जब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के ऐतिहासिक नगरों की विरासत बचाने के लिए विशेष पहल की है, तब से ऐसे शहरों में नए-नए प्रोजेक्ट बनाने के लिए नौकरशाही अति उत्साहित हो गई है। जबकि हकीकत यह है कि इन ऐतिहासिक नगरों के पतन का कारण प्रशासनिक लापरवाही और नासमझी रही है। पूरे देश में यही देखने में आता है कि जो भी अधिकारी ऐसे शहरों में तैनात किया जाता है, वह बिना किसी सलाह के अपनी सीमित बुद्धि से विकास या सौंदर्यीकरण के कारण शुरू करा देता है। अक्सर देखने में आया है कि ये सब कार्य काफी निम्नस्तर के होते हैं। इनमें कलात्मकता का नितांत अभाव होता है। इनका अपने परिवेश से कोई सामंजस्य नहीं होता। अजीब किस्म का विद्रूप विकास देखने में आता है। चाहे फिर वह भवन निर्माण हो, बगीचों की बाउंड्रीवाॅल हो, बिजली के खंभे हों या साइनेंज हो, किसी में भी स्थानीय संस्कृति की झलक दिखाई नहीं देती। इससे कलाप्रेमियों को भारी चोट लगती है। उन्हें लगता है कि विकास के नाम पर गौरवशाली परंपराओं का विनाश किया जा रहा है।
मुश्किल यह है कि कुर्सी पर बैठा आदमी अपनी बुद्धि को सर्वश्रेष्ठ मानता है। ऐसे सलाहकार नियुक्त कर लेता है कि जिन्हें पीडब्लूडी के क्वाटर और विरासत के भवनों के बीच कोई अंतर ही नजर नहीं आता। न तो उनमें कलात्मकता का बोध होता है और न दुनिया में ऐसी विरासतों को देखने का अनुभव। लिहाजा, जो भी परियोजना वह बनाकर देते हैं, उससे विरासत का संरक्षण होने की बजाए विनाश हो जाता है।
प्रधानमंत्री ने हृदय योजना की घोषणा की, तो प्रधानमंत्री की सोच यह है कि दकियानूसी दायरों से निकलकर नए तरीके से सोचा जाए और प्रमाणिक लोगों से योजनाएं बनवाई जाएं और काम करवाए जाएं। पर हो क्या रहा है कि वही नौकरशाही और वही सलाहकार देशभर में सक्रिय हो गए हैं, जो आज तक विरासत के विनाश के लिए जिम्मेदार रहे हैं। शहरी विकास मंत्रालय को सचेत रहकर इस प्रवृत्ति को रोकना होगा, जिससे यह नई नीति पल्लवित हो सके। इसकी असमय मृत्यु न हो जाए।
किसी भी विरासत को बचाने के लिए सबसे पहले जरूरत इस बात की होती है कि उस विरासत का सांस्कृतिक इतिहास जाना जाए। उसकी वास्तुकला को समझा जाए। उसमें से अवैध कब्जे हटाए जाएं। उस पर हो रहे भौड़े नवनिर्माण खत्म किए जाएं। उसकी परिधि को साफ करके हरा-भरा बनाया जाए और ऐसे योग्य लोगों की सलाह ली जाए, जो उस विरासत को उसके मूलरूप में लाने की क्षमता रखते हों। इसके लिए गैरपारंपरिक रवैया अपनाना होगा। पुरानी टेंडर की प्रक्रिया और सरकारी शर्तों का मकड़जाल कभी भी गुणवत्ता वाला कार्य नहीं होने देगा।
इसके साथ ही जरूरत इस बात की है कि देश में जितने भी आर्किटेक्चर के काॅलेज हैं, उनके शिक्षक और छात्र अपने परिवेश में बिखरी पड़ी सांस्कृतिक विरासतों को सूचीबद्ध करें और उनके विकास की योजनाएं बनाएं। इससे दो लाभ होंगे-एक तो भूमाािफयाओं की लालची निगाहों से विरासत को बचाया जा सकेगा, दूसरा जब उस विरासत पर गहन अध्ययन के बाद पूरी परियोजना तैयार होगी, तो जैसे ही साधन उपलब्ध हों, उसका संरक्षण करना आसान होगा। इसलिए बगैर इस बात का इंतजार किए कि संरक्षण का बजट कब मिलेगा, अध्ययन का काम तुरंत चालू हो जाना चाहिए।
कोई कितना भी जीर्णोद्धार या संरक्षण कर ले, तब तक विरासत नहीं बच सकती, जब तक स्थानीय युवा और नागरिक यह तय न कर लें कि उन्हें अपनी विरासत सजानी है, संवारनी है। अगर वो विरासत को बचाने के लिए राजी हो जाते हैं, तो उनमें बचपन से ही विरासत के प्रति सम्मान पैदा होगा। तभी हम आने वाली पीढ़ियों को एक विशाल विरासत सौंप पाएंगे। वरना सबकुछ धीरे-धीरे काल के गाल में समाता जा रहा है।
अक्सर लोग कहते हैं कि सरकार के साथ काम करना मुश्किल होता है। पर ब्रज में जीर्णोद्धार के जो कार्य पिछले 10 वर्षों में हमने किए हैं, उसमें अनेक उत्साही युवा जिलाधिकारियों का हमें भरपूर सहयोग मिला है और इससे हमारी यह धारणा दृढ़ हुई है कि प्रशासन और निजी क्षेत्र यदि एक-सी दृष्टि अपना लें और एक-दूसरे के विरोधी न होकर पूरक बन जाएं, तो इलाके की दिशा परिवर्तन तेजी से हो सकती है। विरासत बचाना मात्र इसलिए जरूरी नहीं कि उसमें हमारा इतिहास छिपा है, बल्कि इसलिए भी जरूरी है कि विरासत को देखकर नई पीढ़ी बहुत सा ज्ञान अर्जित करती है। इसके साथ ही विरासत बचने से पर्यटन बढ़ता है और उसके साथ रोजगार बढ़ता है। इसलिए ये केवल कलाप्रेमियों का विषय नहीं, बल्कि आमजनता के लाभ का विषय है।