Rajasthan Patrika 6 March11 |
तहरीर चैक की क्रांति ने दशकों से काबिज तानाशाह राष्ट्रपति होस्नी मुबारक को पैदल कर दिया। ट्यूनिशिया उबाल पर है। लीबिया में कर्नल गद्दाफी के खिलाफ आन्दोलन बढ़ता जा रहा है और अब इन सबसे खतरनाक तानाशाह के दिन गिने-चुने रह गये दीखते हैं। यमन, ईरान, सउदी अरेबिया, हर जगह तानाशाहों के खिलाफ गुस्सा उबाल पर है।
आर्थिक विकास का न होना, युवाओं के आगे रोजगार के अवसर न होना, तानाशाहों का बर्बरतापूर्ण आक्रामक रवैया, जिसने कभी किसी विरोध के स्वर को पनपने ही नहीं दिया आदि कुछ ऐसे कारण हैं जिन्होंने मौजूदा हालात को जन्म दिया। इन तानाशाहों का ऐसा रवैया पश्चिमी यूरोप और अमरीका जैसे देशों ने इसलिए स्वीकार कर लिया क्योंकि उनका आंकलन था कि ऐसा न करने की हालत में अलकायदा जैसे कट्टरपंथी तालिबान, इन देशों की सŸााओं पर काबिज हो सकते हैं। ईरान जैसे देश में तो कमोबेश यही स्थिति रही। जहाँ तानाशाह व तालिबानी मानसिकता एकसाथ स्थापित हो गयी।
पश्चिम की इस मज़़बूरी का इन तानाशाहों ने भरपूर लाभ उठाया। यहाँ तक कि इन मुल्कों की सेना भी तानाशाहों के साथ मिलकर चली और भ्रष्टाचार करके देश के संसाधनों का इन सबने मिलकर मजा लूटा। जनता पिसती रही। फिर भी उसने बगावत की हिम्मत नहीं की। इस बार भी जो बगावत हुई है, उसका नेतृत्व न तो तालिबान के पास है और न ही सŸाा के किसी उल्लेखनीय प्रबल विरोधी के पक्ष में। यह आन्दोलन तो स्वस्फूर्त था। जिसमें सबसे ज्यादा सक्रिय, पढ़ी-लिखी युवापीढ़ी रही। मिस्र में कामयाबी तो मिल गयी और शायद बाकी देशों में भी आवाम को ऐसी कामयाबी मिल जाए, लेकिन यह कामयाबी लोकतंत्र को स्थापित कर पायेगी, इसमें सन्देह है। क्योंकि कटट्रपंथी इन देशों को प्रजातांत्रिक देश नहीं बनने देना चाहते। इसलिए वे परदे के पीछे से खेल खेलते हुए सŸाा के शिखर पर पैदा हो रहे शून्यों को भरने का प्रयास करेंगे। यह एक भयावह स्थिति होगी। क्योंकि तब हालात पहले से भी बदतर हो जायेंगे।
दरअसल समस्या यह है कि पाँच-छः दशकों से तानाशाही झेलते हुए इन मुल्कों के आवाम को लोकतंत्र का कोई अनुभव नहीं है। न तो यहाँ लोकतांत्रिक संस्थाऐं पनप पायीं हैं और न ही उनको विकसित करने की समझ और अनुभव वाले लोग वहाँ मौजूद हैं। इसलिए डर यह भी है कि सŸाा से हटा दिये गये तानाशाहों के हुक्काबरदार लोग इस नयी प्रक्रिया की कमान संभाल लें और इस तरह एक बार फिर वही चैकड़ियाँ पिछले दरवाजे से सŸाा पर काबिज हो जायें। यह इसलिए भी ज्यादा संभव है क्योंकि इन मुल्कों की सेना लोकतंत्र बर्दाश्त नहीं करेगी। वो लोकतंत्र की राह में हर संभव रोड़ा अटकायेगी। सेना के बड़े अफसरों को जिस लूट और ऐश की आदत पड़ गयी है, वह लोकतंत्र की स्थापना के बाद उनसे छीन लिया जायेगा। इसलिए वे या तो खुद सŸाा पर काबिज होने की कोशिश करेंगे या नये संविधान में ऐसे प्रावधान बनवा देंगे जो उनकी ताकत कम न हो। साम्राज्यवादी देशों को यह समीकरण पसन्द आयेगा। क्योंकि उनका उद्देश्य तो इन देशों को लूटना है, बनाना नहीं। इस तरह सच्ची भावना, दिलों में आग और दिमाग में बर्फ लेकर, इस क्रांति की शुरूआत करने वाले, इन देशों का आवाम, खासकर युवापीढ़ी फिर ठगी जायेगी। इतने बड़े आन्दोलनों का कोई नतीजा नहीं निकलेगा। आज इन देशों को जरूरत है एक ऐसी नेतृत्व क्षमता की, जिसे अपने अतीत पर गर्व हो और वर्तमान को ठीक करने की ललक। ऐसा नेतृत्व अगर पनपता है, तभी बचने की उम्मीद है।
इन देशों में मौजूदा राजनैतिक दल, जिनका कोई वजूद नहीं है, वे भी सक्रिय हो सकते हैं। पर वे समय की धारा को नहीं प्रभावित कर पायेंगे। कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि इन देशों की क्रांति, इनके संविधान और इनके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं ला पायेगी और तब ये सारी मेहनत बेकार जाने का खतरा है। जो भी हो, फिलहाल तो यह आग फैल ही रही है। इससे एक सन्देश पूरी दुनिया में गया है कि जनता कितनी ही साधनहीन और असहाय हो, अगर कमर कस ले व संगठित हो जाये तो बड़े-बड़े तानाशाहों को गिरा सकती है। इसलिए पश्चिम एशिया में जो कुछ घट रहा है, वह हमारे लिए जिज्ञासा का विषय तो है हीः इन देशों में इन फुटकर क्रांतियों का परिणाम सुःखद और सकारात्मक होना चाहिए। जिसके लिए अन्य देशों को भी, इन देशों की मदद के लिए आगे बढ़ना चाहिए। ताकि वहाँ कानून का राज कायम हो सके।
विनीत जी आप का लेख बहुत अच्छा है ..
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