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Monday, April 4, 2011

शुंगलु समिति की रिपोर्ट बेमानी


Punjab Kesari 4Apr2011
राष्ट्रकुल खेलों में हुए घोटालों को जाँचने के लिए प्रधानमंत्री ने 24 अक्टूबर, 2010 को शुंगलू समिति गठित की थी, जिसे 3 महीने में अपनी रिपोर्ट देनी थी। समिति ने पिछले हफ्ते अपनी अन्तरिम रिपोर्ट दी, जिसमें दिल्ली सरकार की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित व दिल्ली के उपराज्यपाल तजेन्द्र खन्ना पर पैसे की बर्बादी का आरोप लगाया गया है। भारत के पूर्व महालेखाकार शुंगलु की इस रिपोर्ट को मुद्दा बनाकर भाजपा शीला दीक्षित का इस्तीफा मांग रही है। जबकि श्रीमती दीक्षित ने इस समिति के तौर-तरीके पर ही प्रश्न खड़े किये हैं। दरअसल शुंगलु समिति अपने गठन से ही विवादों में है। इसको बनाने का क्या औचित्य था जबकि सी.बी.आई. और सी.वी.सी. जैसी सक्षम जाँच एजेंसियाँ भ्रष्ट आचरण के विरूद्ध जाँच करने के लिए पहले से उपलब्ध हैं? उधर सर्वोच्च न्यायालय भी राष्ट्रकुल खेलों में हुए घोटालों की जाँच अपनी निगरानी में करवा रहा है। लगता है कि प्रधानमंत्री ने विपक्ष के हमले को शांत करने के लिए यह राजनैतिक फैसला लिया। वरना सोचने वाली बात यह है कि बिना कानूनी या संवैधानिक अधिकार के यह जाँच समिति इतने बड़े घोटाले की जाँच कैसे कर सकती है? जबकि इसे तीन महीने में लाखों दस्तावेजों की जाँच करनी थी। यह दस्तावेज उन परियोजनाओं से सम्बन्धित हैं, जिन्हें राष्ट्रकुल खेलों के लिए दिल्ली नगर निगम, नई दिल्ली नगर पालिका, दिल्ली विकास प्राधिकरण, लोक निर्माण विभाग, केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग, राइट्स, खेल मंत्रालय, शहरी विकास मंत्रालय व खेल आयोजन समिति जैसी इन एजेंसियों ने अंजाम दिया था।

शुंगलु ने शुरू में ही यह शिकायत की थी कि ये एजेंसियाँ जाँच में सहयोग नहीं कर रहीं और उन्हें आवश्यक दस्तावेज मुहैया नहीं करा रहीं। साफ ज़ाहिर है कि इन सीमाओं के साथ व बिना किसी अनुभवी और योग्य जाँच अधिकारियों की मौजूदगी के, इस तरह की आपराधिक जाँच करना सम्भव नहीं था। यह काम तो सी.बी.आई. जैसी पेशेवर जाँच एजेंसी का ही है और जब सी.बी.आई. व सी.वी.सी. जाँच कर ही रहे हैं तो उन्हें अपनी प्रक्रिया के अनुसार जाँच करने देनी चाहिए थी। इस तरह शुंगलु समिति बनाकर प्रधानमंत्री ने नाहक समय, साधन और पैसे की बर्बादी की है। बिना आपराधिक जाँच के किसी एजेंसी को सम्भावित आरोपियों के खिलाफ कुछ कहने का अधिकार नहीं होता। वैसे भी शुंगलु समिति ने जिन पर आरोप लगाये हैं, वे उसके आरोपों को नकारने के लिए आजा़द हैं और उन्होंने ऐसा करा भी है। जबकि सी.बी.आई. अगर ईमानदारी से जाँच करती है तो पहले प्रमाण इकठ्ठा करेगी और फिर आरोपपत्र दाखिल करेगी। इस प्रक्रिया से ही यह तय होगा कि प्रथम दृष्टया राष्ट्रकुल घोटाले में कौन शामिल है। प्रमाण सहित लगाये गये इन आरोपों की कानूनी वैधता भी होगी। सूत्र बताते हैं कि शुंगलु ने अपनी रिपोर्ट में दूसरी जाँच एजेंसियों की रिपोर्ट को उदारता से लेकर अपनी रिपोर्ट में समाहित कर लिया है। वैसे इतने कम समय में शुंगलु समिति के लिए लाखों दस्तावेज पढ़ना तो दूर, पन्ने पलटना भी सम्भव नहीं था।

यह राष्ट्रकुल खेलों की ही समस्या नहीं है। किसी भी घोटालें की जाँच करने की एक मान्य प्रक्रिया होनी चाहिए। जिसके बाद ही किसी को आरोपित किया जा सकता है। प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेताओं को चाहिए कि वे भ्रष्टाचार के खिलाफ जाँच करने वाली एजेंसियों केा स्वायŸाता प्रदान करवायें। जिससे घोटालों की कम से कम समय में ईमानदारी से जाँच हो सके। वरना घोटाले होते रहेंगे, समितियाँ और जाँच आयोग बनते रहेंगे, सुधरेगा कुछ भी नहीं।

पर लगता है कि सरकार भ्रष्टाचार से निपटने में गंभीर नहीं है। भ्रष्टाचार की जाँच पर निगरानी रखने वाली एजेंसी ‘केन्द्रीय सतर्कता आयोग’ एक बार फिर सिरविहीन हो गया है। क्योंकि जबसे पी.जे. थाॅमस ने इस्तीफा दिया है, तबसे सी.वी.सी. का पद रिक्त पड़ा है। जिसे भरने की सरकार को कोई जल्दी नहीं है। इतना ही नहीं सी.वी.सी. एक्ट के अनुसार ऐसी परिस्थिति में बाकी बचे सदस्यों में से एक को मुख्य सतर्कता आयुक्त का कार्यभार अस्थायी रूप से सौंप देना चाहिए था, पर इसका भी नोटिफिकिशेन अभी तक सरकार की तरफ से नहीं आया। इससे पहले भी नवम्बर 2009 में जब इस आयोग के दो सदस्यांे का कार्यकाल समाप्त हुआ था, तो सरकार ने अगले 9 महीनों तक ये पद नहीं भरे। इस काॅलम में हमारे शोर मचाने के बाद नियुक्ति की यह प्रक्रिया शुरू हुई। फिर भी थाॅमस की नियुक्ति का विवाद खड़ा हो गया। ऐसा लगता है कि सरकार केन्द्रीय सतर्कता आयोग को पंगु बनाने में जुटी है। इससे प्रधानमंत्री की छवि तेजी से बिगड़ रही है। समय की मांग है कि प्रधानमंत्री हर दबाव से मुक्त होकर कुछ ठोस निर्णय लें और जाँच एजेंसियों की स्वायŸाता सुनिश्चित करवायें व घोटालों की जाँच तीव्रता से पूरी कराने के लिए जाँच एजेंसियों पर दबाव बनायें। तब भ्रष्टाचार के स्थायी समाधान निकालना सम्भव हो सकेगा। शुंगलु जैसी जाँच समिति से कुछ हासिल होने वाला नहीं।