पिछले
दिनों सर्वोच्च न्यायालय में जो कुछ हो रहा था उससे देश की न्यायपालिका ही नहीं बल्कि हर जागरूक नागरिक चिंतित था। जब सर्वोच्च न्यायालय ने कर्नाटक में चैबीस घंटे की समय सीमा बांधकर विश्वास मत हासिल करने का आदेश दे दिया, तो
उसकी हर ओर सराहना हो रही है। कर्नाटक के राज्यपाल वजुभाई रादुभाई वाला ने भाजपा को शपथ दिलाकर, अपने
विवेक का सही प्रयोग नहीं किया। ये बात भी आज देश में चर्चा का विषय बनी हुई है। उधर तीन दिन की भाजपा सरकार के अल्प मत में होने के कारण इस्तीफा देने पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का संवाददाता सम्मेलन में गुबार फूटना क्या जायज नहीं है? क्योंकि
उन्हें लग रहा था कि वे एक बार फिर गोवा और मणिपुर की तरह सरकार बनाने में जीती हुई बाजी हार गये।
इन
तीन-चार
दिनों में जो बहस टीवी चैनलों पर हुई है और जो लेख अखबारों में आए हैं, उन्होंने
याद दिलाया है कि पिछले साठ सालों में सत्ता हथियाने में कांग्रेस की केंद्र सरकार ने दर्जनों बार वही किया, जो
आज भाजपा कर रही है। इसलिए राहुल गांधी के आक्रोश का कोई नैतिक आधार नहीं है। सोचने वाली बात यह है कि जब देश के दो प्रमुख राजनैतिक दल मौका मिलने पर एक सा अनैतिक आचरण करते है, तो
फिर एक दूसरे पर दोषारोपण करने का क्या औचित्य है? यह
स्वीकार लेना चाहिए कि राज्यपाल संवैधानिक रूप से राष्ट्रपति का प्रतिनिधि और गैर राजनैतिक व्यक्ति होता है। पर व्यवहार में वह केंद्र में सत्तारूढ़ दल के हितों को ही साधता है। हालांकि खुलकर कोई इसे मानेगा नहीं। पर हम जैसे आम नागरिकों के लिए यह चिंता की बात होनी चाहिए कि एक-एक
करके सभी संवैधानिक संस्थाओं का क्रमशः पतन होता जा रहा है। जिसके लिए मौजूदा सरकार से कम कांग्रेस जिम्मेदार नहीं है। 1975 में
आपातकाल का लगना, मीडिया
पर सैंसरशिप थोपना, न्यायपालिका
को समर्पित बनाने की कोशिश करना, कुछ
ऐसे गंभीर गैर लोकतांत्रिक कार्य थे, जिनकी
वजह से तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी की छवि पूरी दुनिया में धूमिल हुई।
जो
लोग इवीएम मशीनों के दुरूपयोग का आरोप लगाते हैं और चुनाव आयोग को इस विवाद में घसीटते हैं, उन्हें
यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर वास्तव में ऐसा होता, तो
दिल्ली में ‘आम
आदमी पार्टी’ की
और पंजाब में कांग्रेस की सरकार नहीं बनती। हाल ही में उ0प्र0 में दो प्रतिष्ठित संसदीय क्षेत्रों में भाजपा की जो हार हुई, वो
न होती।
कर्नाटक में भाजपा को चंद विधायकों के लिए सत्ता नहीं छोड़नी पड़ती। साफ जाहिर है कि जनता अपने विवेक से मतदान करती है। कोई कितना ही आत्मविश्वास क्यों न रखे, मत गणना के अंत तक यह दावा नही कर सकता कि मतदाता उसके साथ है। भारत का मतदाता जाति और धर्म में भले ही बंटा हो, पर
उसकी राजनैतिक सूझ-बूझ
को चुनौती नहीं दी जा सकती । हर
चुनाव में वह राजनेताओं के ऊपर मतदाताओं की श्रेष्ठता को स्थापित कर देता है।
इस
सब से यह स्पष्ट है कि भारत की आम जनता लोकतंत्र में आस्था रखती है और उसका सम्मान करती है। इसी बात को रेखांकित करते हुए, प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी ने जब जीवन में पहली बार एक सांसद के रूप में संसद भवन में प्रवेश किया, तो
उसकी सीढ़ियों पर माथा टेका, ये
कहते हुए कि संसद लोकतंत्र का मंदिर है, जिसका
मैं सम्मान करता हूं।
जब
प्रधानमंत्री लोकतंत्र का सम्मान करते हों और विपक्ष के सभी प्रमुखे नेता कर्नाटक की घटनाओं को लेकर विचलित हों, तो
रास्ता आसान होने की संभावना है। क्योंकि दोनों ही पक्ष अपने-अपने
समय पर लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था का नारा दोहराते हैं। तो क्यों नहीं संसद का एक विशेष सत्र बुलाकर कुछ बुनियादी बातों पर सहमति कर लेते हैं? उदाहरण
के तौर पर राज्यपाल द्वारा विश्वास मत हासिल करने के लिए अधिकतम दो दिन से ज्यादा का समय नही देना चाहिए। ये तय हो जाना चाहिए कि हमेशा सरकार बनाने का पहला मौका उस दल को मिले, जिसके
सबसे ज्यादा विधायक या सांसद जीतकर आऐ हों। अगर वह दल सरकार बनाने में अपनी असमर्थता व्यक्त करे, तब
दूसरे दलों को मौका दिया जाना चाहिए। अगर कुछ दल चुनाव के पहले गठबंधन कर लड़े हों और उन्हें बहुमत मिल जाए, तो
सरकार बनाने का पहला न्यौता उन्हें ही मिलना चाहिए। कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि अगर कानून के दायरे में रहकर राज्यपाल या राष्ट्रपति कोई निर्णय लेते हैं, तो
उसमें विवेक के इस्तेमाल के नाम पर फैसला लेनेकी छूट को सीमित कर दिया जाए। जिससे विवेक के इस्तेमाल के नाम पर राजनैतिक खेल खेलना संभव न हो।
पर
जैसा हम अक्सर कहते करते आऐ हैं कि व्यवस्था कुछ भी बना ली जाए, जब
तक उसको चलाने वालों के अंदर नैतिकता नहीं है, तब
तक कुछ ठीक नहीं हो सकता। राष्ट्रपति हों, राज्यपाल
हों, राजनैतिक
दल हों, सांसद
हों, विधायक
हों, न्यायाधीश
हो या मीडियाकर्मी हों अगर अपने व्यवसाय की प्रतिष्ठा के स्वरूप् आचरण नहीं करते, तो
लोकतांत्रिक संस्थाओ का पतन होना स्वाभाविक है और अगर नैतिकता से करते हैं, तो
कोई समस्या ही नहीं आयेगी। पर ये सब भी तो उसी समाज का अंग है, जिसके
हम। जब समाज में ही नैतिक पतन इतना तेजी से हो रहा है, तो
नेतृत्व से नैतिकता की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? इसलिए
हमारे प्रश्न का उत्तर हम स्वयं हैं। समाज वैसा बनेगा, जैसा
हम बनाना चाहेंगे।