मामलों में एक्शन के कारण भयभीत भ्रष्टाचारी लामबंद हुए, सड़कों पर उतरे। इसके साथ ही उन्होंने भाजपा के मंत्रियों, सांसदों व कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए यह भी कहा, आज कुछ दलों ने मिलकर 'भ्रष्टाचारी बचाओ अभियान' छेड़ा हुआ है। आज भ्रष्टाचार में लिप्त जितने भी चेहरे हैं, वो सब एक साथ एक मंच पर आ रहे हैं। पूरा देश ये सब देख रहा है, समझ रहा है। दरअसल प्रधान मंत्री का इशारा भ्रष्टाचार के मामलों पर जाँच एजेंसियों द्वारा की गई कार्यवाही पर था। मोदी जी भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ कर देश भर में ये संदेश देना चाहते हैं कि वे अपने वायदे के मुताबिक़ भारत को भ्रष्टाचार मुक्त करना चाहते हैं। यह एक अच्छी बात है। 


भ्रष्टाचार से जनता हमेशा त्रस्त रहती है। इसलिए जब भी कोई नेता इस मुद्दे को उठाता है तो उसकी लोकप्रियता सातवें आसमान पर चढ़ जाती है। प्रधान मंत्री मोदी यदि भ्रष्टाचार के विरुद्ध कड़ा रुख़ अपनाएँगे तो दुनिया भर में सही संदेश जाएगा। परंतु उन्हें इस बात पर भी ज़ोर देना होगा कि भ्रष्टाचारी चाहे किसी भी दल का क्यों न हो उसे क़ानून के मुताबिक़ सज़ा ज़रूर मिलेगी। लेकिन अभी तक इसके प्रमाण नहीं मिले हैं। अब तक ईडी और सीबीआई ने जो भी कार्यवाही की हैं वो सब विपक्षी नेताओं के विरुद्ध और चुनावों के पहले की हैं। जबकि भाजपा और उसके सहयोगी दलों में भी तमाम ऐसे नेता हैं जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं या ईडी और सीबीआई में दर्जनों मामले लंबित हैं। इसलिए सभी विपक्षी दलों ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया है। मसलन  हिमन्त बिस्वा सरमा, कोनार्ड संगमा, नारायण राणे, प्रताप सार्निक, शूवेंदु अधिकारी, यशवंत व जामिनी जाधव व भावना गावली जैसे ‘चर्चित नेता’ जिनके विरुद्ध मोदी जी व अमित शाह जी चुनावी सभाओं में भ्रष्टाचार के संगीन आरोप लगाते थे, आज भाजपा में या उसके साथ सरकार चला रहे हैं। इसलिए यह ज़रूरी है कि जाँच एजेंसियां भी बिना पक्षपात या दबाव के अपना काम करें।

विपक्षी दलों की बात ही नहीं हमारे नई दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो से पिछले 8 साल में कितने ही मामलों में सीवीसी, ईडी, सीबीआई और पीएमओ को मय प्रमाण के भ्रष्टाचार के बड़े मामलों में अनेकों शिकायतें भेजी गई हैं, जिन पर बरसों से कोई कार्यवाही नहीं हुई, आख़िर क्यों? अभी हाल में गुजरात सरकार ने अपने  एक वीआईपी पायलट को निकाला है। इस पायलट की हज़ारों करोड़ की संपत्ति पकड़ी गई है। ये पायलट पिछले बीस वर्षों से गुजरात के मुख्य मंत्रियों के निकट रहा है। इस पायलट के भ्रष्टाचार को 2018 में हमने उजागर किया था। पर कार्यवाही 2023 में आ कर हुई। सवाल उठता है कि गुजरात के कई मुख्य मंत्रियों के कार्यकाल के दौरान जब यह पायलट घोटाले कर रहा था तभी इसे क्यों नहीं पकड़ा गया? ऐसे कौन से अधिकारी या नेता थे जिन्होंने इसकी करतूतों पर पर्दा डाला हुआ था? 

गुजरात के बाद अब बात करें उत्तर प्रदेश की। 29 जून 2020 और 20 जुलाई 2020 को मैंने इसी कॉलम में मुख्य मंत्री योगी जी के वीआईपी पाइलट कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा के भारी भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया था। इस पाइलट के परिवार की 200 से ज़्यादा ‘शैल कम्पनियों’ में हज़ारों करोड़ रुपया घूम रहा है। जिसे सप्रमाण दिल्ली में मेरे सहयोगी, कालचक्र समाचार ब्युरो के प्रबंधकीय सम्पादक रजनीश कपूर ने उजागर किया था। कपूर की शिकायत पर ही प्रवर्तन निदेशालय ने प्रज्ञेश मिश्रा के ख़िलाफ़ जाँच करने का नोटिस उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को 19 मई 2020 को जारी किया था। आश्चर्य है कि आज तक इसकी जाँच क्यों नहीं हुई? रजनीश कपूर ने उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल को भी इसकी जाँच न होने की लिखित शिकायत अप्रैल 2021 भेजी। राज्यपाल महोदया ने तुरंत 31 मई 2021 को उत्तर प्रदेश शासन को इस जाँच को करने के निदेश दिए। पर उस जाँच का क्या हुआ, आज तक नहीं पता चला। 

मैने भी ट्वीटर पर योगी जी का ध्यान कई बार इस ओर दिलाया है कि ये जाँच जानबूझकर दबाई जा रही है। उधर उत्तर प्रदेश शासन ने अपनी तरफ़ से आश्वस्त होने के लिए या कपूर का नैतिक बल परखने के लिए, उनसे शपथ पत्र भी लिया कि वे अपनी शिकायत पर क़ायम हैं और पूरी ज़िम्मेदारी से ये मामला जनहित में उठा रहे हैं। इसके बाद भी जाँच क्यों नहीं हुई ये चिंता का विषय है। अगर इन कम्पनियों में घूम रहे हज़ारों करोड़ रुपए का स्रोत कैप्टन प्रज्ञेश मिश्र या उनके परिवारजनों से कड़ाई से पूछा गया होता तो अब तक प्रदेश के कितने ही बड़े अफ़सर और नेता बेनक़ाब हो चुके होते। क्या इसीलिए उन्होंने इस जाँच को आज तक आगे नहीं बढ़ने दिया? 

ताज़ा मामला बहरूपिये किरण पटेल का है जो ख़ुद को प्रधान मंत्री कार्यालय का वरिष्ठ अधिकारी बता कर, जेड प्लस सुरक्षा लेकर कश्मीर जैसे संवेदनशील प्रदेश में अपने तीन प्रभावशाली साथियों के साथ घूमता रहा और अफ़सरों के साथ बैठकें करता रहा। किरण पटेल और इसके सहयोगी पिछले 20 बरस से गुजरात के मुख्य मंत्री आवास से जुड़े रहे हैं। जिनमें से एक के पिता का इस घटना के बाद निलंबन किया गया है। ये न सिर्फ़ देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ है बल्कि इसके पीछे कई तरह के भ्रष्टाचार के मामले जुड़े बताए जाते हैं। 

इसके अलावा जेट एयरवेज़, एनसीबी और ईडी से जुड़े कई और मामले हैं जिनकी शिकायत समय-समय पर हमने लिख कर और सबूत देकर जाँच एजेंसियों और प्रधान मंत्री कार्यालय से की हैं। पर किसी में कोई कार्यवाही नहीं हुई। ऐसे में ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि अगर मोदी जी वास्तव में देश को भ्रष्टाचार मुक्त करना चाहते हैं तो बिना भेद-भाव के इन सब बड़े आरोपियों के विरुद्ध निष्पक्ष जाँच होनी चाहिए। अन्यथा संदेश यही जाएगा कि प्रधान मंत्री केवल भाषणों तक ही अपने अभियान को सीमित रखना चाहते हैं, उसे ज़मीन पर उतरते नहीं देखना चाहते।  

Monday, February 13, 2023

भारतीयों को मॉरीशस क्यों प्रिय है?



अफ्रीकी महाद्वीप के दक्षिण-पूर्व तट से से लगभग 900 किलोमीटर दूर हिंद महासागर के तट पर और मेडागास्कर के पूर्व में स्थित द्वीपीय देश मॉरीशस भारतीयों के लिए काफ़ी आकर्षक स्थान है। अपने झील, झरनों, हरे भरे जंगलों व प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर मॉरीशस हर नवविवाहित जोड़े के लिए बरसों से हनीमून मनाने का स्थान बन हुआ है। परंतु क्या आप जानते हैं कि इसके अलावा भी एक कारण है जिसके लिये मॉरीशस भारतीयों को बहुत प्रिय है। 

सुंदर पर्यटक स्थल होने के कारण मॉरीशस में केवल हनीमून मनाने वाले पर्यटक ही नहीं आते। बल्कि ‘टैक्स हैवन’ के नाम से मशहूर इस छोटे से द्वीप पर हर उस व्यक्ति की नज़र बनी रहती है जो किसी न किसी तरह से भारत में आयकर की चोरी करना चाहता है। चूँकि भारत और मॉरीशस के बीच हुए ‘दोहरे करारोपण संधि’ के तहत भारतीय कंपनियां मॉरीशस की किसी कंपनी से समझौता कर भारत में एफडीआई के द्वारा निवेश करवा लेती हैं।इस निवेश को निवेशकों की भाषा में ‘मॉरीशस रूट’ कहा जाता है। भारत में ‘मॉरीशस रूट’ के तहत हुए निवेश पर कोई टैक्स नहीं देना होता। ऐसा करने से वे सभी कंपनियाँ जो भारत में निवेश करवाती हैं कैपिटल गेन्स टैक्स देने से बच जाती हैं। 


कई वर्ष पहले इंटरनेशनल कंसोर्टियम ऑफ इनवेस्टीगेटिव जर्नलिस्ट्स (आईसीआईजे) की एक रिपोर्ट सार्वजनिक हुई थी। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत की कई कंपनियों ने 1982 में हुए इस संधि का दुरुपयोग किया है। इस समझौते के मुताबिक भारतीय कंपनियों को मॉरीशस में टैक्स रेजीडेंसी की सुविधा मिल जाती है। जिस कारण वे  जीरो कैपिटल गेन्स वाली श्रेणी में आ जाती थीं। ज़ाहिर सी बात है कि ‘मॉरीशस रूट’ से अपना ही पैसा घुमा कर ये कंपनियाँ अपना निवेश वापिस भारत में ले आती हैं। इसी के चलते देश को करोड़ों के टैक्स का चूना लग जाता है। जबकि इस टैक्स के पैसे को देश के विकास कार्यों में लगाया जा सकता था। पर ऐसा नहीं हो रहा।  

‘मॉरीशस रूट’ हो या किसी अन्य ‘टैक्स हैवन’ देश से आने वाला निवेश, हमारे देश में ऐसा काफ़ी बड़ी मात्रा में हो रहा है। देश की कई नामी कंपनियाँ ऐसा कई बरसों से कर रही हैं। नियमों में इस कमी का फ़ायदा उठा कर ये लोग टैक्स चोरी कर देश में होने वाले विकास को पीछे धकेल रहे हैं। आम आदमी को सरकार द्वारा दी जाने वाली सुविधाएँ समय पर नहीं दी जाती तो इसके पीछे टैक्स में होने वाली चोरी ही मुख्य कारण होता है। सरकार चाहे केंद्र की हो या राज्य की, विकास कार्यों और सरकारी कर्मचारियों के वेतन के भुगतान के लिए टैक्स पर ही निर्भर करती है। यदि टैक्स में कमी आती है तो विकास कार्यों में भी बाधा आएगी।



‘मॉरीशस रूट’ से आने वाले निवेश केवल एफ़डीआई के ज़रिये ही नहीं होते। उद्योगपतियों के अलावा भ्रष्ट नेता व अफ़सर भी इसका फ़ायदा उठाते हैं। ये लोग भ्रष्टाचार के द्वारा कमाये गये अपने काले धन को हवाला के ज़रिये विदेशों में स्थित मॉरीशस जैसे ‘टैक्स हैवन’ देशों में भेजते हैं। वहाँ पर कुछ शैल कंपनियों की मदद से उसी पैसे को कुछ चुनिंदा कंपनियों के शेयरों को मन-माने दाम पर ख़रीदवाते हैं। भारत की कंपनियों के शेयरों का बढ़े हुए दाम पर बिकना शेयर मार्केट में अच्छा माना जाता है। यदि ऐसा नियमों के दायरों में हो तो ये सही होता है। परंतु ‘मॉरीशस रूट’ से होने वाले ऐसे निवेश नियम क़ानून की धज्जियाँ उड़ा कर होते हैं। जैसे ही किसी कंपनी के शेयर का दाम बढ़ता है, देश के भोले-भाले छोटे व मध्यम निवेशक भी मुनाफ़ा कमाने की नियत से इसमें निवेश करते हैं। परंतु असल में उस कंपनी के शेयर की असल क़ीमत इससे काफ़ी कम होती है। 



मिसाल के तौर पर देश के एक राज्य के पूर्व मुख्य मंत्री के बेटे की एक ठंडी पड़ी कंपनी के 10 रुपये प्रति शेयर को देश के एक भगोड़े ने 96,000 रुपये प्रति शेयर पर ख़रीदा। आरोप है कि ये अपने ही काले धन को घुमाकर किया गया। इसकी जाँच के लिये दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका भी दायर की गई। कोर्ट ने प्रवर्तन निदेशालय को नोटिस दे कर इसकी जाँच के आदेश भी दिये। परंतु जाँच को लंबा खींचने और ढुलमुल रवैये अपनाने से इस मामले की जड़ तक नहीं पहुँचा जा सका। ज़ाहिर है कि ऐसा होने पर लोगों का जाँच एजेंसियों पर से भरोसा भी डगमगाने लगता है। इसलिए जब भी कभी ऐसा विवाद खड़ा हो तो मामले की सघन जाँच होना ज़रूरी हो जाता है। 


ऐसे में अपनी ‘योग्यता’ के लिए प्रसिद्ध देश की प्रमुख जाँच एजेंसियाँ शक के घेरे में आ जाती हैं। इन एजेंसियों पर विपक्ष द्वारा लगाए गए ‘ग़लत इस्तेमाल’ के आरोप सही लगते हैं। मामला चाहे छोटे घोटाले का हो या बड़े घोटाले का, एक ही अपराध के लिए दो मापदंड कैसे हो सकते हैं? यदि देश का आम आदमी या किसान बैंक द्वारा लिये गये ऋण चुकाने में असमर्थ होता है तो बैंक की शिकायत पर पुलिस या जाँच एजेंसियाँ तुरंत कड़ी कार्यवाही करती हैं। उसकी दयनीय दशा की परवाह न करके कुर्की तक कर डालती हैं। परंतु बड़े घोटालेबाजों के साथ ऐसी सख़्ती क्यों नहीं बरती जाती?

 

जैसा कि इस कॉलम में पहले भी लिख चुके हैं, घोटालों की जाँच कर रही एजेंसियों का निष्पक्ष होना बहुत ज़रूरी है। एक जैसे अपराध पर, आरोपी का रुतबा देखे बिना, अगर एक सामान कार्यवाही होती है तो जनता के बीच ऐसा संदेश जाता है कि जाँच एजेंसियाँ अपना काम स्वायत्तता और निष्पक्ष रूप से कर रहीं हैं। सिद्धांत ये होना चाहिये कि किसी भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा। चाहे वो किसी भी विचारधारा या राजनैतिक दल का समर्थक क्यों न हो। क़ानून अपना काम क़ानून के दायरे में ही करेगा। मॉरीशस जैसे प्राकृतिक ख़ूबसूरती के लिए जाने जाने वाले द्वीपों को पर्यटन के लिए ही जाना जाए न कि वित्तीय घोटालों में लिए जाने जाने वाले ‘मॉरीशस रूट’ जैसे अलंकारों के लिए।  

Monday, September 19, 2022

सिर्फ़ उत्सवों से भूख नहीं मिटती


1789-90 में फ़्रांस में जब लोग भूखे मर रहे तो वहाँ की रानी मैरी एटोनी का ध्यान लोगों की बदहाली की ओर दिलाया गया। तो ऐशों आराम में लिप्त रानी बोली इनके पास रोटी खाने को नहीं है तो ये लोग केक क्यों नहीं खाते ? 


हर देश के हुक्मरान अपने देश की जनता को सम्बोधित करते हुए हमेशा बात तो करते हैं जनसेवा की, विकास की और अपने त्याग की लेकिन वास्तव में उनका आचरण वही होता है जो फ़्रांस में लुई सोलह और मैरी एटोनी कर रहे थे। ये सब नेता जनता के दुःख दर्द से बेख़बर रहकर मौज मस्ती का जीवन जीते हैं। इतना महँगा जीवन जीते हैं कि इनके एक दिन के खर्चे के धन से एक गाँव हमेशा के लिए सुधर जाए। जबकि आज राजतंत्र नहीं लोकतंत्र है। पर लोकतंत्र में भी इनके ठाठ बाट किसी शहंशाह से कम नहीं होते। हाँ इसके अपवाद भी हैं। 



पर आज मीडिया से प्रचार करवाने का ज़माना है। इसलिये बिलकुल नाकारा, संवेदना शून्य, चरित्रहीन और भ्रष्ट नेता को भी मीडिया द्वारा महान बता दिया जाता है। हम सब जानते हैं कि गाय के दूध की छाछ, नीबू की शिंकजी, संतरे, मोसंबी, बेल या फ़ालसे का रस, लस्सी या ताज़ा गर्म दूध सेहत के लिये बहुत गुणकारी होता है। इनकी जगह जो आज देश में भारी मात्रा में बेचा और आम जनता द्वारा डट कर पिया जा रहा है वो हैं रंग बिरंगे ‘कोल्ड ड्रिंक्स’। जिनमें ताक़त के तत्व होना तो दूर शरीर को हानि पहुँचाने वाले रासायनिकों की भरमार होती है। फिर भी अगर आप किसी को समझाओ कि भैया ये कोल्ड ड्रिंक्स न पियो न पिलाओ, तो क्या वो आपकी बात मानेगा? कभी नहीं। क्योंकि विज्ञापन के मायाजाल ने उसका दिमाग़ कुंद कर दिया है। उसके सोचने, समझने और तर्क को स्वीकारने की शक्ति पंगु कर दी है। 


यही हाल नेताओं का भी होता है। जो मीडिया के मालिकों को मोटे फ़ायदे पहुँचाकर, पत्रकारों को रेवड़ी बाँट कर, दिन-रात अपना यशगान करवाते हैं। कुछ समय तक तो लोग भ्रम में पड़े रहते हैं और उसी नेता का गुणगान करते हैं। पर जब इन्हें ये एहसास होता है कि उन्हें कोरे आश्वासनों और वायदों के सिवाय कुछ नहीं मिला तो वे नींद से जागते हैं। पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। हालात बद से बदतर हो चुके होते हैं। फिर कोई नया मदारी आकर बंदर का खेल दिखाने लगता है और लोग उसकी तरफ़ आकर्षित हो जाते हैं। ये सिलसिला तब तक चलता है जब तक सच्चा लोकतंत्र नहीं आता। जब तक हर नागरिक और मीडिया अपने हुक्मरानों से कड़े सवाल पूछने शुरू नहीं करता। जब तक हर नागरिक मीडिया के प्रचार से हट कर अपने इर्दगिर्द के हालात पर नज़र नहीं डालता। 



विपक्षी दल सरकार को पूँजीपतियों का दलाल और जनता विरोधी बताते हैं। पर सच्चाई क्या है? कौनसा दल है जो पूँजीपतियों का दलाल नहीं है? कौनसा दल है जिसने सत्ता में आकर नागरिकों की आर्थिक प्रगति को अपनी प्राथमिकता माना हो? धनधान्य से भरपूर भारत का मेहनतकश आम आदमी आज अपने दुर्भाग्य के कारण नहीं बल्कि शासनतंत्र में लगातार चले आ रहे भ्रष्टाचार के कारण गरीब है। इन सब समस्याओं के मूल में है संवाद की कमी। जब तक सत्ता और जनता के बीच संवाद नहीं होगा तब तक गंभीर समस्याओं को नहीं सुलझाया जा सकता। इसलिए लगता है कि अब वो समय आ गया है कि जब दलों की दलदल से बाहर निकल कर लोकतंत्र को ज़मीनी स्तर पर मज़बूत किया जाए। जिसके लिए हमें 600 ई॰पू॰ भारतीय गणराज्यों से प्रेरणा लेनी होगी। जहां संवाद ही लोकतंत्र की सफलता की कुंजी था।  


देश के नेताओं के पास जब जनता को उपलब्धियों के नाम पर बताने को कुछ ठोस नहीं होता तो वे आये दिन रंग बिरंगे नए-नए उत्सव या कार्यक्रम आयोजित करवा कर जनता का ध्यान बटाते रहते हैं। इन कार्यक्रमों में गरीब देश की जनता का अरबों रुपया लगता है पर क्या इनके आयोजन से उसे भूख, बेरोज़गारी और मँहगाई से मुक्ति मिलती है? नहीं मिलती। उत्सव इंसान कब मनाता है जब उसका पेट भरा हो। 


आज हमारे देश को ही लें चारों ओर गंदगी का साम्राज्य बिखरा पड़ा है। करोड़ों देशवासी नारकीय स्थिति में, झुग्गी झोपड़ियों में, कीड़े-मकोड़ों की तरह ज़िंदगी जी रहे हैं। जब लोग मजबूर होते हैं तो नौकरी की तलाश में अपने गाँव को छोड़कर शहरों में बसने चले आते हैं। इससे वो गाँव तो उजड़ते ही हैं शहर भी नारकीय बन जाते हैं। 


सनातन धर्म में राजा से अपेक्षा की गयी है कि वो राजऋषि होगा। उसके चारों तरफ़ कितना ही वैभव क्यों न हो वो एक ऋषि की तरह त्याग और तपस्या का जीवन जिएगा। वो प्रजा को संतान की तरह पालेगा। खुद तकलीफ़ सहकर भी प्रजा को सुखी रखेगा। आज ऐसे कितने नेता आपकी नज़र में हैं? मीडिया के प्रचार से बचकर अपने सीने पर हाथ रखकर अगर ठीक से सोचा जाए तो एक भी नेता ऐसा नहीं मिलेगा। 75 वर्ष के आज़ाद भारत के इतिहास में कितने नेता हुए हैं जिनका जीवन लाल बहादुर शास्त्री जैसा सादा रहा हो? 


भगवान गीता में अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि ‘महाजनों येन गताः स पंथः’। महापुरुष जिस मार्ग पर चलते हैं वो अनुकरणीय बन जाता है। आज हमने नेताओं को ही महापुरुष मान लिया है। इसलिये उनके आचरण की नक़ल सब कर रहे हैं। फिर कहाँ मिलेगा त्याग-तपस्या का उदाहरण। हर ओर भोग का तांडव चल रहा है। फिर चाहे पर्यावरण का तेज़ी से विनाश हो, बेरोज़गारी व महंगाई चरम पर हो, शिक्षा के नाम पर वाट्सऐप विश्वविद्यालय चल रहे हों - तो देश तो बनेगा ही ‘महान’।


ज़रूरत है कि हम सब जागें, मीडिया पर निर्भर रहना और विश्वास करना बंद करें। अपने चारों ओर देखें कि क्या ख़ुशहाली आई है या नहीं? नहीं आई तो आवाज़ बुलंद करें। तब मिलेगा जनता को उसका हक़ और तब बनेगा भारत सोने की चिड़िया। केवल थोथे वायदों और प्रचार पर भरोसा करना बंद करें और अपने दिल और दिमाग़ से पूछें कि क्या देख रहे हो? तब नेता भी सुधरेंगे और देश भी। 

 

Monday, August 29, 2022

मुखरता के लिए मशहूर ‘जनता के जज’


जब भी कभी किसी के बीच कोई विवाद उठता है और वो लोग किसी नतीजे पर नहीं पहुँचते तो अदालत का रुख करते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जनता को न्यायालयों पर पूरा विश्वास है। परंतु भारत के न्यायतंत्र में लंबित मामलों की संख्‍या लगभग पांच करोड़ के पार चली गई है। हाल ही में देश के क़ानून मंत्री ने संसद में कहा कि यदि कोई जज 50 मामलों का निपटारा करता है तो 100 और नए मामले दर्ज हो जाते हैं। देश के न्यायालयों में जजों की संख्या कम है और मामलों की काफ़ी अधिक। ऐसे में न्याय मिलने के बजाय वादी को मिलती है तो सिर्फ़ एक नई तारीख़। 


कोविड महामारी ने दुनिया भर में ‘ऑनलाइन’ कार्य को काफ़ी बढ़ावा दिया और इससे संसाधनों की काफ़ी बचत भी हुई। शुक्रवार को रिटायर हुए देश के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एन वी रमना ने अपना पद सम्भालने के कुछ ही हफ़्तों में इस बात पर काफ़ी ज़ोर दिया था कि सर्वोच्च न्यायालय में होने वाली सुनवाई का सीधा प्रसारण किया जाना चाहिए। जस्टिस रमना के अनुसार ऐसा करना इसलिए उचित रहता क्योंकि अदालत में हुई सुनवाई जनता तक बिना किसी निहित स्वार्थ के सेंसर किए पहुँचती। उन्होंने मुकदमों की मीडिया रिपोर्टिंग पर सवाल उठाते हुए कहा था कि कई बार संदर्भ से हटकर खबरें छाप दी जाती हैं। इसलिए यदि कोर्ट की सुनवाई का सीधा प्रसारण किया जाए तो वो जनता के हित में ही होगा।  



आज तकनीक का कमाल है की हम घर बैठे आराम से शॉपिंग कर लेते हैं। कोविड महामारी के चलते जब कोर्ट में केवल ऑनलाइन सुनवाई हो रही थी तब कोर्ट की कार्यवाही नहीं रुकी बल्कि लोग अपने घरों से ही कोर्ट की सुनवाई में शामिल होते थे। ऐसे में अदालतों की सुनवाई यदि अधिक से अधिक ऑनलाइन तरीक़े से होती है तो इसके कई फ़ायदे होते हैं। यदि कोर्ट की सुनवाई का सीधा प्रसारण भी हो तो कोर्ट में फ़ालतू की भीड़ भी नहीं लगेगी। अदालत की कार्यवाही को कवर करने वाले पत्रकारों को भी इसका लाभ पहुँचेगा। किसी भी उच्च न्यायालय या उस न्यायालय में, जहां एक से अधिक कोर्ट रूम होते हैं, पत्रकारों की दिक्कत तब बढ़ जाती है जब एक से अधिक ख़ास मामले दो अलग-अलग कोर्ट में चल रहे होते हैं। यदि सुनवाई का सीधा प्रसारण हो और वो सुनवाई के बाद भी देखा जा सके तो सुनवाई की खबर लिखने में आसानी हो जाती है। इससे पहले राँची में एक भाषण के दौरान जस्टिस रमना ने कहा था कि न्याय से जुड़े मुद्दों पर गलत सूचना और एजेंडा चलाना स्वस्थ लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है।


तब मुख्य न्यायधीश जस्टिस रमना की इस पहल को सभी ने सराहा था। उनके कार्यकाल के आख़री दिन भारत के इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई का सीधा प्रसारण देखने को मिला। इस सुनवाई को एक ‘सेरिमोनियल बेंच’ का नाम दिया गया। इस सुनवाई में शुरुआती दौर में ज़रूरी मामलों की अगली तारीख़ तय करने संबंधित कार्यवाही हुई। इसके पश्चात न्यायमूर्ति एन वी रमना को अधिवक्ताओं द्वारा विदाई देने की प्रक्रिया शुरू हुई। 



सीधे प्रसारण में वकीलों से खचाखच भरी हुई कोर्ट नम्बर एक का नज़ारा देखने लायक़ था। कोर्ट रूम के अलावा कई वरिष्ठ अधिवक्ता ऑनलाइन रूप से भी जुड़े हुए थे। एक-एक करके कभी कोर्ट रूम से तो कभी ऑनलाइन मोड से सभी जस्टिस रमना को उनकी शानदार पारी के लिए बधाई दे रहे थे। विदाई देते हुए अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने कहा कि आपके रिटायरमेंट से हम एक बुद्धिजीवी और एक उत्कृष्ट न्यायाधीश खो रहे हैं। पूर्व केंद्रीय मंत्री व वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा कि आपने अपने परिवार के अलावा वकीलों और जजों के परिवारों का भी खास ख्याल रखा।


वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने जस्टिस रमना की कार्यशैली की तारीफ़ करते हुए उनके द्वारा लिए गए फ़ैसलों और उनके 16 महीने की अवधि दौरान अदालत के कामकाज में किये गये बड़े सुधारों के लिए भी याद किया। उन्होंने अपने कार्यकाल में जजों की रिक्त पदों को भरने का काम किया। उनके कार्यकाल में जिला अदालतों और हाई कोर्ट्स में जजों की संख्या में भी इजाफा किया गया। उन्होंने ‘जज-टू-पॉपुलेशन रेश्यो’ की बात की और कहा कि इसी तरीके से केस लोड को कम किया जा सकता है। एन वी रमना के कार्यकाल में 15 हाई कोर्ट्स के चीफ जस्टिस भी नियुक्त हुए हैं। 


अधिवक्ताओं के द्वारा दिए गए विदाई संदेशों में कई महिला वकीलों ने भी जस्टिस रमना को उनके द्वारा महिला वकीलों के लिए उठाए गए महत्वपूर्ण कदमों के लिए याद किया और आभार व्यक्त किया। मुख्य न्यायधीश की अदालत में उस समय एक भावुक माहौल बन गया जब वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे जस्टिस रमना को जनता का जज बताते हुए अपनी बात कहते-कहते रो पड़े। वे बोले, मैं आज अपनी भावनाओं को रोक नहीं रख सकता। आपने रीढ़ के साथ अपना कर्तव्य निभाया। आपने अधिकारों को बरकरार रखा, आपने संविधान को बरकरार रखा, आपने जांच और संतुलन की व्यवस्था बनाए रखी। मुझे बहुत संतोष है कि आपका आधिपत्य न्यायमूर्ति ललित के हाथों में अदालत छोड़ रहा है। हम आपको मिस करेंगे।  


मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने अपने कार्यकाल के दौरान 225 न्यायिक अफसरों और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति की सिफारिश भी की। जस्टिस रमना के कार्यकाल के दौरान सुप्रीम कोर्ट में 11 जजों की नियुक्ति की गई। इनमें महिला जज सुश्री बीवी नागरत्ना भी शामिल हैं। 2027 में वे देश की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश होंगी। जस्टिस रमना को उनकी मुखरता के लिए भी जाना जाएगा। उनके एक बयान की काफी चर्चा हुई थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि मैं नेता बनना चाहता था, लेकिन न्यायिक क्षेत्र में आ गया। अपने कार्यकाल में जस्टिस रमना के सामने कई अहम मामले आए जो सुर्ख़ियों में रहे। इनमें राजद्रोह मामला, बिलकिस बानो गैंगरेप मामला, पेगासस मामला, ईडी के निदेशक की सेवा विस्तार का मामला और शिवसेना पर अधिकार मामला आदि थे। आने वाले समय में यह देखना होगा जिन अहम मामलों की सुनवाई पूरी किए बिना जस्टिस रमना सेवानिवृत हो गए, उन पर भविष्य के मुख्य न्यायधीशों का क्या रुख़ रहता है।   

Monday, August 15, 2022

आरसीपी सिंह की असलियत


राजनीति के मौजूदा दौर में अनैतिकता का सवाल अपना महत्व खोता जा रहा है। इसकी बिल्कुल नई मिसाल बिहार में आरसीपी सिंह की राजनीति है। इस बात का जिक्र करना जरूरी है कि आरसीपी एक नौकरशाह रहे हैं। भारतीय लोकतंत्र के चारों स्तंभों के अपने अपने दायरे हैं। इस लिहाज से यह जरूर देखा जाना चाहिए कि नौकरशाह रहे आरसीपी क्या क्या करते रहे हैं और आखिर राजनीति की बिसात पर एक मोहरे के तौर पर बिहार में उन्होंने क्या कर डालने की कोशिश की और आखिरकार उसकी क्या परिणति हुई।

वैसे देश की मौजूदा राजनीति में नैतिकता को बेकार की चीज़ साबित किया जाने लगा है। लेकिन देश की राजनीति अगर पूरी तौर पर गर्त में नहीं जा पाई है तो इसका एक कारण यह ही माना जाता है कि भारतीय लोकतंत्र के 75 साल के इतिहास में न्यूनतम नैतिकता ने ही उसे बचाए रखा है। इसीलिए सभ्य राजनीतिक समाज में नैतिकता की बात करने वालों का अभी लोप नहीं हुआ है। देश में बहुतेरे लोग अभी भी हैं जो किसी भी कीमत पर हासिल की गई सफलता को जायज़ नहीं ठहराते। इसीलिए आरसीपी बनाम नीतीश कुमार प्रकरण में हर सभ्य नागरिक को तय करना पड़ेगा कि वह किसके पक्ष में खड़ा है। सभ्य समाज को सर्वमान्य लोकतंत्र के पक्ष में उसे  साक्ष्यों के साथ अपने तर्क देने पड़ेंगे। एक जिम्मेदार नागरिक की हैसियत से मेरी भी यह ज़िम्मेदारी है।


आरसीपी सिंह मेरे जेएनयू में सहपाठी रहे हैं। उस नाते वे निरतंर मेरे संपर्क में रहे। उत्तर प्रदेश काडर के आईएस आरसीपी को मैंने नीतीश के संपर्क में आते भी देखा है। जब नीतीश रेल मंत्री बने तो आरसीपी को उन्होंने अपना विशेष अधिकारी बनाया। ये बात यह समझने के लिए काफी है कि आरसीपी किस हद तक नीतीश के विश्वासपात्र रहे होंगे। यहां तक तो फिर भी साफ था लेकिन जब नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री हुए तो उन्होंने आरसीपी का उत्तर प्रदेश कैडर बदलवाकर बिहार बुलवा लिया। आरसीपी की विश्वासपात्रता की हद बताने के लिए मेरे पास एक व्यक्तिगत अनुभव भी है। जो यह बताने के लिए काफी है कि आरसीपी और नीतीश के बीच पारिवारिक प्रगाढता किस हद तक रही।

आरसीपी का मेरे पास फोन आया नीतीश की पत्नी मंजू जी और उनके बेटे निशांत और मंजू जी की मां वृंदावन तीर्थाटन पर आना चाहती हैं। आरसीपी ने मुझसे उनके वृंदावन प्रवास पर अपने घर ठहराने का अनुरोध किया। क्योंकि आरसीपी सिंह सपरिवार मेरे घर ठहरते रहे थे। तो मैंने उनका अनुरोध सहर्ष स्वीकार कर लिया। मंजु जी के साथ बिताए तीन दिन अच्छे रहे। लेकिन इससे मुझे यह अंदाजा हो गया कि नौकरशाह रहे आरसीपी और नीतीश के बीच विश्वास और सम्बन्धों का स्तर क्या है। बाद में तो जब आरसीपी को नीतीश ने अपने दल का राष्टीय अध्यक्ष तक बना दिया तो दोनों के बीच संबंधों को लेकर कोई शंका ही नहीं रह गई। 

अब अगर आरसीपी ने नीतीश के साथ जो व्यवहार किया उसे कोई विश्वासघात की पराकाष्ठा कहे तो बिल्कुल भी अतिश्योक्ति नहीं होगी।


बात यहीं खत्म नहीं होती। एक लोक सेवक होते हुए आरसीपी से नीतीश के चुनाव सम्बन्धी राजनीतिक कार्य में जिस तरह की खुलेआम हिस्सेदारी की थी वह खुद में अवैध और परले दर्जे की अनैतिकता कही जानी चाहिए। यह उसी तरह का मामला था जैसा पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए उनके सचिव यशपाल कपूर पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय में आरोप लगे थे। यहां तक कि एक समय आर के धवन को भी इंदिरा गांधी के साथ विश्वासघात के आरोपों से घेरा गया था। लेकिन वह भी इतिहास में दर्ज है कि यशपाल कपूर या आर के धवन ने आखिर साँस तक अपने उपर विश्वासघात का लांछन लगने नहीं दिया। लेकिन आरसीपी ने जो किया उसके लिए भारतीय इतिहास में सार्वकालिक अनेकों कुख्यात विश्वासघातियों को याद किया जा सकता है। 

यह भी सही है कि दोनों ने एक दूसरे का उपयोग किया। पर आरसीपी सिंह को अब लग रहा होगा कि वे शिखर पर पहुंच चुके हैं अब नीतिश से उन्हें कोई और उम्मीद नहीं है। आरसीपी पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद अब भाजपा की शरण में जाना उनकी मजबूरी है। नीतिश और भाजपा के संबंध अपनी जगह। इसी के मद्देनजर वे अब और आगे जाने के लिए भी भाजपा के करीब जाना चाहते होंगे। हो सकता है आरसीपी का लक्ष्य हासिल न हुआ हो और आगे बढ़ने के लिए नीतिश के साथ रहना उन्हें बाधा लग रही हो। नीतिश कुमार ने लालू और पिछली बार तेजस्वी के मामले में जो किया उसके आलोक में यह उनके कर्मों का फल ही है। वैसे देश की राजनीति में आरसीपी सिंह का कद ऐसा नहीं है कि दिल्ली में बैठकर उनकी चर्चा भी की जाए।

उधर नीतीश कुमार के दो दशकों के राजनीतिक इतिहास का विश्लेषण किया जाएगा तो उसकी भी आलोचनात्मक समीक्षा हो सकती है। बहुत से राजनीतिक समीक्षक उन्हें विकट परिस्थितियों के हवाले से बरी भी कर सकते हैं। लेकिन आरसीपी के विश्वासघात प्रकरण ने नीतीश के लिए जो सहानुभूति उपजाई है वह उन्हें अचानक भारी लाभ पहुंचा सकता है। खासतौर पर आने वाले डेढ दो साल में देश की राजनीति जिस तरह की करवट लेती दिख रही है उस लिहाज से बिहार के इस राजनीतिक कांड ने उथल पुथल मचा दी है। बेशक  निराशाजनक राजनीतिक माहौल में बदलाव की गुंजाइश पैदा हुई है। अगर नीतीश कुमार समय पर नहीं चेतते और मप्र कर्नाटक महाराष्ट और पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों की सरकारों की तरह गच्चा खा सकते थे। इस आधार पर कहा जा सकता है कि आरसीपी के विश्वासघात से सबक लेते हुए नीतीश कुमार ने सही समय पर फैसला कर लिया और इस निराशाजनक धारणा को गलत साबित कर दिया है कि आयाराम गयाराम की राजनीति से बचने का कोई उपाय नहीं है।

बहरहाल हद से ज्यादा मुश्किल दौर से गुज़र रही राजनीति में जहां देश का सभ्य समाज तटस्थ हो जाने में ही भलाई समझ रहा है वहां मुझे खुलकर यह कहने में बिल्कुल भी संकोच नहीं है कि नीतीश और आरसीपी प्रकरण में मैं नीतीश के पक्ष में खड़ा हूं।