Sunday, March 27, 2011

संसद में असली बहस तो हुयी नहीं !

Rajasthan Patrika 27 Mar 11
विकिलीक्स के बाद देश की राजनीति में आये भूचाल का सीधा असर यह हुआ कि संसद में इस पूरे मुद्दे पर काफी तीखी और लम्बी बहस छिड़ गयी। जिसकी अन्तिम परिणति प्रधानमंत्री के बयान से हुयी। पर इस पूरी बहस में असली मुद्दा कहीं खो गया। जिस पर अब भी बहस होनी चाहिए। संसद न करे तो देश के मीडिया और जनता को करनी चाहिए। असली मुद्दा है, विकिलीक्स का वह अंश जिसमें उसने यह खुलासा किया है कि अमरीका के राज़दूत भारत सरकार के मंत्रियों से मिलकर सरकार की खैर-खबर लेते रहे और किस व्यक्ति को कौन सा पद दिया जाए, इसकी भी चर्चा करते रहे। मसलन यह बात साफ हुयी है कि अमरीका चाहता था कि मोंटेक सिंह आहलूवालिया को भारत का विŸामंत्री बनाया जाये।

यह बहुत चिंता की बात है। यह देश की अस्मिता और 110 करोड़ लोगों के जीवन से जुड़ा सवाल है। क्या हमारी सरकार का चाल-चलन, उसकी नीतियाँ और उसमें कौन, कहाँ बैठे, इसका फैसला व्हाइट हाउस में बैठने वाले करते हैं? इसका मतलब तो यह हुआ कि अपनी सरकारें जिनके द्वारा चुनी जाती हैं, उनके हित नहीं साधतीं, बल्कि अमरीकी हितों को ध्यान में रखकर बनायी और चलायी जाती हैं। जो ज़ाहिरन देशवासियों के हित से मेल नहीं खाते। वैसे यह कोई नई बात नहीं है। खेसरी दाल पर प्रतिबन्ध लगाने का मामला हो या भारत की दवा नीति बनाने का, परमाणु नीति बनाने का मामला हो या रक्षा नीति, सबमें अमरीकी दखल या उससे पहले रूसी दखल रहा है। यह बात वे सब जानते हैं जो सŸाा में रहे हैं या सŸाा के नज़दीक रहे हैं। चाहें वे राजनेता हों, अफसर हों या मीडियाकर्मी भी हों। जिस देश में 80 फीसदी लोग प्रदूषित पेयजल के कारण बीमार पड़ते हों, उस देश में एड्स जैसी निरर्थक बीमारी पर सरकार का इतना ध्यान देना दर्शाता है कि जीवन के हर क्षेत्र में देशवासियों का हित ताक पर रखकर अमरीका या बहुराष्ट्रिय कम्पनियों के हित साधे जा रहे हैं।

Punjab Kesari 28.03.11
यह बात अगर विकिलीक्स के खुलासे तक ही सीमित रहती तो इसकी सच्चाई को लेकर संशय बना रहता। पर ऐसा नहीं हुआ। विपक्ष के हमले का जबाव देते हुए भारत सरकार के संसदीय कार्यमंत्री पवन बंसल ने, जो कि काँग्रेस के प्रमुख प्रवक्ता के रूप में बोले, साफ कहा कि विदेशी राजदूतों का काम अपनी तैनाती वाले देश में सूचना एकत्रित करना होता है। पर बंसल जी इस बात का स्पष्टीकरण नहीं दे पाये कि राजदूत के साथ मंत्रियो ंकी मुलाकात और उसमें सरकार की कार्यविधि और नीतियों की चर्चा करना कूटनीतिज्ञ गुप्तचरी के दायरे में कैसे आता है? यह तो सीधा-सीधा सरकारी कामकाज में बाहरी दखलअंदाजी का मामला बनता है। जिसके लिए ऐसे राजदूतों से मिलकर इस तरह की चर्चाऐं करने वाले सभी मंत्री दोषी हैं। सही मायने में तो ऐसा आचरण देशद्रोह की श्रेणी में आता है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के दौरान बंगाल में इस तरह का आचरण करने वाले मीरज़ाफर को इतिहास ने कभी माफ नहीं किया।

रोचक बात यह है कि पवन बंसल जहाँ सफाई देते-देते अपने ही जाल में फंस गये, वहीं किसी को अहसास भी नहीं हुआ कि विपक्ष भी अनजाने में ही ऐसी भूल कर बैठा। विपक्ष की तरफ से बोलते हुए भाजपा के वरिष्ठ नेता डाॅ. मुरली मनोहर जोशी ने यह स्वीकारा कि भारत की ‘सरकारों’ पर अमरीकी प्रभाव रहा है। यह महत्वपूर्ण बात है। विपक्ष के हमले का निशाना यू.पी.ए. की वर्तमान सरकार है। पर डाॅ. जोशी ने ‘सरकार’ न कहकर ‘सरकारों’ कहा। जिसका साफ मतलब है कि एन.डी.ए. की सरकार भी अमरीकी प्रभाव से अछूती नहीं रही। अगर यह बात है तो अब सŸाापक्ष को विपक्ष पर हावी हो जाना चाहिए और डाॅ. जोशी से पूछना चाहिए कि एन.डी.ए. की सरकार किस तरह से अमरीकी प्रभाव में थी? ऐसी कौन सी नियुक्तियाँ और फैसले थे जो वाजपेयी सरकार ने अमरीकी दबाव में लिये? क्योंकि तभी यह साफ होगा कि अमरीका का भारत पर कितना और कैसा दबदबा बन चुका है।

Jag Baani 28.03.11
डाॅ. जोशी को ईमानदारी और साफगोई से इन तथ्यों को देश की संसद, लोगों और मीडिया के सामने रखना चाहिए। जहाँ इस सारी बहस से यह सिद्ध हो जाऐगा कि संसद में वोट खरीदने का मामला कहीं कम गंभीर मुद्दा है, बमुकाबले इस बात के कि हमारी सरकारें ही अमरीका के हाथ बिकी हुयी हैं। मतलब ये कि पिछले हफ्ते संसद में जो हंगामा मचा और जनता के पैसे की बर्बादी हुयी उसका कोई लाभ देश को नहीं मिला। सांसदों और विधायकों की खरीद-फरोख्त कर सरकार बनाने और बिगाड़ने में देश का कोई प्रमुख दल कभी पीछे नहीं रहा। यह बात हर राजनैतिक व्यक्ति जानता है। रिश्वत के प्रमाण अक्सर मिला नहीं करते क्योंकि रिश्वत या सांसदों और विधायकों की खरीद रजिस्ट्रार कार्यालय में जाकर स्टाम्प पेपर के ऊपर रजिस्ट्री करवाकर नहीं होती। यह सौदे तो पर्यटक सैरगाहों, उद्योगपतियों के ड्राईंगरूमों, सŸाा के दलालों के फार्म हाउसों और पाँच सितारा होटलों के कमरों में छिपकर किये जाते हैं। इसलिए जो असली मुद्दा बहस का होना चाहिए था, वो यह कि आखिर हमारी ‘सरकारें’ अमरीका के आगे किस सीमा तक घुटने टेक चुकी हैं? देखना होगा कि आने वाले दिनों में देश में कितने महत्वपूर्ण लोग इस मुद्दे को उठाने की हिम्मत दिखाते हैं?

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