Monday, April 4, 2011

शुंगलु समिति की रिपोर्ट बेमानी


Punjab Kesari 4Apr2011
राष्ट्रकुल खेलों में हुए घोटालों को जाँचने के लिए प्रधानमंत्री ने 24 अक्टूबर, 2010 को शुंगलू समिति गठित की थी, जिसे 3 महीने में अपनी रिपोर्ट देनी थी। समिति ने पिछले हफ्ते अपनी अन्तरिम रिपोर्ट दी, जिसमें दिल्ली सरकार की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित व दिल्ली के उपराज्यपाल तजेन्द्र खन्ना पर पैसे की बर्बादी का आरोप लगाया गया है। भारत के पूर्व महालेखाकार शुंगलु की इस रिपोर्ट को मुद्दा बनाकर भाजपा शीला दीक्षित का इस्तीफा मांग रही है। जबकि श्रीमती दीक्षित ने इस समिति के तौर-तरीके पर ही प्रश्न खड़े किये हैं। दरअसल शुंगलु समिति अपने गठन से ही विवादों में है। इसको बनाने का क्या औचित्य था जबकि सी.बी.आई. और सी.वी.सी. जैसी सक्षम जाँच एजेंसियाँ भ्रष्ट आचरण के विरूद्ध जाँच करने के लिए पहले से उपलब्ध हैं? उधर सर्वोच्च न्यायालय भी राष्ट्रकुल खेलों में हुए घोटालों की जाँच अपनी निगरानी में करवा रहा है। लगता है कि प्रधानमंत्री ने विपक्ष के हमले को शांत करने के लिए यह राजनैतिक फैसला लिया। वरना सोचने वाली बात यह है कि बिना कानूनी या संवैधानिक अधिकार के यह जाँच समिति इतने बड़े घोटाले की जाँच कैसे कर सकती है? जबकि इसे तीन महीने में लाखों दस्तावेजों की जाँच करनी थी। यह दस्तावेज उन परियोजनाओं से सम्बन्धित हैं, जिन्हें राष्ट्रकुल खेलों के लिए दिल्ली नगर निगम, नई दिल्ली नगर पालिका, दिल्ली विकास प्राधिकरण, लोक निर्माण विभाग, केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग, राइट्स, खेल मंत्रालय, शहरी विकास मंत्रालय व खेल आयोजन समिति जैसी इन एजेंसियों ने अंजाम दिया था।

शुंगलु ने शुरू में ही यह शिकायत की थी कि ये एजेंसियाँ जाँच में सहयोग नहीं कर रहीं और उन्हें आवश्यक दस्तावेज मुहैया नहीं करा रहीं। साफ ज़ाहिर है कि इन सीमाओं के साथ व बिना किसी अनुभवी और योग्य जाँच अधिकारियों की मौजूदगी के, इस तरह की आपराधिक जाँच करना सम्भव नहीं था। यह काम तो सी.बी.आई. जैसी पेशेवर जाँच एजेंसी का ही है और जब सी.बी.आई. व सी.वी.सी. जाँच कर ही रहे हैं तो उन्हें अपनी प्रक्रिया के अनुसार जाँच करने देनी चाहिए थी। इस तरह शुंगलु समिति बनाकर प्रधानमंत्री ने नाहक समय, साधन और पैसे की बर्बादी की है। बिना आपराधिक जाँच के किसी एजेंसी को सम्भावित आरोपियों के खिलाफ कुछ कहने का अधिकार नहीं होता। वैसे भी शुंगलु समिति ने जिन पर आरोप लगाये हैं, वे उसके आरोपों को नकारने के लिए आजा़द हैं और उन्होंने ऐसा करा भी है। जबकि सी.बी.आई. अगर ईमानदारी से जाँच करती है तो पहले प्रमाण इकठ्ठा करेगी और फिर आरोपपत्र दाखिल करेगी। इस प्रक्रिया से ही यह तय होगा कि प्रथम दृष्टया राष्ट्रकुल घोटाले में कौन शामिल है। प्रमाण सहित लगाये गये इन आरोपों की कानूनी वैधता भी होगी। सूत्र बताते हैं कि शुंगलु ने अपनी रिपोर्ट में दूसरी जाँच एजेंसियों की रिपोर्ट को उदारता से लेकर अपनी रिपोर्ट में समाहित कर लिया है। वैसे इतने कम समय में शुंगलु समिति के लिए लाखों दस्तावेज पढ़ना तो दूर, पन्ने पलटना भी सम्भव नहीं था।

यह राष्ट्रकुल खेलों की ही समस्या नहीं है। किसी भी घोटालें की जाँच करने की एक मान्य प्रक्रिया होनी चाहिए। जिसके बाद ही किसी को आरोपित किया जा सकता है। प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेताओं को चाहिए कि वे भ्रष्टाचार के खिलाफ जाँच करने वाली एजेंसियों केा स्वायŸाता प्रदान करवायें। जिससे घोटालों की कम से कम समय में ईमानदारी से जाँच हो सके। वरना घोटाले होते रहेंगे, समितियाँ और जाँच आयोग बनते रहेंगे, सुधरेगा कुछ भी नहीं।

पर लगता है कि सरकार भ्रष्टाचार से निपटने में गंभीर नहीं है। भ्रष्टाचार की जाँच पर निगरानी रखने वाली एजेंसी ‘केन्द्रीय सतर्कता आयोग’ एक बार फिर सिरविहीन हो गया है। क्योंकि जबसे पी.जे. थाॅमस ने इस्तीफा दिया है, तबसे सी.वी.सी. का पद रिक्त पड़ा है। जिसे भरने की सरकार को कोई जल्दी नहीं है। इतना ही नहीं सी.वी.सी. एक्ट के अनुसार ऐसी परिस्थिति में बाकी बचे सदस्यों में से एक को मुख्य सतर्कता आयुक्त का कार्यभार अस्थायी रूप से सौंप देना चाहिए था, पर इसका भी नोटिफिकिशेन अभी तक सरकार की तरफ से नहीं आया। इससे पहले भी नवम्बर 2009 में जब इस आयोग के दो सदस्यांे का कार्यकाल समाप्त हुआ था, तो सरकार ने अगले 9 महीनों तक ये पद नहीं भरे। इस काॅलम में हमारे शोर मचाने के बाद नियुक्ति की यह प्रक्रिया शुरू हुई। फिर भी थाॅमस की नियुक्ति का विवाद खड़ा हो गया। ऐसा लगता है कि सरकार केन्द्रीय सतर्कता आयोग को पंगु बनाने में जुटी है। इससे प्रधानमंत्री की छवि तेजी से बिगड़ रही है। समय की मांग है कि प्रधानमंत्री हर दबाव से मुक्त होकर कुछ ठोस निर्णय लें और जाँच एजेंसियों की स्वायŸाता सुनिश्चित करवायें व घोटालों की जाँच तीव्रता से पूरी कराने के लिए जाँच एजेंसियों पर दबाव बनायें। तब भ्रष्टाचार के स्थायी समाधान निकालना सम्भव हो सकेगा। शुंगलु जैसी जाँच समिति से कुछ हासिल होने वाला नहीं।

Sunday, March 27, 2011

संसद में असली बहस तो हुयी नहीं !

Rajasthan Patrika 27 Mar 11
विकिलीक्स के बाद देश की राजनीति में आये भूचाल का सीधा असर यह हुआ कि संसद में इस पूरे मुद्दे पर काफी तीखी और लम्बी बहस छिड़ गयी। जिसकी अन्तिम परिणति प्रधानमंत्री के बयान से हुयी। पर इस पूरी बहस में असली मुद्दा कहीं खो गया। जिस पर अब भी बहस होनी चाहिए। संसद न करे तो देश के मीडिया और जनता को करनी चाहिए। असली मुद्दा है, विकिलीक्स का वह अंश जिसमें उसने यह खुलासा किया है कि अमरीका के राज़दूत भारत सरकार के मंत्रियों से मिलकर सरकार की खैर-खबर लेते रहे और किस व्यक्ति को कौन सा पद दिया जाए, इसकी भी चर्चा करते रहे। मसलन यह बात साफ हुयी है कि अमरीका चाहता था कि मोंटेक सिंह आहलूवालिया को भारत का विŸामंत्री बनाया जाये।

यह बहुत चिंता की बात है। यह देश की अस्मिता और 110 करोड़ लोगों के जीवन से जुड़ा सवाल है। क्या हमारी सरकार का चाल-चलन, उसकी नीतियाँ और उसमें कौन, कहाँ बैठे, इसका फैसला व्हाइट हाउस में बैठने वाले करते हैं? इसका मतलब तो यह हुआ कि अपनी सरकारें जिनके द्वारा चुनी जाती हैं, उनके हित नहीं साधतीं, बल्कि अमरीकी हितों को ध्यान में रखकर बनायी और चलायी जाती हैं। जो ज़ाहिरन देशवासियों के हित से मेल नहीं खाते। वैसे यह कोई नई बात नहीं है। खेसरी दाल पर प्रतिबन्ध लगाने का मामला हो या भारत की दवा नीति बनाने का, परमाणु नीति बनाने का मामला हो या रक्षा नीति, सबमें अमरीकी दखल या उससे पहले रूसी दखल रहा है। यह बात वे सब जानते हैं जो सŸाा में रहे हैं या सŸाा के नज़दीक रहे हैं। चाहें वे राजनेता हों, अफसर हों या मीडियाकर्मी भी हों। जिस देश में 80 फीसदी लोग प्रदूषित पेयजल के कारण बीमार पड़ते हों, उस देश में एड्स जैसी निरर्थक बीमारी पर सरकार का इतना ध्यान देना दर्शाता है कि जीवन के हर क्षेत्र में देशवासियों का हित ताक पर रखकर अमरीका या बहुराष्ट्रिय कम्पनियों के हित साधे जा रहे हैं।

Punjab Kesari 28.03.11
यह बात अगर विकिलीक्स के खुलासे तक ही सीमित रहती तो इसकी सच्चाई को लेकर संशय बना रहता। पर ऐसा नहीं हुआ। विपक्ष के हमले का जबाव देते हुए भारत सरकार के संसदीय कार्यमंत्री पवन बंसल ने, जो कि काँग्रेस के प्रमुख प्रवक्ता के रूप में बोले, साफ कहा कि विदेशी राजदूतों का काम अपनी तैनाती वाले देश में सूचना एकत्रित करना होता है। पर बंसल जी इस बात का स्पष्टीकरण नहीं दे पाये कि राजदूत के साथ मंत्रियो ंकी मुलाकात और उसमें सरकार की कार्यविधि और नीतियों की चर्चा करना कूटनीतिज्ञ गुप्तचरी के दायरे में कैसे आता है? यह तो सीधा-सीधा सरकारी कामकाज में बाहरी दखलअंदाजी का मामला बनता है। जिसके लिए ऐसे राजदूतों से मिलकर इस तरह की चर्चाऐं करने वाले सभी मंत्री दोषी हैं। सही मायने में तो ऐसा आचरण देशद्रोह की श्रेणी में आता है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के दौरान बंगाल में इस तरह का आचरण करने वाले मीरज़ाफर को इतिहास ने कभी माफ नहीं किया।

रोचक बात यह है कि पवन बंसल जहाँ सफाई देते-देते अपने ही जाल में फंस गये, वहीं किसी को अहसास भी नहीं हुआ कि विपक्ष भी अनजाने में ही ऐसी भूल कर बैठा। विपक्ष की तरफ से बोलते हुए भाजपा के वरिष्ठ नेता डाॅ. मुरली मनोहर जोशी ने यह स्वीकारा कि भारत की ‘सरकारों’ पर अमरीकी प्रभाव रहा है। यह महत्वपूर्ण बात है। विपक्ष के हमले का निशाना यू.पी.ए. की वर्तमान सरकार है। पर डाॅ. जोशी ने ‘सरकार’ न कहकर ‘सरकारों’ कहा। जिसका साफ मतलब है कि एन.डी.ए. की सरकार भी अमरीकी प्रभाव से अछूती नहीं रही। अगर यह बात है तो अब सŸाापक्ष को विपक्ष पर हावी हो जाना चाहिए और डाॅ. जोशी से पूछना चाहिए कि एन.डी.ए. की सरकार किस तरह से अमरीकी प्रभाव में थी? ऐसी कौन सी नियुक्तियाँ और फैसले थे जो वाजपेयी सरकार ने अमरीकी दबाव में लिये? क्योंकि तभी यह साफ होगा कि अमरीका का भारत पर कितना और कैसा दबदबा बन चुका है।

Jag Baani 28.03.11
डाॅ. जोशी को ईमानदारी और साफगोई से इन तथ्यों को देश की संसद, लोगों और मीडिया के सामने रखना चाहिए। जहाँ इस सारी बहस से यह सिद्ध हो जाऐगा कि संसद में वोट खरीदने का मामला कहीं कम गंभीर मुद्दा है, बमुकाबले इस बात के कि हमारी सरकारें ही अमरीका के हाथ बिकी हुयी हैं। मतलब ये कि पिछले हफ्ते संसद में जो हंगामा मचा और जनता के पैसे की बर्बादी हुयी उसका कोई लाभ देश को नहीं मिला। सांसदों और विधायकों की खरीद-फरोख्त कर सरकार बनाने और बिगाड़ने में देश का कोई प्रमुख दल कभी पीछे नहीं रहा। यह बात हर राजनैतिक व्यक्ति जानता है। रिश्वत के प्रमाण अक्सर मिला नहीं करते क्योंकि रिश्वत या सांसदों और विधायकों की खरीद रजिस्ट्रार कार्यालय में जाकर स्टाम्प पेपर के ऊपर रजिस्ट्री करवाकर नहीं होती। यह सौदे तो पर्यटक सैरगाहों, उद्योगपतियों के ड्राईंगरूमों, सŸाा के दलालों के फार्म हाउसों और पाँच सितारा होटलों के कमरों में छिपकर किये जाते हैं। इसलिए जो असली मुद्दा बहस का होना चाहिए था, वो यह कि आखिर हमारी ‘सरकारें’ अमरीका के आगे किस सीमा तक घुटने टेक चुकी हैं? देखना होगा कि आने वाले दिनों में देश में कितने महत्वपूर्ण लोग इस मुद्दे को उठाने की हिम्मत दिखाते हैं?

Tuesday, March 22, 2011

ऐसे साफ़ नहीं होगी यमुना

Amar Ujala 22March11
यमुना शुद्धि की माँग को लेकर पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जनभावनाऐं प्रबल होती जा रही हैं। इसमें महत्वपूर्ण भूमिका मीडिया ने निभायी है। जिसने यमुना शुद्धि का माहौल बनाना शुरू कर दिया है। यह एक शुभ संकेत है। पर क्या मात्र इतने से हम यमुना शुद्ध कर पायेंगे? इस पर गहरायी से सोचने की जरूरत है। अखबार में फोटो छपवाने या टी.वी. पर बयान देने के लिए यमुना शुद्धि का संकल्प लेने वालों की एक लम्बी जमात है। पर इनमें से कितने लोग ऐसे हैं जिनके पास यमुना की गन्दगी के कारणों का सम्पूर्ण वैज्ञानिक अध्ययन उपलब्ध है? कितने लोग ऐसे हैं जिन्होंने दिल्ली से लेकर इलाहाबाद तक यमुना के किनारे पड़ने वाले शहरों के सीवर और साॅलिड वेस्ट के आकार, प्रकार, सृजन व उत्सृजन का अध्ययन कर यह जानने की कोशिश की है कि इन शहरों की यह गन्दगी कितनी है और अगर इसे यमुना में गिरने से रोकना है तो इन शहरों में उसके लिए क्या आवश्यक आधारभूत ढाँचा, मानवीय व वित्तीय संसाधन उपलब्ध हैं? हम मथुरा के ध्रुव टीले के नाले पर बोरी रखकर उसे रोकने का प्रयास करें और उस नाले में आने वाले गन्दे पानी को ट्रीट करने या डाइवर्ट करने की कोई व्यवस्था न करें तो यह केवल नाटक बनकर रह जायेगा। ठीक उसी तरह जिस तरह कि यमुना के किनारे खड़े होकर संत समाज यमुना शुद्धि का संकल्प तो ले पर उन्हीं के आश्रम में भण्डारों में नित्य प्रयोग होने वाली प्लास्टिक की बोतलें, गिलास, लिफाफे, थर्माकाॅल की प्लेटें या दूसरे कूड़े को रोकने की कोई व्यवस्था ये संत न करें। रोकने के लिए जरूरी होगा मानसिकता में बदलाव। डिटर्जेंट से कपड़े धोकर और डिटर्जेंट से बर्तन धोकर हम यमुना शुद्धि की बात नहीं कर सकते। कितने लोग यमुना के प्रदूषण को ध्यान में रखकर अपनी दिनचर्या में और अपनी जीवनशैली में बुनियादी बदलाव करने को तैयार हैं?

राधारानी ब्रज 84 कोस यात्रा के दौरान हमने अनेक बार यमुना को पैदल पार किया है और यह देखकर कलेजा मुँह को आ गया कि यमुना तल में एक मीटर से भी अधिक मोटी तह पाॅलीथिन, टूथपेस्ट, साबुन के रैपर, टूथब्रश, रबड़ की टूटी चप्पलें, खाद्यान्न के पैकिंग बाॅक्स, खैनी के पाउच जैसे उन सामानों से भरी पड़ी है, जिनका उपयोग यमुना के किनारे रहने वाला हर आदमी कर रहा है। जितना बड़ा आदमी या जितना बड़ा आश्रम या जितना बड़ा गैस्ट हाउस या जितना बड़ा कारखाना, उतना ही यमुना में ज्यादा उत्सर्जन।

नदी प्रदूषण के मामले में प्रधानमंत्री के सलाहकार मण्डल के सदस्यों से बात की और जानना चाहा कि यमुना शुद्धि के लिए उनके पास लागू किये जाने योग्य एक्शन प्लान क्या है? उत्तर मिला कि देश के सात आई.आई.टी.यों को मिलाकर एक संगठन बनाया गया है, जो अब इसकी डी.पी.आर. तैयार करेगा और फिर उस डी.पी.आर. को लेकर हम भारत सरकार के मंत्रालय के पास जायेंगे और दबाब डालकर उसको लागू करवायेंगे। यह पूरी प्रक्रिया ही हास्यास्पद और शेखचिल्ली वाली है। भारत सरकार के मंत्रालय गत् 63 वर्षों से ऐसी समस्याओं के हल के लिए अरबों रूपया वेतन में ले चुके हैं और खरबों रूपया जमीन पर खर्च कर चुके हैं। फिर वो चाहे शहरों का प्रबन्धन हो या नदियों का। नतीजा हमारे सामने है। यमुना सहनशीलता से एक करोड़गुना ज्यादा प्रदूषित होकर एक मृत नदी घोषित हो चुकी है। यह सही है कि आस्थावानों के लिए वह यम की बहन, भगवान श्रीकृष्ण की पटरानी और हम सबकी माँ सदृश्य है, पर क्या हम नहीं जानते कि समस्याओं का कारण सरकारी लालफीताशाही, भ्रष्टाचार और अविवेकपूर्ण नीति निर्माण ही है। इसलिए यमुना प्रदूषण की समस्या का हल सरकार नहीं कर पायेगी। उसने तो राजीव गांधी के समय में यमुना की शुद्धि पर सैंकड़ों करोड़ रूपया खर्च किया ही था, पर नतीजा रहा वही ढाक के तीन पात।

इसलिए यमुना शुद्धि की पहल तो लोगों को करनी होगी। जिसके लिए चार स्तर पर काम करने की जरूरत है। हर शहर में ब्राह्मण बुद्धि वाले कुछ लोग साथ बैठकर अपने शहर की गन्दगी को मैनेज करने का वैज्ञानिक और लागू किये जाने योग्य माॅडल विकसित करें। उसी शहर के क्षत्रिय बुद्धि वाले लोग युवाशक्ति को जोड़कर इस माॅडल को लागू करने में अपने बाहुबल का प्रयोग करें। वैश्य वृत्ति के लोग इस माॅडल के क्रियान्वयन के लिए आवश्यक धनराशि संग्रह करने या सरकार से निकलवाने का काम करें और यमुना जी के प्रति श्रद्धा एवं आस्था रखने वाले आम लोग जनान्दोलन के माध्यम से चेतना फैलाने का काम करें।

भगवान ने जो चारों वर्णों की सृष्टि की, वो जन्म आधारित नहीं, कर्म आधारित है। इसलिए यमुना शुद्धि के लिए भी चारों वर्णों का सहयोग अपेक्षित है। कोई किसी से कम नहीं। चाहे वह शूद्र स्तर का कार्य ही क्यों न हो। पर साथ ही हमें यह स्वीकारने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि यमुना को लेकर जो प्रयास अभी किये जा रहे हैं, वह ब्राह्मण स्तर के नहीं। इसलिए इनके सफल होने में संदेह है।

दो वर्ष पहले दिल्ली के एक बहुत बड़े अनाज निर्यातक मुझे पश्चिमी दिल्ली के अपने हजारों एकड़ के खेतों में ले गये। जहाँ बड़े वृक्षों वाले बगीचे भी थे। अचानक मेरे कानों में बहते जल की कल-कल ध्वनि पड़ी। तो मैंने चैंककर पूछा कि क्या यहाँ कोई नदी है? कुछ आगे बढ़ने पर हीरे की तरह चमकते बालू के कणों पर शीशे की तरह साफ जल से बहती नदी दिखाई दी। मैंने उसका नाम पूछा तो उन्होंने खिलखिलाकर कहा- अरे ये तो आपकी यमुना जी हैं। यह स्थान दिल्ली में यमुना में गिरने वाले नजफगढ़ नाले से जरा पहले का था। यानि दिल्ली में प्रवेश करते ही यमुना अपना स्वरूप खो देती है और एक गन्दे नाले में बदल जाती है। यमुना में 70 फीसदी गन्दगी केवल दिल्ली वालों की देन है। इसलिए यमुना मुक्ति का आन्दोलन चलाने वाले लोगों को सबसे ज्यादा दबाव दिल्लीवासियों पर बनाना चाहिए। उन्हें झकझोरना चाहिए और मज़बूर करना चाहिए कि वे अपना जीवन ढर्रा बदलें तथा अपनी गन्दगी को या तो खुद साफ करें या अपने इलाके तक रोककर रखें। उसे यमुना में न जाने दें। रोज़ाना 10 हजार से ज्यादा दिल्लीवासी वृन्दावन आते हैं। यमुना किनारे संकल्प लेने से ज्यादा प्रभावी होगा अगर हम इन दिल्लीवालों के आगे पोस्टर और पर्चे लेकर खड़े रहें और इनसे सवाल पूछें कि तुम बाँकेबिहारी का आशीर्वाद लेने तो आये हो पर लौटकर उनकी प्रसन्नता के लिए यमुना शुद्धि का क्या प्रयास करोगे? इस एक छोटे से कदम से दिल्ली में हर काॅलोनी तक सन्देश जायेगा और एक फिज़ा बनेगी। ठाकुरजी ने चाहा, संत सही दिशा में लोगों को जीवन ढर्रा बदलने के लिए पे्ररित कर सके तो जनभावनाओं का सैलाब यमुना को शुद्ध करा लेगा। वरना यह एक और शिगूफा बनकर रह जायेगा।

Monday, March 21, 2011

होली के रंगों से या नाभकीय विकरणों से

Rajasthan Patrika 20 March11
अल्हड़पन और मस्ती का त्यौहार है होली। सादगी और पे्रमभरा। न रंग भेद, न जाति भेद और न ही धर्मभेद। होली ही क्यों, भारत के हर त्यौहार में जीवन को जीने का आनन्द है। चाहें पोंगल हो या बैशाखी, नवरात्रि हो या ईद, प्रेम से मिलना, एक-दूसरे के गले लग जाना, घर के बने स्वादिष्ट व्यंजनों का आदान-प्रदान करना और लोककलाओं व लोकसंस्कृति से भरपूर मेलों का आनन्द लेना। दरअसल यही था हमारा सम्पूर्ण जीवन चक्र। जिसमें खेती आधारित अर्थव्यवस्था, अध्यात्म आधारित मानसिकता और पर्यावरण आधारित जीवनशैली। पर आज यह सब हमसे तेजी से छीना जा रहा है, विकास के नाम पर। इसलिए इस वर्ष हम रंगों की नहीं नाभिकीय विकरणों की होली खेल रहे हैं। भारत में न सही, जापान में ही। पर सन्देशा हम सब के लिए भी है।
क्योंकि हमारे हुक्मरान विकास के मद में चूर हैं। अंधों की तरह हम पश्चिम के विकास माॅडल का अनुसरण कर रहे हैं। जिसका सबसे चमचमाता नमूना है, जापान और अमरीका। पिछले हफ्ते से जापान में प्रकृति के कहर का जो दिल दहला देने वाला टी.वी. कवरेज आ रहा है, उससे ज्यादा खतरनाक है नाभिकीय विस्फोटों से फैल रहे विकरणों का खौफनाक मंजर। जिसके चलते पूरे जापान से 3 लाख लोगों को घर छोड़ने पर मज़बूर कर दिया गया है। पिद्दी से देश जापान के 55 लाख लोग कड़ाके की सर्दी में, बिना बिजली के, एक कम्बल में, एक-दूसरे को आलिंगनबद्ध किये हुए रोते-चीखते एक-एक पल बिता रहे हैं। इनमें से ढेड़ लाख लोगों को तो किसी न किसी तरह के नाभिकीय विकरण ने अपनी चपेट में ले लिया है। टोक्यो की नाभिकीय बिजली कम्पनी ‘टोक्यो इलैक्ट्रिक पाॅवर कम्पनी’ ने भूचाल के भारी झटके झेलने के बाद आपातकालीन स्थिति की घोषणा कर दी है। दुनियाभर के नाभिकीय वैज्ञानिक इस सदमें से उबर नहीं पा रहे हैं। सब कबूतर की तरह आॅंख बन्द करके यह बताने में जुटे हैं कि उनके देशों को इस खूनी होली से कोई खतरा नहीं।
भारत के प्रधानमंत्री ने भी संसद में घोषणा की कि हमारे नाभिकीय संयत्रों की सुरक्षा की समीक्षा की जा रही है। भावा परमाणु केन्द्र, मुम्बई देश की आर्थिक राजधानी के बीचों-बीच स्थित है। जिसके रिएक्टर समुद्र तट पर हैं। जापान का मंजर देखकर महाराष्ट् विधानसभा के सदस्य इतने आतंकित हो गये कि उन्होंने भावा परमाणु केन्द्र के अध्यक्ष को विधानसभा में बुलवाकर यह आश्वासन लिया कि मुम्बई ऐसे खतरे के प्रति तैयार है। प्रधानमंत्री हों या परमाणु केन्द्र के अध्यक्ष, इनके ये वक्तव्य ठीक ऐसे ही लगते हैं जैसे देश में किसी बड़ी आतंकवादी घटना के बाद घोषणा की जाती है कि देशभर में रेड अलर्ट जारी कर दिया गया है। चप्पे-चप्पे पर पुलिस की नजर है। हर संदिग्ध व्यक्ति को देखा-परखा जा रहा है। पर हम और आप जानते हैं कि बाकी देश की क्या चले, राजधानी दिल्ली तक में रेड अलर्ट का कोई मायना नहीं होता। इसलिए यह भ्रम पालना कि परमाणु रिएक्टरों और बड़े बांधों से हम सुरक्षित हैं, हमारी मूर्खता होगी। भूचाल और सुनामी कभी भी, कहीं भी आ सकती है और इसलिए तबाही का यह मंजर जापान तक सीमित नहीं रहेगा।
जापान ने तो फिर भी भूकम्परोधी तकनीकि को इतना विकसित कर लिया है कि 5.8 के रिएक्टर स्केल के स्तर पर झटके झेलने के बावजूद टोक्यो की गगनचुंबी इमारतें हिलकर रह गयीं, गिरी नहीं। पर घोटालों के विशेषज्ञ भारत में जहाँ लवासा से आदर्श सोसाईटी तक हर जगह निर्माण का मतलब है, नियमों को ताक पर रखना, वहाँ अगर ऐसे भूकम्प आ जायें तो रोज बनती एक से एक इन गगनचुंबी इमारतों की हालत क्या होगी, सोच कर बदन सिहर जाता है। पर हर दिन अखबार में आप विज्ञापन देखते हैं कि आपके अपने नगर की सबसे ऊँची इमारत में फ्लैट बुक कराईये।
महात्मा गाँधी से लेकर देश का हर पर्यावरणविद्, आम किसान और वनवासी, सामाजिक कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी और गाहे-बगाहे देश का मीडिया हुक्मरानों की पर्यावरण के प्रति बढ़ती संवेदन शून्यता के खिलाफ आवाज उठाता रहता है। पर इनके कानों पर जूं नहीं रेंगती। मीडिया में एक कहावत है कि ‘हर मुद्दा ठण्डा पड़ जाता है’। हो सकता है, कुछ दिन बाद जापान की इस त्रासदी को हम वैसे ही भूल जायें जैसे गुजरात के भूकम्प या दक्षिण पूर्वी एशिया में आयी सुनामी को भूल गये और जिन्दगी यूं ही ढर्रे पर चलती रहे। पर यह न तो हमारे लिए अच्छा होगा और न ही हमारे आने वाली पीढ़ियों के लिए।
आज सूचना के बढ़ते तंत्र ने पूरी दुनिया को जोड़ दिया है। हम सबको इसका लाभ उठाना चाहिए। पूरी दुनिया से एकसाथ इस विनाशकारी विकास के विरूद्ध आवाज उठनी चाहिए। हम सबको अपने-अपने हुक्मरानों की व लाभ पिपासु बहुराष्ट्रिय कम्पनियों की पैशाचिक मानसिकता के विरूद्ध साझी लड़ायी लड़नी चाहिए। फिर हम चाहें हिन्दू हों, ईसाई हों, मुसलमान हों, कम्यूनिस्ट हों। आपसी भेदों को भूलकर जिन्दगी को उस ढर्रे की तरफ वापस लौटाने के लिए माहौल बनाना चाहिए जब ‘सादा जीवन और उच्च विचार’ का सिद्धांत सर्वमान्य था। तभी हमारी जिन्दगी में खुशियाँ, नाचगान, उत्सव-मेले लौट पायेंगे। तभी हम अबीर गुलाल से होली खेलने का मजा लूट पायेंगे। सम्पन्नता, विकास और मस्ती के नाम पर जो माॅडल हमें दिया जा रहा है, वह रावण की स्वर्णमयी लंका है, जिसका नाश अवश्यम्भावी है। अगर हम कछुए की मानिंद बैठे रहे तो फिर रंगों की नहीं नाभिकीय विकरणों की होली के लिए हमें हर समय तैयार रहना चाहिए।

Monday, March 14, 2011

न्यायमूर्ति बालाकृष्णन क्या अकेले भ्रष्ट हैं?

Punjab Kesari 14March11
न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर, कानूनविद् रामजेठमलानी, राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरूण जेटली,  राज्यसभा सांसद सीताराम येचुरी और पूर्व कानूनमंत्री शांतिभूषण, सब मिलकर भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालाकृष्णन के पीछे पड़े हैं। इनका आरोप है कि बालाकृष्णन ने अपने पद का दुरूपयोग कर, अपने लिये और अपने नातेदारों के लिए काफी अवैध धन इकठ्ठा किया। इसलिए उसकी जाँच होनी चाहिए और उन्हें भारत के मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद से हटा देना चाहिए। इसमें गलत कुछ भी नहीं है।

अगर बालाकृष्णन ने न्यायपालिका के सर्वोच्च पद पर रहते हुए अपने पद की गरिमा का ख्याल नहीं रखा और भ्रष्ट अथवा अनैतिक आचरण करके अवैध धन कमाया है तो उसकी जाँच होनी ही चाहिए और उन्हें इसकी सजा मिलनी चाहिए। उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में दाखिल जनहित याचिका का संज्ञान लिया है। आने वाले समय में देखना होगा कि ये मामला कहाँ तक पहुँचता है, जाँच होती भी है या नहीं? सबूत मिलते हैं या नहीं और अगर बालाकृष्णन अपराधी पाये जाते हैं तो उन्हें सजा मिलती है या नहीं?

पर यहाँ एक बात बड़ी चिंतनीय है। वह यह है कि बालाकृष्णन के पीछे पड़ी ये चैकड़ी अपने आचरण में दोहरे मानदण्ड अपना रही है। मेरा इनमें से किसी से कोई द्वेष नहीं। सबसे पिछले 20 बरसों से सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध हैं। पर मेरी समझ में यह बात नहीं आती कि नैतिकता के सवाल उठाने वाले ये लोग कितने आसानी से दोहरे चेहरे अपना लेते हैं।

बहुत पुरानी बात नहीं है। सन् 2000 में भारत के मुख्य न्यायाधीश डाॅ. ए.एस. आनन्द थे। उनके पद पर बैठते ही मैंने उनका मध्य प्रदेश का एक जमीन घोटाला अपने अंग्रेजी अखबार कालचक्र में छापा। इस घोटाले में डाॅ. आनन्द ने अपनी पत्नी की मार्फत झूठे शपथपत्र दाखिल करके, मध्य प्रदेश सरकार से एक करोड़ रूपये से ज्यादा का अवैध मुआवजा वसूल किया। जिन वकीलों ने और जजों ने उनकी इस घोटाले में मदद की, उन्हें पदोन्नती दिलवायी। यह घोटाला छापने के बाद, सर्वोच्च न्यायालय की बार, संसद और देश का मीडिया सकते में आ गया। क्योंकि भारत के इतिहास में यह पहली बार था जब किसी ने पदासीन मुख्य न्यायधीश के भ्रष्टाचार पर इस तरह दिलेरी से लेख छापने की हिम्मत की थी। आशा के विपरीत मुझे अदालत की अवमानना में जेल भेजने की हिम्मत डाॅ. आनन्द नहीं कर सके। क्योंकि उन्हें पता था कि उनसे पहले मैं भारत के मुख्य न्यायाधीश जे.एस. वर्मा के अनैतिक आचरण पर देश में काफी तूफान मचा चुका था।

इस दौरान इन सब लोगों से और देश के तमाम बड़े राजनेताओं से मैंने जाकर अपील की कि वे इस मुद्दे को संसद में उठाकर डाॅ. आनन्द के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लायें। पर सब डर गये। कोई न्यायापालिका से भिड़ने को तैयार नहीं था। मज़बूरन मैंने भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर. नारायणन को अपील भेजी। सवाल किया कि मेरे जैसा पत्रकार और जागरूक नागरिक इस परिस्थिति में क्या करे? राष्ट्रपति ने मेरी याचिका तत्कालीन कानूनमंत्री रामजेठमलानी को भेज दी। जेठमलानी ने उसे टिप्पणी के लिए मुख्य न्यायाधीश डाॅ. आनन्द के पास भेज दिया। इस पर आनन्द हड़बड़ा गये और इस्तीफा देने को तैयार हो गये। पर तब उन्हें अरूण जेटली और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सहारा दिया। नतीज़तन जेठमलानी को कानून मंत्री का पद गंवाना पड़ा और अरूण जेटली को भारत का कानून मंत्री बना दिया गया। मेरे द्वारा उठाये इस विवाद पर उस समय देश और दुनिया के मीडिया में बहुत कुछ छपा। पर डाॅ. आनन्द अपने पद पर बने रहे। क्योंकि उन्हें नये कानून मंत्री अरूण जेटली व प्रधानमंत्री वाजपेयी का वरदहस्त प्राप्त था। उनके इस आचरण से उत्तेजित होकर मैंने जम्मू और श्रीनगर में जाकर डाॅ. आनन्द के कई और जमीन घोटाले खोजे व उन्हें सप्रमाण कालचक्र के अंग्रेजी अखबारों में छापा। मेरी इस जुर्रूत को देखकर डाॅ. आनन्द ने छः घोटाले छपने के बाद मेरे खिलाफ जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में अदालत की अवमानना का मुकदमा कायम करवा दिया। जबकि यह मुकदमा अगर कायम होना था तो सर्वोच्च अदालत में होना चाहिए था। मुझे आतंकित करने के मकसद से आदेश दिये गये कि मुझे श्रीनगर में रहकर अदालत की कार्यवाही का सामना करना होगा। यह जानते हुए कि मैं हिज्बुल मुज़ाहिदीन के अवैध आर्थिक स्रोतों को उजागर कर चुका था तथा मुझे आतंकवादियों से जान का खतरा था। इस तरह के आदेश अदालत से करवाये गये। पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने परम्परा से हटकर सर्वोच्च न्यायालय के सभी न्यायाधीशों को लिखा कि विनीत नारायण का जीवन इस राष्ट्र के लिए कीमती है। इसलिए अगर उन पर मुकदमा चलाना है तो उसे पंजाब या दिल्ली के उच्च न्यायालय में ट्रांसफर कर दिया जाये। पर अदालत ने एक न सुनी। जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने मुझे भगौड़ा अपराधी घोषित कर दिया। मेरे घर और दफ्तर पर जम्मू पुलिस के छापे पड़ने लगे। मुझे ढेड़ वर्ष भूमिगत रहना पड़ा। आखिर मैं देश छोड़कर भागने पर मज़बूर हो गया। अदालत की अवमानना के डर से भारत के मीडिया ने पदासीन मुख्य न्यायाधीश के विरूद्ध, इन मामलों को छापने की हिम्मत नहीं दिखायी। लंदन, न्यूयाॅर्क, वाॅशिंगटन में मुझे पूरी दुनिया के मीडिया का समर्थन मिला। सी.एन.एन. और बी.बी.सी. जैसे टी.वी. चैनलों पर मेरे साक्षात्कारों का सीधा प्रसारण हुआ। दुनिया के 300 से अधिक मीडिया संगठनों ने कानूनमंत्री अरूण जेटली और प्रधानमंत्री वाजपेयी को ई-मेल पर अपील भेजी कि विनीत नारायण की सुरक्षा की जाये और मुख्य न्यायाधीश डाॅ. ए.एस. आनन्द के भ्रष्टाचार की जाँच की जाये। पर इनके कानों पर जूं नहीं रेंगी। डाॅ. आनन्द के सारे घोटाले सप्रमाण आज भी कालचक्र के कार्यालय में संजोकर रखे गये हैं। जिनकी जाँच कोई भी, कभी भी कर सकता है। बावजूद इसके सेवानिवृत्त होने के बाद डाॅ. आनन्द को भारत के मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया। यह नियुक्ति एन.डी.ए. द्वारा राष्ट्रपति बनाये गये डाॅ. अब्दुल कलाम आजाद ने सारे तथ्यों को जानने के बाद भी की।

मेरा सवाल न्यायमूर्ति बालाकृष्णन के खिलाफ जाँच की माँग करने वालों से यह है कि क्या भ्रष्टाचार को नापने के दो मापदण्ड होने चाहिए? डाॅ. आनन्द के लिए कुछ और, दलित बालाकृष्णन के लिए कुछ और? अगर ऐसा नहीं है तो ये सारी चैकड़ी देश को इस बात का जबाव दे कि डाॅ. आनन्द के खिलाफ भ्रष्टाचार के इतने सबूत होते हुए भी इन्होंने वैसा अभियान क्यों नहीं चलाया जैसा अब ये चला रहे हैं? और अब अदालत से माँग करें कि डाॅ. आनन्द के भ्रष्टाचार की भी वैसी ही जाँच हो जैसी बालाकृष्णन की हो रही है। दलितों की मसीहा बहिन मायावती को भी इस सवाल को जोर-शोर से उठाना चाहिए।

Sunday, March 6, 2011

पश्चिम एशिया की क्रांति कहाँ तक जायेगी?

Rajasthan Patrika 6 March11
तहरीर चैक की क्रांति ने दशकों से काबिज तानाशाह राष्ट्रपति होस्नी मुबारक को पैदल कर दिया। ट्यूनिशिया उबाल पर है। लीबिया में कर्नल गद्दाफी के खिलाफ आन्दोलन बढ़ता जा रहा है और अब इन सबसे खतरनाक तानाशाह के दिन गिने-चुने रह गये दीखते हैं। यमन, ईरान, सउदी अरेबिया, हर जगह तानाशाहों के खिलाफ गुस्सा उबाल पर है।
आर्थिक विकास का न होना, युवाओं के आगे रोजगार के अवसर न होना, तानाशाहों का बर्बरतापूर्ण आक्रामक रवैया, जिसने कभी किसी विरोध के स्वर को पनपने ही नहीं दिया आदि कुछ ऐसे कारण हैं जिन्होंने मौजूदा हालात को जन्म दिया। इन तानाशाहों का ऐसा रवैया पश्चिमी यूरोप और अमरीका जैसे देशों ने इसलिए स्वीकार कर लिया क्योंकि उनका आंकलन था कि ऐसा न करने की हालत में अलकायदा जैसे कट्टरपंथी तालिबान, इन देशों की सŸााओं पर काबिज हो सकते हैं। ईरान जैसे देश में तो कमोबेश यही स्थिति रही। जहाँ तानाशाह व तालिबानी मानसिकता एकसाथ स्थापित हो गयी।
पश्चिम की इस मज़़बूरी का इन तानाशाहों ने भरपूर लाभ उठाया। यहाँ तक कि इन मुल्कों की सेना भी तानाशाहों के साथ मिलकर चली और भ्रष्टाचार करके देश के संसाधनों का इन सबने मिलकर मजा लूटा। जनता पिसती रही। फिर भी उसने बगावत की हिम्मत नहीं की। इस बार भी जो बगावत हुई है, उसका नेतृत्व न तो तालिबान के पास है और न ही सŸाा के किसी उल्लेखनीय प्रबल विरोधी के पक्ष में। यह आन्दोलन तो स्वस्फूर्त था। जिसमें सबसे ज्यादा सक्रिय, पढ़ी-लिखी युवापीढ़ी रही। मिस्र में कामयाबी तो मिल गयी और शायद बाकी देशों में भी आवाम को ऐसी कामयाबी मिल जाए, लेकिन यह कामयाबी लोकतंत्र को स्थापित कर पायेगी, इसमें सन्देह है। क्योंकि कटट्रपंथी इन देशों को प्रजातांत्रिक देश नहीं बनने देना चाहते। इसलिए वे परदे के पीछे से खेल खेलते हुए सŸाा के शिखर पर पैदा हो रहे शून्यों को भरने का प्रयास करेंगे। यह एक भयावह स्थिति होगी। क्योंकि तब हालात पहले से भी बदतर हो जायेंगे।
दरअसल समस्या यह है कि पाँच-छः दशकों से तानाशाही झेलते हुए इन मुल्कों के आवाम को लोकतंत्र का कोई अनुभव नहीं है। न तो यहाँ लोकतांत्रिक संस्थाऐं पनप पायीं हैं और न ही उनको विकसित करने की समझ और अनुभव वाले लोग वहाँ मौजूद हैं। इसलिए डर यह भी है कि सŸाा से हटा दिये गये तानाशाहों के हुक्काबरदार लोग इस नयी प्रक्रिया की कमान संभाल लें और इस तरह एक बार फिर वही चैकड़ियाँ पिछले दरवाजे से सŸाा पर काबिज हो जायें। यह इसलिए भी ज्यादा संभव है क्योंकि इन मुल्कों की सेना लोकतंत्र बर्दाश्त नहीं करेगी। वो लोकतंत्र की राह में हर संभव रोड़ा अटकायेगी। सेना के बड़े अफसरों को जिस लूट और ऐश की आदत पड़ गयी है, वह लोकतंत्र की स्थापना के बाद उनसे छीन लिया जायेगा। इसलिए वे या तो खुद सŸाा पर काबिज होने की कोशिश करेंगे या नये संविधान में ऐसे प्रावधान बनवा देंगे जो उनकी ताकत कम न हो। साम्राज्यवादी देशों को यह समीकरण पसन्द आयेगा। क्योंकि उनका उद्देश्य तो इन देशों को लूटना है, बनाना नहीं। इस तरह सच्ची भावना, दिलों में आग और दिमाग में बर्फ लेकर, इस क्रांति की शुरूआत करने वाले, इन देशों का आवाम, खासकर युवापीढ़ी फिर ठगी जायेगी। इतने बड़े आन्दोलनों का कोई नतीजा नहीं निकलेगा। आज इन देशों को जरूरत है एक ऐसी नेतृत्व क्षमता की, जिसे अपने अतीत पर गर्व हो और वर्तमान को ठीक करने की ललक। ऐसा नेतृत्व अगर पनपता है, तभी बचने की उम्मीद है।
इन देशों में मौजूदा राजनैतिक दल, जिनका कोई वजूद नहीं है, वे भी सक्रिय हो सकते हैं। पर वे समय की धारा को नहीं प्रभावित कर पायेंगे। कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि इन देशों की क्रांति, इनके संविधान और इनके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं ला पायेगी और तब ये सारी मेहनत बेकार जाने का खतरा है। जो भी हो, फिलहाल तो यह आग फैल ही रही है। इससे एक सन्देश पूरी दुनिया में गया है कि जनता कितनी ही साधनहीन और असहाय हो, अगर कमर कस ले व संगठित हो जाये तो बड़े-बड़े तानाशाहों को गिरा सकती है। इसलिए पश्चिम एशिया में जो कुछ घट रहा है, वह हमारे लिए जिज्ञासा का विषय तो है हीः इन देशों में इन फुटकर क्रांतियों का परिणाम सुःखद और सकारात्मक होना चाहिए। जिसके लिए अन्य देशों को भी, इन देशों की मदद के लिए आगे बढ़ना चाहिए। ताकि वहाँ कानून का राज कायम हो सके।

Monday, February 28, 2011

ग्रीन इंडिया मिशन : घोषणा या हकीकत

Punjab Kesari 28 Feb11
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