Monday, May 21, 2018

सर्वोच्च न्यायालय व संवैधानिक संस्थाऐं

पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय में जो कुछ हो रहा था उससे देश की न्यायपालिका ही नहीं बल्कि हर जागरूक नागरिक चिंतित था। जब सर्वोच्च न्यायालय ने कर्नाटक में चैबीस घंटे की समय सीमा बांधकर विश्वास मत हासिल करने का आदेश दे दिया, तो उसकी हर ओर सराहना हो रही है। कर्नाटक के राज्यपाल वजुभाई रादुभाई वाला ने भाजपा को शपथ दिलाकर, अपने विवेक का सही प्रयोग नहीं किया। ये बात भी आज देश में चर्चा का विषय बनी हुई है। उधर तीन दिन की भाजपा सरकार के अल्प मत में होने के कारण इस्तीफा देने पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का संवाददाता सम्मेलन में गुबार फूटना क्या जायज नहीं है? क्योंकि उन्हें लग रहा था कि वे एक बार फिर गोवा और मणिपुर की तरह सरकार बनाने में जीती हुई बाजी हार गये।


इन तीन-चार दिनों में जो बहस टीवी चैनलों पर हुई है और जो लेख अखबारों में आए हैं, उन्होंने याद दिलाया है कि पिछले साठ सालों में सत्ता हथियाने में कांग्रेस की केंद्र सरकार ने दर्जनों बार वही किया, जो आज भाजपा कर रही है। इसलिए राहुल गांधी के आक्रोश का कोई नैतिक आधार नहीं है। सोचने वाली बात यह है कि जब देश के दो प्रमुख राजनैतिक दल मौका मिलने पर एक सा अनैतिक आचरण करते है, तो फिर एक दूसरे पर दोषारोपण करने का क्या औचित्य है? यह स्वीकार लेना चाहिए कि राज्यपाल संवैधानिक रूप से राष्ट्रपति का प्रतिनिधि और गैर राजनैतिक व्यक्ति होता है। पर व्यवहार में वह केंद्र में सत्तारूढ़ दल के हितों को ही साधता है। हालांकि खुलकर कोई इसे मानेगा नहीं। पर हम जैसे आम नागरिकों के लिए यह चिंता की बात होनी चाहिए कि एक-एक करके सभी संवैधानिक संस्थाओं का क्रमशः पतन होता जा रहा है। जिसके लिए मौजूदा सरकार से कम कांग्रेस जिम्मेदार नहीं है। 1975 में आपातकाल का लगना, मीडिया पर सैंसरशिप थोपना, न्यायपालिका को समर्पित बनाने की कोशिश करना, कुछ ऐसे गंभीर गैर लोकतांत्रिक कार्य थे, जिनकी वजह से तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी की छवि पूरी दुनिया में धूमिल हुई।

जो लोग इवीएम मशीनों के दुरूपयोग का आरोप लगाते हैं और चुनाव आयोग को इस विवाद में घसीटते हैं, उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर वास्तव में ऐसा होता, तो दिल्ली मेंआम आदमी पार्टीकी और पंजाब में कांग्रेस की सरकार नहीं बनती। हाल ही में 0प्र0 में दो प्रतिष्ठित संसदीय क्षेत्रों में भाजपा की जो हार हुई, वो होती। कर्नाटक में भाजपा को चंद विधायकों के लिए सत्ता नहीं छोड़नी पड़ती। साफ जाहिर है कि जनता अपने विवेक से मतदान करती है। कोई कितना ही आत्मविश्वास क्यों रखे, मत गणना के अंत तक यह दावा नही कर सकता कि मतदाता उसके साथ है। भारत का मतदाता जाति और धर्म में भले ही बंटा हो, पर उसकी राजनैतिक सूझ-बूझ को चुनौती नहीं दी जा सकती हर चुनाव में वह राजनेताओं के ऊपर मतदाताओं की श्रेष्ठता को स्थापित कर देता है।

इस सब से यह स्पष्ट है कि भारत की आम जनता लोकतंत्र में आस्था रखती है और उसका सम्मान करती है। इसी बात को रेखांकित करते हुए, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब जीवन में पहली बार एक सांसद के रूप में संसद भवन में प्रवेश किया, तो उसकी सीढ़ियों पर माथा टेका, ये कहते हुए कि संसद लोकतंत्र का मंदिर है, जिसका मैं सम्मान करता हूं।

जब प्रधानमंत्री लोकतंत्र का सम्मान करते हों और विपक्ष के सभी प्रमुखे नेता कर्नाटक की घटनाओं को लेकर विचलित हों, तो रास्ता आसान होने की संभावना है। क्योंकि दोनों ही पक्ष अपने-अपने समय पर लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था का नारा दोहराते हैं। तो क्यों नहीं संसद का एक विशेष सत्र बुलाकर कुछ बुनियादी बातों पर सहमति कर लेते हैं? उदाहरण के तौर पर राज्यपाल द्वारा विश्वास मत हासिल करने के लिए अधिकतम दो दिन से ज्यादा का समय नही देना चाहिए। ये तय हो जाना चाहिए कि हमेशा सरकार बनाने का पहला मौका उस दल को मिले, जिसके सबसे ज्यादा विधायक या सांसद जीतकर आऐ हों। अगर वह दल सरकार बनाने में अपनी असमर्थता व्यक्त करे, तब दूसरे दलों को मौका दिया जाना चाहिए। अगर कुछ दल चुनाव के पहले गठबंधन कर लड़े हों और उन्हें बहुमत मिल जाए, तो सरकार बनाने का पहला न्यौता उन्हें ही मिलना चाहिए। कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि अगर कानून के दायरे में रहकर राज्यपाल या राष्ट्रपति कोई निर्णय लेते हैं, तो उसमें विवेक के इस्तेमाल के नाम पर फैसला लेनेकी छूट को सीमित कर दिया जाए। जिससे विवेक के इस्तेमाल के नाम पर राजनैतिक खेल खेलना संभव हो।

पर जैसा हम अक्सर कहते करते आऐ हैं कि व्यवस्था कुछ भी बना ली जाए, जब तक उसको चलाने वालों के अंदर नैतिकता नहीं है, तब तक कुछ ठीक नहीं हो सकता। राष्ट्रपति हों, राज्यपाल हों, राजनैतिक दल हों, सांसद हों, विधायक हों, न्यायाधीश हो या मीडियाकर्मी हों अगर अपने व्यवसाय की प्रतिष्ठा के स्वरूप् आचरण नहीं करते, तो लोकतांत्रिक संस्थाओ का पतन होना स्वाभाविक है और अगर नैतिकता से करते हैं, तो कोई समस्या ही नहीं आयेगी। पर ये सब भी तो उसी समाज का अंग है, जिसके हम। जब समाज में ही नैतिक पतन इतना तेजी से हो रहा है, तो नेतृत्व से नैतिकता की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? इसलिए हमारे प्रश्न का उत्तर हम स्वयं हैं। समाज वैसा बनेगा, जैसा हम बनाना चाहेंगे।

Monday, May 14, 2018

सड़कों पर नमाज क्यों नहीं?

धर्म आस्था और आत्मोत्थान का माध्यम होता है। इसका प्रदर्शन यदि उत्सव के रूप में किया जाए, तो वह एक सामाजिक-सांस्कृतिक घटना मानी जाती है। जिसका सभी आनंद लेते हैं। चाहे विधर्मी ही क्यों न हों। दीपावली, ईद, होली, वैशाखी, क्रिसमस, पोंगल, संक्राति व नवरोज आदि ऐसे उत्सव हैं, जिनमें दूसरे धर्मों के मानने वाले भी उत्साह से भाग लेते हैं। अपने-अपने धर्मों की शोभा यात्राऐं निकालना, पंडाल लगाकर सत्संग या प्रवचन करवाना, नगरकीर्तन करना या मोहर्रम के ताजिये निकालना, कुछ ऐसे धार्मिक कृत्य हैं, जिन पर किसी को आपत्ति नहीं होती या नहीं होनी चाहिए। बशर्ते की इन्हें मयार्दित रूप में, बिना किसी को कष्ट पहुंचाऐ, आयोजित  किया जाए।
किंतु हर शुक्रवार को सड़कों, बगीचों, बाजारों, सरकारी दफ्तरों, हवाई अड्डों और रेलवे स्टेशनों जैसे सार्वजनिक स्थलों पर मुसल्ला  बिछाकर नमाज पढ़ने की जो प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, उससे आम नागरिकों को बहुत तकलीफ होती है। यातायात अवरूद्ध हो जाता है। पुलिस, एम्बुलेंस और फायर बिग्रेड की गाडियां अटक जाती है। जिससे आपातकालीन सेवाओं में बाधा पहुंचती है। इस तरह बड़ी संख्या में एक साथ बैठकर मस्जिद के बाहर नमाज पढ़ने से रूहानियत नहीं फैलती, बल्कि एक नकारात्मक राजनैतिक संदेश जाता है। जो धर्म का कम और ताकत का प्रदर्शन ज्यादा करता है। जाहिर है कि इससे अन्य धर्मावलंबयों में उत्तेजना फैलती है। ऐसी घटना साल में एक आध  बार किसी पर्व हो, तो शायद किसी को बुरा न लगे। पर हर जुम्मे की नमाज इसी तरह पढ़ना, दूसरे धर्मावलंबियों  को स्वीकार नहीं है।
बहुत वर्ष पहले इस प्रवृत्ति का विरोध मुबंई में शिव सेना ने बड़े तार्किक रूप से किया था। मुबंई एक सीधी लाईन वाला शहर है। जिसे अंग्रेजी में ‘लीनियर सिटी’ कहते हैं। उत्तर से दक्षिण मुबंई तक एक सीधी सड़क के दोनों ओर तमाम उपनगर और नगर बसा है। ऐसे में मुबंई की धमनियों में रक्त बहता रहे, यह तभी संभव है, जब इस सीधी सड़क के यातायात में कोई रूकावट न हो। लगभग दो दशक पहले की बात है, मुबंई के मुसलमान भाईयों ने मस्जिदों के बाहर मुसल्ले बिछाकर हर जुम्मे को नमाज पढ़ना शुरू कर दिया। जाहिर है इससे यातायात अवरूद्ध हो गया। आम जनता में इसका विरोद्ध हुआ। शिव सैनिक इस मामले को लेकर बाला साहिब ठाकरे के पास गये। बाला साहिब ने हिंदुओं को आदेश दिया कि वे हर मंदिर के बाहर तक खड़े होकर प्रतिदिन सुबह और शाम की आरती करें। जुम्मे की नमाज तो हफ्ते में एक दिन होती थी। अब ये आरती तो दिन में दो बार होने लगी। व्यवस्था करने में मुबंई पुलिस के हाथ पांव फूल गये। नतीजतन मुबंई के पुलिस आयुक्त ने दोनों धर्मों के नेताओं की मीटिंग बुलाई। पूरे सद्भाव के साथ ये सामूहिक फैसला हुआ कि न तो मुसलमान सड़क पर नमाज पढेंगे और न हिंदू सड़क पर आरती करेंगे। दोनों धर्मावलंबी आज तक अपने फैसले पर कायम हैं।
अब देश की ताजा स्थिति पर गौर कर लें। गत दिनों भाजपा व सहयोगी संगठनों के कार्यकर्ताओं ने  देश में कई जगह सड़कों पर नमाज का खुलकर विरोध किया। नतीजा ये हुआ कि हरियाणा सरकार ने मस्जिदों के बाहर नमाज पढ़ने पर पाबंदी लगा दी। इसका असर आसपास के राज्यों में भी हुआ। 11 मई को शुक्रवार था, आमतौर पर दिल्ली की कई मस्जिदों के बाहर दूर तक नमाजी फैल जाया करते थे। पर इस बार ऐसा नहीं हुआ। लोगों ने राहत की सांस ली।
एक साथी पत्रकार ने मुझसे प्रश्न किया कि आप तो आस्थावान व्यक्ति हैं। क्या आप सड़कों पर नमाज पढ़ने को उचित मानते हैं? मेरा उत्तर था-बिल्कुल नहीं। इस पर वे उछल पड़े और बोले कि जिस हिंदू से भी यह प्रश्न पूछ रहा हूं, उसका उत्तर यही है। इसका मतलब मोदी व अमित शाह का चुनावी ऐजेंडा तय हो गया। मैने पूछा- कैसे? तो उनका उत्तर था- भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों ने सड़कों पर नमाज का विरोध शुरू ही इसलिए किया है कि इससे हिंदू और मुसलमानों का राजनैतिक धु्रवीकरण हो जाए और भाजपा को, विशेषकर उत्तर भारत में, हिंदू मत हासिल करना सुगम हो जाए। अब भाजपा वाले अगले लोक सभा चुनाव तक ऐसे ही मुद्दे उछालते रहेंगे। जैसे तिरंगा ले जाकर मुसलमान के मौहल्लों में पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाना, अलीगढ मुस्लिम विद्यालय से जिन्ना का चित्र हटवाना आदि। जिससे लगातार हिंदू मत एकजुट होते जाए। उन पत्रकार महोदय का यह मूल्यांकन सही हो सकता है। राजनीति में चुनाव जीतने के लिए नऐे-नऐ मुद्दे खोजने का काम हर दल करता है। इसमें कुछ गलत नहीं। अब ये तो मतदाता के विवेक पर है कि वह अपना मत प्रयोग करने से पहले किसी राजनैतिक दल का आंकलन किस आधार पर करता है। केवल भावना के आधार पर या उसके द्वारा विकास कर पाने की संभावनाओं के आधार पर।
चुनावी बहस को छोड़ दें, तो भी यह प्रश्न महत्वपूर्णं है कि धर्म का इस तरह राजनैतिक प्रयोग कहां तक उचित है। चाहे वो कोई भी धर्म को मानने वाला कहे। इसमें संदेह नहीं है कि अल्पसंख्यकों ने राजनैतिक दलों का मोहरा बनकर, अपने आचरण से लगातार, दूसरे धर्मावलंबियों को उत्तेजित किया है। चाहे फिर वो समान नागरिक कानून की बात हो, मदरसों में धार्मिक शिक्षा और राजनैतिक प्रवचनों की बात हो या फिर सड़क पर जुम्मे की नमाज पढ़ने की बात हो। कुछ लोग मानते हैं कि हिंदूवादियों का वर्तमान आक्रोश उनकी सदियों की संचित कुंठा का परिणाम है। दूसरे ऐसा मानते हैं कि अपनी राजनीति के लिए भाजपा इसे नाहक तूल दे रही है। पर हमारे जैसे निष्पक्ष नागरिक को फिर वो चाहे हिंदू हो, मुसलमान हो, सिक्ख हो, पारसी हो, जो भी हो, उसे सोचना चाहिए कि धर्म की उसके जीवन में क्या सार्थकता है? अगर धर्म के अनुसार आचरण करने से उसके परिवार में सुख, शांति और रूहानियत आती है, तो धर्म उसके लिए आभूषण है। पर अगर धर्म के ठेकेदारों, चाहे वे किसी धर्म के हो, के ईशारो पर नाचकर हम अविवेकपूर्णं व्यवहार करते हैं, तो वह तथाकथित धर्म हमारे लिए समाजिक वैमनस्य का कारण बन जाता है। जिससे हमें बचना है। भारत में सदियों से सभी धर्म पनपते रहे हैं। अगर हम पारस्परिक सम्मान और सहयोग की भावना नहीं रखेंगे, तो समाज खंड-खंड हो जायेगा, अशांति और वैमनस्य बढ़ेगा और विकास अवरूद्ध हो जाऐगा।

Monday, May 7, 2018

जैट ऐयरवेज के इतने घोटालें सामने आने पर भी सरकार मौन क्यों है ?

पिछले वर्ष से तीन लेखों में हमने देश की सबसे बड़ी निजी ऐयरलाईंस जैट ऐयरवेज और भारत सरकार के नागरिक उड्डयन मंत्रालय के भ्रष्ट अधिकारियों की सांठ-गांठ के बारे में बताया था। इस घोटाले के तार बहुत दूर तक जुड़े हुए हैं। वो चाहे यात्रियों की सुरक्षा की बात हो या देश की शान माने जाने वाले महाराजा एयर इंडिया की बिक्री की बात हो। ऐसे सभी घोटालों में जैट ऐयरवेज का किसी न किसी तरह से कोई न कोई हाथ जरूर है।
आश्चर्य की बात ये है कि इतने घोटाले सामने आने के बाद सत्ता के गलियारों और मीडिया में उफ तक नहीं हो रही। जबकि इस पर अब तक तूफान मच जाना चाहिए था। हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय की ‘एक्टिंग मुख्य न्यायाधीश’ न्यायमूर्ति गीता मित्तल व न्यायमूर्ति सी. हरि शंकर की खंडपीठ ने नागरिक उड्ड्यन मंत्रालय, डीजीसीए व जैट ऐयरवेज को कालचक्र ब्यूरो के समाचार संपादक राजनीश कपूर की जनहित याचिका पर नोटिस दिया। उन तमाम आरोपों पर इन तीनों से जबाव तलब किया जो कालचक्र ने इनके विरुद्ध उजागर लिए हैं। याचिका में इन तीनों प्रतिवादियों पर सप्रमाण ऐसे कई संगीन आरोप लगे हैं, जिनकी जांच अगर निष्पक्ष रूप से होती है, तो इस मंत्रालय के कई वर्तमान व भूतपूर्व वरिष्ठ अधिकारी संकट में आ जाऐंगे।
इस याचिका का एक आरोप जैट ऐयरवेज के एक ऐसे अधिकारी, कैप्टन अजय सिंह के विरुद्ध  है, जो पहले जैट ऐयरवेज में उच्च पद पर आसीन था और दो साल के लिए उसे नागरिक उड्ड्यन मंत्रालय के अधीन डीजीसीए में संयुक्त सचिव के पद के बराबर नियुक्त किया गया था। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि कालचक्र की आरटीआई के जबाव में डीजीसीए ने लिखा कि ‘उनके पास इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि कैप्टन अजय सिंह ने डीजीसीए के ‘सी.एफ.ओ.आई.’ के पद पर नियुक्त होने से पहले जैट ऐयरवेज में अपना त्याग पत्र दिया है या नहीं‘। कानून के जानकार इसे कन्फ्लिक्ट आफ इन्ट्रेस्ट’ मानते हैं। समय-समय पर कैप्टन अजय सिंह ने ‘सी.एफ.ओ.आई.’ के पद पर रहकर जैट ऐयरवेज को काफी फायदा पहुंचाया। जब कालचक्र ने एक अन्य आरटीआई में डीजीसीए से यह पूछा कि कैप्टन अजय सिंह ने ‘सी.एफ.ओ.आई.’ के पद से किस दिन इस्तीफा दिया? उसका इस्तीफा किस दिन मंजूर हुआ? उन्हें इस पद से किस दिन मुक्त किया गया? और इस्तीफा जमा करने व पद से मुक्त होने के बीच कैप्टन अजय सिंह ने डीजीसीए में जैट ऐयरवेज से संबंधित कितनी फाइलों का निस्तारण किया? जवाब में यह पता लगा कि इस्तीफा देने और पद से मुक्त होने के बीच कैप्टन सिंह ने जैट ऐयरवेज से संबंधित 66 फाइलों का निस्तारण किया। ये अनैतिक आचरण है।
दिल्ली उच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीशा गीता मित्तल ने सुनवाई के दौरान इस बात पर सरकारी वकील को खूब लताड़ा और कहा कि ‘‘यदि यह बात सच है, तो यह काफी संगीन मामला है’’। यदि कोई निजी ऐयरलाईंस से आया हुआ व्यक्ति नागरिेक उड्ड्यन मंत्रालय में ‘सी.एफ.ओ.आई.’ के पद पर नियुक्त होता है, तो यह बात स्वाभाविक है कि उसकी वफादारी अपनी एयरलाइन्स के प्रति होगी न कि सरकार के प्रति। ‘सी.एफ.ओ.आई.’ का काम सभी एयरलाईंस के आपरेशंस की जांच करना व उनकी खामियां मिलने पर समुचित कार्यवाही करना होता है। 
इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता कि भारत के राष्ट्रीय कैरियर ‘एयर इंडिया’ को मुनाफे वाले रूट व समय न देकर  घाटे की ओर ढकेलने का काम यहीं से शुरू हुआ है। अब जब एयर इंडिया के विनिवेश की बात हो रही है, तो उसे खरीदने के लिए जैट ऐयरवेज ने भी दिलचस्पी दिखाई।
ये अलग बात है कि कालचक्र द्वारा दायर याचिका व लगभग 100 आरटीआई के चलते जैट ऐयरवेज ने एयर  इंडिया के विनिवेश में ‘‘काफी कड़े नियम व कानून‘‘ का हवाला देते हुए, अपना नाम वापिस ले लिया।
कालचक्र की याचिका पर नागरिक उड्डयन मंत्रालय, डीजीसीए व जैट एयरवेज को नोटिस की खबर, भारत की एक मुख्य समाचार ऐजेंसी ने चलाई लेकिन कुछ अखबारों को छोड़कर यह खबर सभी जगह दबाई गई। यह हमें हवाला कांड के दिनों की याद दिलाता है। जब हमारे आरोपों को राष्ट्रीय मीडिया ने गंभीरता से नहीं लिया था, लेकिन जब 1996 में 115 ताकतवर लोगों को भारत के इतिहास में पहली बार भ्रष्टाचार के मामले में चार्जशीट किया गया, तो पूरी दुनिया के मीडिया को इस पर लिखना पड़ा।
जेट के मामले में कालचक्र की याचिका पर हुए नोटिस को अब लगभग तीन हफ्ते हो चुके हैं और राष्ट्रीय मीडिया के कई ऐसे मित्रों ने हमसे इस मामले की पूरी जानकारी व याचिका की प्रति भी ले ली है और यह भरोसा दिलाया कि वे इस पर खबर जरूर करेंगे। पर उनकी खबर रुकवा दी गई।
पता चला है कि जैट ऐयरवेज के मालिक नरेश गोयल का ‘पी.आर.’ विभाग उन सभी को, जो जरा भी शोर मचाने की ताकत रखते हैं, मुफ्त की हवाई टिकट या अन्य प्रलोभन देकर, शांत कर देता है। अब वे व्यक्ति चाहे राजनीतिज्ञ हों, चाहे वकील या मीडिया के साथी, वो देर-सवेर इस सब के आगे घुटने टेक ही देते हैं। लेकिन ‘बकरे की मां कब तक खैर मानायेगी’। चूंकि आम भारतीय को आज भी न्यायपालिका पर पूरा विश्वास है और वो न्यायपालिका के समक्ष सभी तथ्यों को रखकर उसके फैसले का इंतजार करता है।  कालचक्र को भी न्यायपालिका से कुछ ऐसी ही उम्मीद है कि सभी दस्तावेज और आरोपों का मिलान करने के बाद, वह राष्ट्र हित में ही अपना फैसला सुनायेगी।

Monday, April 30, 2018

चीन नीति पर मोदी का कमाल

विपक्षी दल प्रधानमंत्री मोदी की विदेश नीति को विफल बता कर सवाल खड़े कर रहे हैं। उनका आरोप है कि डोकलम में झटका झेलने के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी ने चीन को कड़क जबाव नहीं दिया। बल्कि एक के बाद एक मंत्रियों और अधिकारियों को चीन भेजकर और खुद अचानक वहां जाकर, यह संदेश दिया है कि भारत ने चीन के आगे घुटने टेक दिये हैं। विपक्षी दलों का यह भी आरोप है कि चीन ने नेपाल, भूटान, वर्मा, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव व पाकिस्तान पर अपनी पकड़ मजबूत बनाकर भारत को चारों तरफ से घेर लिया है और इस तरह मोदी की पड़ोसी देशों के साथ विदेश नीति को विफल कर दिया है।
जबकि हकीकत यह है कि प्रधानमंत्री के नेतृत्व में अजीत डोभाल, सुषमा स्वराज और निर्मला सीतारमन आदि ने भारत-चीन संबंधों के मामले में उल्लेखनीय सफलता हासिल की है। आज जबकि चीन के राष्ट्रपति शी शिनफिंग दुनिया के सबसे ताकतवर नेता के रूप में स्थापित हो चुके हैं और आजीवन वहां राष्ट्रपति रहने वाले हैं, तो उनसे लड़कर भारत को कुछ मिलने वाला नहीं था। इसलिए उनसे मिलकर चलने में ही भलाई है, इसे प्रधानमंत्री ने तुरंत समझ लिया। वैसे भी चीन की ताकत आज दुनिया में बहुत ज्यादा बढ़ चुकी है। ऐसे में चीन को बंदर घुड़की दिखाने से काम बनने वाला नहीं था। 
औपचारिक शिखर सम्मेलन अनेक दबावों के बीच हुआ करते हैं। उसमें नौकरशाही की बड़ी भूमिका रहती है। संधि और घोषणाऐं करने का काफी दबाव रहता है। साझे बयानों को तैयार करने में ही काफी मशक्क्त करनी पड़ती है। जबकि अगर दो देशों के नेता पारस्परिक संबंध बना लें, तो बहुत सी कूटनीतिज्ञ समस्याऐं सुगमता से हल हो जाती है और उनके लिए नाहक वार्ताओं के दौर नहीं चलाने पड़ते। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पिछले वर्षों की विदेश नीति की सबसे बड़ी सफलता यह रही है कि उन्होंने दुनिया के लगभग हर देश के नेता से अपने व्यक्तिगत संबंध बना लिये हैं। अब वे कभी भी किसी से फोन पर सीधे बात कर सकते हैं। यही उन्होंने चीन जाकर किया।
भारत-चीन सीमा पर आए दिन चीनी फौज डोकलम जैसे उत्पात मचाती रही है। वहां की फौज सीधे कम्युनिस्ट पार्टी के निर्देश पर काम करती है। जिसे केवल सैन्य स्तर पर निपटना भारत के लिए आसान नहीं था। प्रधानमंत्री मोदी ने इस चीन यात्रा में एक नया अध्याय जोड़ा है। अब चीन की सेना और भारतीय सेना के अधिकारियों के बीच नियमित संवाद होता रहेगा। जिससे गफलत की गुंजाईश न रहे।
इसके साथ ही इस यात्रा से भारत-चीन संबंध खासी गति से विकसित हुआ है। इसी पर दोनों देशों का आर्थिक उदारीकरण और सुरक्षा व्यवस्था निर्भर करती है। चीन का व्यापार अमेरिका, यूरोप और भारत के साथ बहुत ज्यादा हैं, शेष विश्व के साथ उसका व्यापार घाटे का ही है। इस लिहाज से यदि चीन का भारत के साथ व्यापार बढ़त भारत-अमेरिका व्यापार से ज्यादा हो जाती है, तो फिर दिल्ली और बिजिंग को राजनीतिक मुद्दे अलग-अलग करने होंगे।
भारत और पाकिस्तान के मध्य चल रहे विवादों में चीन की भूमिका किसी न किसी तरह से हमेशा ही पाई जाती रही है। चीन ने पाकिस्तान के मिसाइल कार्यक्रमों को मदद देने का संकेत भी दिया था। चीन के सरकारी मीडिया ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने अपने एक संपादकीय में लिखा था कि यदि पश्चिमी देश भारत को एक परमाणु ताकत के रूप में स्वीकारते हैं और भारत तथा पाकिस्तान के बीच बढ़ती परमाणु होड़ के प्रति उदासीन रहते हैं, तो चीन चुप नहीं बैठेगा।
लेकिन अब ‘द्विपक्षीय मैत्री’ एव सहयोग संधि के बाद पाकिस्तान दबाव में आ जायेगा। भारत-चीन की मार्फत पाकिस्तान को आतंकवाद नियंत्रित करने के लिए मजबूर कर सकता है। साथ ही चीन को इस बात के लिए राजी कर सकता है कि वह महमूद अजहर को आतंकवादी घोषित किये जाने की अंतराष्ट्रीय मांग का विरोध न करें। साथ ही परमाणु शक्ति के मामलों में भारत और चीन के बीच में जो कई मूल मुद्दे अंतराष्ट्रीय स्तर पर उलझ रहे थे। उनका भी समाधान होने की संभावना है। जाहिर है कि अजित डोभाल ने इन परिस्थितियों से निपटने के लिए पर्दे के पीछे रहकर काफी मेहनत की है। इसके साथ ही चीन ने भारत को मुक्त व्यापार समझौते का सुझाव दिया है, ताकि दोनों एशियाई देशों के बीच संबंधों को व्यापक प्रोत्साहन दिया जा सके।
भारत और चीन संबंधों में सुधार दोनों ही देशों के हित में है। प्रश्न है कि  क्या यह सुधार भारत को अपनी सम्प्रभुता और सुरक्षा की कीमत चुकाकर करनी चाहिए? क्या चीन पर भरोसा किया जा सकता है कि भविष्य में वह धोखा नहीं देगा? उम्मीद के सहारे दुनिया टिकी है। बदलते अंतराष्ट्रीय परिदृश्य में दोनों देशों के लिए यही बेहतर है कि वे मिलकर चलें, जिससे एक बड़ी ताकत के रूप में उभरें। जिससे क्षेत्र का आर्थिक विकास भी तेजी से हो सकेगा।

Monday, April 23, 2018

छोटी पहल, बड़ी बात

पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि दिल्ली से विकास योजना का 100 रूपये जमीन तक पहुंचते-पहुंचते मात्र 14 रूपये रह जाते हैं, शेष भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाते हैं। 32 साल बाद वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी  यही बात दोहराई और  कोशिश की भ्रष्टाचार रूके और लोगों तक उनका हक पहुंचे। पर ये लड़ाई इतनी आसान नहीं है।

राजनीति के महान आचार्य चाणक्य पंडित ने कहा था कि व्यवस्था कोई भी हो, अगर उसके चलाने वाले ईमानदार नहीं हैं, तो वह व्यवस्था विफल हो जाती है। सभी प्रांतों के मुख्यमंत्री चाहते हैं कि उनका मतदाता उनके शासन से संतुष्ट रहे। इसके लिए वे तमाम योजनाऐं बनाते हैं और निर्देश जारी करते हैं। पर अगर जिले और तहसील स्तर की प्रशासनिक ईकाई अपनी जिम्मेदारी को ईमानदारी से अंजाम न दें, तो जनता में हताशा फैलती है। व्यवस्था ही ऐसी हो गई है कि अधिकतर अधिकारी कुछ नया करने से बचते हैं। जो ढर्रा चल रहा है, उसे ही चलाओ, फालतू क्यों पचड़े में पड़ते हो। पर जो नदी की धारा के विरूद्ध चलने की हिम्मत दिखाते हैं, वे ही कुछ नया कर पाते हैं।

उ.प्र. के मथुरा जिले की छाता तहसील वर्षों से उपेक्षित पड़ी थी। पिछले एक वर्ष में इसका कायापलट हो गया है। आज इसे प्रदेश की सर्वश्रेष्ठ तहसील का दर्जा प्राप्त हो चुका है, जहां आम नागरिकों को जाकर ऐसा नहीं लगता कि वे किसी सरकारी दफ्तर में आऐं हों, बल्कि ऐसा लगता है, मानो किसी कारर्पोरेट आफिस में आए हैं। यह संभव हुआ है, एक युवा आईएएस अधिकारी राजेन्द्र पैंसिया के प्रयास व जन सहयोग के कारण।

भगवान श्रीकृष्ण की नगरी मथुरा में सारी दुनिया से तीर्थयात्री आते हैं। पर जिले की साफ सफाई सोचनीय है। वहीं राष्ट्रीय राजमार्ग-2 पर स्थित छाता तहसील में प्रवेश करते ही, आपको सुखद अनुभति होती है। जहां पहले ये भी नारकीय अवस्था को प्राप्त था। अब सुंदर गेट, दोनों ओर पार्किंग एवं सुंदर बगीचे का निर्माण किया गया है। पहले ये पता ही नहीं चलता था कि हम किसी दफ्तर में आऐं हैं और कहां-कौन अधिकारी बैठा है। लेकिन अब तहसील भवन में एक सक्रिय पूछताछ केंद्र स्थापित किया गया है, जिसमें सभी कर्मचारियों व अधिकारियों के नाम, पदनाम, मोबाईल नंबर इत्यादि की सूची भी चस्पा है। अब जनता को यहां भटकना नहीं पड़ता।

जहां पहले चारों तरफ कूड़े के ढेर और पान की पीक से रंगी दीवारे दिखाई देती थी, वहीं अब दीवारों पर भारतीय संस्कृति, धरोहरों, ब्रज संस्कृति आदि के फ्लैक्स एवं पेंटिंग लगाई गई हैं। पूरे परिसर में प्रतिदिन साफ-सफाई को प्राथमिकता दी जाती है। जगह-जगह कूड़ेदान रखवाये गये हैं।

पूरे तहसील में सुरक्षा की दृष्टि से 32 सीसीटीवी कैमरे लगवाये गये हैं। पेयजल के लिए आर.ओ. सिस्टम लगवाया गया है। महिला और पुरूषों के लिए अलग अलग शौचलाय बनवाये गऐ हैं। चाहरदीवारों को उंचा किया गया है। बंदरों के आतंक से बचने के लिए लोहे की ग्रिल आदि लगवाये गईं हैं। इस पूरे कायाकल्प में सरकार से कोई वित्तीय सहायता नहीं ली गई। राजेन्द्र पैंसिया ने स्थानीय व्यापारियों के आर्थिक सहयोग से ये कायाकल्प की है। इस तहसील को आई एस ओ सर्टिफिकेशन भी मिला है।

उत्तर प्रदेश राजस्व परिषद के अध्यक्ष प्रवीर कुमार ने पैंसिया का उत्साहवर्धन किया है और अब वे मुख्यमंत्री योगी जी से संस्तुति कर रहे हैं कि छाता का मॉडल पूरे प्रदेश में अपनाया जाय।

ग्राम पंचायत का कार्यालय हो, ब्लाक का हो, तहसील का हो या जिला स्तर का आम जनता का साबका इन्ही कार्यालयों से पड़ता है। जनता की निगाह में यही सरकार हैं । प्रदेश की राजधानी या देश की राजधानी तक तो विरले ही जा पाते हैं। इसलिए ये दफ्तर किसी भी सरकार का चेहरा होते हैं। अगर यहां आम जनता को सम्मान और समाधान मिल जाता है, तो उसकी निगाह में सरकार अच्छा काम कर रही होती है। इसके विपरीत यदि इन कार्यालयों में जनता को लाल फीता शाही वाला रवैया, नारकीय रखरखाव, भ्रष्ट नौकरशाही से पाला पड़े, तो जनता की निगाह में प्रदेश की सरकार निकम्मी मानी जाती है। इसलिए हर मुख्यमंत्री अपने प्रांत के इन कार्यालयों को लेकर बहुत चिंतित रहते हैं। पर हालात बदलने के लिए कुछ ठोस कर नहीं पाते। अकेला चना क्या भाड़ तोड़ेगा। ऐसे में किसी भी मुख्यमंत्री को वह अधिकारी बहुत अच्छा लगता है, जो अपना काम निष्ठा और मजबूती से करता है। इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि योगी सरकार, छाता तहसील को सुधारने में लगे सभी लोगों को प्रोत्साहित करेगी और इस माडल को बाकी जिलों में लागू करने के लिए अपने अफसरों को स्पष्ट और कड़े निर्देंश देगी। साथ ही राजेन्द्र पैंसिया जैसे युवा अधिकारियों और भी चुनौतीपूर्णं काम सौंपेगी। जिससे वे मुख्यमंत्री की ‘ब्रज विकास’ परियोजनाओं को निष्ठा से लागू कराने में, अपने अनुभव और योग्यता का प्रदर्शन कर सके।