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Monday, April 13, 2015

मंदिरों की सम्पत्ति का धर्म व समाज के लिए हो सदुपयोग

मंदिरों की विशाल सम्पत्ति को लेकर प्रधानमंत्री की योजना सफल होती दिख रही है। इस योजना में मंदिरों से अपना सोना ब्याज पर बैकों में जमा कराने को आह्वान किया गया था। जिससे सोने का आयात कम करना पड़े और लोगों की सोने की मांग भी पूरी हो सके। केेरल के पद्मनाभ स्वामी मंदिर में दो लाख करोड़ से भी ज्यादा की सम्पत्ति है। ऐसा ही तमाम दूसरे मंदिर के साथ है। पर इस धन का सदुपयोग न तो धर्म के विस्तार के लिए होता है और न ही समाज के लिए। उदाहरण के तौर पर ओलावृष्टि से मथुरा जिले के किसानों की फसल बुरी तरह बर्बाद हो गई। कितने ही किसान आत्महत्या कर बैठे।

उल्लेखनीय है कि ब्रज में, विशेषकर वृन्दावन में एक से एक बड़े मंदिर और मठ हैं। जिनके पास अरबों रूपये की सम्पत्ति हैं। क्या इस सम्पत्ति का एक हिस्सा इन बृजवासी किसानों को नहीं बांटा जा सकता ? भगवान श्रीकृष्ण की कोई लीला किसी मंदिर या आश्रम में नहीं हुई थी। वो तो ब्रज के कुण्डों, वनों, पर्वतों व यमुना तट पर हुई थी। ये मंदिर और आश्रम तो विगत 500 वर्षों में बने, और इतने लोकप्रिय हो गए कि भक्त और तीर्थयात्री भगवान की असली लीला स्थलियों को भूल गए। मंदिरों में तो करोड़ो रूपये का चढ़ावा आता है पर भगवान की लीला स्थलियों के जीर्णोंद्धार के लिए कोई मंदिर या आश्रम सामने नहीं आता।

जबकि इनमें से कितने ही मंदिर तो ऐसे लोगों ने बनाए हैं जिनका ब्रज से कोई पुराना नाता नहीं था। पर आज ये सब ब्रज के नाम पर वैभव का आनंद ले रहे हैं। जबकि ब्रज के किसान हजारों साल से ब्रजभूमि पर अपना खून-पसीना बहाकर अन्न उपजाते है। हजारों साधु-सन्तों को मधुकरी देते हैं। अपने गांव से गुजरने वाली ब्रज चैरासी कोस यात्राओं को छाछ, रोटी और तमाम व्यंजन देते हैं। यहीं तो है असली ब्रजवासी जिन्होंने कान्हा के साथ गाय चराई थी, वन बिहार किया था, उन्हें अपने छाछ और रोटी पर नचाया था। इन्हीं के घर कान्हा माखन की चोरी किया करते थे। आज जब ये किसान कुदरत की मार झेल रहे हैं, तो क्या वृन्दावन के धनाढ्य मंदिरों और मठों का यह दायित्व नहीं कि वे अपनी जमा सम्पत्ति का कम से कम आधा भाग इन ब्रजवासियों में वितरित करें।

यहीं हाल देश के बाकी हिस्सों के मंदिरों का भी है। जो न तो भक्तों की सुविधा की चिन्ता करते है और न ही स्थानीय लोगों की। अपवाद बहुत कम हैं। ऊपर से तुर्रा यह कि ये मंदिर हमारी निज सम्पत्ति हैं। जबकि यह सरासर गलत है। हिमाचल उच्च न्यायालय से लेकर कितने ही फैसले है जो यह स्थापित करते हैं कि जिस मंदिर को एक बार जनता के दर्शनार्थ खोेल दिया जाय, वहां जनता भेंट पूजा करने लगे, तो वह निजी सम्पत्ति नहीं मानी जा सकती। वह सार्वजनिक सम्पत्ति बन जाती हैं। चाहे उसकी मिल्कियत निजी भी रही हो। ऐसे सभी मंदिरों की व्यवस्था में दर्शनार्थियों का पूरा दखल होना चाहिए। क्योंकि उनके ही पैसे से ये मंदिर चलते है। प्रधानमंत्री को चाहिए कि इस बारे में एक स्पष्ट नीति तैयार करवाएं जो देश भर के मंदिरों पर ही नहीं बल्कि हर धर्म के स्थानों पर लागू हो। इस नीति के अनुसार उस धर्म स्थान की आय का निश्चित फीसदी बंटवारा जमापूंजी, रखरखाव, दर्शनार्थी सुविधा, क्षेत्रीय विकास व समाजसेवा के कार्यों में हो। आज की तरह नहीं कि इन सार्वजनिक धर्म स्थलों से होने वाली अरबों रूपये की आय चंद हाथों में सिमट कर रह जाती है। जिसका धर्म और समाज को कोई लाभ नहीं मिलता।

इस मामले में तिरूपति बालाजी का मंदिर एक आदर्श स्थापित करता है। हालांकि वहां भी जितनी आय है उतना समाज पर खर्च नहीं किया जाता। फिर भी भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल जैसी अनेक सेवाओं से एक बड़े क्षेत्र को लाभान्वित किया जा रहा है। धर्म को संवेदनशील मुद्दा बताकर यूपीए की सरकार तो हाथ खड़े कर सकती थी पर एनडीए की सरकार तो धर्म में खुलेआम आस्था रखने वालों की सरकार हैं, इसलिए सरकार को बेहिचक धर्म स्थलों के प्रबन्धन और आय-व्यय के पारदर्शी नियम बनाने चाहिए और उन्हें कड़ाई से लागू करना चाहिए वरना आशाराम बापू और रामलाल जैसे गुरू पनप कर समाज को गुमराह करते रहेंगे। और धर्म का पैसा अधर्म के कामों में बर्बाद होता रहेगा।

Monday, February 2, 2015

जयन्ती नटराजन ने किया कांग्रेस के 'डूबते जहाज़ में एक और छेद'

कांग्रेस के डूबते जहाज में जयन्ती नटराजन ने एक और छेद कर दिया। कांग्रेसी इसे नमक हरामी कहेंगे क्योंकि जयन्ती नटराजन बिना लोकसभा चुनाव लड़े आलाकमान की कृपा से राज्यसभा सांसद व मंत्री बनती रही है। इसलिए अब अचानक जागा उनका ये वैराग्य कांग्रेसियों की समझ से परे हैं। उन्हें भी दिख रहा है कि जयन्ती नटराजन ने यह कदम राहुल गांधी से अपने सैद्धांतिक मदभेद के कारण नहीं उठाया बल्कि तमिलनाडू की राजनीति को मद्देनजर रख कर उठाया है। तमिलनाडू में अगले वर्ष विधानसभी के चुनाव होने हैं। कांग्रेस वहाँ अपना बचा खुचा जनाधार भी खो चुकी है। अब कहीं से राज्यसभा की सीट ले पाना कांग्रेस में रहते हुए जयन्ती नटराजन के लिए संभव नहीं है। उधर भाजपा तेजी से अपने पांव तमिलनाडू में बढ़ा रही है। जहाँ 2011 के तमिलनाडू के विधानसभा चुनावों में भाजपा अपना खाता तक नहीं खोल पाई थी वहाँ इस बार अमित शाह तमिलनाडू में भाजपा के पांव जमाना चाहते हैं। द्रमुक और अन्ना द्रमुक के खेमों में बटी तमिलनाडू  की जनता को पकड़ने के लिए उनके पास कोई उल्लेखनीय नेता व कार्यकर्ता नहीं है। संघ का भी कोई बड़ा आधार तमिलनाडू में नहीं है। ऐसे में जाहिर है कि जयन्ती नटराजन जैसे हाशिए पर बैठे नेताओं को भाजपा में जाने से कोई आशा कि किरण नजर आ रही है। इसलिए ये आया राम गया राम का सिलसिला दोहराया जा रहा है।
   
रही बात जयन्ती नटराजन के पत्र में राहुल गांधी के खिलाफ लगाये गये आरोपों की, तो प्रश्न उठता है कि यह आत्मबोधि जयन्ती को तब क्यों हुई जब वे सत्ता से बाहर हो गई। जब वे राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार में  मंत्री थी, तब उनकी आत्मा ने उन्हें क्यों नहीं कचोटा। उनके पर्यावरण मंत्री रहते अगर वास्तव में राहुल गांधी उन्हें स्वतंत्र निर्णय नहीं लेने दे रहे थे तो उन्होंने स्वाभिमानी व्यक्ति की तरह अपना जनतांत्रिक विराध क्यों नहीं व्यक्त किया? क्यों वे राहुल गांधी के फरमान मानती रही? क्यों आज ही तरह तब प्रेस कांफ्रेस बुलाकर राहुल गांधी के कामों का खुलासा क्यों नहीं किया? जाहिर है तब उन्हें कुर्सी से चिपके रहने का लालच था। इसलिए खामोश रही। अब न तो कांग्रेस के झण्डे तले कुर्सी बची है और न निकट भविष्य में इसकी संभावना है। इसलिए जयन्ती नटराजन के उपर राहुल गांधी का यह गाना सटीक बैठेगा -

                                     रहते थे कभी जिनके दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह ।
                                         बैठे हैं उन्हीं के कूचे में हम आज गुनहगारों की तरह ।।
                                         सौ रूप भरे जीने के लिए, बैठें है हजारों जहर पिये।
                                       ठोकर न लगाना हम खुद है गिरती हुयी दीवारों की तरह ।।

खैर राजनीति में इस तरह से दिल तोड़ने वाले काम अक्सर मौकापरस्त लोग किया करते हैं। यह भी सही है कि सिंद्धातहीन राजनीति के दौर में ऐसे ही लोग अक्सर पनपते भी हैं। तो जयन्ती नटराजन कोई अपवाद नहीं है।

रही बात पर्यावरण व आर्थिक विकास के मुद्दों की तो चाहे कांग्रेस की सरकार हो या भाजपा की, दोनों की कुछ सीमाएँ हैं। दोनों चाहते हैं कि तेजी से आर्थिक विकास हो। औद्योगिकरण हो, राजगार बढ़े और निर्यात बढ़े। इसके लिए पर्यावरण की प्रथमिकताओं को दर किनार करना पड़ता है। फिर चाहे खनन हो या वृक्षों का कटान, जनजातीय जनता का विस्थापन हो या नदियों में औद्योगिक प्रदूषण, सब तरफ से आंखे मूंद ली जाती है। इससे उद्योगपति खुश होते हैं और राजनैतिक दलों को भरपूर चंदा देते हैं। मगर दूसरी तरफ आम जनता में आक्रोश फैलता है और उसके वोट खोने का खतरा बढ़ जाता है। इसलिए यह दुधारी तलवार है। दोनों के बीच संतुलन लाने की जरूरत है। जिससे पर्यावरण भी बच सकें और औद्योगिक विकास भी हो सकें। अच्छा होगा कि प्रभुख राजनैतिक दल इस संवेदनशील सवाल पर आम सहमति पैदा कर लें। और विकास का ऐसा माॅडल तय कर लें कि सरकारें आएं और जाएं पर इस बुनियादी माॅडल में कोई भारी फेरबदल न हो। ऐसा तभी हो सकता है। जब सद्इच्छा हो, जिसकी राजनीति में बहुत कमी पाई जाती है। मौजूदा प्रधानमंत्री औद्योगिकरण, विदेशी निवेश  और आर्थिक विकास को लेकर बहुत उत्साहित है। उधर उनके गुजरात कार्यकाल के दौरान से ही सिविल सोसायटी वाले उनपर पर्यावरण के प्रति असंवेदनशील होने का आरोप लगाते रहे हैं। पर एक आध्यात्मिक चेतनावाला व्यक्तित्व वेदों की मान्यताओं के विपरीत जाकर प्रकृति का विनाश होते नहीं देख सकता। नरेन्द्र भाई को इस विषय में सामुहिक राय बनाकर धुंध साफ कर लेनी चाहिए।

जहाँ तक जयन्ती नटराजन के आरोपों का सवाल है, उनमें अगर तथ्य भी हो तो इसे कोई राजनैतिक बयानबाजी मानकर उनके अगले राजनैतिक कदम का इंतजार करना चाहिए। जब यह साफ हो जाएगा कि उनकी चिंता किसी मुद्दे को लेकर नहीं बल्कि अपने राजनैतिक भविष्य को लेकर थी।

Monday, October 20, 2014

मनरेगा की सार्थकता पर सवाल

जब से यूपीए सरकार ने मनरेगा योजना चालू की, तब से ही यह कार्यक्रम विवादों में रहा है। यूपीए सरकार का मानना यह था कि आजादी के बाद से गरीबों के विकास के लिए जितनी योजनाएं बनीं, उनका फल आम आदमी तक नहीं पहुंचा। इसलिए गरीब और गरीब होता गया। खुद प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सन् 1984 में कहा था कि दिल्ली से गया विकास का 1 रूपया गांव तक पहुंचते-पहुंचते 14 पैसे रह जाता है, यानि 86 फीसदी पैसा भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाता है। इसलिए यह नई योजना बनायी गयी, जिसमें भूमिहीन मजदूरों को साल में न्यूनतम 200 दिन रोजगार देने की व्यवस्था की गई। अगर कहीं रोजगार उपलब्ध नहीं है, तो उसे उपलब्ध कराने के लिए कुंड खोदना, कुएं खोदना या सड़क बनाना जैसे कार्य शुरू करने की ग्राम प्रधान को छूट दी गई। उम्मीरद यह की गई थी कि अगर एक गरीब आदमी को 200 दिन अपने ही गांव में रोजगार मिल जाता है, तो उसे पेट पालने के लिए शहरों में नहीं भटकना पड़ेगा। गांव के अपेक्षाकृत सस्ते जीवन उसके परिवार का भरण-पोषण हो जायेगा। हर योजना का उद्देश्य दिखाई तो बहुत अच्छा देता है, पर परिणाम हमेशा वैसे नहीं आते, जैसे बताए जाते हैं।
मनरेगा के साथ भी यही हुआ। बहुत गरीब इलाकों के मजदूर, जो पेट पालने के लिए पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में बड़ी तादाद में जाते थे, वे जब दिवाली की छुट्टी पर घर गए, तो लौटकर नहीं आए। सूरत की कपड़ा मिलों में, महाराष्ट्र के कारखानों में और पंजाब के खेतों में काम करने वाले मजदूरों का टोटा पड़ गया। हालत इतनी बिगड़ गई कि जो थोड़े बहुत मजदूर इन इलाकों में पहुंच जाते, उन्हें रेलवे स्टेशन से ही धर दबोचने को उद्योगपति और किसान स्टेशन के बाहर खड़े रहते। कभी-कभी तो उनके बीच मारपीट भी हो जाती थी। मतलब ये कि इन इलाकों में इतनी ज्यादा गरीबी थी कि थोड़ा सा रोजगार मिलते ही लोगों ने पलायन करना छोड़ दिया। पर शेष भारत की स्थिति ऐसी नहीं थी।
ज्यादातर राज्यों में मनरेगा निचले स्तर पर राजनैतिक कार्यकर्ताओं और सरकारी कर्मचारियों की कमाई का धंधा बन गया। ऐसी बंदरबाट मची कि मजदूरों के नाम पर इन साधन संपन्न लोगों की चांदी हो गई। मजदूरों से 200 दिन की मजदूरी प्राप्त होने की रसीद पर अंगूठे लगवाए जाते और उन्हें 10 दिन की मजदूरी देकर भगा दिया जाता। वे बेचारे यह सोचकर कि बिना कुछ करे, घर बैठे आमदनी आ रही है, तो किसी के शिकायत क्यों करे, चुप रह जाते। अंधेर इतनी मच रही है कि मनरेगा के नाम पर जो विकास कार्य चलाए जा रहे हैं, वे केवल कागजों तक सिमट कर रह गए हैं। धरातल पर कुछ भी दिखाई नहीं देता। फिर भी देश-विदेश के कुछ जाने-माने अर्थशास्त्री इस बात पर आमदा है कि इतने बड़े भ्रष्टाचार का कारण बना यह कार्यक्रम जारी रखा जाए। वे चेतावनी देते हैं कि अगर मनरेगा को बंद कर दिया, तो गरीब बर्बाद हो जाएंगे, भुखमरी फैलेगी, धनी और धनी होगा। इसलिए इस कार्यक्रम को जारी रखना चाहिए। इन अर्थशास्त्रियों में ज्यादातर वामपंथी विचारधारा के हैं। जिनका मानना है कि गरीब को हर हालत में मदद की जानी चाहिए। चाहे उस मदद का अंश ही क्यों न सही जगह पहुंचे। पर सोचने वाली बात यह है कि अगर ऐसी खैरात बांटकर आर्थिक तरक्की हो पाती, तो दो दशक तक पश्चिमी बंगाल पर हावी रहे वामपंथी दलों क्यों बंगाल के गरीबों की गरीबी दूर नहीं कर पाए ?

वैसे भी यह मान्य सिद्धांत है कि भूखे को रोटी देने से बेहतर है, उसे रोटी बनाने के लायक बनाना। मनरेगा यह नहीं करता। यह तो बिना कुछ करे भी रोजी कमाने की गारंटी देता है, इसलिए यह समाज के हित में नहीं। ठीक जिस तरह अंग्रेज भारत को अंग्रेजीयत का गुलाम बनाकर चले गए और आज तक हमारा उल्लू बना रहे हैं। उसी तरह यूपीए सरकार के थिंक टैंक ने मनरेगा को पार्टी कार्यकर्ताओं की सुविधा विस्तार का उपक्रम बना लिया। इसलिए धरातल पर इसके ठोस परिणाम नहीं आ रहे हैं।
आज से 30 बरस पहले सन् 1984 में लंदन के एक विश्वविद्यालय में रोजगार विषय पर बोलते हुए मैंने भारत की खोखा संस्कृति पर प्रकाश डाला था। मैंने वहां युवाओं को बताया कि भारत के ग्रामीण बेरोजगार युवा बिना किसी कालेज या पाॅलीटैक्निक में जाए केवल अपनी जिज्ञासा से हुनर सीख लेते हैं। किसी कारीगर के चेले बन जाते हैं। कुछ महीने बेगार करते हैं। पर जब सीख जाते हैं, तो उसी हुनर की दुकान शहर के बाहर, सड़क के किनारे एक लकड़ी के खोखे में खोल देते हैं। फिर चाहे चाय की दुकान हो, स्कूटर कार मरम्मत करने की हो या फिर किसी और मशीन को मरम्मत करने की। पुलिस वाले इनसे हफ्ता वसूलते हैं। बाजार के निरीक्षक इन्हें धमकाते हैं। स्थानीय प्रशासनिक संस्था इनकी दुकान गिरवाती रहती हैं। फिर भी ये हिम्मत नहीं हारते और अपने परिवार के पालन के लिए समुचित आय अर्जित कर लेते हैं। दुर्भाग्य से इनकी समस्याओं का हल ढूढ़ने का कोई प्रयास आज तक सरकारों ने नहीं किया।
जरूरत इस बात की है कि सरकार हो या बड़े औद्योगिक घराने, इन उद्यमी युवाओं की छोटी-छोटी समस्याओं के हल ढूढ़ें। जिससे देश में रोजगार भी बढ़े और आर्थिक तरक्की भी हो। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हाल ही में इस मुद्दे में विशेष ध्यान देना शुभ संकेत है। आशा की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में मनरेगा से बंटने वाली खैरात की जगह आम लोगों को अपने पैरों पर खड़ा करने की कवायद की जाएगी। जिससे गरीबी भी दूर होगी और बेरोजगारी भी।

Monday, September 8, 2014

सारे कोयला ब्लॉक आवंटन रद्द हों

कोयला खदानों का आवंटन जिस तरह यूपीए सरकार ने किया, उसे सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध बताया है। जब आवंटन अवैध हैं, तो उन्हें निरस्त क्यों नहीं किया जाता? शायद, अदालत ऐसा कर देती पर उसके सम्मुख राजग सरकार की ओर से कुछ ऐसे तर्क रखे गए कि अदालत ने इस मामले में आगे सुनवाई की और कुल आवंटनों को दो श्रेणी में बांट दिया। जिन खदानों पर काम शुरू नहीं हुआ है, उन्हें तो रद्द करने के आदेश दे दिए। पर जिन पर काम शुरू हो गया है, उन पर अदालत को अभी फैसला देना है। इस तरह कुल 46 खदानों को रद्द न करने की मांग मौजूदा राजग सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में की जा रही है। तर्क यह दिया जा रहा है कि इन खदानों में काम चालू हो चुका है और अगर इनके आवंटन रद्द किए गए, तो देश में ऊर्जा का भारी संकट पैदा हो जाएगा। जबकि हकीकत यह है कि इन 46 में से मात्र 3 खदानें ही ऐसी हैं, जिनको ऊर्जा उत्पादन के लिए इस्तेमाल किया जा रहा हैं। इन तीनों खदानों के मामले में भी हकीकत यह है कि आवश्यकता से कई गुना ज्यादा कोयला खोदने की अनुमति इन्हें दी जा चुकी है। निष्कर्ष यह है कि ऊर्जा उत्पादन के लिए आवश्यक कोयले की आपूर्ति में कहीं कोई कमी नहीं आएगी। उसके अतिरिक्त भंडार भरे पड़े हैं।

असली सवाल इस बात का है कि जिन बाकी खदानों को बचाने की कोशिश की जा रही है, उनका उपयोग लोहे और इस्पात से जुड़े उद्योगों के लिए ही हो रहा है। इस मामले में भी चिंता की बात यह है कि जिन घरानों को ये आवंटन किए गए हैं, वे उनकी आवश्यकता से कई गुना ज्यादा हैं। जैसे जायसवाल नीको की वार्षिक आवश्यकता मात्र 20 लाख टन है। जबकि उसे 1250 लाख टन का  आवंटन कर दिया गया है। इसी तरह प्रकाश इंडट्रीज की सलाना आवश्यकता मात्र 10 लाख टन है। पर इसे 340 लाख टन का आवंटन कर दिया गया है। इसी तरह इलेक्ट्रो स्टील कास्टिंग की आवश्यकता मात्र 5 लाख टन सालाना है। जबकि इसे 2310 लाख टन का आवंटन कर दिया गया है। जाहिर है कि इतना अतिरिक्त कोयला या तो ये खुले बाजार में बेचेंगे या उसका लाइसेंस बेचकर भारी मुनाफा कमाएंगे। यह तथ्य सर्वविदित है कि खदानों का काम कभी ईमानदारी से और आवंटन की अनुमति के दायरे के भीतर रहकर नहीं किया जाता। इस बात के अनेकों प्रमाण हैं कि जहां एक ट्रक कोयला खोदने की अनुमति होती है, वहां खदान विभाग, वन विभाग, स्थानीय पुलिस व प्रशासन को रिश्वत देकर सौ गुनी खुदाई कर ली जाती है। फिर वो चाहें कोयले की खदान हो, लोहे की खदान हो या पत्थर की खदान हो।
 
जहां तक राज्य सरकारों को आवंटित कोयला खदानों के निरस्त न किए जाने की मांग मौजूदा सरकार की ओर से की गई है, तो वह भी देश के हित में नहीं है।
 
राज्य सरकारों को ऊर्जा उत्पादन के लिए कोयला ब्लॉक के आवंटन प्राथमिकता के आधार पर किए जाते हैं। पर पत्रकार एम. राजशेखर की खोज से यह पता चलता है कि राज्य सरकारों ने निजी क्षेत्र की कंपनियों के साथ बेतुके समझौते करके इस सुविधा का पूरा लाभ निजी क्षेत्र की झोली में डाल दिया है। उदाहरण के तौर पर दामोदर घाटी निगम ने अडानी समूह की कंपनी के साथ समझौता कर लिया है कि वे ही खुदाई का काम करेंगे। ये समझौते साझे उपक्रम के तौर पर किए गए हैं। जैसे राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम ने अडानी समूह के साथ समझौता किया है। जिसमें 74 फीसदी कोयला या उसका मुनाफा अडानी समूह का होगा और मात्र 26 फीसदी मुनाफा या कोयला राजस्थान सरकार का। इसी तरह अन्य राज्यों ने भी समझौते कर रखे हैं। कुल मिलाकर निजी क्षेत्र को कोयला खदानें लूटने के लिए राज्य सरकारों की मार्फत विकल्प दे दिए गए हैं। ऐसे में राज्य सरकारों को आवंटित खदानों को निरस्त न करने का कोई औचित्य नहीं है। ये बड़े आश्चर्य की बात है कि सरकार में पारदर्शिता लाने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दावे के बावजूद सरकार के कुछ लोग इस तरह की मांग सर्वोच्च न्यायालय में रखकर मोदी सरकार की छवि खराब कर रहे हैं। राष्ट्रहित में तो यही होगा कि सभी खदानों के आवंटन रद्द किए जाएं और नए सिरे से नीलामी कर आवंटन किए जाएं। ऐसा करने से सरकार की छवि पर कोई दाग नहीं लगेगा और कोयले की खदानों में हाथ काले कर चुके मुनाफाखोरों, दलालों और रिश्वतखोरों को अपने किए की सजा भुगतनी पड़ेगी।

Monday, January 21, 2013

नेता ही नहीं नीति बदलनी चाहिए

बहुत ना-नुकुर के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस की बागडोर संभालने का निर्णय ले लिया। कांग्रेसियों में उत्साह है कि अब नौजवानों को तरजीह मिलेगी। दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने जयपुर के चिंतन शिविर में यह चिंता व्यक्त की है कि मध्यम वर्ग को राजनीति से बेरूखी होती जा रही है। सवाल उठता है कि क्या राहुल गांधी हमारी व्यवस्था की धारा मोड़ सकते हैं? 1984 में जब इन्दिरा गांधी की हत्या हुई तो अचानक ताज राजीव गांधी के सिर पर रख दिया गया। वे युवा थे, सरल और सीधे थे, इसलिए एक उम्मीद जगी कि कुछ नया होगा। उनके भाषण लिखने वालों ने उनसे कई ऐसे बयान दिलवा दिए जिससे देश में सन्देश गया कि अब तो भ्रष्टाचार और सरकारी निकम्मापन सहा नहीं जाऐगा। सबकुछ बदलेगा। बदला भी, लेकिन संचार और सूचना के क्षेत्र मंे। भ्रष्टाचार और प्रशासनिक व्यवस्था में कोई अंतर नहीं आया। बल्कि तेजी से गिरावट आयी।
अभी हाल ही का उदाहरण अखिलेश यादव का है। साईकिल चलाकर अखिलेश यादव ने उ0प्र0 के युवाओं का मन मोह लिया। लगा कि उ0प्र0 में नई बयार बहेगी। पर अभी नौ महीने बीते हैं आौर उनके पिता और सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव चार बार सार्वजनिक मंचों से कह चुके हैं कि उ0प्र0 की सरकार, मंत्री और अफसर ठीक काम नहीं कर रहे हैं।
दरअसल देश और प्रदेश की सरकारों में भारी घुन लग चुका है। कोई जादू की छड़ी दिखाई ननहीं देती, जो इन व्यवस्थाओं को रातों-रात सुधार दे। इसलिए यह कहना कि राहुल गांधी के मोर्चा संभालते ही कांग्रेस पार्टी का भविष्य उज्जवल हो गया, अभी लोगों के गले नहीं उतरेगा। वे जमीनी हकीकत में बदलाव देखकर ही फैसला करेंगे। तब तक राहुल गांधी को कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी।
पहली समस्या तो यह है कि वे पार्टी के उपाध्यक्ष भले ही बन गए हों, सरकार डा. मनमोहन सिंह की है। जिसमें अलग-अलग राय रखने वाले मंत्रियों के अलग-अलग गुट हैं। ये गुट एकजुट होकर राहुल गांधी के आदेशों का पालन करेंगे, ऐसा नहीं लगता। सामने जी-हुजूरी भले ही कर लें, पर पीछे से मनमानी करेंगे। ठीकरा फूटेगा राहुल गांधी के सिर। सहयोगी दलों के मंत्रियों के आचरण पर राहुल गांधी नियन्त्रण नहीं रख पाऐंगे। ऐसे में सरकार की छवि सुधारना सरल नहीं होगा।
दूसरी तरफ, अभी तक के अनुमान के अनुसार सीधा मुकाबला नरेन्द्र मोदी से होने जा रहा है। जिनकी रणनीति यह है कि जो करना है धड़ल्ले से करो, बड़े लोगों को फायदा पहुंचाओ। प्रचार ऐसा करो कि बड़े-बड़े मल्टीनेशनल भी फीके लगने लगें। यही उन्होंने पिछले चुनावों में किया भी। जबकि राहुल गांधी का व्यक्तित्व दूसरी तरीके का है। वे संजीदगी से समाज को समझना चाह रहे हैं। जमीनी हकीकत को जानने की कोशिश कर रहे हैं। विकास के मुद्दों पर भी काफी ध्यान दे रहे हैं। कुल मिलाकर राजनीति के एक गंभीर छात्र होने का प्रमाण दे रहे हैं। इसलिए आगामी चुनावी समर में राहुल गांधी की भूमिका को लेकर कोई आंकलन अभी नहीं किया जा सकता। वे जादू भी कर सकते हैं और चारों खाने चित भी गिर सकते हैं।
राहुल गांधी को अगर वास्तव में अपनी सरकार को जबावदेह बनाना है तो उन्हें प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार में क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे। इन कदमों को जानने के लिए उन्हें कोई नई खोज नहीं करवानी। काले धन, पुलिस व्यवस्था, न्यायायिक सुधार, कठोर भ्रष्टाचार विरोधी कानून जैसे अनेक मुद्दों पर एक से बढ़कर एक आयोगों की रिपोर्ट केन्द्र सरकार के दफतरों में धूल खा रही हैं। जिन्हें झाड़ पौंछकर फिर से पढ़ने की जरूरत है। समाधान मिल जाऐगा। इन समाधानों को लागू कराने के लिए राहुल गांधी को युवाओं के बीच देशव्यापी अभियान चलाना चाहिए। युवा जागरूक बनें और प्रशासनिक व्यवस्था को जबावदेह बनाऐं, तब जनता कांगे्रस से जुड़ेगी। वैसे भी जयपुर चिंतन शिविर में उनकी माताजी श्रीमती सोनिया गांधी ने यह चिंता व्यक्त की है कि मध्यम वर्ग राजनीति से कटता जा रहा है, जिसे मुख्यधारा में वापस लाने की जरूरत है। 
हकीकत इसके विपरीत है। मध्यम वर्ग राजनीति से नहीं कट रहा, बल्कि अब तो वह बिना बुलाऐ सड़कों पर उतरने को तैयार रहता है। पिछले एक-ढेढ़ साल के आंदोलनों में मध्यम वर्ग की भूमिका प्रमुख रही है। मध्यम वर्ग ने धरने, प्रदर्शन, लाठी, गोली, आंसू गैस और पानी की मार सबको झेला है। पर उदासीनता का परिचय कहीं नहीं दिया।
दरअसल मध्यमवर्ग प्रशासनिक व्यवस्था की जबावदेही चाहता है, जो उसे नहीं मिल रही। इससे वो नाराज है। पर वह यह भी जानता है कि कोई एक राजनैतिक दल इसके लिए जिम्मेदार नहीं है। सभी दलों का एकसा हाल है। इसलिए उसका गुस्सा बढ़ता जा रहा है और वह तरह-तरह से बाहर सामने आ रहा है। राहुल गांधी हों या अखिलेश यादव या फिर किसी अन्य प्रांत के मुख्यमंत्री के वारिस युवा नेता, अब सबको इन सवालों की तरफ गंभीरता से विचार करना होगा। क्योंकि नारों से बहकने वाला मतदाता अब बहुत सजग हो गया है।

Monday, December 10, 2012

देश में हलचल क्यूँ मची हुई है

देश में हलचल मची है। खासतौर पर सरकारी नीतियों को लेकर मीडिया और विपक्ष सक्रिय हो उठा है। लेकिन मुद्दे जल्दी जल्दी आ और जा रहे हैं। किसी को समझ में नहीं आ रहा है कि हमारा मुख्य मुद्दा है क्या? ऐसे हालात में मीडिया की तरफ से एक शब्द आया है- पॉलिसी पैरालिसिस! इसकी हिन्दी करना भी मुश्किल हो रहा है। विशेषज्ञ बता रहे हैं कि पिछले तीन-चार महीनों में इस शब्द का चलन अचानक बढ़ गया है।
दरअसल इस शब्द का प्रयोग ज्यादातर कॉरपोरेट जगत कर रहा है। जिसका आरोप है कि सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में सोच और नीतियों को लेकर एकरूपता नहीं है। अवसरशाही नाहक निर्णयों को लम्बा खींच रही है। देश में विनियोग करने का वातावरण खत्म होता जा रहा है। मजबूरन भारत के बड़े औघोगिक घरानों को दूसरे देशों में विनियोग की संभावनाऐं तलाशनी पड़ रही हैं।
यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि लोकतंत्र में सरकार की जबावदेही आमजनता के प्रति ज्यादा होती है। इसलिए कॉरपोरेट जगत की इस शिकायत को सही मानते हुए भी हमे देखना होगा कि क्या वाकई सरकार हर मामले में इतनी ढीली पड़ गयी है कि उसके लिए ‘पॉलिसी पैरालिसिस’ का नामकरण किया जाऐ?
ऐसा नहीं है। पहली बात तो यह कि ‘नीतिगत फॉलिश’ मारा जाना या ‘नीतिगत पक्षाघात’ से कोई अर्थचित्र नहीं बन पा रहा है। नीति में दोष तो हो सकता है, लेकिन नीति को ‘फॉलिश’ मारने की कोई स्थिति समझ में नहीं आती। जितने भी लोगों के बीच इस शब्द को लेकर अनौपचारिक बातचीत हो रही है, वे कहना तो यही चाह रहे हैं कि सरकार की नीतियाँ समझ में नहीं आ रही हैं। यदि उन्हें यही कहना है तो वे सरलता से कह सकते हैं कि नीतियों में ‘स्पष्टता’ नहीं है। लेकिन यह बात कही इसलिए नहीं जा सकती क्योंकि आजादी के बाद देश में पहली बार सरकार की नीतियों को लेकर इतनी तीव्रता और सघनता से बहस हो रही है और नीतियों का विरोध हो रहा है - इसलिए कोई नहीं कह सकता कि नीतियाँ समझ में नहीं आ रहीं। खासतौर पर सब्सिडी को सीधे लाभार्थी को दिए जाना और खुदरा में एफ.डी.आई. को शुरू किए जाना, ऐसी नीतियाँ या उपाय हैं, जिनकी सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है। इन नीतियों के कार्यान्वयन में अब कानूनी तौर पर कोई अड़चन नहीं दिखती। बस वे अन्देशे दिखते हैं जिन्हें मीडिया और नीति विरोधी शक्तियाँ दिखा रही हैं। इसलिए इस पर विचार करने की जरूरत है।
गांवों तक सब्सिडी के रूप में हर जरूरतमंद को सीधे धन पहुँचाने की नीति को लेकर सबसे ज्यादा हलचल है। इसके विरोध में आमतौर पर एक तर्क यह दिया जा रहा है कि यह देश के बहुत बड़े तबके (आम मतदाता) को घूस देने की कोशिश है। विपक्ष के इस आरोप के जबाव में सरकारी विशेषज्ञों का कहना है कि आजादी के बाद से आज तक हर सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह रही है कि अन्तिम व्यक्ति तक मदद कैसे पहुँचे? जितनी नीतियां और कार्यक्रम अन्तिम व्यक्ति के लिए बने, उन सबको नौकरशाही और बिचैलिए खा गए। यह पहली बार है कि अब इन सबकी कोई भूमिका नहीं रही। आम आदमी सीधे लाभ उठा सकेगा। इसी से विरोधियों में घबराहट है कि अगर ऐसा हो गया तो फिर इसकी टक्कर में उनके पास क्या बचा? इससे यह तो साफ है कि सरकार की नीति में कोई शैथिल्य नहीं है। वह जो चाह रही है, धड़ल्ले से कर रही है। हां, यह बात जरूर है कि जैसा दावा सरकार कर रही है, वैसा लाभ क्या वाकई आम आदमी को मिल पाऐगा? तो फिर यह तो क्रियान्वयन की संभावनाओं पर संशय वाली स्थिति हुई। इसमें नीतिगित शैथिल्य कहाँ से आया?
एफ.डी.आई. ऐसी दूसरी नीति है। संसद में लगातार चार दिन की बहस में इस नीति के लगभग हरेक पक्ष पर खूब बातचीत हुई है। कुल मिलाकर इसके विरोध में एक ही तर्क दिया गया कि किराना या खुदरा से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े लगभग 20-25 करोड़ लोगों का क्या होगा? लेकिन यह बात किसी ने नहीं उठाई, सरकार ने भी नहीं, कि अगर यह प्रयोग सफल हो जाता है तो आज खुदरा व्यापार में शोषित हो रहे श्रमिकों और कर्मचारियों की दशा में कितना गुणात्मक सुधार आ जाऐगा? वैसे भी हैरत की बात यह है कि शुरूआत में यह सिर्फ 10 लाख से ज्यादा आबादी के 53 शहरों तक ही सीमित थी और बाद में राजनीतिक परिस्थितियों में निकलकर यह आया कि शुरूआती तौर पर इसका प्रयोग या क्रियान्वयन सिर्फ 15 शहरों में हो पाऐगा। यानि 15 शहरों से प्रायोगिक तौर पर शुरू की जा रही इस नीति का कार्यान्वयन होना है। जिसे लेकर कोई भी कह सकता है कि इसके नतीजों को देखकर ही इसके आगे जाने की सम्भावनाऐं बनेंगी। हाँ, यह तय हो गया है कि ये दोनों नीतियां जल्दी ही शुरू होनी हैं। बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि बगैर ज्यादा शोर मचे ये दोनों काम शुरू हो चुके हैं। यानि ‘नीतिगत शैथिल्य’ का प्रश्न अब प्रासंगिक हुआ नहीं दिखता।
जहाँ तक औघोगिक जगत का आरोप है, वहाँ वाकई सरकार की जबावदेही बनती है। पर केन्द्र की ही क्यों, राज्यों की सरकारें भी कोई प्रभावी विकल्प नहीं दे पाई हैं। पिछले दशक में केवल तीन मुख्यमंत्री ऐसे रहे हैं, नरेन्द्र मोदी, शीला दीक्षित और मायावती जिन्होंने अपनी नौकरशाही पर पकड़ बनाई है। वर्ना राज्य हों या केन्द्र, नौकरशाही आज भी इतनी ताकतवर है कि वो जनता और नेता दोनों को मूर्ख बना रही है। नेता राजनैतिक निर्णय ले या भ्रष्ट आचरण करे तो माना जा सकता है कि यह चुनावी व्यवस्था की मजबूरी है, जहाँ उसका भविष्य अनिश्चित रहता है। पर सुरक्षित वर्तमान और भविष्य को लेकर सरकार का स्थायी अंग बनी नौकरशाही क्यों गलत होने देती है? क्यों सही का समर्थन नहीं करती? क्यों अपने से बेहतर विचारों ओैर कार्यक्रमों को स्वीकारने में उसके अहम को चोट लगती है? जब सबकुछ मिला है तो वो क्यों भ्रष्ट हो जाती है? आज देश में इस झंझट में से निकलकर प्रगति के रास्ते पर चलने का माहौल बनना चाहिए। जिसका एक बड़ा हिस्सा होगा कि जनता नौकरशाही की जबावदेही के लिए पूरा दबाव बनाऐ। फिर जनता में चाहें रतन टाटा हों या मध्यम वर्ग या आम इंसान।

Monday, September 3, 2012

संसद अवरुद्ध कर देश का भला नहीं होगा

कोयला घोटाले पर संसद के सत्र को रोककर सियासी गलियारों में राजनैतिक पार्टियां आगामी लोकसभा चुनाव के लिए अपने-अपने गणित बिठा रही हैं। हो सकता है कि संसद का यह सत्र कोयला घोटाले की भेंट चढ़ जाए। वैसे अभी सत्र समाप्त होने में एक सप्ताह बाकी है। यह भी हो सकता है कि कोई समझौता हो जाए या बिना समझौता हुए ही चुनाव की तैयारी की जाए और संसद भंग हो जाए। लेकिन यह कोई नई घटना नहीं है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में आजादी से लेकर आजतक तमाम घोटाले हुए हैं। उन घोटालों को लेकर भी विपक्ष द्वारा संसद को ठप्प किया जाता रहा है। पर उन घोटालों की न तो कभी ईमानदारी से जांच हुई और न किसी को कभी सज़ा मिली। क्योंकि हमाम में सभी नंगे हैं। फिर भी इस बार भाजपा और उसके सहयोगी दल अपने-अपने राजनैतिक गणित के अनुसार अलग-ठलग बैठे हुए हैं। भाजपा के बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी ने तो यह कहा ही है कि अगला प्रधानमंत्री गैर कांग्रेसी होगा। उनका यह बयान भी आगामी लोकसभा चुनाव की रणनीति को ही दर्शाता है। यदि इस शोर के पीछे वाकई मुद्दा भ्रष्टाचार का है तो ऐसा महौल नहीं बनाया जाता। क्योंकि भ्रष्टाचार के मामले को तो आसानी से हल किया जा सकता था। पर पिछले 65 वर्षां में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर शोर चाहे जितना मचा हो, इसका हल ढूंढने की कोशिश नहीं की गई। इसीलिए जब अन्ना हजारे या बाबा रामदेव जैसे लोग अनशन करने बैठते हैं, तो शहरी पढ़े-लिखे लोगों को लगता है कि रातोरात क्रांन्ति हो जायेगी। भ्रष्टाचार मिट जायेगा। देश सुधर जायेगा। पर भ्रष्टाचार की जड़े इतनी गहरी और इतनी व्यापक हैं कि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जैसे आन्दोलन बुलबुले की तरह समाप्त हो जाते हैं । कुछ नहीं बदलता। इसलिए मौजूदा माहौल में भ्रष्टाचार के विरूद्व शोर मचाने वाले दलों का एजेंडा भ्रष्टाचार खत्म करना नहीं बल्कि सत्तापक्ष पर करारा हमला करके आगमी चुनाव के लिए अपनी राह आसान करना है। मैं आजकल अमेरिका के कुछ शहरों में व्याख्यान देने आया हूं। यहां के अप्रवासी भारतीय जो भाजपा को पहले राष्ट्रभक्त और ईमानदार दल मानते थे, अब उससे इनका मोह भंग हो गया है। संसद में मच रहे शोर पर यह लोग यही कहते हैं कि सब एक थैली के चट्टे-बट्टे हैं।
यदि वाकईं तमाम विपक्षी दल, सत्ताधारी दल, नौकरशाह एवं बुद्धिजीवी वर्ग भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए दृढ़ संकल्पित हैंए तो इस माहौल में एक ठोस शुरूआत आज ही की जा सकती है। बोफोर्स घोटाला, हवाला घोटाला, चारा घोटाला, तेलगी कांड, 2जी घोटाला आदि जैसे दस प्रमुख घोटालों की सूची बना ली जाए। सर्वोच्च न्यायालय के ईमानदार जज, सी.बी.आई. के कड़े रहे अफसर, अपराध कानून के विशेषज्ञ व वित्तीय मामलों के विशषज्ञों को लेकर एक स्वतंत्र निगरानी समिति बने, जो इन घोटालो की जांच अपनी निगरानी में, समयबद्व तरीके से करवाये। तो दूध का दूध और पानी का पानी सामने आ जायेगा। शर्त यह है कि इस समिति के सदस्यो का चयन उनके आचरण के बारे में सार्वजनिक बहस के बाद हो। इस पर सरकार का नियंत्रण न हो व उसे स्वतत्रं जांच करने की छूट दे दी जाए। तो एक भी दल ऐसा नहीं बचेगा जिसके नेता किसी न किसी घोटाले में न फंसे हों। अगर ऐसे ठोस कदम उठाए जाते हैं तो संसद को बार-बार ठप्प करने की जरुरत नहीं पडेगी और भष्टाचार के विरुद्ध एक सही कदम की शुरूआत होगी। पर जनता जानती है कि कोई कभी राजनैतिक दल इसके लिए राजी नहीं होगा। इसलिए जो शोर आज मच रहा है उसका कोई मायना नहीं ।
चूँकि भारत में लोकतांत्रिक पंरपरा है और हर पांच साल में लोकसभा के चुनाव होते हैं, इसलिए सभी दलों को चाहे वे सत्ताधारी हों या विपक्ष में हो, जनता को अपने-अपने कार्य दिखाने होते हैं। इसलिए विपक्ष इस प्रकार के हंगामे खड़े करके संसद ठप्प करता है। पर दूसरी तरफ वह भी जानता है कि हमारा चुनावी तंत्र ऐसा है जिसमें भारी पैसे की जरूरत पड़ती है। इसलिए भ्रष्टाचार मिटाने के लिए कोई भी दल आन्तरिक तौर पर तैयार नहीं दिखता। चूंकि जनता में शासन पद्धति को लेकर हताशा बढ़ती जा रही है, इसलिए संसद से लेकर अखबार, टीवी चैनल और सिविल सोसायटी तक में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर खूब शोर मचाया जा रहा है। पर यह शोर स्टीराइड दवा की तरह काम करता है। जो तत्कालीन फायदा करती है, पर ये लम्बा नुकसान कर देती है। यह शोर भी भ्रष्टाचार को हल करने की बजाए ऐसा माहौल बनाने जा रहा है जिससे राजनैतिक अराजकता और अस्थिरता बढे़गी पर भ्रष्टाचार दूर नहीं होगा।
वैसे देश के सामने और भी तमाम मुद्दे हैंए जो देश के शासन, प्रशासन व अन्य क्षेत्रों को दुरूस्त कर सकते हैं। उनपर संसद में कोई सार्थक बहस कभी नहीं होती। 120 करोड़ की आबादी वाले देश में कभी भी स्वास्थ्य (मिलावट खोरी), जल प्रबंधन, भूमि प्रबंधन, कानून व्यवस्था, न्याय व अन्य मुददो पर, जिनसे जनता का हित जुड़ा है, पर कभी ऐसा शोर नहीं मचता। जहां एक तरफ लोगों के रहने के लिए झोपड़ी नसीब नहीं हैं, वहां इस देश के पटवारी, करोडों की जमीन यूंही मुफ्त में, भवन निर्माताओं के नाम चढ़ा देते है। उन्हें उपर से संरक्षण मिलता है। इस देश में आजतक कितने मिलावटखोरों को सजा हुई हैं ? नदी, कुँए, जमीन के भीतर के पानी में जहर घोलने वाले उद्योगपतियों में से कितने जेल गये हैं ? देश की अदालतों में करोड़ों मुकदमें लटके हुए हैं। एक आदमी को कई पीढ़ियों तक न्याय नहीं मिल पाता है। ऐसे तमाम मुद्दे हैं जिन पर ये राजनेता चर्चा ही नहीं करते। यदि करते भी हैं तो खानापूर्ति करते हैं। इसलिए संसद में आ रहे अवरोध से देश का कोई भला नहीं होगा।

Tuesday, July 17, 2012

मनरेगा योजना कितनी सफल, कितनी विफल ?

सिक्के के दो पहलू की तरह मनरेगा के भी दो पहलू हैं: एक तरफ तो गरीबों के लिए रोजगार सृजन कार्यक्रम को मिली ऐतिहासिक सफलता और दूसरी तरफ योजना के क्रियान्वन में अनेक कमियां और भ्रष्टाचार। हम दोनों की निष्पक्ष चर्चा करेंगे। पहले प्रधानमंत्री के उस दावे का मूल्यांकन किया जाये जिसमें उन्होंने मनरेगा को गरीबों के हक में आजादी के बाद की सबसे सफल योजना बताया है। ये दावा कहां तक सही है ?
मनरेगा की सफलता का सबसे बड़ा प्रमाण गुजरात में मिलता हैं। कपड़े की मिलों के लिए भारत का मैनचैस्टर माना जाने वाला गुजरात का शहर सूरत मनरेगा से धीरे-धीरे तबाह हो रहा है। यहां बिहार के हजारों मजदूर कपड़ा मिलों में काम करते थे। पिछले साल दीपावली पर वे घर गये, फिर लौटे नहीं। क्योंकि मनरेगा के चलते अब उन्हें अपने गांव में ही इतना रोजगार मिलने लगा है कि उनके परिवार का गुजारा चल जाता है।

एक समय हरित क्रान्ति का अग्रणी रहा पंजाब गरीब प्रान्तों के मजदूरों के लिए बहुत बड़ा रोजगार देने वाला था। ढोल की थाप पर नाचने वाले सम्पन्न सिख और जाट किसानों के खेतों का काम ये मजदूर किया करते थे। अब हालात बदल गये हैं। अब बिहार, मध्य प्रदेश आदि राज्यों से आने वाली जनता रेल गाड़ियों में मजदूरों की खेप नहीं आती। नतीजतन बड़े किसान अपनी मोटर गाड़ियां लेकर रोज सुबह रेलवे स्टेशन पर खड़े होते हैं। इस उम्मीद में कि जिन मजदूरों पर भी हाथ लग जाये, उन्हें झपट लिया जाये। इस चक्कर में कई बार इन बड़े किसानों के आपस में झगड़े और मारपीट भी हो जाती है। यह है मनरेगा की सफलता का एक और नमूना।

सुनने में यह अटपटा लगेगा पर विचारने का बिन्दु जरूर है। अगर हम नक्सलवादी विचारधारा के अनुसार अमीरों की अमीरी उनसे छीनकर गरीबों में नहीं बांट सकते, तो क्यों ना गरीबी का देशभर में समान बंटवारा कर दिया जाये। मतलब ये कि ऐसा ना हो कि एक जगह के गरीब तो बच्चे बेचकर और पेड़ों की जड़े पकाकर पेट भरें और दूसरी तरफ देश में गरीबी का मापदंड बढ़ते जीवन स्तर से मापा जाये। मनरेगा ने यही किया है। राष्ट्रीय संसाधनों का इस योजना ने इस तरह बंटवारा किया है कि देश के हर हिस्से में रहने वाले गरीब मजदूरों को साल मंे कम से कम सौ दिन के रोजगार की गारंटी मिल गई है। इसका सीधा असर कस्बों के स्तर तक देखने को मिल रहा है। पहले कस्बों और छोटे शहरों में दिहाड़ी मजदूर 80 रूपये रोज में मिल जाते थे। अब ढाई सौ रूपये से कम का मजदूर नहीं मिलता। इतना ही नहीं अब हर क्षेत्र में रोजगार मांगने वालांे की अपेक्षाएं और वेतन बढ़ गये हैं। जाहिरन इससे उनका जीवन स्तर भी बढ़ा है। 

इस तरह मनरेगा के कारण देशभर में दैनिक मजदूरी में औसतन 81 फीसदी का इजाफा हुआ है। यह अपने आप में अकेली घटना नहीं है। क्योंकि जब मजदूरों की मजदूरी बढ़ी तो अन्य क्षेत्रों में काम करने वाले निचले दर्जे के कर्मचारियों की वेतन वृद्वि की मांग भी बढ़ गई। कुल मिलाकर पूरे देश में गरीबों और निम्न वर्ग को मनरेगा से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बहुत बड़ा फायदा हुआ है। इस उपलब्धि को कम करके नहीं आंका जा सकता। रोजगार की मंडी का मजदूरों के हक में हो जाना किसी क्रान्ति से कम नहीं। यह क्रान्ति विचारधारा की या व्यवस्था के विरूद्व बगावत की घुट्टी पिलाकर नहीं आई। यह आई है मनरेगा की सोची समझी कार्य योजना के कारण निश्चित तौर पर सरकार ने जिससे भी यह योजना बनवाई उसने अब तक की ऐसी सभी योजनाओं को पीछे छोड़ दिया, जिनमें गरीबी दूर करने का लक्ष्य रखा जाता था। इसीलिए सरकार के इस कार्यक्रम का आज पूरी दुनियां में अध्ययन किया जा रहा है। इसलिए प्रधानमंत्री या कांग्रेस सरकार का अपनी पीठ ठोकना नाजायज नहीं है।

पर ऐसा नहीं है कि मनरेगा में सब कुछ सोने की तरह चमक रहा है। अनेक खोट भी है। ग्रामीण स्तर पर मनरेगा के तहत जो कार्य योजनाएं बनाई जा रही हैं इनकी उपयोगिता और सार्थकता पर कई जगह प्रश्न चिन्ह लगाये जा रहे हैं। वेतन के भुगतान में देरी। करवाये जा रहे काम की गुणवत्ता में स्थान-स्थान पर अन्तर होना। मनरेगा के क्रियान्वन में ग्राम प्रधान से लेकर जिलाधिकारी तक का अक्सर घपले घोटालों में फंसा होना। मजदूरों के पंजीकरण में फर्जीवाड़ा। खर्च का सही हिसाब न रखना। कुछ ऐसे दोष हैं जो मनरेगा के क्रियान्वन के काफी मामलों में सामने आये हैं। जिन की सरकार को जानकारी है और इनका निराकरण किया जाना चाहिए। यह बात दूसरी है कि मनेरगा का क्रियान्वन प्रान्तीय सरकारों के हाथ में है। जिन राज्यों में आम लोगों में जागरूकता है और प्रशासन में जिम्मेदारी का माद्दा ज्यादा है, वहां यह योजना ज्यादा सफल हुई है। जहां ऐसा नहीं है और ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार और कोताही का बोलबाला है वहां मनरेगा मुह के बल गिरी है। पर इसके लिए केन्द्र सरकार को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यह कहना भी गलत होगा कि यह योजना कारगर नहीं है।
विपक्षी दल मनरेगा को नकारते हैं। उनका आरोप है कि यह कागजी योजना है। जमीनी हकीकत इससे कोसो दूर है। वे यह भी कहते हैं कि अगर पांच करोड़ लोगों को इससे लाभ मिलने का जो दावा किया जा रहा है, उसे सही भी मान लिया जाये, तो इससे गरीबी तो दूर नहीं हुई। बाकी 10 करोड़ लोगों को तो कुछ नहीं मिला। यहां सवाल उठाया जा सकता है कि गिलास को आधा भरा देखें या आधा खाली। एक तिहाई गरीब लोगों को अगर फायदा मिला है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले समय में सौ फीसदी लोग इसके लाभ के घेरे में आ जायेंगे। सिर्फ इसलिए कि सबकों एक साथ लाभ नहीं मिल सकता, क्या जिन्हें मिल सकता है उन्हें भी न दिया जाये ?

जरूरत है इस योजना के सही और गहरे मूल्यांकन की। इसमें सामाजिक आडिट को बढ़ाने की भी जरूरत है। आधुनिक सूचना तकनीकी का इस्तेमाल करके मनरेगा के काम में पारदर्शिता और पर्यवेक्षण को बढ़ाना चाहिए। देश में पेन्शनयाफ्ता लोगों की एक लम्बी फौज बेकार पड़ी है। स्वास्थ के क्षेत्र में सुधार के कारण लोगों की औसत आयु बढ़ गई है। ऐसे लाखों लोगों को मनरेगा जैसी जनहित की योजनाओं के क्रियान्वन में कार्यकुशलता सुनिश्चित करने के काम में लगाया जा सकता है। उधर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अध्यक्षा सोनिया गांधी इस कार्यक्रम को लेकर बहुत सतक्र हैं। क्योंकि वे जानती हैं कि आम जनता के हित का यह कार्यक्रम अगर पूरी तरह सफल हो गया तो सामाजिक आर्थिक विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि होगी। इसलिए मनमोहन सिंह की सरकार भी दबाव में है। उम्मीद की जानी चाहिए कि मनरेगा का अगला संस्करण इन कमियों को दूर करने की तरफ ध्यान देगा।

Monday, July 2, 2012

डॉ. कलाम का खुलासा और सोनिया गाँधी

भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने अपनी ताजा पुस्तक टर्निंग पाइंट्स में 2004 के लोकसभा चुनाव के बाद के घटनाक्रम का खुलासा करके एक बहुत बड़े रहस्य पर से पर्दा उठा दिया है। उस समय श्रीमती सोनिया गाँधी ने अपनी पार्टी के सभी सांसदों के भावुक अनुरोधों को ठुकराते हुए प्रधानमंत्री पद न स्वीकारने का फैसला किया था। जब उन्होंने डॉ. मनमोहन सिंह का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया, तो भाजपा व संघ से जुड़े संगठनों ने पूरे देश में यह अफवाह फैलाई कि राष्ट्रपति डॉ. कलाम ने सोनिया गाँधी को प्रधानमंत्री बनने से रोका। अफवाह यह फैलाई गई कि सोनिया गाँधी अपने समर्थन के सांसदों की सूची लेकर जब राष्ट्रपति भवन पहुंची तो डॉ. कलाम ने उन्हें संविधान का हवाला देकर उनके विदेशी मूल के आधार पर प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाने से मना कर दिया। इस घटना को 8 वर्ष बीत गये पर न तो श्रीमती गाँधी ने इसका खंडन किया और न ही संघ परिवार ने इसके तर्क में कभी कोई प्रमाण प्रस्तुत किए। आम आदमी को यही कहकर बहकाया गया कि सोनिया गाँधी तो प्रधानमंत्री का पद हड़पने को अधीर थीं किन्तु उन्हें बनने नहीं दिया गया। अब जब डॉ. कलाम ने अपनी ताजा पुस्तक में यह साफ कर दिया कि ऐसा कुछ नहीं हुआ था बल्कि अफवाह के विपरीत डॉ. कलाम ने तो यह लिखा है कि वे श्रीमती गाँधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलावाने के लिए तैयार थे पर वे ही तैयार नहीं थीं। जब वे डॉ. मनमोहन सिंह के नाम का प्रस्ताव लेकर राष्ट्रपति से मिलीं तो डॉ. कलाम उनके इस अप्रत्याशित प्रस्ताव पर हतप्रभ रह गये।
यह पहली बार नहीं जब भाजपा व संघ परिवार अपनी संकुचित मानसिकता के चलते श्रीमती गाँधी के मामले में इस तरह बेनकाब हुआ है । राजीव गाँधी के जीवन में जबसे सोनिया आईं हैं इसी मानसिकता से उनके खिलाफ निराधार प्रचार किया जा रहा है। हर बार अफवाह फैलाने वालों को मुंह की खानी पड़ी है। जब 1977 में श्रीमती गाँधी चुनाव हारीं तो इसी समूह ने यह अफवाह फैलाई थी कि सोनिया गाँधी तो केवल श्रीमती गाँधी की सत्ता का सुख भोगने तक उनकी बहू थीं। उनका माल-टाल से भरा हवाई जहाज दिल्ली के हवाई अड्डे पर तैयार खड़ा है और चुनाव परिणाम आते ही वे अपने बच्चों और पति को लेकर इटली भाग जायेंगी। पर ऐसा नहीं हुआ। सोनिया यहीं रहीं। राजीव गाँधी की दर्दनाक हत्या के बाद विदेशी मूल की कही जाने वाली सोनिया गाँधी के लिए भारत में रहने का कोई औचित्य नहीं था। उनका जीवन असुरक्षित था। उनके बच्चे छोटे थे। भारत की राजनीति में उनकी कोई जगह नहीं थी। उस वक्त भी यही प्रचारित किया गया कि वे अब इटली चली जायेंगी। पर वे यहीं रहीं। एक आदर्श विधवा की तरह अपने गम को पीती रहीं और समाज और राजनीति से लम्बे समय तक कटी रहीं।
अब यह तीसरी बार है जब एक बड़े आरोप से उन्हें अनायास ही मुक्ति मिल गई है। डॉ. कलाम अगर यह खुलासा न करते तो देश के बहुत से लोगों को यह गलतफहमी रहती कि सोनिया प्रधानमंत्री बनना चाहती थीं। किन्तु उन्हें डॉ. कलाम ने बनने नहीं दिया। यह गम्भीरता से सोचने की बात है कि संघ और भाजपा नेतृत्व की सोच इतनी संकुचित क्यों है ? अक्सर मेरे पाठक या टी.वी. पर चर्चाओं में मुझे सुनने वाले यह सवाल करते हैं कि आप भ्रष्टाचार या अन्य मुद्दों पर तो बड़ी सख्ती से सभी दलों पर हमला करते हैं पर आपके हमले की धार भाजपा पर ज्यादा क्यों रहती है। क्या आप भी छद्म धर्मनिरपेक्षवादी हो गये हैं ? उत्तर साफ है मैं सनातन धर्म में गहरी आस्था रखता हुआ भगवान श्री राधाकृष्ण के भक्तों की चरण रज का आकांक्षी हूँ। पर मेरा गत 30 वर्ष का पत्रकारिता का अनुभव बताता है कि संघ और भाजपा ने लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ कर समाज में विद्वेश को ही भड़काया है। विभिन्न धर्मों के मानने वालों से बना भारतीय समाज उदारता की भावना रखता है और सनातन संस्कृति में विश्वास रखता है । उसको विगत 50 वर्षों में ऐसी मानकिसता के लोगों ने बार-बार नष्ट भ्रष्ट किया है। इसका जवाब जनता उन्हें अब दे रही है।
इस मानसिकता के ज्यादातर लोग अफवाहें फैलाने में उस्ताद हैं। ऐसा मैंने बार-बार अनुभव किया। 1993 में जब मैंने आतंकवाद और भ्रष्टाचार से जुड़े जैन हवाला काण्ड को उजागर किया तो उसमें भाजपा के 4-5 नेता ही फंसे थे जबकि कांग्रेस के दर्जनों नेताओं के राजनैतिक जीवन दांव पर लग गये थे। पर देश और धर्म की दुहाई देने वाले संघ और भाजपाईयों ने इस लड़ाई में मेरा साथ देना तो दूर मेरे खिलाफ देश विदेश में यह प्रचार किया कि मैं कांग्रेस के हाथ में खेलकर भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री बनने से रोक रहा हूँ। मेरे खिलाफ संघ के एक बड़े नेता ने अंग्रेजी पुस्तिका छपवाकर पूरी दुनिया में बंटवाई। ये बात दूसरी है कि उस पुस्तिका में झूठ का सहारा लेकर आडवाणी जी को बचाने का जो तानाबाना बुना गया था उसे मैं देश विदेश की अपनी जन सभाओं में बड़े तार्किक रूप से ध्वस्त करता चला गया। पर यह टीस मेरे मन में हमेशा रहेगी कि 1993 में ही जब मैंने देश के 115 सबसे ताकतवर राजनेताओं और अफसरों के विरुद्ध शंखनाद किया था तो संघ और भाजपा ने एक व्यक्ति को बचाने के लिए अपने संगठन और राष्ट्रहित की बलि दे दी।
पिछले वर्ष जब टीम अन्ना के दो स्तम्भ वही सामने आए जो इस ऐतिहासिक संघर्ष को विफल करने के देशद्रोही कार्य में संलग्न थे तो मुझे मजबूरन टी.वी. चैनलों पर जाकर टीम अन्ना को आड़े हाथों लेना पड़ा। चूंकि भाजपा व संघ टीम अन्ना के कंधों पर बंदूक रखकर अपनी राजनीति कर रही है इसलिए मुझे इन सभी टी.वी. चर्चाओं में मजबूरन भाजपा व संघ को फिर कटघरे में खड़ा करना पड़ा। भगवत कृपा से भाजपा के जो भी बड़े नेता इन चर्चाओं में मेरे विरुद्ध बैठते रहे हैं वे मेरी बात का कोई जवाब नहीं दे पाये। अब 2014 के लोकसभा चुनाव को लक्ष्य बनाकर फिर संघ और भाजपा सोनिया गाँधी की नैतिकता पर लगातार चोट कर रहे हैं। देश की जनता को गुमराह कर रहे हैं। मैं टीम अन्ना की तरह किसी को चरित्र प्रमाण पत्र देने का दंभ नहीं पालता। मैं यह मानता हूँ कि आज की राजनीति में भ्रष्टाचार शिष्टाचार बन चुका है और कोई दल इससे अछूता नहीं। पर मैं यह मानने को तैयार नहीं कि भाजपा और संघ की कमीज दूसरों से ज्यादा सफेद है। सोनिया गाँधी पर उनका लगातार परोक्ष और सीधा हमला जनता को गुमराह करने के लिए है। जैसे उन्होंने पिछले 40 वर्षों में किया है। विरोध मुद्दों और आर्थिक या अन्य नीतियों का विचारधारा के आधार पर हो तो यह लोकतंत्र के लिए अच्छा होता है। पर तंग दिल और दिमाग से झूठा प्रचार करने वाले देश के हित में कोई बड़ा काम कभी नहीं कर पायेंगे।

Monday, June 18, 2012

राष्ट्रपति चुनाव में बहुतों की फजीहत


ममता बनर्जी चाहे कितने ही जोर से कहे कि खेल अभी खत्म नहीं हुआ पर राष्ट्रपति चुनाव में उन्होंने अपनी पूरी फजीहत करवा ली। उन्होंने क्या सोचकर प्रधानमंत्री का नाम सुझाया ? जिसका उन्हें कोई हक नहीं था। डा. अब्दुल कलाम भी बिना जीत की गारंटी के अपनी फजीहत नहीं करवाना चाहते। सोमनाथ चटर्जी को पता है कि वामपन्थी दल और एन.डी.ए. सहित कोई उनके नाम पर सहमत नहीं है। फिर यह नाम क्यों उछाले गये ? मुलायम सिंह यादव तो यह कहकर किनारा कर गये कि यू.पी.ए. ने राष्ट्रपति के उम्मीदवार का नाम घोषित करने में देर की, इसलिए उन्होंने जो ठीक समझे नाम सुझा दिये। अब प्रणवदा चूंकि सर्वश्रेष्ठ उम्मीदवार हैं इसलिए सपा उनका समर्थन करेगी। पर दीदी क्यों अकड़ी रहीं ? यह जानते हुए भी कि बंगाल के लोगों को अपनी संस्कृति और अपने बंगाली होने का जितना गर्व है उतना शायद किसी दूसरे प्रान्त के निवासियों को नहीं होगा। बंगाली आज भी इस बात को भूले नहीं है कि सुभाष चन्द्र बोस को आजाद भारत में  अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाने का मौका नहीं मिला। अब जबकि पहली बार एक बंगाली के राष्ट्रपति बनने का मौका आया है तो दीदी उसमें पलीता लगा रही हैं। इसका ममता बनर्जी को खासा खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।
वैसे राष्ट्रपति की उम्मीदवारी को लेकर जिस तरह दलित, महिला, या मुसलमान के चयन किये जाने की बातें अनेक दलों ने उठाई उससे इस गरिमामय पद की प्रतिष्ठा को आघात लगा है। राष्ट्रपति किसी दल, समुदाय, श्रेत्र या जाति का ना होकर पूरे राष्ट्र का प्रतिनिधि होता है। देश मंे प्रधानमंत्री को सत्ता का प्रतीक माना जाता है। पर अन्तर्राष्ट्रीय जगत में  राष्ट्रपति को ही देश का सदर मानकर सम्मानित किया जाता है। अगर कोई यह कहे कि यह तो उनका राष्ट्रपति है, हमारा नहीं, तो फिर लोकतन्त्र का मायना क्या बचा ? विधानसभा या लोकसभा चुनाव में जीतने वाला प्रत्याशी 25-26 फीसदी मतों पर जीत जाता है। तो क्या उस विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र के लोग उसे उनका विधायक या सांसद कहते है या पूरे क्षेत्र का ? जाहिर है कि जीतने के बाद वह पूरे क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है और सबकी सुध लेता है। इसी तरह राष्ट्रपति भी चुन जाने के बाद पूरे देश का हो जाता है।
वैसे भी प्रणव मुखर्जी का व्यक्तित्व ऐसा नहीं है कि उनके बारे में किसी संशय हो। उनके विरोधियों को ही नहीं अपनों को भी पता हैं कि प्रणवदा कैसे आदमी हैं। दिल्ली के राजनैतिक गलियारों में यू.पी.ए 1 के समय से ही यह चर्चा रही कि प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे उपयुक्त उम्मीदवार होने के बावजूद उन्हें यह जिम्मेदारी इसलिए नहीं मिल पाई क्योंकि वे अपनी स्वतन्त्र सोच रखते हैं। ऐसे में उनके दल के नेताओं को यह संशय रहा कि किसी नाजुक मोड़ पर प्रणवदा अलग भी निर्णय ले सकते हैं। यह बात विपक्षीदल भी जानते हैं। इसलिए उन्हें प्रणवदा का समर्थन करने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए। व्यक्तिगत स्तर पर भी प्रणवदा के सभी दलों के लोगों से मधुर सम्बन्ध हैं।
इस चुनावी दंगल में एन.डी.ए. की फजीहत भी कम नहीं हुई। अपने उम्मीदवार की घोषणा एन.डी.ए. ने इसलिए नहीं की कि पहले यू.पी.ए. का नाम सामने आ जाये। उसकी फजीहत हो जाये तब हम अपनी शतरंज बिछायेंगे। पर पासा उल्टा पड़ गया, जिन अब्दुल कलाम को दुबारा राष्ट्रपति बनाने की बात एन.डी.ए. में चल रही थी, वे खुद ही आम सहमति के बिना चुनाव लड़ना नहीं चाहते। उधर प्रणव मुखर्जी के नाम पर देश में जैसी प्रतिक्रिया अब तक मिली है उससे साफ जाहिर है कि एन.डी.ए. के लिए अपना उम्मीदवार जिताना सम्भव न होगा। कमजोरी की हालत में यू.पी.ए. एन.डी.ए. से डील कर सकती थी कि राष्ट्रपति हमारा और उपराष्ट्रपति तुम्हारा। पर अब शायद इसकी जरूरत न पड़े। उधर भाजपा में दो खेमे हैं। प्रणवदा को जानने वाले कह रहे हैं कि एन.डी.ए. को उनका समर्थन करना चाहिए। पर दूसरा खेमा ऐसे मौके पर खुद को कांग्रेस के खिलाफ खड़ा दीखना चाहता है। अभी अंतिम निर्णय होना बाकी है।
इस चुनाव में पी.ए. संगमा और राम जेठमलानी जबरदस्ती कूदकर सस्ती प्रसिद्वि पाना चाहते हैं। संगमा को तो उनके ही दल राकापा का समर्थन नहीं है और जेठमलानी को कोई भी दल गम्भीरता से नहीं लेता। क्योंकि वो कब क्या कर बैठें किसी को पता नहीं। दरअसल राष्ट्रपति के चुनाव को लेकर जैसी गम्भीरता और परिपक्वता राजनैतिक दलों को दिखानी चाहिए थी, वैसी उन्होंने नहीं दिखाई। अपने स्थानीय मतदाता को प्रभावित करने का मौका समझकर सब ने इस चुनाव को एक मखौल बना दिया। जो लोकतन्त्र के लिए स्वस्थ परम्परा नहीं है। उम्मीद की जानी चाहिए कि राष्ट्रपति का चुनाव निर्विघ्न सम्पन्न हो और सभी दल चिन्तन करें कि भविष्य में राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति पद पर चयन आम सहमति से हो, इससे लोकतन्त्र की गरिमा बढ़ेगी। अल्पमत की साझी सरकारों के दौर में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार की गरिमा बचाने का भी यही एक तरीका होगा।