दशकों से उठ रही तेलांगना की मांग आखिर सरकार ने मान ली। पर इसके साथ ही एक नया हंगामा देश भर में खड़ा हो गया है। गोरखालैण्ड, हरितप्रदेश, पूर्वांचल, बुन्देलखण्ड, विदर्भ जैसे तमाम छोटे राज्यों की मांग अब जोर पकड़ने लगी है। छोटे राज्यों के पक्ष और विपक्ष दोनों में काफी तर्क हैं। छोटा राज्य प्रशासनिक दृष्टि से संभालना आसान होता है। अब उत्तर-प्रदेश को लें तो गाजियाबाद में रहने वाले को आजमगढ़ के रहने वाले से क्या व्यवहार हो सकता है। राज्य की कल्पना, भाषा और संस्कृति की समरूपता के आधार पर होती है तो उसकी एक पहचान बनती है। गुजरात को महाराष्ट्र से और आंध्रप्रदेश को तमिलनाडु से अलग करने का ऐसा ही आधार था।
दरअसल छोटे राज्यों में योजनाओं को जनआधारित बनाना सरल होता है। जनता की शासन तक पहुँच और पकड़ भी ज्यादा प्रभावी होती है। क्षेत्रवाद और जातिवाद के चलते होने वाली विषमतायें कम होने की संभावना रहती है। पर सवाल है कि क्या केवल छोटे राज्य की इच्छा मात्र कर लेने से हर समस्या का हल निकाला जा सकता है? सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि राज्य उतना बड़ा बने जितना उसकी आर्थिक सामथ्र्य हो। अगर कोई राज्य अपने आर्थिक संसाधनों पर निर्भर रहकर जी सकता है और आगे बढ़ सकता है तो उसे बनाने में कोई संकोच नहीं होना चाहिये। पर अगर राज्य का निर्माण तो हो जाये लेकिन उसके प्रशासनिक और विकासात्मक खर्चों की कोई व्यवस्था न हो। इन खर्चों के लिये उस राज्य को केन्द्र पर निर्भर रहना पड़े तो यह कोई बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य नहीं होगा। एक राज्य का निर्माण मतलब उस क्षेत्र पर अचानक भारी प्रशासनिक खर्चों का दबाव। राज्य बनेगा तो राजधानी बनेगी। जिसमें सचिवालय, विधान सभा, उच्चन्यायालय और तमाम प्रशासनिक भवन बनाये जायेंगे। जिसमें लाखों करोड़ रुपया खर्चा आयेगा। अगर वह क्षेत्र पहले से ही आर्थिक रूप से अविकसित है तो इस अनावश्यक बोझ से उसके भावी विकास की संभवना भी धूमिल पड़ जायेगी।
जहाँ तक बात है कि छोटे राज्यों से विकास ज्यादा अच्छा होता है। तो यह कोई शाश्वत सत्य नहीं। खनिज सम्पदा से भरपूर झारखण्ड राज्य भ्रष्टाचार के कारण तबाह हो रहा है। वहाँ जितनी भी सरकारें बनी सब पर खनिज सम्पदा की भारी लूट के आरोप लगे हैं। अब अगर राज्य के संसाधनों की ऐसी खुली लूट होनी है तो बिहार के साथ जब झारखण्ड था तब क्या बुरा था? इसलिये यह तर्क दिया जाता है कि अगर राज्य की सरकार और उसकी नौकरशाही ईमानदार है, जनोन्मुख नीतियाँ बनाती है और नागरिकों के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह निष्ठा से करती है तो बड़ा राज्य भी अपने सभी क्षेत्रों का ध्यान रख सकता है। किन्तु छोटा राज्य बने पर उसकी भ्रष्ट सरकार और भ्रष्ट नौकरशाही हो तो ऐसे छोटे राज्य का क्या लाभ?
दरअसल हमारे देश में जो भाषा, धर्म, जाति और क्षेत्र के नाम पर जगह-जगह असन्तोष और जनआन्दोलन खड़े हो रहे हैं, इनके मूल में है हमारे विकास का मॉडल। हम योजनायें तो बहुत बनाते हैं। लोगों को सपने भी बहुत दिखाते हैं। सफल लोकतंत्र होने का दावा भी करते हैं। हमारे चुनावों में केन्द्र और प्रान्त की सरकारें बिना खूनी क्रान्ति के बदल जाती हैं। पर लोगों की हालत नहीं बदलती। सरकार किसी भी बदल की आ जाये नौकरशाही उस पर हावी रहती है। योजनायें जनता को सुख पहुँचाने के लिये नहीं बल्कि कमीशन का प्रतिशत बढ़ाने के लिये बनायी जाती है। इसलिये कुछ नहीं बदलता! लोगों में असन्तोष बढ़ता है तो स्थानीय नेता उनका नेतृत्व पकड़ लेते हैं। फिर उन्हें राहत दिलाने के नाम पर सपनों के सब्जबाग दिखाते हैं। जनता बहकावे में आकर उनके पीछे चल पड़ती है। इस उम्मीद में कि कहीं से कुछ तो राहत मिले। पर जब इन नेताओं को परखने का समय आता है तो पता चलता है कि नई बोतल में पुरानी शराब ही थी। फिर निराशा हाथ लगती है। इसलिये जरूरत इस बात की है कि छोटे राज्यों की मांग पर अपनी ऊर्जा खर्च करने की बजाय देश के जागरूक नागरिक व्यवस्था पारदर्शी और जिम्मेदार बनाने की कोशिश करें। पिछले वर्ष टीम अन्ना ने एक कोशिश की थी पर वह अपने उद्देश्य से भटक गई। जबकि ऐसे आन्दोलन को देश भर में लगातार चलाकर दबाव बनाने की जरूरत है।
कोई कानून या कोई नई सरकार ऐसा जादू नहीं कर सकती जो मौजूदा व्यवस्था में सम्भव न हो। इसलिये मौजूद निजाम को ही ठीक ढ़र्रे पर लाने की जरूरत है। होता यह है कि हर आन्दोलन अच्छे मकसद से शुरू होता है। पर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षायें और अहम् के टकराव उसे दिशा विहीन कर देते हैं। हर बार आम जनता छली जाती है। इसलिये आसानी से वह किसी आन्दोलन के उद्देश्यों पर यकीन नहीं करती। इस विषम चक्र को भी तोड़ने की जरूरत है। कुछ लोग तो ऐसे हों जो अपने उसूलों पर चलते हुये लगातार जनता को आगाह और जागरूक करते रहें।